ख़िलाफ़त का क़याम मुसलमानों पर फ़र्ज़ है और इससे ग़फ़लत बरतना हराम है

इस्लाम एक मुसलमान को इन्फ़िरादी (व्‍यक्तिगत) फ़राइज़ (individual obligation) जैसे नमाज़, रोज़ा, हज और ज़कात के साथ-साथ इज्तिमाई फ़राइज़ (collective obligation) की पाबंदी का भी हुक्म देता है। जिस तरह 
इस्लाम हमें रोज़े फ़र्ज़ करने के लिए:
کُتِبَ عَلَےْکُمُ الْصِّےَام
''रोज़े तुम पर फ़र्ज़ कर दिए गए हैं।''

का हुक्म देता है बिल्‍कुल उसी पीराए में

کُتِبَ عَلَےْکُمُ الْقِصَاصُ
''क़िसास लेना तुम पर फ़र्ज़ कर दिया गया है।''

का हुक्म भी देता है। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि पहला हुक्म इन्फ़िरादी नौईयत का है जबकि दूसरा हुक्म इज्तिमाई नौईयत का। एक मुसलमान इन्फ़िरादी (व्‍यक्तिगत) तौर पर रोज़े तो रख सकता है लेकिन इन्फ़िरादी (व्‍यक्तिगत) तौर पर अल्लाह की हुदूद (दण्‍ड व्‍यवस्‍था) या जनायात जैसे क़िसास नाफ़िज़ (लागू) नहीं कर सकता। अलहमदु लिल्लाह आम तौर पर इन्फ़िरादी फ़राइज़ की पासदारी के लिए मुसलमान एक दूसरे को याददेहानी कराते रहते हैं। लेकिन जहां तक इज्तिमाई फ़राइज़ का सम्‍बन्‍ध है तो उसको पूरा करने के लिए ''कमा हक़हु'' आवाज़ सुनने को नहीं मिलती।

अल्लाह तआला ने मुसलमानों को अपने इज्तिमाई फ़राइज़ को पूरा करने का एक वाज़ेह (स्‍पष्‍ट) तरीका-ए-कार बताया है। मिसाल के तौर पर क़िसास के इज्तिमाई हुक्म को नाफ़िज़ (लागू) करने के लिए इस्लाम एक शरई क़ाज़ी की मौजूदगी का हुक्म देता है और ये इख्तियार (अधिकार) फ़क़त क़ाज़ी को सौंपता है कि वो सबूत की मौजूदगी में सज़ा का हुक्म सादिर करे। इसी तरह इस्लामी रियासत यानी ख़िलाफ़त इस सज़ा को लागू करने के लिए क़ाज़ी को पुलिस और अमला मुहैय्या करती है जो फ़िलफ़ौर इस सज़ा को लागू करता है। चुनांचे मालूम हुआ कि इस्लाम कई इज्तिमाई फ़राइज़ को पूरा करने के लिए इस्लामी रियासत यानी ख़िलाफ़त की मौजूदगी को पेशगी शर्त (pre-condition) बनाता है। इसी तरह मुसलमानों पर ये भी इज्तिमाई तौर पर फ़र्ज़ है कि उनके समाज में मज़लूम को इंसाफ़ मिले और ज़ालिम का हाथ रोका जाये, मुसलमानों के तमाम मक़बूज़ा (छिनी हुई) इलाक़ों को काफ़िरों के प्रभाव से आज़ाद कराया जाये, कश्मीर, इराक़, चेचन्या, फ़लस्तीन में रहने वाले मुसलमानों पर ज़ुल्‍म को रोका जाये, हुक्‍मरान इस्लाम के तहत हुकूमत करें, इस्लाम के दुरुस्त फ़हम को पूरे समाज तक पहुंचाया जाये, इस्लामी दावत को पूरी दुनिया तक फैलाने और अल्लाह के नाम को सरबुलंद करने के लिए मुनज़्ज़म (Organized /संघठित) जिहाद किया जाये वग़ैरा। ये बात स्‍पष्‍ट है कि ये तमाम इज्तिमाई फ़राइज़ हर शख़्स फ़र्दन फ़र्दन पर नहीं कर सकता इसीलिए इस्लाम ने हमें इन फ़राइज़ को पूरा करने का तरीका-ए-कार बताया है।

इस तरीका-ए-कार के मुताबिक़ मुसलमान इन इज्तिमाई फ़राइज़ की ज़िम्मेदारी, जो कि दरहक़ीक़त फ़र्जे़ किफ़ाया हैं, एक शख़्स की गर्दन पर डाल देते हैं और उसकी बैत करते हैं जो कि इस शर्त पर होती है कि वो उन पर इस्लाम लागू करते हुए इन तमाम इज्तिमाई फ़राइज़ से अहदा बरा होगा। तमाम मुसलमान इन फ़राइज़ की अंजामदेही में इसके हुक्म की इत्तिबा और उसकी मदद करेंगे। चुनांचे ये ख़लीफ़ा ही होता है कि जो मुसलमानों से खिराज, उश्र, ज़कात वग़ैरा इक्‍ट्ठी करके उन्हें मुस्तहक़्क़ीन में तक़सीम करता है ताकि कोई भूखा ना रहे। ये ख़लीफ़ा ही होता है जो इन मुसलमानों को संघठित करके एक ताक़तवर फ़ौज तशकील देता है जिसके ज़रीये जिहाद किया जाता है और इस्लाम की दावत को पूरी दुनिया तक फैलाया जाता है। ये ख़लीफ़ा ही होता है जो क़ाज़ी को तय करता है जो इस्लाम के अहकामात (Rules/क़ानून) और हदूद (दण्‍ड व्‍यवस्‍था) नाफ़िज़ करके मज़लूम को इंसाफ़ दिलाता है और ज़ालिम का हाथ रोकता है।

चुनांचे मालूम हुआ कि कई इज्तिमाई फ़राइज़ से अहदा बरा होने के लिए इस्लाम शरई इस्लामी रियासत यानी ख़िलाफ़त की मौजूदगी को शर्त बनाता है। लिहाज़ा आज इस्लाम के कई इज्तिमाई फ़राइज़ ख़िलाफ़त और शरई ऑथर्टी के बगै़र पूरे ही नहीं हो सकते। इस्लाम की रो से हर वो अमल जिस पर किसी फ़र्ज़ का दारोमदार हो और जिसके ना करने की बिना पर एक फ़र्ज़ अदा ना हो सकता हो तो इस अमल का करना भी
 फ़र्ज़ हो जाता है। शरई उसूल है

مالا یتم الواجب الا بہٖ فہو واجب
''जिस अमल के किए बगै़र वाजिब अदा ना हो सके तो फिर इसका करना भी वाजिब है।

