मुसलमानों के लिये ऐसे हुक्मरान की इताअत फर्ज़ है जो अपनी हुकूमत में इस्लाम
के अहकामात को नाफिज़ करे। अगर चे वो ज़ालिम हो और लोगों के हुक़ूक को दबाने वाला हो,
जब तक मासियत का हुक्म ना दे और जब तक इससे कुफ्रे बुवाह (साफ साफ कुफ्र) ना हो
जाए।
हुक्मरान की इताअत की फर्ज़ियत की दलील क़ुरआन की आयात और अहादीस नबवी से वाज़ेह
है । अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इरशाद फरमाया:
يَـٰٓأَيُّہَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُواْ
ٱلرَّسُولَ وَأُوْلِى ٱلۡأَمۡرِ مِنكُمۡ
ऐ ईमान वालों इताअत करो अल्लाह की और इताअत करो रसूल की और अपने
में से उलिल अम्र (हुक्मरानों) की भी
(अन्निसा:59)
बुखारी ने अबू सलमा बिन अब्दुर्रहमान से रिवायत किया के उन्होंने अबु हुरेरह (رضي
الله عنه) को ये कहते हुये सुना के रसूलुल्लाह صلى
الله عليه وسلم ने इरशाद फरमाया :
((من
أطاعني فقد أطاع اللّٰہ، و من عصاني فقد عصی اللّٰہ، من أطاع أمیري فقد أطاعني، و من
عصی أمیري فقد عصاني))
जिस ने मेरी इताअत की उस ने अल्लाह की इताअत की और जिसने मेरी
नाफरमानी की गोया उसने अल्लाह की नाफरमानी और जिसने मेरे अमीर की इताअत की तो गोया
उसने मेरी इताअत की और जिस ने मेरे अमीर की नाफरमानी की गोया उसने मेरी नाफरमानी की
एक और रिवायात में ये अल्फाज़ वारिद हुये :
((...من
یطع الأمیر فقد أطاعني...))
जिस ने अमीर की इताअत की उसने गोया मेरी इताअत की
बुखारी ने अनस बिन मालिक (رضي
الله عنه) से रिवायत किया के रसूलुल्लाह صلى
الله عليه وسلم ने इरशाद फरमाया:
((إسمعوا
و أطیعوا و إن استُعمل علیکم عبد حبشي کأن رأسہ زبیبۃ))
सुनो और इताअत करो ख्वाह तुम पर काला हब्शी मुक़र्रर कर दिया
जाये जिस का सर किशमिश की तरह का हो
मुस्लिम ने उमरो बिन अलआस (رضي
الله عنه) से रिवायत किया है कि आप صلى
الله عليه وسلم ने फरमाया:
((ومن
بایع إماماً فأعطاہ صفقۃ یدہ، وثمرۃ قلبہ فلیطعہ إن استطاع ‘ فإن جاء آخر ینازعہ فاضربوا
عنق الآخر))
और जो शख्स किसी इमाम (खलीफा) की बैअत करे तो इसे अपने हाथ का
मुआमला और दिल का फल दे दे (यअनी सब कुछ उसके हवाले कर दे ) फिर उसे चाहीये की वो हस्बे
इस्तेताअत उसकी इताअत भी करे। और अगर कोई दूसरा शख्स आए और पहले खलीफा से तनाज़अ करे
तो दूसरे की गर्दन उडा दो
ये इस बात की साफ दलील है कि हुक्मरान की इताअत फर्ज़ है क्योंकी अल्लाह سبحانه
وتعال ने उलिल अम्र , अमीर या इमाम की इताअत का हुक्म दिया
है। जो क़रीना इसके हुक्म के क़तई (याअनी फर्ज़) होने पर दलालत करता है वो ये है के
रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने अमीर की नाफरमानी को अपनी और अल्लाह की नाफरमानी की मानिन्द
क़रार दिया।आप صلى الله عليه
وسلم ने इताअत करने पर ज़ोर दिया अगर चे हुक्मरान एक काला
हब्शी ही क्यों ना हो । ये सब इस बात के क़राईन हैं के ये हुक्म क़तई है लिहाज़ा
हुक्मरान की इताअत फर्ज़ है।
हुक्मरान का ये हुक्म मुतलक़ (स्थाई) है और ये किसी खास हुक्मरान या किसी खास
सूरते हाल से मुक़ीद नहीं। लिहाज़ा किसी भी मुसलमान हुक्मरान की इताअत करना फर्ज़ है
ख्वाह वो ज़ालिम , फासिक़ और लोगों के अमवाल को नाहक़ ग़सब करने वाला ही क्यों ना हो ।
इस की इताअत वाजिब है क्योंकि इस के दलायल मुतलक़ अन्दाज़ में वारीद हुए हैं और ये
मुक़ीद नहीं और इन का इतलाक़ इसी तरह करना चाहिये। यहाँ तक के कुछ अहादीस ऐसी भी
वारीद हुई है जिन में बयान किया गया के हुक्मरान की इताअत वाजिब है ख्वाह वो ज़ालिम
या फाजिर ही क्यों ना हो । बुखारी ने अब्दुल्लाह से रिवायत किया के रसूलुल्लाह صلى
الله عليه وسلم ने हमें फरमाया:
((إنکم
سترون بعدي أثرۃ و أموراً تُنکرونھا . قالوا: فما تأمرنا یا رسول اللّٰہ؟ قال: أدو
إلیھم حقھم ، و سلوا اللّٰہ حقکم))
तुम मेरे बाद खुद ग़रज़ी और ऐसे मुआमलात देखोगे जिन्हें तुम नापसन्द
करोगे। उन्होंने सवाल किया : ऐ अल्लाह के रसूल صلى
الله عليه وسلم आप हमें क्या हुक्म देते हैं । आप صلى
الله عليه وسلم ने जवाब दिया : उन्हें उनका हक़ दो और अपना हक़ अल्लाह से तलब
करो
और बुखारी ने अबू रजा से रिवायत किया जिन्होंने अब्दुल्लाह बिन अब्बास (رضي
الله عنه) से सुना के रसूलुल्लाह صلى
الله عليه وسلم ने इरशाद फरमाया :
((من
رأی من أمیرہ شیئاً یکرھہ فلیصبر علیہ‘ فإنہ مَنْ فارق الجماعۃ شِبراً فمات إلا مات
میتۃ جاھلیۃ))
जो किसी भी अपने अमीर में कोई ऐसी बात देखे जो उसे नापसन्द हो
तो वो इस पर सब्र करे क्योंकी जो कोई भी (मुसलमानों की) जमाअत से बालिश्त बराबर भी
अलग हुआ और उसी हालत में उसे मौत आ गई तो वो जाहिलियत की मौत मरा
ये अहादीस इस बात के बयान में बिल्कुल साफ है के हुक्मरान की इताअत फर्ज़ है
ख्वाह इसका अमल कैसा ही क्यों ना हो । रसूलुल्लाह صلى
الله عليه وسلم ने इस बात पर सख्ती से ज़ोर दिया जैसा के मुस्लिम ने
नाफे से और उन्होंने अब्दुल्लाह बिन उमर (رضي
الله عنه) से रिवायत किया के मेंने रसूलुल्लाह صلى
الله عليه وسلم को ये फरमाते हुये सुना:
((من
خلع یدا من طاعۃ لقي اللّٰہ یوم القیامۃ لاحجۃ لہ ومن مات ولیس في عنقہ بیعۃ مات میتۃ
جاھلیۃ))
जो शख्स (अमीर की) इताअत से अपना हाथ खैंच ले तो क़यामत के दिन
वो अल्लाह से इस हालत में मिलेगा के उसके पास (अपने इस अमल की ) कोई दलील ना होगी।
