इस्लाम का निज़ामे हुकूमत खिलाफत है

ख़िलाफ़त इस्लामी शरीयत के अहकामात को नाफ़िज़ करने और दुनिया के सामने इस्लाम की दावत को पेश करने के लिए पूरी दुनिया के तमाम मुसलमानों की आम हुकूमत का नाम है। और यही इमामत है। पस ख़िलाफ़त और इमामत के एक ही मानी हैं। ये वो शक्ल है जो अहकाम शरीयत ने इस्लामी रियासत के लिए मुतय्यन की है। मुतअद्दिद सही अहादीस में ये दोनों अल्फाज़ एक ही मानी में इस्तिमाल हुए हैं। किसी भी शरई नस यानी क़ुरआन और सुन्नत में इन दोनों लफ़्ज़ों में से किसी एक के मानी दूसरे से मुख़्तलिफ़ नहीं, और सिर्फ़ क़ुरआन-ओ-सुन्नत ही शरई नुसूस हैं। ताहम इन अल्फाज़ यानी इमामत या ख़िलाफ़त की लफ़्ज़ी पाबंदी ज़रूरी नहीं बल्कि उन के मफ़हूम की पाबंदी लाज़िम है।
 
तमाम मुसलमानों पर एक ख़लीफ़ा के तक़र्रुर की फ़र्ज़ीयत की दलील सुन्नत-ए-रसूल और इज्मा ए सहाबा से मिलती है। जहां तक सुन्नत का ताल्लुक़ है तो मुस्लिम ने नाफ़े से रिवायत किया कि उन्हों ने अब्दुल्लाह बिन उमर से रिवायत किया : मैंने रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم को ये कहते हुए सुना:

))من خلع یدا من طاعۃ لقي اللّٰہ یوم القیامۃ لاحجۃ لہ ومن مات ولیس في عنقہ بیعۃ مات میتۃ جاھلیۃ((
 
“जो शख़्स (अमीर की) इताअत से अपना हाथ खींच ले तो क़ियामत के दिन वो अल्लाह ताला से इस हालत में मिलेगा कि इस के पास अपने (इस अमल के) लिए कोई दलील ना होगी। और जो कोई इस हाल में मरा कि उस की गर्दन में बैअत (का तौक) ना हो तो वो जाहिलियत के दिनों की मौत मरा”
 
नबी صلى الله عليه وسلم ने हर मुसलमान पर ये फ़र्ज़ किया कि उस की गर्दन में बैअत का तौक़ हो, और जो इस हाल में मरा कि उस की गर्दन में बैअत का तौक़ नहीं तो गोया उस की मौत जाहिलियत की मौत है। और बैअत सिर्फ़ और सिर्फ़ ख़लीफ़ा की हो सकती है इस के अलावा और किसी की नहीं। रसूलुल्लाह ने ये फ़र्ज़ क़रार दिया कि हर मुसलमान की गर्दन में ख़लीफ़ा की बैअत का तौक़ हो। आप ने ये नहीं फ़रमाया कि हर मुसलमान ख़लीफ़ा की बैअत करे। चुनांचे फ़र्ज़ हर मुसलमान की गर्दन में बैअत के तौक़ का मौजूद होना है। ये एक ख़लीफ़ा की मौजूदगी को लाज़िम करता है, जिस का वजूद उसे इस बात का मुस्तहिक़ बनाता है कि उस की बैअत का तौक़ हर मुसलमान की गर्दन में हो। पस ख़लीफ़ा के मौजूद होने से हर मुसलमान की गर्दन में बैअत का तौक़ होता है, ख़ाह वो मुसलमान बिलफ़ाल बैअत ना भी करे। लिहाज़ा ये हदीस इस बात पर दलालत करती है कि ख़लीफ़ा का तक़र्रुर फ़र्ज़ है और हर मुसलमान पर फ़र्ज़ है कि उस की गर्दन में बैअत का तौक़ मौजूद हो। ये हदीस इस बात की दलील नहीं कि हर मुसलमान पर बैअत देना फ़र्ज़ है। क्योंकि रसूलुल्लाह ने जिस चीज़ की मुज़म्मत की है, वो है मुसलमान की गर्दन का मौत तक बैअत (ख़लीफ़ा) से ख़ाली होना, ना कि सिरे से बैअत का ना करना। मुस्लिम ने आरज से और उन्होंने अबु हुरैरा (رضي الله عنه) रिवायत किया कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم  ने इरशाद फ़रमाया:

))إنماالإمام جُنۃ یُقاتَل من وراۂ ویُتقی بہ((
 

“बेशक ख़लीफ़ा ढाल है जिस के पीछे रह कर लड़ा जाता है और इसी के ज़रीये तहफ़्फ़ुज़ हासिल होता है”
और मुस्लिम ने अबु हाज़िम से रिवायत किया है कि उन्होंने कहा :मैं पाँच साल तक अबु हुरैरा (رضي الله عنه) की सोहबत में रहा, मैंने उन्हें नबी صلى الله عليه وسلم से ये बयान करते हुए सुना कि आप صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया: 
 
))کانت بنو إسرائیل تسوسھم الأنبیاء ‘ کلما ھلک نبي خلفہ نبي‘ وإنہ لا نبي بعدي ‘ وستکون خلفاء فتکثر ‘ قالوا: فما تأمرنا؟ قال: فُوا ببیعۃ الأول فالأول‘ وأعطوہم حقھم ‘ فإن اللّٰہ سائلھم عما استرعا ھم(( 

“बनी इसराईल की सियासत अंबिया करते थे। जब कोई नबी वफ़ात पाता तो दूसरा नबी उस की जगह ले लेता जबकि मेरे बाद कोई नबी नहीं है, बल्कि बड़ी कसरत से खुलफा होंगे। सहाबा ने पूछा: आप صلى الله عليه وسلم हमें क्या हुक्म देते हैं ? आप صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया: तुम एक के बाद दूसरे की बैअत को पूरा करो और उन्हें इन का हक़ अदा करो। क्योंकि अल्लाह  उनसे उन की रईयत के बारे में पूछेगा जो उस ने उन्हें दी”

और मुस्लिम इब्ने अब्बास (رضي الله عنه) से रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم की ये हदीस रिवायत करते हैं कि आप صلى الله عليه وسلم  ने इरशाद फ़रमाया: 
 
))من کرہ من أمیرہ شیءًا فلیصبر علیہ ‘ فإنہ لیس أحد من الناس یخرج من السلطان شبراً ‘ فمات علیہ ‘ إلا مات میتۃ جاھلیۃ((
 
“जिस ने अपने अमीर की किसी चीज़ को नापसंद किया तो लाज़िम है कि वो इस पर सब्र करे। क्योंकि लोगों में से जिस ने भी अमीर की इताअत से बालिशत बराबर भी ख़ुरूज किया और वो इस हालत में मर गया तो वो जाहिलियत की मौत मरा”

 
इन अहादीस में रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने ख़लीफ़ा की ये सिफ़त बयान की है कि वो ढाल यानी हिफ़ाज़त का ज़रीया है। रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم का इमाम को ढाल कहना इमाम की मौजूदगी के फ़वाइद (फायदे) बताना है। चुनांचे ये तलब है। क्योंकि अल्लाह (سبحانه وتعال) और रसूल صلى الله عليه وسلم की तरफ़ से किसी चीज़ की ख़बर अगर मुज़म्मत के तौर पर बयान की गई हो तो इसे तर्क करना मतलूब होता है यानी वो नहीं होता है। और अगर इस में मदह (तारीफ़) हो तो इस अमल का करना मतलूब होताहै। पस अगर कोई फे़अल मतलूब भी हो और इस पर किसी हुक्मे शरई के क़ियाम का दारो मदार भी हो और इस फे़अल को ना करने की सूरत में हुक्मे शरई ज़ाए हो जाये तो ये तलब, तलब-ए-जाज़िम (क़तई तलब) होगी । इन अहादीस में ये भी बयान किया गया है कि खुलफा मुसलमानों के उमूर की देख भाल करेंगे। जिस का मतलब है कि इन का क़ियाम मतलूब है। इन अहादीस में ये भी है कि मुसलमानों के लिए सुलतान (शरई इख़तियार के हामिल शख़्स) से अलैहदगी इख़तियार करना हराम है, जो इस बात की तरफ़ इशारा करता है कि मुसलमानों पर अपने लिए एक ऐसे सुलतान को मुक़र्रर करना वाजिब है जो उन पर इस्लाम नाफ़िज़ करे। अलावा अज़ीं रसूल صلى الله عليه وسلم ने खलीफ़ा की इताअत और उन की ख़िलाफ़त में तनाज़ा करने वालों से क़िताल का हुक्म दिया है। जिस से वाज़िह होता है कि ख़लीफ़ा को मुक़र्रर करना और उस की ख़िलाफ़त से तनाज़ा करने वालों के ख़िलाफ़ जंग के ज़रीये उस की हिफ़ाज़त करना फ़र्ज़ है। मुस्लिम ने रिवायत किया कि आप صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया:
 
