2. रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के ज़माने में तफ़ाउल (समाज से मुखातिब होने) के मरहले का दौर:

2. रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के ज़माने में तफ़ाउल (समाज से मुखातिब होने) के मरहले का दौर:
(खिलाफत के क़याम के मनहज का दूसरा मरहला)
क़ुरैश का दावत के साथ तसादुम (clash) करना एक फ़ितरी बात थी क्योंकि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने अपने इस गिरोह को (क़ुतला को) लोगों में ज़ाहिर कर दिया था और दिलेरी के साथ इस क़ुतले को उन्हें ललकारने के अंदाज़ में क़ुरैश के सामने पेश किया । दावत फ़ितरती तौर ख़ुद क़ुरैश और मक्का के समाज के ख़िलाफ़ एक जद्दो जहद थी, क्योंकि ये दावत अल्लाह (سبحانه وتعالى) की तौहीद (ख़ालिस अल्लाह سبحانه وتعالى की वहदानीयत), ख़ालिस अल्लाह (سبحانه وتعالى) की इबादत और अल्लाह (سبحانه وتعالى) के अलावा हर किसी का इन्कार करने और बग़ावत के लिए एक बुलावा था और इस दावत में इस फ़ासिद निज़ाम को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए एक पुकार थी जिसमें वो ज़िंदगी गुज़ार रहे थे, आप (صلى الله عليه وسلم) उनके माबूदों के ऐब खोलते और उनकी गुनाह आलूद ज़िंदगी की भर्त्सना करते और उनके ज़ालिमाना तर्ज़े-ज़िदंगी (way of life) पर हमला करते । आप (صلى الله عليه وسلم) सच्चाई और हक़ीक़त के ज़रीये उनका मुक़ाबला करते जबकि मुशरिकीन अफ़्वाहों और प्रापेगंडा का सहारा लेते। आप (صلى الله عليه وسلم) हमेशा साफगोई और मुदल्लिल दो-टूक अंदाज़ से दावत देते, दावत पेश करने में ताम्मुल या टाल मटोल ना करते, दबते हुए या लिहाज़ करते हुए दावत ना करते, आप (صلى الله عليه وسلم) ने ना उनकी ख़ुशामद की और ना ही उनसे कोई समझौता किया, बल्कि आप (صلى الله عليه وسلم) हर क़िस्म की तक्लीफ़ दिए जाने, रद्द किए जाने, बेदख़ल किए जाने, अफ़्वाह फैलाए जाने और बाईकॉट किए जाने के बावजूद हर हाल में दावत जारी रखते । और इन तमाम के बावजूद आप (صلى الله عليه وسلم) लोगों के दिलों तक पहुंचने में कामयाब हो जाते यहां तक कि इस्लाम फैल गया।

जब आप (صلى الله عليه وسلم) के चचा और ज़ौजा मुहतरमा (ख़दीजा رضي الله عنها ) का इंतिक़ाल हुआ और क़ुरैश की जानिब से कष्ट व इज़ा रसानी देने में मज़ीद इज़ाफ़ा हुआ तो आप (صلى الله عليه وسلم) ताइफ की तरफ़ गए ताकि वहां से नुसरत व मदद तलाश करें इस उम्मीद के साथ कि शायद अहले ताइफ इस्लाम की दावत को क़बूल करलें, लेकिन उन्होंने निहायत बुरे सुलूक के साथ आप (صلى الله عليه وسلم) का इन्कार किया और आप (صلى الله عليه وسلم) को वहां से निकाल दिया । आप (صلى الله عليه وسلم) की हालत ये हो गई कि किसी की पनाह लिए बगै़र मक्का में दाख़िल नहीं हो सकते थे। ये वो दिन था जब आप (صلى الله عليه وسلم) को अपने वतने-अज़ीज़ मक्का में दाख़िल होने के लिए मुतअम बिन अदी की पनाह लेनी पड़ी । अब क़ुरैश की ईज़ा रसानी मज़ीद तेज़तर होती गई और उनका विरोध इंतिहाई शदीद हो गया, अहले क़ुरैश ने लोगों को रसूल की बात सुनने से सख़्त तौर पर मना किया लेकिन इसके बावजूद आप (صلى الله عليه وسلم) दावत देने से बाज़ नहीं आए, आप (صلى الله عليه وسلم) हज का मौसम आ जाने पर अपने आपको मक्का में आए हुए अरब क़बालों के सामने पेश करते, उनको इस्लाम की दावत देते और उनको बतलाते कि में अल्लाह (سبحانه وتعالى) का रसूल हूँ और आप (صلى الله عليه وسلم) की नबुव्वत क़बूल करने की दावत देते, ऐसे में आप (صلى الله عليه وسلم) का चचा अबू लहब उठ खड़ा होता और आप (صلى الله عليه وسلم) पर झूट घड़ने का इल्ज़ाम देता और