रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के ज़माने में तस्क़ीफ (culturing/तर्बीयत) का दौर


रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के ज़माने में तस्क़ीफ(culturing/तर्बीयत) का दौर

 

(खिलाफत के क़याम के मनहज की पहला मरहला)

जब आप (صلى الله عليه وسلم) रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) को नबुव्वत दी गई तो आप (صلى الله عليه وسلم) ने लोगों को दावत देना शुरू किया, जिसके नतीजे में कुछ लोग ईमान ले आए और कुछ ने इन्कार किया, यहां तक कि मक्का में इस्लाम का चर्चा हो गया और लोग इसके बारे में गुफ़्तगु करने लगे। आप (صلى الله عليه وسلم) अल्लाह (سبحانه وتعالى) के इस इरशाद पर अमल करते हुए शुरूआत में लोगों को दावत देने के लिए उनके घरों में जाते और ऐलानीया उनको इस्लाम की तरफ़ दावत देते:

﴿يَا أَيُّهَا الْمُدَّثِّرُ قُمْ فَأَنذِر﴾ {2-74:1}

“ए कम्बल में लेटे हुए, उठीए और लोगों को डराईए ।”

इस दीन की बुनियाद पर आप (صلى الله عليه وسلم) उनकी खु़फ़ीया तौर पर गिरोह बंदी करते चुनांचे इसीलिए सहाबा किराम (رضی اللہ عنھم) अपनी क़ौम से छुप कर पहाड़ों की वादी में नमाज़ पढ़ते । जो भी नया शख़्स ईमान ले आता उसको क़ुरआन की तालीम देने के लिए आप (صلى الله عليه وسلم) किसी को मुक़र्रर फ़रमाते, चुनांचे आप (صلى الله عليه وسلم) ने ख़बाब (رضي الله عنه) बिन अल-आरत (رضي الله عنه) को ज़ैनब (رضي الله عنه) बिंत अल ख़त्ताब और उनके शौहर सईद (رضي الله عنه) को क़ुरआन की तालीम देने के लिए सईद (رضي الله عنه) के घर भेजा । यही वो हलक़ा है जिसमें अमीरुल-मोमिनीन सैयदना उमर (رضي الله عنه) बिन अल-ख़त्ताब ने ईमान क़बूल किया था। आप (صلى الله عليه وسلم) ने दारे अरक़म (رضي الله عنه) (अरक़म رضي الله عنه का घर जो मक्का के बाहरी किनारा पर वाक़ेअ था) को मोमिनों की इस जमात के लिए मर्कज़ और इस नई दावत के लिए स्कूल बनाया । यहां आप (صلى الله عليه وسلم) उनको क़ुरआन पढ़ कर सुनाते और उसको समझने, याद करने और अमल करने की तालीम देते। रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) इस मामले को खु़फ़ीया रखते और जो भी आप (صلى الله عليه وسلم) पर ईमान लाता उसको इस तशकील (structure) में शामिल करते, फिर खु़फ़ीया तौर पर आप (صلى الله عليه وسلم) उसको अरक़म बिन अबी अल-अरक़म के घर में ही तालीम दिया करते, इस दौरान आप (صلى الله عليه وسلم) का (صلى الله عليه وسلم) यही तरीके-कार रहा यहाँ तक कि अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने ये आयत नाज़िल फ़रमाई:


