ख़लीफ़ा के लाज़िमी इख्तियारात

ख़लीफ़ा ही रियासत है , वो तमाम रियासती इख्तियारात का मालिक होता है और ये इख्तियारात मुंदरजा ज़ैल हैं:

(1) ख़लीफ़ा ही अहकाम-ए-शरीयत के निफाज़ के लिए उन की तबन्नी करता है, फिर ये क़वानीन क़रार पाते हैं जिन की इताअत वाजिब होती है और उन की ख़िलाफ़वरज़ी करना जायज़ नहीं होता।

(2) ख़लीफ़ा ही रियासत की दाख़िला और ख़ारिजा पालिसी का ज़िम्मेदार होता है, वो तमाम अफ़्वाज का सुप्रीम कमांडर होता है और उसे किसी मुल्क के ख़िलाफ़ जंग का ऐलान करने ,अमन मुआहिदा करने, जंग बंदी करने और दूसरे तमाम मुआहिदात करने का मुकम्मल इख्तियार होता है।

(3) ख़लीफ़ा के पास ही बैरूनी सफ़ीरों (विदेशी राजदूत) को क़बूल करने या उन्हें मुसतरद करने और इसके इलावा मुसलमान सिफ़ारत कारों को मुक़र्रर करने और माज़ूल करने का इख्तियार होता है।

(4) ये ख़लीफ़ा ही है जो मुआवनीन (खलीफा के सहायक) और वालीयों (गवर्नरों) का तक़र्रुर करता है, वो सब ख़लीफ़ा और मजलिसे उम्मत के सामने जवाबदेह होते हैं।

(5) ख़लीफ़ा ही क़ाज़ी उल क़ज़ा, इदारों के सरबराहान , फ़ौज के कमांडरों , चीफ़ आफ़ स्टाफ़ और ब्रिगेड कमांडरों को मुक़र्रर करने और उसे माज़ूल करने का इख्तियार रखता है।

(6) वही उन अहकाम-ए-शरीयत की तबन्नी करता है , जिन की रोशनी में रियासत का बजट तैय्यार किया जाता है । ख़लीफ़ा बजट की तफ़सीलात तै करता है और हर शोबे (हिस्से) के लिए फ़ंड तय करता है ख़्वाहाँ उनका का ताल्लुक़ हासिल होने वाले अम्वाल (माल) से हो या अख़राजात (खर्चों) से।

इन लाज़िमी इख्तियारात की दलील ये हक़ीक़त है कि ख़लीफ़ा इस्लामी शरीयत को नाफ़िज़ करने और पूरी दुनिया के सामने इस्लाम की दावत को पेश करने के लिए तमाम मुसलमानों की आम हुकूमत है । लिहाज़ा ये बज़ात-ए-ख़ुद इस बात की दलील है । अलबत्ता रियासत एक इस्तिलाह (शब्द) है जिस के मआनी मुख़्तलिफ़ अक़्वाम के नज़दीक मुख़्तलिफ़ हैं। मग़रिब (पच्शिमी देशों) के नज़दीक रियासत एक ज़मीन के टुकड़े पर बसने वाले लोग और उन के हुक्मरान का नाम है, क्योंकि उनके नज़दीक रियासत की एक मख़सूस सरहद होती है, जिसे वो मुल्क कहते हैं और इक़तिदार-ए-आला के मालिक अवाम होते हैं जबकि हुकूमत इन्फ़िरादी नहीं बल्कि इजतिमाई होती है। लिहाज़ा मग़रिब में मुल्क इस के बाशिंदों और हुकमरानों के मजमुए को रियासत तसव्वुर किया जाने लगा। पस हम देखते हैं कि मग़रिब में रियासत का सरबराह ,जो हुक्काम का हाकिम होता है , लोग, इलाक़े और हुक्मरानी का रईस यानी वज़ीर-ए-आज़म मौजूद होते हैं।

