इस्लाम पर कुफ़्फ़ार के इल्ज़ामात और मुसलमानों का माज़रत ख्वाहाना (माफी चाहने वाला) रवैय्या




 कुफ़्फ़ार ने मग़रिब में अपनी ईजादात (अविष्कार) और इन्किशाफ़ात (खोज) की आड़ में मुसलमानों के ख़िलाफ़ फ़िक्री (वैचारिक) हमला किया ताकि मुसलमान बिल्‍कुल बेबस हो जाएं। उन्होंने इस्लामी रियासत को ख़त्म करने की ख़ातिर उन अफ़्क़ार (विचारो) में ही शक पैदा किए जिनकी बुनियाद पर इस्लामी रियासत क़ायम थी जबकि मुसलमानों ने उनके जवाब में जो रवैय्या अपनाया वो इंतिहाई माज़रत ख्‍वाहाना (माफी चाहने वाला) था, जैसे की वो अपने अफ़्क़ार (विचारों) पर शर्मिंदा हो। यह मज़मून किताब ''मुसलमानों को दिल सोज़ पुकार'' का एक इक्तिबास (अंश) है जो अल्लामा तक़ीउद्दीन अलनबहानी की लिखी हुई है। इस किताब में कुफ़्फ़ार की फ़िक्री (वैचारिक) यलग़ार का जवाब माज़रत ख्‍वाहाना की बजाय ऐसे दिया गया है जिससे इस्लामी अफ़्क़ार (विचार) और ज्‍़यादा शफ़्फ़ाफ़ (साफ) और कुफ़्फ़ार के झूठे इल्ज़ामात का टेडापन और अधिक वाज़ेह होकर कर सामने आ जाती है।


सरमायादार (पूंजीवादी) सिर्फ़ इस पर खामोश हो कर नहीं रह गए बल्कि उन्होंने इस्लामी जज़बात और एहसासात को भी तन्क़ीद (आलोचना) का निशाना बनाया। इस तरह उन्होंने मुसलमानों की इस्लाम से वाबस्तगी (जुडे रहने) का मज़ाक़ उड़ाया। इनका कहना था कि मुसलमानों की इस्लामी अहकामात से वाबस्तगी की वजह से तास्सुब (पक्षपात), कट्टरपन, नफ़रत और तशद्दुद पैदा होता है, इसलिए लोगों को उसके ख़िलाफ़ उठ खड़ा होना चाहीए। उन्होंने मुसलमानों की कुफ्र और कुफ़्फ़ार से नफ़रत, और इस्लाम और मुसलमानों से मुहब्बत पर एतराज़ किया। उन्होंने इस चीज़ को तास्सुब और कट्टरपन का नाम दिया। ज़रपरस्तों (पूंजीवादियों) का कहना है कि एक इंसान दूसरे इंसान का भाई है चाहे वो उसे पसंद करे या ना करे। (यानी एक मुसलमान और एक यहूदी के बीच कोई फ़र्क़ नहीं होता) कुफ़्फ़ार के खयाल में हर एक शख़्स को अपनी राय और मज़हब अपनाने करने का हक़ है, राय सिर्फ़ राय है उसको एक दूसरे पर तर्जीह (प्रधानता) नहीं दी जा सकती। (फिर क्यों मज़हबों के दरमियान फर्क़ किया जाये और इंसानों के दरमियान नफ़रत और मुहब्बत को हाइल किया जाये?) फिर मज़ीद ये कि उन्होंने क़ौमी जज़बात को हवा दी, तुर्कों को अरबों के ख़िलाफ़ क़ौमपरस्ती की बुनियाद पर भड़काया, इसी तरह अरबों को तुर्कों के ख़िलाफ़ उकसाया। इस्लामी जज़बात को उन्होंने बदनाम किया, अल्लाह (سبحانه وتعالى) के तक़द्दुस (पवित्रता) को पामाल किया और कहा कि ये सब मज़हबी कट्टरपन है। उन्होंने इस बात की वकालत की कि मुसलमानों को इस्लाम की इतनी परवाह नहीं करना चाहीए और उसके अहकामात से इतना ज़्यादा लगाव मुनासिब नहीं है। उसको उन्होंने मज़हबी रवादारी (religious tolerance/धार्मिक सहिष्णुता/ सहनशीलता) का नाम दिया।


