निज़ामें हुकूमत की बुनियाद उन चार उसूलो पर है : (1) इक़्तिदारे आला (Sovereignty/प्रभूसत्ता) शरीयत को हाँसिल है, उम्मत को नहीं। (2) इख्तियार (Authority) उम्मत के पास है। (3) एक खलीफा का तकर्रूर तमाम मुसलमानों पर फर्ज़ है।(4) अहकाते शरियत की तबन्नी का हक़ सिर्फ खलीफा को हाँसिल है और वही दस्तूर और मुख्तलिफ क़वानीन जारी करता है। यह इस्लाम में हुक्मरानी के उसूल (सिदांत) है जिनके बगैर हुक्मरानी का वजूद नामुमकिन है। अगर इनमें से कोई एक उसूल भी मौजूद ना हो तो हुकूमत मादूम हो जाती है यानी वो हुकूमत इस्लामी हुकूमत नहीं रहती बल्के कोई और हुकूमत होती है। इन उसूलो को शरई दलाईल से अखज़ किया गया है।
(1) इक़्तिदारे आला शरीयत को हाँसिल है : जहाँ तक पहले उसूल का ताल्लुक है के इक़्तिदारे आला शरीयत को हाँसिल है तो इसकी एक हक़ीक़त है, जो के लफ्ज़ इक़्तिदारे आला से मुताल्लिक है। इस बात की दलील मौजूद है के इक़्तिदारे आला शरीयत को हासिल है उम्मत को नहीं। लफ्जे इक़्तिदारे आला (Sovereignty/प्रभूसत्ता) की हक़ीक़त यह है के यह एक पश्चिमी शब्दावली है जिसका अर्थ है के जो ईदारे के मालिक और मुख्तार हो। चुनांचे अगर एक शख्स अपने ईदारे का खुद मालिक है और अपनी मर्जी से उसे चलाता है तो उसकी अपनी ज़ात पर उसका प्रभुत्व है। लेकिन अगर उसके ईरादे का मालिक कोई और है तो फिर वो गुलाम कहलायेगा। इसका इत्तलाक उम्मत पर भी होता है। अगर उम्मत यानी उम्मत की अकसरियत बजा़ते खुद अपने इख्तियार की मालिक है और वो अपने कुछ लोगों के ज़रिए अपने ईरादे को अमल में लाती है, जिन्हें उसने अपनी मर्जी़ और इख्तियार के साथ यह अधिकार दिया है तो उम्मत को इक़्तिदारे आला (प्रभूसत्ता) का मालिक समझा जायेगा। जबके अगर कोई उम्मत के ईरादो को इसकी मर्जी़ और ख्वाहिश के खिलाफ कंट्रोल करता है तो उसे गुलाम तसव्वुर किया जायेगा। यही वजह है के लोकतांत्रिक व्यवस्था कहती है : प्रभूसत्ता के मालिक जनता है, यानी लोग अपने मुआमलात के खुद मालिक है। अपनी मर्जी़ से अपने प्रतिनिधियो को खुद चुनाव करते है, उन प्रतिनिधियो को यह इख्तियार देते है के वो इनके ईरादो को कंट्रोल करे। यह इक़्तिदारे आला (प्रभूसत्ता) की हक़ीक़त है जिसके मुताल्लिक हम हुक्मे शरई बयान करना चाहते है। इसके मुताल्लिक हुक्म यह है के इक़्तिदारे आला शरीयत को हासिल है उम्मत को नहीं। क्योंके एक शख्स खुद अपने इरादे का मालिक नहीं है के वो जो चाहे करें बल्के उसके ईरादे अल्लाह के हुक्म और नवाही के पाबन्द होते है। उसी तरह उम्मत अपने ईरादे पर इख्तियार नहीं रखती के वो अपनी मर्जी़ से जो चाहे करें, बल्के वो अल्लाह के अम्र व नवाही की पाबन्द है। इसकी दलील अल्लाह (سبحانه وتعال) का यह ईरशाद है :
فَلَا وَرَبِّكَ لَا يُؤۡمِنُونَ حَتَّىٰ يُحَكِّمُوكَ فِيمَا شَجَرَ بَيۡنَهُم
(ऐ मोहम्मद) आपके रब की कसम! यह उस वक़्त तक मौमिन नहीं हो सकते जब तक के यह आप صلى الله عليه وسلم को अपने इख्तिलाफात में फैसला करने वाला ना बना लें''।