'' अब चूँकि ख़िलाफ़त की अदमे मौजूदगी में तक़रीबन तमाम इज्तिमाई अहकामात (Rules/क़ानून) पर अमल दरआमद नहीं हो सकता इसीलिए फुक़हा-ए-इक़ामते ख़िलाफ़त को फर्ज़ क़रार देते हैं। यही वो अहम फ़र्ज़ है जिसकी तरफ़ इशारा करते हुए रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया था :


تنقض عری الاسلام عروۃ عروۃ اولھا الحکم و اخرھا الصلاۃ

''इस्लाम की गिरहें एक-एक करके खुल जाएंगी, सबसे पहले जो गिरह (गिठान) खुलेगी वो (इस्लाम के मुताबिक़) हुक्मरानी (शासन) की होगी और सबसे आख़िर में नमाज़ की गिरह (गिठान) खुलेगी।''

इसी तरह अल्लाह तआला ने क़ुरआन में फ़रमाते हैं :

ھُوَ الَّذِیْ اَرْسَلَ رَسُوْلَہُ بِالْہُدٰی وَ دِےْنِ الْحَقِّ لِےُظْھِرَہُ عَلَی الدِّےْنِ کُلِّہِ وَلَوْ کَرِہَ الْمُشْرِکُوْنَ
''वही वो ज़ात है जिसने भेजा अपना रसूल हिदायत और दीनी हक़ के साथ ताकि ग़ालिब कर दे उसे तमाम अदयान (दीनों) पर ख़ाह (ये बात) मुश्रिकों को कितनी ही नागवार हो।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, सूरह अलतोबाह : 33)

ये हुक्‍म बदीही है कि क़ुरआन के ऊपर आए हुक्म पर चलने के लिए यानी इस्लाम को तमाम अदयान (दीनों) पर ग़ालिब करने के लिए, एक ताक़तवर रियासत की ज़रूरत है जो यक़ीनन ख़िलाफ़त के अलावा कुछ नहीं। इब्‍ने तैमीह ने अपनी किताब ''अलसयास अलशरईह'' (सफ़ा 189) पर उसकी यूं व्‍यख्‍या फ़रमाई : ''रियासत (ख़िलाफ़त) की ज़बरदस्त ताक़त के बगै़र दीन ख़तरे में होता है और इल्हामी क़वानीन (शरीयत) के निफ़ाज़ के बगै़र रियासत जाबिराना इदारा बन जाती है।''

ख़िलाफ़त की फ़र्ज़ीयत को रसूलल्‍लाह (صلى الله عليه وسلم) ने अपनी अहादीसे मुबारका के ज़रीये बड़े वाज़ेह (स्‍पष्‍ट) अंदाज़ में बयान फ़रमाया। इमाम मुस्लिम ने इब्‍ने अमर (رضي الله عنه) से रिवायत किया कि आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया :

مَن خَلَعَ یَدًا مِّنْ طَاعَۃٍ ‘ لَقِیَ اللّٰہَ یَومَ القِیَامَۃِ ‘ لَاحُجَّۃَ لَہُ ‘ وَمَن مَاتَ وَلَیسَ فِی عُنُقِہٖ بَیعَۃٌ ‘ مَاتَ مِیتَۃً جَاھِلِیَّۃً
''जो शख़्स (अमीर की) इताअत से अपना हाथ खींच ले तो क़यामत के दिन वो अल्लाह तआला से इस हालत में मिलेगा कि उसके पास कोई दलील नहीं होगी और जो कोई इस हाल में मरा कि उसकी गर्दन में बैअत (का तौक़) ना हो तो वो जाहिलियत की मौत मरा।''

इस हदीस में दौरे जाहिलियत में मरने से मुराद ये हरगिज़ नहीं कि वो शख़्स नऊज़-बिल-लाह काफ़िर मरेगा बल्कि ये इस बात को निहायत ही भरपूर अंदाज़ में बयान करने का तरीक़ा है कि कोई भी मुसलमान ऐसी हालत में ज़िंदगी बसर ना करे कि उसकी गर्दन में ख़लीफ़ा-ए-वक़्त की बैअत मौजूद ना हो। यानी ये हदीस इस बात को बड़ी सख़्ती से बयान कर रही है कि कोई ऐसा दौर ना गुज़रे जब मुसलमान ख़िलाफ़त के बगै़र हो। लिहाज़ा इस हदीस के ज़रीये अल्लाह तआला ने मुसलमानों पर ये फ़र्ज़ क़रार दिया है कि हर मुसलमान की गर्दन में ख़लीफ़ा की बैअत का तौक़ हो, ये नहीं फ़र्ज़ किया कि हर मुसलमान ख़लीफ़ा की बनफ़स नफ़ीस बैअत करे। ख़लीफ़ा के मौजूद होने से हर मुसलमान की गर्दन में बैअत का तौक़ होता है चाहे वो बैअत ना भी करे। चुनांचे ये हदीस इस बात की दलील है कि ख़लीफ़ा का तक़र्रुर (नियुक्ति) और ख़िलाफ़त का होना फ़र्ज़ है।
एक और हदीस में रसूलल्‍लाह (صلى الله عليه وسلم) ने ख़लीफ़ा के लिए शरई ऑथर्टी यानी सुल्‍तान का लफ़्ज़ इस्तिमाल करते हुए उसकी इताअत को फ़र्ज़ क़रार दिया है। सही मुस्लिम में इब्‍ने अब्‍बास (رضي الله عنه) रसूलल्‍लाह (صلى الله عليه وسلم) से रिवायत करते हैं कि आप (صلى الله عليه وسلم) ने इरशाद फ़रमाया :
مَن کَرِہَ مِنْ اَمِیرِہٖ شَیءًا فَلیَصْبِرْ عَلَیہِ ‘ فَاِنَّہُ لَیْسَ اَحَدٌ مِّنَ النَّاسِ یَخْرُجُ مِنَ السُّلطَانِ شِبرًا ‘ فَمَاتَ عَلَیہِ ‘ اِلَّا مَاتَ مِیتَۃً جَاھِلِیَّۃً
''जिसने अपने अमीर की किसी चीज़ को नापसंद किया तो लाज़िम है कि वो इस पर सब्र करे। क्योंकि लोगों में से जिसने भी सुल्‍तान (यानी शरई ऑथर्टी) की इताअत से बालिशत बराबर भी ख़ुरूज किया और वह इस हालत में मर गया तो वो जाहिलियत की मौत मरा।''

