इस्लामी तरीक़े ( “ الطریقہ الاسلامیہ”) को फरामोश करना

इस्लामी तरीक़े ( “ الطریقہ الاسلامیہ”) को फरामोश करना
इस्लाम फ़िक्र और तरीक़े का मिश्रण है यह दर्जा बंदी (classification) इस वजह से लाज़िम हुई है कि आजकल इन शरई अहकामात और उनके छोड़ दिये जाने के ताल्लुक़ से मुसलमानों में आम तौर से ग़फ़लत पाई जाती है, वो अहकामात जो इस्लामी तरीक़े से संबधित हैं उनको आज मुसलमानों ने ये समझ कर छोड़ा हुआ है कि ये ग़ैर-ज़रूरी हैं । लोग ये समझने लगे हैं कि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने इन तरीक़ों पर इसलिए अमल किया कि वो उस वक़्त और हालात के लिए मुनासिब थे । पस आज अगर ये अहकामात हमारे हालात और ज़माने से मुनासबत रखेंगे तो हम भी उनको ले लेंगे वरना उनकी जगह हालात की मुनासबत से दूसरे दीगर अहकामात ले लेंगे जो ज़माने से भी राज़ी होंगे

चुनांचे इसी नज़रिया के आधार पर हम ऐसे लोग भी पाते हैं जो निज़ामे ऊक़ूबात यानी सज़ाओं की तब्दीली का नारा लगाते हैं कि इस्लामी सज़ाएं हमारे ज़माने से अब मुनासबत नहीं रखतीं । वो यूं देखते हैं कोड़े मारना और हाथ काटना अब काबिले तस्लीम नहीं है क्योंकि अहले मग़रिब (Westerner) के नज़दीक ये संगदिलाना अहकामात हैं और मग़रिब वाले उनको देख कर कहेंगे कि ये क़ुरूने-वुस्ता (middle ages) के ज़ालिमाना अहकामात की तरह ज़ुल्म पर आधारित हैं, और मग़रिब वालों का उनका पुराना दीन याद आएगा जिसमें उनकी मग़रिबी अवाम ज़ालिमाना क़वानीन के ज़ुल्म का शिकार थे चुनांचे उसकी वजह से उन्हें इस्लाम से नफ़रत हो जाएगी और यह चीज़ उन्हें इस्लाम से दूर ले जाएगी । इसलिए इस्लामी सज़ाओं की बजाय क़ैद और जुर्माना आइद करने की सज़ाएं मुक़र्रर करने में क्या हर्ज है। चुनांचे इसी नज़रिए के आधार पर हम बाअज़ ऐसे लोग भी पाते हैं जो जिहाद को ख़त्म करने की बातें करते हैं । अगर इस्लाम की दावत और तब्लीग़ के लिए जिहाद (जद्दो-जहद और मशक़्क़त) मुसलमानों में बरक़रार है तो इस्लामी जिहाद की बजाय अब नशरो इशाअत और ज़राए इबलाग़ (means of advertisement and media) को इस्तिमाल किया जा सकता है। आज तहज़ीबों के लेन देन का ज़माना है और चूँकि इस्लाम ही के पास क़तई हुज्जत है और वाज़ेह हक़ है चुनांचे क़लम, रेडीयो और टेलीविज़न से वो काम लिया जा सकता है जो तलवारों से नहीं लिया जा सकता जिससे लोगों के दिल में जगह ख़त्म हो जाती है और बदगुमानी और नफ़रत उसकी जगह ले लेती है। हम बाअज़ ऐसे लोग भी पाते हैं जो जिज़्या को ख़त्म करने की हिमायत करते हैं क्योंकि ये अच्छा और मुहज़्ज़ब मालूम नहीं होता और उसकी वजह से हमें नदामत और दीगर अक़्वाम नफ़रत महसूस करती है, बाअज़ लोग तो ये भी कहते पाए जाते हैं कि हुकूमत करने के लिए इस्लाम की जानिब से निज़ाम ख़िलाफ़त पाबंदी नहीं है। यहाँ तक कि उन्होंने आधुनिक युग के निज़ाम हाय हुकूमत (modern forms of ruling) को इख़्तियार करने और ख़िलाफ़त के पुख़्ता निज़ाम को तर्क कर देने की ख़ातिर जवाज़ मुहैया करने वाला फ़तवा दे डाला । इनका कहना ये है कि किसी भी तरह इस्लामी निज़ाम क़ायम होना चाहिए, हुकूमत का कोई विशेष हैयत (ढान्चा) और सूरत ज़रूरी नहीं है, क्योंकि हुकूमतों की बहुत सी शक्लें हो सकती हैं ।