लेकिन इस्लाम में कोई मुस्तक़िल (स्थाई) सरहदें नहीं होतीं क्योंकि इस्लाम की दावत को दुनिया तक पहुंचाना लाज़िम है और इस्लाम की अथार्टी के दूसरे इलाक़ों तक फैलने के साथ रियासत की सरहदें भी फैलती जाती हैं। और लफ़्ज़ वतन के मानी सिर्फ़ ये हैं कि एक ऐसी जगह जहां एक शख़्स मुस्तक़िल तौर पर रिहायश पज़ीर हो, यानी इस का घर और इलाक़ा, इस के अलावा वतन के कोई और मानी नहीं। इक़तिदार-ए-आला शरीयत को हासिल है लोगों को नहीं। हुक्मरान और अवाम दोनों शरीयत के इरादे में मुक़य्यद (क़ैद) होते हैं। हुक्मरानी या अथार्टी इन्फ़िरादी होती है और ये इजतिमाई नहीं होती। रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:

))إذا کانوا ثلاثۃ في سفر فلےؤمروا أحدھم((
अगर तीन लोग सफ़र में हो तो वो अपने में से एक को अमीर बना लें
(बज़ार ने इस हदीस को इब्ने उमर (رضي الله عنه) से  रिवायत किया)

और रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:

))إذا خرج ثلاثۃ في سفر فلیؤمروا أحدھم((


जब तीन लोग सफ़र पर निकलें तो वो अपने में से एक शख़्स को अमीर मुक़र्रर करें
(अबू दाऊद ने अबू सईद खुदरी (رضي الله عنه) से  रिवायत किया)

और मुस्लिम ने अबू सईद खुदरी (رضي الله عنه) से  रिवायत किया कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:
))إذا بویع لخلیفتین، فاقتلواالآخرمنھما((
जब दो खल़िफ़ा के लिए बैअत की जाये तो इन में से दूसरे को क़त्ल कर दो

पस इस्लाम में रियासत के मआनी दूसरे निज़ामों से मुख़्तलिफ़ हैं। इस्लाम में रियासत का मतलब है हुक्मरानी और अथार्टी। और रियासत के इख्तियारात वही हैं जो कि हुक्मरान के होते हैं। चूँकि अथार्टी ख़लीफ़ा के हाथ में होती है लिहाज़ा ख़लीफ़ा ही रियासत होता है।

जब रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने मदीना में इस्लामी रियासत को क़ायम किया तो वो रियासत के हुक्मरान थे और अथार्टी उन के पास थी। पस तमाम अधिकार रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के हाथ में थे। आप صلى الله عليه وسلم के विसाल तक यही मुआमला रहा। फिर आप صلى الله عليه وسلم के बाद ख़ुलफ़ाए राशिदीन में से हर एक के पास मुकम्मल इख्तियार था और हुक्मरानी से मुताल्लिक़ तमाम लाज़िमी इख्तियारात उन के हाथ में थे। ये इस बात की दलील है कि ख़लीफ़ा ही रियासत होता है । इलावा अज़ीं जब रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने अमीर के ख़िलाफ़ बग़ावत करने और उस की हुक्मउदूली करने से मना फ़रमाया तो आप صلى الله عليه وسلم ने उसे अथार्टी के ख़िलाफ़ बग़ावत क़रार दिया, आप صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया:

))من کرہ من أمیرہ شیءًا فلیصبر علیہ ‘ فإنہ لیس أحد من الناس یخرج من السلطان شبراً ‘ فمات علیہ ‘ إلا مات میتۃ جاھلیۃ((
जिस ने अपने अमीर की किसी चीज़ को नापसंद किया तो लाज़िम है कि वो इस पर सब्र करे। क्योंकि लोगों में से जिस ने भी अमीर की इताअत से बालिशत बराबर भी ख़ुरूज किया और वह इस हालत में मर गया तो वो जाहिलियत की मौत मरा
(मुस्लिम ने इस हदीस को इब्ने अब्बास से रिवायत किया)