उनका ये सोचना है कि अगर कोई क़ुरआन मजीद पर तन्क़ीद (आलोचना) करता है, रसूलल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की शान में गुस्ताख़ी करता है या सहाबा-ए-किराम पर बोहतान तराशी करता है तो इस पर मुसलमानों को जज़बात में आकर भड़कना नहीं चाहीए। इनका मौक़िफ़ है कि ये तो एक आलिमाना बेहस का मौज़ू (विषय) है। इनका कहना है कि मसलन क़ुरआन मजीद हज़रत इब्राहीम अलैहि अस्सलाम का क़िस्सा बयान करता है जबकि इतिहास में इब्राहीम नाम का कोई शख़्स ही नहीं हुआ जिससे इस क़िस्से की तसदीक़ हो सके, दूसरा यह कि क़ुरआन मजीद हज़रत मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) की तसनीफ़ (रचना/writing) थी लेकिन आप (صلى الله عليه وسلم) ने ये दावा किया कि ये अल्लाह का कलाम है ताकि लोगों को उसकी इत्तिबा करने पर आमादा किया जा सके। इसके अलावा भी उनका बहुत कुछ कहना है और उनका इसरार है कि मुसलमानों को इस कज़्ब बयानी पर मुश्तइल (भडकना) नहीं होना चाहीए बल्कि उन्हें तो ये सब इल्‍मी तेहक़ीक़ (research) समझ कर तस्लीम करना चाहीए। इस तरह वो इस बात के दरपे हो गए कि इस किस्म के जज़बात यानी ख़ुशी, ग़म, गु़स्सा, नाराज़गी, मुहब्बत व नफ़रत ये सब इस्लामी अफ़्क़ार (विचारों) के ही नतीजे में पैदा होते हैं। इन जज़बात के पीछे जो मुहर्रिक (कारक) था उसे उन्होंने बदल दिया ताकि ये अपनी इस्लामी ख़ुसूसीयत खो दे।

बहुत ही मुनज़्ज़म (संघठित) तरीक़े से इस्लामी अफ़्क़ार, अहकाम और एहसासात को उन लोगों की तरफ़ से चैलेंज किया गया। ये एक फ़ितरी बात थी बल्कि यह टाला नहीं जा सकता था कि मुसलमान इस चैलेंज को क़बूल करते और अक्‍ली महाज़े जंग पर कुफ़्फ़ार के इन चैलेंजों का जवाब देते, बल्कि ये मुसलमानों का दीनी फ़रीज़ा था कि वो ख़ुद आगे बढ़ कर इन ख़ुराफ़ात का जवाब देते और कुफ़्फ़ार पर इस्लाम की हक़्क़ानियत वाज़ेह करते क्योंकि मुसलमानों की हैसियत हामिलीने दावत की है और वो इंसानियत के लिए अल्लाह का अज़ीमुश्शान पैग़ाम रखते हैं। इसके विपरीत हक़ीक़त ये है कि इस्लामी अफ़्क़ार के ख़िलाफ़ इस क़दर प्रोपेगंडा किया गया और उन्हें इतना तज़हीक (तिरस्‍कार/उपहास) का निशाना बनाया गया कि ख़ुद मुसलमान इन चीज़ों पर शर्म और बेइज़्ज़ती महसूस करने लगे और उन्होंने इन चीज़ों के ताल्लुक़ से आम तौर पर माज़रत ख्‍वाहाना (माफी चहने वाला) अंदाज़ अपनाया लिया। ताद्दुदे अज़्दवाज (polygamy/बहुपत्निवाद) का बचाव इस तरह करने लगे कि ये तो सिर्फ़ ख़ास हालात में बीवीयों के साथ इंसाफ की बुनियाद पर (कुछ शर्तो के अन्‍तर्गत) है। इस हक़ीक़त से उन्होंने बचना चाहा कि इस्लाम में तलाक़ की इजाज़त है, उसको इस तरह कहने लगे कि इस्लाम उसकी इजाज़त नहीं देता सिवाए कुछ ख़ास हालात के। ख़िलाफ़त के ऊपर जो भी इल्ज़ाम तराशी की गई उसको मुसलमानों ने क़बूल कर लिया और ख़ामोशी इख्तियार कर ली, यहां तक कि उसमानी दौर के आख़िर में इस निज़ाम को ही तब्‍दील करने की कोशिश की। ख़िलाफ़त के ख़ात्‍मे के बाद मुसलमान इसका ज़िक्र तक करने में घबराने लगे और सरेआम इसका ज़िक्र (चर्चा) करने की इनमें जुर्रत नहीं रही।


