अल्लाह का वजूद की अक़्ली दलील

 “क्या ये बग़ैर किसी (पैदा करने वाले) के खुदबखुद पैदा हो गऐ है? या ये खुद पैदा करने वाले है? ‘या क्या इन्होने ही आसमानों और ज़मीन को पैदा किया है, बल्कि ये यकीन न करने वाले लोग है” सूर: अत्तूर, आयत (35-36)

इस्लामी अक़ीदा (आस्था) और इस्लामी जीवन व्यवस्था की एक अक़्ली बुनियाद (बौद्धिक आधार) है, इसलिए इस्लाम न तो एक मज़हब (धर्म) है और न ही कुछ मूल्यों और रस्मो- रिवाजो का मिश्रण जो के अन्धे यक़ीन से फूट रहा हो। बल्के इस्लाम की एक फिक्री बुनयाद (वैचारिक आधार) है, जिससे ज़िन्दगी की जामेअ (विस्तृत) व्यवस्था फूटती है। इस्लाम के इस मख्सूस निजाम (व्यवस्था) को समझने के लिए लाज़मी है के इस्लाम के अक़ीदे (आस्था) को समझा जाये, जिसकी बुनियाद अल्लाह तआला के वजूद पर ईमान है। आज अगर आप पश्चिमी समाज में ये कहे के इस कायनात का एक ख़ालिक़ (रचयता) है, तो आपको शायद नाकारात्मक राय का सामना करना पड़े। मगरिबी (पश्चिमी) समाज में ये एक रूझान बन चुका है के इस सवाल से किनाराकशी इख्तियार की जाये के आया इस कायनात का कोई ख़ालिक़ है या नहीं। हक़िक़त में माजी (भूत) में भी ये सवाल नहीं किया जा सकता था, जब लोगो को या तो ख़ालिक़ पर अन्धा ईमान लाना होता था या फिर बादशाहों और पादरियो के ग़ुस्से का निशाना बनना पड़ता था। इसलिए ये बात कोई हैरान करने वाली नहीं है के आज भी लोगो के रवैय्ये पर इस ज़ुल्म का असर है और वो ख़ालिक़ के वजूद को एक खयाल (assumption) जानते है और कभी भी उन्होंने इस खयाल को अक़्ली (बौद्धिक) पैमानो पर परखने की कशिश नहीं की। 

लेकिन आईये ख़ालिक़ के वजूद को तसलीम करने वालो, और उसकी मुखालिफिन (आलोचको) के दलाईल को अक़्ली पैमानो पर परखते है। एक आम दलील जो बहुत से ईसाइ और दूसरे मज़ाहिब पेश करते है वो ये है के खुदा वो है जो प्यार, अमन और रहम जैसी सिफात (विशेषताओं/attribute) का मालिक है, जो के असल में ऐसी सिफात है जिसकी तरफ इन्सान झुकाव रखता है। खुदा की यह खुसूसियत इस मफरूज़ा (assumption/धारणा) की बुनियाद पर ली जाती है के खुदा की इन्सान के साथ तुलना की जा सकती है। इस तरह पुराने ज़माने के यूनानियो के अदीब (साहित्यकार) हर खुदा को इन्सानी खुसुसियात (विशेषताओं/गुण/attribute) से जोडते थे, इसके अलावा कुछ दूसरे समाजों में खुदा को समझने के लिये इन्सानी सिफात (विशेषताओ) से जोडा जाता है।
सवाल ये पैदा होता है के आया एक लमहदूद (असीमित) ख़ालिक़ की विशेषताओं/गुणों और हस्ती का एक महदूद (सीमित) इन्सानी अक़्ल समझ सकती या अपने समझ के दायरे मे ला सकती है या नहीं। अक़्ल इस्तेमाल कर के इन्सान यह तो जान सकता है के इस कायनात (सृष्टी) का एक ख़ालिक़ है, लेकिन इस ख़ालिक़ के गुणों का इदराक (समझ) इन्सान की बुद्धी से परे है। इसलिए ये कहना ग़लत होगा के दुनिया में सूखा और ज़लज़लों में लाखो लोगो का मारा जाना ख़ालिक़ की रहीम और मुंसिफ (न्यायआधारित) होने के गुण (सिफ्फत) से टकराव है। ईसाईयित और दूसरे धर्म का ख़ालिक़ के बारे में ये तसव्वुर (अवधारणा) न सिर्फ हक़ीक़त से टकराता है बल्के इसकी बुनयाद को भी रद्द करता है ।

साईंसी तरीक़ेक़ार (वैज्ञानिक प्रणाली):

