अमीरे जिहाद


अमीरे जिहाद वो शख़्स है जिसे ख़लीफ़ा ख़ारिजा उमूर (बाहरी मुआमलात), अस्करी उमूर (हथियारिक मुआमलात ), दाख़िली अम्न-ओ-सलामती (आंतरिक सुरक्षा और शांति) और सनअत (उद्योग) के मुआमलात पर अमीर मुक़र्रर करता है ताकि वो इन उमूर की निगरानी और इंतिज़ाम करे।

वो इन चारों शोबों (विभागों) की निगरानी करता है लेकिन वो अमीर-ए- जिहाद कहलाता है क्योंकि ये तमाम शोबे जिहाद से मुंसलिक (जुडे) होते हैं। इसलिये ख़ारिजा उमूर को जिहाद की ज़रूरियात के मुताबिक़ चलाया जाता है, चाहे अमन का ज़माना हो या हालत-ए-जंग। अस्करी शोबे का ताल्लुक़ अफ़्वाज की तशकील और तैय्यारी, उसे असलेह से लैस करने और जिहाद करने से है। शोबा दाख़िली सलामती का ताल्लुक़ रियासत की हिफ़ाज़त और रियासत के अंदरूनी अमन-ओ-सलामती के क़याम से है, मिसाल के तौर पर   पुलिस जो कि फ़ौज का हिस्सा होती है जिसे जिहाद के लिये तय्यार किया जाता है, इस के ज़रीए बागियों और शाहराहों (राज मार्ग/ highway) के डाकूओं से निबटा जाता है। सनअत (उद्योग) का शोबा फ़ौज को जिहाद के लिये असलाह (हथियार) और जंगी आलात (उपकरण) उपलब्ध करता है। चूँकि इन तमाम मुआमलात का ताल्लुक़ जिहाद से है, इसलिये वो अमीर-ए-जिहाद कहलाता है।

अमीरे जिहाद अगरचे हुक्मरान नहीं होता बल्कि उसे अमीरे जिहाद इसलिये कहा जाता है कि वो अपने वसीतर ज़िम्मेदारियों की वजह से बाकसरत अहकामात जारी करता है। लफ़्ज़ अमीर, “फैअल” के वज़न पर है जो कि “इस्म-ए-फ़ाइल” (noun participle) आमिर का “इस्म-ए-मुबालग़ा” (super lative adjective) है। क्योंकि अमीर दिन रात कसरत से अहकामात जारी करता है। ये इसी तरह है जैसे कि लफ़्ज़ “रहीम” जो कि इस्म-ए-फ़ाइल “राहिम” का इस्म-ए-मुबालग़ा है क्योंकि वो कसरत से अपनी ला महदूद रहमत नाज़िल करता है।

अमीर-ए-जिहाद का दफ्तर-ए-निज़ामत चार शोबों (विभागों) पर आधारित है:

1) शोबा उमूर-ए-ख़ारिजा (विदेशी मुआमलात विभाग)
2) शोबा हर्ब   (युद्ध विभाग)
3) शोबा दाख़िली अम्न-ओ-सलामती (आंतरिक सुरक्षा और शांति विभाग)
4) शोबा सनअती उमूर (उद्योग विभाग)

अमीर-ए-जिहाद इन तमाम शोबों की निगरानी और इंतिज़ाम करता है।

जिहाद वो तरीका है जो इस्लाम के पैग़ाम को पूरी दुनिया तक पहुंचाने के लिये इस्लाम ने मुक़र्रर किया है। इस्लाम के अहकामात को रियासत में नाफ़िज़ करने के बाद इस्लामी रियासत का बुनियादी काम इस्लाम की दावत को पूरी दुनिया तक लेकर जाना है। लिहाज़ा जिहाद के अहकामात में जंग, अमन, जंग बंदी और मुआहिदात के मुताल्लिक़ अहकामात शामिल हैं। इस में दूसरी रियासतों और ढाँचों के साथ ख़ारिजा ताल्लुक़ात , फ़ौज , उसकी तशकील-ओ-तंज़ीम,तैय्यारी, कमांडरों के इंतिख़ाब (चुनाव) और झडों और परचमों से मुताल्लिक़ क़वानीन भी शामिल हैं। इसी तरह फ़ौज के असलेह (हथियारों) का निज़ाम और फ़ौजी नुक़्ता-ए-नज़र पर शुरू किये गये उद्योग भी इस में शामिल हैं , जिस के ज़रीए ऐसी तैय्यारी की जा सके जो खुले और मख़फ़ी (छुपे हुये) दुश्मनों पर दहश्त और रोब डाल दे। नीज़ इस में वो अहकामात भी शामिल हैं जिन का ताल्लुक़ रियासत और क़ानून को मुस्तहकम (मज़बूत) करने, रियासत के ख़िलाफ़ किसी किस्म की बग़ावत को रोकने, बैनुल अज़लाई शाहराहों (अंतर्राष्ट्रीय) पर डाकूओं की वारदातों को रोकने, अंदरूनी सलामती को कमज़ोर बनाने की कोशिशों का तदारुक (निवारण) करने और अवाम के ख़िलाफ़ जराइम (अपराधों) को रोकने से है।

रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم जिहाद के तमाम उमूर ख़ुद चलाते थे और इस के बाद खुलफा ने ऐसा ही किया। रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم और ख़लफ़ा चन्द मख़सूस लोगों को जिहाद से मुताल्लिक़ कुछ या तमाम तर काम अंजाम देने पर मुक़र्रर किया करते थे, ख़ाह ये अफ़्वाज की तैय्यारी हो, अमली जंग हो,जंग बंदी या अमन हो, बैरूनी ताल्लुक़ हों या बागियों और मुर्तदीन (दीन से फिर जाने वालों) के ख़िलाफ़ लड़ाई हो।

ये बात तयशुदा है कि ख़लीफ़ा जो काम ख़ुद करने का मजाज़ (अधिकारी) है इस पर वो किसी और को अपना नायब मुक़र्रर कर सकता है जो उस की तरफ़ से ये काम अंजाम दे। पस यहीं से अमीरे जिहाद के तक़र्रुर और इस के दफ़्तर के क़याम का ताय्युन होता है।

चूँकि अमीरे जिहाद को मुक़र्रर करना और इस के दफ़्तर को क़ायम करना ,जिहाद और इस के अहकामात से ताल्लुक़ रखता है लिहाज़ा तमाम विदेशी मुआमलात इस में शामिल होने चाहिऐं क्योंकि ख़ारिजा उमूर (विदेशी मुआमलात) की बुनियाद क्योंकि जिहाद “कलमतुल्लाह” को बुलंद करने के लिये अल्लाह (سبحانه وتعال) की राह में लड़ना है। लड़ाई के लिये फ़ौज की तशकील के साथ साथ जंग की तैय्यारी, कमांडरों के तक़र्रुर , अमले, सिपाहियों, तरबियत , रसद की तरसील और ज़राए की ज़रूरत होती है।

फ़ौज को असलेह (हथियारों) की ज़रूरत होती है जिस के लिये सनअतों ( उद्योगों) का क़याम ज़रूरी है। लिहाज़ा सनअत का मौजूद होना फ़ौज और जिहाद की ज़रूरत है। इस लिये रियासत की तमाम फैक्ट्रियों को फ़ौजी सनअत की बुनियाद पर बनाया जाना चाहिये और सनअत जिहाद के तक़ाज़ों और अमीर जिहाद के ताबे होनी चाहीए।

जिस तरह फ़ौज इस्लाम की दावत को पूरी दुनिया तक ले जाने के लिये जिहाद करती है इसी तरह वो रियासत की निगहबानी और सुरक्षा भी करती है। लिहाज़ा बागियों और रियासत के नाफ़रमानों और बैनुल अज़लाई शाहराहों (अंतर्राष्ट्रीय राजमार्गों) के डाकुओं का सफाया करना भी फ़ौज की ज़िम्मेदारी है। चुनांचे दाख़िली सलामती (आंतरिक सुरक्षा) की निर्भरता जिहाद, अमीरे जिहाद और उस की निज़ामत पर होता है। ये इस बात की दलील है कि जिहाद की निज़ामत के चार शोबे होते हैं जो कि उमूर-ए-ख़ारिजा, फ़ौजी उमूर, दाख़िली सलामती और सनअत हैं।

(1) शोबा उमूर-ए-ख़ारिजा:

शोबा उमूर-ए-ख़ारिजा इन तमाम बाहरी मुआमलात का ज़िम्मेदार होता है जिन का ताल्लुक़ रियासत-ए-ख़िलाफ़त के दूसरे रियासतों के साथ ताल्लुक़ात से होता है, ख़ाह ये ताल्लुक़ात और उमूर किसी भी नोईय्यत के हों, चाहे इसका ताल्लुक़ सियासी मुआमलात या इस में शामिल मुआमलात से हो मसलन बाहमी मुआहिदात (आपसी सन्धियाँ), अमन मुआहिदात , जंग बंदी , मुज़ाकरात (वार्तालाप) , सफ़ीरों (राजदूतों) का तक़र्रुर , क़ासिद (संदेशवाहक) और वफ़ूद (delegation/नुमाइन्दगान) भेजना यह सिफ़ारत ख़ाने (दूतावास) और कौंसिल ख़ाने खोलना। इस में वो ताल्लुक़ात भी शामिल हैं जो मआशी (आर्थिक), ज़रई (खेती बाडी), तिजारती मुआमलात, डाक की तरसील और टेली मवासलात (टेलीवीज़न) से मुताल्लिक़ हैं। शोबा उमूर-ए-ख़ारिजा इन तमाम मुआमलात को चलाता है क्योंकि ये सब रियासत-ए- ख़िलाफ़त के दूसरे रियासतों के साथ ताल्लुक़ात से मुताल्लिक़ हैं।

रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने दूसरे रियासतों और ढाँचों के साथ ख़ारिजा ताल्लुक़ात बनाये। आप صلى الله عليه وسلم ने उसमान बिन अफ्फान  (رضي الله عنه) को क़ुरैश के साथ मुज़ाकरात (बातचीत) के लिये रवाना किया, इस तरह आप صلى الله عليه وسلم ने क़ुरैश के वफ्द (नुमाइन्दों) के साथ मुज़ाकरात किये। आप صلى الله عليه وسلم ने बादशाहों को वफ़ूद भेजे और बादशाहों और सरबराहान के वफ़ूद को क़बूल किया। आप صلى الله عليه وسلم ने सुलह और अमन के मुआहिदात किये। इसी तरह आप صلى الله عليه وسلم के बाद, आप صلى الله عليه وسلم के खुलफ़ा दिगर रियासतों और ढाँचों के साथ सियासी ताल्लुक़ात क़ायम किया करते थे। वो उसे लोगों का तक़र्रुर करते थे जो उन के नायब की हैसियत से इन उमूर को अंजाम दें और उस की बुनियाद ये थी कि एक शख़्स जिस काम का मजाज़ ( मुख्तार) है, वो इस पर किसी और को अपना नुमाइंदा भी मुक़र्रर कर सकता है कि वो इस के नायब की हैसियत से इस काम को अंजाम दे।

(1) शोबा हर्ब :
शोबा हर्ब , अस्करी उमूर से मुताल्लिक़ तमाम काम अंजाम देता है, चाहे इनका ताल्लुक़ फ़ौज से हो या   पुलिस, असलेह , जंगी आलात, साज़-ओ-सामान, गोला बारूद या इसी तरह के दूसरे मुआमलात से। अस्करी तरबियत गाहैं, फ़ौजी मिशन, फ़ौज की तरबियत के लिये ज़रूरी इस्लामी और उमूमी सक़ाफत और इस के इलावा जंग और फ़ौज की तैय्यारी से मुताल्लिक़ा मुआमलात भी इसी शोबे के तहत आते हैं।

शोबा हर्ब इन तमाम उमूर को अंजाम देता है और उन की निगरानी करता है। इस शोबे के नाम से ही ज़ाहिर है कि ये जंग और क़िताल से मुताल्लिक़ है। जंग के लिये फ़ौज की ज़रूरत होती है और फ़ौज के लिये तैय्यारी और तंज़ीम की ज़रूरत होती है जिस में स्टाफ़ ,कमांडरों, आफ़िसरान और सिपाहियों की तंज़ीम शामिल है।

फ़ौज के मख़सूस झंडे और निशान होते हैं। फ़ौज की तशकील के लिये जिस्मानी और फ़न्नी तरबियत की ज़रूरत होती है जिस में वक़्त के साथ साथ टेक्नॉलोजी में जिद्दत (नवीनीकरण) और तरक़्क़ी के मुताबिक़ मुख़्तलिफ़ उन्वा के असलेह के साथ लड़ने का तरीका शामिल है। लिहाज़ा ये बात लाज़िम है कि फ़ौज को अस्करी और फ़न्नी तालीम से आरास्ता किया जाये और उसे मुख़्तलिफ़ जंगी असालीब (तरीक़ों) की तरबियत दी जाये और उसे जदीद तरीन असलेह के इस्तिमाल में महारत हासिल हो।

चूँकि ये फ़ौज एक इस्लामी फ़ौज होती है और ये रियासत-ए-ख़िलाफ़त की फ़ौज है जो कि इस्लाम की दावत को पूरी दुनिया तक लेकर जाती है लिहाज़ा ये लाज़िम है कि मुसल्लह अफ़्वाज (हथियार बन्द फौज) को इस्लामी सक़ाफत से आम तौर पर और जंग, अमन, जंग बंदी, मुआहिदात और मुसालहत (समझोतों) से मुताल्लिक़ इस्लामी सक़ाफत से खास तौर पर बहरावर किया जाये। लिहाज़ा मुख़्तलिफ़ दर्जे की तमाम अस्करी अकैडमीयां और अस्करी मिशन शोबा हर्ब के तहत आते हैं।

