तरीक़ा और उस्लूब के बीच फ़र्क़ (THE METHOD AND STYLE)

तरीक़ा और उस्लूब के बीच फ़र्क़/THE METHOD AND STYLE:

एक सवाल यह पैदा होता है कि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने मक्का में जो कुछ किया और कहा, क्या वो तमाम अल्लाह (سبحانه وتعالى) की तरफ़ से नाज़िल करदा वह्यी है कि जिसकी वजह से उनकी पाबंदी करना हम पर वाजिब होता है? या कुछ अफ़आल और अक़्वाल ऐसे भी हैं जो वही का हिस्सा नहीं हैं कि जिसकी वजह से इनमें आप (صلى الله عليه وسلم) की पैरवी करना हम पर फ़र्ज़ नहीं है?

यहीं से तरीक़ा, उस्लूब और वसीला की बेहस शुरू होती है । एक सवाल मज़ीद जो यहां पैदा होता है कि क्या तरीक़ा (जो शरई अहकाम का मजमूआ है ना कि उस्लूब का मजमूआ) पर ऐसा हुक्म लगा नाजायज़ है कि तजुर्बा की बुनियाद पर ही तरीक़ा सामने आएगा है ? अगर कुछ अर्सा कोशिशों के बाद कोई तजुर्बा कामयाब साबित हो जाए तो इसके सही तरीक़ा होने का हुक्म दिया जायेगा वरना उसको ग़लत समझा जाएगा?
पहले मामले से मुताल्लिक़/ Regarding the first issue:
हम कहते हैं : अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने मुसलमानों को हुक्म दिया है कि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की पैरवी करें और हर वो चीज़ जो आप (صلى الله عليه وسلم) ने कही यह की इन आमाल व अक़वाल की इत्तिबा और पैरवी करें, अल्लाह (سبحانه وتعالى) का इरशाद है:

وَمَا يَنطِقُ عَنِ ٱلۡهَوَىٰٓ ( ٣ ) إِنۡ هُوَ إِلَّا وَحۡىٌ۬ يُوحَىٰ ( ٤ )
ये (रसूल) अपनी ख़ाहिश से बात नहीं करते ये तो बस वही है जो उसकी तरफ़ आती है।   (53:3-4)
और इसके अलावा मज़ीद फ़रमाया:


وَمَآ ءَاتَٮٰكُمُ ٱلرَّسُولُ فَخُذُوهُ وَمَا نَہَٮٰكُمۡ عَنۡهُ فَٱنتَهُواْۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۖوَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۖ
“रसूल जो कुछ लेकर तुम्हारे पास आए हैं उसको इख़्तियार करो और जिस चीज़ से तुम्हें मना किया है इससे रुक जाओ।”  {59:7}

यहां (ما) उमूम के अलफ़ाज़ (expressions of generality) में से है, इसलिए कोई भी चीज़ जो रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) हमारे लिए लाए हैं (यानी उसे हम तक पहुंचाए हैं ) वो चीज़ इत्तिबा और पैरवी के इस दायरे से बाहर नहीं, जब तक कोई ऐसी शरई दलील मौजूद ना हो जो इस आम हुक्म को सिर्फ़ रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के लिए ख़ास बतलाए।

अब कुछ ऐसे दलायल भी वारिद हुए हैं जो रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के कुछ अक़्वाल व अफ़आल (sayings and actions) में आप (صلى الله عليه وسلم) की पैरवी करने को आप (صلى الله عليه وسلم) की पैरवी के हुक्म से ख़ारिज कर देते हैं और उनका जानना निहायत ज़रूरी है जैसे:


(1) रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) का ये इरशाद कि:

((أنتم أعلم بأمر دنياكم))
“तुम अपने दुनियावी कामों को बेहतर जानते हो ।” (मुस्लिम)

चुनांचे इसके माअनी हुए कि दुनियावी मामलात जैसे कृषि, उद्योग, अविष्कार, मैडीकल की तालीम, रियाज़ी (engineering) वग़ैरा ये सारे वही नहीं है। रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने हमें बताया कि इन उल्लेखित मामलात में आप (صلى الله عليه وسلم) भी दूसरे इंसानों की तरह एक शख़्स हैं इनमें आप (صلى الله عليه وسلم) की कोई विशेषता और इन्फ़िरादियत नहीं ।

(2) वो अफ़आल जिनका सिर्फ़ आप (صلى الله عليه وسلم) के लिए मख़सूस (specific) किया जाना साबित है जिनमें कोई दूसरा शख़्स आप (صلى الله عليه وسلم) के साथ शरीक नहीं जैसे सलातुज़्ज़ुहा का सिर्फ़ आप (صلى الله عليه وسلم) पर फ़र्ज़ होना, इफ़्तार किए बगै़र रोज़ा को रात में जारी रखने की इजाज़त या चार से अधिक शादीयों की इजाज़त, इन मामलात के अलावा भी दीगर मामलात हैं जो आप (صلى الله عليه وسلم) के लिए ख़ास हैं और इनमें किसी को भी इजाज़त नहीं कि वो आप (صلى الله عليه وسلم) की पैरवी करें ।

(3) वो अफ़आल जिनका ताल्लुक़ इंसानी जिबलत वफ़तरत से है जिनको इंसान जुबली और तिब्बी तौर पर अंजाम देता है। जैसे उठना, बैठना, चलना, खाना,पीना वग़ैरा ये ऐसे अफ़आल हैं जिनका रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) और आप (صلى الله عليه وسلم) की उम्मत के लिए मुबाह होने में कोई इख़तिलाफ़ नहीं ।

(4) रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) जब किसी शरई हुक्म को अंजाम फ़रमाते थे तो इसे करने के लिए अलग-अलग उस्लूब (स्टाइल) से काम लेते और इस काम के मुनासिब संसाधन (means) इस्तिमाल करते । दरअसल हुक्म शरई अल्लाह (سبحانه وتعالى) का हुक्म है जिसको नाफ़िज़ करना फ़र्ज़ है। लेकिन इस हुक्म शरई को नाफ़िज़ करने का अंदाज़ क्या होगा यानी उस्लूब (स्टाइल) और इसके मुनासिब संसाधन किया इस्तिमाल किए जाएं ये मामला रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की मर्ज़ी पर छोड़ा गया कि एक शख़्स की हैसियत से आप (صلى الله عليه وسلم) के लिए जो मुम्किन हो ऐसा बेहतरीन उस्लूब और वह वसीला अपनाए जो हराम की तरफ़ ना पहुंचा दे।

मिसाल के तौर पर अल्लाह (سبحانه وتعالى) का ये इरशाद कि:


فَٱصۡدَعۡ بِمَا تُؤۡمَرُ
“खुल कर बयान कीजिए जिसका तुम्हें हुक्म दिया जा रहा है।”