और जो कोई इस हाल में मरा के उसकी गर्दन में खलीफा से बैअत (का तौक़) ना हो तो वो जाहिलियत
की मौत मरा
अब्दुल्लाह बिन उमर (رضي الله عنه) की जो हदीस हाकिम ने रिवायत की उसमें है के रसूलुल्लाह صلى
الله عليه وسلم ने इरशाद फरमाया :
((من
خرج من الجماعۃ قید شبر فقد خلع ربقۃ الإسلام من عنقہ حتی یراجعہ ، قال و من مات و
لیس علیہ إمام جماعۃ فإن موتتہ موتۃ جاھلےۃ ))
जो बालिश्त बराबर भी जमाअत से अलग हुआ तो गोया उसने इस्लाम की
गिरह को अपनी गर्दन से खोल दिया, जब तक के वो वापस ना लोट आए। और जो कोई इस हाल में मरता है के
मुसलमानों की जमाअत का इमाम उस पर हुक्मरान नहीं तो इस की मौत जाहिलियत की मौत है
लिहाज़ा हुक्मरान की नाफरमानी करना जायज़ नहीं चाहे हुक्मरान कैसा ही हो । और ना
ही इस के खिलाफ बग़ावत करना और उस से लडना जायज़ है चाहे वो कैसा ही सलूक करे ।
बुखारी ने अब्दुल्लाह बिन उमर ( رضي
الله عنه) से रिवायत किया के रसूलुल्लाह صلى
الله عليه وسلم ने इरशाद फरमाया:
((من حمل علینا السلاح فلیس مِنّا))
जिस ने हमारे खिलाफ हथियार उठाया वो हम में से नहीं
इसी तरह हुक्मरान के साथ इस की ऑथोरिटी के मुताल्लिक़ तनाज़अ करना भी जायज़
नहीं चाहे उसकी वजह कोई भी हो । मासिवाए
एक बात के जो के नस में वारीद हुई है याअनी जब उसकी तरफ वाज़ेह कुफ्र ज़ाहिर हो जाए। हुक्मरान के खिलाफ लडने की
मुमानियत भी सरीहन वारिद हुई है चाहे उससे कोई मुंकर ही सरज़द क्यों ना हुआ हो
क्यों की मुस्लिम ने उम्मे सलमा से रिवायत किया के रसूलुल्लाह صلى
الله عليه وسلم ने इरशाद फरमाया:
((ستکون
أمراء فتعرفون وتنکرون، فمن عرف برء، ومن أنکرسلم، ولکن من رضي وتابع، قالوا
أفلانقاتلھم؟قال:لا،ماصلّوْا))
ऐसे अमीर होंगे जिन के (बाज़ कामों को ) तुम मारूफ पाओगे और
(बाज़ को) मुंकर । तो जिसने पहचान लिया वो बरी हुआ और जिसने इंकार किया वो (गुनाह से)
महफूज़ रहा । लेकिन जो राज़ी रहा और ताबेदारी की
(वो बरी हुआ ना महफूज़ रहा) । पूछा गया: या रसूलुल्लाह صلى
الله عليه وسلم क्या हम नहीं तलवार के ज़रीये बाहर ना निकाल फैंके ? आप ने फरमाया: नहीं जब तक वो नमाज़ पढते रहें
और मुस्लिम ने औफ बिन मालिक (رضي
الله عنه) से जो हदीस रिवायत की , इसके अल्फाज़ में :
((۔۔۔قیل
یارسول اللّٰہ: أفلا ننابذھم بالسیف؟ فقال: لا، ما أقامو فیکم الصلاۃ ...))
“.....ये कहा गया ऐ अल्लाह के रसूल صلى
الله عليه وسلم क्या हम उन्हें बज़ोरे शमशीर निकाल बाहर ना करें । आप صلى
الله عليه وسلم ने जवाब दिया : नहीं जब तक के वो तुम्हारे दरमियान नमाज़ क़ायम रखें...”
