बैअत

बैअत तमाम मुसलमानों पर फ़र्ज़ है और ये हर मुसलमान मर्द और औरत का हक़ भी है। उस की फ़र्ज़ीयत मुतअद्दिद (अनेक) अहादीस से साबित है, जैसा कि इब्ने उमर (رضي الله عنه) ने रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم का ये इरशाद बयान किया:





))من مات ولیس في عنقہ بیعۃ مات میتۃ جاھلیۃ((
और जो कोई इस हाल में मरा कि उस की गर्दन में (ख़लीफ़ा की) बैअत का (तौक़) ना था तो वो जाहिलियत की मौत मरा

और जहां तक इस बात का ताल्लुक़ है कि बैअत मुसलमानों का हक़ है तो बैअत की कैफ़ीयत ख़ुद इस पर दलालत करती है। क्योंकि बैअत मुसलमानों की तरफ़ से ख़लीफ़ा की होती है, ख़लीफ़ा की जानिब से मुसलमानों की नहीं। सही अहादीस से साबित है कि मुसलमानों ने रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم की बैअत की। बुख़ारी ने उबादा बिन सामित (رضي الله عنه) से रिवायत किया है कि:

))بایعنا رسول اللّٰہ ﷺ علی السمعِ والطاعۃ في المنشط والمکرہ ‘ وأن لا ننازع الأمر أھلہ ‘ وأن نقوم أو نقول بالحق حیثما کنا، لانخاف في اللّٰہ لومۃ لائم((

हम ने पसंद और नापसंद (दोनों हालतों में) सुनने और इताअत करने पर रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم की बैअत की। और इस बात पर कि हम अहल-ए-अम्र के साथ तनाजअ नहीं करेंगे। और हम हक़ के लिए उठ खड़े होंगे, या हक़ बात कह देंगे, ख़ाह जिस भी हालत में हों और अल्लाह के मुआमले में किसी भी मलामत करने वाले की मलामत से नहीं डरेंगे
और बुख़ारी में है कि अय्यूब ने हफ़सा से और उन्होंने उम्मे अतिया से रिवायत किया:
))بایعنا النبیﷺ فقرأ علینا : (اَنْ لَّا یُشْرِکنَ بِاللّٰہِ شَیءًا) ونھانا عن النیاحۃ ‘ فقبضت امرأۃ منا یدھا فقالت: فلانۃ أسعدتني وأنا أرید أن أجزیھا فلم یقل شیئاً فذھبت ثم رجعت..((
हम ने नबी  صلى الله عليه وسلم की बैअत की तो आप ने मेरे सामने ये आयत तिलावत की: वो अल्लाह के साथ किसी चीज़ को शरीक ना ठहराएं” (अल मुमतहन्नाৃ:12) और हमें बैन करने से मना फ़रमाया । इस दौरान हम में से एक औरत ने अपना हाथ खींच लिया और कहा कि फ़ुलां औरत ने मुझे ख़ुश किया में पहले इस का बदला देना चाहती हूँ। हुज़ूर ने कुछ भी ना फ़रमाया । वो औरत चली गई और फिर लौट कर वापिस आई...

बुख़ारी और मुस्लिम ने अबू हुरैरा (رضي الله عنه) से  रिवायत किया कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया:

))ثلاثۃ لایُکلمھم اللّٰہ یوم القیامۃ ولا یزکیھم ولھم عذاب ألیم : رجل علی فضل ماء بالطریق یمنع منہ ابن السبیل‘ ورجل بایع إماماً لایبایعہ إلا لدنیاہ‘ إن أعطاہ مایرید وفی لہ ‘ وإلا لم یف لہ ‘ ورجل بایع رجلاً بسلعۃ بعد العصر فحلف باللّٰہ لقد أُعطي بھا کذا وکذا فصدقہ فأخذھا ولم یُعط بھا((