ये एक हुक्म शरई है जिसको नाफ़िज़ करना लाज़िमी है। लेकिन शरअ ने उसको अंजाम देने के लिए कोई विशेष अंदाज़ नहीं बतलाया कि उसको किस तरह नाफ़िज़ किया जाये, रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने अल्लाह (سبحانه وتعالى) के हुक्म की पालना में अल्लाह (سبحانه وتعالى) के हुक्म के मुताबिक़ दावत के मामला को अलल-ऐलान बयान कर दिया जिसकी ख़िलाफ़वर्ज़ी आप (صلى الله عليه وسلم) कभी नहीं कर सकते थे । लेकिन रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने जिस कैफ़ीयत या अंदाज़ में अलल-ऐलान दावत देने के हुक्म को पूरा किया वो अंदाज़ या कैफ़ीयत आप (صلى الله عليه وسلم) रसूल पर लाज़िम नहीं की गई थी। चुनांचे इसके नतीजे में हमें मालूम होता है कि जो जमात, रियासत को क़ायम करने के लिए रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की पैरवी कर रही है ऐसी जमात पर भी लाज़िम नहीं है कि वो इस हुक्म को अंजाम देने के लिए वही ख़ास कैफ़ीयत (अंदाज़) इख़्तियार करे जो कि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने (बहैसीयत शख़्स) इख़्तियार किए थे । चुनांचे रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) सफ़ा पर खड़े हुए, खाने पर लोगों को बुलाया, मुसलमानों की दो सफ़ बना कर बाहर काअबे की तरफ़ गए। ये दरअसल उस्लूब (स्टाइल) हैं जो हुक्म शरई को अंजाम देने के लिए इख़्तियार किए गए हैं यानी उस्लूब (स्टाइल) असल हुक्म के फरुई अफ़आल हैं, असल हुक्म (صدع) यानी खुल कर दावत देना है। और उसूली( फ़िक़्ही) लिहाज़ से ये उस्लूब अस्लन मुबाह हैं । शरअ ने उस्लूब पर किसी क़िस्म की क़ैद नहीं डाली चुनांचे जमात पर छोड़ दिया गया है ताकि वो मौक़ा और महल (अवसर) को देखकर शरअ के अन्दर रहते हुए मुनासिब उस्लूब इख़्तियार करे।

और मसलन अल्लाह (سبحانه وتعالى) का ये इरशाद कि:


وَأَعِدُّواْ لَهُم مَّا ٱسۡتَطَعۡتُم مِّن قُوَّةٍ۬ وَمِن رِّبَاطِ ٱلۡخَيۡلِ تُرۡهِبُونَ بِهِۦ عَدُوَّ ٱللَّهِ وَعَدُوَّڪُمۡ  {8:60}
 
“और तुम इन (कुफ़्फ़ार) के मुक़ाबले में भरपूर क़ुव्वत और पले हुए घोड़ों से तैय्यार करो, जिनसे तुम अपने और अल्लाह (سبحانه وتعالى) के दुश्मनों पर हैबत तारी कर सको।”

अल्लाह (سبحانه وتعالى) का ये फ़रमान (واعدوا) तैय्यारी करो ये ऐसा शरई हुक्म है जिसकी पाबंदी ज़रूरी है। ये फ़र्ज़ हुक्म है जिसकी ख़िलाफ़वर्ज़ी हराम है। असल हुक्म तैय्यारी करना है ऐसी तैय्यारी जिसकी वजह से हुक्म में बयान की गई शरई इल्लत (वजह) यानी दुश्मनों पर हैबत तारी कर सको, हुक्म का ये मक़सद पूरा हो जाये। इस इल्लत (मक़सद) को हासिल करने के लिए वसीले के तौर पर घोड़े ही इस्तिमाल किए जाएं ये लाज़िम नहीं है। बल्कि हर ऐसा वसीला जिससे दुश्मन पर हैबत तारी हो सकती है, उसे अपनाना मतलूब (demanded) है। वो संसाधन जिनके ज़रीये जिहाद किया जा सके, हमेशा बदलते रहते हैं, चुनांचे आज इसके लिए बहुत सारे आधुनिक संसाधन व टेक्नोलोजी हैं । लिहाज़ा हुक्म की रु से मतलूब वो वसाइल हैं जो हुक्म शरई को अंजाम देने में ज़्यादा फ़ायदेमंद हो । आज के इस दौर में दुश्मनों और मुनाफ़िक़ीन के दिलों में हैबत पैदा करने के संसाधन ये हैं यानी हवाई जहाज़, दिफ़ा की मज़बूती, रोकेट्स, टैंक और मिज़ाईल सिस्टम वग़ैरा चुनांचे हुक्म शरई अल्लाह (سبحانه وتعالى) का वो हुक्म है जिसकी ख़ातिर बराहे-रास्त अल्लाह (سبحانه وتعالى) का फ़रमान है क्योंकि वही असल हुक्म है। जबकि उस्लूब जुज़वी यानी फरुई हुक्म (partial hukm) है जो कि असल हुक्म को अंजाम देने की ख़ातिर है। ये मुबाह है और हम पर छोड़ा गया है कि हम हुक्म के लिए मुनासिब उस्लूब (स्टाइल) इख़्तियार करें ।

वसीला (अल-वसीला) वो चीज़ें (उपकरण और औज़ार) हैं जिनके ज़रीये हुक्म शरई को अंजाम दिया जाता है। ये भी अस्लन मुबाह (जायज़) है और हम पर छोड़ा गया है कि हम निहायत उचित और उपयुक्त वसीले को चुनें ।

इसी तरह इस वजह से हर वो चीज़ जो रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) से सादिर हुई मक्का में या मदीना में और चाहे इसका ताल्लुक़ अक़ीदे से हो या निज़ाम से। मन्हज यानी रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के तरीक़े के हवाले से हो या अहकामे शरीया को ज़िंदगी में ततबीक़ (apply करने) के हवाले से। ये तमाम अहकाम वही हैं और ये इन आमाल में शामिल हैं जिनमें रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की (तासी) पैरवी हम पर लाज़िम है सिवाए ऊपर बयान की गईं उस्लूब और वसाइल की मिसालें और इसी क़िस्म की दीगर मिसालों को छोड़कर।
जब भी कोई शख़्स मक्का में रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की दावत के तरीके-कार का अध्ययन करता है तो उसे मालूम होता है कि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने कुछ ऐसे आमाल अंजाम दिये जो कि अहकामे शरीया हैं उनकी ख़िलाफ़वर्ज़ी जायज़ नहीं बल्कि उनको अंजाम देना फ़र्ज़ है। जबकि कुछ ऐसे अफ़आल अंजाम दीयें जो उस्लूब की श्रेणी में आते हैं और कुछ संसाधन इस्तिमाल किए जिनके ज़रीये वो कुछ अंजाम दिया जो हुक्मे शरई की मांग था। हमें बेहद ज़रूरी है कि उन मामलात की समझ हासिल करें जिनका हुक्म तरीक़ा के शरई अहकाम में से है और उन मामलात की भी समझ हासिल करें जिनका ताल्लुक़ उस्लूब और वसाइल से हैं और फिर उनके बीच के आपसी फ़र्क़ को अच्छी तरह समझ लें ताकि कोई भी जमात जान सके कि इसका मुक़र्ररा मतलूबा (specifically required) काम क्या है जिस पर उसको पाबंद रहना लाज़िम है और कौन सी चीज़ें जमात के इख़्तियार में छोड़ दी गईं हैं ताकि इसके लिए जो मुनासिब हो उसको अपना ले। 
ये जायज़ नहीं कि पूरे तरीक़े को उस्लूब में से समझ लिया जाये कि जिसको अपनाना जमात के इख़्तियार में दे दिया गया हो ताकि हालात के एतबार से इख़्तियार करे, क्योंकि ऐसा समझने पर तरीक़े से संबधित अहकामे शरीया नजरअंदाज़ हो जाऐंगे और उनकी जगह अपनी जानिब से अहकामात घड़ लिए जाऐंगे जो कि शरअन हराम होगा। इस मामले को अधिक स्पष्ट करने के लिए हम कुछ मिसालें पेश करेंगे जिनमें रसूल (صلى الله عليه وسلم) की पैरवी लाज़िमी है।

