अम्र बिल मारूफ की ज़िम्मेदारी किन के ज़िम्मे है.docx

दूसरा पहलू: अम्र बिल मारुफ़ और नही अनिल मुनकर

हमने कहा इस्लाम ने हर एक मारूफ़ और हर एक मुनकर की वज़ाहत की है और मुस्लिम पर लाज़िमी है कि वो हर मारूफ़ जो उसके ज़िम्मे हैं उन्हें अंजाम दे और हर मुनकर से इज्तिनाब करे । यहां एक सवाल पैदा होता है कि; क्या वो हर उस मारूफ़ का हुक्म देता है जिन मारूफ़ात पर वो ख़ुद अमल करता है या वो इन मारूफ़ात में से अधिकतर का हुक्म देता है या उन मारूफ़ात में से कुछ क़दरे कम का हुक्म देता है? इसी तरह ये सवाल कि क्या वो हर एक मुनकर को रोकता है जिससे वो ख़ुद इज्तिनाब करता है, या वह उनकी अक्सरीयत से रोकता है या जिनसे वो ख़ुद गुरेज़ करता है इनमें से कुछ कम को रोकता है ?

इससे पहले कि हम इस विषय को संबोधित करें हमें ये समझ लेना होगा कि इस विषय की मुनासबत से शरीयत का हम से क्या मुतालिबा है और वो हक़ीक़ते-हाल में किस हद तक अंजाम दिया जाता है । शरीयत का मुतालिबा ये है कि इस्लामी समाज इस तर्ज़ पर स्थापित हो कि इसमें राइज कोई एक तसव्वुर भी शरअ में उल्लेखित नज़रियात के विरोध में ना हो और ना ही इस समाज में कोई ऐसा ही अमल अंजाम पाए जो शरअ में ना-मंज़ूर हो। और शरअ में बयान किए हर एक हराम मुनकर को समाज में रोका जाता हो और उसकी सज़ा दी जाती हो। दूसरे शब्दो में अल्लाह (سبحانه وتعالى) का हर एक फ़रमान जो अहकाम हो या अक़ीदा हो समाज में उस पर पाबंदी होती हो और बरक़रार हो। हर एक मुनकर जो घटित (happened) हुआ हो या उसके होने का अन्देशा हो तो उसका तआक़ुब (pursued/पीछा) करके ख़त्म किया जाता हो अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने मुसलमानों पर इस ज़िम्मेदारी को अंजाम देने के हुक्म नाज़िल किए हैं और अल्लाह ने इस फे़अल कवाअली वाज़ीम तरीन अमल क़रार दिया है और इसमें बेहद अज्रे अज़ीम रखा है

इमाम ग़ज़ाली (رحمةاللہ) अपनी किताब अहया-उल-उलूमूद्दीन में फ़रमाते हैं :
अम्मा बाद; बेशक दीन में सबसे आला और अज़ीम स्तंभ अम्र बिल मारुफ़ और नही अनिल मुनकर है । यही मिशन है जिसके साथ अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने तमाम अंबिया-ए-किराम को भेजा था अगर उसका वजूद ख़त्म हो जाए और उससे संबधित इल्म और पाबंदी को नज़रअंदाज़ किया गया हो तो नबुव्वत से जारी ये सिलसिला मुअत्तल हो जाएगा दीन नापैद हो जाएगा और ऐसा अर्सा कि जिसमें दीन ग़ैर मौजूद हो ग़ालिब रहेगा, गुमराही और जहालत फैलने लगेगी फ़साद और बदउनवानी अपनी इंतिहा को पहुंच चुका होगा और इसका भुगतान नाक़ाबिल मरम्मत हो जाएगा और सरज़मीनें तबाह हो जाएगी और अवामुन्नास हलाक होंगे।

वो जिन पर दीन की ज़िम्मेदारी आइद डाली गई है
यानी हुक्काम, अफराद और जमात पर अलग-अलग ज़िम्मेदारियाँ