ये जिहाद के मसले पर मुदाफ़अत (बचाव करने) पर उतर आए और कहने लगे कि ये तो इस्लाम पर एक बोहतान (इल्‍ज़ाम) है। इसका जवाब ये देने लगे कि जिहाद तो सिर्फ़ अपने दिफ़ा (रक्षा) में लड़ी जाने वाली जंग है, इस्लाम में इक्‍़दामी (आक्रामक) जिहाद नहीं है। इस हक़ीक़त से उन्होंने बचना चाहा कि जिहाद कुफ़्फ़ार के ख़िलाफ़ एक जंग है क्योंकि ये इस्लाम से इन्‍कार करने वाले हैं।


उन्होंने क़ज़ा व क़दर के मौज़ू (विषय) ये कह कर दिफ़ा किया कि इस्लाम ने इस विषय पर बेहस करने से मना किया है, इस तरह उन्हें बे-अमली और बद-अमली की छूट मिल गई। उन्होंने इस तरह इस्लाम पर लगाए गए इल्ज़ामात को क़बूल कर लिया। उन्होंने इस्लाम का इस तरह दिफ़ा (रक्षा) किया कि उसे कुफ़्फ़ार के मुक़ाबले में शिकस्त ही समझा जाएगा। इस शिकस्त ख़ुर्दगी (खाने) और ज़िल्लत का सीधे तौर पर नतीजा ये निकला कि जिन अहकाम पर भी कुफ़्फ़ार हमला आवर होते गए, मुसलमान इन इस्लामी अफ़्क़ार (विचारों) के मामले में एहसासे कमतरी (हीनता की भावना) का शिकार होने लगे और उनकी जगह सरमायादाराना अफ़्क़ार (पूंजीवादी विचार) और क़वानीन (कानून) ने ले ली।


जहां तक इन नए मामलो और मसलों का सवाल है जो सरमायादाराना निज़ाम (पूंजीवादी व्‍यवस्‍था) की पैदावार हैं और इसी मुआशरे (समाज) के साथ ख़ास हैं, उनके ताल्लुक़ से मुसलमानों ने इस्लाम से हल तलाशना चाहा जबकि ये मसलें शुरू से ना तो इस्लामी निज़ाम (व्‍यवस्‍था) की पैदावार हैं और न ही ये एक इस्लामी मुआशरे (समाज) में पनप सकते हैं। अब मुसलमान ये कहने लगे कि इस्लामी नुक़्ताए नज़र (दृष्टिकोण) से मुसलमानों को ''अल-मसलहा अल-मुरसला'' का उसूल अपनाना चाहीए जिसकी रू से आम मस्लिहत और फ़ायदे को तर्जीह (प्रधानता) दी जाती है, अल्लाह का क़ानून उसकी इजाज़त देता है।


इनका ये कहना था कि हिक्मत मोमिन की खोई हुई मीरास है जहां भी वो उसे पाए, हासिल कर लेना चाहीए। उसकी बुनियाद पर ये कोशिश की गई कि सरमायादाराना निज़ाम (पूंजीवादी व्‍यवस्‍था) जिस तरीक़े से मसाइल (मसलों) को हल करता है, उसे इस्लाम को भी इख्तियार (अपनाना) करना चाहीए। इसको उन्होंने इस्लामी तरीक़ा समझ कर इख्तियार किया जबकि इस्लाम इस मिलावट की बिल्‍कुल इजाज़त नहीं देता।


इनका कहना था कि इस्लाम में बीमा (Insurance) कराना मना नहीं है, उसका जवाज़ ये पेश किया जाता था कि ये तो एक मुआहिदा (कोंट्रेक्ट/समझौता) है। कुछ दूसरे लोगों का कहना था कि उसके हराम होने की कोई दलील नहीं है इसलिए ये जायज़ है, क्योंकि हर वो चीज़ जो हराम नहीं है वो मुबाह है। ये भी लोगों का कहना था कि बीमा तो एक तरह की ज़मानत होती है और इस्लाम इसकी इजाज़त देता है।


ग़ैर-मुमालिक से तिजारत के बारे में इनका कहना था कि जिस काम में भी मुसलमानों का फ़ायदा हो वो उन्हें करना चाहीए। इस तरह रियासत को मुसलमानों का फायदा पेशे नज़र रख कर इससे फ़ायदा उठाना चाहीए, यही ''अल-मसलहा अल-मुरसला'' का उसूल है।