इस हदीस में ना सिर्फ़ सुल्‍तान (शरई इख्तियार के हामिल शख़्स) से अलैहदगी इख्तियार करने को हराम क़रार दिया गया है बल्कि ये हदीस इस बात की तरफ़ भी इशारा करती है कि मुसलमानों पर अपने लिए एक ऐसे सुल्‍तान को मुक़र्रर (नियुक्‍त) करना वाजिब है जिसकी इताअत की जाये और जो उन पर इस्लाम नाफ़िज़ करे।
इससे मिलती जुलती हदीस में आप (صلى الله عليه وسلم) ने जमाअत से बग़ावत करने की हुर्मत बयान फ़रमाई है। ये वाज़ेह रहे कि यहां जमाअत से मुराद कोई सियासी (राजनीतिक) पार्टी या गिरोह नहीं बल्कि जमाअत अलमुस्लिमीन है यानी ख़लीफ़ा तले मुत्तहिद उम्मते मुस्लिमा। दरहक़ीक़त मुसलमानों को इस्लाम के झंडे तले जमा करने वाला महज़ (सिर्फ) ख़लीफ़ा ही होता है। जब ख़लीफ़ा मौजूद होगा तो मुसलमानों की जमाअत भी होगी और मुसलमानों की जमाअत के साथ मिलकर रहना फ़र्ज़ और उनके ख़िलाफ़ बग़ावत हराम होगी। इब्‍ने अब्‍बास (رضي الله عنه) से रिवायत है कि नबीए करीम (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया :

مَنْ رَاٰی مِنْ اَمِیرِہٖ شَیءًا یَکْرَھُہُ فَلیَصْبِرْ عَلَیہِ ‘ فَاِنَّہُ مَن فَارَقَ الجَمَاعَۃَ شِبرًا فَمَاتَ اِلَّا مَاتَ مِیتِۃً جَاھِلِیَّۃً

''जो शख़्स अपने अमीर के किसी नापसंदीदा काम को देखे तो इस पर सब्र करे। क्योंकि जिसने भी जमाअत से बालिशत भर अलैहदगी इख्तियार की अैर इस हालत में मर गया तो वो जाहिलियत की मौत मरा।''

वाज़ेह रहे कि ये दोनों अहादीस उस वक़्त ख़लीफ़ा की इताअत को फ़र्ज़ क़रार देती हैं जब वो इस्लामी निज़ाम तो नाफ़िज़ कर रहा हो लेकिन इन्फ़िरादी तौर पर कुछ ख़ामीयों और बुराईयों का शिकार हो या कुछ लोगों पर ज़ुल्‍म कर रहा हो और कुछ को नवाज़ रहा हो। लेकिन अगर वो इस्लाम के बजाय किसी भी कुफ्र के ज़रिए हुकूमत करे तो उसकी इताअत लाज़िम नहीं रहती जिसका हुक्म रसूलल्‍लाह (صلى الله عليه وسلم) की दीगर सही अहादीस में मिलता है।

मज़ीद बरआं रसूलल्‍लाह (صلى الله عليه وسلم) ने खलीफा की इताअत और उनकी ख़िलाफ़त में तनाज़ा करने वालों से क़िताल का हुक्म दिया है। इससे स्‍पष्‍ट होता है कि ख़िलाफ़त को क़ायम करना और उसकी हिफ़ाज़त करना और इसमें तनाज़ा करने वालों के ख़िलाफ़ जंग करना मुसलमानों पर फ़र्ज़ है। मुस्लिम ने रसूलल्‍लाह (صلى الله عليه وسلم) से रिवायत की है कि आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया
:
وَمَنْ بَایَعَ اِمَامًا فَاَعْطَاہُ صَفْقَۃَ یَدِہٖ وَثَمَرَۃَ قَلْبِہٖ ‘ فَلْیُطِعْہُ اِن استَطَاعَ ‘ فََاِنْ جَآءَ آخَرُ یُنَازِعہُ فَاضرِبُوا عُنُقَ الآخَرِ

''और जो शख़्स किसी इमाम (ख़लीफ़ा) की बैअत करे तो उसे अपने हाथ का मामला और दिल का फल दे दे (यानी सब कुछ उसके हवाला कर दे) फिर उसे चाहिए कि वो हसबे इस्तिताअत उसकी इताअत भी करे। अगर कोई दूसरा शख़्स आए और पहले ख़लीफ़ा से तनाज़ा करे तो दूसरे की गर्दन उड़ा दो।''

इमाम की इताअत का हुक्म उसकी इक़ामत का हुक्म भी है और उसके साथ झगड़ने और उसकी ऑथर्टी को चैलेंज करने वाले के साथ जंग करने का हुक्म ख़लीफ़ा के एक होने पर हतमी हुक्म (तलबे जाज़िम) के लिए वाज़ेह (स्‍पष्‍ट) क़रीना है। एक दूसरी हदीस में तो आप (صلى الله عليه وسلم) ने उसको निहायत ही सादे और खुले अंदाज़ में यूं बयान फ़रमाया :


اِذَا بُوْیِعَ لِخَلِیْفَتَیْنِ‘ فَاقْتُلُوا الْآخَرَمِنْھُمَا

''अगर दो खलीफा के लिए बैअत की जाये तो इनमें से बाद वाले को क़त्‍ल कर दो।'' (सहीह मुस्लिम)  
एक और जगह फ़रमाया :

مَنْ أَتَاکُمْ ‘ وَأَمْرُکُمْ جَمِیْعٌ ‘ عَلٰی رَجُلٍ وَّا حِدٍ ‘ یُرِیْدُ أنْ یَّشُقَّ عَصَاکُمْ‘ أوْ یُفَرِّقَ جَمَاعَتَکُمْ ‘ فَاقْتُلُوْہُ

''तुम किसी एक शख़्स पर (इमारत के लिए) मुत्तफ़िक़ हुआ और कोई शख़्स आए और तुम्हारी सफ़ों में रखना डालना चाहे या तुम्हारी जमाअत में तफ़र्रुक़ा डाले तो उसे क़त्‍ल कर दो।'' (सहीह मुस्लिम)

इस हदीस से वाज़ेह (स्‍पष्‍ट) हो गया कि इस्लामी रियासत तमाम मुसलमानों के लिए एक ही होती है और मुसलमानों में एक से ज्‍़यादा ख़लीफ़ा और एक से ज्‍़यादा रियासतों की कोई गुंजाइश नहीं। चुनांचे मग़रिब (पश्‍चिम) से हासिल शुदा क़ौमी रियासतों (Nation States) के तसव्वुर को इस्लाम सख़्ती से रद्द करता है। इस ज़िमन में इमाम शाफ़ई (202 हि.) 'अलरसाल' में सफ़ा 260 में लिखते हैं : ''मुसलमानों का इस पर इजमा है कि ख़लीफ़ा एक शख़्स ही हो सकता है'' इस तरह इमाम शौकानी अपनी तफ़सीर उल-क़ुरआन उल-अज़ीम जलद 2 सफ़ा 215 पर लिखते हैं : ''ये मालूम फ़ील-इस्लाम बिलज़रूरा (वो इल्‍म जिसका जानना हर मुसलमान पर ज़रूरी है मसलन नमाज़, रोज़ा के अहकामात वग़ैरा) में से है कि इस्लाम ने मुसलमानों के बीच तफ़रीक़ (फर्क़) और उनके इलाक़ों की तक़सीम को हराम क़रार दिया है।''