इस विषय पर तफ़्सीली गुफ़्तगु में जाने से पहले हमें एक और बात अच्छी तरह जान लेनी चाहीए कि वो कौन लोग हैं जिन पर शरई क़वानीन को नाफ़िज़ करने की ज़िम्मेदारी डाली गई है । क्योंकि मुसलमान उम्मत में अफराद (individuals), हुक्काम (rulers) और जमातें शामिल है शरअ ने इन विभिन्न श्रेणीयों के तहत लोगों के ज़िम्मे विशेष अहकामात सपुर्द किए हैं जिसकी उन्हें हर हाल में पाबंदी करनी है। चुनांचे उसके बाद उनको नसीहत, उनका एहतिसाब व मवाख़ज़ा (accountibility), उनकी इस्लाह उन पर आयद किए गए इन अहकामात की ज़िम्मेदारीयों की अदायगी में नाकामी के हिसाब से की जाती है। लिहाज़ा इन श्रेणी के अफ़राद की अपनी ज़िम्मेदारी से संबधित इस बात की हक़ीक़त अगर हमारी नज़रों में धुँदली हो जाएगी तो नतीजतन हमारे लिए अम्र बिल मारुफ़ और नही अनिल मुनकर के फ़रीज़े को अंजाम देना निहायत ही दुशवार हो जाएगा चुनांचे इस बात की वज़ाहत के लिए हम निम्न लिखित बिन्दू बयान करते हैं :

शरई अहकामात का एक विशेष हिस्सा ख़लीफ़ा या अमीर के ज़िमी सुपुर्द किया गया है जिन पर अमीर के अलावा किसी को भी अमल दरआमद करने का इख्तियार नहीं दिया गया है इसी तरह शरई अहकामात का एक दूसरा विशेष हिस्सा व्यक्ति के ज़िम्मे किया गया है जिनकी अफराद के ज़रीए अंजामदेही में नाकामी की स्थिति में ख़लीफ़ा उन्हें अपने मातहत अंजाम देता है इनके अलावा कुछ अहकाम ऐसे हैं जो शरअ ने ख़लीफ़ा के ज़िम्मे किए हैं लेकिन उन्हें ख़ास हालात के तहत अफराद अंजाम दे सकते हैं और कुछ अहकामात ऐसे हैं जो शरअ ने जमात या गिरोह के ज़िम्मे किए हुए हैं 
फर्द की ज़िम्मेदारी

जहां तक अफराद पर आइद अहकामात का ताल्लुक़ है तो इनमें इबादात, रोज़ा, हज, ज़कात और मुनकिरात से इज्तिनाब जैसे ख़मर (शराब वग़ैराह), जुआँबाज़ी, सूद, चोरी, क़त्ल, ज़िना, फ़हाशी, झूठ, धोकेबाज़ी, ग़ीबत ज़नी और इसी किस्म के तमाम मुनकिरात से गुरेज़ वग़ैरा ऐसे अहकामात शामिल हैं मुसलमानों के तमाम अफ़राद को इन तमाम अहकामात की पाबंदी का हुक्म है वो चाहे दारुल-कुफ्र में मौजूद हो या दारुल-इस्लाम में रहते हो और चाहे वो इस्लामी सरज़मीनों (देशों) में रहते हो या कुफ्र सरज़मीनों (देशों) में मुक़ीम हो । यहां पर हरगिज़ ये नहीं देखा जाता कि रसूल (صلى الله عليه وسلم) और उनके अस्हाब (رضی اللہ عنھم) ने सिर्फ़ मक्का मुकर्रमा की हद में कौन सा फे़अल अंजाम दिया और सिर्फ़ मदीना मुनव्वरा की हद में कौन सा फे़अल अंजाम दिया है बल्कि अफराद के लिए ज़रुरी शरई क़वानीन की पाबंदी इबादात, मामलात, मतऊमात (खाने पीने की चीज़ें), मलबूसात (वेश-भूशा), अख़्लाक़ीयात और तमाम इस्लामी अक़ाइद, इन मामलात में है अफराद पर इन तमाम अहकामात की पाबंदी हर हाल में आइद है। हर अफराद अपने अहले-ख़ाना के बारे में ज़िम्मेदार है शरअ ने अफराद को वली (सरपरस्त) मुक़र्रर किया है। कोई मुस्लिम व्यक्ति अगर दारुल-कुफ्र में रहता है और वहां का इक़्तिदार उसे इन इन्फ़िरादी क़िस्म के इस्लामी अहकामात को अंजाम देने से रोकता हो तो उस पर आइद होता है कि वो इस जगह से ऐसी किसी दूसरी जगह हिज्रत इख्तियार करे जो या दारुल-इस्लाम हो या ऐसा दारुल-कुफ्र हो जहां उसे ये शरई इन्फ़िरादी अधिकार हासिल हो जैसा कि इरशादे बारी ताअला है :
﴿إِنَّ الَّذِينَ تَوَفَّاهُمُ الْمَلآئِكَةُ ظَالِمِي أَنْفُسِهِمْ قَالُواْ فِيمَ كُنتُمْ
قَالُواْ كُنَّا مُسْتَضْعَفِينَ فِي الأَرْضِ قَالْوَاْ أَلَمْ تَكُنْ أَرْضُ اللّهِ وَاسِعَةً
فَتُهَاجِرُواْ فِيهَا فَأُوْلَـئِكَ مَأْوَاهُمْ جَهَنَّمُ وَسَاءتْ مَصِيراً  إِلاَّ
الْمُسْتَضْعَفِينَ مِنَ الرِّجَالِ وَالنِّسَاء وَالْوِلْدَانِ لاَ يَسْتَطِيعُونَ حِيلَةً
وَلاَ يَهْتَدُونَ سَبِيلاً﴾ {98--4:97}
“बेशक जो लोग अपने नफ़्सों पर ज़ुल्म कर रहे थे उनकी रूहें जब फरिश्तों ने क़ब्ज़ कीं तो उनसे पूछा कि तुम किस हाल में थे तो उन्होंने जवाब दिया हम इस मुल्क में बेबस  थे फरिश्तों ने कहा क्या अल्लाह वसीअ न थी कि तुम उसमें हिज्रत कर जाते सो ऐसो का ठिकाना जहन्नुम है और वह बहुत ही बुरा ठिकाना है, हाँ जो मर्द और औरतें और बच्चे वाक़ई कमज़ोर हैं जो निकलने का कोई ज़रिया और रास्ता नहीं पाते”