जहां तक इन सांइसी सिद्धांतों का ताल्लुक़ है जो ख़ालिक़ के वजूद (रचयता के अस्तित्व) के इन्कार से ताल्लुक़ रखते है, उनके दुरूस्त होने या न होने को समझने के लिए लाज़मी है के उनके बुनयादी दलील या प्रेमाईज़ (premise/तर्क का आधार) को समझा जाये। सांइस तबई (भौतिक) दुनिया में जारी प्रक्रियाओं के अध्ययन से समबन्धित ज्ञान को अपने दायरे मे लेती है। इसमें ये तो देखा जाता है के कोई अमल (कार्य) किस तरह हो रहा है, लेकिन ये नहीं पूछा जाता क्यों हो रहा है। इन सांइसदानों (वैज्ञानिकों) को इस बात से तो मतलब नहीं के गुर्त्वाकरषण शक्ति (gravitational force) क्यों मौजूद है बल्के वो यह देखता है कि ये गुरूत्वार्कषण शक्ति कायनात में मौजूद तमाम चीज़ों पर किस तरह प्रभाव डालती है। साईंसी तरीक़ेक़ार (वैज्ञानिक प्रणाली) भौतिक अस्तित्व (physical existance) के बारे मे नियम बनाने तक सीमित है. इसमे खास तत्वों का खास हालात के अन्दर मुशाहिदा (निरिक्षण) किया जाता है और हांसिल होने वाले नताइज से नये क़वानीन (सिद्धांत) बनाये जाते है, या फिर पुराने क़वानीन में परिवर्तन या तब्दीली या उनको दोबारा बनाया जाता है. किसी भी शय या वजूद को सांइसी प्रणाली के मुताबिक परखने के लिए निम्नलिखित शराईत का पूरा होना जरूरी है:-

