इस्लाम में क़ियादत इन्फ़िरादी होती है इज्तिमाई नहीं

क़ियादत (नेतृत्व) , सरबराही और इमारत का एक ही मतलब है और क़ाइद, सरबराह और अमीर के मानी भी एक ही हैं, ताहम अगरचे ख़िलाफ़त पूरी दुनिया के मुसलमानों की आम क़ियादत होती है, लेकिन ये इमारत की बनिसबत मख़सूस होती है और ख़लीफ़ा अमीर की बनिसबत ख़ास होता है। क्योंकि एक इमारत ख़िलाफ़त भी हो सकती है और ख़िलाफ़त के इलावा कोई और भी , मसलन फ़ौज की इमारत, सूबे (राज्य) की इमारत, किसी जमात की इमारत। पस इमारत का लफ़्ज़ ख़िलाफ़त की इस्तिलाह की निसबत आम है। इसी तरह अमीर एक ख़लीफ़ा भी हो सकता है और वो किसी सूबे , फ़ौज , जमात या सफ़र का अमीर भी हो सकता है। पस अमीर का लफ़्ज़ ख़लीफ़ा की इस्तिलाह की निसबत ज़्यादा आम है। लिहाज़ा लफ़्ज़ ख़लीफ़ा एक ख़ास ओहदे के लिये मख़सूस है जबकि इमारत का लफ़्ज़ हर तरह के अमीर के लिये इस्तिमाल होता है।

इस्लाम ने इस बात को लाज़िम किया है कि किसी एक मुआमले पर एक ही क़ाइद, सरबराह यह अमीर हो और इस बात की इजाज़त नहीं दी कि एक मुआमले पर एक वक़्त में एक से ज़्यादा लोग बतौर-ए-अमीर मुक़र्रर किये जाएं। लिहाज़ा इस्लाम में इजतिमाई क़ियादत और इजतिमाई सदारत का कोई तसव्वुर मौजूद नहीं । इस्लाम में क़ियादत एक शख़्स की होती है। लिहाज़ा क़ाइद, सरबराह यह अमीर एक ही होना चाहीए और एक मुआमले पर एक वक़्त में एक से ज़्यादा लोगों को अमीर मुक़र्रर करना जायज़ नहीं। उस की दलील रसूलुल्लाह की अहादीस और आप صلى الله عليه وسلم का अमल है। अहमद ने अबदुल्लाह बिन उमर (رضي الله عنه) रिवायत किया कि रसूलुल्लाह  صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:

))لا یحل لثلاثۃ نفریکونون بأرض فلاۃ إلا أمّروا علیھم أحدھم((
किसी तीन अश्ख़ास के लिये जायज़ नहीं कि वो खुली ज़मीन में हों और वो अपने में से एक को, अपने ऊपर अमीर मुक़र्रर ना करें

अबु दाऊद ने अबु सईद (رضي الله عنه) से रिवायत किया कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:
))إذا خرج ثلاثۃ في سفر فلےؤمروا أحدھم((
जब तीन लोग सफ़र पर निकलें तो वो अपने में से एक शख़्स को अमीर मुक़र्रर करें
बज़्ज़ाज़ ने अब्दुल्लाह बिन उमर (رضي الله عنه) से रिवायत किया कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:

))إذا کانوا ثلاثۃ في سفر فلےؤمّروا أحدھم((
अगर तीन लोग सफ़र में हों तो वो अपने में से एक को अमीर बना लें

ये तमाम अहादीस ये बयान करती हैं कि अमीर एक ही शख़्स होना चाहिये। फ़रमाया गया:
))إلا أمّروا علیھم أحدھم((
सिवाए ये कि वो अपने में से एक को अमीर मुक़र्रर कर लें

