इस्लाम पुलिस स्टेट के अंदाज़ में हुकूमत करने को हराम क़रार देता है


इस्लाम में हुकूमत और अथार्टी से मुराद है, अहकाम-ए-शरीयत के ज़रीए लोगों के उमूर की देख भाल करना। और ये जब्र-ओ-क़ुव्वत इस्तिमाल करने से मुख़्तलिफ़ है क्योंकि क़ुव्वत को रियासत में लोगों की देख भाल करने और उन के मुआमलात को चलाने के लिये वज़ा (जारी) नहीं किया गया। क़ुव्वत अथार्टी नहीं, अगरचे इस का वजूद , उस की तशकील-ओ-तंज़ीम और तैय्यारी अथार्टी के वजूद के बगैर मुम्किन नहीं। क़ुव्वत एक माद्दी वजूद है जिस का इज़हार फ़ौज के ज़रीए होता है, और इस में पुलिस भी शामिल है। इस के ज़रीए अथार्टी यानी रियासत, अहकामात की तनफीज़ करती है , मुजरिमों और बागियों को सज़ा देती है , अहकामात को तोड़ने वालों को कुचलती है और लोगों के जान-ओ-माल पर हमला करने वालों से निबटती है । ये रियासत की अथार्टी के तहफ़्फ़ुज़ का ज़रीया होती है और उन अफ़्क़ार-ओ-तसव्वुरात की हिफ़ाज़त का भी ,जिस पर रियासत क़ायम होती है और जिन्हें रियासत पूरी दुनिया तक पहुंचाती है।

ये इस बात को ज़ाहिर करता है कि अथार्टी और क़ुव्वत एक नहीं हैं। अगरचे अथार्टी का क़ुव्वत के बगै़र होना मुम्किन नहीं। पस क़ुव्वत अथार्टी से मुख़्तलिफ़ चीज़ है अगरचे अथोर्टी का वजूद क़ुव्वत के बगैर बाक़ी नहीं रहता।

लिहाज़ा रियासत के लिये ये जायज़ नहीं कि वो क़ुव्वत की शक्ल इख्तियार कर ले। क्योंकि अगर अथार्टी महज़ क़ुव्वत बन जाये तो लोगों के मुआमलात की देख भाल बुरी तरह से मुतास्सिर होगी। ऐसा करने से रियासत के अफ़्क़ार और रियासत का मेयार लोगों के उमूर की देख भाल की बजाय जब्र, ज़ुल्म और तसल्लुत करना बन जाएगा। और हुकूमत एक पुलिस स्टेट में तब्दील हो जाएगी जो कि दहश्त फैलाने, तसल्लुत जमाने , ज़ुल्म-ओ-ज़बरदस्ती करने और ख़ून बहाने के सिवा किसी और चीज़ से आशना (परीचित) ना होगी।
जिस तरह अथार्टी का क़ुव्वत में तब्दील हो जाना जायज़ नहीं इसी तरह क़ुव्वत का अथार्टी हासिल कर लेना भी दुरुस्त नहीं । क्योंकि वो क़ुव्वत के तसव्वुरात के ज़रीए हुकूमत करेगी और लोगों के उमूर को अस्करी क़वानीन के तसव्वुरात के मुताबिक़ चलाएगी और इस का मेयार ज़ुल्म-ओ-जब्र होगा। ये दोनों सूरतें तबाही-ओ-बर्बादी का सबब बनेंगी और ख़ौफ़-ओ-दहश्त की फ़ज़ा  क़ाइम करेंगी, जिस के नतीजे में उम्मत तनज़्ज़ुली (पतन) के गढ़े में जा गिरेगी और उसे शदीद नुक़्सान पहुंचेगा।

अरब मुमालिक और इस्लामी मुमालिक की हुकूमतें उस की वाज़िह मिसाल हैं।
इस्लाम मुसलमानों को ईज़ा (तकलीफ) देने और उन की जासूसी करने को हराम क़रार देता है:
इस्लाम ने लोगों को अज़ाब देने और उन्हें ईज़ा पहुंचाने को हराम क़रार दिया है। मुस्लिम ने हिशाम बिन हकीम से रिवायत किया, आप ने कहा: मैं इस बात की गवाही देता हूँ कि मेंने रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم को ये फ़रमाते हुए सुना:
((إن اللّٰہ یعذب الذین یعذبون الناس في الدنیا))
अल्लाह उसे अज़ाब देगा जो दुनिया में लोगों को अज़ाब देता है

