इस्लाम में सामाजिक समस्याओं का हल
अल्लाह सुबानहू व तआला क़ुरआने मजीद में फरमाते है :
'और उसकी निशानियों में से है के उसने तुम्हारे लिए बीबियॉं पैदा की तुम ही में से ताके तुम उनमें सुकून हासिल करों और उसने तुम्हारे दरमियान मोहब्बत और रहमत पैदा कर दी है, बेशक यह अल्लाह की निशानियों में से है उन लोगों के लिए जो गौर व फिक्र करते है।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, सूरह रोम आयत)
दूसरी जगह फरमाया :
وَلَا تَتَمَنَّوْا مَا فَضَّلَ اللّٰهُ بِهٖ بَعْضَكُمْ عَلٰي بَعْضٍ ۭ
لِلرِّجَالِ نَصِيْبٌ مِّمَّا اكْتَـسَبُوْا ۭ وَلِلنِّسَاۗءِ نَصِيْبٌ
مِّمَّا اكْتَـسَبْنَ ۭ وَسْـــَٔـلُوا اللّٰهَ مِنْ فَضْلِهٖ ۭ اِنَّ
اللّٰهَ كَانَ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِـــيْمًا 32
''और उस चीज़ की आरजू़ ना करो जिसके बाअस (सबब) अल्लाह तआला ने तुममें से बाअज़ (कुछ) को बाअज़ पर फ़जिलत दी है। मर्दो को उनके कामों का अज़र है जो उन्होंने किये और औरतों को उनके कामों का अज़र है जो उन्होंने किये।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, सूरह अलनिसा आयत 32)
इस किताबचे का मौज़ू इस्लामी सामाजिक व्यवस्था और मौजूदा सामाजिक व्यवस्था में क्या फर्क़ पाया जाता है, इस पर आधारित है। सामाजिक ज़िन्दगी हमारी ज़िन्दगी का एक अहम पहलू है। सामाजिक ज़िन्दगी का अर्थ है इंसानों का आपस में ताल्लुक। अल्लाह तआला ने इन्सानों में सिर्फ दो श्रेणी बनाई है एक मर्द और दूसरी औरत इसके अलावा कोई तीसरी श्रेणी नही है। इंसानी ज़िन्दगी इन दोनों के आपसी ताल्लुक, इनके लेन-देन और इनके आपसी व्यवहार के इर्द-गिर्द घूमती है।
दुनिया में जितनी व्यवस्थाए है वोह व्यवस्था ही जब कहलाती है जब वोह इन दोनों के आपसी रिश्तों को परिभाषित (तारीफ) कर सकें कि उसे कैसे चलाया जाए। आज हम जिस निज़ाम में ज़िन्दगी गुजार रहे है उसे सेक्यूलरवाद (लादिनियत) काहा जाता है, जिसको पूँजीवाद भी कहा जाता है। दुनिया के ज़्यादातर देशों में इसी पूंजीवाद के तहत शासन किया जाता है। भारत और एशिया के बहुत से देश इसी पूंजीवाद के ज़रिए शासन चलाते है। जब हम इस नज़रिऐ के द्वारा चलाऐ जा रहे शासन की विवेचना करते है तो पाते है कि इस व्यवस्था में सामाजिक ज़िन्दगी बिगड़ती जा रही है
अगर हम पश्चिम की बात करें तो वहॉ पर शादी के सम्बन्ध में बदलाव आ रहा है और मर्द और औरत जो कि इस समाज की सबसे बुनियादी ईकाइ है जिससे पूरा समाज बनता है, और समाज से एक मुल्क बनता है। अगर परिवार टूटना या बिखरना शुरू हो जाता है तो इसका सीधा असर पूरे समाज पर पड़ता है। पश्चिमी देशों में शादी कुछ महीने या कुछ साल ही चलती है, उसके बाद तलाक हो जाता है। वहाँ तलाक के मामले बढ़ते जा रहे है। वहाँ औरतों को खास आजादी के नाम पर पैसा कमाने की एक मशीन समझ लिया गया है। औरतें पैसा कामने में मशगूल हो चुकी है। वहाँ पर बिल्कुल अलग तरह की सामाजिक विचारधारा ने जन्म ले लिया है। वहाँ आज शादी को कोई अहमियत नही दी जाती है बल्कि लिव इन रिलेशनशिप यानी बिना शादी के साथ रहना एक आम बात हो चुकी है। इसकी वजह से बच्चें पैदा करने की ज़िम्मेदारी कोई ऊठाना नही चाहता है, जब बच्चे पैदा हो जाते है तो उनमें आपस में झगडे़ होते है इसकी ज़िम्मेदारी कौन उठाये। बच्चों को इसी वजह से बॉर्डिंग स्कूल में भेज दिया जाता है। सरकार की तरफ से भी ऐसी संस्थाए चलती है, जहाँ बच्चों को रख दिया जाता है। बच्चे बिना मॉं-बाप की शफक़त और प्यार-मोहब्बत के पलते है जिससे बाद में चलकर वो दिमागी बीमारियों का शिकार हो जाते है, जो समाज में बिगाड़ का सबब है।
आए दिन हम सुनते है कि अमरीका में एक बच्चे ने स्कूल में अपने स्कूल के बच्चों के ऊपर गोलियॉं चला दी और अक्सर वही बच्चे जब जवान हो जाते है तो अजीब-अजीब हरकते करते है जैसे थोडे़ दिन पहले एक 17-18 साल के सेना के नौजवान ने बाजार में लोगों के ऊपर गोलियॉं चलानी शुरू कर दी, जिससे कई लोग मारे गऐ। एक तरह की हताशा और मायूसी उनके ऊपर छाई हुई है। उन्होंने बचपन बिना मॉं-बाप की परवरिश और मार्गदर्शन के बिताया है ओर हॉलीवुड फिल्में और वीडियों गेम्स खेलकर जिनमें हिंसा ही हिंसा होती है, उन्होंने ज़िन्दगी को जीना सीखा हैं। अकेलेपन की वजह से उन्होंने अपना ज़्यादातर वक्त इन्हीं चीज़ों में गुजारा है जबकि उन्हें उस वक्त मॉं-बाप के प्यार की ज़्यादा ज़रूरत थी। हम ऐसी ज़िन्दगी का तसव्वुर करें जहॉं हमारी परवरिश मॉं-बाप ने नहीं की हो। हम सोच सकते है कि हमारा बचपन कैसे गुज़रा होगा। मॉं-बाप हमें छोटी-छोटी बातों के द्वारा कुर्बानी देना सिखाते है। मॉं-बाप से सबसे पहली कुर्बानी का सबक तब मिलता है जब वो अपनी खाती हुई चीज़ अपने मुँह से निकाल कर देते है।