1:-उसकी अस्तित्व (वजूद) का महसूस होना (tangible) होना।
2:-उसकी ज़ात (वजूद) का सीमित होना।
3:-प्राकृतिक नियमो का उसकी ज़ात (अस्तित्व) पर लागू होना।
और इस तरह यह अनिवार्य है के ये ज़ात (अस्तित्व) सीमित हो और प्राकृतिक नियमों पर निर्भर करती हो, और इस तरह से मन्तकी (तार्क के आधार पर) पर ये कहना पड़ेगा के ख़ालिक़ की ज़ात महदूद (सीमित) और आजिज़ (निर्भर) है। लेकिन सीमित और निर्भर अस्तित्व दूसरे का मोहताज होगा और ऐसी ज़ात (अस्तित्व) ख़ालिक़ या रचयता नहीं हो सकता क्योंकि वोह खुद किसी और पर निर्भर है.
इसके अलावा कानून, साहित्य, शब्दकोश, मनोविज्ञान यानी साईकोलोजी और तारीख यानी इतिहास जैसे दूसरे विषयों का वैज्ञानिक प्रणाली के द्वारा अध्ययन कारगर साबित नहीं हो सकता यानी साईंसी तरीके को इन विषयों को समझने के लिये इस्तेमाल नहीं किया जा सकता क्यों कि इन विषयों मे लेबोरेटरी मे तजुर्बात/प्रयोग करके जांचा नहीं जा सकता।
पता चला के साइंसी तरीक़ेक़ार एक खास मैदान के अन्दर लागू होता है, और इस मैदान से बाहर इसका इस्तेमाल ग़लत नताइज तक ले जाता है। इस तरह साइंसी तरीक़ेक़ार को उसकी हदूद (सीमा) से बाहर इस्तेमाल करके वैज्ञानिक भी इस शिकंजे के शिकार हो जाते है, जिस तरह मज़हब के मानने वाले, के वो रचयता (खालिक़/creator) के लिए सीमित और निर्भरता जैसी इन्सानी गुणों पहले ही से तय कर देते है।
मंतक़ (Logic/तर्क):
पुराने यूनानी विचारको ने मंतक़ (तर्क/logic) का इस्तेमाल करते हुए ख़ालिक़ (रचियता) के वजूद पर बहस की। मंतक़ खुद अपने आप मे एक वैचारिक प्रणाली (फिक्री तरीक़ेक़ार) नहीं है बल्के ये एक ज्ञान हासिल करने की एक शैली (style) है जिसका आधार वैचारिक प्रणाली है। इसकी वजह ये है कि मंतक़ी यान तार्किक ज्ञान एक विचार को दूसरे विचार के आधार या मदद से बनाने के नतीजे में हासिल होती है. मंतक़ की एक मिसाल: काला तख्ता लकडी का होता है, लकड़ी जलती है, चुनाचे काला तख्ता भी जलता है।
मंतक़ी ज्ञान के दुरूस्त होने की निर्भरता इस बात पर है के वो उन विचारों पर, जिस पर उसे बनाया जा रहा है, दुरूस्त हो और उनके आपस में मिलाने में गलती न की गई हो। मिसाल के तौर पर: अरबी जबान इन्सान की बनाई हुई है, कुरआन अरबी में है, इसलिए कुरआन भी इन्सान ने बनाया है। यहां मंतक़ के इस्तेमाल का नतीजा ग़लत निकला है। मंतक़ी नताईज में एसी छुपी हुई खामिया है जो के, जिन विचारों पर उन्हें आधारित किया जा रहा है, वोह विचारों की खराबियाँ और खोट उन नताईज मे नजर नहीं आती। मंतक़ बहरहाल दलालों की आपस की बनावट को देखने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, यानी की वो आपस में एक दूसरे से तालमेल मे है या नहीं। और ये सोचने का एक ढंग (शैली) है ना के फिक्री तरीक़ेक़ार (वैचारिक प्रणाली)।
ख़ालिक़ के वजूद को साबित या उसके रद्द के लिए हमे विजदान (intuition/अंतर्ज्ञान), सांइसी प्रणाली और मंतक़ की सीमितता से आगे जाकर फिक्री तरीक़ेक़ार (intellectual method/बौद्धिक प्रणाली) से देखना होगा। क्योंकि ये फिक्री तरीक़ेक़ार (बौद्धिक प्रणाली) ही है जहां से कला (आर्ट), मार्फत (ज्ञान) फलसफा (फिलोसोफी), कानून, अदब (साहित्य) और हर किस्म के दूसरे ज्ञान के स्त्रोत फूट रहे है।
फिक्री तरीक़ेक़ार (intellectual method/बौद्धिक प्रणाली)
फिक्री तरीक़ेक़ार को समझने में कम्यूनिस्ट वैचारकों की तहकीक काफी संजीदा थी, लेकिन उनकी गलती फिक्री तरीके को समझने से पहले ही ख़ालिक़ के वजूद का इन्कार कर देना था। और यही इन्कार उनके फिक्र (विचार) को ग़लत समझने की वजह बना। उनकी खोज का निचोड़ ये है के विचार दिमाग पर पदार्थ (matter) का अक्स (प्रतिबिम्ब) होते है। इसका मतलब ये है के दिमाग़ पर का पदार्थ की अनुभूती (ज्ञान/ बोध/ समझ) का तसव्वुर ही वास्तविकता (हक़ीक़त) है और इसी से कोई शख्स किसी चीज़ की अनुभूती (महसूस) करता है। अगर ये खयाल सही है तो उसे हक़ीक़त (वास्तविकता) के मुताबिक होना चाहिए और अगर ये हक़ीक़त के मुताबिक नहीं है तो ज़ाहिर के ये ग़लत है। कम्यूनिष्टों फिक्र (thought/विचार) की ये तारीफ दो तरह से ग़लत है। पहली बात तो ये के दिमाग पर पदार्थ को कोई अक्स (प्रतिबिम्ब) ही नहीं पड़ता। क्योंके मिसाल के तौर पर जब किसी चीज़ पर रोशनी का अक्स पड़ता है, तो यह उससे ज़ाहीर होता है जैसे दीवार पर लेम्प की रोशनी का अक्स