और मुस्लिम ने उबादा बिन सामित (رضي
الله عنه) से बैअत के मुताल्लिक़ ये अल्फाज़ रिवायत किये
((و أن لا ننازع الأمر أہلہ، قال: إلا أن ترو کفراً بَواحاً عندکم
من اللّٰہ فیہ برہان))
और अह्ले अम्र के साथ तनाज़अ ना करना जब तक के तुम उनकी तरफ से सरीह कुफ्र ना देख लो
जिस के मुताल्लिक़ तुम्हारे पास अल्लाह की तरफ से बुरहान (साफ दलील) मोजूद ना हो
ये तमाम नुसूस हुक्मरान के खिलाफ बग़ावत करने , उससे क़िताल करने और ऑथोरिटी पर हुक्मरान से तनाज़अ
(झगडा) करने की मुमानियत में वाज़ेह हैं । इसके अलावा ये अहादीस इस बात की तरफ भी
इशारा करती हैं के हुक्मरान की इताअत लाज़िम है चाहे वो कितना ही ज़ालिम क्यों ना हो
और इस से कितने ही मुंकरात सरज़द क्यों ना हों। ये तमाम अहादीस हुक्मरान की मुकम्मल
इताअत का मुतालबा (माँग) करती हैं। वो
आयात और अहादीस जो मारूफ का हुक्म देने और मुंकर
से मना करने यहाँ तक की हाथ से मुंकर को रोक देने के मुताल्लिक़ आम
अन्दाज़ में वारीद हुई हैं । उनका इतलाक़ हुक्मरान पर नहीं होता क्योंकी ये अहादीस
उनको खास करती हैं और हुक्मरान को इससे बरी क़रार देती है । लिहाज़ा हुक्मरान की
इताअत मुतलक़ और ग़ैर मुक़ीद है मासिवाए वो सूरते हाल जो बयान की गई
मासियत (गुनाहों) पर आधारित हुक्म की कोई इताअत नहीं:
एक मुआमला जो हुक्मरान की इताअत से मुसलमानों को मुस्तसना (बरी) करता है वो ये
है के जब हुक्मरान उन्हें मासियत का हुक्म दे । नाफे ने इब्ने उमर (رضي
الله عنه) से रिवायत किया के
रसूलुल्लाह صلى الله عليه
وسلم ने इरशाद फरमाया:
((علی
المرء المسلم السمع و الطاعۃ فیما أحبَّ وکرہ ، إلا أن ےؤ مَر بمعصےۃ ، فان أَمِرَ
بمعصےۃ فلا سمع و لا طاعۃ))
एक मुसलमान पर लाज़िम है की वो सुने और इताअत करे ख्वाह उसे पसन्द
हो या नहीं सिवाये जब उसे मासियत का हुक्म दिया जाये । पस उसे अगर मासियत का काम करने
का हुक्म दिया जाये तो वो ना सुने और ना ही
इताअत करे
(इस हदीस को मुस्लिम ने रिवायत किया है)
याअनी अगर हुक्मरान किसी मुसलमान को गुनाह का कोई काम करने का हुक्म दे ना के
हुक्मरान खुद कोई मासियत का काम सर अंजाम दे । क्योंकि अगर हुक्मरान किसी के सामने
गुनाह का काम सर अंजाम दे लेकिन उस शख्स को ऐसा काम करने का हुक्म ना दे तो उस
शख्स पर हुक्मरान की इताअत करते रहना फिर भी वाजिब है । मुस्लिम ने औफ बिन मालिक (رضي
الله عنه) से रिवायत किया के मैंने रसूलुल्लाह صلى
الله عليه وسلم को ये फरमाते हुए सुना :
((خیارأ
ئمتکم الذین تحبونھم ویحبونکم ‘ وتصلون علیھم ویصلون علیکم‘ وشرار ائمتکم الذین تبغضونھم
ویبغضونکم وتلعنونھم ویلعنونکم ‘ قالوا: قلنایارسول اللّٰہ أفلا ننابذھم عند ذلک؟ قال:لا،
ما أقاموا فیکم الصلاۃ، ألا مَن وَلَي علیہ وال، فرآہ ےأتي شےئاً مِن معصےۃ اللّٰہ
فلیکرہ ما ےأتي من معصےۃ اللّٰہ ولا ےَنْزِعَنَّ یداً مِن طاعۃ))