))ومن بایع إماماً فأعطاہ صفقۃ یدہ، وثمرۃ قلبہ فلیطعہ إن استطاع۔ فإن جاء آخر ینازعہ فاضربوا عنق الآخر((

“और जो शख़्स किसी इमाम ( ख़लीफ़ा) की बैअत करे तो वो उसे अपने हाथ का मुआमला और दिल का फल दे दे (यानी सब कुछ इस के हवाला कर दे) फिर उसे चाहिए कि वो हसब-ए-इस्तिताअत उस की इताअत भी करे। अगर कोई दूसरा शख़्स आए और पहले ख़लीफ़ा से तनाज़ा करे तो दूसरे की गर्दन उड़ा दो”

चुनांचे इमाम की इताअत का हुक्म इस के तक़र्रुर का हुक्म है और इस के साथ तनाज़ा करने वाले के साथ जंग करने का हुक्म इस बात का वाजेह क़रीना (इशारा) है कि एक ख़लीफ़ा के वजूद को बरक़रार रखने का हुक्म एक क़तई हुक्म है।

जहाँ तक इज्मा ए सहाबा की बात है तो तमाम सहाबा ने रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم वफ़ात के बाद आप صلى الله عليه وسلم के पेशरू (यानी ख़लीफ़ा) मुक़र्रर करने की ज़रूरत पर इजमा किया। फिर वो अबुबक्र (رضي الله عنه) की वफ़ात के बाद उमर (رضي الله عنه) और उन की वफ़ात के बाद उस्मान (رضي الله عنه) और उन की वफ़ात के बाद अली (رضي الله عنه) के ख़लीफ़ा बनने पर मुत्तफ़िक़ हो गए। ख़लीफ़ा के तक़र्रुर पर इज्मा ए सहाबा की ताकीद इस बात से ज़ाहिर होती है कि वो आप صلى الله عليه وسلم की वफ़ात के बाद आप صلى الله عليه وسلم के ख़लीफ़ा के तक़र्रुर में मसरूफ़ हो गए और उन्हों ने आप صلى الله عليه وسلم  की तदफ़ीन (दफन) में ताख़ीर (देरी) की।
 
बावजूद ये के वफ़ात के बाद मय्यत को दफ़न करना फ़र्ज़ है, और जिन लोगों पर इस मय्यत को दफ़न करना फ़र्ज़ हो, इन का तदफ़ीन से पहले किसी और काम में मशग़ूल हो जाना हराम है। चुनांचे जिन सहाबा पर आप صلى الله عليه وسلم की तदफ़ीन फ़र्ज़ थी इन में से बाअज़ ख़लीफ़ा के तक़र्रुर में मशग़ूल हो गए जबकि दीगर सहाबा ने इस मशग़ूलियत पर सुकूत (खामोशी) इख़तियार किया। और वह सब रसूल صلى الله عليه وسلم की तदफ़ीन में दो रातों की ताख़ीर में शरीक थे। हालाँकि वो इस ताख़ीर से इनकार कर सकते थे और आप صلى الله عليه وسلم को सुपुर्दे खाक़ भी कर सकते थे। तो ये मय्यत को छोड़कर ख़लीफ़ा के तक़र्रुर में मसरूफ़ रहने पर इजमा था। ये जायज़ नहीं हो सकता जब तक कि ख़लीफ़ा का तक़र्रुर मय्यत की तदफ़ीन से ज़्यादा अहम फ़र्ज़ ना हो। इसी तरह तमाम सहाबा ने अपनी पूरी ज़िंदगी के दौरान ख़लीफ़ा के तक़र्रुर की फ़र्ज़ीयत पर इजमा किया। इस बारे में तो इख्तिलाफ हुआ कि किसे ख़लीफ़ा मुंतख़ब किया जाये? लेकिन ना तो रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के विसाल के मौक़े पर और ना ही खुलफा-ए-राशिदीन में से किसी ख़लीफ़ा की वफ़ात के वक़्त इस बात पर कभी इख्तिलाफ हुआ कि ख़िलाफ़त फ़र्ज़ भी है या नहीं। चुनांचे ख़लीफ़ा के तक़र्रुर की फ़र्ज़ीयत पर इज्मा ए सहाबा एक वाजेह और मज़बूत दलील है।
 