चुनांचे ऊपर लिखी बेहस में वारिद शुदा अहादीस ख़िलाफ़त को क़ायम करने, उसकी हिफ़ाज़त करने, उसकी वहदत को बरक़रार रखने और ख़लीफ़ा की ऑथर्टी को चैलेंज करने वाले के ख़िलाफ़ क़िताल करने को फ़र्ज़ क़रार देती हैं। लिहाज़ा ना सिर्फ़ ख़िलाफ़त का क़याम एक अव्वलीन फ़रीज़ा है बल्कि रसूलल्‍लाह (صلى الله عليه وسلم) ने उसको क़ायम रखने और उसकी हिफ़ाज़त करने के लिए मुसलमानों को अपनी जानें तक निछावर करने का हुक्म दिया है।

रसूलल्‍लाह (صلى الله عليه وسلم) ने ना सिर्फ़ वाज़ेह (स्‍पष्‍ट) अंदाज़ में हमारे निज़ाम हुकूमत का नाम बताया है बल्कि ये भी बताया है कि उम्मत में फ़क़त चार या पाँच ख़लीफ़ा नहीं आयेंगे बल्कि उनकी तादाद कसीर होगी। हाँ अलबत्ता इस्लाम के आग़ाज़ में रशद व हिदायत याफ़ता ख़लीफ़ा तीस साल तक रहेंगे जैसा कि अहादीस में वारिद हुआ है। ये हदीस ख़िलाफ़ते राशिदा के दौर का तीस साल तक क़ायम होने की बशारत देती हैं। लेकिन ये अहादीस उसकी हरगिज़ नफ़ी (मनाही) नहीं करतीं कि खलीफाए राशिदीन के बाद आने वाले हुक्‍मरान खलीफा ना होंगे। जबकि मुंदरजा ज़ैल हदीस इन खलीफा की कसरते तादाद पर दलालत करती है। मुस्लिम ने अबू हाज़िम से रिवायत किया है कि उन्होंने कहा : मैं पाँच साल तक अबू हुरैरा (رضي الله عنه) की सोहबत में रहा। मैंने उन्हें नबी से ये बयान करते हुए सुना कि आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया :

کَانَتْ بَنُوْ اِسرَاءِیلَ تَسُوسُھُمُ الاَنبِیَاءُ ‘ کُلَّمَاھَلکَ نَبِیٌّ خَلَفَہُ نَبِیٌّ‘ وَاِنَّہُ لَا نَبِیَّ بَعدِی ‘ وَسَتَکُونُ خُلَفَاءُ فَتَکثُرُ ‘ قَالُوا: فَمَا تَأمُرُنَا؟ قَالَ: فُوْا بِبَیْعَۃِ الاَوَّلِ فَالاَوّلِ‘ وَاعْطُوہُم حَقَّھُم ‘ فَاِنَّ اللّٰہَ سَاءِلُھُم عَمَّا اسْتَرعَا ھُمْ
 
'बनी इसराईल की सियासत (राजनीति) अंबिया करते थे। जब कोई नबी वफ़ात पाता तो दूसरा नबी उसकी जगह ले लेता, जबकि मेरे बाद कोई नबी नहीं है, बल्कि बड़ी कसरत से खलीफा होंगे। सहाबा (رضي الله عنه) ने पूछा : आप हमें क्या हुक्म देते हैं ? आप ने फ़रमाया : तुम एक के बाद दूसरे की बैअत को पूरा करो और उन्हें इनका हक़ अदा करो। क्योंकि अल्लाह तआला उनसे उनकी रियाया के बारे में पूछेगा, जो इसने उन्हें दी।''


ख़िलाफ़त तीस साल के बाद भी बरक़रार रही लेकिन उनको चलाने वाले इन्फ़िरादी तौर पर इस मुक़ाम पर फ़ाइज़ ना थे जो खलीफाए राशिदीन का था इसी तरह इस्लामी निज़ाम के निफ़ाज़ में भी कमज़ोरियां देखने को मिलें। इसलिए आप (صلى الله عليه وسلم) ने पहले तीस साला दौर को राशिदा के लाहक़े के ज़रिए बक़ीया ख़िलाफ़त के दौर से मुमताज़ (अलग) फ़रमाया। चुनांचे वो हज़रात जो समझते हैं कि ख़िलाफ़त सिर्फ तीस सालों और चार खलीफा तक सीमित थी वो मुंदरजा बाला हदीस की रोशनी में अपनी तसहीह कर लें। इसी तरह वो लोग जो ये कहते हैं कि ये कहाँ लिखा है कि ख़िलाफ़त ही मुसलमानों का निज़ामे हुकूमत (शासन प्रणाली) है तो वो भी इस हदीस से जान गए होंगे कि रसूलल्‍लाह (صلى الله عليه وسلم) ने हमें ख़बर दी है कि मुसलमानों के सियासी (राजनीतिक) मामलात की देखभाल खलीफा किया करेंगे। इसी तरह मुसलमानों के लिए ये हुक्म सादिर फ़रमाया कि वो लगातार ख़िलाफ़त को बरक़रार रखने के लिए एक के बाद दूसरे ख़लीफ़ा को बैअत देते रहें।
जहां तक ख़िलाफ़त की फ़र्ज़ीयत के बारे में किताबुलल्लाह से दलील का ताल्लुक़ है तो क़ुरआन मुसलमानों को अल्लाह तआला के नाज़िलकर्दा अहकामात के अलावा किसी भी निज़ाम, नज़रिया या क़ानून के तहत हुकूमत करने की सख़्ती से मुमानेअत (मनाही) करता है। क़ुरआन में इरशादे बारी तआला है :

وَ مَنْ لَّمْ ےَحْکُمْ بِمَآ أَنْزَلَ اﷲُ فَأُوْلٰٓءِکَ ہُمُ الْکَفِرُوْنَ
''और जो अल्लाह तआला के नाज़िलकर्दा (अहकामात) के मुताबिक़ फ़ैसला ना करे तो ऐसे लोग ही काफ़िर हैं।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, सूरह अलमायदा : 44)

मज़ीद इरशाद है :

وَ مَنْ لَّمْ ےَحْکُمْ بِمَآ أَنْزَلَ اﷲُ فَأُوْلٰٓءِکَ ہُمُ الْظَّلِمُوْنَ

''और जो अल्लाह तआला के नाज़िलकर्दा (अहकामात) के मुताबिक़ फ़ैसला ना करे तो ऐसे लोग ही ज़ालिम हैं।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, सूरह अलमायदा : 44)

मज़ीद फ़रमाया :

وَ مَنْ لَّمْ ےَحْکُمْ بِمَآ أَنْزَلَ اﷲُ فَأُوْلٰٓءِکَ ہُمُ الْفَسِقُوْنََ
 ''और जो अल्लाह तआला के नाज़िलकर्दा (अहकामात) के मुताबिक़ फ़ैसला ना करे तो ऐसे लोग ही फ़ासिक़ हैं।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, सूरह अलमायदा : 44)