))فلےؤمّروا أحدھم((
तो वो अपने में से एक को अमीर बना लें
लफ़्ज़ अह्द लफ़्ज़ वाहिद के मुतरादिफ़ (प्रयायवाची) है जो इस बात पर दलालत करता है कि वो शख़्स एक हो इस से ज़्यादा नहीं और ये मतलब मफ़हूमुल मुख़ालिफा (बरअक्स मफ़हूम) के क़ाएदे की बिना पर साबित है और अदद (गिनती) और सिफ़त (गुण) के मुआमले में मफ़हूमुल मुख़ालिफा पर अमल किया जाता है ,ख़ाह इस के लिये कोई नस वारिद ना हुई हो। जैसा कि अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इरशाद फ़रमाया:

قُلۡ هُوَ ٱللَّهُ أَحَدٌ
कहो अल्लाह एक है (अल इखलास: 1)
जिस का मतलब है कि इस के साथ दूसरा कोई नहीं। नीज़ मफ़हूमुल मुख़ालिफा उस वक़्त तक मुअत्तल (खत्म) नहीं होता जब तक कि कोई और नस इस मफ़हूम के बरख़िलाफ़ मौजूद ना हो, जैसा कि अल्लाह ने इरशाद फ़रमाया:
وَلَا تُكۡرِهُواْ فَتَيَـٰتِكُمۡ عَلَى ٱلۡبِغَآءِ إِنۡ أَرَدۡنَ تَحَصُّنً۬ا
और अपनी लौंडियों को बदकारी पर मजबूर ना करो अगर वो पाक दामन रहना चाहती हों (अल-नूर: 33)

इस आयत से ये मफ़हूमुल मुख़ालिफा अख़ज़ होता है कि अगर वो निकाह ना करना चाहती हों तो उन्हें बदकारी पर मजबूर किया जाये। लेकिन अल्लाह (سبحانه وتعال) का ये फ़रमान इस मफ़हूम अलमुख़ालफ़ा को मुअत्तल कर देता है:

وَلَا تَقۡرَبُواْ ٱلزِّنَىٰٓۖ إِنَّهُ ۥ كَانَ فَـٰحِشَةً۬ وَسَآءَ سَبِيلاً۬
और ज़िना के करीब भी मत जाओ । ये एक फ़ाहिश अमल और बुरा रास्ता है (बनी इसराईल: 32)

लिहाज़ा अगर कोई एसी नस मौजूद ना हो जो मफ़हूमुल मुख़ालिफा को मुअत्तल करती हो तो इस पर अमल करना लाज़िम है, जैसा कि अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इरशाद फ़रमाया:

ٱلزَّانِيَةُ وَٱلزَّانِى فَٱجۡلِدُواْ كُلَّ وَٲحِدٍ۬ مِّنۡہُمَا مِاْئَةَ جَلۡدَةٍ۬
ज़ानी मर्द और ज़ानी औरत, दोनों में से हर एक को सो कोडे लगाओ (अल-नूर: 2)
इस आयत में कोड़ों की मख़सूस तादाद बयान की गई है , यानी सौ कोडे। इस मख़सूस तादाद की तकीद का मतलब ये है कि ये सज़ा सौ कोड़ों से ज़्यादा ना हो। लिहाज़ा रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم का ये इरशाद फ़रमाना:
))فلےؤمّر أحدھم((
तो अपने में से एक को अमीर मुक़र्रर कर लो
और
))إلاأمّروا علیھم أحد ھم((
सिवाए ये कि अपने में से एक अमीर मुक़र्रर कर लो
और
 ))فلےؤمّر أحدھم((
तो अपने में से एक को अमीर मुक़र्रर कर लो

का मुख़ालिफ़ मफ़हूम इस बात की तरफ़ इशारा करता है कि ये जायज़ नहीं कि अमीर एक से ज़्यादा  हों। लिहाज़ा इमारत, क़ियादत और सरबराही सिर्फ़ एक शख़्स के लिये है और हदीस का मंतूक़ (मतन) और मफ़हूम ये बता रहा है कि ये क़तअन जायज़ नहीं कि एक से ज़्यादा अमीर या सरबराह हों। रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم का अमल इस बात की ताईद करता है कि जब भी किसी मुआमले में अमीर मुक़र्रर करने की ज़रूरत पेश आई तो आप صلى الله عليه وسلم ने सिर्फ़ एक शख़्स को अमीर मुक़र्रर फ़रमाया और कभी भी एक मुआमले पर एक से ज़्यादा अमीर मुक़र्रर नहीं किये।

