इस्लामी निज़ामे हुकूमत की शक़्ल व हैइय्यत

इस्लाम का निज़ामे हुकूमत दुनिया मे मौजूद बाकी तमाम निज़ामे हुकूमत से बिल्‍कुल मख्‍तलिफ है, वो बुनियाद जिस पर इस व्‍यवस्‍था की बुनियाद रखी गई है, इस व्‍यवस्‍था के अफ्कार (विचार) व तसव्‍वुरात (अवधारणाए) और पैमाना, वो क़वानीन जिनके ज़रिए यह लोगों के मुआमलात की देखभाल करता है, वो दस्‍तूर और क़वानीन जिन्‍हे यह लागू करता है, वो शक्‍़ल जो यह इस्लामी रियासत को अता करता है, गरज़ यह निज़ाम (व्‍यवस्‍था) पूरी दुनिया में मौजूद हुक्‍मरानी की दुसरी शक्‍़लो से बिल्‍कुल अद्वितीय है।

इस्लाम में हुकूमत की शक्‍़ल बादशाहत नहीं है : इस्लाम का निज़ामे हुकूमत निज़ामे बादशाहत नहीं है। इस्लाम ना तो बादशाही तर्जे़ हुकूमत को तस्‍लीम करता है और ना ही इससे समानता रखता है। बादशाही व्‍यवस्‍था में हुकूमत “मोरूसी” होती है जिसमें बेटा अपने बाप से हुकूमत विरासत में हासिल करता है बिल्‍कुल उसी तरह जैसे वो माले मिरास हासिल करता है। जबके इस्लामी शासन व्‍यवस्‍था में मोरूसी हुकूमत का कोई तसव्‍वुर नहीं बल्‍के शासन उसे मिलता है जिसे उम्‍मत अपनी मर्जी और इख्तियार से बैअ़त देती है। बादशाही निज़ाम में बादशाह को खास अधिकार और ताक़त हाँसिल होती है जो जनता में से किसी और का अधिकार नहीं होता। यह अधिकार उसे कानून से सर्वोपरि बनाते है और वो किसी के सामने जवाबदेह नहीं होता।

बादशाह की हैसियत या तो कौम की अलामत ही सी होती है जिसमें वो रियासत का मालिक होता है लेकिन हुकूमत नहीं करता जैसे के यूरोप का बादशाह; या फिर वो रियासत का मालिक होने के साथ-साथ मुल्क का हाकिम भी होता है। बल्‍के वो बज़ाते खुद कानून का माखज़ (स्‍त्रोत) होता है और जिस तरह चाहता है मुल्‍क और जनता पर हुकूमत करता है जैसे कि सउदी अरब, मराकश (मोरक़्क़ो) और उर्दुन (जार्डन) के बादशाह।
इस्लामी शासन में खलीफा या ईमाम को ना कोई इम्तियाज़ी इस्तसना (पोलिटिकल इम्युनिटी)  हासिल होता है और ना ही वो किसी तरह के खास अधिकारो का हक़दार होता है। वो उम्‍मत के बाकी लोगों की तरह एक फर्द होता है। इसकी हैसियत उम्‍मत की अलामत (Symbol) की सी नहीं होती जहाँहॉ उम्‍मत उसकी मिल्‍कीयत हो और वो खुद हुकूमत ना चलाए और ना ही उसे ऐसी हैसियत हासिल होती है के वो अपनी मर्जी के मुताबिक हुकूमत करें और जैसे चाहे मुल्‍क व कौम के मुआमलात चलाए। बल्‍के वो हुकूमत व इख्तियार में हुकूमत का नुमाइन्‍दा होता है जिसे उम्‍मत चुनती है अपनी रज़ामन्‍दी से बैअ़त देती है ताके वो उस पर अल्‍लाह की शरेह को नाफिज़ करे। वो अपने तमाम कामों, फैसलो, उम्‍मत के मुआमलात और फायदो की देखभाल में अहकामे शरियत का पाबन्‍द होता है। इसके अलावा इस्लाम की शासन व्‍यवस्‍था में वली अहदी का भी कोई तसव्‍वुर नहीं। इस्लाम मौरसी हुकूमत को रिजेक्‍़ट (मुस्‍तरद (रिजेक्‍़ट)) करता है और हुकूमत को बतौरे विरासत हासिल करने को जाईज़ क़रार नहीं देता। खलीफा या ईमाम सिर्फ उस वक्‍़त हुक्‍मरानी हासिल कर सकता है जब उम्‍मत अपनी रज़ा व इख्तियार के साथ उसे बैअ़त दे दें।

