إفترقت اليهود على احدى وسبعين فرقة، وافترقت النصارة على إثنتين وسبعين فرقة، وتفترق أمتي على ثلاث وسبعين فرقة
“यहूदियों ने अपने आपको 71 या 72 फिरको में बाँट लिया था, और ईसाईयोंने अपने आप को 71 या 72 फिरकों में बांट लिया था और मेरी उम्मत अपने आपको 73 फिरकों में बांट लेगी।” (अबू दाऊद, तिर्मिज़ी, अल हाकिम और अहमद और दूसरे कई मुहद्दिसो ने इसे रिवायत किया है) इमाम तिर्मिज़ी ने इसे ’’हसन सहीह हदीस’’ कहा है।
एक दूसरी तब्दीली के साथ इमाम अहमद ने अबू आमिर अब्दुल्लाह विन लूहे से रिवायत किया है, ‘‘हमनें मुआवियों इब्ने अबी सुफियान के साथ हज किया, जब हम मक्का पहॅुचे तो वोह ज़ुहर पढ़ने के लिये खड़े हुये और कहा ’’अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया:
إِنَّ أَهْلَ الْكِتَابَيْنِ افْتَرَقُوا فِي دِينِهِمْ عَلى ثِنْتَيْنِ وَسَبْعِينَ مِلَّةً، وَإِنَّ هذِهِ الْأُمَّةَ سَتَفْتَرِقُ عَلى ثَلَاثٍ وَسَبْعِينَ مِلَّةً يَعْنِي الْأَهْوَاءَ كُلُّهَا فِي النَّارِ إِلَّا وَاحِدَةً وَهِيَ الْجَمَاعَةُ وَإِنَّهُ سَيَخْرُجُ فِي أُمَّتِي أَقْوَامٌ تَجَارَى بِهِمْ تِلْكَ الْأَهْوَاءُ كَمَا يَتَجَارَى الْكَلَبُ بِصَاحِبِه، لَا يَبْقَى مِنْهُ عِرْقٌ وَلَا مَفْصِلٌ إِلَّا دَخَلَه
‘‘दोनो अहले किताब 72 फिरकों में बट गये। यह उम्मत 73 फिरको में बट जायेगी। सभी जहन्नुमी होगें सिर्फ एक के, यानि एक जमात के। मेरी उम्मत में कुछ अपनी ख्वाहिषों से रहनुमाई लेगें। ठीक उस तरह जिस तरह कोई रेबीस (तंइपमे) से पीड़ित होता हैय इन ख्वाहिषों (की बुराई से) कोई नस या जोड़ नही बचेगा।’’ हदीस को अब दाऊद, अहमद, अल हाकिम और दूसरो ने इन्ही अल्फाज़ में रिवायत किया है लेकिन कुछ शब्दो के इज़ाफे के साथ:
ثنتان وسبعون في النار. قيل: يا رسول الله من هم؟ قال: الجماعة
’’72 जहन्नमी होगें और एक जन्नती होगा : और वोह एक जमात होगी।’’
कुछ आलिमों जैसे इमाम शौकानी और अल कौसरी ने कहा कि यह ईज़ाफा कमजोर है और इब्ने हज़म ने इसे गढ़ा हुआ (fabricated) करार दिया। यह बहुत ज़रूरी है कि मुस्लिम इस काबिले कद्र हदीस को सही पस मन्ज़र में समझें। इसलिये, अल्लाह की मदद से, इस हदीस के मायने को इसका ऐतिहासिक असरात और इसके प्रभाव की वजह से मुसलमानों का एक दूसरे को देखना के बारे में इस मज़मून में तफ्सीली रोषनी डाली गई है। इस हदीस का इस्तेमाल कुछ लोगों के ज़रिये दूसरो को गलत (disparage) करना रहा है: इसलिये कुछ लोग, जिन्होने शेख मुहम्मद बिल अब्दुल वहाब के इज्तिहाद की तकलीद की, ने दूसरों को जिन्होने इसकी तकलीद नही की, को जहन्नुमी कहा और कुछ लोग जिन्होने ने शाफई मज़हब की तकलीद की, उन्होने यह बात हनफी मज़हब के लिये कहीं और हनफ़ियों ने शाफाई मज़हब के लिये कहीं कुछ सुन्नियों ने शिया हज़रात के लिये यह बात कही और कुछ शियाओं ने सुन्नियों के लिये। हदीस में लफ़्ज ’फिरक़ाह’ इस्तेमाल हुआ है जो कि लफ़्जे मुश्तरक (Homonym या कई सारे अर्थ रखने वाला) है। लफ्जे मुश्तरक के कई अर्थ या मआनी पाये जाते है। अल्लाह ( سبحانه وتعالى) ने क़ुरआने करीम में यह लफ़्ज अलग अलग पसमन्जर (context) में इस्तेमाल किया है।