लिहाज़ा मुस्लिम के लिए मुस्तहब ये है कि वो दारुल-कुफ्र से दारुल-इस्लाम की तरफ हिज्रत करे चाहे दारुल-कुफ्र में उसे इन शरई अहकामात पर अमल की इजाज़त मिली हुई हो अलबत्ता अगर वह उस दारुल-कुफ्र को दारुल-इस्लाम में तबदील करना चाहता हो तो उसी सूरत में वहां रह सकता है। ये बात ज़हन नशीन रहे कि दारुल-इस्लाम वो जगह है जिसकी हुकूमत मुकम्मल इस्लाम के तले हो और उसकी अमान (सलिता) या हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी मुसलमानों के हाथों में हो।

 इसके अलावा जहां तक अफराद (individuals) पर आइद उन शरई अहकामात की ज़िम्मेदारी का ताल्लुक़ है कि अफराद के ज़रीये जिनकी अंजामदेही में नाकामी की सूरत में ख़लीफ़ा उन्हें अपने मातहत अंजाम दे सकता है तो वो इस तरह के अहकामात हैं जैसे किसी अहल-ए-ख़ाना को नान नफ़क़ा फ़राहम कराना, अगर वली उन्हें ये उपलब्ध कराने में नाकाम होता है, इसके अलावा देहात और शहरी इलाक़ों में मस्जिदों की तामीर करवाना अगर बस्ती के निवासी उसकी तामीर में नाकाम होते हो वग़ैराह ।

खलीफा और हुक्काम की ज़िम्मेदारी

इसके अलावा जहां तक ख़लीफ़ा पर आइद उन शरई अहकामात की ज़िम्मेदारी का ताल्लुक़ है जो सिर्फ़ ख़लीफ़ा ही अंजाम दे सकता है और ख़लीफ़ा के अलावा किसी को इजाज़त नहीं कि उन्हें अंजाम दे जैसे हदूद का निफ़ाज़, जंग का ऐलान, ताअज़ीराती क़वानीन की तदवीन, और समाज के ज़रूरी मामलात की निगरानी करना। इन तमाम मामलात और इसी किस्म के मामलात की अंजामदेही की ज़िम्मेदारी शरअ ने सिर्फ़ ख़लीफ़ा के मातहत सीमित कर रखी है ।