ख़लीफ़ा मुसलमानों की इमारत का नाम है। लिहाज़ा ख़लीफ़ा ही अथार्टी का मालिक होता है और तमाम इख्तियारात इस के पास होते हैं । यानी ख़लीफ़ा रियासत होता है और वो इन तमाम ताक़तों का हामिल होता है ,रियासत जिन की मालिक होती है । ये ख़लीफ़ा के लाज़िमी इख्तियारात के मुताल्लिक़ आम दलील है। जहाँ ख़लीफ़ा के इख्तियारात की तफ़सीलात का ताल्लुक़ है तो ये दरअसल वो तमाम इख्तियारात हैं जो कि रियासत को हासिल होते हैं, ताकि उन इख्तियारात के तफ़सीली अहकाम को बयान किया जाये।

जहां तक इन छः नुकात (बिन्दू) का ताल्लुक़ है जो कि शुरूआत में बयान किए गए, तो पहले नुक्ते की दलील इजमा सहाबा से मिलती है क़ानून एक इस्तिलाही लफ़्ज़ है जिस का मतलब है वो अहकाम जो हुक्मरान जारी करता है ताकि लोग इन हुक्मों की पाबंदी करें। क़ानून दान, क़ानून की ये तारीफ़ बयान करते हैं: “क़वाइद का ऐसा मजमूआ ,अपने मुआमलात में जिन के मुताबिक़ अमल करने पर, हुक्मरान लोगों को मजबूर करता है।“ पस अगर सुल्तान कुछ क़वाइद का इजरा (संचालन/जारी) करे तो ये क़ानून बन जाते हैं और लोगों के लिए उन पर चलना लाज़िम होता है। अगर सुल्तान इन्हें जारी ना करे तो वो क़ानून क़रार नहीं पा सकते और लोगों के लिए उन पर चलना लाज़िम नहीं होता।

मुसलमान शरई क़वानीन के मुताबिक़ चलते हैं, यानी वो अल्लाह (سبحانه وتعال) के अम्र व नवाही की पाबंदी करते हैं ना कि सुल्तान के अम्र व नवाही की । पस वो जिन अहकामात की पाबंदी करते हैं वो सुल्तान के अहकामात नहीं बल्कि अहकाम-ए-शरई होते हैं। ताहम सहाबा (رضی اللہ عنھم) ने शरई अहकामात में इख्तिलाफकिया। कुछ सहाबा (رضی اللہ عنھم) ने इन शरई नुसूस से जो मुराद लिया वो बाअज़ दूसरे सहाबा (رضی اللہ عنھم) से मुख़्तलिफ़ था और हर सहाबी ने अपने इस फ़हम के मुताबिक़ अमल किया ,जिसे वो अल्लाह का हुक्म समझता था। अलबत्ता कुछ अहकाम-ए-शरीयत कि जिन का ताल्लुक़ उम्मत के मुआमलात की देख भाल से है, में मुसलमानों के लिए एक राय के मुताबिक़ अमल करना ज़रूरी है और अफ़राद इन मुआमलात पर अपने ज़ाती इज्तिहाद के मुताबिक़ अमल नहीं कर सकते। माज़ी में ऐसा ही हुआ। मसलन अबूबक्र (رضي الله عنه) ने ये मुनासिब समझा कि वो मुसलमानों में माल को मुसावी तौर (बराबर तौर) पर तक़सीम करें क्योंकि इस माल पर तमाम मुसलमानों का हक़ बराबर है। उमर (رضي الله عنه) ने इस बात को दुरुस्त ना जाना कि वो लोग ,जिन्होंने क़बूले इस्लाम से पहले रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के ख़िलाफ़ जंग की ,को उस शख़्स के बराबर माल अता किया जाये जिस ने रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के साथ मिल कर जंग की; या वो ज़रूरतमंद को भी इतना ही दें जितना कि मालदार को दिया जाये। ताहम जब अबूबक्र (رضي الله عنه) ख़लीफ़ा थे तो उन्होंने लोगों को अपनी राय ,यानी माल की बराबर तक़सीम, के मुताबिक़ चलने का हुक्म दिया और मुसलमानों ने इस की इत्तिबा की, और क़ाज़ीयों और वालीयों ने इस राय को नाफ़िज़ किया और उमर (رضي الله عنه) ने इस राय को तस्लीम किया , इस के मुताबिक़ अमल किया और इस राय को ही नाफ़िज़ किया।