ये बात तयशुदा है कि दुनियावी ज़िंदगी के हर पहलू में शरई अहकामात को नाफ़िज़ करना मुसलमानों पर फ़र्ज़ है। उस की दलील क़तई अल सबूत भी है और क़तई अल दलाला भी। और ये एक साहिबे इख़तियार हाकिम के बगै़र मुम्किन नहीं। और शरई क़ायदा है कि जिस चीज़ के बगै़र कोई फ़र्ज़ पूरा ना हो, वो चीज़ भी फ़र्ज़ है । चुनांचे ख़लीफ़ा के तक़र्रुर की फ़र्ज़ीयत इस उसूल की बुनियाद पर भी साबित है।

मज़ीद बरआं अल्लाह سبحانه وتعال ने रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم को हुक्म दिया है कि आप मुसलमानों के दरमयान अल्लाह के नाज़िल करदा अहकामात के मुताबिक़ हुकूमत करें और इस का हुक्म क़तई तौर पर (यानी तलब-ए-जाज़िम के साथ) दिया गया है। रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم को ख़िताब करते हुए अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इरशाद फ़रमाया:
 
وَأَنزَلۡنَآ إِلَيۡكَ ٱلۡكِتَـٰبَ بِٱلۡحَقِّ مُصَدِّقً۬ا لِّمَا بَيۡنَ يَدَيۡهِ مِنَ ٱلۡڪِتَـٰبِ وَمُهَيۡمِنًا عَلَيۡهِۖ فَٱحۡڪُم بَيۡنَهُم بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُۖ وَلَا تَتَّبِعۡ أَهۡوَآءَهُمۡ عَمَّا جَآءَكَ مِنَ ٱلۡحَقِّۚ
 पस आप صلى الله عليه وسلم उन के दरमयान अल्लाह ताला के नाज़िल करदा (अहकामात) के मुताबिक़ फ़ैसला करें ,और जो हक़ आप صلى الله عليه وسلم के पास आया है, इस के मुक़ाबले में उन की ख़ाहिशात की पैरवी ना करें (अलमाइदा: 48) 

और इरशाद फ़रमाया:

وَأَنِ ٱحۡكُم بَيۡنَہُم بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ وَلَا تَتَّبِعۡ أَهۡوَآءَهُمۡ وَٱحۡذَرۡهُمۡ أَن يَفۡتِنُوكَ عَنۢ بَعۡضِ مَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ إِلَيۡكَۖ فَإِن تَوَلَّوۡاْ فَٱعۡلَمۡ أَنَّمَا يُرِيدُ ٱللَّهُ أَن يُصِيبَہُم  بِبَعۡضِ ذُنُوبِہِمۡۗ وَإِنَّ كَثِيرً۬ا مِّنَ ٱلنَّاسِ لَفَـٰسِقُونَ 
और ये कि आप उन के दरमियान अल्लाह (سبحانه وتعال) के नाज़िल करदा (अहकामात ) के मुताबिक़ फ़ैसला करें और उन की ख़ाहिशात की पैरवी ना करें। और उन से मुहतात रहें कि कहीं ये अल्लाह ताला के नाज़िल करदा ( बाअज़ अहकामात ) के बारे में आप को फ़ित्ने में ना डाल दें (अलमाइदा: 49)

रसूल صلى الله عليه وسلم से अल्लाह का ख़िताब उम्मत के लिए भी है जब तक कि इस ख़िताब के आप صلى الله عليه وسلم के साथ ख़ास होने की कोई दलील ना हो। और यहां ऐसी तख़सीस की कोई दलील मौजूद नहीं। चुनांचे ये अल्लाह का ख़िताब तमाम मुसलमानों के लिए भी है कि वो इस्लामी अहकामात को क़ायम करें। और ख़लीफ़ा का क़ियाम इस के सिवा कुछ नहीं कि अल्लाह (سبحانه وتعال) के हुक्म और इस्लाम की अथार्टी को क़ायम किया जाये। इस के इलावा अल्लाह ताला ने उलिल अम्र (साहब-ए-इक़तिदार) की इताअत को भी मुसलमानों पर फ़र्ज़ किया है। इस से मालूम होता है कि मुसलमानों पर उलिल अम्र के वजूद का होना वाजिब है। इरशाद-ए- बारी ताला है:

يَـٰٓأَيُّہَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُواْ ٱلرَّسُولَ وَأُوْلِى ٱلۡأَمۡرِ مِنكُمۡۖ