उन्होंने पार्लियामानी निज़ाम (संसदीय व्‍यवस्‍था) को ये कह कर जायज़ क़रार दिया कि ये तो शूरा है और इस्लाम ने शूरा की इजाज़त दी है। उन्होंने फ्रांसिसी दीवानी क़वानीन (civil laws) को अपनाया जिसमें क़ानूनसाज़ी के दौरान दिमाग़ी हालत और रुझान की रियायत रखी गई है, इसका जवाज़ (सबूत) ये पेश किया कि असल मामला मतन (text) की रूह का है और इसका सम्‍बन्‍ध नीयत से जुड़ा होता है। इस्लाम की तरफ़ से उन्होंने ये दावा किया कि ये उसूल है कि मुआहिदे में असल चीज़ उसके मक़ासिद और मआनी होते हैं ना कि इसके अल्‍फाज और फ़िक़रे (वाक्‍़य)। इसके सबूत के लिए उन्होंने इस हदीस को पेश किया कि रसूलल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया:


اِنَّما الاعمالُ بالنیات

''आमाल कादार व मदार नीयतों पर है।''




इनका ये भी दावा रहा कि इस्लाम आम आज़ादीयां (liberties) लेकर आया है और लोगों के लिए ये हुक्म है कि वो इनका लिहाज़ रखें क्योंकि इस्लाम आज़ादी का ही मज़हब है। वो ईसाईयों के इस नज़रिए को मानने लगे कि रुहानी पहलू तो रूह है जो जिस्म से मुख़्तलिफ़ (अलग) होती है और आदमी रूह और मादा (पदार्थ) दोनों से मिल कर बनता है। इस तरह ना तो रूह को जिस्म पर हावी होना चाहीए, और ना जिस्म को रूह पर। इस तरह वो कुफ़्फ़ार के चैलेंज के सामने उलझन का शिकार हो गए। उन्होंने मसलों पर ग़ौर नहीं किया ताकि वो किताब और सुन्‍नत का मुताला (अध्‍ययन) करके उनके बारे में सही हल निकालते और शरई हुक्म मालूम करते, इसके बजाय उन्होंने मग़रिब (पश्‍चिम) के बताए हुए हल को ही इस्लामी हल समझ कर दिल व जान से क़बूल कर लिया, सिर्फ इस बुनियाद पर कि इस्लाम इस हल को खुले तौर पर मना नहीं करता।


कुछ लोगों ने बाअज़ (कुछ) इमामों की राय को ''अल-मसलहा अल-मुरसला'' के उसूल के तहत क़बूल कर लिया, ना कि क़ुरआन और हदीस से, जिसके कि वो पाबंद थे। सरमायादाराना क़वानीन (पूंजीवादी कानून) को इस दावे के साथ परिचित कराया गया कि ये इस्लामी अहकाम हैं। इसके बाद अब ये नागुज़ीर (ज़रूरी) हो गया कि मुआशरे (समाज) में क़वानीन और मुसलमानों के मामले इस तरह चलने लगे की बगै़र इसका लिहाज़ किए कि वो इस्लामी हैं या नहीं। इस तरह सरमायादाराना क़वानीन (पूंजीवादी कानून) मुसलमानों में जारी हो गए और इस्लाम को भुला दिया गया। जब इस्लामी अफ़्क़ार (विचारों) को बदला गया तो आसानी से इस्लामी एहसासात (feelings) भी तब्‍दील हो गए। इस तरह इस्लामी अहकाम को अपनाने में ख़ुद मुसलमान कराहीयत (नापसन्दीदगी) महसूस करने लगे क्योंकि उन्होंने उसे मज़हबी तास्सुब (पक्षपात) और शिद्दत पसंदी (कट्टरवाद) समझा और ये बात मुसलमानों में आम हो गई। इस्लाम से बेज़ारी (दूरी) इस हद तक बढ़ गई कि लोगों की नज़र में कुफ़्फ़ार और मुसलमानों के बीच और इस्लाम और दूसरे मज़हबो (धर्मो) के दरमियान कोई फ़र्क़ ही बाक़ी ना रहा।