तीन (तरह के) आदमीयों से अल्लाह (سبحانه وتعال) क़यामत के दिन कलाम करेंगे और ना उन को पाक करेंगे और उन के लिए सख़्त तरीन अज़ाब होगा। एक वो शख़्स, जो रास्ते में ज़ाइद पानी पर बैठ जाये और लोगों को इस से मना करे। दूसरा वो शख़्स, जो इमाम की बैअत सिर्फ़ अपनी दुनिया की ख़ातिर करे। अगर वो उसे वो कुछ दे, जिस का वो तलबगार है, तो उस की बैअत को इफा करे और अगर वो उसे ना दे तो वो इफा ना करे। तीसरा वो शख़्स, जो किसी शख़्स को अस्र के बाद सौदा दे और क़सम उठाकर कहे कि उसे ये चीज़ इतने में मिली है जबकि वो उसे इतने में ना मिली हो। और लेने वाला उस की बात को सच्च समझ कर उस से वो सौदा ख़रीद ले

और बुख़ारी और मुस्लिम ने अब्दुल्लाह बिन उमर (رضي الله عنه) से रिवायत किया , आप (رضي الله عنه) ने फ़रमाया:
))کنا إذا بایَعْنا رسول اللّٰہ ﷺ علی السمع والطاعۃ یقول لنا فیما استطعت((

जब हम सुनने और इताअत करने पर रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم की बैअत कर रहे थे तो आप صلى الله عليه وسلم हम से कह रहे थे: “जिस की तुम्हें इस्तिताअत हो”

और बुख़ारी ने जरीर बिन अब्दुल्लाह (رضي الله عنه) से  रिवायत किया है:
))بایعت النبی ﷺ علی السمع والطاعۃ ‘ فلقنني: فیما استطعت، والنصح لکل مسلم((
मैंने सुनने और इताअत करने पर नबी صلى الله عليه وسلم की बैअत की तो आप صلى الله عليه وسلم ने मुझे तलक़ीन की: ‘जिस की तुम्हें इस्तिताअत हो और नसीहत हर मुसलमान के लिए है
और जुनादह बिन अबी उमय्या से रिवायत है , उन्होंने कहा:
))دخلنا علی عبادۃ بن الصامت وھو مریض قلنا:اصلحک اللّٰہ حدث بحدیث ینفعک اللّٰہ بہ سمعتہ من النبی ﷺ قال : دعاناالنبي فبایعناہ، فقال: فیما أخذ علینا أن بایعنا علی السمع والطاعۃ فی منشطنا ومکرھنا ‘ وعسرنا ویسرنا، وأثرۃ علینا ‘ وأن لا ننازع الأ مر أھلہ، قال: إلا أن ترواکفراً بَواحاً عندکم من اللّٰہ فیہ برھان((

हम उबादा बिन सामित (رضي الله عنه) के पास आए और वो बीमार थे तो हम ने दुआ की कि अल्लाह आप को तंदरुस्ती अता फ़रमाए। (फिर हम ने कहा) हमें ऐसी हदीस सुनाईए जिसे आप ने नबी صلى الله عليه وسلم से सुनी हो। अल्लाह (سبحانه وتعال) आप को इस से नफ़ा अता फ़रमाए। उन्होंने कहा : हमें नबी  صلى الله عليه وسلم  ने दावत दी तो हम ने आप صلى الله عليه وسلم के हाथ पर बैअत की। आप صلى الله عليه وسلم ने हम से उन शराइत पर बैअत ली कि हम पसंदीदा और नापसंदीदा कामों में, मुश्किल और आसानी (की हालत ) में और अपने ऊपर दूसरों को तर्जीह देने की सूरत में भी आप की इताअत करेंगे। और हम किसी अहल-ए-अम्र (हाकिम )के साथ इस के मंसब में तनाज़ा ना करेंगे, जब तक कि तुम कुफ्र-ए-बुवाह (खुल्लम खुल्ला कुफ्र) ना देख लो, जिस के बारे में अल्लाह (سبحانه وتعال) की तरफ़ से तुम्हारे पास वाज़िह दलील हो
(बुख़ारी और मुस्लिम ने इस हदीस को रिवायत किया)