आप صلى الله عليه وسلم ने ये भी इरशाद फ़रमाया:
((صنفان من أھل النار لم أرھما، قوم معھم سیاط کأذناب البقر یضربون بھا الناس...))
दो तरह के जहन्नुमी ऐसे हैं जिन्हें मेंने अभी तक नहीं देखा; कुछ लोग होंगे जिन के पास ऐसे कोड़े होंगे जैसे बैल की दुमें होती हैं जिस से वो लोगों को मारेंगे.........
(मुस्लिम ने इस हदीस को अबू हुरैरा (رضي الله عنه) से  रिवायत किया)
इस्लाम ने लोगों की नामूस (आबरू) , उन के माल, इज़्ज़त और घरों के तक़द्दुस  (पवित्रता) की पामाली को हराम क़रार दिया है । रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:

((کل المسلم علی المسلم حرام ، دمہ و مالہ و عرضہ))
हर मुसलमान पर दूसरे मुसलमान का ख़ून , माल और इज़्ज़त हराम है
(मुस्लिम ने इस हदीस को अबू हुरैरा (رضي الله عنه) से  रिवायत किया)और आप صلى الله عليه وسلم ने काअबा का तवाफ़ करते हुए ये इरशाद फ़रमाया:
((ما أطیبک ، و أطیب ریحک ، ما أعظمک و أعظم حرمتک ، والذي نفس محمد بیدہ لحرمۃُ المؤمن أعظم عند اللّٰہ حرمۃً منک ، مالہِ و دمہِ ، و أن لا نَظُنَّ بہ إلا خیراً))
कितना तय्यब है तू और कितनी तय्यब तेरी हवा है , कितना अज़ीम है तू और कितनी अज़ीम तेरी हुर्मत है। लेकिन उस ज़ात की क़सम कि जिस के क़ब्ज़ा-ए-क़ुदरत में मेरी जान है, अल्लाह (سبحانه وتعال) की नज़र में एक मोमिन , उसके ख़ून और इस के माल की हुर्मत तुझ से बढ़ कर है । और हम उस के मुताल्लिक़ ख़ैर के सिवा और कुछ गुमान नहीं करते

( इब्ने माजा ने इस हदीस को उबैदुल्लाह बिन अमरो से रिवायत किया) आप صلى الله عليه وسلم ने ये भी इरशाद फ़रमाया:
((سباب المسلم فسوق ، و قتالہ کفر))
मुसलमान को गाली देना फ़िस्क़ है और उसे क़त्ल करना कुफ्र है

(बुख़ारी ने इस हदीस को अब्दुल्लाह बिन मसऊद (رضي الله عنه) से रिवायत किया ) घरों के तक़द्दुस के मुताल्लिक़ रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:

((لو أنَّ رجلاً اطلع علیک بغیر إذن ، فحذفتہ بحصاۃ ، ففقأت عینہ ما کان علیک من جناح))
अगर कोई तुम्हारे घर में तुम्हारी इजाज़त के बगैर झांके और तुम पत्थर मार कर उस की आँख फोड़ दो तो तुम पर कोई गुनाह नहीं
(मुस्लिम ने इस हदीस को अबू हुरैरा (رضي الله عنه) से  रिवायत किया)और बुख़ारी और मुस्लिम ने सहल बिन साद अलसाअदी से रिवायत किया कि एक मर्तबा एक शख़्स ने रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के हुजरे की दर्ज़ से अंदर झांका । आप صلى الله عليه وسلم उस वक़्त एक छोटी सी छड़ी से अपना सर खुजा रहे थे। आप صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:

((لو أعلَم أنک تنظر لطعنت بھا في عینک ، إنما جُعِل الاستئذان من أجل البصر))
अगर मुझे मालूम होता कि तुम अंदर झांक रहे हो तो मैं उसे तुम्हारी आँख में घोंप देता । बेशक इजाज़त लेना (घर में) झांकने  (से बचने) की वजह से है
आप صلى الله عليه وسلم ने ये भी इरशाद फ़रमाया:
((مَن اطلع علی قوم في بیتھم بغیر إذنھم فقد حل لھم أن یفقأوا عینہ))
जो दूसरों के घरों में उनकी इजाज़त के बगैर झांके तो उन लोगों के लिये जायज़ है कि उस की आँख फोड़ दें