(1) पहला बिन्दू, अल्लाह (سبحانه وتعالى) का इरशाद है:


﴿فَاصْدَعْ بِمَا تُؤمَرُ 15:94}
“तुम्हें जो हुक्म दिया जा रहा है उसको खुलकर बयान करें ।”


ये हुक्म अल्लाह (سبحانه وتعالى) की तरफ़ से अपने रसूल (صلى الله عليه وسلم) के लिए फ़रमान है कि दावत को अब ऐलानीया कर दिया जाये। इस फ़रमान से हमें दो शरई अहकामात की मालूमात हासिल होती है, पहले ये कि इस आयत के नुज़ूल से पहले रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने ऐलानीया दावत शुरू नहीं की थी। दूसरी ये कि इस आयत के नुज़ूल के साथ ऐलानीया दावत देने का हुक्म मिला था। ऐलानीया दावत देने या ना देने का इख़्तियार रसूल (صلى الله عليه وسلم) पर नहीं छोड़ा गया था। बल्कि आप (صلى الله عليه وسلم) ऐलानीया दावत से मुताल्लिक़ अल्लाह (سبحانه وتعالى) के हर एक हुक्म पर पाबंद थे। ये शरई हुक्म है जिसे शरीयत ने बयान कर दिया है, ये फ़ैसला रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने अपनी जानिब से नहीं किया है जिसकी वजह से ये हुक्म इन आमाल में दाख़िल है जिनमें आप (صلى الله عليه وسلم) की पैरवी करना लाज़िमी है।


अल्लाह (سبحانه وتعالى) का ये इरशाद कि :



﴿بِمَا تُؤمَرُ﴾ {15:94}
“तुम्हें जो हुक्म दिया जा रहा है।”


इस बात की दलील पेश कर रहा है कि इस मामले में फ़ैसला यानी हुक्म अल्लाह (سبحانه وتعالى) का ही है।
2। दूसरा बिन्दू, अल्लाह (سبحانه وتعالى) फ़रमाते हैं कि:

﴿أَلَمْ تَرَ إِلَى الَّذِينَ قِيلَ لَهُمْ كُفُّواْ أَيْدِيَكُم وَأَقِيمُواْ الصَّلاَةَ﴾ {4:77}
 (अन्निसा-77) “क्या तुम ने उन लोगों को नहीं देखा कि जिनसे कहा गया कि अपने हाथ रोको और नमाज़ क़ायम करो... ”
आप (صلى الله عليه وسلم) से अब्दुर्र-रहमान (رضي الله عنه) बिन औफ़ ने जब कुफ़्फ़ार के मज़ालिम का मुक़ाबला करने के लिए हथियारों के इस्तिमाल की इजाज़त मांगी तो रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) का उनको ये फ़रमाना कि :

((إني أمرت بالعفو، فلا تقاتلوا القوم))
“मुझे दरगुज़र का हुक्म दिया गया है, पस क़ौम से मत लड़ो ।” (इब्ने अबी हातिम, नसाई, अल-हाकिम)


इस घटना के अर्से बाद जब मक्का से मदीना हिज्रत हुई तो इस दौरान अल्लाह (سبحانه وتعالى) की जानिब से ये वह्यी नाज़िल हुई कि:

 أُذِنَ لِلَّذِينَ يُقَـٰتَلُونَ بِأَنَّهُمۡ ظُلِمُواْوَإِنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ نَصۡرِهِمۡ لَقَدِيرٌۚ وَإِنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ نَصۡرِهِمۡ لَقَدِيرٌ{22:39}
“उन लोगों को क़िताल (लड़ने) की इजाज़त दी गई जिनके ऊपर ज़ुल्म हुआ और अल्लाह (سبحانه وتعالى) यक़ीनन उनकी मदद पर क़ादिर है।”


ये आयतें और हदीस सब इस बात की दलील पेश करते हैं कि पहले क़िताल की इजाज़त नहीं दी गई थी और इसकी इजाज़त बाद में दी गई। जिस हस्ती ने इसकी इजाज़त दी वो सिर्फ़ अल्लाह (سبحانه وتعالى) की ज़ात थी । दावत के लिए क़िताल का ये मामला हुक्मे शरई है जिसकी पाबंदी करना लाज़िम है। ऐसा नहीं हुआ कि इस मामले में फ़ैसला का इख़्तियार आप (صلى الله عليه وسلم) को था कि जिसकी वजह से रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने अपनी मर्ज़ी से क़िताल किया या अपनी ख़ाहिश के तहत इससे बाज़ रहे, बल्कि मामले का फ़ैसला वह्यी के ज़रीये नाज़िल हुआ था चुनांचे ये हुक्म भी रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की पैरवी के दायरे में आता है। लिहाज़ा रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने जिस तरह ख़ुद को अल्लाह (سبحانه وتعالى)  के इस हुक्म का पाबंद किया इसी तरह आप (صلى الله عليه وسلم) की पैरवी करते हुए हमें भी अल्लाह (سبحانه وتعالى) के इस हुक्म की पाबंदी करनी पड़ेगी ।


(3) तीसरा बिन्दू, इसी तरह रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) का ये इरशाद फ़रमाना जब कभी आप (صلى الله عليه وسلم) क़बाइले अरब से नुसरा तलब करते :

((يا بني فلان اني رسول الله إليكم، يأمركم أن تعبدوا الله
ولا تشركوا به شيئاً، وأن تخلعوا ما تعبدون من دونه من هذه
الأنداد، وأن تؤمنوا بي و تصدقوا بي و تمنعوني حتى أبين عن
الله ما بعثني به))