ताहम जब उमर (رضي الله عنه) ख़ुद ख़लीफ़ा बने तो आप ने अबूबक्र (رضي الله عنه) की राय से मुख़्तलिफ़ राय इख्तियार की । पस आप ने मुसावी तक़सीम की बजाय, माल को फ़ज़ीलत का लिहाज़ करते हुए तक़सीम करने का हुक्म दिया। चुनांचे मुसलमानों में माल को उन की ज़रूरत के मुताबिक़ और इस बुनियाद पर तक़सीम किया गया कि वो कितनी मुद्दत से मुसलमान हैं। मुसलमानों ने इस हुक्म की पाबंदी की और क़ाज़ीयों और वालीयों ने इस हुक्म को नाफ़िज़ किया। लिहाज़ा इस से सहाबा (رضی اللہ عنھم) का इजमा साबित होता है कि इमाम को ये हक़ हासिल है कि वो मख़सूस क़वानीन की तबन्नी करे और उन के निफाज़ को यक़ीनी बनाए। और मुसलमानों के लिए इन अहकामात की पाबंदी करना लाज़िम है, अगरचे वो अपने इज्तिहाद की बिना पर इस हुक्म से मुत्तफ़िक़ ना हों ,और उन पर लाज़िम है कि वो अपने राय और इज्तिहाद को छोड़ दें । ये तबन्नी शूदा अहकामात दरअसल क़वानीन होते हैं। चुनांचे क़वानीन की तबन्नी करना सिर्फ़ ख़लीफ़ा के लिए है , किसी और को ये हक़ हासिल नहीं।

जहाँ तक दूसरे नुक्ते का ताल्लुक़ है, उस की दलील रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के अमल से अख़ज़ की गई है। रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم वालीयों और क़ाज़ीयों को मुक़र्रर फ़रमाया करते थे और उन का मुहासिबा करते थे। आप صلى الله عليه وسلم तिजारत की निगरानी करते थे और धोका धडी और फ्रोड से मना फ़रमाते थे। आप صلى الله عليه وسلم लोगों के दरमियान अम्वाल को तक़सीम करते थे और काम की तलाश में बेरोज़गारों की मदद करते थे।

आपصلى الله عليه وسلم रियासत के तमाम अंदरूनी मुआमलात चलाते थे। इस के इलावा आप صلى الله عليه وسلم दुसरे मुमालिक के बादशाहों को पैग़ाम भेजते थे और उन के सफ़ीरों (राजदूतों) और वफ़ूद (प्रतिनीधीयों) से मुलाक़ात करते थे। रियासत के तमाम बैरूनी (आंतरिक) मुआमलात की अंजाम दही भी रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ख़ुद करते थे। मुख़्तलिफ़ मुहिम्मात में मुसलमानों की फ़ौज की क़ियादत अमली तौर पर आप صلى الله عليه وسلم के हाथ में थी और कई मुहिम्मात में आप صلى الله عليه وسلم बज़ात-ए-ख़ुद फ़ौज के सालार थे । आप ने फ़ौज के कमांडरों का तक़र्रुर भी किया । एक मौक़े पर आप صلى الله عليه وسلم ने उसामा बिन ज़ैद (رضي الله عنه) को शाम की मुहिम में फ़ौज का सिपहसालार मुक़र्रर किया। उसामा (رضي الله عنه) की नौ उमरी की वजह से सहाबा (رضی اللہ عنھم) इस बात पर ख़ुश ना थे लेकिन रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने उन्हें इस फ़ैसले को क़बूल करने पर मजबूर किया। ये इस बात को साबित करता है कि ख़लीफ़ा अमली तौर पर फ़ौज का अमीर होता है और वो महज़ फ़ौज का सरबराह-ए-आला नहीं होता।

रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने ही क़ुरैश, बनू क़ुरैज़ा, बनू नसीर, बनू क़ैनुक़ाअ, ख़ैबर और रुम के ख़िलाफ़ जंग का ऐलान किया। जितनी भी जंगें लड़ें गईं इन का ऐलान रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने ही किया था। ये इस बात पर दलालत करता है कि सिर्फ़ ख़लीफ़ा को ही जंग का ऐलान करने का हक़ हासिल है। इलावा अज़ीं रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने ही बनू मुदलज और उन के हलीफ़ बनू ज़मरह  के साथ मुआहिदा किया। आप صلى الله عليه وسلم ने एलता के रईस यूहन्ना बिन रौबता के साथ मुआहिदा किया और क़ुरैश के साथ हुदैबिया का मुआहिदा किया। मुसलमान सुलह हुदैबिया पर इंतिहाई नाख़ुश थे लेकिन रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने उन की राय को मुस्तरद कर दिया और क़ुरैश से मुआहिदा कर लिया। ये इस बात की दलील है कि सिर्फ़ ख़लीफ़ा के पास ही इस बात का इख्तियार है कि वो दूसरी अक़्वाम के साथ मुआहिदात करे, ख़ाह वो अमन मुआहिदा हो या फिर कोई और मुआहिदा।

जहां तक तीसरे नुक्ते का ताल्लुक़ है उस की दलील ये है कि ये रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ही थे जिन्होंने मुसेलमा के दो वफ़ूद को क़बूल फ़रमाया और इसी तरह क़ुरैश के सफ़ीर अबू राफ़े से मुलाक़ात की। आप صلى الله عليه وسلم ने हिरक़्ल, ख़ुसरो, मक़ूक़स, हीरह के बादशाह हारिस ग़स्सानी, यमन के बादशाह हारिस अल हमीरी और हब्शा के बादशाह नजाशी की तरफ़ सफ़ीर भेजे। हुदैबिया के मौक़े पर आप صلى الله عليه وسلم ने उसमान बिन अफ्फान (رضي الله عنه) को क़ुरैश की तरफ़ भेजा। ये सब इस बात पर दलालत करता है कि ख़लीफ़ा ही सफ़ीरों को क़बूल करता और उन्हें मुस्तरद करता है और सफ़ीरों का तक़र्रुर भी इसी के इख्तियार में है।
जहां तक चौथे नुक्ते का ताल्लुक़ है तो उस की दलील ये है कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ही वालीयों को मुक़र्रर फ़रमाया करते थे। आप صلى الله عليه وسلم ने माज़ बिन जबल (رضي الله عنه)  को यमन पर वाली बना कर भेजा। आप صلى الله عليه وسلم ने वालीयों को माज़ूल भी किया। आप صلى الله عليه وسلم ने बहरीन के लोगों की शिकायत पर बहरीन के वाली अल आला बिन अलहज़रमी को माज़ूल कर दिया। ये इस बात को ज़ाहिर करता है कि वाली ख़लीफ़ा के सामने जवाबदेह होने के साथ साथ सूबे के लोगों के सामने जवाबदेह होते हैं और वो मजलिसे उम्मत के सामने भी जवाबदेह होते हैं क्योंकि वो तमाम विलायात (सूबों) के लोगों की नुमाइंदगी करती है। ये तो वालीयों के मुताल्लिक़ था।

जहां तक मुआवनीन का ताल्लुक़ है, तो अबु बक्र और उमर (رضي الله عنه) रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के दो मुआविन थे। आप صلى الله عليه وسلم ने उन्हें माज़ूल नहीं फ़रमाया और ना ही अपनी ज़िंदगी में उन की जगह किसी और को मुक़र्रर फ़रमाया। पस रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने ही उन्हें मुक़र्रर फ़रमाया लेकिन आप ने उन्हें माज़ूल नहीं किया । अलबत्ता मुआविन अपने इख्तियारात ख़लीफ़ा से अख़ज़ करता है और चूँकि वो ख़लीफ़ा के नायब के तौर पर काम करता है लिहाज़ा वकाला पर क़ियास करते हुए ख़लीफ़ा को उसे माज़ूल करने का इख्तियार हासिल होता है क्योंकि एक शख़्स अपने नुमाइंदे (वकील) को बर्ख़ास्त कर सकता है।
जहां तक पांचवें नुक्ते का ताल्लुक़ है तो उसे इस बात से अख़ज़ किया गया है कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने अली (رضي الله عنه) को यमन पर क़ाज़ी मुक़र्रर फ़रमाया। अहमद ने अमरो बिन अल आस से रिवायत किया उन्होंने कहा : “दो लोग आपस में लड़ते हुए रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के पास आए, आप ने मुझ से कहा”:

))اقض بینہما یا عمرو((
उन के दरमयान फ़ैसला करो

मैंने कहा: “आप صلى الله عليه وسلم का फ़ैसला करना बेहतर है और ये बात आप صلى الله عليه وسلم के ही शायान-ए-शान है।“ रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने जवाब दिया:
))وإن کان((
ख़ाह ऐसा ही है।

मैंने कहा: ”अगर मैं फ़ैसला करूं तो मेरे लिए क्या होगा? आप صلى الله عليه وسلم ने जवाब दिया
))إن أ نت قضیت بینہمافأصبت القضاء فلک عشرحسنات۔ وإن أنت اجتہدت فأخطأت فلک حسنۃ((
अगर तुम ने फ़ैसला किया और तुम्हारा फ़ैसला ठीक था तो तुम्हारे लिए दस सवाब हैं और अगर तुम्हारा फ़ैसला ग़लत हुआ तो तुम्हें एक सवाब मिलेगा

उमर (رضي الله عنه) क़ाज़ीयों को मुक़र्रर फ़रमाया करते थे और उन्हें माज़ूल करते थे। आप صلى الله عليه وسلم ने शरिह को कूफ़ा पर क़ाज़ी मुक़र्रर फ़रमाया। आप صلى الله عليه وسلم ने शुरह॒बील बिन हसनह को शाम की विलाया से माज़ूल (बर्खास्त) किया और उन की जगह मुआवीया को मुक़र्रर फ़रमाया। शुरहबील ने उमर (رضي الله عنه) से  पूछा:

))أمن جبن عزلتني أم خیانۃ؟((
क्या आप ने किसी ख़ियानत की बिना से ऐसा किया।

उमर (رضي الله عنه) ने जवाब दिया:
))من کل لا، ولکن أردت رجلاًقوی من رجل((
नहीं लेकिन मैं एक ऐसे शख़्स को मुक़र्रर करना चाहता हूँ जो कि मज़बूत और क़वी हो।
एक मौक़ा पर अली (رضي الله عنه) ने अबू अल असवद को मुक़र्रर फ़रमाया और फिर उन्हें माज़ूल कर दिया। अबू अल असवद ने अली (رضي الله عنه) से  पूछा:

))لم عزلتنی، وما خنت ولا جنیت((
आप ने मुझे क्यों माज़ूल किया। मैंने कभी ख़ियानत नहीं की और ना ही कोई जुर्म किया।
अली (رضي الله عنه) ने जवाब दिया

))إني رأیتک یعلو کلامک علی لخصمین((
मैंने ये देखा कि तुम्हारी आवाज़ झगड़ा करने वाले अश्ख़ास से भी बुलंद हो गई।

उमर (رضي الله عنه) और अली (رضي الله عنه) ने ये सब सहाबा (رضی اللہ عنھم) के सामने किया और इन में से किसी ने भी इस पर ना तो एतराज़ किया और ना ही इस से मना फ़रमाया। ये इस बात को साबित करता है कि बुनियादी तौर पर क़ाज़ीयों को मुक़र्रर करने का इख्तियार ख़लीफ़ा के पास है, और वकाला (नुमाइंदगी ) पर क़ियास करते हुए वो किसी दूसरे शख़्स को भी ये काम सौंप सकता है कि वो इस के नुमाइंदा के तौर पर क़ाज़ीयों की तक़र्रुरी का काम अंजाम दे।