(अहमद ने इस हदीस को अबू हुरैरा (رضي الله عنه) से  रिवायत किया) इस्लाम ने मुसलमानों पर नज़र रखने, इन का पीछा करने और उन की ज़ाती ख़बरों की खोज लगाने को हराम क़रार दिया है। एक मुसलमान के लिये दूसरे मुसलमान की जासूसी करना हराम है। अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इरशाद फ़रमाया:

يَـٰٓأَيُّہَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱجۡتَنِبُواْ كَثِيرً۬ا مِّنَ ٱلظَّنِّ إِنَّ بَعۡضَ ٱلظَّنِّ إِثۡمٌ۬ۖ وَلَا تَجَسَّسُواْ
ऐ ईमान वालो! बद गुमानियों में कसरत करने से बच्चो, बेशक बाअज़ बद गुमानीयाँ गुनाह हैं और भेद ना टटोला करो(अलहुजरात:12)

और रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:
((إیّاکم و الظن، فان الظن أکذب الحدیث، ولا تحسسوا، ولا تجسسوا، ولا تحاسدوا، ولا تدابروا، ولا تباغضوا ، و کونوا عباد اللّٰہ إخوانا))
बदज़नी से बच्चो , क्योंकि गुफ़्तगु के दौरान बदज़नी सब से बड़ा झूट है और एक दूसरे के भेद मत टटोलो और एक दूसरे की जासूसी मत करो और एक दूसरे से हसद मत करो और एक दूसरे से पुश्त (पीठ) मत फेरो और एक दूसरे के ख़िलाफ़ बुग़्ज़ मत रखों , और ऐ अल्लाह के बन्दों ! आपस में भाई भाई बन जाओ

(बुख़ारी और मुस्लिम ने इस हदीस को अबू हुरैरा (رضي الله عنه) से  रिवायत किया) और रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने ये भी इरशाद फ़रमाया:
((یا معشر مَن آمن بلسانہ، ولم یدخل الإیمان قلبہ ، لا تغتابو ا المسلمین، ولا تتبعوا عوراتھم ، فإنہ من یتّبع عوراتھم یتبع اللّٰہ عورتہ، و من یتبع اللّٰہ عورتہ یفضحہ في بیتہ))
ऐ लोगो जो ज़बान से ईमान का इक़रार करते हो मगर ईमान अभी तुम्हारे क़ल्ब में दाख़िल नहीं हुआ , मुसलमानो की ग़ीबत मत करो और ना ही उन के औरह ( ख़ताओं) का खोज लगाओ । क्योंकि जो मुसलमानों की ख़ताओं के पीछे पड़ेगा अल्लाह उस की ख़ताओं का पीछा करेगा और अल्लाह जिस के ऐबों का पीछा करेगा , उसे इस के घर में बेनकाब कर देगा
(अहमद ने इस हदीस को अबू बरज़ा असलमी से रिवायत किया) ये आयत और अहादीस नबवी मुसलमानों को दूसरे मुसलमानों की जासूसी करने और उन के ऐबों की खोज लगाने से मना करती हैं और मुतनब्बा करती हैं कि जो मुसलमानों के ऐबों के पीछे पड़ेगा अल्लाह उसके ऐब के पीछे पड़ेगा और उसे ज़लील-ओ-रुसवा कर देगा। इस के इलावा मज़ीद अहादीस हैं जो मुसलमानों पर ऐसी एजैंसीयों के लिये काम करने को हराम क़रार देती हैं जो मुसलमानों की जासूसी करती हों। अबू दाऊद और अहमद ने मुसव्विर से रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم का ये इरशाद रिवायत किया:
((من أکل برجل مسلم أکلۃ ، فإن اللّٰہ یطعمہ مثلھا من جھنم ، و من کسا ثوباً برجل مسلم فإن اللّٰہ یکسوہ مثلہ في جھنم...))
जो किसी मुसलमान को नुक़्सान पहुंचा कर कुछ खाएगा , अल्लाह इस के मिस्ल उसे जहन्नुम में खिलाएगा और जो कोई किसी मुसलमान को नुक़्सान पहुंचा कर पहनेगा अल्लाह जहन्नुम में उसे इस के मिस्ल पहनाएगा
जिस तरह मुसलमानों की जासूसी करना हराम है इसी तरह इस्लामी रियासत के गैर मुस्लिम बाशिंदों यानी अहल-ए-ज़िम्मा की जासूसी करना भी हराम है क्योंकि वो बरताओ के लिहाज़ से मुसलमानों के बराबर हैं और उन के साथ अच्छा सुलूक करना चाहिये। रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने ज़म्मियों के साथ अच्छा सुलूक करने की साथ वसीअत की और आप صلى الله عليه وسلم ने उन्हें ईज़ा पहुंचाने से मना फ़रमाया। आप صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:

((من ظلم معاھداً، أوکلفہ فوق طاقتہ فأنا حجیجہ إلی یوم القیامہ))
जो (कुफ़्फ़ार) मुआहिदीन को नुक़्सान पहुंचाता है या उन की ताक़त से ज़्यादा उन पर बोझ डालता है क़यामत के दिन में इस के ख़िलाफ़ झगड़ा करूंगा

(इस हदीस को यहया बिन आदम ने किताब अल खिराज में बयान किया) और उमर (رضي الله عنه) ने फ़रमाया:
:(أوصي الخلیفۃ من بعدي بذمۃ رسول اللّٰہ ﷺ خیراً أن یوفي لھم بعھدھم وأن یقاتل من وراءھم ، و أن لا یکلفوا فوق طاقتھم)
मैं अपने बाद आने वाले ख़लीफ़ा को वसीअत करता हूँ कि वो उन (गैर मुस्लिमों) के साथ अच्छा सुलूक करे जो रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم की पनाह में आए । वो उन के मुआहिदात को पूरा करे उन की हिफ़ाज़त के लिये जंग करे और उन की ताक़त से ज़्यादा उन पर बोझ ना डाले (यहया बिन आदम ने इसे रिवायत किया)
ये आयत और अहादीस अगरचे जासूसी करने के मुताल्लिक़ आम हैं लेकिन हर्बी कुफ़्फ़ार इस से मुस्तसना (बरी) हैं, चाहे वो हर्बी फे़अलन (यानी मुसलमानों के साथ हालत-ए-जंग में)  हों या हर्बी हुक्मन हों।  इसके अलावा दूसरे अहादीस जासूसी की मुमानअत को गैर हर्बी कुफ़्फ़ार के साथ ख़ास करती हैं। जहां तक हर्बी कुफ़्फ़ार का ताल्लुक़ है तो ये हराम नहीं बल्कि एक फ़र्ज़ है और इस्लामी रियासत पर ये काम अंजाम देना लाज़िम है। क्योंकि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने अब्दुल्लाह बिन जहश (رضي الله عنه) को आठ मुहाजरीन के साथ नख़लाह रवाना किया जो ताईफ और मक्का के दरमियान है , ताकि वो क़ुरैश की नक़ल-ओ-हरकत की टोह लगाएं और उन के मुताल्लिक़ मालूमात हासिल करें । दुश्मन कुफ़्फ़ार की जासूसी करना एक ऐसा मुआमला है जिसे मुसलमानों की अफ़्वाज और इस्लामी रियासत किसी सूरत नज़रअंदाज नहीं कर सकती।
दुश्मन कुफ़्फ़ार की जासूसी करना एक ऐसा फ़र्ज़ है जिसे पूरा करना इस्लामी रियासत के लिये लाज़िम है । इसी तरह इस्लामी रियासत पर वाजिब है कि इस के पास इन्टैलीजन्स का दोहरा निज़ाम मौजूद हो जिस के ज़रीए वो कुफ़्फ़ार की जानिब से अपने ख़िलाफ़ जासूसी की कोशिशों को नाकाम बना सके। बुख़ारी ने सलमा इब्ने अकवा (رضي الله عنه) से  रिवायत किया:

((أتی النبيّﷺ عَےْنٌ من المشرکین و ھو في سفر ، فجلس عند أصحابہ یتحدث ، ثم انفتل ، فقال النبي ﷺ اطلبوہ و اقتلوہ۔ فقتلہ ، فنفلہ ، سلَبَہُ))
एक सफ़र के दौरान रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने मुशरिकीन के एक जासूस को देखा जो रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के सहाबा ( رضی اللہ عنھم) के साथ बैठा और उन से बातचीत करने के बाद निकल खड़ा हुआ। इस पर रसूलल्लाह صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया: इस के पीछे जाओ और उसे क़त्ल कर दो पस मैंने उसे क़त्ल कर दिया तो रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने मुझे इस जासूस का माल बतौर ग़नीमत अता किया