मुसल्लह अफ़्वाज का एक हिस्सा दाख़िली अमन-ओ-सलामती का ज़िम्मेदार होता है जिसे   पुलिस कहते हैं। मुसल्लह अफ़्वाज और पुलिस दोनों के पास ऐसे हथियार, आलात और रसद का होना ज़रूरी है जो उन के फ़राइज़ की अंजाम देही के लिये ज़रूरी हों।
यही वजह है कि ये तमाम उमूर शोबा हर्ब के तहत आते हैं।

(3) शोबा दाख़िली अमन-ओ-सलामती:

दाख़िली अमन-ओ-सलामती का शोबा हर उस चीज़ का ज़िम्मेदार होता है जिस का ताल्लुक़ अम्न व सलामती से है। ये मुसल्लह ताक़त के ज़रीए मुल्क के अंदर अम्न व सलामती को बरक़रार रखने का काम अंजाम देता है। पुलिस वो बुनियादी इदारा है जो रियासत के अंदर अम्न व सलामती क़ायम करता है। शोबा दाख़िली अम्न व सलामती ज़रूरत पड़ने पर पुलिस को इस्तिमाल करता है और पुलिस इस के हुक्म पर फ़ौरी अमल करती है। अगर पुलिस को दूसरे मुसल्लह अफ़्वाज की ज़रूरत हो तो वो ख़लीफ़ा से इस बात की दरख़ास्त करती है और ख़लीफ़ा फ़ौज को ये हुक्म दे सकता है कि वो शाबा-ए-दाख़िली अम्न व सलामती की मदद करे और दाख़िली अमन क़ायम करने के लिये उसे फ़ौजी क़ुव्वत मुहय्या करे, या ख़लीफ़ा ज़रूरत के मुताबिक़ कोई भी हुक्म सादर कर सकता है। वो शोबा अम्न व सलामती की तरफ़ से इसी दरख़ास्त को मुस्तर्द (निरस्त) भी कर सकता है और ये कह सकता है कि पुलिस बज़ात-ए-ख़ुद इस मुआमले को निबटाए। शोबा अम्न व सलामती वो इदारा है जो रियासत की सलामती को बरक़रार रखने का ज़िम्मेदार होता है। वो अमल जो अंदरूनी सलामती को नुक़्सान पहूँचा सकते हैं इन में इस्लाम से इर्तिदाद, रियासत से बग़ावत जो उपद्रव्य की शक्ल में ज़ाहिर होती है, सबोताज़ के अमल जैसा कि हड़तालें, रियासत के अहम मराकज़ (केन्द्रों) पर क़ब्ज़ा , इन्फ़िरादी (निजी) , अवामी (सार्वजनिक) और रियासती इमलाक (राजकीय संपत्ती) को तबाह करने की कोशिश शामिल हैं।

रियासत के ख़िलाफ़ बग़ावत, रियासत के ख़िलाफ़ मुसल्लह लड़ाई की शक्ल में भी हो सकती है। दूसरे आमाल जो दाख़िली सलामती को तबाह करते हैं, इन में हिराबा यानी शहरों को आपस में मिलाने वाले रास्तों पर डाके, और लोगों की दौलत की लूट मार और उन की ज़िंदगी को ख़तरे में डालना वगैरह शामिल हैं।

इसके अलावा इस में लोगों की संपत्ती की चोरी करना, उन्हें लूटना, डाके डालना, ग़बन करना, लोगों पर जिस्मानी हमला करना और उन्हें क़त्ल करना, और झूट , तोहमत और ज़िना बिल जब्र के ज़रीए लोगों की इज़्ज़त पर हमला करना भी शामिल हैं। ये वो चंद आमाल हैं जो कि दाख़िली अमन व सलामती के लिये ख़तरा हो सकते हैं।

शोबा दाख़िली अम्न-ओ-सलामती इन तमाम आमाल से रियासत और लोगों का तहफ़्फ़ुज़ करता है। पस जिसे मुर्तद क़रार दिया जाये और तौबा ना करने की सूरत में क़त्ल का हुक्म जारी किया जाये तो ये महिकमा उस शख़्स से निबटता है और क़त्ल के हुक्म को नाफ़िज़ करता है। अगर एक गिरोह मुर्तद हो जाये तो उसे इस्लाम की तरफ़ लौट आने के लिये कहा जाएगा और रियासत उन्हें फौरन सज़ा नहीं देगी। लेकिन अगर वो अपने इर्तिदाद पर क़ायम रहे तो फिर उन के ख़िलाफ़ लड़ा जाएगा। अगर इन लोगों की तादाद कम हो और पुलिस की तादाद उन के ख़िलाफ़ काफ़ी हो तो वो उन के ख़िलाफ़ लड़ेगी। लेकिन अगर वो बड़ी तादाद में हों और पुलिस की क़ुव्वत उन पर क़ाबू पाने के लिये काफ़ी ना हो तो फिर पुलिस पर लाज़िम है कि वो ख़लीफ़ा से अस्करी कुमक (special task force) तलब करे। और अगर ये अस्करी कुमक इस बात के लिये काफ़ी ना हो तो फिर वो ख़लीफ़ा से फ़ौज को बुलाने की दरख़ास्त करेंगे। ये तो मुर्तदीन के मुताल्लिक़ था ।