ऐ ईमान वालो! इताअत करो अल्लाह की और इताअत करो रसूल की और अपने में से उन लोगों की जो साहिबे इक़्तिदार हैं (अन्निसा:59)
 
अल्लाह (سبحانه وتعال) कभी भी उस शख़्स की इताअत का हुक्म नहीं देता जिस का वजूद ही ना हो। चुनांचे ये आयत इस बात पर दलालत करती है कि उलिल अम्र का होना वाजिब है। क्योंकि अल्लाह (سبحانه وتعال) के नाज़िल करदा अहकामात के मुताबिक़ हुकूमत करना वाजिब है। पस जब अल्लाह (سبحانه وتعال) ने उलिल अम्र की इताअत का हुक्म दिया तो इस के वजूद का हुक्म तो ज़रूर दे चुके हैं। क्योंकि उलिल अम्र के वजूद पर शरई हुक्म का दारो मदार है और इस के ना होने की सूरत में शरई हुक्म ज़ाए हो जाता है। लिहाज़ा इस का वजूद फ़र्ज़ है। क्योंकि इस के अदम वजूद की सूरत में हुक्मे शरई ज़ाए होता है जो कि हराम है।

ये दलायल बड़े सरिह और वाजेह हैं कि मुसलमानों पर अपने में से एक हुकूमत और अथार्टी को क़ायम करना फ़र्ज़ है। और ये दलायल इस मसले पर भी वाजेह और सरिह हैं कि मुसलमानों पर एक ख़लीफ़ा का तक़र्रुर फ़र्ज़ है जो हुकूमत-ओ-अथार्टी का हामिल हो। और ये तक़र्रुर शरई अहकामात के निफ़ाज़ के लिए हो ना कि सिर्फ इख़तियार और हुकूमत के लिए। इसे समझने के लिए रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के इस क़ौल पर ग़ौर करें जिसे मुस्लिम ने औफ़ बिन मालिक नक़ल किया है:
 
))خیارأ ئمتکم الذین تحبونھم ویحبونکم ‘ وتصلون علیھم ویصلون علیکم‘ وشرار ائمتکم الذین تبغضونھم ویبغضونکم وتلعنونھم ویلعنونکم‘ قیل یارسول اللّٰہ أفلا ننابذھم بالسیف ‘ فقال: لا، ما أقاموا فیکم الصلاۃ((
 
तुम्हारे बेहतरीन इमाम वो हैं जिन से तुम मुहब्बत करो और वो तुम से मुहब्बत करें। वो तुम्हारे लिए दुआएं करें और तुम उन के लिए दुआएं करो। और तुम्हारे बदतरीन इमाम वो हैं जिन से तुम बुग़्ज़ रखो और वो तुम से बुग़्ज़ रखें। तुम उन पर लानतें भेजो और वो तुम पर लानतें भेजें। इस पर आप صلى الله عليه وسلم से सवाल किया गया: क्या हम (ऐसी सूरत में) उन्हें बज़ोर-ए-शमशीर हटा ना दें? आप  صلى الله عليه وسلم ने  फ़रमाया: उस वक़्त तक नहीं जब तक कि वो तुम्हारे दरमियान नमाज़ क़ायम रखें
 
ये हदीस बेहतरीन और बदतरीन इमामों के बारे में ख़बर देने में वाज़िह (स्पष्ट) है। और जब तक वो दीन को क़ायम रखें उस वक़्त तक उन के ख़िलाफ़ तलवार उठाना हराम है। क्योंकि इक़ामत-ए-नमाज़ दरअसल इक़ामत-ए-दीन और इस के अहकामात के निफ़ाज़ की तरफ़ किनाया है। पस इस्लाम के अहकामात को नाफ़िज़ करने और इस्लाम को फैलाने के लिए ख़लीफ़ा का तक़र्रुर (नियुक्ति) मुसलमानों पर फ़र्ज़ है और सहीह नुसूस-ए-शरई से इस का सबूत किसी शक व शुबा से बालातर है। इस से बढ़ कर ये कि अल्लाह ने मुसलमानों पर इस्लामी अहकामात के निफ़ाज़ और मुसलमानों की वहदत की हिफ़ाज़त को फ़र्ज़ क़रार दिया है। अलबत्ता ये फ़र्ज़े किफ़ाया है। अगर बाअज़ लोग इस के क़ियाम के लिए कोशिश करने के बावजूद उसे क़ायम ना कर सकें तो ये तमाम मुसलमानों पर बतौर-ए-फ़र्ज़ बाक़ी रहेगा। और ये फ़र्ज़ किसी भी मुसलमान से उस वक़्त तक साक़ित ना होगा जब तक कि मुसलमान ख़लीफ़ा के बगै़र रहेंगे।
 