ये आयात इसमें सरिया हैं कि अल्लाह के क़वानीन के ज़रीये हुकूमत करना अच्छा, बेहतर, मंदूब या मुस्तहब नहीं बल्कि फ़र्ज़ है। क़ुरआन में वारिद हुई तमाम आयात जो 'मा इंज़िल अल्लाह (अल्लाह ताला के नाज़िलकर्दा)' के ज़रीये हुकूमत करने का हुक्म देती हैं बिलवासता इस शरई ऑथर्टी और हुकूमत को क़ायम करने का भी हुक्म दे रही हैं जो 'मा इंज़िल अल्लाह' के मुताबिक़ हुकूमत करेगी। ख़िलाफ़त ही वो वाहिद इस्लामी शासन प्रणाली है जिसे सुन्‍नत और इज्माए सहाबा से साबित किया जा सकता है। जैसा कि मैं पहले एक हदीस के ज़रिए स्‍पष्‍ट कर चुका हूँ कि रसूलल्‍लाह (صلى الله عليه وسلم) ने नबुव्वत के बाद कसीर खलीफा के होने की बशारत दी है और मुसलमानों को एक के बाद दूसरे ख़लीफ़ा की बैअत करके इस सिलसिले को क़ायम रखने का हुक्म दिया। इसी तरह बैअत की बेशुमार अहादीस मुसलमानों को ख़लीफ़ा की इताअत और ख़िलाफ़त के क़याम की तलक़ीन करती हैं। जहां तक 'मा इंज़िल अल्लाह' को जम्‍हूरीयत (लोकतंत्र), आमिरीयत (तानाशाही) या किसी भी दूसरे निज़ाम (व्‍यवस्‍था) के ज़रीये नाफ़िज़ करने का सम्‍बन्‍ध है तो चूँकि किसी और तरीक़ाए हुकूमत की क़ुरआन, सुन्‍नत, इज्माए सहाबा (رضي الله عنه) और क़ियास जैसे शरई माख़ुज़ (स्‍त्रोत) से कोई दलील नहीं मिलती इसलिए हम उनकी तरफ़ रुजू नहीं कर सकते। उसकी मुमानेअत हमें रसूलल्‍लाह (صلى الله عليه وسلم) की इस हदीस में मिलती है जिसके मुताबिक़ हर वो अमल, या निज़ाम जिसकी शरीयत से दलील ना मिले मर्दूद है। आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया :

کُلُّ عَمَلٍ لَیْسَ عَلیْہِ اَمْرُ نَا فَھُوَرَدٌّ
''हर वोह अमल जिस पर हमारा हुक्म नहीं, तो वो मर्दूद है।''

चुनांचे मालूम हुआ कि मुंदरजा बाला तमाम आयात हमें बिलवासता जिस शरई ऑथर्टी के क़याम का हुक्म दे रही हैं वो ख़िलाफ़त के अलावा और कोई निज़ामे हुकूमत (शासन प्रणाली) नहीं।
ऊपर लिखी आयात के अलावा भी कई आयात हैं जो मुसलमानों को 'मा इंज़िल अल्लाह' (अल्लाह के नाज़िलकर्दा) ही के ज़रिए हुकूमत करने का हुक्म देती हैं जिनमें से कुछ दर्ज जे़ल हैं : इरशादे बारी तआला है :

فَاحْکُمْ بَینَھُمْ بِمَا اَنزَلَ اللّٰہُ وَلَا تَتَّبِعْ اَھوَاءَ ھُم عَمَّا جَآءَکَ مِنَ الْحَقِّ
''पस उनके दरमियान अल्लाह तआला के नाज़िलकर्दा (अहकामात) के मुताबिक़ फ़ैसला करें और जो हक़ आपके पास आया है, इसके मुक़ाबले में उनकी ख्‍वाहिशात की पैरवी ना करें।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, सूरह अलमायदा : 48) 

मज़ीद बरआं ये आयत इस बात में भी वाज़ेह (स्‍पष्‍ट) है कि हमें इस्लाम नाफ़िज़ करने का हुक्म है ना कि लोगों की अक्सरीयत या अक़ल्लीयत की ख्‍वाहिशात की पैरवी करने का। आज इस्लाम सिर्फ इसलिए ऐवानों से बाहर है क्योंकि नाम निहाद अवामी नुमाइंदों की अक्सरीयत ने इस्लाम के क़वानीन पर महर सबुत नहीं की हुई। हम सवाल पूछते हैं कि ये 51% की रजामंदी की शर्त किसने लगाई है? जबकि मुंदरजा बाला आयत वाज़ेह (स्‍पष्‍ट) अंदाज़ में हमें हुक्म दे रही है कि अल्लाह के अहकामात के निफ़ाज़ में लोगों की ख्‍वाहिशात की पाबंदी करना हरगिज़ जायज़ नहीं। लिहाज़ा इस आयत की रोशनी में वाज़ेह हो गया कि लोकतंत्र वोह शासन प्रणाली नहीं जिसके क़याम का ये आयत तक़ाज़ा करती है। ये ख़िलाफ़त ही है जिसमें इंसानी ताल्लुक़ात को मुनज़्ज़म (Organize/संघठित) करने के लिए दरकार क़वानीन में किसी किस्म की अक्सरीयत मल्हूज़ नहीं रखी जाती बल्कि ख़लीफ़ा इन्हें सिर्फ नाफ़िज़ करने का पाबंद होता है। इन क़वानीन को अख़ज़ (प्राप्‍त) करने में इस्लाम हमें अक्सरीयत व अक़ल्लीयत नहीं बल्कि क़वी (मज़बूत) शरई दलील पर अमल करने का हुक्म देता है जैसा कि इरशाद है :


وَمَاکَانَ لِمُؤْمِنٍ وَّلَا مُؤْمِنَۃٍ اِذَا قَضَی اللّٰہُ وَرَسُوْلُہ‘ٓ اَمْرًا اَنْ یَّکُوْنَ لَھُمُ الْخِیَرَۃُ مِنْ اَمْرِھِمْ

 ''अल्लाह और उसका रसूल (صلى الله عليه وسلم) जब कोई फ़ैसला करें तो किसी मोमिन मर्द या औरत के लिए इस फ़ैसले में कोई इख्तियार नहीं।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, सूरह अलहिज़ाब : 36)

ये आयत जम्‍हूरीयत के बुनियादी फ़लसफ़े ही को रद्द कर देती है। हाँ अलबत्ता कुछ मुबाह मामलात और ख़लीफ़ा के चुनाव में इस्लाम हमें मुसलमानों की अक्सरीयत या उनके नुमाइंदों की अक्सरीयत को मल्हूज़ रखने का हुक्म देता है जो दीगर अहादीस से साबित है। (इसकी तफ़सील जानने के लिए मुलाहिज़ा कीजिए 000 की किताब इस्लाम का निज़ामे हुकूमत)