﴿فَاصْدَعْ بِمَا تُؤمَرُ وَأَعْرِض عَنِ المُشْرِكِينَ﴾ {15:94}
“जिस चीज़ का तुम्हें हुक्म दिया जाता है उसको खुल्लम खुल्ला बयान कीजिए ।”
शुरूआत में रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) हर उस शख़्स को दावत देते जिसके अंदर आप (صلى الله عليه وسلم) इस दावत को क़बूल करने का रुझान भाँप लेते या ज़ाहिर हो जाती । आप (صلى الله عليه وسلم) उनकी उम्र, समाज में उनके मरतबे, उनकी जिन्स मर्द है या औरत, हसब और नसब (lineage) या असलीयत को नहीं देखते, यूं आप (صلى الله عليه وسلم) के साथ चालीस अफ़राद की जब एक जमात तैय्यार हो गई, ये लोग मर्द भी थे और औरतें भी और ये अलग-अलग माहौल से ताल्लुक़ रखते थे तो अब अल्लाह (سبحانه وتعالى) की जानिब से आप (صلى الله عليه وسلم) को दीन को मुकम्मल तौर पर ज़ाहिर कर देने का हुक्म दे दिया गया । इनमें ज़्यादातर नौजवान थे, इनमें कमज़ोर भी थे, ताक़तवर भी, मालदार भी थे और ग़रीब भी। जब ये सहाबा किराम (رضی اللہ عنھم) आप (صلى الله عليه وسلم) की तर्बीयत में अल्लाह (سبحانه وتعالى) की वह्यी के साथ इस्लामी सक़ाफ़्त (islamic culture) के रंग में रंग गए और तर्बीयत याफ़्ता हो गए, उनकी अक़्लियत (ज़हनीयत) ढल कर इस्लामी अक़्लियत बन गई, उनकी नफ़्सिया (जज़्बात और बरताव) ढल कर इस्लामी नफ़्सिया बन गई। तब रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) को भी इस बात का इत्मीनान हो गया कि आप (صلى الله عليه وسلم) की जमात अब इतनी मज़बूत हो चुकी है जो कि तमाम समाजों के बिलमुक़ाबिल होकर उनका सामना करने की ताक़त रखती है चुनांचे आप (صلى الله عليه وسلم) को जब अल्लाह (جل جلالہ) का उल्लेखित हुक्म आया तो रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) फिर इस जमात के साथ खुल कर अवाम के सामने आ गए।
इस्लामी दावत तो उसी दिन सामने आ चुकी थी जिस दिन रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) को नबुव्वत पर मबऊस किया गया था । मक्का में लोगों को इस बात का इल्म हो चुका था कि मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) एक नए दीन की तरफ़ दावत देते हैं और उन्हें ये भी मालूम था कि आप (صلى الله عليه وسلم) पर कई लोग ईमान ला चुके हैं, वो जानते थे कि मुसलमान इस जमात से अपने रिश्ते को ज़ाहिर नहीं कर रहे हैं और वो इस नए दीन में अपने ईमान को भी ज़ाहिर नहीं कर रहे हैं उनकी मालूमात से ज़ाहिर होता है कि लोग ये भी जानते थे कि मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) अपने सहाबा (رضی اللہ عنھم) की जमात साज़ी करते हैं और उनकी निगरानी भी, लोग ये भी जानते थे कि इस समाज में मोमिनीन मौजूद हैं अगरचे उनको ये मालूम नहीं था कि ये ईमान वाले जमा कहाँ होते हैं और इनमें कौन कौन अफ़राद शामिल हैं जो जमा होते हैं, रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) का इस्लाम का खुल्लम खुल्ला ऐलान करना उनके लिए कोई नई बात नहीं थी । उनके लिए जो नई चीज़ थी वो मोमिनों के इस गिरोह या जमात का उन पर ज़ाहिर हो जाना था जो उनके लिए एक ललकार की तरह सामने आया।

चुनांचे जब रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) पर अल्लाह (سبحانه وتعالى) की जानिब से ये आयत नाज़िल हुई:


﴿فَاصْدَعْ بِمَا تُؤمَرُ وَأَعْرِض عَنِ المُشْرِكِينَ  إِنَّا كَفَيْنَاكَ المُسْتَهْزِئِينَ  الَّذِينَ يَجْعَلُونَ مَعَ اللّهِ إِلـهاً آخَرَ فَسَوْفَ يَعْلَمُونَ﴾ {96-15:94}
“तुम्हें जो हुक्म मिलता है उसको खोल कर बयान करें और मुशरिकीन से मुँह मोड़ लें, उन इस्तिहज़ा करने वालों के मुक़ाबले में हम तुम्हारे लिए काफ़ी हैं जो अल्लाह (سبحانه وتعالى) के साथ दूसरों को माबूद बनाते हैं वो अनक़रीब जान लेंगे ।”
 