इसके अलावा जहां तक उन शरई अहकामात की ज़िम्मेदारी का ताल्लुक़ है जो ख़लीफ़ा पर आइद हैं लेकिन ख़ास हालात के तहत अफराद उन्हें अंजाम दे सकते हैं तो ये ऐसे मामलात हैं जैसे जिहाद, अलबत्ता अगर दुश्मन मुसलमानों पर अचानक हमला करदें तो मुसलमानों पर वाजिब है कि वो क़िताल करें चाहे उन्हें क़िताल का हुक्म ना दिया गया हो या ख़लीफ़ा की इजाज़त हासिल ना हुई हो या ख़लीफ़ा मौजूद ना हो और ऐसी घटना हो चुकी हो जिसकी ख़ातिर जिहाद वाजिब हो चुका हो। अफराद इस जिहाद को अंजाम देंगे चाहे उनका हाकिम फ़ाजिर ही क्यों ना हो या अमीर के मातहत अफ़राद की तादाद जिहाद के लिए कितनी ही कम क्यों ना हो। अलबत्ता बुनियादी तौर पर मुसलमानों को इस आख़िरी हालत को किसी हाल में क़बूल करने और इस पर पुरसकून रहने की इजाज़त नहीं यानी ऐसी हालत कि कोई ख़लीफ़ा मौजूद ना हो और मुसलमान फ़ाजिर हुक्मरानों की क़यादत में आ जाऐं और उनकी इमारत के मातहत ज़िंदगी गुज़ारने लगें ।
जहां तक उन शरई अहकामात की ज़िम्मेदारी का ताल्लुक़ है जो गिरोह या जमात से संबधित हैं जैसे ख़िलाफ़त के क़याम का अमल या हुक्मरानों का एहतिसाब (accountability) करना और उन्हें मजबूर करना कि वो हक़ को इख्तियार करें और सिर्फ़ हक़ पर क़ायम रहें। अफ़आल जो गिरोह, क़ुतला, पार्टी, तंज़ीम, बलॉक या इस्लामी जमीअत से संबधित हैं इसके दायरे में आते हैं ।
यक़ीनन ये वज़ाहत (स्पष्टिकरण/व्याख्या) निहायत अहम मामला है कि शरई अहकामात की अंजामदेही की ज़िम्मेदारी किसके ज़िम्मे आइद की गई है। इसकी वजह ये है शरअ के निफ़ाज़ के ताल्लुक़ से ज़रा भी ग़फ़लत या रुगरदानी और इसके बारे में लाइल्मी मुसलमानों को उसके निफ़ाज़ में अंधा धुंद अमल इख़्तियार करने पर मजबूर कर देगी चाहे वो तेहरीकें हो या अफराद हो। लिहाज़ा मुसलमान शरई अहकाम की मुनासिब समझ और इसकी हक़ीक़त का इदराक खो बैठेंगे और नतीजतन उसकी उचित और सही तनफ़ीज़ भी खो देंगे, चुनांचे शरई अहकामात के निफ़ाज़ के ज़िम्मेदार अफ़राद की पहचान स्पष्ट ना होने की वजह से हर मुसलमान इन फ़राइज़ से संबधित अपनी ज़िम्मेदारी से ग़फ़लत इख्तियार करने लगेगा और फिर यहाँ तक कि वो उन्हें नजरअंदाज़ करने लगेगा, और फिर इन फ़राइज़ की बजाय मंदूबात (मुस्तहब अफ़आल) को अंजाम देने लगेगा।

चूँकि अफराद जमात का भी हिस्सा होते हैं लिहाज़ा जमातें या ग्रुप भी इन शरई अहकामात की तरफ़ मुतवज्जोह होंगे और अध्ययन करने लगेंगे जो अहकाम अफराद के ज़िम्मे आइद होते हैं और फिर जमातों से संबधित उन शरई अहकामात को नज़रअंदाज कर देंगे जो उसके मैंबरान पर बहैसीयत ग्रुप या जमात के आइद होते हैं या अगर वो जमात या गिरोह से संबधित इस्लामी रियासत के क़याम की ज़िम्मेदारी को अंजाम देने की जद्दो-जहद करेंगे तो ऐसी हालत में अंजाम देने की कोशिश करेंगे जब उन्हें शरई अहकामात की ज़िम्मेदारीयों की तक़सीम का ज्ञान ना होगा जिसको शरअ ने निर्धारित किया है और जिनकी पाबंदी करना हम पर फ़र्ज़ है, चुनांचे आलिमे दीन भी जब लोगों के बीच वाज़ और नसीहत करेगा तो अफराद पर आयद कुछ विशेष फ़राइज़ के बारे में ख़िताब करेगा जैसे इबादात, ज़कात, रोज़ा वग़ैराह और इनके अलावा दीगर अहकामात को बयान करना छोड़ देगा मसला उसे अहकाम जो तिजारत या लेन देन जो मुसलमानों की सामाजिक ज़िंदगी से ताल्लुक़ रखते हो, ग़ीबत और मुसलमानों की मुख़्बिरी करने से मुताल्लिक़ अहकाम, यहाँ तक कि फ़र्ज़ किफ़ाया जो इज्तिमाई फ़राइज़ हैं उन्हें भी वो नजरअंदाज़ कर देता है जिसमें अहम तरीन फ़र्ज़ इस्लामी रियासत का क़याम है ।