जहां तक रियासती इदारों के डायरैक्टर्ज़ (मुंतज़मीन आला) का ताल्लुक़ है तो रसूलल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इस्लामी रियासत के मुख़्तलिफ़ इदारों के इंचार्ज मुक़र्रर फ़रमाए। ये लोग मुताल्लिक़ा इदारों के सरबराहान की मानिंद थे। आप صلى الله عليه وسلم ने मुयक़ैब बिन अबी फ़ातिमा अलरूसी (رضي الله عنه) को अपनी मुहर और अम्वाल-ए-ग़नीमत का इंचार्ज मुक़र्रर किया। आप صلى الله عليه وسلم ने खुज़ैफ़ा बिन यमान (رضي الله عنه) को हिजाज़ की पैदावार का हिसाब लगाने के लिए मुक़र्रर फ़रमाया। आप صلى الله عليه وسلم ने मुग़ीरह बिन शैबा (رضي الله عنه) को कर्ज़ों और लेन देन का रिकार्ड रखने पर मुक़र्रर फ़रमाया।

जहां तक फ़ौज के कमांडरों और चीफ़ कमांडरों का ताल्लुक़ है तो रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने हमज़ा बिन अब्दुल मुतल्लिब (رضي الله عنه) को तीस सवारों का सालार बना कर क़ुरैश का मुक़ाबला करने के लिए साहिले समुंद्र की तरफ़ भेजा। आप صلى الله عليه وسلم ने उमर बिन उबैदा बिन अल हारिस (رضي الله عنه) को साठ जंगजूओं के साथ रवाना किया और उन्हें ये हिदायत की कि वो वादी-ए- राबिग़ की तरफ़ जाएं और क़ुरैश का रास्ता रोकें। आप صلى الله عليه وسلم ने साद बिन अबी वक़्क़ास को बीस सवारों के लश्कर के साथ मक्का की तरफ़ भेजा। इस से हम ये देख सकते हैं कि आप صلى الله عليه وسلم ही फ़ौजी कमांडरों को मुक़र्रर फ़रमाते थे ,जो इस बात की दलील है कि ख़लीफ़ा ही फ़ौज के कमांडरों और चीफ़ आफ़ स्टाफ़ का तक़र्रुर करता है।

ये तमाम ओहदेदार सिर्फ़ और सिर्फ़ रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم को जवाबदेह थे ,जो इस बात को ज़ाहिर करता है कि क़ाज़ी , इदारों के सरबराहान, आर्मी कमांडर, चीफ़ आफ़ स्टाफ़ और दूसरे आला ओहदेदार सिर्फ़ ख़लीफ़ा को ही जवाबदेह होते हैं और वो मजलिसे उम्मत के सामने जवाबदेह नहीं होते। सिर्फ़ मुआविन तफ़वीज़, वाली और आमिलीन मजलिसे उम्मत के सामने जवाबदेह होते हैं क्योंकि ये सब हुक्मरान हैं। उन के इलावा कोई और ओहदेदार मजलिसे उम्मत के सामने जवाबदेह नहीं होता बल्कि हर शख़्स ख़लीफ़ा को रिपोर्ट करता है।

जहाँ तक छटे नुक्ते का ताल्लुक़ है, तो रियासती बजट के महसूलात (revenues) और अम्वाल (दौलत) का इस्तिमाल, अहकाम-ए-शरीयत में मुक़य्यद होते हैं। हुक्मे शरई के बगै़र एक दीनार भी टैक्स की मद में वसूल नहीं किया जा सकता और ना ही कोई माल ख़र्च किया जा सकता है सिवाए जिस की हुक्मे शरई इजाज़त दे। ताहम बजट अख़राजात (खर्चों) की तफ़ासील और मुख़्तलिफ़ मदों के लिए रक़ूम का ताय्युन ख़लीफ़ा की सवाबदीद (अच्छी सलाह) पर होता है कि वो अपने इज्तिहाद के मुताबिक़ इस का फ़ैसला करे। यही मुआमला रियासत के महसूलात का है । मिसाल के तौर पर ख़लीफ़ा ही ज़रई अराज़ी (कृषि भूमि) पर आइद किए जाने वाले खिराज की मिक़दार का ताय्युन करता है। इसी तरह ख़लीफ़ा जिज़िये की मिक़दार और दूसरे महसूलात का ताय्युन भी करता है। और ये ख़लीफ़ा ही है जो सड़कों , अस्पतालों और दूसरे अख़राजात के लिए रक़ूम मुख़तस (खास रक़म तय) करता है। ये सब ख़लीफ़ा की सवाबदीद पर होता है और वो अपनी राय और इज्तिहाद की बिना पर इस का फ़ैसला करता है। क्योंकि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم आमलीन से अम्वाल वसूल करते थे और उन्हें ख़र्च करते थे।