लोगों को उकसाता कि वो आप (صلى الله عليه وسلم) की बातें ना सुनें, लोगों पर इसका असर होता और लोग बातें सुनने से मुँह फेर लेते। इसी तरह करते हुए आप (صلى الله عليه وسلم) क़बीला बनू-किन्दा के पढ़ाओ (camp) की तरफ़ गए और बनू-कल्ब की तरफ़ गए, बनू हनीफा और बनू आमिर बिन सासा के पास गए लेकिन किसी ने भी आप (صلى الله عليه وسلم) की दावत पर लब्बैक नहीं कहा बल्कि बाअज़ ने निहायत घटिया अंदाज़ से इन्कार कर दिया। अरब क़बीलों का यूं रुख़ मोड़ने का एक अहम कारण ये भी था कि उन्होंने ये देखा कि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) का साथ देने या इमदाद करने वाले फ़र्द और क़बीले को क़ुरैश अपना दुश्मन और क़ुरैश के ख़िलाफ़ मदद करने वाला क़रार दे रहे हैं, यूं मक्का में रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) तन्हा होकर रह गए और मक्का और इसके अतराफ़ (surroundings) में दावत इंतिहाई दुशवार हो गई, मक्की समाज इंतिहाई हटधर्मी पर तुला हुआ और कुफ्र में बुरी तरह डूबा हुआ ज़ाहिर होने लगा था। जब क़ुरैश की जानिब से सहाबा (رضی اللہ عنھم) की इज़ार सानी इंतिहा को पहुंच गई तो अबदुर्रहमान बिन ओफ़ (رضي الله عنه) बाअज़ सहाबा (رضی اللہ عنھم) के साथ रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) से असलेह के इस्तिमाल की इजाज़त लेने आए और अर्ज़ किया: “ए अल्लाह के रसूल जब हम मुशरिक थे तो हम ताक़तवर और मुअज़्ज़िज़ थे, अब जबकि हम ईमान ले आए हैं हमें ज़लील किया गया है ।” रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने उनको ऐसा करने से मना करते हुए फ़रमाया:

۔﴿انیسی امرت بالعفو، فلا تقاتلوا القوم﴾
“मुझे दरगुज़र का हुक्म दिया गया है, पस क़ौम से मत लड़ो ।”
(इब्ने अबी हातिम, निसाई, अल हाकिम)
यूं इस्लामी दावत में रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) मक्का में एक के बाद दूसरे दो मरहलों में आगे बढ़ते रहे
तालीम व तरबियत देने, फ़िक्री और रूहानी तौर पर (culturing, and intellectual and spiritual) तैय्यार करने का मरहला: ये मरहला अफ़्क़ार (विचारों और अवधारणाओं) को समझने, उन्हें अफ़राद के ज़हनों में पुख़्ता करने और अफ़राद की शख़्सियतों में ढालने और फिर इन अफ़्क़ार की बुनियाद पर एक गिरोह तशकील देने का दौर था।

दावत का प्रचार करने और तफ़ाउल और जद्दो जहद का मरहला: ये मरहला समाज में असरो रसूख़ रखने वाले अहले क़ुव्वत के अंदर इस्लामी अफ़्क़ार (concept/thoughts) को मुंतक़िल (transfer) कर देने का दौर है ताकि वो इन विचारों को समाज की ज़िंदगी में नाफ़िज़ करदें चुनांचे फिर अवाम उन पर ईमान लाएं, उनको समझें, उनको फैलाए और उनके निफ़ाज़ की जद्दो जहद में लग जाएं ।
तालीम व तरबियत देने, फ़िक्री और रूहानी तौर पर तैय्यार करने का मरहला: पहला मरहला लोगों को इस्लाम की तरफ़ दावत देने, फिर इस्लामी विचारो के ज़रीये उनकी तर्बीयत करने और उनको इस्लामी अहकामात की तालीम और तल्क़ीन करने का दौर था, इस तरह उन लोगों की जमातसाज़ी (structuring) का दौर था जिन्हें इस्लामी अक़ीदे की बुनियाद पर इस जमात में शामिल किया जाता और ये जमात ख़ुद फिर इस काम को अंजाम देने के काबिल हो जाती । इस्लामी दावत में ये खु़फ़ीया जमातसाज़ी का दौर था, इस दौरान रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) का लोगों को इस्लाम की दावत देने का अमल रुका नहीं बल्कि साथ ही आप (صلى الله عليه وسلم) ने इस्लाम क़बूल करने वाले लोगो की इस्लामी अफ़्क़ार (अफ़्कार) के ज़रीये तर्बीयत करने की ज़िम्मेदारी सँभाल ली, आप (صلى الله عليه