तो अब आप (صلى الله عليه وسلم) ने खुल कर और ऐलानीया दीन की दावत की शुरूआत की, अब इस खु़फ़ीया दौर के मरहले से ऐलानीया दौर की तरफ़ बढ़े जिसमें आप (صلى الله عليه وسلم) सिर्फ़ उसको दावत दिया करते थे जिसमें तब्दीली का रुझान पाते थे और जिसमें आप (صلى الله عليه وسلم) अज़ीज़ और अक़ारिब को दावत दिया करते थे इस खु़फ़ीया मरहले से निकल कर अब अगले ऐलानीया मरहले में आप (صلى الله عليه وسلم) ने तमाम लोगों को मुख़ातिब करना शुरू कर दिया चुनांचे यूं ईमान और कुफ्र के बीच एक टकराव की शुरूआत हो गई जिसमें सही अफ़्क़ार और ग़लत अफ़्क़ार के बीच रगड़ और कश्मकश शुरू हो गई। इस तरह इस ऐलानीया मरहले के साथ दावत का दूसरा दौर यानी तफ़ाउल और जद्दो जहद का दौर शुरू हो गया। ये दौर तमाम अदवार में सबसे सख़्त तरीन मुश्किलात का दौर था। यही वो दौर था जब रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के घर पर पत्थर बरसाए गए। अबू लहब की बीवी उम्मे जमील गंदगी उठा कर रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के घर के सामने डालती, आप (صلى الله عليه وسلم) जवाब में सिर्फ़ सब्र करते हुए इस गंदगी को हटाते । अबु जहल बुतों के चढ़ावे के लिए ज़िब्ह की हुई भेड़ की ओझड़ीयों को रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) पर डालता, आप (صلى الله عليه وسلم) सब कुछ तक्लीफे बर्दाश्त करते, बल्कि आप (صلى الله عليه وسلم) दावत पर इस्तिक़ामत के साथ मज़ीद इसरार (insistence) करते और सब्र करते । मुसलमानों को धमकाया जाता और तक्लीफें और अज़ीयतें दी जातीं । हर क़बीला अपने में से ईमान लाने वालों को उनके दीन की वजह से सताता, सख़्त तक्लीफें देता और उन्हें अज़ाब में रखता। ऐसी ही मिसालें थीं जिनमें बिलाल, अम्मार (رضی اللہ عنھما) और उनके माँ और बाप और उनके साथ दीगर कई अफ़राद थे जिन्होंने सख़्त तक्लीफ़ और अज़ाब के दौर में तक्लीफों को सहते हुए इस्तिक़ामत और सब्र और तहम्मुल की मिसालें क़ायम कीं और ता-क़यामत बाद में आने वालों के लिए मशअले राह छोड़कर गए हैं ।
शुरूआत में कुफ़्फ़ार ने ये समझ कर कि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की दावत की परवाह नहीं की कि आप (صلى الله عليه وسلم) का कलाम भी राहिबों और अक़्लमंदों की बातों की तरह हकीमाना बातें है और इससे ज़्यादा कुछ नहीं है और ये ईमान लाने वाले लोग बहुत जल्द अपने आबाओ अज्दाद (forefather) के दीन की तरफ़ लोट आयेंगे और इसीलिए वो आप (صلى الله عليه وسلم) से दूर नहीं भागते और ना ही आप (صلى الله عليه وسلم) को बुरा भला कहते बल्कि जब आप (صلى الله عليه وسلم) उनकी मज्लिसों के पास से गुज़रते तो वो लोग ये कहते कि ये अबदुल-मुत्तलिब का बेटा है और आसमानी बातें करता है। लेकिन जब रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने उनकी तहज़ीब, रस्मो रिवाज, समाज की बुराईयों के ख़िलाफ़ इन तमाम लोगों के मद्दे-मुक़ाबिल हुए और उनकी ख़राबियों पर उनको ललकारा, जिसमें उनके माबूदों का बयान किया और उन झूटे ख़ुदाओं के मानने वालों को शर्मिंदा किया, उनकी बेवक़ूफ़ी का ज़िक्र किया, उनके आबाओ अज्दाद की गुमराही बयान की तो सबने आप (صلى الله عليه وسلم) को अपना दुश्मन तस्लीम कर लिया और फिर सबके सब आप (صلى الله عليه وسلم) की दुश्मनी, विरोध और इस लड़ाई में आपस में मिल गए ।