वगैराह। ऐसा कुछ किसी पदार्थ में नहीं होता, ना तो दिमाग का अक्स पादार्थ पर होता है और ना पदार्थ का अक्स दिमाग पर। बल्के हमारे हवास (इन्द्रियाँ/senses) में से किसी इन्द्री के जरिए उसे महसूस किया जाता है, चुनांचे ये अक्स नहीं बल्के हवास के जरिए इसका ऐसास है, ये किसी चीज़ को देखने, छूने, सूंगने, चखने या सुनने से साबित होता है। जहां तक आंखो से देखने की बात है यह एक बहस का विषय है, प्रतिबिम्ब (reflection) नहीं ये तो असल में अपवर्तन (refraction/ प्रकाश की किरणों का एक तरफ मुडना) है। रोशनी आंख में अपवर्तित (refract) होने से आंख के पर्दे यानी रेटिना पर किसी चीज़ की छवि बनती है, ये बाहर प्रतिबिम्बित (reflect) नहीं होती। यह एसास/स्पर्श होने की प्रकिया है ना के प्रतिबिम्बित होने का। इससे 
मालूम हुआ के कम्यूनिष्टों ने फिक्र (सोंचने के तरीके) की जो परिभाषा बताई वो ग़लत है।
दूसरे दृष्टिकोण से भी देखे तो किसी चीज़ के सिर्फ एहसास से उस चीज़ को समझा नहीं जा सकता। उससे तो सिर्फ एहसास पैदा होता है, इससे फर्क नहीं पड़ता के एहसास कितनी किस्मों का है। किसी चीज़ के बारे में कोई फिक्र (आईडिया) दिमाग में आने से पहले उस चीज़ के बारे में पहले से कुछ मालूमात होना ज़रूरी है, इससे ही उस चीज़ की हक़ीक़त जाहिर होगी। पुरानी मालूमात के बिना (previous information) किसी चीज़ के बारे में बोध (ज्ञान/अनुभूती) नहीं किया जा सकता, वो तो सिर्फ एहसास होगा इसके अलावा कुछ नहीं. असल में कोई शख्स किसी वास्तविक चीज़ के बारे में सिर्फ महसूस कर सकता है। महसूस करने का मतलब ये नहीं है के इस चीज़ का उस चीज़ का उसे ज्ञान हो गया, क्योंके उस चीज़ के ताल्लुक़ से अपनी स्थिती कोई तय नहीं कर सकता सिवाये इसके के जब वह इसका ताल्लुक़ अपनी जिबिल्लत (मूलप्रवृति/instinctive need) और शरीरिक ज़रूरियात (organic needs) से न जोड़े या जब तक वो इसका सम्बन्ध हक़ीक़त (वास्तविकता) की बदली हुई शक्ल से न कायम कर लें। इसके अलावा किसी भी चीज़ की हक़ीक़त को जानने के लिए के उसके साथ उसकी स्थिती क्या होगी, वो मालूम नहीं कर सकता एक से ज्यादा या मुख्तलिफ एहसासो के ज़रिए किसी चीज़ को जांचने परखने पर ही कोई शख्स समझ सकता है के फलाँ चीज़ खाने की है या नहीं, उसे इस्तेमाल करने से तकलीफ होगी या मज़ा आयेगा या ये के उसकी शक्ल में कोई तब्दीली वाक्ये हुई हो। ये सब हेवानात (जानवरों) के लिए भी मुमकिन है जिस तरह के इन्सान के लिए मुमकिन है, इसमें कोई भी चीज़ इदराक (बोध/ज्ञान) या फिक्र (सोंच/thought) नहीं कहलायेगी। बल्के ये सिर्फ ऐसास (feeling) होता है और कुछ नहीं। जब तक इसका ताल्लुक़ जिबिल्लत (मूल प्रवृति) से ना जोड़ा जाये, मसलन चट्टान का एक टुकड़ा, चाहे कितनी ही दफा उसको महसूस किया जाये उसकी बनावट की असल समझ में नहीं आयेगी (यानी वोह किस चीज़ से बनी है), वो उसकी बदली हुई शक्ल है जो समझी जाती है। ऐहसास के साथ इसके बारे में जब मालूमात (ज्ञान) दिया जायेगा, उसी वक्त उस चीज़ के बारे में फहम या या समझ पैदा होगी।
इस की सादा सी मिसाल इजादात (अविष्कार) की है। अविष्कार तजुर्बो यानी प्रयोग से होती है जिनमें पहले की मालूमात को शामिल करते है. बग़ैर पुरानी मालूमात के कोई भी चीज़ इजाद नहीं हो सकती। अविष्कार से हमारा मतलब हक़ीक़त (वास्तविकता) के बारे में मालूमात नहीं बल्के वो मालूमात जिनके जरिए हक़ीक़त को समझा जा सकता है। नतीजतन इस समबन्ध मे भी कम्युनिष्ठो की ये परिभाषा परिभाशा ग़लत है। इस तरह कम्यूनिष्टों का ख्याल काबिले तस्दीक नहीं रह जाता, और यह भी बिल्कुल साफ हो गया के हक़ीक़त से टकराने की वजह से फिक्र (thought/सोंच) के प्रतिबिम्ब (अक्स) होन का नज़रिया ग़लत है।
यही वजह है कि कम्यूनिसटो के द्वारा दी गई खयाल (सोंच) को झूठ साबित करने के बाद फिक्र (सोंच) की परिभाषा ये निर्धारित की गई है: यह हक़ीक़त (वास्तविकता) का एहसास के ज़रिए दिमाग तक पहुंचना होता है और पुरानी मालूमात (previous information) को इस से जोडने पर हक़ीक़त की वज़ाहत हो जाती है (यानी वास्तविकता ज़ाहिर हो जाती है)। दूसरे अल्फाज़ में इसके लिए दिमाग, एहसास, पदार्थ और पहले से उसके बारे में मालूमात से फिक्र (विचार/सोंच/thought) पैदा होती है यानी किसी पदार्थ/चीज़ को उस तरह समझा जा सकता है, ये उनके लिए है जो बुद्धी (अक़्ल) से काम लेते है।