इस नज़रिए के तहत इस्लामी रियासत किस तरह क़ायम होगी इसके तरीके-कार के बारे में भी बेशुमार राएं पेश की गईं यहाँ तक कि मुसलमानों को इस्लाम की वापसी नज़र आने लगी किस तरह? इस्लामी किताबें लिखने, मसाजिद बनाने, ख़ैराती जमीअतें क़ायम करने, असरी मिशनरी दरसगाहों के तर्ज़ पर इस्लामी मदारिस और स्कूल बनाने, लोगों को अच्छे अख़्लाक़ की तरफ़ दावत देने, मुसल्लह जद्दो-जहद करने या जमहूरी तमाशों के ज़रीये हुकूमत में शामिल होकर इस्लाम को नाफ़िज़ की कोशिश करने में वग़ैराह हल पेश किए गए और यूं उन्होंने इस्लाम में हुकूमत तक पहुंचने के लिए रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के तरीक़े को छोड़ दिया।

इस तर्ज़ अमल के तहत मुसलमान आज फ़िक्र ” الفکرالاسلامیہ“ से जुड़े हुए इस्लामी तरीक़ा को धुन्धले और अस्पष्ट तसव्वुर की तरह ख़्याल करने लगे हैं जिसकी वजह से मुसलमानों के ज़हनों में तरीक़े से ताल्लुक़ रखने वाले लातादाद इस्लामी अहकामात ग़ैर वाज़ेह हो चले हैं और इसकी कम इल्मी की वजह से उन्होंने तरीक़े से संबधित अहकामात को नज़रअंदाज किया और पसेपुश्त डाल दिया है । इस्लामी फ़िक्र से ताल्लुक़ रखने वाले तरीक़ों के अस्पष्ट होते जाने और उनसे ग़फ़लत बरते जाने का बुनियादी कारण था कि मुसलमान पश्चिमी अफ़्कार (विचारों) से प्रभावित हुए और इसके नतीजे में वो इस्लाम को वाज़ेह और क़ानूनी हैसियत में समझने के काबिल ना रहे थे नतीजतन वो दुनिया में इस्लाम की ततबीक़ (application) को समझ नहीं पाते थे कि किस तरह उसे दुनिया के मामलात हल करने में इस्तिमाल करें ।
 
फ़िक्र और तरीक़े पर बेहस की ज़रूरत इसीलिए महसूस की गई ताकि मुसलमान उन शरई अहकामात को नज़रअंदाज ना करें जिनको इस मक़सद से नाज़िल किया गया है ताकि उनकी मदद से इस्लाम को ज़िंदगी और इसके हर मामलात और हालात में मुकम्मल तौर पर नाफ़िज़ और इख़्तियार किया जा सके । इन शरई अहकामात को नज़रअंदाज कर देने से इस्लामी अहकामात का एक अहम हिस्सा मुअत्तल होगा जो बहुत बड़ा गुनाह है जिस पर अल्लाह (سبحانه وتعالى) तमाम मुसलमानों का मुहासिबा करेगा ।
 