तुम्हारे बहतरीन इमाम वो हैं जिन से तुम मुहब्बत करो और वो तुम
से मुहब्बत करें । वो तुम्हारे लिये दुआएं करें और तुम उनके लिये दुआएं करो। और तुम्हारे
बदतरीन इमाम वो हैं जिन से तुम बुग़्ज़ रखो और वो तुम से बुग़्ज़ रखें तुम उन पर लानतें
भेजो और वो तुम पर लानतें भेजें। इस पर हमनें
कहा : “क्या हम ऐसी सूरत उन्हें हटा ना दें “
आप صلى الله عليه
وسلم ने फरमाया : उस वक़्त तक नहीं जब तक की वो तुम्हारे दरमियान नमाज़ क़ायम रखें। खबरदार
अगर किसी शख्स पर हाकिम मुक़र्रर किया जाये और वो उसकी तरफ अल्लाह की मासियत का इरतिकाब
देखे तो वो उस अल्लाह की मासियत को नापसन्द करे मगर (हाकिम की) इताअत से हाथ ना खेचें
ये इस बात की दलील है कि मासियत का हुक्म देने से क्या मुराद है। यानी जब
हुक्मरान गुनाह का काम सर अंजाम देने का हुक्म दे ना की वो उसे खुद सर अंजाम दे ।
अगर कोई शख्स हुक्मरान को गुनाह का काम करता हुआ देखे तो उस शख्स के लिये हुक्मरान
की इताअत से हाथ खेंचना जायज़ नहीं । लेकिन अगर हुक्मरान किसी शख्स को कोई ऐसा
हुक्म दे जिस के करने में अल्लाह की
नाफरमानी होती है तो हुक्मरान के हुक्म की इताअत जायज़ नहीं। क्योंके उस मुआमले में
मखलूक़ की कोई इताअत नहीं जो खालिक़ की नाफरमानी पर मबनी हो।
ये वो वाहिद सूरते हाल है जो के हुक्मरान की इताअत से बरी है यानी जब वो
मासियत का हुक्म दे और उस अम्र के मासियत पर मबनी होने में कोई शक व शुबह ना हो।
मिसाल के तौर पर अगर हुक्मरान सूद लेने का हुक्म दे । ताहम अगर वो किसी ऐसे काम का
हुक्म दे जो उसकी राय में हलाल हो लेकिन दीगर लोग उसे हराम समझते हैं तो ऐसी सूरते
हाल में उस की इताअत वाजिब है और
उसकी हुक्म उदूली करना हराम है। इस बात को
मासियत का हुक्म देना तसव्वुर नहीं किया जाएगा बल्के ये एक हलाल काम के करने का
हुक्म होगा मिसाल के तौर पर अगर कोई शख्स फोटो ग्राफिक पिक्चर खेंचने को हराम
समझता हो जबके हुक्मरान की राय ये हो के ये एक हलाल काम है और वो सरकारी मुआमलात
के लिये उस शख्स को तस्वीर बनवाने का हुक्म दे तो उस शख्स के लिये उस हुक्म की
इताअत करना वाजिब है और ये मासियत को हलाल बनाना नहीं है क्योके इस मुआमले में
हुक्मरान के नज़दीक इब्ने अब्बास (رضي
الله عنه) की वो हदीस मुसव्वरी के बारे में है जो तस्वीर बनाने
की मुमानियत बयान करती है और उस का इतलाक़ फोटो ग्राफिक पिक्चर्ज़ पर नहीं होता ।
चुनाँचे ये हुक्मरान के मुताबिक़ दलील या शुबह दलील है। लिहाज़ा हुक्मरान का सरकारी
मुआमलात या दस्ताविज़ात के लिये फोटो ग्रराफिक तसावीर के इस्तेमाल का हुक्म मासियत
का काम करने का हुक्म नहीं है लिहाज़ा उस की इताअत वाजिब है और इस मुआमले में उस की
हुक्म उदूली करना जायज़ नहीं
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