लोगों के बीच वो आलिम एक बहुत मुत्तक़ी और परहेज़गार शख़्स मालूम होता है या उस शख़्स की तरह जो सिर्फ उन्हें ख़बरदार कर रहा होता है । अलबत्ता वो लोगों के सामने एक ऐसे आलिमे दीन की तरह ज़ाहिर नहीं होता जो ज़बरदस्त इल्मे-दीनी भी रखता हो और संजीदा माहिर सियास्तदान की तरह जो उम्मत की समस्याओं का गहरा अध्ययन और मुकम्मल जानकारी और उनके हल की फ़िक्र भी रखता हो और इसने उनके मसाइल के हल की ख़ातिर विभिन्न शरई हल अख़ज़ कर रखे हो और वो उन मसाइल को हल करने की ग़रज़ से अवामुन्नास के बीच उनके हल का मुकम्मल ख़ाका लेकर उनके सामने पेश होता है ।

इस्लामी समाज के उन तमाम श्रेणीयों के ज़िम्मे जो भी विभिन्न अहकामात निर्धारित हैं उन्हें उन पर पाबंदी करना लाज़िमी है अगर इन विभिन्न श्रेणीयों के अफ़राद अपनी ज़िम्मेदारीयों को अंजाम देने में नाकाम हो रहे हो तो ज़रूरी हो जाता है कि उनको नसीहत भी की जाये, मारूफ़ का हुक्म दिया जाये और मुनकर से रोका जाये लेकिन उनका एहतिसाब-ओ-मुवाख़िज़ा उस हुक्म के बारे में नहीं किया जाएगा जो उनकी ज़िम्मेदारी नहीं है, इस तरह शरअ की निफ़ाज़ की ज़िम्मेदारी किसी एक निगरान की निगरानी में सीमित नहीं कर दी गई है बल्कि शरअ के निफ़ाज़ की ज़िम्मेदारी के लिए शरअ ने विभिन्न ज़िम्मेदार निगरान मुक़र्रर किए हैं जहां हर ज़िम्मेदार अपनी ज़िम्मेदारी को अंजाम देगा और इस तरह तमाम उम्मत मिल कर शरीयत का मुकम्मल निफ़ाज़ करेगी । और फिर जब मुसलमान अफराद की हैसियत से अपनी शरई ज़िम्मेदारी अंजाम देते हैं, मुसलमान ग्रुप और जमात की हैसियत में अपनी ज़िम्मेदारी अंजाम देते हैं और मुसलमान ख़लीफ़ा ख़ुद पर आयद ज़िम्मेदारियां अंजाम देता है तो उम्मत के ज़रीये इन सबसे इस तरह दीने इस्लाम का मुकम्मल निफ़ाज़ होगा ।