जहां तक उन लोगों का ताल्लुक़ है जो रियासत के ख़िलाफ़ बग़ावत कर दें और हथियारों का इस्तिमाल ना करें और अपने आप को तोड़ फोड़ , हड़तालों , मुज़ाहिरों (विरोध प्रदर्शन) और मुल्क के अहम मराकज़ पर क़ब्ज़े , लोगों, अवाम और रियासत की इमलाक (संपत्ती) को नुक़्सान पहुंचाने और तबाह करने तक सीमित रखें तो फिर शाबा-ए-दाख़िली अम्न-ओ-सलामती तख़रीब कारी के कामों से रोकने के लिये पुलिस फ़ोर्स के इस्तिमाल पर भरोसा करेगा। अगर पुलिस इस उपद्रव्यों को रोकने पर क़ुदरत ना रखती हो तो फिर वो ख़लीफ़ा से कह सकती है कि तबाही और सुबूताज़ के अमल को रोकने के लिये उन्हें अस्करी क़ुव्वत मुहय्या की जाये।

ताहम अगर रियासत के ख़िलाफ़ बग़ावत करने वाले अफ़राद हथियारों का इस्तिमाल करें  और अपने आप को किसी इलाक़े में मुस्तहकम (शाषित) कर लें और ऐसी क़ुव्वत बन जाएं कि दाख़िली अम्न-ओ-सलामती के शोबे के लिये सिर्फ़ पुलिस फ़ोर्स के ज़रीए उन से निबटना मुम्किन ना हो, तो इस सूरत में उन पर लाज़िम है कि वो ख़लीफ़ा से बागियों का मुक़ाबला करने के लिये ज़रूरत के मुताबिक़ फ़ौजी क़ुव्वत मुहय्या करने का मुतालिबा (demand) करें। शोबा दाख़िली अम्न-ओ-सलामती पर लाज़िम है कि लड़ाई शुरू करने से पहले बागियों से पूछे की क्या उन्हें रियासत के ख़िलाफ़ कोई शिकायात हैं और वह उन्हें इताअत और जमात की तरफ़ लौट आने और हथियार डाल देने के लिये कहे। अगर बाग़ी सही रद्द-ए-अमल ज़ाहिर करें तो ख़िलाफ़त उन से लड़ने से बाज़ रहेगी। अगर वो उसे रद्द कर दें और बग़ावत पुर इसरार करें तो फिर रियासत पर लाज़िम है कि वो उन के ख़िलाफ़ लड़े ताकि उन की क़ुव्वत को तोड़ा जाये और उन्हें सुधारा जाये ना कि उन्हें नेस्त-ओ-नाबूद किया जाये और उन का मुकम्मल ख़ात्मा किया जाये। रियासत उन के ख़िलाफ़ इसलिये लड़ती है ताकि वो इताअत की तरफ़ लौट आएं , अपनी बग़ावत को तर्क कर दें और हथियार फेंक दें। इमाम अली  (رضي الله عنه) ने जिस तरह ख़वारिज के ख़िलाफ़ लड़ाई की , वो उस की मिसाल है । आप ने पहले इन्हें हथियार डालने के लिये कहा और फ़रमाया कि अगर वो बाग़ियाना तर्ज़-ए-अमल छोड़ देंगे तो वो उन के ख़िलाफ़ तलवार नहीं उठाएंगे लेकिन अगर वो बग़ावत पर क़ायम रहे तो वो उन के ख़िलाफ़ तब तक लड़ेंगे जब तक कि वो इताअत की तरफ़ ना लौट आएं, बग़ावत को तर्क कर दें और हथियार ना डाल दें।