पश्चिमी समाज में बच्चों की मॉं-बाप से दूरी की वजह से बच्चे दया, शिष्टाचार त्याग जैसे इंसानी मूल्य नहीं सीख पाते चूँकि बचपन में उनकी मॉं-बाप की परवरिश और संरक्षण नही मिलता इसलिए जब वो मॉं-बाप बूढे़ होते है तो बच्चों के लिए भी मॉं-बाप की कोई अहमियत नहीं रह जाती है, उनके बुढा़पे में वो भी मॉं-बाप को साथ में नही रखना चाहते है। जिस तरीके़ से मॉं-बाप ने बच्चों को बॉर्डिंग स्कूल में भेज दिया था उसी तरह से वो भी मॉं-बाप को ''ओल्ड हाऊस'' में भेज देते है और वहॉं पर वो दूसरे बूढो़ के साथ अपनी ज़िन्दगी तन्हाई में गुज़ारते है। पश्चिमी समाज की ये एक आम समस्या बन चुकी है।
आज लोग परेशान हो गए है लेकिन शुरू में उन्होंने आजादी के नाम पर ये चीज़ पसन्द की थी। उनका कहना था कि हर इंसान को अपनी निजी ज़िन्दगी जीने का हक़ है। इसलिए उन्होंने बच्चों को एक बोझ के रूप में माना जो उनकी आज़ादी में खलल डालते है। बच्चे पालना और उनकी ज़िन्दगी भर देखभाल करने को उन्होंने निजी ज़िन्दगी की आजादी में रूकावट समझा, परिणामस्वरूप बच्चे मॉ-बाप के लिए और मॉ-बाप बच्चों के लिए एक समस्या बन गऐ हैं।
अमरीका में पॉंच साल के अंदर 70 प्रतिशत तक शादियॉं टूट जाती है, हर तीन में से एक जोडा़ बहुत जल्द तलाक लेकर अलग हो जाता है। हर मर्द और औरत अपनी शादी के पॉंच साल से पहले ही शादी के बाहर शारीरिक सम्बन्ध बना लेते हैं। अमेरिका में बलात्कार भी एक आम समस्या है। अमेरिका में हर एक सैकण्ड में एक बलात्कार का मामला घटित होता है। 10 साल पहले के सर्वे के मुताबिक ब्रिटेन में प्रतिदिन 167 औरतों का बलात्कार होता है। अमेरिका में हर 18 सैकण्ड में एक औरत की पिटाई होती है जबकि इस तरह के इल्जाम मुस्लिम देशों पर लगाऐ जाते है। पश्चिमी देशों में बच्चों का शारीरिक शोषण एक आम बात है। फिडोफीलिया एक बीमारी होती है जिसमें बच्चों को गंदी नजरों से देखने की मानसिकता बन जाती है और लोग बच्चों के शारीरिक शोषण के आदी हो जाते है। सिर्फ ब्रिटेन में इस वक़्त दस लाख से ज़्यादा लोग ऐसे मौजूद है जो कि इसे एक शौक के तौर पर लेते है और वहॉं पर यह घिनोना काम आम होता जा रहा है। पश्चिम मुस्लिम देशों से भी अपेक्षा करता है कि वोह भी इन बुरे कामों को अपनाऐं और उनके जैसे बन जाऐ। इस्लामी व्यवस्था को ज़ुल्म पर आधारित बताकर दुनिया में कुप्रचार किया जाता है जबकि हम पश्चिमी देशों में हो रहे ज़ुल्म और बुराइयों को देख रहे है।
यही हालात विकासशील देशों में भी होते जा रहे हैं। भारत के जिन बडे़ शहरों ने पश्चिमी संस्कृति को अपना लिया है वहॉ भी पश्चिमी देशों जैसी सामाजिक समस्याऐ बढ़ रही हैं। बडे़ शहरों में वृद्धाश्रम बढ़ते जा रहे। अपने बच्चों द्वारा किऐ गऐ अत्याचारों के लाखों मामले अदालतों में आते है, जिसमें बूढे़ मॉं-बाप बच्चों के खिलाफ शिकायतें करते है। इसी तरह औरतों पर ज़ुल्म और शोषण के मामलें भी भारत में बढ़ रहे है। भारत की ये बहुत बडी़ समस्याऐं हैं। मुसलमानों में भी कुछ ऐसी चीज़े पाई जाने लगी है जो गै़र-इस्लामी समाजो में देखी जाती है इसलिए लोग इस्लाम को बुरी नजर से देखना शुरू कर देते है और कहते है कि यह इस्लाम की वजह से है। अक्सर कुछ चन्द चुने हुए मामलों को ऊठाकर मीडिया में बहुत शोर शराबा किया जाता है। दुनियाभर में मीडिया ने एक वीडियों क्लीपिंग दिखाई जिसमें एक अफगानी व्यक्ति अपनी बीवी को खूब पीटता हुआ दिखाया गया। इस वीडियों क्लीप को इतना ज़्यादा प्रचारित किया गया कि जब अमरीका ने अफगानिस्तान पर क़ब्ज़ा किया तो इस घटना को बुश ने अपनी तक़रीर में दोहराया और उसने यह बताना चाहा कि मुसलमान औरतों के साथ इंसाफ नही करते और हम उन्हें इंसाफ सिखाएगें।
बाक़ायदा आज भी इन्टरनेट पर बहुत सारी ऐसी वेबसाईटे हैं जो खास तौर से मुसलमानों के इस पहलू को उज़ागर करती है, इस्लाम को बदनाम करती है। दुनिया के कुछ माहिरीन का काम ही यही है कि वो ऐसे मामलों को दुनिया के सामने लाऐ, उनके साथ भारत के भी लोग है जिन्होंने ऐसी घटनाओं को दर्शाने के लिए वेबसाइटें खोल रखी है। ज़्यादातर मुस्लिम देशों की औरतों पर की गई ज़्यादतियों को अपनी वेबसाइटों में जगह दी जाती है। हक़ीक़त में ज़्यादातर मामलें झूठे होते है, कुछ मामलें सही भी हैं तो उसकी वजह इस्लाम नही है, बल्कि वो काफिराना निज़ाम है जिसमें खुद मुसलमान रह रहे है।
इस वक्त दुनिया में कही भी इस्लामी व्यवस्था लागू नही है और मुसलमानों पर भी गै़र-इस्लामी संस्कृति का असर है। सिर्फ पश्चिमी तहज़ीब ही नही है बल्कि पूर्वी तहज़ीब भी इसके लिए ज़िम्मेदार है। हिन्दू तहज़ीब और दूसरी तहज़ीबों में औरत को बचपन से ही हिकारत की निगाह से देखना, उसे बोझ समझना और उसके लिए बहुत सारी तरह-तरह की पाबंदियॉं लगाने का रिवाज रहा है, यहॉ पर औरतों को सती कर दिया जाता था इस संस्कृति का असर मुसलमानों में भी पाया जाता है। औरतों के मामलें में बहुत सी ऐसी अवधारणाऐं जिनको हम इस्लामी समझते है लेकिन यह अवधारणाऐं गै़र-इस्लामी हैं।