وَمَا كَانَ الْمُؤْمِنُونَ لِيَنفِرُوا كَافَّةً فَلَوْلاَ نَفَرَ مِنْ كُلِّ فِرْقَةٍ مِنْهُمْ طَائِفَةٌ لِيَتَفَقَّهُوا فِي الدِّينِ وَلِيُنذِرُوا قَوْمَهُمْ إِذَا رَجَعُوا إِلَيْهِمْ لَعَلَّهُمْ يَحْذَرُونَ (التوبة: 122
और मुसलमानों को यह ना चाहिये के सब के सब निकल खडे हों, सो ऐसा क्यों न किया जाये की उन की हर बडी जमात मे से एक छोटी जमात जाया करें ताकि वोह दीन की समझ बूझ हांसिल करे और ताकि यह लोग अपनी क़ौम को, जब के वोह इन के पास आये डराऐं ताकि वोह डर जायें. (तर्जुमा मआनीऐ कुरआन: सूरः तौबा, 122)
यहां शब्द फिरक़ाह का मतलब गिरोह या expedition (फौजी मुहिम) है।
وَإِنَّ مِنْهُمْ لَفَرِيقًا يَلْوُونَ أَلْسِنَتَهُمْ بِالْكِتَابِ لِتَحْسَبُوهُ مِنْ الْكِتَابِ وَمَا هُوَ مِنْ الْكِتَابِ وَيَقُولُونَ هُوَ مِنْ عِنْدِ اللَّهِ وَمَا هُوَ مِنْ عِنْدِ اللَّهِ وَيَقُولُونَ عَلَى اللَّهِ الْكَذِبَ وَهُمْ يَعْلَمُونَ (آل عمران: 78
यक़ीनन उन मे ऐसा गिरोह भी है जो किताब पढते हुये अपनी ज़बान मरोडता है ताकि तुम उसे किताब ही की इबारत खयाल करो हालांकि दरअस्ल वोह किताब मे से नहीं, और यह कहते भी हैं की वोह अल्लाह तआला की तरफ से है, हालांकि दरअस्ल वोह अल्लाह तआला की तरफ से नहीं, वोह तो दानिस्ता (जानबूझ कर) अल्लाह तआला की तरफ झूठ बोलते हैं. (तर्जुमा मआनिऐ कुरआने करीम, आले इमरानः 48)
इस आयत में दोबारा ’फिरका’ शब्द इस्तेमाल हुआ है, लेकिन इस पसमन्जर में, इसे बुरा बताया गया है, क्योकि वोह वह्यीये इलाही इलाही तो तोड़ने मरोड़ने का काम करते थे। इसलिये यह पसमन्जर उस मआनी (अर्थ) को ज़ाहिर करता है जिसके लिये यह शब्द इस्तेमाल किया गया। जहां तक इस हदीस का ताल्लुक है कि अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने कहा कि यह उम्मत 73 फिरको में बट जायेगी और सिवाऐ एक के जो रसूल (صلى الله عليه وسلم) और उनके असहाब के तरीके पर होगा, सभी जहन्नुमी होगें। इससे पता चला कि उम्मते मुस्लिमा को यह बताया गया है कि यहूद और नसारा की तरह फिरकों में बट जाना, काबिले तरदीद (विरोधी) अमल होता है। सवाल यह पैदा होता है कि वोह कौन से मौज़ूआ (विषय) थे जिन पर यहूद और नसारा बट गये थे या असहमत हो गये थे और किस तरह से इस असहमती ने फिरक़ा या गिरोह की शक्ल ईख्तियार की ? क़ुरआन अल . करीम हमें हुक्त देता है कि हमें यहूद और नसारा की तरह बटना नही चाहिये। इसलिये यह समझना जरूरी है कि वोह क्या है जिसमें उन्होने तफर्क़ा पैदा किया या इख्तिलाफ किया। उन्होनें अम्बिया के मामले में इख्तिलाफ किया। अल्लाह ( سبحانه وتعالى ) फरमाता है:
أَ فَكُلَّمَا جَاءَكُمْ رَسُولٌ بِمَا لاَ تَهْوَى أَنفُسُكُمْ اسْتَكْبَرْتُمْ فَفَرِيقًا كَذَّبْتُمْ وَفَرِيقًا تَقْتُلُون (البقرة: 87
लेकिन जब कभी तुम्हारे पास रसूल वोह चीज़े जो तुम्हारी तबियत के खिलाफ थी, तुम ने झट से तकब्बुर किया, पस बाज़ को तो झुठलाया और बाज़ को क़त्ल भी कर डाला (सूरः बकरा: 87)
और अल्लाह ( سبحانه وتعالى ) ने फरमायाः
और अल्लाह ( سبحانه وتعالى ) ने फरमायाः
وَآتَيْنَا عِيسَى ابْنَ مَرْيَمَ الْبَيِّنَاتِ وَأَيَّدْنَاهُ بِرُوحِ الْقُدُسِ وَلَوْ شَاءَ اللَّهُ مَا اقْتَتَلَ الَّذِينَ مِنْ بَعْدِهِمْ مِنْ بَعْدِ مَا جَاءَتْهُمْ الْبَيِّنَاتُ وَلَكِنْ اخْتَلَفُوا فَمِنْهُمْ مَنْ آمَنَ وَمِنْهُمْ مَنْ كَفَرَ
और हमने इसा बिन मरमयम को मौजज़ात अता फरमाये और रुहुल क़ुद्दूस से उनकी ताईद की. अगर अल्लाह तआला चाहता तो उनके बाद वाले हर गिज़ आपस मे लडाई भिडाई न करते, लेकिन उन लोगों ने इख्तिलाफ किया, उनमे से बाज़ लोग तो मोमिन हुये और बाज़ काफिर.. ( सूरः अलबकरा: 253)
उन्होने अपनी किताब के मामले में भी इख्तिलाफ किया। अल्लाह ( سبحانه وتعالى ) ने फरमाया:
وَمَا اخْتَلَفَ الَّذِينَ أُوتُوا الْكِتَابَ إِلاَّ مِنْ بَعْدِ مَا جَاءَهُمْ الْعِلْمُ بَغْيًا بَيْنَهُمْ (آل عمران: 19
और अहले किताब ने अपने पास इल्म आजाने के बाद आपस की सरकशी और हसद की बिना पर ही इख्तिलाफ किया (सूरः आले इमरान: 19 )
उन्होने अपने आपको बांट लिया और एक दूसरो को काफिर कहना शुरू कर दिया। अल्लाह ( سبحانه وتعالى ) फरमाता है:
उन्होने अपने आपको बांट लिया और एक दूसरो को काफिर कहना शुरू कर दिया। अल्लाह ( سبحانه وتعالى ) फरमाता है:
وَقَالَتِ الْيَهُودُ لَيْسَتِ النَّصَارَى عَلَىَ شَيْءٍ وَقَالَتِ النَّصَارَى لَيْسَتِ الْيَهُودُ عَلَى شَيْءٍ وَهُمْ يَتْلُونَ الْكِتَابَ كَذَلِكَ قَالَ الَّذِينَ لاَ يَعْلَمُونَ مِثْلَ قَوْلِهِمْ فَاللّهُ يَحْكُمُ بَيْنَهُمْ يَوْمَ الْقِيَامَةِ فِيمَا كَانُواْ فِيهِ يَخْتَلِفُونَ
यहूद कहते हैं की नसरानी हक़ पर नहीं और नसरानी कहते हैं के यहूद हक़ पर नहीं, हालांकि यह सब लोग तौरात पढते हैं. इसी तरह इन्ही जैसी बात बे-इल्म भी कहते हैं. क़याम के दिन अल्लाह इनके इस इख्तिलाफ का फैसला उन के दर्मियान कर देगा. (सूर: अलबकरा 113)
उन सब मौज़ूआत का मुतआला (अध्ययन) करने के बाद, जिनके मामले में यहूद और नसारा ने इख्तिलाफ किया, से पता चलता है कि उन्होने दीन के बुनियादी मामले में इख्तिलाफ किया। उन्होंने अम्बिया, रोज़े जज़ा के दिन, अल्लाह के एक होने पर, दोबारा उठाऐ जाने पर, जन्नत और जहन्नुम के मामले मे इख्तिलाफ किया। उन्होने अक़ीदे की बुनियादो में इख्तिलाफ किया। चॅूकि अल्लाह ( سبحانه وتعالى ) और उसके रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने हमें हुक्म दिया है कि हम अहले किताब की तरह न बटें इसलिये हमें उन मामलो में इख्तिलाफ करने से गुरेज़ करना चाहिये। इसका मतलब यह है कि दीन के बुनियादी मामलो में इख्तिलाफ करने की तरदीद की गई है इस बात को मुन्दरजा ज़ेल आयत की तफ्सीर से अधिक ज़्यादा समझा जा सकता है:
وَاعْتَصِمُواْ بِحَبْلِ اللّهِ جَمِيعاً وَلاَ تَفَرَّقُواْ
’’और अल्लाह की रस्सी को मज़बूती से पकड़ लो और तफर्क़ो में न बटो’’ (सूरः आले इमरान:103)अल्लाह ( سبحانه وتعالى ) ने मुसलमानों को हुक्म दिया है कि अल्लाह की रस्सी को मज़बूती से थाम लो और छोड़ो मत और आपस में बट मत जाओं।
अल्लाह की रस्सी’’ इब्ने मसूद (رضي الله عنه) अली बिन अबि तालिब, और अबू सईद खुदरी (رضي الله عنه) ने कहा कि यह क़ुरआन है। दूसरो ने कहा कि अल्लाह ( سبحانه وتعالى ) का दीन है। दूसरों ने जैसे इब्ने मुबारक ने कहा कि यह ’अल-जमात’ है। ’’और बटो मत ’’ अतः तबरी ने कहा: और अल्लाह के दीन और उसके अहद, जो उसने तुमसे अपनी किताब में लिया है, की तुम्हे उसकी और उसके रसूल (صلى الله عليه وسلم) की एक साथ ईताअत करना चाहिये, के मामले में बट न जाओ। इब्ने कसीर ने कहा, ’’उसने (अल्लाह) हुक्म दिया है की एक जमाअत के साथ रहो और बट न जाओं’’ अल कुरतबी ने कहा, ’’यहूदी और नसारा की तरह दीन में बटवारा न करो .... इससे यह मतलब भी हो सकता है कि अपनी ख्वाहिषों और मफाद के खातिर अलग मत हो जाओं।’’ इसलिये, मुसलमानों को दीन के बुनियादी मामलों में ना इत्तिफाक़ी करने की ईजाज़त नहीं है। हाॅलाकि दीन के फरोई (branches) में इसकी इजाज़त है, इसके कारण है:
(a) वह नुसूस जो मुसलमानों को अहले किताब की तरह दीन की बुनियादों पर नाईत्तिफाक़ी करने की तरदीद करता है, जैसा कि पहले बताया जा चुका है।
(b) अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) की सुन्नत से यह साबित है कि फरूअ (इतंदबीमे) में इख्तिलाफ करने की ईजाज़त है।
(c) सहाबा के दर्मियान जिन मसलो पर यह इख्तिलाफ होता था वोह फुरू मामलात में था , न कि उसूल (दीन के बुनियादी मामलात) में। इस फुरू मामलात में इख्तिलाफे राय की तरीदद (condemnation) नही की जा सकती है।
(d) सहाबियों के मुत्तबी (ताबईन), उनके बाद आने वाले और ओलमायें सलफ ने फुरू मामलात में इख्तिलाफ को क़ुबूल किया है लेकिन ’उसूलुद्दीन’ (दीन की बुनियादों) में नही।