जहां तक लड़ाई करने वालों का ताल्लुक़ है जैसा कि शहरों को मिलाने वाली शाहराहों (मुख्य मार्ग) के डाकू, जो लोगों पर हमला करते हैं, रास्ता रोक कर उनके सामान छीनते हैं और लोगों को क़त्ल करते हैं, तो शोबा दाख़िली अम्न-ओ-सलामती पुलिस के दस्ते को रवाना करेगा जो इन का पीछा करे और उन पर सज़ा लागू करे , जो ये है कि उन्हें क़त्ल कर के लटका दिया जाये या क़त्ल कर दिया जाये या उन के मुख़ालिफ़ अतराफ़ (विपरीत दिशाओं) के हाथ और टांग को काट दिया जाये या उन्हें इलाक़ा बदर (तडीपार) कर दिया जाये, जैसा कि इस आयत में बयान किया गया है:

إِنَّمَا جَزَٲٓؤُاْ ٱلَّذِينَ يُحَارِبُونَ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُ ۥ وَيَسۡعَوۡنَ فِى ٱلۡأَرۡضِ فَسَادًا أَن يُقَتَّلُوٓاْ أَوۡ يُصَلَّبُوٓاْ أَوۡ تُقَطَّعَ أَيۡدِيهِمۡ وَأَرۡجُلُهُم مِّنۡ خِلَـٰفٍ أَوۡ يُنفَوۡاْ مِنَ ٱلۡأَرۡضِ
जो अल्लाह और उसके रसूल से लड़ें और ज़मीन में फ़साद करते फिरें उन की सज़ा यही है कि वो क़त्ल कर दिये जाएं या सूली चढ़ा दिये जाएं या मुख़ालिफ़ सिम्त से उन के हाथ पांव काट दीए जाएं या उन्हें जिलावतन कर दिया जाये
(अलमाइदा:33)

उन लोगों के ख़िलाफ़ क़िताल, बागियों के ख़िलाफ़ क़िताल की तरह नहीं जो रियासत के ख़िलाफ़ हथियार उठाते हैं। बागियों के ख़िलाफ़ क़िताल का मक़सद ये है कि उनका सुधार किया जाये जबकि शाहराहों के डाकूओं के ख़िलाफ़ लड़ना ये है कि उन्हें क़त्ल कर दिया जाये और (इबरत के लिये) लटका दिया जाये। लिहाज़ा हर तरफ़ से उन के ख़िलाफ़ क़िताल किया जाएगा और उन के साथ वही अमल किया जाएगा जो कि आयत में वारिद हुआ। जो लोगों को क़त्ल करता है और उन का माल छीनता है उसे क़त्ल कर के लटकाया जाएगा और जिस ने लोगों को क़त्ल किया लेकिन इस ने लोगों का माल नहीं छीना तो उसे क़त्ल किया जाएगा लेकिन लटकाया नहीं जाएगा, जो लोगों को क़त्ल किये बगैर इन का माल-ओ-अस्बाब लूटेगा इस के मुख़ालिफ़ अतराफ़ का हाथ और टांग काट दी जाएगी और उसे क़त्ल नहीं किया जाएगा और जो हथियार उठाए और लोगों को दहश्त ज़दा करे लेकिन लोगों को क़त्ल ना करे और ना ही उनका माल-ओ-अस्बाब लूटे, तो उसे इलाक़ा बदर कर दिया जाएगा।

दाख़िली अम्न-ओ-सलामती का शोबा पुलिस को रियासत के अंदर अम्न-ओ-अमान बरक़रार रखने तक सीमित रखता है। वो पुलिस के अलावा क़ुव्वत सिर्फ़ उस वक़्त इस्तिमाल करता है जब पुलिस दाख़िली अम्न-ओ-सलामती क़ायम रखने में लाचार हो। उसी सूरत में वो ख़लीफ़ा से दरख़ास्त करता है कि वो ज़रूरत के मुताबिक़ अस्करी क़ुव्वत यह फ़ौज मुहय्या करे।

जहां तक चोरी, ख़ुर्द-बुर्द , लूट मार के ज़रीए लोगों के माल पर क़ब्ज़ा करने या लोगों पर हमला करने, ज़ख़्मी करने या क़त्ल के ज़रीए उन की जानों के ख़िलाफ़ हमला करने या फिर झूट, बोहतान और ज़िना के ज़रीए लोगों की इज़्ज़तों को पामाल करने का ताल्लुक़ है तो शोबा दाख़िली अम्न-ओ-सलामती अपनी होशियारी ,गशत, दस्ते और ऐसे काम अंजाम देने वाले लोगों के ख़िलाफ़ क़ाज़ी के फैसले के निफाज़ के ज़रीए , इन वाक़ियात की रोकथाम करता है। इस तमाम के लिये सिर्फ़ पुलिस की नफ़री (दस्ता) ही काफ़ी होती है।

(4) शोबा सनअत:

शोबा सनअत (उद्योग विभाग), फैक्ट्रियों और कारख़ानों से मुताल्लिक़ तमाम मुआमलात का इंतिज़ाम करता है, चाहे इसका ताल्लुक़ भारी सनअत से हो जैसा कि मशीनें, इंजन,गाड़ियां, साज़-ओ-सामान, बिजली के आलात (उपकरण) वगैरह  या इन का ताल्लुक़ हल्की इंडस्ट्री से हो और चाहे ये फैक्ट्रियां सार्वजनिक संपत्ती में से हों या फिर वो निजी संपत्ती वाली ऐसी फैक्ट्रियां हों जिन का ताल्लुक़ अस्करी सनअत (फौजी उद्योग) से होता है। ये सब जंगी पॉलीसी पर बनाईं जाएंगी।
जिहाद व क़िताल के लिये फ़ौज की ज़रूरत होती है और फ़ौज को लड़ने के लिये हथियार की ज़रूरत होती है। और बहतरीन क़िस्म के हथियार और इनकी भरपूर खेप के लिये ज़रूरी है कि रियासत में आला दर्जे की सनअत मौजूद हो। पस फ़ौजी सनअत का जिहाद के साथ गहरा ताल्लुक़ है और ये इस से सीधे तौर से जुडा है।

इस बात को यक़ीनी बनाने के लिये कि इस्लामी रियासत के मुआमलात उसके अपने हाथ में हों और इस पर दूसरे देशों का प्रभाव ना हो,रियासत के लिये लाज़िमी है कि वो ख़ुद हथियारों का निर्माण करे और उसे बेहतर से बेहतर बनाए। ये बात रियासत को ख़ुदमुख़तार बनाएगी और वो उस वक़्त सब से नऐ और आला तरीन हथियारों की मालिक होगी, इस बात से क़ता नज़र कि ये हथियार कितने ही नऐ और बहतर क्यों ना हो । और इस्लामी रियासत के पास वो हथियार मौजूद होगा जिस के ज़रीए वो हर ज़ाहिरी और छुपे हुए दुश्मन पर अपनी धाक बिठा सकेगी। जैसा कि अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इरशाद फ़रमाया:

وَأَعِدُّواْ لَهُم مَّا ٱسۡتَطَعۡتُم مِّن قُوَّةٍ۬ وَمِن رِّبَاطِ ٱلۡخَيۡلِ تُرۡهِبُونَ بِهِۦ عَدُوَّ ٱللَّهِ وَعَدُوَّڪُمۡ وَءَاخَرِينَ مِن دُونِهِمۡ لَا تَعۡلَمُونَهُمُ ٱللَّهُ يَعۡلَمُهُمۡ
और तुम अपनी मक़दूर भर क़ुव्वत और घोड़ों को उन के लिये तैय्यार रखो, ताकि इस से तुम अल्लाह के और अपने दुश्मनों को ख़ौफ़ज़दा करो और इस के सिवा उन को भी जिन्हें तुम नहीं जानते मगर अल्लाह जानता है
(अलअनफाल:60)

यों रियासत अपने इख्तियार और मर्ज़ी के मुताबिक़ ऐसा असलाह (हथियार)  तय्यार करेगी जिस की उसे ज़रूरत हो और इस में मुसलसल बेहतरी लाएगी ताकि उसके पास आला तरीन और जदीद तरीन (आधुनिक) हथियार हो, ताकि वो तमाम ज़ाहिरी और छुपे हुऐ दुश्मनों पर रोब-ओ-दहश्त क़ायम रख सके। चुनांचे ये रियासत पर फ़र्ज़ है कि वो बज़ात-ए-ख़ुद असलाह साज़ी (हथियार निर्माण) करे और इसके लिये ये जायज़ नहीं कि वो असलेह के लिये दूसरी रियासतों पर निर्भर रहे क्योंकि ये बात इन रियासतों को ये मौक़ा फ़राहम करेगी वो इस्लामी रियासत के इरादे , उस की असलाह साज़ी और जिहाद को कंट्रोल करें।
वो रियासतें जो दूसरी रियासतों को असलाह बैचती हैं वो आसानी से हर क़िस्म का असलाह  उपलब्ध करने पर तय्यार नहीं होतीं ख़ास तौर पर जब ये असलाह जदीद तरीन (आधुनिक) हो। नीज़ असलाह की फ़रोख्त (बैचान) के साथ कुछ शराइत मुंसलिक (जुडी) होती हैं जिस में इस असलेह का इस्तिमाल भी शामिल है और ये असलाह एक ख़ास तादाद और मिक़दार में फ़रोख्त किया जाता है जिस का ताय्युन खरीदने वाले मुल्क की बजाय असलाह बेचने वाली रियासतें ख़ुद करती हैं। जिस के नतीजे में असलाह बेचने वाली रियासतों को असलाह खरीदने वाली रियासत पर इख्तियार और असर ओ रसूख़ (प्रभुत्व) हासिल हो जाता है और वो असलाह खरीदने वाली रियासत पर अपनी मर्ज़ी ठूंसने के काबिल हो जाती हैं, खासतौर पर उस वक़्त जब ये रियासत हालत-ए- जंग में हो । जंग की सूरत-ए-हाल में इस रियासत को ज्यादा हथियार , फ़ाज़िल (अतिरिक्त) पुर्ज़ों  और गोला बारूद की ज़रूरत होती है जिस के नतीजे में इस रियासत की असलाह बेचने वाली रियासत पर और निर्भरता बढ़ जाती है और वो इस के मुतालिबात (माँगो) के सामने झुक जाती है। यों असलाह बेचने वाली रियासत को खरीदने वाली रियासत और इस के इरादे पर कंट्रोल हासिल हो जाता है खासतौर पर हालत-ए-जंग में और उस वक़्त जब उसे हथियार और अतिरिक्त पुर्ज़ों की सख्त ज़रूरत होती है। पस ऐसी रियासत ख़ुद को और अपने इरादे और वजूद को असलाह फ़रोख्त करने वाली रियासत के हाथों गिरवी रख देती है।