एक दूसरी आयत में अल्लाह तआला ने ना सिर्फ़ ख़िलाफ़त की मौजूदगी और अल्लाह के नाज़िलकर्दा के मुताबिक़ हुकूमत करने को फ़र्ज़ क़रार दिया है बल्कि इसके साथ-साथ मुसलमानों को सख़्ती के साथ ख़बरदार भी किया है कि कहीं वो कम्प्रोमाईज़ और समझौते की दलदल में फंसकर इस्लाम के कुछ अहकामात को नज़रअंदाज ना कर बैठें। इरशादे बारी तआला है :

وَاَنِ احْکُمْ بَیْنَھُمْ بِمَااَنزَلَ اللّٰہُ وَلَا تَتَّبِعْ اَھوَاءَ ھُم وَاحْذَرْھُمْ اَنْ یَّفتِنُوکَ عَن بَّعْضِ مَا اَنزَلَ اللّٰہُ اِلَیکَ

''और ये कि (आप (صلى الله عليه وسلم) उनके दरमियान अल्लाह तआला के नाज़िलकर्दा (अहकामात) के मुताबिक़ फ़ैसला करें और उनकी ख्‍वाहिशात की पैरवी ना करें। और उनसे मुहतात (सावधान) रहें कि कहीं ये अल्लाह तआला के नाज़िलकर्दा बाअज़ (अहकामात) के बारे में आप को फ़ित्ने में ना डाल दें।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, सूरह अलमाईदा : 49)

लिहाज़ा मुसलमान तेहरीकों को ख़बरदार रहना चाहिए कि वो कहीं इस्तेमार (साम्राज्‍यवादियों) या उनके एजैंटों की ख़ुशनुदी की ख़ातिर, क़ौम के वसीअ तर मुफ़ाद (विस्‍तृत फायदे) में या सियासत चमकाने की ख़ातिर अल्लाह के नाज़िलकर्दा बाअज़ अहकामात पर समझौता ना कर बैठें। अगर ऐसा किया तो ना सिर्फ़ ये कि इस दुनिया में कुछ हाथ ना आएगा बल्कि आख़िरत में भी शर्मिंदगी और ज़िल्लत व रुसवाई का सामना करना पड़ेगा। अल्लाह तआला ने समझौता करके कुछ इस्लाम के निफ़ाज़ में ताख़ीर या कुछ को पसेपुश्त डालने वालों को इन शब्‍दो में वईद सुनाई है :

أَفَتُؤْ مِنُوْنَ بِبَعْضِ الْکِتَبِ وَتَکْفُرُوْنَ بِبَعْضٍ، فَمَا جَزَآءُ مَنْ یَّفْعَلُ ذَلِکَ مِنْکُمْ اِلَّا خِزْیٌ فِی الْحَےٰوۃِ الدُّنْیا ، وَےَوْمَ الْقِےٰمَۃِ ےُرَدُّوْنَ اِلآی اَشَدِّ الْعَذَابِ

''क्या तुम किताब के कुछ हिस्से पर ईमान रखते हो और कुछ हिस्से का इनकार करते हो? और जो शख़्स ऐसा करेगा तो दुनिया में इसके लिए रुसवाई है और आख़िरत के दिन उन लोगों को सख़्त तरीन अज़ाब की तरफ़ लौटाया जाएगा।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, सूरह अलबकरा : 58)

इसके इलावा अल्लाह तआला ने उलिलि अम्र (साहबे इक्तिदार) की इताअत को भी मुसलमानों पर फ़र्ज़ किया है। इससे ये भी मालूम होता है कि मुसलमानों का उलिल अम्र होना फ़र्ज़ है। इरशाद है :

یَااَیُّھَا الَّذِیْنَ آمَنُوْا اَطِیْعُوااللّٰہَ وَاَطِیْعُواالرَّسُوْلَ وَاُولیِ الْاَمْرِمِنْکُمْ

''ए ईमान वालो! अल्लाह और रसूल (صلى الله عليه وسلم) की इताअत करो और अपने में से उलिल अम्र (हुक्‍मरानों) की भी।''  (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, सूरह अलनिसा: 59)

 अल्लाह तआला कभी भी उस शख़्स की इताअत का हुक्म नहीं देता जिसका वजूद ही ना हो। चुनांचे ये आयत इस बात पर दलालत करती है कि हुक्‍मरान का होना वाजिब है। पस जब अल्लाह तआला ने हुक्‍मरान की इताअत का हुक्म दिया तो इसके वजूद का हुक्म भी इसी में शामिल है। क्योंकि हुक्‍मरान के वजूद पर शरई हुक्म के पूरा होने का दारोमदार है और इसके ना होने की सूरत में शरई हुक्म ज़ाए हो जाता है। लिहाज़ा इसका वजूद फ़र्ज़ है।

ख़िलाफ़त के क़याम का फ़रीज़ा कितना अहम है इसका अंदाज़ा हमें सहाबाए किराम (رضی اللہ عنھم) की सीरत से पता चलता है। रसूलल्‍लाह (صلى الله عليه وسلم) के विसाल के बाद सहाबाए किराम (رضی اللہ عنھم) ने भी इस्लामी रियासत यानी ख़िलाफ़त की बक़ा को एक अहम तरीन फ़रीज़ा गिरदाना। हम देखते हैं कि वो सहाबा जो आप (صلى الله عليه وسلم) पर जान छिड़कते थे, आप (صلى الله عليه وسلم) के वुज़ू के पानी को तबर्रुकन हासिल करने के लिए एक दूसरे से मुसाबक़त करते थे। आप (صلى الله عليه وسلم) को अपने नफ़ूस और अपने माँ बाप पर फ़ौक़ियत देते थे, आप (صلى الله عليه وسلم) के विसाल के बाद सक़ीफ़ा बनी साअदा में जमा होकर ख़िलाफ़त के अहम तरीन फ़रीज़े में जुत जाते हैं और आप (صلى الله عليه وسلم) के जसद (जिस्‍म) पाक की तजहीज़ व तदफ़ीन को मोख़र (ताखीर) कर देते हैं। हालाँकि इस्लाम किसी भी मुसलमान की वफ़ात की सूरत में उसकी तजहीज़ व तदफ़ीन जलद अज़ जल्द करने का हुक्म देता है। लेकिन अकाबिर सहाबाओ (رضی اللہ عنھم) जिनमें हज़रत अबू बक्र (رضي الله عنه), हज़रत उमर (رضي الله عنه), हज़रत अबदुर्रहमान बिन ओफ़ (رضي الله عنه) और साद बिन अबादह (رضي الله عنه) शामिल थे अंसार की एक कसीर जमाअत के साथ सक़ीफ़ा बनी साअदा में नए ख़लीफ़ा के इंतिख़ाब (चुनाव) के अमल में मसरूफ़ हो जाते हैं। इसी तरह कोई भी सहाबी उन्हें रसूलल्‍लाह (صلى الله عليه وسلم) की तजहीज़ व तदफ़ीन को तीन दिन दो रातों तक मोख़र करके ख़िलाफ़त के क़याम में मसरूफ़ हो जाने पर मलामत या तन्क़ीद (आलोचना) का निशाना नहीं बनाता। सहाबा (رضی اللہ عنھم) से बढ़कर इस्लाम और शरीयत को कोई नहीं जानता और ना ही उनसे बढ़कर शरीयत का कोई पाबंद हो सकता है। चुनांचे ये सिर्फ़ उसी वक़्त मुम्किन है जब तमाम सहाबा (رضی اللہ عنھم) एक ऐसी हदीस जानते हो जिसके मुताबिक़ ख़लीफ़ा का इंतिख़ाब रसूलल्‍लाह (صلى الله عليه وسلم) की तजहीज़ व तदफ़ीन से भी अहम और फ़ौरी फ़रीज़ा हो। ये है ख़िलाफ़त की फ़र्ज़ीयत पर इज्माए सहाबा से दलील है। इमाम अलहेसमी (807 हि.) सिवा एक अलहराक में फ़रमाते हैं : ''ये अमर (बात) सबको मालूम है कि सहाबा किराम रिज़वान अल्लाह अलैहिम अजमईन मुत्तफ़िक़ थे कि दौरे नबुव्वत के ख़ाल्‍मे पर इमाम का इंतिख़ाब (चुनाव) वाजिब था। बिलाशुबा उन्होंने इस फ़र्ज़ को दूसरे तमाम फ़राइज़ पर फ़ौक़ियत दी और रसूलल्‍लाह (صلى الله عليه وسلم) की तदफ़ीन की बजाय इस (फ़र्ज़ की तकमील) में जुत गए।''