औरतों को इस्लाम ने क्या आजादियॉं और अधिकार दिऐ है, आम मुसलमान आज भी इससे वाकिफ नही है। इस्लाम ने जितना साफ तौर पर मर्द और औरत के सम्बन्धों और उनकी जिम्मेदारियों को बयान किया है। इतना स्पष्ट दुनिया का कोई कानून नही है। इस्लाम ने मर्द और औरत की छोटी से छोटी ज़िम्मेदारी को भी बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है। इस्लाम के सारे सिद्धांत उस खालिक की तरफ से हैं जिसने इंसान को अपनी कुदरत से पैदा किया है। इस्लाम में खालिक (रचियता) की तरफ से हल दिये गये है जो बेहतर जानता है कि उसकी मखलूक की क्या ज़रूरते है, वोह ज़रूरते कैसे पूरी होगी। और दूसरी तरफ पश्चिमी सभ्यता या दूसरे निजाम के दिऐ गऐ हल है जो इंसान की अक़्ल से निकले है। इंसानी अक़्ल इंसान की पेचिदगी को समझने में अयोग्य है। जब वो अपनी अक़्ल से कोई हल निकालेगा तो वोह उसे पेचिदा बना देगा और वोह उलझनों का शिकार हो जायेगा।
इस्लाम ने इंसानी ज़िन्दगी का मक़सद अल्लाह की इबादत बताया है अल्लाह का फरमान है :
''मैने इंसान और जिन्नो को इसलिए पैदा किया है कि वो मेरी ईबादत करें'' और अल्लाह तआला के हुक्म की पालना करना और जिससे बचने का हुक्म अल्लाह ने दिया है उससे बचना सही मयानों में अल्लाह की इबादत हैं। इसी के मुताबिक क़यामत के दिन उसका फैसला किया जायेगा। इस मामलें में अल्लाह सुबाहनहू व तआला ने मर्द और औरत के बीच कोई फर्क़ नहीं किया। मर्द और औरत दोनों को ईबादत के लिए पैदा किया और दोनों को अपनी-अपनी ज़िम्मेदारी दी है और दोनों से बराबर पूछताछ की जायेगी। ये इस्लाम की पहली बुनियाद है जो यह बात साबित करती है कि मर्द और औरत के मामलें में अल्लाह सुबाहनहू व तआला ने कोई फर्क़ नही रखा जब ज़िन्दगी का मक़सद ही दोनों का एक है तो फिर भेदभाव का सवाल पैदा ही नहीं होता हैं। इस्लाम के दुश्मनों की तरफ से ये इल्ज़ाम लगाया जाता है कि इस्लाम मर्द और और
त के बीच फर्क़ पैदा करता है, ये बात इस्लामी बुनियाद से बिल्कुल विपरीत है क्योंकि जब ज़िन्दगी के मक़सद में ही अल्लाह सुबाहनहू व तआला ने फर्क़ नही किया है तो दूसरी चीज़ो में कैसे फर्क़ हो सकता हैं। हालॉंकि अल्लाह सुबाहनहू व तआला ने मर्द और औरत को अलग-अलग फितरत में पैदा किया हैं। उसी फितरत के अनुसार उनको ज़िन्दगी की ज़िम्मेदारियॉं सौपी हैं। यही है मर्द और औरत के लिए इस्लामी नज़रिया जो कि अक्ल के मुताबिक हैं। इस नज़रिऐ को पश्चिमी तहजीब ने कभी नहीं माना। वो मर्द और औरत में ऐसी समानता की बात करते है जिसमें उनके बीच कुछ भी फर्क़ नही रह जाता, लेकिन इस्लाम इस बात को मानता है कि दोनों की फितरत में बहुत सारी चीजो़ में फर्क़ पाया जाता है और उसी बुनियाद पर उनकी ज़िम्मेदारीयॉ उनको दी गई हैं। अल्लाह सुबाहनहू व तआला ने उनमें बहुत से ऐसे गुण रखें हैं जिसमें वो एक दूसरे को शामिल नही कर सकते। जैसे मिसाल के तौर पर औरत बच्चो को पैदा भी करती है और उन्हें पालती है, और उन्हें दूध पिलाती है, जबकि यह काम मर्द नही कर सकते।
इस्लाम इस तरह की समानता को नही मानता है जैसी समानता इन्सानी अक़्ल ने मानी हैं। इंसानी अक्ल के मुताबिक मर्द और औरत दोनों को एक जैसी ज़िम्मेदारी दी जानी चाहिए। जब दोनों को एक जैसी ज़िम्मेदारियॉ दी जाती है तो बहुत सी समस्याऐं पैदा होती है। जैसे कि औरतो को पैसा कमाकर परिवार चलाने की ज़िम्मेदारी दे दी जाऐ तो उस पर अतिरिक्त भार होगा और ये जबरन दी गई ज़िम्मेदारी हैं।
इस्लामी शरीअत इस ज़ुल्म से रोकती है। इस्लाम में बहुत सारी बाते ऐसी है जहॉं पर शरीअत दोनों पर बराबर ज़िम्मेदारी डालती है जैसे कि रोजे़ रखने में, नमाज़ पढ़ने में वगैराह इस मामलें में इस्लाम कोई फर्क़ नही करता। इन समान ज़िम्मेदारियों के बावजूद अल्लाह सुबाहनहू व तआला ने औरतों को कुछ सहूलियतें दी है क्योंकि औरत के साथ कुछ खास तरह की समस्याऐं है जो मर्दो में नही होती जैसे कि हैज (मासिक स्त्राव)। हैज के समय औरत नापाकी की हालत में होती है इसलिए अल्लाह ने उस समय के लिए नमाज और रोजे़ माफ किऐ है। और औरत जब गर्भ से होती है उस वक्त उसे ईजाज़त है कि वो रोजे ना रखे। मर्द और औरत के बीच एक प्राकृतिक असमानता पाई जाती है जिसको ध्यान में रखते हुए इस्लाम ने दोनों पर ज़िम्मेदारी डाली है। इस्लाम ने मर्द और औरत के बीच कोई प्रतिस्पर्धा नही रखी है बल्कि दोनों के संतुलन से समाज का ढांचा तैय्यार किया है। इस्लाम ने मर्द और औरत की भूमिका को बिल्कुल साफ तौर पर बताया है। साथ ही साथ यह भी बताया कि इन दोनों के आपस में क्या सम्बन्ध होने चाहिए और उनकी समस्या किस तरह से हल होगी, इस्लाम ने दोनों के लिए क़ायदे क़ानून बनाए हैं।