ख़ालिक़ के वजूद की अक़्ली दलील

(रचयता के अस्तित्व का बौद्धिक प्रमाण)

इंसान अपने आस-पास मौजूद चीज़ों के बारे में अफ्कार (विचारों) के आधार पर निशातेसानिया (पुनर्जागरण/पुनरजीवन/revival) की राह पर गामजन होता है। जब इन्सान एक फिक्र (विचार) के दुरूस्त होने पर संतुष्ट हो जाता है तो ये एक तसव्वुर (अवधारणा/concept) बन जाता है और इस तरह ये सोच नई राय को प्रभावित करती है। मिसाल के तौर पर पर अगर आप किसी शक्स के बारे में नफरत या मोहब्बत की भावना रखते है, तो ये तसव्वुर उस शक्स के बारे में आपकी राय पर प्रभावित होता है। तो इंसान की फिक्र (thought/विचार) के गहरा प्रभाव पडता हैं, और अगर ग़लत विचार समाज में आम हो, तो उससे पूरा समाज प्रभावित होता है।

इस तरह खालिके कायनात (सृष्टि के रचयता) का वजूद होने या ना होने की फिक्र (thought) के इन्सानी ज़िन्दगी पर गहरा प्रभाव पडता है, क्योंके इस विचार से हासिल होने वाला जवाब ही वो आधार है जिससे एक शख्स इन्सान, जीवन और कायनात (सृष्टि) के वजूद मे आने का कारण को समझ सकता है। और यही मुकम्मल फिक्र (विस्तृत विचार) वो फिक्री क़ायदा (वैचारिक सिद्धांत) है, जिस पर ज़िन्दगी के बारे में सभी विचारो का आधार क़ायम है। इन चीज़ो के बारे में मुकम्मल नुकताऐ नज़र (विस्तृत दृष्टिकोण) देना ही इन्सान के उक़तदुल कुबरा (सबसे बड़े मसले) का हल है यानी अक़ीदा (आस्था) इसलिए वो तरीका जो इस सवाल के जवाब को हांसिल करने के लिए इस्तेमाल किया जाए वो ना सिर्फ फिक्री तरीका (बुद्धी पर आधारित) हो बल्के उसका विस्तृत और हक़ीक़त (वास्तविकता) के मुताबिक भी होना चाहिए, और इससे हासिल होने वाला जवाब इन्सानी फितरत (प्रवृति) को संतुष्ट करने वाला हो। इस तरह हर किस्म की कल्पना पर आधारित (hypothesis) और विजदान (अंतरदृष्टी/intution) को भी रद्द करना होगा क्योंकि ये बुनयादे बुद्धी और वास्तविकता से टकराव रखती है।