सरमायादाराना (पूंजीवादी) तसव्वुर लोगों के दिमाग़ पर बुरी तरह छा गया और इस्लाम के ताल्लुक़ से उनका जोश और जज़बा ठंडा पड़ गया। अब क़ुराने पाक पर कोई हमला होने की शक्ल में गुस्से का इज़हार, पिछडापन और ज़वाल की निशानी समझा जाने लगा, क्योंकि उनके नुक़्ताए नज़र (दृष्टिकोण) से ये सब ग़ैर-पक्षपाती इल्‍मी तेहक़ीक़ (अनुसंधान) के वजह से हो रहा था। इस तरह इस्लामी हमीयत और जज़बात बिल्‍कुल ख़त्म कर दिए गए। इस्लामी जज़बा और एहसास सिर्फ़ इबादातों और ख़ास मामलों जैसे कफ़न, दफ़न वग़ैरा तक सिमित रह गए। सरमायादाराना निज़ाम (पूंजीवादी व्‍यवस्‍था) और इस्लाम के बीच मुक़ाबला आराई में ये मुसलमानों की ज़बरदस्त शिकस्त थी। ये इस्लाम की तक़रीबन शिकस्त ही होती, अगर वो इस्लामी अफ़्क़ार जिन पर इतने हमले किए गए थे सच्चे और हक़ ना होते या ग़लत होते जैसा कि हमलावर ज़ाहिर कर रहे थे, या फिर सरमायादाराना अफ़्क़ार (पूंजीवादी विचार) में कुछ सच्चाई होती, इसके विपरीत इस्लामी अफ़्क़ार (विचार) तो सरासर सच्चाई पर मबनी (आधारित) और हक़ीक़त के मुताबिक़ हैं।

ऐसा ही मामला उन इस्लामी एहसासात (feelings) के साथ भी होता जिन पर इतने हमले किए जा रहे थे, अगर ये आदमी की फ़ित्रत के मुताबिक़ ना होते तो आदमी उन्हें क़बूल ना करता। अगर मामला ऐसा होता तो ये शिकस्त (हार) सिर्फ मुसलमानों तक ही सिमित ना रहती और उनके विचार का असर आपसी मामलों और सियासी (राजनीतिक) सूरतेहाल बदलने पर रुक कर ना रह जाता बल्कि इस शिकस्त (हार) के बाद कुफ़्फ़ार इस्लाम का अक्‍ली और जज़बाती वजूद ही ख़त्म कर देते जिस तरह कि उन्होंने इस्लाम को सियासी (राजनीतिक) मंज़रनामे से हटा दिया। हम देख रहे हैं कि हक़ीक़त इसके बरख़िलाफ़ है क्योंकि इस्लाम के ख़िलाफ़ सरमायादाराना निज़ाम (पूंजीवादी व्‍यवस्‍था) के तसादुम (टकराव) में शिकस्त मुसलमानों ने खाई ना कि इस्लाम ने। इसीलिए पूंजीवादी व्‍यवस्‍था और कुफ्र के ख़िलाफ़ इस्लाम का हमला आज भी इसी तरह जारी है जिस तरह उस वक़्त जारी था जब उन्होंने कुफ्र और कुफ़्फ़ार को शिकस्त दी थी। इस्लामी अफ़्क़ार और एहसासात वो अवामिल (कारक) हैं जो बातिल ताक़तों के ख़िलाफ़ आज भी ज़ोरआज़माई कर रहे हैं। इन्‍हीं अस्बाब (कारणों) से हमें उम्मीद है, यही हमें हमारे फ़तह के दिनों की याद दिलाते हैं और इस्लाम के अहया (पुर्नजागरण) के लिए जद्दोजहद की दावत देते हैं जो ऐन इंसान की फ़ितरत के मुताबिक़ है, ये हमें मजबूर करते हैं कि हम इस्लामी दावत को सारी दुनिया में पहुंचाएं, उसको ख्‍वाहिश और तमन्ना से आगे बढ़ कर हक़ीक़त का रूप देने की कोशिश करें।

जहां तक इस्लामी अफ़्क़ार (विचारों) के सही व बरहक़ और सरमायादारना अफ़्क़ार (पूंजीवादी विचारों) के ग़लत और बातिल होने की बात है तो ये हक़ीक़त इन अफ़्क़ार (विचारों) से ही ज़ाहिर है। इस तरह सरमायादारना अफ़्क़ार (पूंजीवादी विचार) जिनकी रू से एक से ज़्यादा बीवीयां रखना ग़लत है, और जो ये कहते हैं कि मर्द को सिर्फ़ एक बीवी पर ही इक्तिफा करना चाहीए ये सिर्फ़ एक नज़रियाती बात है उसका हक़ीक़त से कोई ताल्लुक़ नहीं। क्या दुनिया में कहीं भी ऐसे मुआशरा (समाज) का वजूद है जिसमें हर मर्द की सिर्फ़ एक बीवी हो? दुनिया में ऐसे किसी मुआशरे का वजूद नहीं है जिसमें ऐसे मर्द बिल्‍कुल ना हो जिनकी एक से ज़्यादा बीवीयां नहीं हो। फ़र्क़ ये है कि कुफ़्फ़ार जिन औरतों को अपने पास रखते हैं, इनमें किसी को पार्टनर, किसी को गर्लफ्रेंड और किसी को बीवी का नाम देते हैं। वो कायदे कानून जो ''ताद्दुद अज़दवाज'' की इजाज़त देते हैं कि कोई मर्द एक, दो, तीन या चार तक बीवीयां रख सकता है, शरीयत में उनकी हैसियत तस्लीम की जाएगी ना कि उन्हें पार्टनर या गर्लफ्रेंड बना कर रखने की। क्या ये इंसान की फ़ित्रत के मुताबिक़ इस मसले का हल बताते हैं? या ये ताद्दुदे अज़दवाज (polygamy) को फ़ित्रत के मुताबिक़ समझते हैं और सोचते हैं कि इससे मसला हल हो जाएगा? ख़ास तौर से जब ये गै़रक़ानूनी तौर पर एक से ज़्यादा औरतें अपने पास रखते हुए इस पर ख़ामोशी इख्तियार करते हैं, क्योंकि उनके क़ानून की रू से एक से ज़्यादा बीवी रख नहीं सकते। या ये सही है कि ये अपनी मर्ज़ी से शरई तरीक़े और फ़ित्रत के मुताबिक़ ज़िंदगी गुज़ारें? इरशाद बारी तआला है:

فَاِمْسَاکٌ بِمَعرُوْفٍ اَوْ تَسْرِیحٌ بِاِحْسَانٍ


''फिर दस्तूर के लिहाज़ से रोक लिया जाये या नेक तरीक़े से रुख़स्त कर दिया जाये।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, सूरे अलबक़रा:229)

मर्द उस वक़्त तक ही बीवी को अपने साथ रखे जब तक इनमें आपसी मुहब्बत और उलफ़त हो और उनकी ज़िंदगी हंसी ख़ुशी और सुकून से गुज़र रही हो, अगर इनमें किसी वजह से नाइत्तिफ़ाक़ी हो और उनका साथ में रहना दोनों के लिए परेशानी की वजह बन रहा हो तो क्या ऐसी हालत में औरत को तलाक़ देना ''ज़ोजीन'' के हक़ में फायदेमन्द ना होगा? या उनको ज़बरदस्ती साथ रहने पर मजबूर करना जिससे कि उनकी ज़िंदगी अजीर्ण और वो ख़ुदकुशी या क़त्‍ल पर मजबूर हो जाएं?

और हुकूमत की हक़ीक़त ये है कि उम्मत को इस बात का इख्तियार हासिल है कि वो जिस शख़्स को मुनासिब समझे ये ज़िम्मेदारी सौंप दे। इस अधिकार को इस्तिमाल करने वाला और अहकाम (हुक्‍म) पर सही तरीक़े से अमल कराने वाला कोई एक शख़्स ही हो सकता है, एक से ज़्यादा लोगों के हाथ में अगर ये इख्तियार दे दिया जाये तो पूरा निज़ाम दिरहम ब्रहम हो जाने का ख़तरा बना रहेगा। इस तरह ये साहिबे इख्तियार शख़्स भी एक ख़ास निज़ाम (व्‍यवस्‍था) का पाबंद रहेगा जिसको वो सही समझता है, उसकी बताई गई हदों से बाहर जाने की उसको भी इजाज़त ना होगी। जो चीज़ें उस शख़्स को कंट्रोल में रखेंगी, उस निज़ाम पर उसका यक़ीन जिसका वो पाबंद है, मज़ीद ये कि उसका तक़वा और ज़मीर उसे हदों (हद) से बाहर नहीं जाने देगा। इससे बढ़ कर वो उम्मत जिस पर वो हुकूमत कर रहा है और जिसने उसे ये इख्तियार दिया है उसके इस अधिकार को ग़लत इस्तिमाल करने पर उसका एहतिसाब (सवाल-जवाब/हिसाब) करेगी, उसे ज़बानी तौर पर समझाया जाएगा या ग़लत काम करने की शक्ल में उसे ताक़त से भी रोका जाएगा। ये इस शर्त के साथ है कि उम्मत इसके किसी भी हुक्म की नाफ़रमानी नहीं कर सकती चाहे वो हुक्म फ़र्ज़ हो, मंदूब हो या मुबाह, लेकिन किसी नाजायज़ या गुनाह के काम में वो उसकी इताअत हरगिज़ नहीं करेगी। ये है ख़िलाफ़त की हक़ीक़त। कौनसा निज़ाम अमलन सही और हक़ीक़त पर आधारित है? निज़ामे इस्लाम या जम्‍हूरी निज़ाम (प्रजातांत्रिक व्‍यवस्‍था), जिसका दावा है कि क़ौम को हुकूमत करने का हक़ है? इस दावे को व्यवहारिक तौर पर लागू करना नामुमकिन है, इसलिए ये धोके और फ़रेब के सिवा कुछ नहीं, जम्‍हूरियत (प्रजातंत्र) में वज़ीरे आज़म को हुकूमत के तमाम इख़्तयारात (अधिकार) हासिल होते हैं और उसके तमाम वज़ीर उसके मुआविन (सहायक) होते हैं।