इन उल्लेखित अस्बाब के आधार पर हमने ये दर्जा बंदी की है यानी बेहस कि इस्लाम फ़िक्र और तरीक़ा है । ताकि ये विषय वाज़ेह होकर समझने और अमल करने के लिए आसान हो जाए। वज़ाहत की ख़ातिर इससे पहले भी मुसलमानों ने इस किस्म की दर्जा बंदीयां (classifications) कीं हैं मिसाल के तौर पर इस्लाम, अक़ीदा और निज़ाम या सामाजिक व्यवस्था, आर्थिक व्यवस्था, खाने पीने के अहकामात, लिबास के अहकामात, इबादात के अहकामात या अख़ालक़ के अहकामात । ये तमाम अहकामात रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के ज़माने में बिखरी हुई हालत में थे फुक़हा ने उनको जमा करके, तर्तीब देकर और किताबों में पृष्ठों की शक्ल में बांटा ताकि मुसलमानों के लिए उनको समझना और अमल करना आसान हो जाए।
 
ये बेहस इसलिए है कि मुसलमानों को इख़्तियार नहीं है कि वो क़तई और साबित शूदा (proven) शरई अहकामात जिन पर पाबंदी लाज़िमी है उनके बदले जाने को तस्लीम कर लें या उनसे हट कर दूसरी राह इख़्तियार कर लें और इसकी वजह से वो उन अहकामात से दूर होकर उनसे ग़ाफ़िल हो जाएं और आख़िरकार उनकी पाबंदी ही ख़त्म कर बैठें, ये है वो कारण जिसकी वजह से आज हमें इस पर बेहस की ज़रूरत पेश है ।
चुनांचे शरई सज़ाओं (ऊक़ूबात) को इस ज़माने की मार्डन सज़ाओं से बदलना जायज़ नहीं है और ना ही ख़िलाफ़ती निज़ाम के बदले जमहूरी निज़ाम (लोकतांत्रिक व्यवस्था) को इख़्तियार करना जायज़ है इसके इलावा इस्लामी क़वानीन को छोड़कर पश्चिम के दीवानी या शहरी क़वानीन (western civil laws) को अपनाना या हुकूमत के हुसूल के लिए रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के  तरीक़े से हट कर कोई और अकली अफ़्क़ार व अहकाम (rational thoughts and rules) वज़ा नहीं करना चाहे उनकी हिमायत में कितने ही फतवों की बौछार हो जाये, ये सब नाजायज़ हैं ।
 
लिहाज़ा चूँकि इस्लामी रियासत का क़याम करना एक शरई हुक्म है चुनांचे इसके क़याम का तरीक़ा भी एक शरई हुक्म है। जिसके माअनी ये हुए कि शरअ ने इसके लिए तफ़्सीली दलायल के साथ अहकामात दे दिये हैं और उन पर कारबन्द रहने को हम पर लाज़िम किया है, इसके तरीक़े से किसी भी किस्म के इन्हिराफ़ (deviate होने) से रोका है यानी इसका हुक्म भी तरीक़े से सन्बधित दूसरे तमाम शरई अहकामात की तरह है ।
फुक़हा की किताबों को देखने से मालूम होता है कि फुक़हा किराम ने किताबों को मुस्तक़ल अबवाब और फसलों में बांटा है, ऊक़ूबात के अहकामात, इसी तरह जिहाद, इमारत यानी सरबराही के अहकामात और दीगर तरीक़ा से मुताल्लिक़ अहकामात हैं जिनको उन्होंने तफ़्सीली तौर पर बयान किया है। सिर्फ़ इन अहकामात पर उन्होंने बेहस नहीं की वो इस्लामी रियासत के क़याम का तरीक़ा है और इस बेहस की उन्हें या उस वक़्त के लोगों को ज़रूरत ना थी। उसकी वजह ये रही कि मुसलमानों के लिए उनके तमाम दौर में कभी भी ये मसला पेश नहीं आया था जब एक दिन के लिए भी रियासत इस्लामी ग़ैर मौजूद रही थी लिहाज़ा उन्हें इसके तरीक़े के अध्ययन की ज़रूरत कभी पेश नहीं आई चुनांचे उनके लिए इस विषय पर बेहस करना ग़ैर ज़रूरी था । आज चूँकि इस्लामी रियासत ग़ैर मौजूद है जोकि इस्लाम को मुकम्मल तौर पर नाफ़िज़ करती है चुनांचे अब मुसलमानों की गतिविधियों की तमाम तर तवज्जोह इसके क़याम के तरीक़े के लिए अहकामात के इस्तिंबात (deduction) और उनकी तबन्नी (adopt/इख़्तियार करने) पर क़ायम और केन्द्रित होनी चाहीए । ये इस्तिंबात भी शरई दलायल से किया जाना लाज़िम है ना कि हालात और वक़्त से प्रभावित अक़्ली उसूलों और अहकामात से कि जिन पर मज़ीद लोगों की चाहत का रंग चढ़ा हुआ हो ।
 