मिसाल के तौर पर अष शाफई अपनी किताब ’अर-रिसाला’ में बयान फरमाते है, “इख्तिलाफ दो तरह का होता है: एक हराम है और दूसरा नही। हर वोह चीज़ जिसे अल्लाह ने क़तई दलील (हुज्जत) से क़ायम कर दिया है, अपनी किताब या उसके रसूल ने उसकी हुरमत को साफ तौर पर बयान कर दिया है, तो उसके जानने वाले के लिये उस पर इख्तिलाफ करना हराम है। जहां तक उसका ताल्लुक़ है जिसको अलग अलग तरह से समझा जा सकता है और या कयास के जरिऐ, चॅूकि नस (text) इसको उजागर करती है..... तो इसमे (इख्तिलाफ की) गुन्जाईष है जब तक की वाजे़ह तौर पर इसे बयान न कर दिया गया हो।’’ इब्ने तेमिया अपनी किताब फतावा अल कुबरा जिल्द 20 पेज 256 में बयान करते है: तो यह (नस) बटे हुये है: वोह जो दलील (मआनी) के ऐतबार से क़तई है। उसका क़तई होना उसकी (राविओं की) तरतीब (सनद) और उसके सियाक़ व सबाक़ (मता or content) से साबित होता है। जब हमें यक़ीन होता है की अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने ऐसा कहा और इसका यही मतलब बताया। दूसरी चीज़ वोह है जो अपनी दलील में ग़ैर-क़़तई (मआनी में) है। जहां तक पहले का ताल्लुक है तो इस पर इमान लाना और उसके मुताबिक अमल करना चाहिए। इस मसले में आम तौर से कोई इख्तिलाफ नहीं है। ओलमा कुछ अखबार (खबरों) पर उनकी सनद के क़तई होने या न होनें, या उनके मआनी क़तई है या नही है इस पर इख्तिलाफ करते है। इसकी एक मिसाल वोह मसला है जिसमें एक रावी से आने वाली रिवायत (खबरे अहद) जिसे उम्मत ने तस्लीम कर लिया है या वोह जिस पर उम्मत ने अमल करने पर इत्तेफाक़ कर लिया है’’
मिसाल के तौर पर अष शाफई अपनी किताब ’अर-रिसाला’ में बयान फरमाते है, “इख्तिलाफ दो तरह का होता है: एक हराम है और दूसरा नही। हर वोह चीज़ जिसे अल्लाह ने क़तई दलील (हुज्जत) से क़ायम कर दिया है, अपनी किताब या उसके रसूल ने उसकी हुरमत को साफ तौर पर बयान कर दिया है, तो उसके जानने वाले के लिये उस पर इख्तिलाफ करना हराम है। जहां तक उसका ताल्लुक़ है जिसको अलग अलग तरह से समझा जा सकता है और या कयास के जरिऐ, चॅूकि नस (text) इसको उजागर करती है..... तो इसमे (इख्तिलाफ की) गुन्जाईष है जब तक की वाजे़ह तौर पर इसे बयान न कर दिया गया हो।’’ इब्ने तेमिया अपनी किताब फतावा अल कुबरा जिल्द 20 पेज 256 में बयान करते है: तो यह (नस) बटे हुये है: वोह जो दलील (मआनी) के ऐतबार से क़तई है। उसका क़तई होना उसकी (राविओं की) तरतीब (सनद) और उसके सियाक़ व सबाक़ (मता or content) से साबित होता है। जब हमें यक़ीन होता है की अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने ऐसा कहा और इसका यही मतलब बताया। दूसरी चीज़ वोह है जो अपनी दलील में ग़ैर-क़़तई (मआनी में) है। जहां तक पहले का ताल्लुक है तो इस पर इमान लाना और उसके मुताबिक अमल करना चाहिए। इस मसले में आम तौर से कोई इख्तिलाफ नहीं है। ओलमा कुछ अखबार (खबरों) पर उनकी सनद के क़तई होने या न होनें, या उनके मआनी क़तई है या नही है इस पर इख्तिलाफ करते है। इसकी एक मिसाल वोह मसला है जिसमें एक रावी से आने वाली रिवायत (खबरे अहद) जिसे उम्मत ने तस्लीम कर लिया है या वोह जिस पर उम्मत ने अमल करने पर इत्तेफाक़ कर लिया है’’