(तर्जुमा मआ़निए क़ुरआन – सूरे अन्निसा : 65)
इसी तरह ईरशादे (سبحانه وتعال) है :
يَـٰٓأَيُّہَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُواْ ٱلرَّسُولَ وَأُوْلِى ٱلۡأَمۡرِ مِنكُمۡۖ فَإِن تَنَـٰزَعۡتُمۡ فِى شَىۡءٍ۬ فَرُدُّوهُ إِلَى ٱللَّهِ وَٱلرَّسُولِ إِن كُنتُمۡ تُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأَخِرِۚ
يَـٰٓأَيُّہَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُواْ ٱلرَّسُولَ وَأُوْلِى ٱلۡأَمۡرِ مِنكُمۡۖ فَإِن تَنَـٰزَعۡتُمۡ فِى شَىۡءٍ۬ فَرُدُّوهُ إِلَى ٱللَّهِ وَٱلرَّسُولِ إِن كُنتُمۡ تُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأَخِرِۚ
ۖ''ऐ ईमान वालो! अल्लाह और उसके रसूल की ईताअ़त करों और अपने में से उन लोगों की जो साहिबे इक़्तिदार है, अगर किसी मामले में तुम आपस में झगडा़ करो तो उसे अल्लाह और रसूल की तरफ लौटा दो, अगर तुम अल्लाह और आखिरत के दिन पर ईमान रखते हो''। (तर्जुमा मआ़निए क़ुरआन – सूरे अन्निसा : 59)
अल्लाह (سبحانه وتعال) और उसके रसूल صلى الله عليه وسلم की तरफ रूज़ू करने का मतलब अहकामें शरीयत की तरफ रूजू करना है। पस जो चीज़ उम्मत और अफराद को कंट्रोल करती है और उनके ईरादे और ख्वाहिशात जिसके ताबे होते है, वो शरीयत है जो अल्लाह के रसूल صلى الله عليه وسلم लेकर आए है। उम्मत और अफराद शरीयत के सामने सरे तस्लीमे खम (समर्पित) करते है, लिहाज़ा इक़्तिदार-ए-आला (प्रभूसत्ता) शरीयत को हासिल है। यही वजह है के उम्मत की तरफ से खलीफा को बैअ़त देने का मतलब यह नहीं के वो उम्मत का मुलाजिम है जो उम्मत की ख्वाहिशात को पूरा करेगा। जैसाकि लोकतांत्रिक व्यवस्था में होता है। बल्के उम्मत खलीफा को क़ुरआन व सुन्नत पर बैअ़त देती है ताके वो किताब व सुन्नत को नाफिज़ करें। यानी वो शरीयत को नाफिज़ करें ना के हर वो चीज़ जिसकी लोग ख्वाहिश करें। यहॉ तक के अगर वो लोग जिन्होंने खलीफा को बैअ़त दी है, शरीयत से रूगरदानी (फिरने की कोशिश) करे तो खलीफा पर लाजिम है के वो इनसे किताल (जंग) करे यहॉ तक के वो दोबारा शरीयत की तरफ लौट आए।
(2) इख्तियार उम्मत को हाँसिल है : यह उसूल के इख्तियार (Authority) उम्मत के पास है, इस शरई हुक्म से अखज़ किया है के खलीफा की नियुक्ति करना उम्मत का अधिकार है। और कोई शख्स खलीफा सिर्फ उसी वक़्त ही बन सकता है और अपनी ऑथोरिटी का इस्तेमाल कर सकता है, जब तक उम्मत उसे बैअ़त ना दे। इसकी दलील उन अहादीस से वाजे़ है जो बैअ़त से सम्बन्धित है। मुस्लिम ने उबादा बिन सामित (رضي الله عنه) से रिवायत किया के उन्होंने कहा :
))بایعنا رسول اللّٰہ ﷺ علی السمع والطاعۃ في العسر و الیسر و المنشط والمکرہ((
''हमने तंगी और आसानी, पसन्द और नापसन्द (हर हालत में) सुनने और ईताअ़त करने पर रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم की बैअ़त की''।