 “ए फ़ुलां के बेटो! में तुम्हारी तरफ़ अल्लाह (سبحانه وتعالى) का रसूल हूँ, (अल्लाह سبحانه وتعالى) तुम्हें हुक्म देता है कि तुम उसकी इबादत करो, इसके साथ किसी को शरीक ना बनाओ जिन शरीकों की तुम इबादत करते हो उनसे बाज़ आओ मुझ पर ईमान लाओ मेरी तस्दीक़ करो (एक और रिवायत में है मेरी मदद करो) और मेरी हिफ़ाज़त करो ताकि में उस चीज़ को बयान कर दूँ जिसके साथ अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने मुझे भेजा है ।” (सीरते इब्ने हिशाम)
रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने इस हदीस में बतला दिया कि ये अल्लाह (سبحانه وتعالى) का हुक्म है। रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) इस मामले में वह्यी की पैरवी करते थे, उसकी सबसे अहम दलील ये है कि क़बाइले अरब के ज़रीये कई दफ़ा इन्कार किए जाने, सख़्ती से पेश आने और बदसुलूकी के साथ जवाब देने के बावजूद रसूले अकरम (صلى الله عليه وسلم) तलबे नुसरत पर निरंतर इसरार (insistence) करते रहे।

ये तमाम दरअसल तरीक़े (रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के दावती तरीके-कार) से संबधित शरई अहकामात की मिसालें है। जहां तक उन संसाधनों और उस्लूब का ताल्लुक़ है जिनका इस्तिमाल इन अहकामात को अंजाम देने के लिए किया गया था उन पर उसूली तौर पर इसी विशेष अंदाज़ में पाबंदी करने का हम पर हुक्म आइद नहीं किया गया। बल्कि हम हुक्म शरई को अंजाम देने के लिए उपयुक्त उस्लूब और बेहतरीन संसाधन इस्तिमाल करेंगे ।

रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) अपनी दावत में मोमिनों को इकठ्ठा करके तर्बीयत देने का अमल किया करते थे और ये फे़अल आप (صلى الله عليه وسلم) दारे-अरक़म, इनमें से कुछ लोगों के घरों में और पहाड़ों की वादीयों में अंजाम दिया करते थे। हमारे लिए ऐसी तर्बीयत करना हुक्म शरई है जिसकी पाबंदी हम पर लाज़िम है अलबत्ता हम इस तर्बीयत के लिए मुनासिब उस्लूब इख़्तियार करेंगे। चुनांचे हलक़ात की शक्ल में इकट्ठा करके या घरों में ख़ानदान को अफ़्क़ार देने का उस्लूब इख़्तियार किया जा सकता है। इससे जुड़ी दीगर बातों में जैसे कितना वक़्त दरकार हो, कब ये अंजाम दिया जाये, अफ़राद की तादाद वग़ैरा को ऐसे उचित अंदाज़ में निर्धारित किया जाये जो दावत के अमल में शामिल शबाब के ज़हनों में अफ़्क़ार को पुख़्ता कर दे जो इस पर यक़ीन रखते हों । ये तमाम इख़्तियारात हम पर छोड़ें गए हैं, चुनांचे हम उन चीज़ों को इख़्तियार करेंगे जो इस हुक्मे शरई को अदा करने के लिए निहायत उचित होंगे, और हुक्म शरई ये है कि इज्तिमाई और ज़बरदस्त तर्बीयत हो।

रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ख़ुद को और अपनी दावत को खुले आम मक्का के बाज़ारों में लोगों के सामने पेश किया करते थे, जब हम ये काम करें तो हमें खुले आम दावत के लिए मुनासिब उस्लूब इख़्तियार करना पड़ेगा। मिसाल के तौर पर लोगों को संबोधित करें या समाजी तक़रीबात और अवामी महफ़िलों (social gatherings or an occasions) में दावत को फैलाएं, और ऐसे मवाक़े पर जब त्योहार मनाया जाये या ख़ुशी और ग़म के मामलात में जब लोग जमा होते हैं । दावत के वसाइल के तौर पर मुख़्तलिफ़ ज़राए (विभिन्न माध्यम) को इस्तिमाल किया जा सकता है जैसे किताबें, मैगज़ीन, पम्फ़्लेट, कैसेट या बराहे-रास्त तक़रीर वग़ैरा, ये तमाम वसाइल (संसाधन/means) मुबाह हैं । इस तरह जब रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) तलबे नुसरा के लिए ताइफ की तरफ़ तशरीफ़ ले गए, अब इस काम के लिए आप (صلى الله عليه وسلم) पैदल गए हों या सवार होकर गए या आप (صلى الله عليه وسلم) ने कोई और वसीला इस्तिमाल किया, उन्ही संसाधनों को इख़्तियार करना आप (صلى الله عليه وسلم) की पैरवी के दायरे में नहीं आता, शरीयत ने कोई क़ैद नहीं लगाई कि हम कोई ख़ास संसाधन ही इस्तिमाल करें बल्कि हमें इख़्तियार दिया है कि मुनासिब वसाइल को हम चुनें । चुनांचे हमारे लिए ये बात जान लेना लाज़िमी है कि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के तरीक़ा में मुख़्तलिफ़ अहकामे शरीया शामिल हैं जिनको अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने वही नाज़िल करके निर्धारित कर दिया है और जिनसे आप (صلى الله عليه وسلم) बाल बराबर भी ना हटें। हम पर भी फ़र्ज़ है कि हम इन अहकामात से बाल बराबर ना हटें । जो चीज़ें तब्दील हो जाती हैं वो चीज़ें सिर्फ़ संसाधन, इशकाल और उस्लूब (means, forms and styles) हैं । ये वो चीज़ें हैं जो हुक्म शरअ को अंजाम देने में इस्तिमाल होते हैं और उसकी ज़रूरतें हैं । इनको इख़्तियार करना हम पर छोड़ा गया है जैसा कि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) पर छोड़ा गया था।