जहां तक इन अहादीस का ताल्लुक़ है कि आप صلى الله عليه وسلم  ने मआज़ (رضي الله عنه) और अबु मूसा अल अशअरी (رضي الله عنه) को यमन भेजा और उन से फ़रमाया:

))ےُسِّرا ولا تُعسِّرا وبشِّرا ولا تنفرا وتطاوعا((
आसानी पैदा करना और तंगी पैदा ना करना, और ख़ुशख़बरी सुनाना और मुतनफ़्फ़िर (नफरत) ना करना, और एक दूसरे से तआवुन करना
तो रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इन दोनों को यमन के मुख़्तलिफ़ हिस्सों की तरफ़ रवाना किया था और दोनों को एक ही जगह पर मुक़र्रर नहीं फ़रमाया था। सहीह बुख़ारी में इस वाक़िया के मुताल्लिक़ दो अहादीस बयान की गई हैं और इन में से एक हदीस में ये बयान किया गया है कि उन्हें यमन में दो मुख़्तलिफ़ इलाक़ों की तरफ़ रवाना किया गया। हदीस में बयान किया गया:

))حدثنا موسی، حدثنا أبو عوانۃ حدثنا عبد الملک عن أبي بردۃ قال: بعث رسول اللّٰہﷺ أبا موسی ومعاذ بن جبل إلی الیمن قال: وبعث کل واحد منھما علی مِخلاف، قال:والیمن مِخلافان، ثم قال:یسرا ولا تعسرا،وبشرا ولا تنفرا، فانطلق کل واحد منہما إلی عملہ۔۔((
हमें मूसा ने बयान किया कि हमें अबु उवाना ने बयान किया कि उन्होंने अब्दुल मुल्क से रिवायत किया जिन्होंने अबी बुरदा से ये रिवायत किया कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने जब अबु मूसा और मआज़ को यमन की तरफ़ भेजा और आप صلى الله عليه وسلم ने इन दोनों को एक सूबे पर मुक़र्रर किया और फिर उन से कहा: यमन के दो इलाक़े हैं और फिर आप صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया: आसानी पैदा करना और तंगी पैदा ना करना, ख़ुशख़बरी सुनाना और बुरी ख़बर मत सुनाना और वो दोनों अपने अपने काम की तरफ़ रवाना हुए
लिहाज़ा किसी एक मुआमले पर दो अमीर मुक़र्रर करना जायज़ नहीं और ना ही किसी एक जगह पर दो अमीर मुक़र्रर करना जायज़ है। बल्कि ये लाज़िम है कि सरबराह , क़ाइद यह अमीर सिर्फ़ एक हो और उन का एक से ज़्यादा होना हराम है।

जहां तक इस सूरत-ए-हाल का ताल्लुक़ है जो मुस्लिम देशों में आम हो चुकी है यानी मजलिस, कमेटी यह इंतिज़ामी अंजुमन की शक्ल में इजतिमाई क़ियादत (सामुहिक नेतृत्व) यह इसी तरह की दूसरी सूरतें जिन्हें क़ियादत के इख्तियारात हासिल हों तो ये सब हुक्मे शरई के ख़िलाफ़ है कि मजलिस या कमेटी को इजतिमाई तौर पर क़ियादत सौंपी जाये। क्योंकि ये इमारत को एक गिरोह के हवाले करना है जो कि नस-ए- हदीस की रोशनी से हराम है। ताहम अगर ये मजलिस, कमेटी यह अंजुमन किसी काम को सरअंजाम देने के लिये क़ायम की जाये , यह मुआमलात पर बेहस-ओ-मुबाहिसे और मश्वरे के लिये हो तो फिर ये जायज़ है और ये इस्लाम से है क्योंकि मुसलमानों के आपस में मश्वरा करने की तारीफ़ की गई है और इन कमेटियों की राय पर शूरा के अहकाम का इतलाक़ होगा जैसा कि इस किताब में बयान किया गया है।
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