और बुखारी ने जरीर बिन अब्दुल्ला (رضي الله عنه) से रिवायत किया :
بایعت رسول اللّٰہ ﷺ علی السمع والطاعۃ و أن أنصح لکل مسلم
''मेने सुनने और मानने पर रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم की बैअ़त की और यह के नसीयत हर मुसलमान के लिए है''।
बुखारी ने अबू हुरैरा (رضي الله عنه) से रिवायत किया के रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने फरमाया :
))ثلاثۃ لایُکلمھم اللّٰہ یوم القیامۃ ولا یزکیھم ولھم عذاب ألیم : رجل علی فضل ماء بالطریق یمنع منہ ابن السبیل‘ ورجل بایع إماماً لایبایعہ إلا لدنیاہ‘ إن أعطاہ مایرید وفی لہ ‘ وإلا لم یف لہ ‘ ورجل بایع رجلاً بسلعۃ بعد العصر فحلف باللّٰہ لقد أُعطي بھا کذا وکذا فصدقہ فأخذھا ولم یُعط بھا((
''तीन (तरह के) आदमियों से अल्लाह (سبحانه وتعال) क़यामत के दिन ना क़लाम करेंगे और ना उन्हें पाक़ करेंगे और उनके लिए दर्दनाक अज़ाब होगा। एक शख्स वो, जो रास्ते में ज़्यादा पानी पर बैठ जाए और लोगों को उससे मना करें। दुसरा वो शख्स जो ईमाम की बैअ़त सिर्फ अपनी दुनिया की खातिर करें। अगर वो उसे कुछ दें जिसका वो तलबगार है तो उसकी बैअ़त को ईफा करें, वरना वो र्इफा ना करे। तीसरा वो शख्स जो किसी शख्स को असर के बाद सौदा दे और क़सम उठाकर कहें के उसे यह चीज़ इतने में मिली है जबके वो उतने में ना मिली हो। और लेने वाला इस बात का सच समझकर उससे वो सौदा खरीद लें''।
चुनांचे मुसलमान ही खलीफा को बैअ़त देते है ना के खलीफा मुसलमानों को बैअ़त अता करता है। पस वही बैअ़त देते है यानी अपने लिए शासक नियुक्त करते है। खुल्फाऐ राशिदीन ने उम्मत से बैअ़त ली और वो सिर्फ उसी वक़्त खलीफा क़रार पाए जब उम्मत ने उन्हें बैअ़त दे दी। जहाँ तक इस बात का सम्बन्ध है के खलीफा सिर्फ बैअ़त के नतीजे में ही सत्ता हासिल करता है तो उसकी दलील वो अहादीस है जो ईताअ़त और खिलाफत के वहदत (अखण्डता) से सम्बन्धित है। मुस्लिम ने अब्दुल्ला बिन अमरू बिन आस (رضي الله عنه) से रिवायत
किया है के आप صلى الله عليه وسلم ने फरमाया :
))ومن بایع إماماً فأعطاہ صفقۃ یدہ وثمرۃ قلبہ ‘ فلیطعہ إن استطاع ‘ فإن جاء آخر ینازعہ فاضربوا عنق الآخر((
''और जो शख्स किसी ईमाम (खलीफा) की बैअ़त करें तो उसे अपने हाथ का मुआमला और दिल का फल दे दे (यानी सब कुछ उसके हवाले कर दे) फिर उसे चाहिए के वो अपनी इस्तेताअ़त के मुताबिक इसकी ईताअ़त भी करें। अगर कोई दुसरा शख्स आए और पहले खलीफा से झगडा़ करे तो दुसरे की गर्दन उडा़ दो''।
मुस्लिम नाफे से रिवायत करते है के उन्होंने कहा के मुझसे इब्ने उमर (رضي الله عنه) ने बयान किया के मैने
रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم को यह फरमाते हुए सुना :
))من خلع یداً من طاعۃ ‘ لقي اللّٰہ یوم القیامۃ لاحجۃ لہ ‘ ومن مات ولیس فی عنقہ بیعۃ ‘ مات میتۃ جاھلیۃ((