दारुल-इस्लाम का क़याम यक़ीनन एक शरई हुक्म है, बाअज़ अफ़राद ऐसा ख़्याल करते हैं कि इस्लामी रियासत को क़ायम करने का तरीक़ा उस्लूब की तरह है और ये मामला हमारे सपुर्द किया गया है, हम उसको ख़ुद तय कर लेंगे कि इसका तरीके-कार क्या होगा, चुनांचे दारुल-इस्लाम के क़याम के लिए हम ऐसा कोई भी अमल अंजाम दे सकते हैं जिसके नतीजे में दारुल-इस्लाम क़ायम हो जाए । इसके लिए मिसाल के तौर पर हम ग़रीबों की मदद करें, लोगों को अख़्लाक़ की तरफ़ दावत दें, स्कूल और मदारिस बनाईं, अस्पताल क़ायम करें, नेक आमाल की तरफ़ दावत दें या फिर हुकमरानों से मुसल्लह जंग करें या हुकूमत में शामिल होकर काम करें । ये तमाम रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के तरीक़े से हट कर हैं, इन सब कामों को तरीक़े के तौर पर करना दारुल-इस्लाम को क़ायम करने के लिए रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की पैरवी को तर्क करना है जिसमें आप (صلى الله عليه وسلم) ने अपने रब के बतलाए तरीक़े की पाबंदी की थी। चुनांचे जिस तरह रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने अल्लाह (سبحانه وتعالى) के हुक्म की पालना करते हुए अवाम के सामने खुले आम ऐलानीया दावत दी इसी तरह ऐलानीया दावत देना हम पर भी फ़र्ज़ है वरना इसका मतलब यह होगा कि हम ने रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की पैरवी तर्क की और ये अमल शरीयत की ख़िलाफ़वर्ज़ी होगी। इसी तरह जैसे रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने क़िताल से ख़ुद हाथ रोके रखा और मुसलमानों को भी असलेह के इस्तिमाल की इजाज़त नहीं दी हमें भी इसी तरह हुक्म की पालना में आप (صلى الله عليه وسلم) की पैरवी करनी लाज़िम होगी। जिस तरह रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने नुसरत तलबे की इसी तरह हमें भी ज़माने की तब्दीलीयों के बावजूद तलबे नुसरत करना लाज़िम होगा। इजमाली तौर पर ये कि अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के लिए जो तरीक़े के मुख़्तलिफ़ मराहिल मुक़र्रर किए थे वही हमारे लिए भी मुक़र्रर किए हैं । इससे इख़तिलाफ़ करना या उसकी पैरवी नहीं करना शरीयत की ख़िलाफ़वर्ज़ी में शामिल होगा।

तरीक़े के बारे में हमें कोई इख़्तियार नहीं दिया गया है। शरीयत ने हमारे लिए एक मक़सद मुतय्यन किया और इस मक़सद को हासिल करने का एक मख़सूस तरीक़ा भी मुक़र्रर कर दिया है। और इस मामला में इताअत और फ़रमांबर्दारी के सवाइकोई दूसरा रास्ता हमारे पास नहीं है।

इस तरह मालूम हुआ कि सिर्फ़ शरई इबारतों (क़ुरआन व हदीस) के पास तरीक़ा के मराहिल (चरणों/stages) को निर्धारित करने का इख़्तियार है। किसी भी मरहले को निर्धारित करते समय हम अक़्ल, हालात या मस्लिहत (मफ़ाद) या किसी और चीज़ को बुनियाद नहीं बना सकते।

शरई नस की इबारत में लिसानी इशारात (अरबी ज़बान में मौजूद अलफ़ाज़ के माअनी और दीगर ज़राए, इबारत के अंदाज़ वग़ैरा) के एतबार से समझा जाता है ना कि लोगों की ख़्वाहिशात और रुझानात को ध्यान में रख कर उनकी तशरीह की जाती है, बल्कि हमारे रुझानात शरीयत के पाबंद और उसकी क़ैद में हैं और हम पर लाज़िम है कि हर उस चीज़ में पाबंदी इख़्तियार करें जिनसे अल्लाह (سبحانه وتعالى) राज़ी और ख़ुश होता है ।
चुनांचे हमारे लिए ज़रूरी है कि हम रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के तरीक़े की समझ हासिल करें और मुकम्मल तौर पर इस पर कारबन्द हो जाएं जिस तरह आप (صلى الله عليه وسلم) इस तरीक़े पर आगे बढ़ते रहे, इसी तरह ज़रूरी है कि समझें कि आप (صلى الله عليه وسلم) ने इस मुकम्मल काम को किन अलग अलग मरहलों में अंजाम दिया और फ़िर उन विभिन्न चरणों में आप (صلى الله عليه وسلم) ने कौन से विभिन्न कार्य अंजाम दिये हैं ।
तस्क़ीफ़ (तर्बीयत) के मरहले में रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने बाअज़ आमाल अंजाम दिये जैसे व्यक्तिगत तौर पर लोगों से मिलना, जो आप (صلى الله عليه وسلم) पर ईमान लाए उन्हें एक खु़फ़ीया जगह इकट्ठा करना और उनकी मुस्तक़ल तर्बीयत करना, चुनांचे हम भी उन आमाल के असल की पाबंदी करेंगे जो अल्लाह (سبحانه وتعالى) की तरफ़ से नाज़िल किए हुए अहकामे शरीया हैं जिन्हें अपनाना फ़र्ज़ है जबकि इन अफ़आल के लिए ज़रूरी वसाइल और मुनासिब उस्लूब हम अपनी तरफ़ से इख़्तियार कर सकते हैं ।

तफ़ाउल (समाज से संबोधन/stage of interaction) के मरहले में भी रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने कुछ ख़ास आमाल अंजाम दिये जैसे ऐलानीया दावत, इस दौरान सैंकड़ों आयात नाज़िल हुईं जिनमें ग़लत अक़ाइद, ख़राब रसमो रिवाज पर वार किए गए और क़ुरैश के सरदारों का नाम लेकर या कभी उनके ग़लत औसाफ़ को बयान करते हुए उनकी मज़म्मत की गई और रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने अपने आप को क़बाइले अरब के सामने पेश किया । हम भी इन आमाल के असल को अहकामे शरीया के तौर पर अपनाएंगे। पहले मरहले यानी तर्बीयती मरहले के अफ़आल के बाद इसके साथ हम दूसरे मरहले के आमाल जोड़ देंगे जिसमें फ़िक्री और सियासी जद्दो जहद, उम्मत के मफ़ादात (interests) को इस्लाम की बुनियाद पर पहचानना और इख़्तियार करना, साम्राज्यवादी कुफ़्फ़ार और उनके ग़ुंडों और एजैंट हुकमरानों के मंसूबों को बेनकाब करेंगे बिलकुल जिस तरह रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) किया करते थे, लिहाज़ा इन आमाल के लिए भी अपनी तरफ़ से ज़रूरी संसाधन और उस्लूब इस्तिमाल करेंगे।
बेशक रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की मक्की ज़िंदगी के दौर के आमाल से ही दारुल-इस्लाम के क़याम के लिए शरई हुक्म की पैरवी होगी। रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) जब इस तरीक़े पर चल पड़े और उसकी ख़ातिर विभिन्न कार्य अंजाम दिये, इस दौरान आप (صلى الله عليه وسلم) को मुसीबतों,ज़िल्लतों, आज़माईशों और ईज़ाओं का सामना करना पड़ा । इसके बावजूद आप (صلى الله عليه وسلم) नहीं थके और मज़बूत इरादे के साथ काम करते रहे, आप (صلى الله عليه وسلم) की जानिब अल्लाह (سبحانه وتعالى) का हुक्म नाज़िल होता और आप (صلى الله عليه وسلم) पूरी जद्दो जहद के साथ उसको नाफ़िज़ करते। बिलाशुबा वो शख़्स सीधे रास्ते से बहुत दूर निकल चुका है जो कोई शख़्स अल्लाह (سبحانه وتعالى) के इस फ़रमान {15:94}﴿فَاصْدَعْ بِمَا تُؤمَرُ﴾
को सुन चुका हो जिसमें अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने अपने रसूल को अपने फ़रमान की पालना में ऐलानीया दावत देने का हुक्म दिया और उसने ये भी देखा कि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने ऐलानीया दावत दी सिर्फ़ इसलिए कि ये आप (صلى الله عليه وسلم) के रब का फ़रमान था ना कि ये आप (صلى الله عليه وسلم) का कोई निजी फ़ैसला था। जो शख़्स ये कहता है कि ये तरीक़ा लाज़िमी नहीं है तो अगर ये तरीक़ा लाज़िमी ना होता तो रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) को क्या ज़रूरत थी कि आप (صلى الله عليه وسلم) इस क़िस्म का शदीद और दुशवारी में पड़ते जो आप (صلى الله عليه وسلم) ने इख़्तियार किया यानी आप (صلى الله عليه وسلم) कुफ़्फ़ार को खुले आम ललकारते हैं और उनके माबूदों, सरदारों और उनके अफ़्क़ार और रसमों रिवाज का विरोध व उनकी भर्त्सना करते हैं ? इसके बावजूद कि ये तमाम चीज़ें क़ुरआन की हिदायात के तहत अंजाम पाएं ? आप (صلى الله عليه وسلم) ये भी कर सकते थे कि अपनी क़ौम के सरदारों की ख़ुशामद करते और उन्हें ख़ुश करके राज़ी रखते या फिर अपनी क़ौम की ग़लत रसमों रिवाज का साथ देते ताकि उन लोगों में जाह हशमत, असरो रसूख़ हासिल कर लें, और अगर आप (صلى الله عليه وسلم) ने ऐसा क्या होता तो बेशक इसके ज़रीये आप (صلى الله عليه وسلم) ने अल्लाह (سبحانه وتعالى) के हुक्म की नाफ़रमानी की होती, इसलिए कि क़ुरआन में जो कुछ नाज़िल होता आप (صلى الله عليه وسلم) इस हुक्म की पालना करते जाते थे। अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने फ़रमाया:


﴿قُمْ فَأَنذِر﴾ {74:2}
“उठीए और डराईए” (74मुदस्सर2)

अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने सरदारों की मुज़म्मत की जैसा कि पहले गुज़रा चुका :

﴿تَبَّتْ يَدَا أَبِي لَهَبٍ وَتَب﴾ {111:1}
“अबू लहब के हाथ टूट जाएं और वो तबाह हों ।”

और वलीद बिन मुग़ीरह की इस तरह मुज़म्मत की:

﴿عُتُلٍّ بَعْدَ ذَلِكَ زَنِيمٍ﴾ {68:13}
“उजड्ड और उससे बढ़ कर हरामी है।”

फिर इस तरह क़ुरआन ने रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) का दिफ़ा किया:
﴿مَا أَنتَ بِنِعْمَةِ رَبِّكَ بِمَجْنُونٍ﴾ {68:12}
“आप (صلى الله عليه وسلم) अपने रब के फ़ज़ल से मजनून नहीं ।”
यूं कुफ़्फ़ार का हाल बयान किया:



{68:9}﴿وَدُّوا لَوْ تُدْهِنُ فَيُدْهِنُونَ﴾
“वो चाहते हैं कि तुम नरमी (समझौता) इख़्तियार करो तो वो भी नरमी ( समझौता) इख़्तियार करेंगे।”


अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने आप (صلى الله عليه وسلم) को दावत को ऐलानीया करने और उम्मूल क़ुरा यानी अहले मक्का और आस पास के लोगों को डराने का हुक्म दिया। अल्लाह (سبحانه وتعالى)  ने आप (صلى الله عليه وسلم) और आप (صلى الله عليه وسلم) के साथीयों (رضی اللہ عنھم) को दावत के लिए हथियारों के इस्तिमाल से मना फ़रमाया, बस क़ुरआन नाज़िल होता जाता था और रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) इसके मुताबिक़ आगे बढ़ते जाते थे, उस शख़्स को मज़ीद क्या दलील चाहीए जो ये कहे कि तरीक़े की पाबंदी लाज़िमी नहीं है?

तरीक़ा की पाबंदी ग़ैर ज़रुरी कहने का ये मतलब है कि वो हमारे इख़्तियार में है चाहें तो करें या ना करें । जिसके माअनी ये हुए कि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के इख़्तियार में था कि वो अल्लाह (سبحانه وتعالى) की तरफ़ से जो कुछ नाज़िल होता था इसके ख़िलाफ़ अमल करें या कुछ हिस्सों में ख़िलाफ़वर्ज़ी करें, ऐसा इसलिए क्योंकि जो कुछ आप (صلى الله عليه وسلم) पर वह्यी के ज़रीये नाज़िल होता था अस्लन आप (صلى الله عليه وسلم) पर उसकी पाबंदी लाज़िमी नहीं थी । इसका ये मतलब हुआ कि हमें भी इख़्तियार है कि हम रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के तरीक़े पर चलें या किसी और तरीक़े पर चलें । ऐसी राय सीधी सच्ची समझ से और रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के आमाल की सही पैरवी से कोसों दूर है बल्कि ये रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के अमल के ख़िलाफ़ और तब्दीली लाने के आप (صلى الله عليه وسلم) के मन्हज से हटना है।

बाअज़ मुसलमानों का आज तरीक़े और उस्लूब (METHOD and STYLES) को ख़लत-मलत कर देना:
बाअज़ लोगों के दिमागो में जो शुबा (doubt) पैदा होता है उसकी एक वजह ये हक़ीक़त है कि आज ज़माना और हालात वो नहीं हैं जो रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के ज़माने में थे, रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के ज़माने में समाज का विभाजन (division) निहायत बुनियादी और सादा थी यानी अरब का समाज क़बीलों और ख़ानदानों की बुनियाद पर बंटा हुआ था, जबकि आज समाज का विभाजन इंतिहाई जटिल और आपस में उलझी हुई है, उस वक़्त एक क़बीला ख़ुद में एक रियासत होता था जिसमें हज़ारों की तादाद में अफ़राद होते थे जबकि आज एक रियासत में करोड़ों की तादाद में लोग होते हैं, उस ज़माने में कुफ़्फ़ार को ईमान की दावत दी जाती थी जबकि आज मुसलमानों को दावत, दुनिया में इस्लामी ज़िंदगी को दुबारा जारी करने की ख़ातिर दी जाती है, रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के ज़माने में बड़ी बड़ी अज़ीम ताक़तें जैसे रुम और फ़ारस मक्का में आप (صلى الله عليه وسلم) की दावत में हस्तक्षेप (intervene) नहीं करते थे। जबकि आज हमारे सरबराह आज की अज़ीम ताक़तों की आलमी सियासत से बंधे हुए हैं यानी उनकी पालिसीयों की पैदावार हैं बल्कि उनके एजैंट हुक्मरान हैं । ये बड़ी ताक़तें इस्लाम और मुसलमानों के ख़िलाफ़ साज़िशें करते रहते हैं वग़ैरा वग़ैरा।