وسلم) इनको दारे-अरक़म में इकठ्ठा करते और फिर उन्हें एक जमात की शक्ल देते, यूं रोज़ बरोज़ उन लोगों का ईमान मज़बूत होता और आप (صلى الله عليه وسلم) में इनका ताल्लुक़ गहरा हो जाता, उनको इस हक़ीक़त का ज्ञान भी हो जाता कि वो कितना अहम काम कर रहे हैं, इसके लिए कितनी बड़ी क़ुर्बानी की ज़रूरत है, यूं ये दावत उनके दिल और दिमाग़ में मज़बूती के साथ जम गई । इस्लाम ख़ून की तरह उनकी रगों में दौड़ने लगा, वो ऐसा इस्लाम थे जो रास्तों पर चलता फिरता था, यही वजह थी कि ख़ुद को और अपनी जमात और उसकी मुलाक़ातों को खु़फ़ीया रखने की तमाम तर कोशिशों के बावजूद दावत उनके अंदर छिपा नहीं सकती थी। वो अपने क़रीबी क़ाबिले-एतिबार शख़्स और ऐसे किसी शख़्स जिसके अंदर दावत की क़बूलीयत का रुझान देखते वो उसको दावत देते। इस तरह लोगों को उनकी दावत और मौजूदगी का एहसास हुआ। पस दावत ने शुरूआती बिन्दू पार कर लिया था और अब वो घड़ी आ चुकी थी कि दावत को फैला दिया जाये, लिहाज़ा कोशिश की गई ताकि दावत को खुले आम फैला दें और तमाम लोगों को संबोधित किया जाए, यहां ये पहला दौर ख़त्म हुआ। ये दौर जमात साज़ी और तर्बीयत का दौर था जो इस जमात को मज़बूत करती थी ।
दावत का प्रचार करने और तफ़ाउल और जद्दो जहद का मरहला: अब दूसरा मरहला जो कि तफ़ाउल यानी आमने सामने होने और जद्दो जहद का दौर था वो शुरू हुआ, इसमें लोगों को इस्लाम समझाया जाता था चुनांचे वो इस दावत के रद्दे-अमल में उसको क़बूल करते जो फिर उनके दिलों में रच बस जाता या फिर वो इसका इन्कार कर देते और फिर उसका विरोध करते यूं उनके विचारों और इस्लामी विचारों के बीच टकराव शुरू हो जाता। अफ़्क़ार (विचारों) के इस टकराव में कुफ्र और फ़साद की हार होती और ईमान और भलाई सब पर ज़ाहिर हो जाती और सच्चे और सही अफ़्क़ार कामयाब होते । इस तरह अब आमना सामना (तफ़ाउल/interaction) शुरू हो गया जिसमें एक फ़िक्र और दूसरी फ़िक्र के बीच टकराव हुआ, मुसलमानों और काफ़िरों में कश्मकश हुई। तफ़ाउल की शुरूआत उस वक़्त हुई जब रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने लोगों को खुले आम ऐलानीया तौर पर दिलेरी के साथ और ललकारने के अंदाज़ से दावत देना शुरू किया। फ़िर इस दौरान रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) पर ऐसी आयात उतरना शुरू हुईं जिनमें तौहीद की दावत, बुतपरस्ती और शिर्किया अफ़्क़ार के ख़िलाफ़ हमले, आबाओ अज्दाद की अंधी तक़लीद और पैरवी की भर्त्सना की जाने लगी । फिर ऐसी आयात नाज़िल हुईं जिनमें मामलात की ख़राबियों पर मज़म्मत की गई, चुनांचे इन आयात में इस समाज में मौजूद बुरी और फ़ासिद तिजारत, मिलावट, नाप तोल में कमी जैसे ख़राब मामलात पर हमले किए गए । रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने लोगों को समूह में संबोधित करना शुरू किया और उनसे मुतालिबा (demand) किया कि ईमान लाएं और उन्हें मदद करें, क़ुरैश का अब आप (صلى الله عليه وسلم) से झगड़ा बढ़ने लगा, इस दौरान दावत में इन तर्बीयती हलक़ात के अलावा जो घरों में या पहाड़ों की वादीयों में या दारे अरक़म में लिए जाते थे एक नई इज्तिमाई (सामूहिक) तर्बीयत भी शामिल करदी गई थी जिसकी वजह से दावत अब क़रीबी और भले लोगों से निकल कर आम लोगों की तरफ़ बढ़ने लगी थी । ये इज्तिमाई दावत और इज्तिमाई तर्बीयत क़ुरैश को प्रभावित कर रही थी, चुनांचे उनकी नफ़रत शदीद होती जाती और उन्हें ख़तरा क़रीब होता हुआ महसूस होने लगा था। एक मुद्दत के बाद जिसमें उन्होंने नबी करीम (صلى الله عليه وسلم) और उनकी दावत को नज़रअंदाज करने की कोशिश की अब वो फ़िक्रमंद होकर