इस्लामी शरीअत इस ज़ुल्म से रोकती है। इस्लाम में बहुत सारी बाते ऐसी है जहॉं पर शरीअत दोनों पर बराबर ज़िम्मेदारी डालती है जैसे कि रोजे़ रखने में, नमाज़ पढ़ने में वगैराह इस मामलें में इस्लाम कोई फर्क़ नही करता। इन समान ज़िम्मेदारियों के बावजूद अल्लाह सुबाहनहू व तआला ने औरतों को कुछ सहूलियतें दी है क्योंकि औरत के साथ कुछ खास तरह की समस्याऐं है जो मर्दो में नही होती जैसे कि हैज (मासिक स्त्राव)। हैज के समय औरत नापाकी की हालत में होती है इसलिए अल्लाह ने उस समय के लिए नमाज और रोजे़ माफ किऐ है। और औरत जब गर्भ से होती है उस वक्त उसे ईजाज़त है कि वो रोजे ना रखे। मर्द और औरत के बीच एक प्राकृतिक असमानता पाई जाती है जिसको ध्यान में रखते हुए इस्लाम ने दोनों पर ज़िम्मेदारी डाली है। इस्लाम ने मर्द और औरत के बीच कोई प्रतिस्पर्धा नही रखी है बल्कि दोनों के संतुलन से समाज का ढांचा तैय्यार किया है। इस्लाम ने मर्द और औरत की भूमिका को बिल्कुल साफ तौर पर बताया है। साथ ही साथ यह भी बताया कि इन दोनों के आपस में क्या सम्बन्ध होने चाहिए और उनकी समस्या किस तरह से हल होगी, इस्लाम ने दोनों के लिए क़ायदे क़ानून बनाए हैं।
सबसे पहले हम मर्द की बात करते है तो इस्लाम में मर्द के कई तरह के किरदार बताए है, जिसके इर्द-गिर्द उसके सारे सम्बन्ध घूमते है और उसके हिसाब से मर्द की ज़िम्मेदारियॉ तय होती हैं। इनमें से कुछ है कि मर्द जो होता है वोह दादा का रोल अदा करता है यानी ग्रांड फादर और वोह नाना भी होता है, वो बाप भी होता है, वोह भाई भी होता है, वोह बेटा भी होता है, वोह शोहर भी होता है, वोह चचा भी होता है, वोह मामू भी होता है। इस्लाम ने मर्द के जितने भी किरदार है, सबके लिए ज़िम्मेदारियॉ बता दी है। इस्लाम ने कर्तव्यों का विभाजन ऐसा किया जैसा किसी भी निजाम में नही पाया जाता। मिसाल के तौर पर बाप के रूप में इंसान की ज़िम्मेदारी है कि अपने बीवी, बच्चों की किफालत (परवरिश) करें और रोटी, कपडा़, मकान की ज़िम्मेदारी पूरी करें। बच्चों के लिए एक बाप की ज़िम्मेदारी उस वक़्त तक की होती है जब तक वो बालिग नहीं हो जाते, उसके बाद उनकी किफालत करना एक बाप के लिए सदका होता है। अगर बच्चा अपाहिज या असक्षम हो तो बालिग होने के बाद भी बच्चे की ज़िम्मेदारी उठाना बाप पर फर्ज़ होता है। इन सबकी दलायल क़ुरआन व हदीस में तफ्सीर से मौजूद है।
बेटे पर इस बात की ज़िम्मेदारी है कि अपने मॉं-बाप की इताअत करे, उन मामलात में जो मॉं-बाप के अधिकार के अन्तर्गत आते है। बच्चों पर ये फर्ज़ है कि मॉ-बाप की ईताअत करे सिर्फ उन मामलात में इताअत नहीं करेगा जिसमें अल्लाह सुबाहनहू व तआला की खिलाफवर्जी़ हो। इसी तरह एक शौहर पर ये हराम है कि वो किसी दूसरी औरत पर हवसभरी निगाह डालें। मर्द से सम्बन्धित ये कुछ भूमिकाऐ थी जो अल्लाह तआला ने बताई है।
औरत के लिए भी इस्लाम ने बहुत सारी भूमिका तय की है। जैसे कि मॉं, दादी, नानी, चाची, बहन, बेटी, बीवी, और एक अंजान औरत के लिए भी अधिकार और कर्तव्य होते है। अगर हम मॉं की बात करें तो मॉं को इस्लाम में बहुत बडा़ दर्जा मिला है और उसको बहुत सारे अधिकार दिए है। उसका अधिकार है कि उसकी इताअत की जाये। एक मॉं को बाप से तीन गुना ज़्यादा अहमियत दी गई है। जब अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) से किसी सहाबी ने पूछा कि ''सबसे बेहतर किसके साथ सुलूक करूँ तो आप (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया के तुम्हारी मॉं के साथ, सहाबी ने अर्ज किया उसके बाद, आप (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया मॉं के साथ, सहाबी ने फिर पूछा मॉं के बाद, आप (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया कि मॉं के बाद बाप के साथ।'' यह मॉं का अधिकार है कि उसकी इताअत की जाये उसका ध्यान रखा जाये। बेटी को इस्लाम ने हुक्म दिया है कि जब वो घर से बाहर निकले तो अपने बाप से इजाज़त ले। बहुत सी हदीसों से इस बात की तस्दीक होती है कि मॉ और बाप के बाद अगर किसी का सबसे ज़्यादा अधिकार है तो वो खाला (मौसी) का होता है। अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने भी मॉं के बाद खाला का हक़ बताया है। मॉं के बाद बच्चे की देखरेख और उसकी परवरिश हक़ भी खाला का है।
इस्लाम ने मर्द और औरतो की ज़िम्मेदारी और अधिकार साफ तौर पर बयान कर दिये हैं। किस स्थिति में औरत गै़र मर्द से बात कर सकती है या उनके बीच लेन-देन की शक्ल क्या होगी इत्यादि। औरतों के लिए मर्दो की दो श्रेणी है (1) महरम (2) गै़र-महरम। महरम के अन्तर्गत वो मर्द आते है जिनसे शादी हराम है यानी बाप, भाई, चाचा, मामू, खालू इत्यादि। गै़र-महरम में वो सब मर्द आते है जिनसे शादी हो सकती है। महरम से मिलने जुलने और बात करने पर इस्लाम पाबन्दी नहीं लगाता लेकिन गै़र-महरम से अकेले में मिलने की इस्लाम बिल्कुल ईजाज़त नही देता। इस्लाम ने मर्द और औरत दोनों को यह हुक्म दिया गया है कि वो गै़र-महरम के सामने अपनी नजरे नीची रखे और अपनी शर्मगाहों की सुरक्षा करे। इस्लाम में गै़र-महरम के साथ ताल्लुक बनाने का तरीक़ा शादी है। शादी के ज़रिए ही वोह आपस में सोहबत पा सकते है। अगर ये शादी कामयाब नही होती और इससे इन्हें खुशी नही मिलती तो वो इसको तलाक के ज़रिए खत्म भी कर सकते है। औरत को 24 घण्टे से ज़्यादा बिना महरम के सफर करने की भी ईजाज़त नही है।