हमें इस हक़ीक़त की तरफ तवज्जोह करनी होगी कि मुस्लिम अफराद को इस्लाम में हर हाल में मुकम्मल तौर पर ईमान रखने पर पाबंद किया गया है अलबत्ता उसकी ज़िंदगी में किसी फे़अल (action) की ज़रूरत पेश आने पर वो उस फे़अल से संबधित उसकी शरई तफ़्सील इख्तियार करता है और उसे अंजाम देता है जिसकी ज़रूरत उसे पेश आई हो, एक व्यक्ति होने के नाते इससे फे़अल में जो कुछ दरकार (required) हो, किसी जमीअत और पार्टी के मैंबर की हैसियत से इससे जो भी अपेक्षित हो जिसकी वो नुमाइंदगी करता है वो अंजाम देता है, इस फे़अल की अंजामदेही के मामले में किसी भी कोताही का उसे अल्लाह (سبحانه وتعالى) के सामने हिसाब देना होगा लिहाज़ा शरअ उस पर उम्मत के अफराद की हैसियत से जो ज़िम्मेदारी आइद करती है उसे हर वह फे़अल अंजाम देना होगा इसी तरह ख़लीफ़ा को अपनी ज़िम्मेदारी की जवाबदेही करनी होगी चुनांचे बहैसीयत फ़र्द ख़लीफ़ा भी इबादत करता है रोज़ा रखता है, हज को अंजाम देता है साथ ही अपने वालदैन की निगरानी करता है, ज़िना और सूदखोरी से इज्तिनाब करता है। इन इन्फ़िरादी अफ़आल (actions) के साथ ख़लीफ़ा अपनी वो ज़िमेदारियां भी अंजाम देता है जो शरअ ने बहैसीयत ख़लीफ़ा इस पर आइद कर रखी हैं। चुनांचे वो क़वानीन (ताअज़ीरात वग़ैरा) की तदवीन (pass laws) करता है, जिहाद का ऐलान करता है, और मुसलमानों की सरज़मीनों की हिफ़ाज़त करता है, अल्लाह (سبحانه وتعالى) की नाज़िल करदा आयात के मुताबिक़ हुकूमत करता है और हदूदुल्लाह को इस ज़मीन पर नाफ़िज़ करता है। और इस मामलें में कोताही करने पर अल्लाह (سبحانه وتعالى) आख़िरत में उसका हिसाब लेगा, और उम्मत इस दुनिया में इससे संबधित ख़लीफ़ा का हिसाब करेगी।

विभिन्न फ़राइज़ के लिए विभिन्न ज़िम्मेदारान है, ये हक़ीक़त मुसलमानों के सामने स्पष्ट की जानी ज़रूरी है ताकि वो शरई ज़िम्मेदारीयों के असल निगरान के मुहासिबे (accounting) की ख़ातिर मुसलमानों के इन विभिन्न श्रेणीयों पर आइद ज़िम्मेदारीयों के बारे में तफ़रीक़ व पहचान (distinguish) कर सकें । लिहाज़ा अफराद या फ़र्द का एहतिसाब उनसे ग़ैर मुताल्लिक़ (असंबधित) ज़िम्मेदारीयों के लिए नहीं होगा और इसी तरह जमात या ग्रुप से लाताल्लुक़ (असंबधित) ज़िम्मेदारीयों के लिए जमात (ग्रुप) का एहतिसाब नहीं किया जाएगा इसी तरह ख़लीफ़ा का एहतिसाब उन फ़राइज़ के लिए नहीं होगा जिनके लिए वो ज़िम्मेदार नहीं बनाया गया है ।

शरअ ने तमाम मुसलमानों को अम्र बिल मारुफ़ और नही अनिल मुनकर की अंजामदेही के लिए ज़िम्मेदार बनाया है, हर फ़र्द अपने इल्म और इस्तिताअत के मुताबिक़ ज़िम्मेदार है । शरअ ने मुसलमानों के ज़रीये इस फ़रीज़े के क़याम को यक़ीनी (निश्चित) बनाने का हुक्म दिया है, बहैसीयते अफराद के, बहैसीयते ग्रुप या जमीअत के और हुक्मरान की हैसियत में उसे हर हाल में फ़र्ज़ क़रार दिया है चाहे इस्लामी रियासत मौजूद हो या ना हो। चाहे मुसलमानों पर पर काफ़िरों का क़ानून चलता हो या इस्लामी क़वानीन नाफ़िज़ हो या हुक्मरान उन पर इस्लामी क़वानीन का सही निफ़ाज़ करे या निफ़ाज़ में ग़लती करे । अम्र बिल मारुफ़ और नही अनिल मुनकर रसूल (صلى الله عليه وسلم) के दौर में अंजाम दिया जाता था इसके अलावा सहाबा (رضی اللہ عنھم) के दौर में भी ये अमल पाया जाता था ताबईन (رحمت اللہ علیہ) और तबे-ताबईन (رحمت اللہ علیہ) के दौर में भी ये अमल बरक़रार और क़ायम था और उसकी अंजामदेही का हुक्म आख़िरी लम्हा क़यामत तक बरक़रार रहेगा ।
चुनांचे अगर अफ़राद और जमात (ग्रुप) और हुक्मरान की तरफ से वो कुछ अफ़आल (मुनकिरात) अंजाम दीए जाएं जिसकी वजह से अम्र बिल मारुफ़ और नही अनिल मुनकर फ़र्ज़ हो जाए तो अफराद, जमात, इस्लामी रियासत पर लाज़िम हो जाएगा कि वो उसके हुक्म से संबधित निम्न लिखित तफ़सील को ध्यान में रख कर अम्र बिल मारुफ़ और नही उन अलमनकर अंजाम दें.