ख़िलाफ़त की एहमियत और उसकी फ़र्ज़ीयत की इज्माए सहाबा (رضی اللہ عنھم) से एक और दलील हमें हज़रत उमर (رضي الله عنه) के अमल से मिलती है। हज़रत उमर (رضي الله عنه) के ज़ख्‍मी हो जाने के बाद आपने लोगों के इसरार पर अशरा मबशरा में से उस वक़्त हयात छः सहाबा को आपस में से एक ख़लीफ़ा चुनने के लिए नामज़द किया। इसी तरह उन पर हज़रत अबू तलह (رضي الله عنه) की सरकर्दगी में पच्चास अंसार को तय फ़रमाया और उनको निहायत स्‍पष्‍ट अंदाज़ में अहकामात सादर फ़रमाए। हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने हज़रत अबू तलहा (رضي الله عنه) को हुक्म दिया कि अगर ये छः अस्हाब मेरी वफ़ात के तीन दिन गुज़र जाने के बाद भी आपस में एक ख़लीफ़ा चुनने में नाकाम रहें और तनाज़ा करें तो फिर अगर पाँच एक तरफ़ हो और एक दूसरी तरफ़ तो फिर उस एक की गर्दन उड़ा देना। अगर चार एक पर मुत्तफ़िक़ हो और दो तनाज़ा करें तो फिर इन दो की गर्दन मार देना। और अगर तीन तीन का गिरोह बन जाये तो फिर अबदुल्लाह बिन उमर (رضي الله عنه) सालसी करें, लेकिन अगर फिर भी तनाज़ा ख़त्म ना हो तो फिर देखना कि अब्‍दुल रहमान (رضي الله عنه) बिन औफ़ किस गिरोह के साथ हैं और दूसरे गिरोह को क़तल कर देना। यानी अगर अक्सरीयत के फ़ैसले को तस्लीम ना किया जाये तो ऐसी सूरत में झगड़ा करने वाली अक़ल्लीयत को क़त्‍ल कर दिया जाये। क्‍योंके इसका मतलब ये नहीं कि इस्लाम सिरे से सियासी (राजनीतिक) इख्तिलाफ़ राय की इजाज़त नहीं देता बल्कि इस्लाम ख़लीफ़ा के चुनाव में अक्सरीयती राय के ज़ाहिर हो जाने के बाद अक़ल्लीयत को इस फ़ैसले की पाबंदी का हुक्म देता है। हम सब जानते हैं कि एक मुसलमान का क़त्‍ल किस क़दर बड़ा जुर्म है कुजा कि अशरा मबशरा में से किसी सहाबी का क़त्‍ल किया जाये। लेकिन किसी भी सहाबी ने हज़रत उमर (رضي الله عنه) के इन अहकामात पर एतराज़ ना फ़रमाया। जबकि वो तो लंबी क़मीज़ पर भी उमर (رضي الله عنه) की सरज़निश करने से ना घबराते थे। सहाबाए किराम (رضی اللہ عنھم) का ये इजमा इस बात की दलील है कि तमाम सहाबी शरीयत का ये हुक्म जानते थे कि ख़लीफ़ा की तक़र्रुरी (नियुक्ति) तीन दिन के अंदर-अंदर होनी चाहिए और अगर इस दौरान इस फ़रीज़े को पूरा करने में कोई रखना डाले तो फिर उसे क़त्‍ल भी किया जा सकता है। इससे मालूम हुआ कि ख़िलाफ़त किस क़दर बड़ा फ़र्ज़ है कि जिसके लिए हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने अशराए मबशरा के क़त्‍ल तक का हुक्म सादर फ़रमाया।

चौदह सौ साल तक फुक़हा-ए-एस फ़रीज़े की एहमियत को समझते रहे। आख़िर में क़ुरून-ए-ऊला के उल्मा मुज्तहिदीन के अक़्वाल नक़ल करना चाहूंगा ताकि क़ारईन को ख़िलाफ़त की उम्‍मुल फरायज़ होने में कोई शक व शुबा बाक़ी ना रहे। ये अर्ज़ करता चलूं कि फ़िक़ही बेहसो में इमाम का लफ़्ज़ भी ख़लीफ़ा के लिए इस्तिमाल किया जाता है जैसाकि हम रसूलल्‍लाह (صلى الله عليه وسلم) को भी अहादीसे मुबारका में इमाम का लफ़्ज़ ख़लीफ़ा के लिए इस्तिमाल करते हुए पाते हैं।