बाअज़ मौक़ों पर आप صلى الله عليه وسلم ने अपने वालीयों को इस बात की इजाज़त दी कि वो अम्वाल इकट्ठे करें और ख़ुद ही उन्हें ख़र्च करें जैसा कि उस वक़्त हुआ जब रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने मआज़ बिन जबल (رضي الله عنه) को यमन पर वाली बना कर भेजा। आप صلى الله عليه وسلم के बाद खुलफाऐ राशिदीन ने भी ऐसा ही किया, इन में से हर एक ने बतौर-ए-ख़लीफ़ा अम्वाल को इकट्ठा किया और उन्हें अपनी राय और इज्तिहाद के मुताबिक़ ख़र्च किया। किसी सहाबी ने इस का इनकार नहीं किया और ना ही इस पर एतराज़ किया और किसी सहाबी ने भी ख़लीफ़ा की रजामंदी के बगै़र एक दीनार भी ख़र्च ना किया। जब उमर (رضي الله عنه) ने मुआवीया को वाली मुक़र्रर किया तो आप ने मुआवीया को विलाएत-ए-आम्मा अता की, पस मुआवीया को अम्वाल को इकट्ठा करने और उन्हें ख़र्च करने का इख्तियार हासिल था। ये सब इस बात की दलील है कि ख़लीफ़ा या उस की सवाबदीद पर काम करने वाला नायब ही बजट की मुख़्तलिफ़ मदों का ताय्युन करता है।
ये सब ख़लीफ़ा के लाज़िमी इख्तियारात के मुताल्लिक़ तफ़सीली दलायल हैं। जिन्हें इस हदीस में मुख्तसर  तौर पर बयान किया गया है, जिसे इमाम अहमद और इमाम बुख़ारी ने अब्दुल्लाह बिन उमर (رضي الله عنه) से रिवायत किया ,उन्होंने रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم को ये फ़रमाते हुए सुना:

))الإمام راع و ھو مسؤول عن رعیتۃ((
इमाम रखवाला होता है और वो अपनी रईयत पर ज़िम्मेदार होता है।


इस के मआनी ये हैं कि ख़लीफ़ा इन तमाम मुआमलात का ज़िम्मेदार होता है जिन का ताल्लुक़ लोगों के उमूर की देख भाल से हो। ताहम उसे ये हक़ हासिल है कि वो किसी भी ज़िम्मेदारी को अंजाम देने के लिए किसी भी शख़्स को अपना नुमाइंदा मुक़र्रर कर दे । इस बात को वकाला पर क़ियास किया गया है।
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इस्लामी सियासत

इस्लामी सियासत
इस्लामी एक मब्दा (ideology) है जिस से एक निज़ाम फूटता है. सियासत इस्लाम का नागुज़ीर हिस्सा है.

मदनी रियासत और सीरते पाक

मदनी रियासत और सीरते पाक
अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) की मदीने की जानिब हिजरत का मक़सद पहली इस्लामी रियासत का क़याम था जिसके तहत इस्लाम का जामे और हमागीर निफाज़ मुमकिन हो सका.

इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी का इतिहास

इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी का इतिहास
इस्लाम एक मुकम्म जीवन व्यवस्था है जो ज़िंदगी के सम्पूर्ण क्षेत्र को अपने अंदर समाये हुए है. इस्लामी रियासत का 1350 साल का इतिहास इस बात का साक्षी है. इस्लामी रियासत की गैर-मौजूदगी मे भी मुसलमान अपना सब कुछ क़ुर्बान करके भी इस्लामी तहज़ीब के मामले मे समझौता नही करना चाहते. यह इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी की खुली हुई निशानी है.