वो चाहते थे कि किसी तरह आप (صلى الله عليه وسلم) के मुक़ाम और रुत्बे को ख़त्म करदें लिहाज़ा उन्होंने इसके लिए आप (صلى الله عليه وسلم) की नबुव्वत के दावे को झुटलाया, इंतिहाई भोंडे अंदाज़ में मज़ाक़ उड़ाते हुए आप (صلى الله عليه وسلم) से मोजज़ात की मांग करने लगे, वो कहने लगे :  मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) सफ़ा और मरवा की पहाड़ीयों को सोने में क्यों तब्दील नहीं करता?, आसमान से ही लिखी लिखाई किताब क्यों नहीं उतर जाती?,  फ़रिश्ता जिब्राईल (علیہ ا لسلام), मुसलमानों के सामने ज़ाहिर होकर क्यों नहीं आते?, ये (मुहम्मद صلى الله عليه وسلم) मुर्दों को ज़िंदा क्यों नहीं करते? । इसी क़िस्म की बातें वो करते रहे बल्कि वो और मज़ीद हटधर्मी हो गए, जबकि दूसरी तरफ रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) निरंतर लोगों को अपने रब के पैग़ाम की तरफ़ दावत देते रहते। कुफ़्फ़ार ने आप (صلى الله عليه وسلم) को दावत से बाज़ रखने के लिए तमाम रास्ते और हथकंडे आज़माऐ। वो आप (صلى الله عليه وسلم) पर ईमान लाने वालों और आप (صلى الله عليه وسلم) की पैरवी करने वालों को सज़ा देते । आप (صلى الله عليه وسلم) और अस्हाब (رضی اللہ عنھم) के ख़िलाफ़ प्रोपेगंडा करते, बाईकॉट किया और भी दीगर तरीक़े अपनाए, लेकिन रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) अल्लाह (سبحانه وتعالى) की रस्सी को और ज़्यादा मज़बूती से थाम लेते और दावत में मज़ीद ज़्यादा जोश व जज़्बे का मुज़ाहरा करते ।
अल्लाह के रसूल की नबुव्वत और आप (صلى الله عليه وسلم) की तक्लीफों के बारे में ख़बरें दीगर क़बाइल के कानों में पहुंचने लगीं और आप (صلى الله عليه وسلم) की दावत का चर्चा अरब क़बीलों में आम हो गया और इस तरह इस्लाम जज़ीरा अरब में मशहूर हो गया, कारवाँ और सवार एक जगह से दूसरी जगह हर कोई इस्लाम ही के बारे में बातें करने लगा। आम तौर पर मुसलमानों को लोगों से घुलने मिलने और उनसे अपनी बात करने की गुंजाइश और कोई मौक़ा नहीं था, मुसलमानों को घुलने मिलने और बात करने का मौक़ा सिर्फ़ मुक़द्दस हुर्मत (ज़िल क़अदा, ज़िल हिज्ज, मुहर्रम, रजब) के महीनों में मिलता जब रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) काअबे में आकर तमाम अहले अरब जो अरब के विभिन्न कोनों से आते उनको अल्लाह (سبحانه وتعالى) के दीन की तरफ़ दावत देते, उनको अल्लाह (سبحانه وتعالى) की जानिब से इनामात की ख़ुशख़बरी सुनाते और अल्लाह (سبحانه وتعالى) के अज़ाब और सज़ा के बारे में डराते।
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