इससे पता चला कि हदीस जिस मौज़ूअ (विषय) पर गुफ्तगू कर रही है के मुसलमानों के दर्मियान इख्तिलाफ नही है, जो कि नस की तष्रीह (explanation/interpretation) करते वक्त या मआनी पर ग़ौर करते वक्त पैदा होता है। बल्कि यह उन फिर्को (Sects) की तरदीद कर रही है, जिन्होने दीन के उसूलो में इख्तिलाफ किया। यकीनन सहाबा ( رضی اللہ عنھم) में भी कई मसलो पर आपस में इख्तिलाफ था यानी उन मसलो पर जो की दीन शाखों (फुरू) में से होते थे, लेकिन दीन के उसूलो पर वोह हमेषा मुत्तहिद रहते थे। नतीजतन इस्लाम के कई अज़ीम मुजतहीदीन भी दीन के कई पहलुओं में इख्तिलाफ रखते थे लेकिन सिर्फ फुरूअ (षाखो) के मामले में। इसलिये वोह फिरक़े जो जहन्नुमी है वोह उन गिरोहो में से नही होगें जो जाईज बुनियादो पर इख्तिलाफ करते है। इसलिये वोह जो एक मखसूस मज़ाहिब (मसलक) इख्तियार करते है, जैसे शाफई, हनफी, हम्बली, मालिकी या शियाओं में से जाफरी या जै़दी को काफिर नही करार दिया जा सकता।
हदीस में जिक्र होने वाले गिरोह वोह गिरोह है जिन्होने इस्लाम को तर्क कर दिया जैसे की क़ादियानी जिन्होने हज़रत मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) के बाद नुबव्वत का दावा किया या अलवी जिन्होने अली में खुदा का अवतार माना या कुछ सूफी जिन्होने हज़रत मुहम्मद को अल्लाह का अवतार माना (अल्लाह बचाये ऐसी गुमराही से) या वोह जिन्होने आखिरत के अज़ाब से इन्कार किया, वगैराह। हर वोह गिरोह जो कि कुरआन के क़तई होने का इन्कार या इख्तिलाफ करें वोह इस्लाम के दायरे से बाहर हो जाता है।
हनफी आलिम इब्ने आबिदीन ने यह हकीकत बयान की के, ‘‘उन लोगों के कुफ्र पर कोई शक नहीं किया जा सकता जिन्होने सय्यिदा आयषा ( رضي الله عنها) पर झूटा बोहतान बांधा या अबू बक्र ( رضي الله عنه) की सहाबियत का इन्कार किया, जो यह यकीन रखते है कि सय्यिदिना अली खुदा है या यह कि जिब्राईल अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) पर ग़लती से वह्यी लेकर आये, वगैराह। यह बिल्कुल खुला कुफ्र है और क़ुरआन की तालीमात के बिल्कुल मुखालिफ है। (रद्दे अल मुहतार) 4ध्453)। इब्ने आबिदीन मज़ीद फरमाते है, ‘‘सारे शियाओं के बारे में एक आम बयान देना और सबको काफिर करार देना मुष्किल है जैसा कि औलामा गुमराहियों और गुमराह गिरोहो पर मुत्तफिक़ है।
कुरआने करीम के शिया आलिम, अल्लामा मुहम्मद हुसैन तबातबाई अपनी मषहूर कुरआन की तफ्सीर ‘तफ्सीर उल मीजान’ 12 वां ऐडीषन, पेज 109 ईरान से प्रकाषित में कुरआन के मुकम्मल होने के बारे में लिखते है कि ’’कुरआन, जो अल्लाह (स.) ने हजरत मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) पर उतारा को हर किस्म की तब्दीली से महफूज़ रखा है। बदकिस्मती से कुछ गिरोहो ने तास्सबु और जहालत की वजह से दूसरो को काफिर करार दिया, ठीक उसी तरह से जैसे यहूद और नसारा ने किया। यह एक सोचने का तरीक़ा है जिसके मुताबिक कोई दीन