मुस्लिम फ़र्द पर अफराद की हैसियत से लाज़िम है कि वो उन मारूफ़ का हुक्म दें जिस मारूफ़ फे़अल के करने का उऩ्हें हुक्म दिया गया है और हर उस मुनकर फे़अल से रोकें जिस फे़अल के बारे में उन्हें इज्तिनाब करने का हुक्म दिया गया है चुनांचे मुस्लिम फ़र्द की मौजूदगी में अगर कुछ घटना घटित होती है तो उस पर लाज़िम होगा कि वो अपने इल्म के मुताबिक़ अम्र बिल मारुफ़ और नही अनिल मुनकर की इस दावत पर अमल करे नतीजतन अम्र बिल मारुफ़ और नही अनिल मुनकर इसके लिए एक फ़र्ज़े ऐनी बन जाता है जिसके बारे में मुसलमान फ़र्द गुनहगार होगा अगर वो उसको अंजाम नहीं देगा और इससे रुगिरदानी करने के लिए उसे बख्शा नहीं जाएगा। इस तरह मुसलमान फ़र्द उसकी रोज़ाना ज़िंदगी में उसकी बीवी, औलाद, रिश्तेदार, पड़ोसी, ख़रीदार, जान पहचान के लोग या मुलाक़ाती इनमें से हर एक शख़्स को नसीहत दीनी लाज़िम है अगर वो अपनी ज़िम्मेदार अंजाम ना दें या अल्लाह (سبحانه وتعالى) की ख़िलाफ़वरज़ी करें। लिहाज़ा ये कैसे मुम्किन है कि इस किस्म के गुनाह के वाक़िआत इसके रूबरू अंजाम ना पाते हो कई ऐसे गुनाह हो सकते हैं जिसकी ख़बर सिर्फ़ इसी को पता हो। जैसे इसके रूबरू एक ऐसी जगह गुनाह अंजाम हो जहां गुनाहगार और इसके अलावा कोई और मौजूद ना हो। ऐसे में वो मुस्लिम अगर उस शख़्स को नसीहत ना करे तो वो भी गुनाहगार होगा अलबत्ता समाज के दूसरे अफ़राद गुनाहगार ना होंगे क्योंकि उनकी मौजूदगी में मुनकर नहीं हुआ और गुनाह की इत्तिला उन्हें नहीं है। कोई भी फ़र्द उसकी जगह नहीं ले सकता है और ना ही उसके दायरा ए-इख्तियार में कोई दूसरा फ़र्द आकर उसकी भरपाई कर सकता है। चुनांचे एक फ़र्द के दायरा-ए-इख्तियार में होने वाले किसी भी मुनकर के लिए इस एक व्यक्ति के अलावा किसी और को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जाएगा।

जब मुसलमान ख़ुद अपनी ज़ात में हर उस अमल पर पाबंद होता है जिसके बारे में अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने हुक्म दिया है यानी वो उसकी ज़ात के बारे में हर मारूफ़ पर पाबंद होता है, हर मुनकर से इज्तिनाब करता है इसके बाद वो अपने इस मारूफ़ पर पाबंदी और मुनकर से इज्तिनाब के निजी अमल और ज़िम्मेदारी को अपने क़ौल और अमल के ज़रीये दूसरों तक स्थांतरित (transfer) करता है । अब अगर वो अहकाम को उसके इल्म की मार्फ़त के साथ अंजाम देता हो और वाज़ेह फ़ेहम रखता हो तो वो दूसरों तक इस अमल को उसके हुक्म के इल्म और वज़ाहत के साथ मुंतक़िल (transfer) करता है। अगर वो उन्हें मतब्बी (वो जो हुक्म को नुसूस की मार्फ़त से समझता हो) की तरह क़बूल करे तो वो अमल को दूसरों तक इसी दर्जे (नुसूस की मार्फ़त) में मुंतक़िल कर सकता है अगर इसने इस अमल को आमी (इल्म से नाबलद) की तरह तक़्लीद के ज़रीये क़बूल किया हो तब उस शख़्स के ज़रीये समाज में अमल की ये मुंतक़ली मुक़ल्लिदे आमी ही की तरह होगी। अगर मुक़ल्लिदे आमी को एहसास हो जाये कि दूसरों तक हुक्म को बावर (convince) करवाने की सलाहीयत इसमें मौजूद नही है तो मदऊ (da’wah carriers/दावत देने वाले) की राहनुमाई वो किसी ऐसे शख़्स की तरफ़ करे जो ये सलाहीयत रखता हो जैसे मुफ़्ती, आलिम या ऐसा दाअी जिसकी इस्लाम फ़हमी और लियाक़त (understanding) पर उसे भरोसा हो ।