यह एक वास्तविकता है के बोध और समझ के योग्य चीज़ो का वजूद एक क़तई (निश्चित) मामला है क्योंके अपने हवास (इन्द्रियॉ-छूना,चखना,देखना,सुनना,सूंघना) इसके गवाह हैं। वास्तविकता मे काबिले इदराक (अनुभूती/अहसास के योग्य) चीज़े अपने वजूद (अस्तित्व) के लिए अपने अलावा कुछ और चीज़ों की मोहताज (निर्भर) रहती है यानी उन्हे वजूद में लाने के लिए कुछ दूसरी चीज़ों की जरूरत पड़ती है। क्योंके अगर हम उन्हें देखे तो यह बात साफ नज़र आती है के दूसरी चीज़ों के बग़ैर ना तो वोह कोई अमल (कार्य) कर सकती है और ना ही वो एक हालत से दूसरी हालत में तब्दील (परिवर्तित) हो सकती है। पस आग सिर्फ आग पैदा करने वाले पदार्थ से ही लगती है। अगर एक चीज़ अपने गुण के एतबार से आग पैदा करने वाली (combustible) नहीं है तो आग उसे नहीं जलाएगी। विशेष तेज़ाबो में कुछ तत्व (elements) घुल जाते हैं जबकि कुछ दूसरे तत्व उन तेज़ाबो में नहीं होते। कुछ तत्वों के आपसी रासयनिक प्रभाव (reaction) से एक मिश्रण (compound/योगिक) बन जाता है, जबके दुसरे से तत्वों वो मिश्रण नहीं बनता है। नतीजतन चूंकि पदार्थ इन हालात और बाहरी कारको के बग़ैर परिवर्तित नहीं हो सकता, इसलिए ये एसी चीज़ नहीं है जो किसी चीज़ की तख्लीक़ (रचना) कर सके बल्के ये इसकी खुद की तखलीक़ (रचना) की गई है. पूरी दुनिया में कोई भी चीज़ या तो ख़ालिक़ (रचयता) होगी या मखलूक़ (रचना) इसके अलावा तीसरी सूरत सम्भव नहीं। इसके अलावा जो चीज़े दूसरो की मोहताज (निर्भर) हो वो अज़ली (अन्नत/अनादी/eternal) नहीं हो सकती, क्योंके जब इस शब्दावली यानी अनादी (अज़ली) का उपयोग किसी वस्तु पर करते है, तो उसका मतलब ये होता है के ये वस्तु किसी पर निर्भर नहीं, क्योंके अगर ये अपने वजूद (अस्तित्व) या परिवर्तन के लिए किसी दूसरी चीज़ पर निर्भर है तो यकीनन ये अपने वजूद और तखलीक़ (रचना) के लिए भी दूसरी चीज़ पर निर्भर हुई । अगर उसको अपने वजूद (अस्तित्व) में आने के लिए ही किसी खारजी (बाहरी) चीज़ की जरूरत पड़ती है, तो यह अपनी तखलीक़ (रचना) के लिए ही किसी दूसरी चीज़ की मोहताज (निर्भर) ठहरी इसलिए ये अज़ली (अन्नत) नहीं हो सकती। अज़ली (अन्नत/अनादी) की स्पष्ट तारीफ (परिभाषा) ये है के ये किसी दूसरी चीज़ के मोहताज नहीं हो सकती। और जो चीज़ किसी पर निर्भर हो वोह अज़ली (अन्नत/अनादी) नहीं हो सकती। यकीनन इसका मतलब ये है के यह किसी की मखलूक़ (रचना) है।
वो चीज़े जिनका अक़्ल इदराक (बोध) करती है मसलन इन्सान, जीवन और कायनात सबके सब महदूद (सीमित), अजिज़ (मजबूर) व नाकिस (निर्भर) और दूसरे की मोहताज है। अत: इन्सान सीमित है क्योंकि वह हर चीज़ में एक सीमा से बन्धा हुआ है, और उस हद को पार नहीं कर सकता न उससे बाहर निकल सकता है। लिहाज़ा वो महदूद है, ज़िन्दगी भी महदूद है क्योंके इसका प्रदर्शन भी एक फर्द (व्यक्ति) के अन्दर अलग – अलग होता है और हवास (पांच इन्द्रियों) के ज़रिए इसका महसूस किया जाता है के ये एक फर्द (व्यक्ति) के अन्दर खत्म होती है। लिहाज़ा ये भी महदूद है। कायनात भी सीमित है क्योंके यह ऐसे अजज़ा (तत्वों) का मिश्रण है जिनमें हर तत्व सीमित है और सीमित चीज़ों का मिश्रण भी लाज़मी तौर पर सीमित है। यही वजह है के इन्सान, कायनात और हयात (जीवन) सबके सब क़तई (निश्चित) तौर पर सीमित है। जब हम एक महदूद चीज़ पर नजर डालते है तो मालूम होता है के वो अज़ली (अनंत/eternal) नहीं। क्योंकि वो अगर अन्नत होती तो सीमित ना होती। लिहाजा हर सीमित (महदूद) चीज़ निश्चित तौर पर किसी ग़ैर (दूसरे) की मखलूक़ होगी और ये ग़ैर (दूसरा) ही इन्सान, हयात व कायनात का ख़ालिक़ (रचयता) है। फिर ये रचयता या तो किसी ओर की मखलूक़ (रचना) होगा या खुद अपने आप का ख़ालिक़ (रचयता) होगा या अज़ली (अन्नत) और वाजिबुल वजूद (खुद अपने अस्तित्व पर आधारित) होगा। इसका किसी ओर की मखलूक़ होना ग़लत होगा क्योंके इस सूरत में वो महदूद (सीमित) ठहरेगा। इसके अलावा अपने आपका ख़ालिक़ (रचयता) होना भी बातिल और ग़लत है क्योंके इस सूरत में ये एक ही वक्त में अपने आप का ख़ालिक़ और अपने आपकी मखलूक़ (रचना) होगा और ये भी बातिल है। क्योंकि जब वोह मौजूद नहीं था तो फिर उसने अपने आप की रचना (तखलीक़) कैसे कर ली. यह दोनों चीज़े एक साथ कैसे मुमकिन है. लिहाजा ये ख़ालिक़ अज़ली (अनंत) और वाजिबल वजूद (खुद अपने अस्तित्व पर आधारित) ही हो सकता है और इसे हम अल्लाह तआला कहतें है।
इससे बड़कर ये के हर बुद्धी रखने वाला इन्सान सिर्फ महसूस की जाने वाली चीज़ो के वजूद ही से इस बात को समझ सकता है के उनका कोई ख़ालिक़ है। क्योंके इन तमाम चीज़ो (वस्तुओं) में इस बात को देखा जा सकता है कि यह नाकिस (दूसरे तत्वो के बिन अधूरी), आजिज़ (मजबूर) ग़ैर की मोहताज (निर्भर) है, लिहाज़ा ये क़तई तौर पर मखलूक़ (रचना) है।
यही वजह है के खालिके मुदब्बिर के वजूद का प्रमाण देने के लिए कायनात, इन्सान और हयात (जीवन) में से किसी एक की तरफ निगाह डालना ही काफी है। पस कायनात (सृष्टी) में मौजूद सितारो में से किसी एक सितारे पर निगाह डालना और जीवन का प्रदर्शन करने वाले किसी की एक जीव पर ग़ौर करना और इन्सान के किसी एक पहलू का भी ग़ैरो फिक्र करना अल्लाह तआला के वजूद (अस्तित्व) की क़तई दलील (प्रमाण) हैं। हम देखते है के क़ुरआने करीम इन चीज़ों की तरफ हमारा ध्यान केन्द्रित करता है और इन्सान को दावत देता है के वोह अपने माहौल और उससे समबन्धित चीज़ों पर नजर डाले और ये देखे कि ये चीज़े किसी तरह ग़ैर (बाहरी शक्ति) पर निर्भर है, तो इन्सान इसके नतीजे में एक खालिके मुदब्बिर के अस्तित्व का मुकम्मल तौर पर बोध (इदराक) कर लेगा।
इस बारे में क़ुरआने करीम मे सौकड़ो आयात है। सूरे अले-इमरान में इरशाद है:

‘‘बेशक आसमानो और ज़मीन के पैदा करने और दिन रात के अदल-बदल कर आने-जाने में अक़्ल वालो के लिए निशानियॉ है” ।
सूर: रोम में इरशाद फरमाया: ‘‘और उसकी निशानियों में से आसमानों और ज़मीन की तखलीक़ (रचना) है और तुम्हारी ज़बानो (भाषाओं) और रंगो का मुख्तलिफ होना”।  (आयात नं. 22)

सूरे अल-ग़ाशिया में इरशाद है: ‘‘भला ये नहीं देखते के ऊट कैसे पैदा किया गया है? आसमानों को कैसे बुलन्द किया गया है? और पहाड़ कैसे खड़े किये गये? और ज़मीन को कैसे हमवार किया गया?’’ (आयात 17-20)

सूरे बक़रा में इरशाद है: ‘‘और इस में कोई शक नहीं के आसमानों और ज़मीन की पैदाईश में, रात-दिन के अदल-बदलकर आने-जाने में, और इन कश्तियों में, जो इन्सानों के नफे के लिए समन्दरो में दौड़ती-फिरती है, और उस बारीश के पानी में, जिसे अल्लाह तआला नाज़िल करता है के जिससे ज़मीन मुर्दा (बंजर) होने के बाद ज़िन्दगी हासिल करती है, जिसकी वजह से चैपाये ज़मीन पर फैले हुए है, और हवाओ के हेर-हेर में और बादलों का आसमान और ज़मीन के बीच क़ायम रहने में अक़्ल वालो के लिए निशानिया है।” (आयात - 124
)
ये आयात इन्सान की बौद्धिक और वैचारिक शक्तियों को तदब्बुर (गहन विचार) और गौरो-फिक्र से काम लेने की तरफ बुलाती देती है ताके इसका इमान (आस्था) बुद्धी और प्रमाण पर आधारित हो। ये आयात इंसान को डराती है के वो अपने बाप-दादा के अकायद (आस्थाओं) और आमाल (कार्यों) को गौरो फिक्र, बहस व तमहीस (वाद-विवाद) और हक (सत्य) के बारे में व्यक्तिगत तौर पर विश्वास हासिल किए बग़ैर क़ुबूल न करे। फिर उसी मनन और चिंतन और बहस व तमहीस (वाद-विवाद) से वो इस अल्लाह तआला पर ईमान व यकीन तक पहुंचता है जो बेपनाह कुदरत (शक्ति) का मालिक है।

अगरचे अल्लाह पर इमान तक पहुचने के लिए इन्सान पर अक़्ल का इस्तेमाल फर्ज है, लेकिन इंसान के लिए उस ज़ात का इदराक (समझना/बोध करना) मुमकिन नहीं जो इसके हवास और अक़्ल से परे है। इसकी वजह ये है के इंसानी अक़्ल महदूद है। इंसानी शक्तियॉ, वह कितने ही बुलन्द क्यों न हो, महदूद (सीमित) ही है और अपनी सीमितता से आगे नहीं बढ़ सकती। चुनांचे इंसान महदूदुल इदराक (निश्च्ति सीमा के अन्दर देखने और समझने वाला) है। मालूम हुआ के इंसान अल्लाह तआला की ज़ात (हस्ति/मूल) के बोध/समझ से असमर्थ है। अल्लाह तआला की हक़ीक़त (वास्तविकता) को समझने/बोध करने मे भी असमर्थ (क़ासिर) है। क्योंकि अल्लाह तआला कायनात, इंसान और हयात से मावरा (परे/beyond) है और मानव की बुद्धी मानव की शक्तियों से परे किसी भी चीज़ का इदराक (बोध) नहीं कर सकती। इसलिए वोह अल्लाह तआला की ज़ात के इदराक से आजिज़ (असमर्थ) है।
लेकिन यहां पर ये भी नहीं कहा जा सकता के ‘‘इंसान की अक़्ल अल्लाह तआला की ज़ात (हस्ती/मूल) का बोध करने मे भी असमर्थ है, तो फिर मानव बुद्धी अल्लाह तआला पर बुद्धी के आधार पर इंसान कैसे लाए?’’ क्योंकि अल्लाह तआला पर ईमान लाने का मतलब है अल्लाह ताअला के वजूद (अस्तित्व) पर ईमान लाना और अल्लाह तआला के वजूद (अस्तित्व) का इदराक (बोध) उसकी मखलूक़ात (रचनाओं) के अस्तित्व के बोध से होता है, और उसकी रचनायें (मखलूक़ात) कायनात, इन्सान और हयात है, और यह मखलूकात अक़्ल के समझ के दायरे के अन्दर शामिल है। इसलिए अक़्ल ने इन सबका अनुभव किया और इनके अनुभव  की वजह से अपने ख़ालिक़ (रचयता) की मौजूदगी को भी समझा और वोह ख़ालिक़ अल्लाह तआला है। चुनांचे अल्लाह के वजूद पर ईमान अक़्ली और अक़्ल के हदों के अन्दर है। इसके विपरीत अल्लाह तआला की ज़ात की समझ, जो असम्भव है। क्योंके अल्लाह तआला की ज़ात कायनात, इंसान और हयात से मावरा (परे/beyond) है। इसलिए वोह अक़्ल (बुद्धी) से भी परे है। अक़्ल के लिए ये नामुमकिन है के वोह अपने से परे किसी चीज़ को समझ सके।
अक़्ल (बुद्धी) की ये कमज़ोरी और निर्भरता (अपने से परे को समझ पाने असक्षम) ईमान को और अधिक शक्ति पहुंचाती है। ये किसी किस्म के शक की वजह नहीं बन सकती। क्योंके जब अल्लाह के वजूद (अस्तित्व) पर हमारा ईमान अक़्ली (बुद्धी के आधार पर) हो तो उसके अस्तित्व का बोध भी सम्पूर्ण और मुकम्मत बोध/समझ होगा. जब अल्लाह तआला के वजूद के बारे में हमारा शउर (चेतना) अक़्ल पर आधारित हो तो अल्लाह तआला के वजूद (अस्तित्व) के बारे में हमारा ये शउर यक़ीन पर आधारित होगा। इससे हमारे अंदर मुकम्मल इदराक और एक ऐसा यक़ीनी शउर पैदा होता है जो उलूहियत (अल्लाह के पूजनीय होने) के तमाम गुणों से सम्बन्ध रखता है।

