ख़लीफ़ा की नियुक्ति की मुद्दत

ख़लीफ़ा की शासन अवघि की मख़सूस मुद्दत मुक़र्रर नहीं की गई। जब तक ख़लीफ़ा शरीयत की पाबंदी करता है, अहकामात-ए-शरीयत को नाफ़िज़ करता है और रियासत को चलाने और ख़िलाफ़त की ज़िम्मेदारीयों को उठाने की क़ुदरत रखता है, उस वक़्त तक वो ख़लीफ़ा रहता है। क्योंकि अहादीस में बैअत के लिए जो नुसूस वारिद हुई हैं वो मुतलक़ (ग़ैर मुक़य्यद) हैं और वो किसी मख़सूस मुद्दत की पाबंदी आइद नहीं करतीं। बुख़ारी ने अनस बिन मालिक (رضي الله عنه) से  रिवायत किया कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया:

))اسمعوا وأطیعوا، وإن استُعمِل علیکم عَبدٌ حَبشيٌ، کأن رأسہ زبیبۃ((
सुनो और इताअत करो अगरचे किसी काले हब्शी को तुम पर आमिल मुक़र्रर कर दिया जाये जिस का सर किशमिश की तरह का हो

एक और हदीस जिसे मुस्लिम ने उम्मुल हसीन से रिवायत किया, में है:
))یقودکم بکتاب اللّٰہ((

जब तक वो तुम्हें अल्लाह (سبحانه وتعال) की किताब के मुताबिक़ लेकर चले ।

इलावा अज़ीं तमाम खुलफाऐ राशिदीन को मुतलक़ अंदाज़ में बैअत दी गई, और अहादीस में बैअत इसी तरह वारिद हुई है । ख़ुलफ़ाए राशिदीन महदूद (सीमित) मुद्दत के लिए ख़लीफ़ा नहीं बने बल्कि इन में से हर एक अपनी मौत तक ख़लीफ़ा ही रहा। ये सहाबा (رضی اللہ عنھم) का इस बात पर इजमा है कि ख़िलाफ़त महदूद मुद्दत के लिए नहीं होती बल्कि ये मुतलक़ होती है। लिहाज़ा जब एक ख़लीफ़ा को बैअत दे दी जाये तो वो मौत तक ख़लीफ़ा रहता है।

ताहम अगर ख़लीफ़ा में ऐसी तबदीली ज़ाहिर हो जाये जिस की वजह से वो इस ओहदे पर क़ायम रहने के काबिल ना रहे या फिर उसे माज़ूल करना वाजिब हो जाये तो इस के ओहदे की मुद्दत ख़त्म हो जाएगी और उसे हटाया जाएगा। अलबत्ता इस बात को ख़िलाफ़त की मुद्दत की तहदीद (हदबन्दी) नहीं कहा जा सकता, बल्कि इस का मतलब सिर्फ़ ये है कि इस सूरत-ए-हाल में ख़लीफ़ा ने ख़िलाफ़त की तै शराइत को तोड़ दिया है। शरई नुसूस और इजमा सहाबा से साबित शूदा ,बैअत के अल्फाज़ के मुताबिक़ ख़िलाफ़त की मुद्दत महदूद नहीं। अलबत्ता जो चीज़ उस बैअत को महदूद करती है, वो वो चीज़ है जिस पर बैअत दी गई यानी ख़लीफ़ा का किताब-ओ-सुन्नत के मुताबिक़ अमल करना और इस के अहकामात को नाफ़िज़ करना। अगर ख़लीफ़ा शरीयत पर अमल ना करे और शरीयत के अहकामात को नाफ़िज़ ना करे, तो इस का हटाना वाजिब हो जाता है।

ख़लीफ़ा के क़याम के लिए मुसलमानों को दी गई मोहलत :

ख़लीफ़ा के क़याम के लिए मुसलमानों को तीन दिन की मोहलत दी गई है। किसी मुसलमान के लिए ये जायज़ नहीं कि वो तीन रातों से ज़ाइद अर्सा इस हालत में गुज़ारे जबकि उस की गर्दन पर (ख़लीफ़ा) की बैअत ना हो। जहां तक ज़्यादा से ज़्यादा तीन रातों की मुद्दत मुक़र्रर करने का ताल्लुक़ है, तो नए ख़लीफ़ा का इंतिख़ाब उसी वक़्त फ़र्ज़ हो जाता है जब साबिक़ (पिछला) ख़लीफ़ा फ़ौत हो जाये या माज़ूल कर दिया जाये ,पस अगर मुसलमान ख़लीफ़ा के तक़र्रुर में मशग़ूल हों तो इस सूरत में ख़लीफ़ा के तक़र्रुर में तीन दिन और तीन रातों की ताख़ीर (देरी) जायज़ है। जब तीन रातों से ज़्यादा वक़्त गुज़र जाये तो फिर सूरत-ए-हाल का जायज़ा लिया जाएगा। अगर मुसलमान ख़लीफ़ा के तक़र्रुर में मसरूफ़ हैं और किसी ऐसी सख़्त रुकावट के बाइस , जिसे वो दूर करने पर क़ादिर नहीं, वो तीन रातों तक इस काम को सर अंजाम नहीं दे सके , तो इस सूरत में गुनाह उन से हट जाएगा, क्योंकि वो फ़र्ज़ को पूरा करने के लिए मसरूफ़ रहे और उन्हें कुछ रुकावटों ने ताख़ीर पर मजबूर किया। इब्ने हब्बान और इब्ने माजा ने इब्ने अब्बास (رضي الله عنه) से  रिवायत किया कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:

))إن اللّٰہ وضع عن أمتي الخطأ والنسیان، ومااستکرھوا علیہ((

मेरी उम्मत से ग़लती , भूल और जब्र से कराए जाने वाले आमाल का मुवाख़िज़ा नहीं किया जाएगा

लेकिन अगर वो इस फ़र्ज़ को अदा करने में मसरूफ़ ना हों तो तमाम के तमाम मुसलमान उस वक़्त तक गुनहगार होंगे जब तक कि ख़लीफ़ा का तक़र्रुर अमल में ना आ जाए। इस सूरत में इक़ामत-ए-ख़लीफ़ा का फ़र्ज़ तो अदा हो जाएगा लेकिन वो ख़िलाफ़त के क़याम में ग़फ़लत के गुनाह के मुर्तक़िब (गुनाहगार) ज़रूर ठहरेंगे ,जो उन से साक़ित (हटेगा) नहीं होगा बल्कि उन पर बाक़ी रहेगा। अल्लाह (سبحانه وتعال) इस पर इन का इसी तरह मुहासिबा करेगा जैसे किसी भी दूसरे फ़र्ज़ को छोड़ने का।
जहां तक ख़लीफ़ा के ओहदे के ख़ाली होने के बाद, मुसलमानों के लिए इक़ामत-ए-ख़लीफ़ा के फ़र्ज़ की अदायगी के लिए उसी वक़्त मशग़ूल हो जाने ,की फ़र्ज़ीयत का ताल्लुक़ है तो उस की दलील ये है कि सहाबा (رضی اللہ عنھم) नबी صلى الله عليه وسلم की वफ़ात के बाद उसी दिन, रसूलल्लाह صلى الله عليه وسلم को दफ़न करने से भी क़ब्ल ,सक़ीफ़ा बनु साअदा में जमा हो गए। और अबूबक्र (رضي الله عنه) को उसी दिन बैअते इनेक़ाद दी गई और फिर अगले रोज़ लोग बैअते इताअत के लिए मस्जिद में जमा हुए।

जहां तक ख़लीफ़ा के तक़र्रुर के लिए तीन दिन और तीन रात की मोहलत का ताल्लुक़ है तो ये इस वजह से है कि जब उमर (رضي الله عنه) पर ये ज़ाहिर हो गया कि गहरे ज़ख्मों के नतीजे में उन की मौत क़रीब है तो उन्होंने अहल-ए-शूरा से अह्द लिया और उन के लिए तीन दिन की मुद्दत मुक़र्रर की कि वो इस दौरान ख़लीफ़ा का इंतिख़ाब कर लें। आप ने ये वसीयत भी की कि अगर तीन दिन में किसी एक ख़लीफ़ा पर इत्तिफ़ाक़ ना हो तो तीन दिन गुज़रने के बाद इस मसले में इख्तिलाफकरने वालों को क़त्ल कर दिया जाये । आप ने इस फ़ैसले को नाफ़िज़ करने की ज़िम्मेदारी पच्चास अफ़राद पर डाली,यानी इख्तिलाफकरने वालों के क़त्ल की ज़िम्मेदारी। बावजूद ये कि वो छः अफ़राद अहल-ए-शूरा और जलील-उल-क़दर सहाबा (رضی اللہ عنھم) में से थे। ये सब काम सहाबा (رضی اللہ عنھم) के सामने हुआ और उन्होंने उसे सुना। इस का कोई सबूत नहीं मिलता कि इन में से किसी ने भी इसकी मुख़ालिफ़त की हो या इस का इनकार किया हो। पस ये सहाबा (رضی اللہ عنھم) का इजमा था कि ख़लीफ़ा के बगै़र मुसलमानों के लिए तीन रातों और तीन दिन से ज़्यादा वक़्त गुज़ारना जायज़ नहीं और इज्मा ए सहाबा भी किताब व सुन्नत की तरह एक शरई दलील है ।


बुख़ारी ने मुसव्विर बिन मख़ज़मा से रिवायत किया: अभी रात का कुछ हिस्सा ही गुज़रा था कि अब्दुर्रहमान बिन औफ (رضي الله عنه) ने मेरे दरवाज़े पर दस्तक दी यहां तक कि मैं जाग गया।“ उन्होंने कहा “मैं तुम्हें सोए हुए देखता हूँ लेकिन अल्लाह (سبحانه وتعال) की क़सम! मैं इन तीन (रातों) में ज़्यादा देर सौ नहीं पाया जब लोगों ने सुबह की नमाज़ अदा की तो उस वक़्त तक उसमान (رضي الله عنه) की बैअत मुकम्मल हो गई।“
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