وَالْمُؤمِنُونَ وَالْمُؤمِنَاتُ بَعْضُهُمْ أَوْلِيَاء بَعْضٍ يَأْمُرُونَ
بِالْمَعْرُوفِ وَيَنْهَوْنَ عَنِ الْمُنكَر وَيُقِيمُونَ الصَّلاَةَ﴾ {9:71
}

“मोमिन मर्द और मोमिन औरतें आपस में एक दूसरे के ख़ैर-ख़्वाह हैं एक दूसरे को अम्र बिल मारुफ़ और नही अनिल मुनकर करते हैं और नमाज़ क़ायम करते हैं।”
मज़ीद फ़रमाया:
﴿وَتَعَاوَنُواْ عَلَى الْبرِّ وَالتَّقْوَى وَلاَ تَعَاوَنُوا عَلَى الإِثْمِ وَالْعُدْوَانِ﴾ {5:2}
“नेकी और तक़्वे के कामों में आपस में तआवुन किया करो और गुनाह और ज़ुल्म के कामों में आपस में तआवुन ना किया करो ।”
रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) का इरशाद है:
((بلغوا عني و لو اية))
“तब्लीग़ करो एक आयत भी अगर तुम्हें मेरी तरफ़ से मिल जाये” (रिवाया बुख़ारीرحمت اللہ علیہ)

इसके अलावा रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) का इरशाद है:

((نضر الله عبداً سمع مقالتي فحفظها و وعاها و أداها,
فرُب حامل فقه غير فقيه, و رُب حامل فقه إلى
من هو أفقه منه))

“अल्लाह इस बंदा का चेहरा मुनव्वर करदे जो मेरी हदीस सुने और फिर उसे याद कर ले, अच्छी तरह ज़हन नशीन कर ले और फिर लोगों को बयान करे ऐसा भी हो सकता है किसी के पास फ़िक़्ह (इल्म) मौजूद हो और वो फ़क़ीहा ना हो। ऐसा भी हो सकता है कि कोई शख़्स इस फ़िक़्ह (इल्म) को किसी ऐसे के पास पहुंचाए जो इससे बेहतर फ़क़ीहा हो ।” (रिवाया तिरमिज़ी)
इस तरह एक फ़र्द ने अंजाम दिया जो अफराद की हैसियत से मारूफ़ की पाबंदी और मुनकर से इज्तिनाब करने की ज़िम्मेदारी इस पर आइद है और साथ ही मारूफ़ का हुक्म करने और मुनकर से रोकने की ज़िम्मेदारी को अंजाम दिया जो इस पर आइद है

Share on Google Plus

About Khilafat.Hindi

This is a short description in the author block about the author. You edit it by entering text in the "Biographical Info" field in the user admin panel.
    Blogger Comment
    Facebook Comment

0 comments :

इस्लामी सियासत

इस्लामी सियासत
इस्लामी एक मब्दा (ideology) है जिस से एक निज़ाम फूटता है. सियासत इस्लाम का नागुज़ीर हिस्सा है.

मदनी रियासत और सीरते पाक

मदनी रियासत और सीरते पाक
अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) की मदीने की जानिब हिजरत का मक़सद पहली इस्लामी रियासत का क़याम था जिसके तहत इस्लाम का जामे और हमागीर निफाज़ मुमकिन हो सका.

इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी का इतिहास

इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी का इतिहास
इस्लाम एक मुकम्म जीवन व्यवस्था है जो ज़िंदगी के सम्पूर्ण क्षेत्र को अपने अंदर समाये हुए है. इस्लामी रियासत का 1350 साल का इतिहास इस बात का साक्षी है. इस्लामी रियासत की गैर-मौजूदगी मे भी मुसलमान अपना सब कुछ क़ुर्बान करके भी इस्लामी तहज़ीब के मामले मे समझौता नही करना चाहते. यह इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी की खुली हुई निशानी है.