लिहाज़ा इन तमाम वजूहात की बिना पर रियासत पर लाज़िम है कि वो तमाम तर असलाह साज़ी ख़ुद करे और हर वो चीज़ बज़ात-ए-ख़ुद तय्यार करे जो उसे जंगी मशीनों और उन के फ़ाज़िल पुर्ज़ों की तैय्यारी के लिये दरकार हो। ये उस वक़्त तक मुम्किन नहीं जब तक कि रियासत के पास भारी उद्योग मौजूद ना हो और वो इसी फैक्ट्रियां ना लगाए जो भारी मशीनरी तय्यार करती हों ख़ाह ये मशीनरी फ़ौजी इस्तिमाल से मुताल्लिक़ हो या इस के इलावा हो। चुनांचे ये ज़रूरी है कि रियासत के पास हर किस्म का एटमी असलाह , राकेट, सैटेलाइट , हवाई जहाज़, टैंक, ख़लाई जहाज़ (पनडुब्बी), मार्टर, समुन्द्री जहाज़ और बकतरबंद गाड़ियां तय्यार करने और हर तरह के हल्के और भारी असलाह बनाने की फैक्ट्रियां मौजूद हों। ये भी ज़रूरी है कि रियासत ऐसी फैक्ट्रियों की हामिल हो जो मशीनें, मार्टर, फ़ौजी साज़-ओ-सामान और इलेक्ट्रॉनिक्स का सामान तय्यार करती हों और वो फैक्ट्रियां जिन का ताल्लुक़ अवामी मिल्कियत (सार्वजनिक संपत्ती) से है नीज़ हल्के साज़-ओ-सामान की वो फैक्ट्रियां भी जिन का ताल्लुक़ अस्करी और फ़ौजी सनअत के साथ हो। इन तमाम का ताल्लुक़ जिहाद की तैय्यारी की ज़िम्मेदारी के साथ है जो अल्लाह (سبحانه وتعال) ने मुसलमानों पर आइद की है , इरशाद ए बारी है:

وَأَعِدُّواْ لَهُم مَّا ٱسۡتَطَعۡتُم مِّن قُوَّةٍ
और उन के ख़िलाफ़ अपनी मक़दूर भर क़ुव्वत तैय्यार रखो
(अल अनफ़ाल:60)


चूँकि इस्लामी रियासत इस्लाम के पैग़ाम को दावत और जिहाद के ज़रीए फैलाती है लिहाज़ा ये ऐसी रियासत होनी चाहिये जो हर वक़्त जिहाद के लिये तैय्यार हो। जिस के लिये हल्की और भारी सनअत (उद्योग) का जंग की पॉलीसी पर बनना ज़रूरी है। ताकि किसी भी वक़्त अगर इन फैक्ट्रियों को जंगी मक़ासिद के मुताबिक़ तब्दील करने की ज़रूरत पेश आए तो ऐसा करना आसान हो। लिहाज़ा रियासत-ए-ख़िलाफ़त में तमाम इंडस्ट्री और इन तमाम फैक्ट्रियों को जंग की पॉलीसी पर क़ायम किया जाना चाहिये चाहे वो भारी सामान तैय्यार करती हों या हल्का सामान बनाती हों, ताकि रियासत को जब भी ज़रूरत दरपेश हो तो उन की पैदावार को बाआसानी अस्करी पैदावार में तब्दील किया जा सके।
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