इस्लाम ने इंसान के जिस्म को ढांखने से सम्बन्धित कुछ क़ायदे क़ानून दिये है। जिस्म के जिस हिस्से को ढाकना ज़रूरी है उसे औरा कहते है। ये दो तरह का होता है, औराए गलीदा और औराए खफीफा। शर्मगाह और पिछले हिस्से को औराऐ गलीदा कहते है और टुंडी से लेकर घुटने तक का हिस्सा औराए खफीफा कहलाता है। इंसान के लिए इस्लामी नियम है कि जब एक इंसान दूसरे के सामने मौजूद हो तो वो अपने औराए खफीफा और औराए गलीदा दोनों को छुपाए। इस मामलें से बहुत से मुसलमान वाकिफ नही है। अक्सर देखने में आता है कि लोग जिम में या अखाडे़ में जाते है तो एक दूसरे के सामने लंगोट पहनकर खडे़ हो जाते है। यह बहुत बडा़ गुनाह है। इस बात की इजाज़त नही है कि जो चीज़ औरा के अन्तर्गत आती है, उसे कोई मर्द, मर्द के सामने भी ज़ाहिर करे। इसी तरह से औरतों पर भी यही नियम लागू होते हैं।
जब भी कोई लिबास बनवाया जायेगा इसमें इस बात का ख्याल किया जायेगा कि औरा के हिस्से को ढका जाऐ। अगर कोई भी कपडा़ इस नियम को लागू नही करता तो वो इस्लाम में हराम है। इस्लाम कोई खास किस्म के कपडो़ की डिजाईन को कोई अहमियत नही देता। बल्कि किसी भी तरह की डिजाईन पहनी जा सकती है मगर औरा के जो नियम बताए गए है वो पूरे होने चाहिए। एक खास किस्म का लिबास है जो दो हिस्सों में बना होता है
(1) खिमार
(2) जिलबाब।
(2) जिलबाब।
खिमार उस कपडे़ को कहते है जिससे सिर, बाल, गर्दन और सीना छुपाया जाता है। गले से लेकर टखने तक एक ठीला कपडा़ होता है उसे जिलबाब कहते है। सार्वजनिक जीवन में औरत को चेहरा और कलाई तक हाथ दिखाने तक ईजाज़त होती है इसके अलावा उसका पूरा जिस्म औरा होता है, औरत अगर घर से बाहर निकलती है तो इस्लाम उसे हुक्म देता है कि वो खिमार और जिलबाब में ही बाहर निकले। इसके अलावा औरत को इस बात की भी ईजाज़त नही है कि वो ऐसे कपडे़ पहने जिससे उसके शरीर के छुपे हिस्सों का प्रदर्शन हो।
सार्वजनिक स्थानों पर औरत जिस्म के जिस हिस्से को दिखा सकती है उससे सम्बन्धित दो राय पाई जाती है। एक राय यह कि चेहरा ढका जाए और दूसरी राय यह कि चेहरा खुला रखा जाए। दूसरी राय ज़्यादा मजबूत है और जो चेहरा ढकने वाली राय है वो कमज़ोर है। पहली राय भी इस्लामी राय है उसको हम गलत नही कह सकते क्योंकि कोई भी इस्लामी राय (इज्तिहाद) गलत या सही नही होती बल्कि मजबूत और कमजोर होती है। मजबूत इस्लामी राय के मुताबिक औरत गै़र-महरम के सामने अपना चेहरा दिखा सकती है, लेकिन जिस हिस्से को अल्लाह तबारक व तआला ने छुपाने का हुक्म दिया है वो सिर्फ अपने शौहर के सामने ही जाहिर कर सकती है। औरत के जिस्म को ढखने से मुताल्लिक अहकाम की बहुत अहमियत है।
आज दुनिया में लड़कियो से छेडछाड़ और अस्मतदारी की घटनाऐ बढ़ रही है जिसकी वजह है इस निजाम ने लड़कियों को कोई ऐसा सांकेतिक लिबास (ड्रेस कोड) नही दिया है जिससे औरतों की ईजजत की हिफाजत हो सके। आज औरते ऐसे कपडो़ में ज़्यादा नजर आती है जिसमें औरत के जिस्म के वो हिस्से भी दिखते है जिनको छुपाने का हुक्म है। इससे समाज में बुराई पैदा हो रही है। इस्लाम ने औरत को बहुत ज़्यादा इज्ज़त और शान बख्शी है। उसको एक ऐसी वस्तु नही बनाया जिसको अपने मजे और पैसा कमाने के लिए इस्तेमाल किया जाये। आज पश्चिमी समाज में औरत की कोई ईज्ज़त नही है, एक छोटी सी चॉकलेट बेचने के लिए भी उसके जिस्म की नुमाईश की जा रही है। टी.वी., अखबार में औरतों की राय और साक्षात्कार आते रहते है जिसमें औरतों का बयान होता है कि जब हम घर से बाहर निकलते है तो हमें भय महसूस होता है, हम बाहर सुरक्षित नही है। यह है आज के समाज की असलियत। वो कैसा समाज है जहाँ की औरतें अपने आप को सुरक्षित महसूस ना करें। पश्चिम ने औरतों को आजादी के नाम पर छूट दे रखी है और यही आजादी उनके लिए घातक साबित हो रही है।
इस्लाम औरत को कीमती चीज़ समझता है। हर कीमती चीज़ को छुपाकर रखा जाता है इसलिए औरत को भी पर्दे का हुक्म दिया गया है। खिमार और जिलबाब के ज़रिये औरत अपने जिस्म की हिफाजत करती है और समाज में इज्जत का मकाम पाती है। इस्लाम इस बात की ईजाज़त नही देता कि औरत ऐसे भड़काऊ कपडे़ पहने जिससे मर्द उनकी तरफ आकर्षित हो। औरतों को ऐसे जेवर पहनने की भी ईजाज़त नही है जिससे आवाज पैदा होती है क्योंकि उस आवाज के द्वारा पुरूषों का ध्यान औरत की तरफ जाता है। अगर वो ऐसा बनाव श्रृंगार करती है जिससे मर्दो की तवज्जो़ उन पर नही जाती है तो वो उनके लिए जाईज़ है। निजी ज़िन्दगी में औरत अपने मेहरम (बाप, भाई वगैराह) के सामने बेपर्दा रह सकती है। घर में औरत बनाव श्रृंगार भी कर सकती है लेकिन ऐसे कपडो़ं की घर में भी ईजाज़त नही होगी जिससे काफिराना तहजीब की झलक मिलती हो।