जब तरीक़ा शरई होगा तो लाज़िमन इसमें नुसूस की पाबंदी ज़ाहिर होनी चाहिए रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की इत्तिबा भी नज़र आनी चाहिए । नुसूस पर पाबंदी होगी तो मुहासिबा और नसीहत के लिए बुनियाद नुसूस बनेंगे और नतीजे में मुहासिबा और नसीहत करना मुम्किन हो सकेगा, अमीर का मुहासिबा और उसको नसीहत की जाएगी जिस तरह जमात के सदस्य का मुहासिबा और उसको नसीहत की जाएगी । मुहासिबे के लिए अक़्ल पर निर्भर नहीं रहा जायेगा और ना ही आपसी शख़्सी ताल्लुक़ात इस को प्रभावित करेंगे और ना ही ज़िंदगी के तजुर्बात को इस मामले में कोई दख़ल होगा। चुनांचे इस अमली तरीक़े को एक तजुर्बा ख़्याल करना बिलकुल ग़लत है बल्कि इसमें सिर्फ़ शरअ की पाबंदी की जाएगी। चुनांचे जो शख़्स इस्लामी रियासत के क़याम के लिए काम करता है तो प्रकृतिक तौर पर उसे इसका शरई तरीक़ा और इसके तफ़्सीली दलायल मालूम कर लेने चाहिऐं, फिर वो इसके बारे में गुफ़्तगु कर सकेगा और उसकी तरफ़ दावत दे सकेगा । पस वो कौन से शरई अफ़आल हैं जिनकी पाबंदी इस्लामी रियासत के क़याम के काम में फ़र्ज़ है?
 
शरई तरीक़े को समझने के लिए ज़रूरी है कि मुसलमान आज जिस हक़ीक़त में रहते हैं इन हालात का बारीकबीनी और गहराई से इल्म हासिल किया जाये ताकि तमाम समस्याओं की जड़ व बुनियादी कारण पर उंगली रखी जा सके और जिसको हल कर दिया जाये तो फिर इससे संबधित तमाम समस्याएँ पूर्ण तरीक़े से हल करना मुम्किन होगा । चुनांचे तब्दीली की ये शक्ल एक बुनियादी तब्दीली होगी । जब हक़ीक़त की मुकम्मल समझ हो चुकी होगी और बुनियादी कारण मालूम होगा तब इस हक़ीक़त में आइद होने वाला शरई फ़रीज़ा हम निर्धारित कर सकेंगे जिसे हासिल करना हम पर ज़रूरी है । इसके बाद जमात उस पर आइद होने वाले तरीक़े से संबधित उन शरई अफ़आल को जान जाएगी जिनकी पाबंदी जमात के लिए लाज़िम है। ये उस वक़्त होगा कि जब इस्लाम के शुरुआती दौर को नज़रों के सामने रखा जाये जिसमें रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) रहते थे जो कि हमारे ज़माने के समान या इस ज़माने की हक़ीक़त से क़रीब है ताकि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के अफ़आल से अहकाम शरीया को अख़ज़ किया जा सके।

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