इस्लामी शासन व्‍यवस्‍था की शक्‍़ल लोकतांत्रिक नहीं है : इस्लाम की शासन व्‍यवस्‍था लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था नहीं है। लोकतंत्र (जम्‍हूरियत) यानी रिपब्लिकन (Republican) निज़ाम की बुनियाद जम्‍हूरियत है जिसमें लोक लोग इक्‍तदारे आला (Sovereignty) रखते है। लिहाज़ा लोकतंत्र में हुकूमत और कानूनसाज़ी का हक़ लोगों को हासिल है और हुक्‍मरान का नियुक्‍त करने और उसे बरखास्त करने का अधिकार भी उन्‍ही के पास होता है। लोग यह अधिकार भी रखते है के वो दस्‍तूर व क़वानीन बनाएगें, इन दस्‍तूर व क़वानीन को मन्‍सूख (निरस्त) या तब्‍दील कर दे या फिर इनमें कोई रद्दो बदल करें।

इसके मुकाबले में इस्लामी शासन व्‍यवस्‍था की बुनियाद इस्लामी अक़ीदे और अहकामे शरिया पर है। और इ‍क्‍तदारे आला (प्रभूसत्‍ता) शरीयत को हासिल है उम्‍मत को नहीं। ना तो उम्‍मत और ना ही खलीफा को यह हक़ हासिल है के वो कानूनसाज़ी करें। शारे सिर्फ अल्‍लाह (سبحانه وتعال) की ज़ात है और खलीफा को सिर्फ यही इख्तियार है के वो किताब व सुन्‍नत से अखज़कर्दा (प्राप्तशुदा) अहकामात को दस्‍तूर व क़वानीन लागू करने के लिए इख्तियार करें। इसके अलावा खलीफा को बरतरफ करने का हक़ उम्‍मत को हासिल नहीं बल्‍के शरे ही खलीफा को बरखास्‍त करती है। अलबत्‍ता खलीफा को मुकर्रर करने का अधिकार उम्‍मत के पास है क्‍योंके इस्लाम ने शक्ति व अधिकार उम्‍मत को सौंपा है। चुनांचे खलीफा के चुनाव का इख्तियार उम्‍मत के पास है के वो जिसे चाहे अपनी मर्जी से बैअ़त दे। राष्‍ट्रपति पद्दति की लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था में रियासत की सरबराही के लाज़मी अधिकार देश के राष्‍ट्रपति के पास होते है। इसकी काबीना (केबीनेट) में प्रदानमंत्री नहीं होता बल्‍के सैकटरी ऑफ स्‍टेट होते है जैसे कि संयुक्‍त राज्‍य अमरीका है। जबके पार्लियामानी पद्दति के शासन में हुकूमत में राष्‍ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनो होते है और हुकूमत के लाज़मी अधिकार राष्‍ट्रपति की बजाए (प्रधानमंत्री की) काबिना के पास होते है जैसे जर्मनी में है। खिलाफत व्‍यवस्‍था में ना तो लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था की पद्दति की तरह मिनिस्‍टर होते है और ना ही खलीफा के साथ उस तरह की वज़ारती काबिना (मंत्रीमण्‍डल) होती है जिसमें मंत्रियो के पास खास पोर्ट फोलियो (Port folio) होते है और इन्‍हे लाज़मी अधिकार हासिल होते है। इसकी बजाए खलीफा के साथ उसके माविनीन (सहायक) होते है जिन्‍हे वो नियुक्‍त करता है ताके वो खिलाफत को चलाने और जिम्‍मेदारियों को निभाने में खलीफा की मदद करें। यह सहायक माविने तफ्वीज़ और माविने तन्‍फीज़ होते है। और खलीफा रियासत के सरबराह की हैसियत से उनकी क़यादत करता है ना के प्रधानमंत्री की हैसियत से या इन्‍तज़ामी मज़लिस के सरबराह की हैसियत से (मंत्रीमण्‍डल के लीडर की हैसियत से)। खलीफा के साथ कोई मंत्रिपरिषद (Ministerial Council) नहीं होती जो अपने आप में अधिकार रखती हो। क्‍योंके तमाम लाज़मी अधिकार खलीफा को हासिल होते है और सहायक उन इख्तियारात को बरूहेकार लाने में सहायता का काम अन्‍ज़ाम देते है। इसके अलावा लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था में चाहे उसकी शक्‍़ल सदारती (Presidential) हो या पार्लियामानी, रियासत का सरबराह (नेता), अवाम और उनके प्रतिनिधियो के सामने जवाबदेह होता है और अवाम और उनके प्रतिनिधी को यह अधिकार होता के वो इसे इस पद से माजूल(निलम्बित) कर दे, क्‍योंके Republican  लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था में प्रभूसत्‍ता (इक्तिदारे आला) की मालिक जनता होती है।