मर्द और औरत का आपस में मेलजोल भी एक अहम मसला है। इस्लाम ने इसके लिए भी कुछ नियम बनाए है। मर्द और औरत कहॉ पर और किस तरह से मिलेंगे और उनमें कितनी दूरी होनी चाहिए, इन सब बातों को इस्लाम ने साफ तौर पर बयान किया है। आम तौर पर इस्लाम औरत और मर्द के बीच में दूरी बनाए रखता है, वो खुली ईजाज़त नही देता जैसे पश्चिम में दी जाती हैं। इस्लाम रिश्तों को निर्धारित कर देता है और उनके बीच में कितनी दूरी होगी और किस परिस्थिति में वो बात करेंगे, इस्लाम इस मामले में साफ तौर पर हुक्म देता हैं। औरत और मर्द को खुले में मिलने जुलने पर पाबंदी है। जब तक कि वो कुछ खास मकासिद (उद्देश्य) के तहत ना हो। अल्लाह के नबी (صلى الله عليه وسلم) ने अबू दाऊद में फरमाया : ''मर्दो के लिए सबसे अच्छी आगे की सफ है और औरतो के लिए सबसे अच्छी पीछे की सफ है। औरतो के लिए सबसे बुरी सफ आगे की है।'' इस हदीस से ये नियम निकलता है कि औरते आम तौर पर पीछे की तरफ रहेगी ताकि मर्द उनको न देख सकें। यही नियम मस्जिदों और दूसरी जगहों पर भी लागू होता है। विद्यालय की कक्षाओं में लड़कों को आगे और लड़कियों को पीछे बिठाया जाना चाहिए। हज़रत इब्ने उमर फरमाते है कि अल्लाह के नबी (صلى الله عليه وسلم) ने हमें इस बात के लिए मना किया है कि ''जब दो औरते बाजार के अंदर चल रही हो तो उनके बीच में एक मर्द चले।'' अबू दाऊद की एक हदीस है कि अल्लाह के नबी (صلى الله عليه وسلم) ने मर्द और औरत को मस्जिद के बाहर जाते हुए देखा और दोनों एक दूसरे के बराबर-बराबर चल रहे थे तो अल्लाह के नबी (صلى الله عليه وسلم) ने औरत से कहा कि ''तुम्हारे लिए यह मुनासिब नही है के तुम बीच में चलो, तुम्हारे लिए बेहतर यह कि तुम दीवार की तरफ चलो।'' इससे पता लगता है कि मुसलमान को इस बात को तर्क करना चाहिए कि वो सार्वजनिक स्थानों पर विपरीत जिन्स के करीब रहे।
इस्लाम ने आम तौर पर एक दूसरे से दूरी बनाये रखने का हुक्म दिया है, लेकिन ज़रूरतों के वक़्त खास परिस्थितियों में उनको आपस में बात करने की ईजाज़त है, लेन-देन करने की ईजाज़त है। मिसाल के तौर पर इस्लाम की दावत, तब्लीग व इस्लाम सीखने-सिखाने के उद्देश्य से दो गै़र-महरम आपस में बातचीत कर सकते है, उसी तरह तालीम हासिल करने के लिए भी बातचीत की इजाज़त है, एक औरत मर्दो को पढा़ने के लिए शिक्षक हो सकती है, मर्द औरतो को पढा़ने के लिए टीचर हो सकता है, लेकिन उसके लिए कुछ नियम होगें। कक्षा में इस बात का ख्याल रखा जायेगा कि औरतो को अलग रखा जाए और मर्दो को अलग रखा जाये। औरतों को पीछे की सफ में बिठाया जा सकता है। तालीम हासिल करने के दौरान कक्षा में सिर्फ विषय से सम्बन्धित बात की जायेगी। एक मर्द औरत से उसकी निजी ज़िन्दगी के बारे में सवाल नही कर सकता क्योंकि इससे आगे मेलजोल का रास्ता खुलता है।
इंसान अपनी ज़िन्दगी दो क्षेत्रों में गुजारता है : -
(1) सार्वजनिक क्षेत्र : - ऐसी जगह जहाँ पर कोई भी आदमी बिना किसी की ईजाज़त के मौजूद हो सकता है जैसे कि मस्जिद, गली-कूचे और बाजार वगैराह।
(2) निजी क्षेत्र : - निजी क्षेत्र उसे कहते है, जहॉ प्रवेश करने के लिए इजाज़त लेनी पड़ती है, बिना ईजाज़त के कोई भी इस क्षेत्र में दाखिल नही हो सकता है, जैसे के घर। निजी क्षेत्र में भी किसी को इजाज़त नहीं कि वो गै़र-महरम से मेलजोल करे लेकिन कुछ मामलों में पाबंदियों के साथ इजाज़त है। जैसे मिसाल के तौर पर एक औरत चिकित्सक से इलाज के लिए मिल सकती है और बातचीत भी कर सकती है। दीन सीखने के मामलात में कक्षा में बैठ सकते है और आपस में उस विषय पर बात भी कर सकते है। शादी के अवसर पर औरत और मर्द इक्ट्ठे होते है। अक्सर ऐसी परिस्थिति आ जाती है, जिसमें वो एक साथ एक जगह पर मौजूद होते है, ऐसे वक्त में वो ज़रूरत के तहत बातचीत कर सकते है। शादी में मर्द और औरत साथ बैठकर खाना भी खा सकते है, लेकिन इसमें कुछ बातों को ध्यान में रखना होगा पहली तो ये कि औरत अपनी मर्यादा का ख्याल रखेगी वो अपने सांकेतिक लिबास में होगी जिसे हम खिमार और जिलबाब कहते है।
दूसरी बात ये कि वो करीब बैठकर खाना खा सकती है लेकिन एक ही थाली में दो गै़र-महरम खाना नही खा सकते क्योंकि इससे भी आगे के लिए मेलजोल का रास्ता खुलता है। इस्लामी रियासत की पुलिस निजी क्षेत्र में प्रवेश कर सकती है, अगर उनको कोई ज़रूरी क़ानूनी कार्यवाही करनी हो चाहे वहाँ औरतें मौजूद हो। निजी क्षेत्र में मर्द और औरत को उस वक्त भी बातचीत की इजाजत है जिस वक्त बातचीत की बहुत ज़्यादा ज़रूरत हो जैसे कि कोई मुसिबत आ जाए, तूफान या आंधी आ जाए, जंग की सूरत में भी मर्द और औरत का आपस में ज़रूरत के हिसाब से बात करना जाईज़ है।