मुसलमानों के लिए ख़लीफ़ा के क़ियाम से किनाराकशी इख़तियार करना अज़ीम गुनाहों में से एक है। क्योंकि ये इस्लामी फ़राइज़ में से एक इंतिहाई अहम फ़र्ज़ की अदायगी में कोताही बरतना है, ऐसा फ़र्ज़ जिस पर इस्लामी अहकामात के निफ़ाज़ का इन्हिसार (निर्भरता) है, बल्कि कारज़ार-ए-हयात में इस्लाम का वजूद भी उसी का मुहताज है। अगर तमाम मुसलमान अपने लिए ख़लीफ़ा के तक़र्रुर के काम को तर्क कर दें तो सब सख़्त गुनहगार होंगे। और वो सब इस कोताही पर इकट्ठे हो जाएं तो दुनिया भर के तमाम मुसलमान फ़र्दन फ़र्दन गुनहगार ठहरेंगे। ताहम अगर कुछ मुसलमान ख़लीफ़ा के तक़र्रुर के काम के लिए उठ खड़े हों जबकि बाक़ी ऐसा ना करें तो वो गुनाह उन लोगों पर से हट जाएगा जो ख़लीफ़ा के तक़र्रुर में मशग़ूल हो गए और ये फ़रीज़ा उन पर उस वक़्त तक बाक़ी रहेगा जब तक कि ख़लीफ़ा का क़ियाम अमल में नहीं आता। किसी फ़र्ज़ को पूरा करने में मशगूल-ए-अमल होना इस फ़र्ज़ की तकमील में देरी और उस की अदाइगी को छोडने के गुनाह को साक़ित कर देता है। ये इस फ़र्ज़ की अदायगी में मसरूफ़ होने और उस की तकमील से दूर रहने को नापसंद करने की वजह से है। लेकिन जो लोग इस फ़र्ज़ की अदायगी में सरगर्म ही नहीं तो वो एक ख़लीफ़ा के जाने के तीन दिन बाद से अगले ख़लीफ़ा के तक़र्रुर तक गुनहगार होंगे क्योंकि अल्लाह (سبحانه وتعال) ने उन पर इस फ़र्ज़ को आइद किया और उन्होंने उस को ना तो अदा किया और ना ही वो काम किया जो इस फ़र्ज़ की अदायगी का ज़रीया बन सके। पस वो ख़लीफ़ा के क़ियाम में कोताही और इस के लिए ज़रूरी आमाल की अदमे अदाइगी के नतीजे में दुनिया और आख़िरत में अल्लाह (سبحانه وتعال) के अज़ाब और रुसवाई के मुस्तहिक़ क़रार पाएंगे। क्योंकि कोई भी मुसलमान अगर फ़र्ज़ को अदा ना करे तो वो सज़ा का मुस्तहिक़ ठहरता है, खासतौर पर ऐसा फ़र्ज़ जिस के ज़रीये दूसरे फ़राइज़ का निफ़ाज़ होता हो और अल्लाह के दीन के अहकामात क़ायम होते हों और इस्लामी सरज़मीन और पूरी दुनिया में अल्लाह का दीन सरबुलंद होता हो।
 
लिहाज़ा दुनिया के किसी भी ख़ित्ते में मौजूद किसी भी मुसलमान के लिए कोई उज़्र नहीं कि वो इक़ामत-ए-दीन के लिए काम ना करे जबकि अल्लाह ने उसे फ़र्ज़ क़रार दिया है। यानी उस वक़्त जब दुनिया पर मुसलमानों का कोई ख़लीफ़ा मौजूद ना होतो वो मुसलमानों के लिए एक ख़लीफ़ा के तक़र्रुर के लिए काम करे। यानी वो ख़लीफ़ा, जो अल्लाह की हदूद को क़ायम करे, अल्लाह की हुरमतों का तहफ़्फ़ुज़ करे, दीन के अहकामात को नाफ़िज़ करे और मुसलमानों को لا الہ الا اللّٰہ محمد رسول اللّٰ  के झंडे तले जमा करे । इस्लाम में ऐसी कोई रुख़स्त मौजूद नहीं जो किसी को भी इस फ़र्ज़ की अदायगी के काम से मुस्तसना (बरी) करे, जब तक कि इस फ़र्ज़ की तकमील ना हो जाये।

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