वो लोग जिन्हें ये तमाम शक हैं वो कहते हैं कि हम रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के तरीक़े को किस तरह अपनाएं जबकि आज बहुत सारे मामलात तब्दील हो गए हैं और ऐसा करना उजड्डपन यानी दक़यानुसियत, ग़ैर लचीलापन (inflexibility) है जिसमें जमूद है और मज़ीद ये कि हमें इस पर पाबंद नहीं किया गया है । अहम ये है कि दावत के अज़ीम तर मक़ासिद हासिल किए जाएं जो कि इस्लामी रियासत के ज़रीये इस्लाम का निफ़ाज़ करना और अल्लाह (سبحانه وتعالى) की इबादत व बन्दगी इख़्तियार करना है।

इस मामला के हवाले से सही दृष्टिकोण को बयान करने के लिए हम ये कहते हैं कि हुक्मे शरई हमेशा उस हक़ीक़त में नाज़िल होता है जिस हक़ीक़त की ख़ातिर ये शरई हुक्म आया है। जब हक़ीक़त बदल जाएगी तो इस हक़ीक़त का हुक्म भी बदल जाएगा। जब तक हक़ीक़त नहीं बदलेगी हुक्म शरई भी इसी तरह बरक़रार रहेगा। एतबार हक़ीक़त की बुनियादी सिफ़ात का है उसकी ज़ाहिरी शक्ल और सूरत का नहीं यानी एक शख़्स हक़ीक़त किस चीज़ को समझता है वो इस हक़ीक़त की बुनियादी खासियतें हैं ना कि इसके अलग-अलग रंग या शक्लें । चुनांचे समाज की हक़ीक़त ये है कि समाज इंसानों का ऐसा समूह होता है जो एक अफ़्क़ार पर ईमान रखते हैं और यह अफ़्कार (विचार) उनके बीच समान होते हैं, फ़िर इन समान विचारों पर यक़ीन करने की वजह से उनके अंदर हर उस चीज़ को क़बूल करने, उस पर राज़ी होने के जज़्बात पैदा होते हैं जो इन विचारों के अनुसार होते है और हर उस चीज़ से नाराज़गी और गु़स्से के जज़्बात पैदा होते हैं जो चीज़ इन अफ़्क़ार (विचारों) के ख़िलाफ़ जाती है। फिर इनकी एक व्यवस्था क़ायम होती है जो इन अफ़्क़ार को लोगों पर जारी करता है और इन अफ़्क़ार की ख़िलाफ़वर्ज़ी को रोकता है। यूं अपने इख़्तियार किए हुए अफ़्क़ार के मुताबिक़ लोग ज़िंदगी गुज़ारते हैं और जिन अफ़्क़ार पर वो मुतमईन हो गए हैं ।

समाज की हक़ीक़त अलग-अलग शक्ल और सूरत इख़्तियार कर सकती हैं, कभी वो प्राचीन शक्ल में हो सकती हैं और कभी ज़्यादा पेचीदा सूरत में, अलबत्ता समाज से संबधित जो बुनियादी खासियतें हैं कि वो ये कि इंसानों का हर समूह, उनके आपसी मुशतर्का अफ़्क़ार और आपसी मुशतर्का (common thoughts and emotions) जज़्बात पर क़ायम होता है और यह समान विचार और जज़्बात समाज के तमाम अफ़राद की ज़िंदगीयों को संघटित (organized) करते हैं, फिर हुकूमत भी उन पर वही निज़ाम लागू करता है जो उनके अफ़्क़ार से निकला हुआ निज़ाम होता है चाहे ये समाज क़बीले की शक्ल में हों या आज की आधुनिक रियासत की शक्ल में हों और चाहे समाज के अफ़राद की तादाद हज़ारों में हो या करोड़ों में हो। इन तमाम सूरतों के बावजूद बुनियादी तौर पर वो एक समाज ही है क्योंकि जिन सिफ़ात (attributes) से मिल कर समाज बनता है तो उन बुनियादी खासियतों में कोई तब्दीली नहीं आई है बल्कि वही सिफ़ात अब भी बरक़रार हैं ।

रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने इस्लामी समाज को वजूद में लाने के लिए काम किया और ये काम इस्लामी अफ़्क़ार, इस्लामी जज़्बात और इस्लामी निज़ामों को क़ायम करने के साथ अंजाम पाया। इसके लिए आप (صلى الله عليه وسلم) उस शरई तरीक़े पर पाबंद रहे जो इस्लामी समाज को वजूद में लाने का इस्लामी तरीक़ा है। आप (صلى الله عليه وسلم) के तमाम अफ़आल इसी मक़सद को हासिल करने की दिशा में होते थे, चुनांचे मदीने में आप (صلى الله عليه وسلم) ने ऐसे मोमिन अफ़राद तैय्यार किए जो कि मदीने के निवासीयों में अधिक संख्या में थे। उनके दिमागो में आप (صلى الله عليه وسلم) ने बुनियादी इस्लामी अफ़्क़ार पैदा कर दिए थे जिन्होंने उनके अंदर ऐसे हम आहंग (homogenous/एकरूप) इस्लामी जज़्बात का ताना बाना बुन दिया जो कभी आपस में टकराते ना थे, यानी इस्लामी समाज को निर्माण करने के तमाम अंश मौजूद हो चुके थे और सिर्फ़ एक चीज़ बाक़ी थी जो उनके आपसी रिश्ते को एक निज़ाम के तहत बांध दे। फिर जब आप (صلى الله عليه وسلم) ने उन लोगों की जानिब हिज्रत फ़रमाई और निज़ाम क़ायम किया तो एक इस्लामी समाज की तशकील हुई और वो वजूद में आया। अगरचे इस समाज की शक्ल शुरूआत में इंतिहाई सादा थी लेकिन फिर उसकी शक्ल और डील डौल बदल कर ऐसे समाज में तब्दील हो गया जिसके लिए इंतिज़ाम और हुकूमती उपकरणों ( रियासत) की ज़रूरत पड़ने लगी।

इस दावे के बारे में कि इस ज़माने में बड़ी ताक़तों ने मुसलमानों के मामलात में दख़लअंदाज़ी नहीं की थी जबकि आज वो दख़ल अंदाज़ी करते हैं और इस्लाम को क़ायम होने से रोकते हैं इस बात के जवाब में हम कहते हैं कि इससे तरीक़ा तब्दील नहीं होगा। हाँ इस नई मुश्किल से नबी (صلى الله عليه وسلم) के तरीक़े की पैरवी के लिए मुश्किलात बढ़ जाएंगी। इसलिए आज के हालात को मद्दे-नज़र रखते हुए इस्लामी सक़ाफ़्त (Islamic culture) में अधिक तर्बीयत और दावत में ज़्यादा मेहनत की ज़रूरत है। इसी तरह जमात भी अंतर्राष्ट्रीय पॉलिसी के तहत अंतर्राष्ट्रीय सतह पर काम करेगी और बड़ी ताक़तों की पालिसीयों को जानेंगी और उन साज़िशों को समझेगी जो वो हमारे ख़िलाफ़ करते हैं और अपने एजैंटों और मोहरों के ज़रीये बनाए हुए इन मंसूबों को किस तरह नाफ़िज़ करते हैं ताकि फिर हम इनका मुक़ाबला कर के उनको रोक पाएंगे।