''जो शख्स (अमीर की) ईताअ़त से अपना हाथ खेंच ले तो क़यामत के दिन वो अल्लाह (سبحانه وتعال) से इस हालत में मिलेगा के उसके पास कोई दलील नहीं होगी। और जो कोई इस हालत में मरा के उसकी गर्दन में बैअ़त (का तौक़) ना हो तो वो ज़ाहिलियत की मौत मरा''।
और मुस्लिम इब्ने अब्बास (رضي الله عنه) से रिवायत करते है के आपने ईरशाद फरमाया :
من کرہ من أمیرہ شیئاً فلیصبر علیہ ‘ فإنہ لیس أحد من الناس خرج من السلطان شبراً فمات علیہ إلا مات میتۃ جاھلیۃ
''जिसने अपने अमीर की किसी चीज़ को नापसन्द किया तो लाजिम है के वो उस पर सब्र करें। क्योंके लोगों में से जिसने भी अमीर की ईताअ़त से बालिश्त बराबर भी खुरूज़ (बगावत) किया और वो उसी हालत में मर गया तो ज़ाहिलियत की मौत मरा''।
मुस्लिम अबू हाजिम से रिवायत किया के उन्होंने बयान किया के मैं पांच साल तक अबू हुरैरा (رضي الله عنه) की सौहबत में रहा। मेंने उन्हें नबी صلى الله عليه وسلم का यह ईरशाद बयान करते हुए सुना के आप صلى الله عليه وسلم ने फरमाया :
))کانت بنو إسرائیل تسوسھم الأنبیاء ‘ کلماھلک نبي خلفہ نبي‘ وإنہ لا نبيَّ بعدي ‘ وستکون خلفاء فتکثر ‘ قالوا: فما تأمرنا؟ قال: فوا ببیعۃ الأول فالأول‘ وأعطوہم حقھم ‘ فإن اللّٰہ سائلھم عما استرعا ھم((
''बनी ईस्राईल की सियासत अम्बिया किया करते थे। जब कोई नबी वफात पाता तो दुसरा नबी उसकी जगह ले लता, जबके मेरे बाद कोई नबी नहीं, बल्के बडी़ कसरत से खुल्फा होंगे। सहाबा ने पूछा : आप हमें क्या हुक्म देते है? आपने फरमाया : तुम एक के बाद दुसरे की बैअ़त को पूरा करो और उनका हक़ उन्हें अदा करो, क्योंके अल्लाह (سبحانه وتعال) उनसे उनकी रियाया के बारे में पूछेगा जो उसने उन्हें दी''।
यह अहादीस यह बयान करती है के खलीफा सिर्फ बैअ़त के ज़रिए ही ऑथोरिटी हासिल करता है क्योंके अल्लाह (سبحانه وتعال) ने खलीफा की ईताअ़त के हुक्म को बैअ़त के साथ जोडा है ''जो खलीफा की बैअ़त करें . . . . . तो वो उसकी ईताअ़त करें''।
चुनांचे खलीफा के औहदे पर इसकी नियुक्ति बैअ़त के ज़रिए होती है और उसकी ईताअ़त इसलिए वाजिब होती है के उसे बहैसियते खलीफा बैअ़त दी गई है। पस खलीफा उम्मत की इस बैअ़त के ज़रिए ऑथोरिटी हासिल करता है जो वो खलीफा को देती है और उम्मत पर उसी की ईताअ़त वाजिब होती है जिसे वो बैअ़त देती है, यानी जिसकी बैअ़त का तौक़ उम्मत की गर्दन में होता है। इससे साबित हुआ के इख्तियार उम्मत को हासिल है। इस हक़ीक़त के बावजूद के आप صلى الله عليه وسلم अल्लाह के आखरी रसूल थे, आप صلى الله عليه وسلم ने लोगों से बैअ़त ली। यह बैअ़त हुकूमत और ऑथोरिटी पर बैअ़त थी ना के नबूवत पर। आप صلى الله عليه وسلم ने मर्दो और औरतो दोनो से बैअ़त ली, लेकिन बच्चो से बैअ़त नहीं ली। यह हुक्म के मुसलमान ही खलीफा का तकर्रूर (नियुक्ति) करते है और उसे किताब व सुन्नत पर बैअ़त देते है और खलीफा सिर्फ उसी बैअ़त के ज़रिए हुकूमत (शासन) व इख्तियार हासिल करता है, इस बात की वाजे़ दलील है, के इख्तियारात उम्मत के पास है और वो जिसे चाहती है इख्तियार अता करती है।