और अहमद ने फुरात बिन हयान से ये बात रिवायत की

أن النبیﷺ: ((أمَرَ بقتلہ)) و کان عیناً لأبی سفیان و حلیفاً فمرَّ بحلقۃ الأنصار فقال:إني مسلم، قالوا: یا رسول اللّٰہ إنہ یزعم أنہ مسلم فقال: إن منکم رجالاً نکلھم إلی إیمانھم منھم فرات بن حیان))
कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने उसे (यानी फुरात को) क़त्ल करने का हुक्म दिया । वो जासूस था और अबूसुफ़ियान का हलीफ़ था । वो अंसार के हलक़े के पास से गुज़रा और कहा मैं मुसलमान हूँ। तो अंसार में से एक शख़्स ने कहा : ऐ अल्लाह के रसूल صلى الله عليه وسلم! ये कहता है कि मैं मुसलमान हूँ । रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने जवाब दिया : तुम में से ऐसे मर्द हैं जिन के ईमान का हम एतबार करते हैं और फुरात बिन हयान इन में से एक है

बुख़ारी ने अली बिन अबी तालिब (رضي الله عنه) से  रिवायत किया :
((بعثني رسول اللّٰہ ﷺ أنا و الزبیر و المقداد بن الأسود قال: انطلقوا حتی تأتوا روضۃ خاخ ، فإن بھا ظعینۃ و معھا کتاب ، فخذوہ منھا فانطلقنا تتعادی بنا خیلنا حتی انتھینا إلی الروضۃ ، فإذا نحن بالظعینۃ ، فقلنا: أخرجي الکتاب فقالت: ما معي من کتاب، فقلنا : لتُخرجنَّ الکتاب أو لنلقینّ الثیاب ، فأخرجتہ من عقاصھا، فأتینا بہ رسول اللّٰہ ﷺ...))
रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने मुझे ज़ुबेर (رضي الله عنه) और मिक़दाद बिन अस्वद (رضي الله عنه) के साथ भेजा और कहा: तुम रवाना हो जाओ यहां तक कि तुम ख़ाख़ के बाग़ में पहुंचो । वहां तुम्हें ऊंट पर सवार एक औरत मिलेगी जो कि एक ख़त लेकर जा रही है पस तुम उस से वो ख़त ले लो। हम तेज़ रफ़्तारी से रवाना हुए यहां तक कि हम बाग़ तक जा पहुंचे और हमें ऊंट पर सवार औरत नज़र आई। हम ने उस से कहा: ख़त निकालो । इस ने कहा: मेरे पास कोई ख़त नहीं । हम ने कहा : निकालो, वर्ना हम तुम्हारे कपड़े उतारकर ले लेंगे। तो उस ने अपने जोड़े में से ख़त निकाल कर हमारे हवाले कर दिया और हम इसे लेकर रसूलुल्लाह صلى
  الله عليه وسلم के पास आ गए...
इन तमाम वाक़ियात से ये ज़ाहिर होता है कि इस्लाम में पुलिस एस्टेट का कोई तसव्वुर नहीं और रियासत के लिये जब्रो क़ुव्वत के बल पर हुकूमत करना हराम है । और जब्र-ओ-इस्तिबदाद पर मबनी हुकूमत मुसलमानों के लिये नुक़्सानदेह है और ये अहकाम-ए-शरीयत के मुनाफ़ी (विपरीत) है और शरीयत के इस उसूल के भी ख़िलाफ़ है :
((لا ضرر و لا ضرار))
ना नुक़्सान पहुँचाओ ना नुक़्सान उठाओ
इस तरह ये भी वाज़िह हो गया कि इस्लाम रियासत के लिये इन्टैलीजन्स के ऐसे इदारे क़ायम करना हराम है जो इस के अपने बाशिंदों की जासूसी करें ख़ाह वो मुसलमान हों या गैर मुस्लिम , नीज़ मुसलमानों को ईज़ा पहुंचाना हराम है। और ये बात भी ज़ाहिर हो गई कि दुश्मन कुफ़्फ़ार की जासूसी करने, उन के मुताल्लिक़ मालूमात इकट्ठी करने और उन की तरफ़ से रियासत के ख़िलाफ़ जासूसी के सद्द-ए-बाब के लिये इन्टैलीजन्स एजंसियों का क़याम रियासत पर फ़र्ज़ है।









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