यह मो‍मिनीन की ईमारत के खिलाफ है। अमिरूल मोमिनीन उम्‍मत और उसके नुमाईन्‍दो के सामने जवाबदेह होता है और उम्‍मत और उसके नुमाईन्‍दे इसका मुहाज़बा (जवाब तलबी) करते है। लेकिन खलीफा को हटाने का इख्तियार उम्‍मत और उसकी प्रतिनिधियो के पास नहीं होता। खलीफा को सिर्फ उसी सूरत में हटाया जा सकता है जब शरेह की ऐसी खिलाफवर्जी और मुखालफत करें के उसको हटाना वाजिब हो जाए और महकमतुल मजालिम ही इस बात को तय करता है। लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था में चाहे वाह सदारती हो या पार्लियामानी (संसदीय शासन प्रणाली), रियासत का सरबराह हुक्‍मरान या सदर का इन्‍तखाब (चयन) सीमित समय अवधि के लिए होता है। हुक्‍मरान या सदर का चुनाव एक तयशुदा अवधि (मुद्दत) के लिए होता है और इस मुद्दत से ज्‍़यादा करना मुमकिन नहीं। जबके निज़ामे खिलाफत में खलीफा के औहदे की कोई तय मुद्दत नहीं होती बल्‍के इसकी निर्भरता शरीयत के लागू करने पर होती है। जब तक वो किताबुल्‍लाह और सुन्‍नते रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم  से अखज़कर्दा अहकामे शरिया को नाफिज़ करता है, वो खलीफा के औहदे पर मौजूद रहता है। इस बात से कते नज़र के इसकी खिलाफत की मुद्दत कितनी लम्‍बी है। अगर वो शरे के खिलाफ वर्जी करे और इस्लाम के निफाज़ से लापरवाही करें तो उसकी हुकूमत का खात्मा कर दिया जाता है। चोह वो एक महीना या एक दिन ही क्‍यो ना हो। उसे फौरन हटाना लाज़मी होता है।

इससे यह साबित हुआ के निज़ाम खिलाफत और लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था के दरमियान बहुत बडा़ फर्क पाया जाता है। चुनांचे यह दावा बिल्‍कुल जाईज़ नहीं के इस्लामी व्‍यवस्‍था एक लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था है और ना ही ''इस्लामी लोकतंत्र या इस्लामी जम्‍हूरीया'' की इस्तिलाह (शब्द) इस्तिमाल करना जाईज़ है क्‍योंके इन दोनों व्‍यवस्‍थाओ की शक्‍़ल व हैईय्यत (ढाँचा) और तफ्सीलात में टकराव होने के साथ-साथ, यह व्‍यवस्‍था अपनी बुनियाद के लिहाज़ से भी एक दूसरे से बिल्‍कुल अलग है। इस्लामी शासन पद्दति में रियासत के तमाम खित्‍तो में बसने वाले लोगों को समान अधिकार हासिल होते है और नस्‍ली भेदभाव पर पाबन्‍दी होती है। इस्लाम उन गै़र मुस्लिमों जो इस्लामी रियासत के बाशिन्‍दे होते है वो तमाम अधिकार अता करता है और उन पर वो फराईज़ (कर्तव्‍य) आयद करता है जो रियासत में बसने वाले एक मुसलमान के होते है। और उनके साथ वैसा ही न्‍याय किया जाता है जैसा मुसलमानों के साथ होता है और उनसे उसी तरह पूछगज़ होती है जैसाकि मुसलमानों की पूछगज़ होती है।