यह तो निजी क्षेत्र की बात थी अब सार्वजनिक क्षेत्र की बात करते है, वो जगह जहॉ पर आम तौर पर लोग मिलते है, मगर कोई ईजाज़त लेने की ज़रूरत नही होती। जैसे मस्जिदे या बाजार। निजी क्षेत्र हो चाहे सार्वजनिक क्षेत्र इस्लाम इजाज़त नही देता कि गै़र-मर्द और औरत आपस में मेलजोल या बातचीत करे लेकिन जिस तरह से उनको निजी क्षेत्र में खास ईजाज़त हैं। उसी तरह सार्वजनिक क्षेत्र में भी कुछ खास स्थिति में बातचीत की इजाज़त होती हैं। जैसे मस्जिद में औरतों के लिए यह ईजाज़त है कि वो सीखने के लिए ऐसे मदरसों में जा सकती है जहॉ मर्द भी दीन सीखने आते है, लेकिन वहॉ भी पर्दे का ख्याल रखना होगा। बाजार में भी औरते जा सकती है, मर्दो के साथ खरीद व फरोख्त कर सकती हैं। अस्पताल में स्त्री और पुरूष दोनों स्टाफ हो सकता हैं। डॉक्टर औरत भी हो सकती है और मर्द भी हो सकता हैं। मरीज औरत भी हो सकती है और मर्द भी हो सकता हैं। इनको इस्लाम की तरफ से इजाज़त है कि इलाज से सम्बन्धित बातचीत कर सकते हैं।
शिक्षा के ताल्लुक से मर्द और औरत का सार्वजनिक क्षेत्र में आना-जाना जाईज़ है और आपस में उससे सम्बन्धित बातचीत करना भी जायज़ हैं। लेकिन यहाँ भी वो ही नियम लागू होगें जो इस्लाम ने बताये जैसे मिसाल के तौर पर कक्षा में किसी लड़की से कोई लड़का निजी ज़िन्दगी के बारे में सवाल नही कर सकता। ये इस्लाम में जाईज़ नही है। हॉ, उससे शिक्षा के सम्बन्ध में बात कर सकते है। अरब दुनिया में आज भी यह बात पाई जाती है कि किसी अरब औरत से कोई यह नही पूछ सकता कि उसकी ज़िन्दगी के क्या हालात हैं, उसके कितने भाई-बहन है, उसके पिता का क्या व्यापार है इत्यादि। यह इस्लामी तहज़ीब है, जो माहौल में नजर आती थी लेकिन आज बहुत कम नजर आती हैं।
इस्लाम में औरतें नौकरी कर सकती हैं। बहुत सी नौकरियॉ इस्लाम में औरतों के लिए जाईज़ हैं। जैसे वो शिक्षक हो सकती है, चिकित्सक हो सकती है, इन्जीनियर हो सकती हैं। सिर्फ यह ध्यान रखना होगा कि वो सार्वजनिक क्षेत्र में मौजूद है या निजी क्षेत्र में। जैसे निजी क्षेत्र में उसके लिए जाईज़ नही है कि वो बिना महरम के मौजूद रहे। दफ्तर (ऑफिस) सार्वजनिक क्षेत्र में आता है, अगर ऐसे इम्कान हो कि वहाँ औरत को किसी मर्द के साथ अकेला रहना पड़ सकता है तो उसके लिए यह जाईज़ नही है कि वो वहॉ पर रहे। औरत के लिए करोबार करना इस्लाम में जाईज़ है और वो मर्दो के साथ लेन-देन भी कर सकती है, इसके अलावा सार्वजनिक क्षेत्रों में जैसे पार्क, ऐयरपोट, स्टेशन वगैराह, इन सब में औरत और मर्द को ज़रूरत के मुताबिक़ मिलना जाईज़ हैं। लेकिन ये शरीअत के दायरे में और सही मंशा के तहत होना चाहिए। तन्हाई में गै़र-मेहरम के साथ हंसी मजाक और गपशप की ईजाज़त नही हैं।
यह सिर्फ महरम के लिए ही जाईज़ है यानी एक मर्द खिलवत में अपनी खाला, अपनी बुआ से हंसी मजाक कर सकता हैं। उसी तरह एक औरत अपने भाई, अपने बाप या अपने चाचा से तन्हाई में हंसी मजाक या गपशप कर सकती हैं। इस्लाम में खिलवत (तन्हाई) में रहने के भी नियम हैं। खिलवत का अर्थ है गै़र-मेहरम मर्द और औरत का एक साथ जमा होना। अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) की हदीस है कि आप (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया कि ''जब एक मर्द और औरत अकेले होते है तो उनके बीच तीसरा शैतान होता है।'' खिलवत कहीं भी हो सकती है, चाहे निजी क्षेत्र हो या सार्वजनिक क्षेत्र। निजी क्षेत्र में किसी का कमरा, किसी की जगह या क्लिनक में खिलवत हो सकती है और सार्वजनिक क्षेत्र में बाजार, विश्वविद्यायल या जंगल में खिलवत हो सकती हैं। किसी भी मर्द और औरत को इस बात की इजाज़त नही है कि वो खिलवत में किसी भी गै़र-महरम के साथ मौजूद रहे। इस्लाम ने गै़र-महरम औरत और मर्द को आपस में मिलने और दोस्ती करने का जरिया शादी बताया हैं।
इसके अलावा किसी और तरीक़े से जो रिश्ते बनाए जाते है वो हराम क़रार दिए है और उसके लिए सख्त सजाए भी रखी हैं। इस्लाम में शादी को बहुत ज़्यादा अहमियत दी है, उसके लिए कुछ शर्ते रखी हैं। इसी को ही साफ तौर पर दोस्ती की बुनियाद बताई गई हैं। अल्लाह के नबी (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया ''जब एक आदमी शादी करता है तो अपना आधा ईमान मुकम्मल कर लेता है और बाकि रहा उसका आधा ईमाम या दीन वोह उसकी फिक्र करें।'' आधा दीन तो उसका वैसे ही मुकम्मल हो गया, यानी कि वोह बहुत सारी बुराईयो से बच जायेगा। उसके साथ वो जो फराईज़ को अदा करेगा, वो ईबादात में शुमार हो जायेगा। बच्चों को पालना भी ईबादत है, तो बहुत सारे काम अपने आप उसमें शामिल हो जायेगें। शरीअत में शादी का जो मक़सद बताया गया है वोह है विपरीत लिंग से सम्बन्ध बनाना और उसके ज़रिए बच्चे पैदा करना, ताकि इंसानी नस्ल आगे बढ़ती रहे। इस्लाम में शादी एक अक्द (कॉन्ट्रेक्ट) होता है, जो मर्द और औरत के बीच में होता हैं। वो ना तो कोई जन्म जन्मान्तर का रिश्ता होता है, जो कभी टूटे नही और ना ही कोई ऐसा रिश्ता जैसा कि आम तौर पर दूसरे धर्मो में पाया जाता हैं।