जहां तक इस क़ौल और दावे का ताल्लुक़ है कि मक्का में रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने ईमान को अहम मक़सद बना लिया था और अहकाम तो बहुत थोड़े थे, इसके जवाब में हम कहते हैं कि ये हक़ीक़त कि आप (صلى الله عليه وسلم) ने अहकामात पर अमल का एहतिमाम किया चाहे ये अहकामात बहुत थोड़े ही नाज़िल हुए थे उन पर अमल करने से मालूम होता है कि दावत में अहकामे शरीया की कितनी एहमीयत है। साथ ही इस बात पर भी ध्यान दें कि मक्का में इस्लाम की दावत में दाख़िल होने के लिए थी, आज अब ये दावत मुसलमानों के बीच है जो इस्लामी अक़ीदा रखते हैं और उनकी जानिब तमाम अहकामे शरीया नाज़िल हो चुके हैं । अब मुसलमान अल्लाह (سبحانه وتعالى) के सामने इस्लाम के तमाम अहकामात के बारे में ज़िम्मेदार और जवाबदेह हैं और सिर्फ़ ईमान के बारे में नहीं, उस ज़माने में मक्का में जिस किसी मुसलमान की मौत हुई थी तो इससे सिर्फ़ इन अहकामात के बारे में सवाल होगा जो उसकी मौत के वक़्त तक नाज़िल हो चुके थे। लेकिन अब जो कोई मरता है तो अल्लाह (سبحانه وتعالى) उससे तमाम अहकामात के बारे में सवाल पूछेगा। यही वजह है कि लाज़िम है कि दावत पूरी और मुकम्मल की जाये और ये दावत इस्लामी ज़िंदगी की वापसी के लिए आवाज़ लगाने वाली हो क्योंकि आज हमारी दावत कोई नई दावत या नया दीन नहीं है।

इसी तरह आज जो कोई मुसलमानों के हालात का अध्यन करे तो उससे मालूम होता है कि मुसलमानों का मसला ये नहीं कि उन्होंने इस्लामी अक़ीदा को खो दिया है बल्कि ये है कि उनके अक़ीदे का ताल्लुक़ और रिश्ता उनकी ज़िंदगीयों के अफ़्क़ार और ज़िंदगीयों का फ़ैसला करने वाले निज़ाम से टूट गया है और निज़ाम जो ज़िंदगी की गतिविधियों को चलाते हैं और इस तरह अक़ीदा अपनी ज़िंदगी खो चुका है । ये सब कुछ इसलिए हुआ कि मुसलमान पश्चिमी विचारों से तरह प्रभावित हो गए, और फिर उन अफ़्क़ार की पूरी हिफ़ाज़त काफ़िर पश्चिमी रियास्तें करती हैं और उन पश्चिमी अफ़्क़ार को बरक़रार रखने, उनको निरंतर ज़िंदा रखने और इसके विभिन्न नज़रियात को फैलाने और मक़बूल करने की कोशिशें करती हैं और इसके लिए ये पश्चिमी काफ़िर रियास्तें मुसलमानों पर अपने ग़ुलाम और एजैंट हुकूमतें बिठा कर वहां अपने तालीमी प्रोग्रामों को जारी करके और फिर ज़राए इबलाग़ (मीडीया) के ज़रीये मुसलमानों में इन अफ़्क़ार को आम करती हैं ।
इसलिए आज ज़रूरत है कि इस्लाम को सही, कामिल अंदाज़ में और मुकम्मल तौर पर पेश किया जाये इस तरह कि अक़ीदा और ईमान की एहमीयत एक बुनियादी फ़िक्र की तरह नज़र आ जाये जिससे अहकामात फूटते हैं और जिसकी बुनियाद पर ज़िंदगी के बारे में दृष्टिकोण का फ़ैसला होता है और इससे जुड़े तमाम अफ़्क़ार को क़बूल करके इख़्तियार किया जाता है, इसके बाद फिर ज़िंदगी के बारे में अक़ीदे से फूटने वाले अफ़्क़ार को अक़ीदे के ज़रीये पेश किया जाए। ऐसा करने के लिए इस हक़ीक़त की याददेहानी कराएं कि तमाम चीज़ों को पैदा करने वाला अल-ख़ालिक़ और तमाम मामलात को चलाने वला अल-मुदब्बिर सिर्फ़ अल्लाह (سبحانه وتعالى) ही है, हुक्म सिर्फ़ अल्लाह (سبحانه وتعالى) का है जो दुनिया और आख़िरत के मुताल्लिक़ तमाम फ़ैसले करेगा । जब एक मुसलमान पर ईमान और अहकाम दोनों ही वाजिब होंगे तो हक़ का ज़ोर और तासीर (vitality) उस मुसलमान के सामने आएगी, साथ ही उसके सामने वाज़ेह होगा कि ऐसी जमात में मौजूद इस्लाम की समझ कितनी क़ुव्वत रखती है और उसके ज़रीये होने वाली इस्लामी दावत का असर कैसा है और फिर इसके नतीजे में तब्दीली लाने के लिए जमात की क़ाबिलीयत उसे मालूम जाएगी। यही वजह है कि आज की दावत मुसलमानों को एक सदा है ताकि वो इस्लामी ज़िंदगी को दुबारा जारी कर दें, जो इस्लामी रियासत के क़याम के ज़रीये होगा। और इस इस्लामी दावत की बुनियाद में सिर्फ़ इस्लामी अक़ीदा होगा और इस अक़ीदा को इसके सियासी अंदाज़ में पेश किया जाएगा यानी इस्लामी अक़ीदे को इंसानों के अफ़आल और तमाम गतिविधियों को क़ाबू में करने वाला बनाया जाएगा जो अल्लाह (سبحانه وتعالى) के दिए गए हुक्म और मना किए गए हराम के क़ाअदे के तहत समाज की बागडोर अपने हाथ में लेकर इंसानों की ज़िंदगीयां सुधारता है ।
इस तरह हमें मालूम हुआ कि समाज जो तब्दील हुआ है वो सिर्फ अपनी (ज़ाहिरी) सूरत में तब्दील हुआ है लेकिन उसकी बुनियादी तर्तीब (खासियतें) अब भी वही है, जो तब्दील नहीं हुई है लिहाज़ा इसीलिए इस्लामी रियासत के क़याम के लिए काम करने का हुक्म तब्दील नहीं हुआ और इसी तरह ना ही इसे हासिल करने के तरीक़े के हुक्म में कोई तब्दीली आई है।
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