अब जहां तक जिहाद की बात है तो मुसलमानों की तरफ़ से ये सफ़ाई पेश करना कि जिहाद तो दिफ़ाई (रक्षात्‍मक) जंग है, अपने आप में इस्लाम पर एक इल्ज़ाम है। ये बात कहना जिहाद की हक़ीक़त से टकराता है जो कि रसूलल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के दौर से इस्लामी रियासत के ख़ात्‍मे तक जारी रहा। मुसलमान ख़ुद काफ़िरों से जंग करने में पहल करते थे और इस तरीक़े को वो इस्लाम की तब्लीग़ के लिए इस्तिमाल करते थे। ये सफ़ाई देने का मुदाफ़आना (रक्षात्मक) तरीक़ा कुराने हकीम के भी सरासर ख़िलाफ़ है क्योंकि अल्लाह तआला ने वाज़ेह (साफ) तौर पर अपने कलामे पाक में ये बात फ़रमा दी :

قَاتِلُوا الَّذِینَ لَا ےُومِنُونَ بِاللّٰہِ وَلا بِالیوم الآخِرِ وَلَا یُحَرِّمُونَ مَا حَرَّمَ اللّٰہُ وَ رَسُولُہُ وَلَا یَدِینُونَ دِینَ الْحَقِّ مِنَ الَّذِینَ اُوْتُو الْکِتَابَ حَتَّٰی یُعْطُوا الْجِزْیَۃَ عََن یَّدٍ وَّ ھُمْ صَاغِرُون

''लड़ो उनसे जो ना अल्लाह पर ईमान रखते हैं, ना रोज़े आख़िरत पर और ना अल्लाह और उसके हराम ठहराए हुए को हराम क़रार देते हैं और ना दीने हक़ की पैरवी करते हैं, यहां तक कि वो इक्तिदार से दस्तबरदार होकर और छोटे (मातहत) बनकर जिज़्या देने लगें।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, सूरे अलतोबा: 29)

और अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने ये भी फ़रमाया :

قاَتِلُوا الَّذِےْنَ ےَلُوْنَکُمْ مِّنَ الْکُفَّارِ وَ لْےَجِدُوْا فِےْکُمْ غِلْظَۃً

''इन काफ़िरों से लड़ो जो तुम्हारे क़रीब हैं, और चाहीए कि वो तुममें सख़्ती पाएं।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, सूरे अलतोबा:123)


और अल्लाह तआला का ये भी फ़रमान है : 

یَا اَیُّھَا النَبِیُّ حَرِّضِ المُومِنِینَ عَلَی القِتَال


''ए नबी मोमिनों की कमज़ोरियों को दूर करो और जंग पर उभारो।'' (तर्जुमा मआनिए क़रआन, सूरे अलनफ़ाल:65)


ये बात साबित हो गई कि जिहाद कुफ़्फ़ार के ख़िलाफ़ एक माद्दी (भौतिक) जंग है ताकि इस्लामी हुक्म को क़ायम किया जा सके। कुफ़्फ़ार के सामने वाज़ेह (साफ) तौर पर इस्लाम की दावत पहुंचाने के बाद अगर वो इस हक़ीक़त को तस्लीम करने से इन्‍कार करें तो फिर ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ जिहाद किया जाएगा। हर ''अक़ीदा'' अपने पैरवी करने वालों को यही हुक्म देता है। इस ''अक़ीदा'' के मानने वाले लोग माद्दी ताक़त हासिल करते हैं और ये कि अपने मानने वालों में एक फ़ौजी रूह इस ''अक़ीदा'' से पैदा होती है। इस अक़ीदे की हामिल क़ौम इस माद्दी क़ुव्वत की बुनियाद पर सियासी (राजनीतिक) जंग और सिफ़ारती हिकमते अमली (foreign diplomacy/विदेश रणनिती) का नक़्शा बनाती है ताकि ऐसे हालात पैदा किए जा सकें जिनमें दावत का काम आसानी से किया जा सके और रियासत की सियासी (राजनीतिक) हैसियत में इज़ाफ़ा किया जाये। जब माद्दी टकराव होता है तो लड़ाई नागुज़ीर हो जाती है। ये सूरतेहाल सर्द जंग (cold war) कहलाती है जब दो अक़ाइद के मानने वाले लोग अपने अपने अक़ीदे को फैलाने की कोशिश करते हैं। उनकी मुसल्लह अफ़्वाज (हथियारबन्द फौज) लड़ाई की तैय्यारी करती हैं, यही अमल हर जगह होता है। ईसी तरह की सूरतेहाल जर्मनी और नाम-निहाद आज़ाद दुनिया के दरमियान दूसरी आलमी जंग (विश्‍वयुद्ध) शुरू होने से पहले पैदा हो गई थी।