इसलिये इस बात का तकाज़ा है के हम अपने ईमान की मज़बूती की बुनियाद पर हरगिज़ अल्लाह तआला की हक़ीक़त के इदराक (समझ) की ताकत नहीं रखते। इसलिए हम पर फर्ज है के हम हर उस चीज़ को तस्लीम करे, जिसकी हमे खबर दी गई है और जिसके इदराक करने या उसके इदराक तक पहुचने से हमारी अक़्ल कासिर (असमर्थ) है इसका कारण यही है के इंसानी अक़्ल अपनी प्राकृतिक कमज़ोरी की वजह से अपने सीमित और निर्धारित पैमानों (माप) के ज़रिए अपने से परे का इदराक (बोध/समझ) नहीं कर सकती, क्योंकि इस इदराक के लिए ऐसे पैमानों की जरूरत है जो ना तो निसबती (निर्धारित) हो और ना महदूद (सीमित) हो, और ये एक ऐसी चीज़ है जिसका इंसान ना मालिक है और ना कभी मालिक हो सकता है। 

नातीजा 

ख़ालिक़ के वजूद पर ईमान (विश्वास) शकूक (शंका), ओहाम (वहम/गुमान) या विज्दान (अन्तरदृष्टी/intution) के आधार पर नहीं बल्के उसकी बुनयाद फिक्री तरीक़ेक़ार (बौद्धिक प्रणाली) है, जो के क़तई तौर पर ख़ालिक़ के वजूद का प्रमाण देता है। और इस वजूद को हर इंसान अक़्ली पैमाने पर परख कर साबित कर सकता है। वैज्ञानिक तरीक़ेक़ार अपने दायरे में सीमित है और इससे ख़ालिक़ के वजूद को साबित या रद्द नहीं किया जा सकता है। पदार्श जिनका अक़्ल इदराक कर सकती है मसलन इंसान, हयात और कायनात सबके सब महदूद (सीमित), आजिज़ (निर्भर) व नाकिस (अधूरे) और ग़ैर के मोहताज है। लिहाज़ा ये लाज़मी तौर पर किसी ग़ैर (दूसरे) की मखलूक़ है, ये ग़ैर ही इंसान, हयात और कायनात का मालिक है। ये ख़ालिक़ अज़ली (अनन्त) और वाजिबल वजूद (स्वयम अपने अस्तित्व पर आधारित) है और यह अल्लाह तआला है।

ख़ालिक़ के वजूद के इंकार या इकरार के वक्तिगत और सामाजिक ज़िन्दगी पर गहरा प्रभाव पडता है। इस सवाल का जवाब ही एक व्यक्ति या एक समाज की ज़िन्दगी की बनावट का को तय करता है। इस सवाल का ग़लत जवाब और इस जवाब का समाज में आम होना पूरे समाज को प्रभावित करता है, और समाज की गिरावट और बुरी हालत की कारण बनता है। इंसान की निशातेसानिया (पुनरजागण/आच्छी हालत की तरफ लौटना) के लिए अनिवार्य है ये फिक्री तरीक़ेक़ार (intellectual method/बौद्धीक प्रणाली) के मुताबिक ख़ालिक़ के वजूद के तसव्वुर (अवधरणा) को तय किया जाये और फिर इस बुनयाद पर व्यक्तिगत और सामाजिक ज़िन्दगी का आधार भी रखा जाये। इस सवाल के दुरूस्त जवाब की बुनयाद पर हासिल होने वाली निशातेशानिया (पुर्नजागरण) ही इंसानियत की खुशहाली का कारण बन सकती है।
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