इस्लाम में शादी को बहुत ही मुकद्दस और पाक रिश्ता माना है, इसके मुक़ाबले में दुनिया के दूसरे धर्मो में इसको एक बुरी चीज़ मानी गई है, सैक्सुअल ज़रूरत को पूरा करने का तरीक़ा इस्लाम ने निकाह को बताया है, जिस्मानी ख्वाहिश होना इंसान की मूल प्रवृत्ति है और इस्लाम इसको बुरा नही समझता बल्कि इसको संतुलन में रखने के लिए निकाह का हुक्म देता है जबकि दूसरे मजहब में सैक्सुअल ज़रूरत को पूरा करना एक अच्छी चीज़ नही मानी गई है, वो इसको स्वीकार तो करते है लेकिन वो इसको बुरा मानते है।
एक मुस्लिम औरत के लिए इस बात का हुक्म के वो सिर्फ एक मुस्लिम मर्द से ही शादी करें और उसे काफिर से शादी करने की ईजाज़त नही हैं। मुस्लिम मर्द को इस बात की इजाज़त है कि वो किसी अहले किताब से शादी कर सकता है, लेकिन वो कुँआरी और पाक दामन औरत होना चाहिए। शादी के ताल्लुक से भी मर्द और औरत की कुछ ज़िम्मेदारियॉ है जैसे क़ुरआन की आयत है कि ''मर्द औरत के मुआफिज़ है क्योंकि अल्लाह (सुबाहनहू व तआला) ने उनको ज़्यादा फजिलत दी है कि एक-दूसरो पर कि वो अपनी दौलत उन पर खर्च करते हैं।'' (सूरह अन-निसा - 4:34 )
इसलिए जो मोमिन औरत है वोह मर्द की ईताअत करें और उन चीज़ो की हिफाज़त करें जिसका अल्लाह तआला ने उसे मुआफिज बनाया है। औरत की ज़िम्मेदारी यह है कि वो अपने शौहर की खिदमत करे, अपने बच्चों की परवरिश करे, अपने शौहर की दौलत को हिसाब से खर्च करे और अपनी इज्ज़त की हिफाजत करे। हज़रत आयशा (رضي الله عنه) बयान फरमाती है कि ''अल्लाह के नबी (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया के अगर एक औरत अपने घर की हिफाज़त करती है और खाने की चीज़ों को और ज़रूरत की चीज़ों को भी बर्बाद नही करती है तो उसके लिए भी अज्र है कि उसको उसके लिए सवाब है'' और एक शौहर को भी इस बात के लिए सवाब है कि जो भी कुछ वो कमाता है अपनी बीवी बच्चो पर खर्च करता है। मर्द की जो जिम्मदारी है वोह है औरत और बच्चों की निगरानी करना, उनको सुरक्षा देना और उनकी जो भी दुनियावी ज़रूरतें है, उनको पूरा करना। इस्लाम में औरत पर कोई ज़बरदस्ती नही है कि वो अपनी दौलत घर के हालात पर खर्च करें लेकिन मर्द के लिए यह फर्ज़ है चाहे वोह गरीब हो, तब भी वो उसका इंतजाम ऊठाएगा। और जहॉ तक आदमी के औरतों पर अधिकार है, वोह यह है कि औरत उसकी इताअत करें, फर्माबरदारी करें, वो जब भी अपने घर से बाहर जाए तो अपने आदमी से उसकी ईजाज़त लें। और आदमी को सुकून देने की कोशिश करें यानी आम तौर पर उसकी ईताअत करें। आदमी को यह भी अधिकार है कि अगर वोह अपनी बीवी से खुश ना हो तो वो तलाक दे सकता है। औरत के लिए फर्ज़ है कि वो अपने बच्चे और पैसों की हिफाज़त करें जो मर्द ने उसे सौफ रखें है और हमेशा अपने शौहर की भलाई चाहे, बच्चों की देखरेख करें। औरत का आदमी पर अधिकार है कि वो आदमी उसके साथ अच्छा सुलूक करें और उसके साथ हमेशा प्यार महोब्बत का और अच्छे सम्बन्ध बनाए रखें।
आदमी को चाहिए के वो उसका अधिकार पूरा करें। दूसरा अधिकार औरत का यह है कि आदमी उसकी रोटी, कपडा़ और मकान की ज़रूरियात को पूरी करें। और यह भी कि वो उसकी साज़-सज़ावट का इंतजाम करें ताकि वो अपने आप को खुबसूरत बनाकर रखें। औरत का यह भी अधिकार के अगर वो अपने शौहर को किसी वजह से पंसद नही करती जैसे कि वो उसे मारता हो, जिस्मानी तक्लीफ पहुँचाता हो या दिमागी तौर पर तक्लीफ देता हो, तो औरत को अधिकार है कि वो उससे ''खुला'' (तलाक) ले सकती है। यह तलाक़ की एक किस्म है जिसमें औरत अपने आप को उससे छुटकारा दिला सकती है। औरत और मर्द के बीच में तलाक हो जाए तो सात साल की उम्र तक बच्चा रखने का अधिकार औरत का होता है। सात साल के बाद वो बच्चा बाप की परवरिश में जा सकता है। ये कुछ अधिकार थे जो यहॉ बताये गऐ ऐसे अनगिनत अधिकार है जो इस्लाम ने औरत को दिये है। इस्लाम में मर्द और औरत के बीच कोई प्रतिस्पर्धा नही है बल्कि दोनो को अपने-अपने अधिकार और कर्तव्य बता दिऐ गऐ है। पश्चिमी क़ानून में आज भी ये कर्तव्य स्पष्ट नही किये गये है। इस्लाम ने पति-पत्नी के रिश्ते को बहुत ही खुबसूरत अंदाज में बयान फरमाया है। अल्लाह के नबी (صلى الله عليه وسلم) का फरमान है कि ''तुम में सबसे अच्छा ईमान वाला वो है जिसके अख्लाक अच्छे है और तुममें सबसे बेहतर वो है जो अपनी बीवीयों के साथ बेहतर है।'' (तिर्मिजी शरीफ) यानी बीवीयो के साथ बेहतर होना एक बेहतरीन अख्लाक का एक बेहतरीन ईमान का सबूत है। एक और हदीस में अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया कि ''दुनिया माले मताह है और सबसे बेहतरीन फायदे की चीज़ अगर दुनिया में कोई है तो वोह एक नेक औरत है।'' (मुस्लिम शरीफ)
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