इससे पहले इस्लाम और सरमायादाराना निज़ाम (पूंजीवादी व्‍यवस्‍था) के दरमियान यही सूरतेहाल थी। ऐसी बहुत सी मिसालें हैं, ये ज़िंदगी की एक हक़ीक़त है कि बहुत से अफ़्क़ार (विचार) एक दूसरे से मुतज़ाद (टकराने वाले) होते हैं। ये अफ़्क़ार (विचार) जब माद्दी शक्ल (भौतिक/व्यवहारिक) इख्तियार करते हैं तो उनको फैलाने के लिए और उनके दिफ़ा (रक्षा) के लिए माद्दी ताक़त (material power or arms) इस्तिमाल की जाती है और सियासी (राजनीतिक), तमद्दुनी (सांसकृतिक) , इक्तिसादी (आर्थिक) और फ़ौजी ज़राए भी काम में लिए जाते हैं। ये है जिहाद की हक़ीक़त। ये वो लड़ाई है जो एक अक़ीदे की ख़ातिर राजनैतिक और सांसकृतिक साधनों के इस्तिमाल करने के बाद माद्दी (फौजी) ताक़त के सहारे लड़ी जाती है। इस तरह ये इस्लामी फ़ौज या जिहाद की रूह जर्मन फ़ौज की तरह नहीं है जो एक ऐसी फ़ौजी ताक़त है जिसका मक़सद जर्मन क़ौम को बाक़ी लोगों से बालातर मक़ाम दिलाना है बल्कि ये एक ऐसी फ़ौजी ताक़त है जो इस्लामी दावत के सामने आने वाली रुकावटों को दूर करती है ताकि लोग आसानी से इस्लाम क़बूल कर सके और बाक़ी मुसलमानों के साथ मिलकर एक ऐसी उम्मत तशकील दें (स्थापना करे) जिसमें एक मुसलमान को दूसरे मुसलमान पर कोई बरतरी हासिल नहीं सिवाए ''तक़वा'' (अल्लाह का डर) की बुनियाद के।


ये है इन इस्लामी अफ़्क़ार (विचारों) की हक़ीक़त जिन्हें काफ़िर इस्तिमार (साम्राज्‍यवाद) ने इंसानों के लिए एक मसला बनाकर पेश किया। ये उन सरमायादाराना अफ़्क़ार (पूंजीवादी विचारों) की भी हक़ीक़त है जिनके ज़रिए इस्लाम के इन पाकीज़ा विचारों को तन्क़ीद (आलोचना) का निशाना बनाया गया। इस हक़ीक़त से ये बात साफ हो गई कि जिन विचारों के ज़रिये हमले किए जा रहे हैं वो कितने खोखले और झूठे हैं।


इन सच्चे (इस्लामी) अफ़्क़ार के हामिल अफ़राद की ज़हनी कमज़ोरी की वजह से उन्हें इन अफ़्क़ार को समझने में दिक्कत हो रही है या वो उसकी वज़ाहत (व्‍याख्‍या) नहीं कर पा रहे हैं या वो उन पर तन्क़ीद (आलोचना) से प्रभावित हो रहे हैं, से ये मतलब नहीं निकाला जा सकता कि इन इस्लामी विचारों में कोई कमी है, और बातिल विचार के हामिल लोगों की ख़ुश-बयानी का ये मतलब नहीं है कि इनके विचार सच्चे हैं और ना झूठ को सच साबित करने के उनकी ग़ैरमामूली सलाहीयत उन बातिल अफ़्क़ार को सही कर देगी। बल्कि हक़ीक़ी विचार तो वही होंगे जिन्हें इंसान की फ़ित्रत क़बूल करे और जो हक़ीक़त के भी मुताबिक़ हो। दूसरे शब्‍दों में सच वो है जो हक़ीक़त के मुताबिक़ हो और बातिल (झूठ) वो है जो हक़ीक़त के ख़िलाफ़ हो।






 
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