आप (صلى الله عليه وسلم) की दावत के विरोध में सख़्त कार्यवाहीयाँ करने लगे, चुनांचे अब अज़ीयतें और तक्लीफ़ शदीद की जाने लगी। लेकिन इस तरह खुले आम इज्तिमाई दावत किए जाने का ख़ुद दावत इस्लामी पर ज़बरदस्त असर हुआ और मक्का में तक़रीबन सब लोगों ने इस्लाम की दावत के बारे में सुना और अल्लाह (سبحانه وتعالى) के दीन की दावत मक्का के लोगों में फैल गई, मर्द और औरतें इस्लाम में दाख़िल हुए। इस इज्तिमाई दावत का असर ये हुआ कि सिमटी हुई इस्लामी दावत अब फैल गई और इसका दायरा अधिक विशाल और विस्तृत हो गया अगरचे इसके फैलने के साथ दावत के अलमबरदारों की तक्लीफें, अज़ीयतें और परेशानियां बढ़ती जाती थी। और इस दौरान जब रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने मक्का के समाज में ज़माने से जारी ज़ुल्म, संगदिली और बरबरीयत और गु़लामी के ख़िलाफ़ नारा बुलंद किया तो क़ुरैश के सरदारों के तन बदन में आग लग गई और फिर इन काफ़िरों की ज़िंदगीयों के हालात और समाज में उनके रवैय्ये और बरताव की पोल खोल दी तो उनकी नफ़रत और ग़म और गु़स्सा की आग में तेज़ी बढ़ती गई, यही मरहला रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) और आप (صلى الله عليه وسلم) के सहाबा (رضی اللہ عنھم) के लिए सख़्त तरीन सब्र आज़माने वाला दौर था ।
तर्बीयती दौर से तफ़ाऊली दौर की तरफ़ (cultural stage to the stage of interaction) जाने के दौरान का वक़फ़ा सबसे नाज़ुक तरीन मरहला था क्योंकि इसके लिए हिक्मत, सब्र और अमली कार्यवाहीयाँ करने के लिए बारीकबीनी आवश्यक है। ताहम मुश्किल तरीन दौर तफ़ाउल का मरहला था, क्योंकि इस दौर में दाई को जुरअतमंद, सरीह (frank) और नताजों और मुसीबतों को एहमीयत दिए बगै़र ललकारने वाला बनना पड़ता है, इस दौर में मुसलमान दीन पर क़ायम रहने के लिए आज़माया जाता है, यही दौर मुसलमानों के लिए ईमान की आज़माईश का दौर था। उस वक़्त मालूम होता था कि किसके अंदर ईमान व बर्दाशत और यक़ीन है, उनकी आज़माईश पर उनकी संजीदगी ज़ाहिर होती थी।
इस तरह अपने सहाबा (رضی اللہ عنھم) के साथ रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने तक्लीफें और ज़ुल्म बर्दाश्त किए। इन्ही हालात में कुछ लोग अपने दीन को बचाने के लिए हब्शा की तरफ़ हिज्रत कर गए, जबकि कुछ लोग तशद्दुद में फ़ौत हो गए, और कुछ लोग ये मुसीबतें बर्दाश्त करते रहे, और इन मुश्किल हालात में इस तरह ये अफ़राद काफ़ी अर्से तक मक्का के समाज को तब्दील करने की कोशिश करते रहे, लेकिन क़ुरैश के ज़रीये होने वाले अज़ाब और अज़ीयतों की शिद्दत ने उन्हें कामयाब होने से रोक लिया, इस तरह के हालात की नज़ाकत को देखकर अहले अरब और दूसरे दीगर लोगों ने तमाशा बीनों का अंदाज़ इख़्तियार कर लिया था वो क़ुरैश का ज़ुल्म और मोमिनों की हक़परस्ती और इस्तिक़ामत को सिर्फ़ देखते लेकिन कभी ईमान की तरफ़ एक क़दम नहीं बढ़ाया, क्योंकि वो क़ुरैश को भी नाराज़ करना नहीं चाहते थे। चुनांचे इन परिस्थितियों में दावत को तीसरे मरहला में दाख़िल करने का काम जो कि इस्लाम को नाफ़िज़ करने का मरहला है वो मक्का से निकल कर बाहर मुंतक़िल हो गया, जिसके दौरान रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) विभिन्न क़बीलों से मददो नुसरत तलब करने के लिए जाते रहे ताकि वो लोगों पर उसे साफ़ वाज़ेह करदें जो उनके रब ने उनके लिए रसूल पर नाज़िल किया है ।


(इस मरहले को दूसरा हिस्सा - रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) का क़बाइल के सामने इस्लाम को पेश करना है)
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