इसके अलावा रियासत के हर शहरी को, चाहे इसका सम्‍बन्‍ध किसी भी धर्म से हो, वो अधिकार हासिल होते है जो रियासत से बाहर बसने वाले उस मुसलमान को हासिल नहीं होते जिनके पास रियासत की शहरीयत ना हो। इस समानता की बिना पर इस्लाम की शासन व्‍यवस्‍था नौआबादियाती (उपनिवेशवादी) व्‍यवस्‍था से बिल्‍कुल अलग है। वो अपने अन्‍तर्गत आने वाले ईलाको को कॉलोनियां नहीं बनाता, उनका शोषण नहीं करता और ना ही केन्‍द्र अपने फायदे के लिए इन ईलाको की दौलत चूसने का ज़रिया बनता है। बल्‍के इस्लाम ईलाको को एक वहदत तसव्‍वुर करता है, चाहे यह ईलाके कितने ही दूर क्‍यों ना हो और उनकी नस्‍ले कितनी ही मुख्‍तलिफ क्‍यों ना हो। यह तमाम ईलाके रियासत के जिस्‍म का हिस्‍सा होते है और उन हिस्‍सो में बसने वाले लोगों के वही अधिकार होते है जो केन्‍द्र के शहरियो को हासिल होते है। और हर हिस्‍से में हुकूमत, ऑथोरिटी, व्‍यवस्‍था और क़वानीन एक जैसे होते है।
इस्लामी शासन व्‍यवस्‍था की शक्‍़ल वफाक़ी (संघीय) तर्ज़े हुकूमत नहीं है : इस्लाम की शासन व्‍यवस्‍था वफाकी पद्दति की नहीं जिसमें अलग-अलग ईलाको को स्‍वायतशाषी (खुद मुख्‍तारी) हासिल होती है। लेकिन वो एक अमूमी मर्कजी (केन्‍द्रीय) सरकार के ज़रिए आपसी तौर पर मुत्‍तहिद होते है। बल्‍के इस्लाम वहदत (एकता) की व्‍यवस्‍था है जिसमें पश्‍चिम में मराकश को वही हैसियत हासिल होती है जो पूरब में खुरासान की है और अगर सूबाऐ फिओम इस्लामी रियासत का मर्कज़ हो तो उसका इन्‍तज़ाम वैसे ही होगा जैसे काहीरा का। तमाम ईलाको की मालियात और उनका बज़ट भी एक जैसा होता है। विभिन्‍न सूबो से कते नज़र, अम्‍वाल (Funds) को लोगों पर एक अन्‍दाज़ में खर्च किया जाता है। मसलन अगर एक शूबे में महसूलात (Taxes) से हासिल होने वाली आमदनी उसकी ज़रूरत से दोगुना हो तो उस पर खर्च किया जाना वाला Funds फंड्स उसकी ज़रूरियात के मुताबिक होगा और उससे हासिल होने वाली आमद आमदनी के मुताबिक नहीं होगा। अगर एक सूबे की आमद उसकी ज़रूरियात (आवश्‍यकताओ) से कम है तो इस बात का ध्‍यान नहीं रखा जायेगा और मज़मूई बज़ट में से सूबे की आवश्‍यकताओ के मुताबिक उस पर खर्च किया जायेगा, चाहे वो आवश्‍यकताओ के मुताबिक महसूलात (taxes) पैदा करें या वो ऐसा ना कर सकें। चुनांचे इस्लाम का निज़ामें हुकूमत वहदत (इत्‍तेहाद) पर आधारित है और यह वफाकी इत्‍तेहाद (Federalism) की व्‍यवस्‍था नहीं है। लिहाज़ा इस्लाम की शासन व्‍यवस्‍था अपने माखूज़ और बुनियाद के हवाले से दूसरी सभी शासन व्‍यवस्‍थाओ से बिल्‍कुल अलग है। अगरचे इसके कुछ पहलुओ दूसरी शासन व्‍यवस्‍थाओ के कुछ पहलुओ से समानता रखते है। इसके अलावा इस्लामी व्‍यवस्‍था में, शासन में कन्‍द्रीयता होती है चुनांचे आला ऑथेरिटी केन्‍द्र को हासिल होती है और केन्‍द्र (मर्कज़) का इख्तियार और उसकी हुकूमत रियासत के हर छोटे-बडे हिस्‍से पर लागू होती है। रियासत के किसी हिस्‍से की खुदमुख्‍तारी की ईजाज़त नहीं ताके रियासत हिस्‍से बिखरे होने से सुरक्षित रहे। यह आला मर्कजी ऑथोरिटी ही फौज़ के सालारो, सूबो के वालीयो (Governors) और हुक्‍काम और माली व आर्थिक मुआमलात के औहदोदारो को नियुक्‍त करती है। यह ही तमाम ईलाको में काजियो को नियुक्‍त करती है और हर उस शख्‍स की नियुक्ति करती है जिसका काम हुकूमत करना हो या वो किसी ईलाके में सरकारी मुआमलात के साथ सीधे तौर पर जुडा़ हुआ हो।

हासिले क़लाम यह है के इस्लाम में हुकूमत का निज़ाम, निज़ामे खिलाफत है। खिलाफत और रियासत की वहदत और एक से ज्‍़यादा खलीफा की बैअ़त के खिलाफ इज्मा मुनक्किद हो चुका है। तमाम ईमाम, फक़ीह और मुज्तहिदीन इस बात पर मुत्‍तफिक है। अगर किसी शख्‍स को बैअ़त दी जाए जबके एक खलीफा पहले से ही मौजूद हो या किसी खलीफा की बैअ़त की जा चुकी हो तो दूसरे खलीफा से लडा़ जायेगा जब तक के वो पहले खलीफा को बैअ़त ना दे दें या उसे कत्‍ल कर दिया जाए। क्‍योंके शरअ़न पहले खलीफा की बैअ़त का सही होना साबित हो चुका है।

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