के मामले में अपनी राय और विचारो से ऐसा सही समझता है जिस पर कोई सवाल नही किया जा सकता और उसके अलावा दूसरा अक़ीदा या राय जो उसकी राय से मुख्तलिफ हो या उनकी राय की मुखालिफत करती हो उन्हे गुमराह और झूठा (unreasonable / wicked) समझते है। मुस्लिम उम्मत एक है। दुनिया के किसी भी हिस्से में पाया जाने वाला कुरआन करीम चाहे कराची, तेहरान, मदीना, अलजीरिया वगैरा हो सब जगह एक जैसा होता है।
अल्लाह ( سبحانه وتعالى ) फरमाता है:
अल्लाह ( سبحانه وتعالى ) फरमाता है:
إِنَّ هَـٰذِهِۦۤ أُمَّتُكُمۡ أُمَّةً۬ وَٲحِدَةً۬ وَأَنَا۟ رَبُّڪُمۡ فَٱعۡبُدُونِ
“बैशक यह उम्मत, एक ही उम्मत है और मैं तुम्हारा रब हॅू इसलिये मेरी ही बन्दगी करो’’ (सूर:अम्बिया:92)
शिया भी इस अज़ीम उम्मत का हिस्सा है। वोह मुस्लिम है और तमाम मुसलमानों के दर्मियान भाईयों की तरह मुहब्बत होना चाहिये। यकीनन एक मुस्लिम दूसरे मुस्लिम का भाई है चाहे वो शिया हो, सुन्नी या चाहे वोह किसी भी मुजतहिद की तकलीद करे। अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने हमें ऐसा ही सिखाया है।’’ एक मुस्लिम दूसरे मुस्लिम का भाई है, वोह उस पर ज़ुल्म नही करता, न ही वोह उसे दुष्मन के हवाले करता है वोह उसे मायूस नही करता, ना ही उसकी बेइज़्ज़ती करता है।’’
अल्लाह ( سبحانه وتعالى) फरमाता है कि
هُوَ سَمَّاكُمُ الْمُسْلِمينَ
‘‘यह वोह है (अल्लाह) जिसने तुम्हे मुस्लिम कहा’’ (सर: अल हज: 78)।
कोई भी इख्तिलाफ होने पर, वह्यीये इलाही इलाही (नस) की तरफ पलटा जा सकता है।
فَإِن تَنَازَعْتُمْ فِي شَيْءٍ فَرُدُّوهُ إِلَى اللّهِ وَالرَّسُولِ
‘‘और अगर तुम्हारे दर्मियान किसी चीज में इख्तिलाफ हो जाये तो अल्लाह और उसके रसूल की तरफ पलटो .....’’ (सूर: निसा: 59)
जो लोग भी आज के हालात पर नज़र रखते है वोह इस बात को अच्छी तरह समझ सकते है की कुफ्फार हमारे खिलाफ इकठ्ठे हो गये है और हम सबको वोह एक ही नज़र से देखते है और ऐसा एक भी दिन नही गुज़रता जब वोह मुस्लिम खून को नही बहाते। इसके बावजूद भी के यह काफिर अपने मफाद के मुताबिक आपस में बटे हुये है, लेकिन वोह इस्लाम के खिलाफ जंग में एक जुट हो जाते है और मुसलमानों के खिलाफ दुष्मनी निभाने में एक दूसरे से मुकाबला करते है। तो क्या हमें इस्लाम के बन्धन में जुड़कर इकठ्ठे नही हो जाना चाहिये और मसनूई (artificial) तौर पर अपने आपको शिया और सुन्नी और दूसरे मज़ाहिब में नही बाँटना चाहिये ?
وَالَّذينَ كَفَرُواْ بَعْضُهُمْ أَوْلِيَاء بَعْضٍ إِلاَّ تَفْعَلُوهُ تَكُن فِتْنَةٌ فِي الأَرْضِ وَفَسَادٌ كَبِي
’’कुफ्फार एक दूसरे के मददगार है, जब तक तुम यह न करो (खिलाफत कायम करके एक दूसरे की हिफाजत करो) जमीन पर फित्ना और ज़ुल्म और बहुत बड़ा फसाद होगा।’’ (सूर: अल अनफाल:73 )
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