* इमाम जुज़ैरी (رحمت اللہ علیہ) (508 हि.) अलफ़का अल मज़ाहिब अलअरबा में फ़रमाते हैं : ''चारों इमाम (इमाम अब्बू हनीफ़ा (رحمت اللہ علیہ), इमाम मलिक (رحمت اللہ علیہ), इमाम शाफ़ई (رحمت اللہ علیہ) और इमाम अहमद बिन हंबल (رحمت اللہ علیہ)) इस बात पर मुत्तफ़िक़ हैं कि इमामत (ख़िलाफ़त) एक फ़र्ज़ है और मुसलमानों पर फ़र्ज़ है कि वो एक इमाम (ख़लीफ़ा) का चुनाव करें जो दीन के अहकामात नाफ़िज़ करे और मज़लूमों को ज़ालिमों के ख़िलाफ़ इंसाफ़ फ़राहम करे। मुसलमानों के लिए दुनिया में बैयकवक़त दो इमामों (खलीफा) का होना हराम है ख्‍वाह ऐसा बाहमी रजामंदी से हो या तनाज़ा के नतीजे में।''
* इमाम क़ुरतबी सूरत अलबकरा की आयत 30 की तफ़सीर में लिखते हैं : ''ये आयत इमाम और ख़लीफ़ा के चुनाव के लिए माख़ुज़ (स्‍त्रोत) है, जिसको सुना जाये और उसकी इताअत की जाये। क्योंकि दुनिया इसके ज़रीये वहदत (एकता) इख्तियार करती है और ख़िलाफ़त के क़वानीन इसके ज़रीये से नाफ़िज़ होते हैं। और इसके फ़र्ज़ होने में उम्मत और आयमा किराम के बीच कोई इख्तिलाफ़ नहीं मा सिवाए मोतज़िला के।''
* इमाम नववी (رحمت اللہ علیہ) शरह मुस्लिम जिल्द 12 सफ़ा 205 में कहते हैं : ''उल्मा का इस बात पर इत्तिफ़ाक़ है कि मुसलमानों पर ख़लीफ़ा की तक़र्रुरी (नियुक्ति) फ़र्ज़ है।''

* अब्‍दुल हमीद बिन यहया बिन सईद अलआमरी (132 हि.) अपनी किताब 'ख़लीफ़ा को नसीहत' में लिखते हैं : ''ख़िलाफ़त तमाम फ़राइज़ के सर का ताज और नगीना है।''

* इब्‍ने तेमिया (رحمت اللہ علیہ) अपनी किताब सियासतुल शरइय्या के बाब ''हुक्‍मरान की इताअत की फ़र्ज़ीयत'' में फ़रमाते हैं : ''ये जानना फ़र्ज़ है कि अवामुन्नास (आम जनता) पर हुकूमती इख्तियारात का हामिल ओहदा यानी ख़िलाफ़त का ओहदा दीन के अहम तरीन फ़राइज़ में से एक है। दरहक़ीक़त दीन का निफ़ाज़ इसके बगै़र नामुमकिन है। यही सलफ़ आयमा किराम मसलन फ़ज़ल बिन ईआज़ और इमाम अहमद बिन हंबल (رحمت اللہ علیہ) वग़ैरा की राय है।''

* इमाम ग़ज़ाली (رحمت اللہ علیہ) 'अलइक़तसाद फिल इतक़ाद' सफ़ा 240 में ख़िलाफ़त के ख़ात्‍मे के मुम्किना नताइज बयान फ़रमाते हुए कहते हैं : ''क़ाज़ी मुअत्तल हो जाऐंगे, वलायात (सूबे) ख़त्म हो जाऐंगे, इख्तियारात के हामिल अफ़राद के फ़ैसलों पर अमलदरआमद रुक जाएगा और तमाम लोग हराम के दहाने पर पहुंच जाऐंगे।''

* इमाम इब्‍ने हज़म (رحمت اللہ علیہ) (452 हि.) 'फ़सल मन अलनहाल' जलद 4 सफ़ा 87 में कहते हैं : ''तमाम अहल अल्सिना का इत्तिफ़ाक़ है कि इमामत का क़याम मुसलमानों पर फ़र्ज़ है। और उन पर फ़र्ज़ है कि वो अहकामे अलहीह के निफ़ाज़ के लिए एक इमाम तले रहें जो उनकी अहकामे शरई के मुताबिक़ क़ियादत (नेतृत्‍व) करे।''

* इमाम बग़दादी (رحمت اللہ علیہ) (463 हि.) 'किताब अलफ़र्क बैन अलफ़िरक़' सफ़ा 210 में रक़मतराज़ हैं : ''उम्मत पर इमामत (ख़िलाफ़त) फ़र्ज़ है ताकि शरीयत के निफ़ाज़ और इताअत के लिए इमाम मुक़र्रर (नियुक्‍त) किया जा सके।''
* इमाम मावरदी (رحمت اللہ علیہ) अहकाम अलसुल्तानिय्या, सफ़ा 56 में कहते हैं : ''इमाम नियुक्‍त करना फ़र्ज़ है।''

* इमाम इब्‍ने खल्लिदून (رحمت اللہ علیہ) 'अलमुकदमा' के सफ़ा 210 पर कहते हैं : ''इमाम की नियुक्ति फ़र्ज़ है जो सहाबा किराम और ताबईन के इजमा की वजह से हर एक को मालूम है। रसूलल्‍लाह (صلى الله عليه وسلم) के सहाबा किराम ने रसूलल्‍लाह (صلى الله عليه وسلم) के विसाल के बाद हज़रत अबू बक्र (رضي الله عنه) को ख़लीफ़ा नियुक्‍त करने में जल्दी की इसके बाद हर अह्द में मुसलमानों का ख़लीफ़ा रहा और वो किसी भी दौर में हालते इंतिशार और अफ़र तफरी में ना रहे (यानी ख़लीफ़ा के बगै़र नहीं रहे)। उसे हमेशा उल्मा का इजमा समझा गया है कि इमाम (ख़लीफ़ा) की नियुक्ति फ़र्ज़ है।''

* इमाम अबू अबदुल्लाह बिन मुस्लिम देनूरी (276 हि.) 'इमामता वलसियासता' में लिखते हैं : ''ख़िलाफ़त दीन और दुनिया के तमाम मामलात में मुसलमानों के लिए आलातरीन ऑथर्टी है।''

* इमाम अब्‍दुल हामिद बिन यहया बिन सईद अलआमरी (132 हि.) 'रिसाला फि नसीहत वलीअलअहद' में कहते हैं : ''ख़िलाफ़त बेहतरीन ज़ेवर है जो अनमोल है क्योंकि ये मुसलमानों की पनाहगाह है।'' 

उपर गुज़री इस बहस के बाद, जिसमें क़ुरआन, सुन्‍नत, इज्माए सहाबा और शरई उसूल से दलायल दिये गए, किसी भी मुसलमान के लिए ख़िलाफ़त की फ़र्ज़ीयत के बारे में कोई शक बाक़ी नहीं रह जाना चाहिए। इसलिए उसकी फ़र्ज़ीयत ऐसे ही है जैसे नमाज़, रोज़े और दूसरे फ़राइज़ की तो जैसे इन फ़राइज़ से ग़फ़लत बरतना हराम है बिल्‍कुल इसी तरह इस फ़र्ज़ की अदायगी से ग़फ़लत बरतना भी हराम है। अब ये ज़िम्मेदारी हर मुसलमान पर आइद होती है कि वो इस उम्‍मुल फ़रायज़ के लिए मनहज नबवी के मुताबिक़ सअी और कोशिश करे ताकि वो दुनिया और आख़िरत में सुर्ख़रु हो सके।
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