(3) एक खलीफा का नियुक्त होना फर्ज़ है : जहाँ तीसरे उसूल का सम्बन्ध है के एक खलीफा की नियुक्ति तमाम मुसलमानों पर फर्ज़ है, नीचे दी गई हदीस इस उसूल को तय करती है : मुस्लिम नाफे से रिवायत करते है के उन्होंने कहा के मुझसे इब्ने उमर (رضي الله عنه) ने बयान किया के मेंने रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم को यह फरमाते हुए सुना :
))من خلع یدا من طاعۃ لقي اللّٰہ یوم القیامۃ لاحجۃ لہ ومن مات ولیس في عنقہ بیعۃ مات میتۃ جاھلیۃ((
''जो शख्स (अमीर की) ईताअ़त से अपना खेंच लेगा वो क़यामत के दिन अल्लाह (سبحانه وتعال) से इस हालत में मिलेगा के उसके पास कोई दलील नहीं होगी। और जो कोई इस हालत में मरा के उसकी गर्दन में बैअ़त (का तौक़) ना हो तो वो ज़ाहिलियत की मौत मरा''।
इस हदीस में रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने हर मुसलमान की गर्दन में खलीफा की बैअ़त के तौक़ का होना फर्ज़ क़रार दिया लेकिन आप صلى الله عليه وسلم ने हर मुसलमान के लिए अमलन बैअ़त देना फर्ज़ क़रार नहीं दिया। क्योंके वाजिब अम्र यह है के हर शख्स की गर्दन में बैअ़त का तौक़ मौजूद हो, यानी एक खलीफा का मौजूद होना जो हर मुसलमान की गर्दन में बैअ़त का तौक़ लाज़मी कर देता है। खलीफा के नियुक्त होने पर हर मुसलमान की गर्दन में बैअ़त का तौक़ क़ायम हो जाता है, चाहे किसी मुसलमान ने अमलन खलीफा की बैअ़त की हो या नहीं। जहॉ तक के खलीफा की वेहदत (एक होने) और एक से ज़्यादा खलीफा के नियुक्त होने की मुमानियत का सम्बन्ध है तो इस हदीस की बिना पर है के मुस्लिम ने अबू सईद खुदरी رضي الله عنه) से रिवायत की के रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने ईरशाद फरमाया :
))إذا بویع لخلیفتین فاقتلوا اآاخرمنھما((
''जब दो खुल्फा की बैअ़त की जाए तो उनमें से दूसरे को क़त्ल कर दो''।
यह हदीस इस बात को साफ तौर पर साबित कर देती है के मुसलमानों के लिए एक से ज़्यादा खलीफा का होना हराम है।
(4) क़वानीन की तबन्नी (इख्तियार करना) का अधिकार सिर्फ खलीफा को हासिल है : चौथा उसूल यह है के सिर्फ खलीफा को यह लाज़मी अधिकार हासिल है के वो क़वानीन की तबन्नी (इख्तियार करने) करे और यह बात ईज़्माऐ सहाबा से साबित है। ईज़्माऐ सहाबा से ही दर्ज़ जै़ल शरई उसूल अखज़ किये गये है :
اَمْرُ الِْامَامِ یَرْفَعُ الْخِلَافِ
''ईमाम का हुक्म इख्तिलाफ को खत्म करता है''।
اَمْرُ السُّلْطَانِ نَافِذٌ ’’
''सुल्तान (शरई इख्तिदार का हामिल शख्स) का हुक्म नाफिज़ होता है''।
لِلسُّلْطَانِ اَنْ یُّحْدِثَ مِنَ الْاقْضِیَۃِ بِقَدْرِ مَا یُحْدِثُ مِنْ مُشْکِلَاتٍ’
''सुल्तान मसाईल के लिए बकद्रे ज़रूरत नया हल तलाश करता है''। '
'उसे खलीफा के लाज़मी इख्तियार, के बाब में दलाईल के साथ तफ्सीलन बयान किया जायेगा।
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