पस ख़लीफ़ा के लिए बैअत मुसलमानों की तरफ़ से होती है और ये मुसलमानों का हक़ है। वही बैअत करते हैं और उन्ही की बैअत से ख़लीफ़ा की ख़िलाफ़त का मुआहिदा मुकम्मल होताहै। बैअत हाथ के मुसाफ़ा से होती है लेकिन ये तहरीरन (लिखित) भी हो सकती है। अब्दुल्लाह बिन दीनार बयान करते हैं : “मैंने उस वक़्त अब्दुल्लाह बिन उमर (رضي الله عنه) को देखा जब लोगों ने अब्दुल मलिक बिन मरवान को अमीरुल मोमिनीन बनाने पर इत्तिफ़ाक़ किया। तब अब्दुल्लाह बिन उमर ने ये तहरीर लिखी कि में अल्लाह और उस के रसूल صلى الله عليه وسلم की सुन्नत के मुताबिक़ हसब-ए-इस्तिताअत अमीरुल मोमिनीन, अल्लाह के ग़ुलाम , अब्दुल मलिक की समा और इताअत का इक़रार करता हूँ ।“ बैअत किसी भी ज़रीये से करना दुरुस्त है।

लेकिन शर्त ये है कि बैअत करने वाला शख़्स बालिग़ हो क्योंकि बच्चों की बैअत दुरुस्त नहीं। अबू अक़ील ज़हरा बिन माबद अपने दादा अब्दुल्लाह बिन हिशाम (رضي الله عنه) से  रिवायत करते हैं कि उन्होंने नबी صلى الله عليه وسلم का अहद पाया। उन की वालीदा ज़ैनब बिंत हमीद उन्हें रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के पास लाईं और आप صلى الله عليه وسلم से कहा : ऐ अल्लाह के रसूल صلى الله عليه وسلم ! इस से बैअत ले लीजीए । आप صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया :
))ھو صغیر فمسح رأسہ و دعا لہ((
ये अभी छोटा है

और आप صلى الله عليه وسلم ने इस के सर पर दस्त-ए-मुबारक फेरा और इस के लिए दुआ फ़रमाई (बुख़ारी ने इस हदीस को रिवायत किया)

जहां तक बैअत के अल्फाज़ का ताल्लुक़ है तो इस के लिए मख़सूस अल्फाज़ की कोई क़ैद नहीं। लेकिन ख़लीफ़ा के लिए ज़रूरी है कि इस के अल्फाज़ किताब व सुन्नत की पैरवी को बयान करें और बैअत करने वाले के अल्फाज़ तंगी व खुशहाली, पसंदीदा और नापसंदीदा हालात में इताअत व फ़रमाबरदारी को ज़ाहिर करते हों। जब बैअत करने वाला शख़्स ख़लीफ़ा की बैअत करे या दूसरे मुसलमानों की बैअत से ख़लीफ़ा की ख़िलाफ़त क़ायम हो जाए तो अब बैअत करने वाले शख़्स की गर्दन पर बैअत एक अमानत है और इस के पास इस से इन्हिराफ़ (किनारा करने का) का कोई जवाज़ (बहाना) नहीं। बैअत ख़िलाफ़त के इनेक़ाद के लिए मुसलमानों का हक़ है जब तक वो ये हक़ किसी को ना दे दे, लेकिन जब वो ये हक़ किसी को दे दे तो फिर वो इस का पाबंद हो जाता है। अब अगर वो इन्हिराफ़ करना भी चाहे तो उस की इजाज़त नहीं। बुख़ारी में जाबिर बिन अब्दुल्लाह (رضي الله عنه) की रिवायत है कि:

))أن أعرابیاً بایع رسول اللّٰہﷺ علی الإسلام، فأصابہ وعک فقال : ((أقلني بیعتي)) فأبی۔ ثم جاء فقال:(( أقلني بیعتي)) فأبي۔ فخرج۔ فقال رسول اللّٰہ ﷺ: ((المدینۃ کالکیر تنفي خبثھا وتنصع طیبُھا((

एक आराबी (देहाती) ने रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के हाथ पर बैअत की और उसे बुख़ार हो गया तो उस ने कहा : मेरी बैअत वापिस कर दें। आप صلى الله عليه وسلم ने इनकार कर दिया। वो दुबारा आया और कहा: मेरी बैअत वापिस कर दीजीए। आप صلى الله عليه وسلم ने इनकार कर दिया। वो निकला तो आप صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया: मदीना भट्टी की मानिंद है, ख़बीस चीज़ों को निकाल देता है और पाकीज़ा और अच्छी चीज़ों को निखार देता है
मुस्लिम ने रिवायत किया कि नाफ़े ने कहा कि मुझ से इब्ने उमर (رضي الله عنه) ने बयान किया कि मैंने रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم को ये फ़रमाते हुए सुना:
))من خلع یداً من طاعۃ لقي اللّٰہ یوم القیامۃ لاحجۃ لہ((
जिस ने इताअत से हाथ खींच लिया वो क़यामत के दिन अल्लाह (سبحانه وتعال) से ऐसी हालत में मिलेगा कि उस के पास (अपने इस अमल की) कोई हुज्जत नहीं होगी

ख़लीफ़ा की बैअत तोड़ना अल्लाह (سبحانه وتعال) की इताअत से हाथ खींच लेने के मुतरादिफ़ (प्रयायवाची) है। लेकिन ये इस सूरत में है कि जब इस ख़लीफ़ा की बैअते इनेक़ाद और बैअते इताअत से रुजू किया जाये, जिसे मुसलमानों ने बहैसीयत ख़लीफ़ा क़बूल किया हो और उसे बैअत दी हो। लेकिन जब कोई शख़्स किसी ख़लीफ़ा की इबतिदाई तौर पर बैअत कर ले लेकिन इस (ख़लीफ़ा की) बैअत मुकम्मल ना हो सकी तो इस सूरत में इसके लिए जायज़ है कि वो अपनी बैअत से रुजू कर ले। क्योंकि मुसलमानों ने मजमूई तौर पर उसे क़बूल ही नहीं किया। मज़कूरा हदीस में ख़लीफ़ा की बैअत से रुजू करने से मना किया गया है, ना कि ऐसे शख़्स की बैअत से रुजू करने से कि जिस की ख़िलाफ़त (का अक़्द) पाया-ए-तकमील तक ही ना पहुंचा हो।


Share on Google Plus

About Khilafat.Hindi

This is a short description in the author block about the author. You edit it by entering text in the "Biographical Info" field in the user admin panel.
    Blogger Comment
    Facebook Comment

0 comments :

इस्लामी सियासत

इस्लामी सियासत
इस्लामी एक मब्दा (ideology) है जिस से एक निज़ाम फूटता है. सियासत इस्लाम का नागुज़ीर हिस्सा है.

मदनी रियासत और सीरते पाक

मदनी रियासत और सीरते पाक
अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) की मदीने की जानिब हिजरत का मक़सद पहली इस्लामी रियासत का क़याम था जिसके तहत इस्लाम का जामे और हमागीर निफाज़ मुमकिन हो सका.

इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी का इतिहास

इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी का इतिहास
इस्लाम एक मुकम्म जीवन व्यवस्था है जो ज़िंदगी के सम्पूर्ण क्षेत्र को अपने अंदर समाये हुए है. इस्लामी रियासत का 1350 साल का इतिहास इस बात का साक्षी है. इस्लामी रियासत की गैर-मौजूदगी मे भी मुसलमान अपना सब कुछ क़ुर्बान करके भी इस्लामी तहज़ीब के मामले मे समझौता नही करना चाहते. यह इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी की खुली हुई निशानी है.