रियासत का ढांचा

रियासत की बुनियाद इन आठ सतूनों (pillars) पर है :

1) ख़लीफ़ा
2) मुआविन-ए- तफ़वीज़
3) मुआविन -ए- तनफ़ीज़
4) अमीरे जिहाद
5) वाली (गवर्नर)
6) अदलिया
7) इंतिज़ामी इदारे बराए मफादे आम्मा
8) मजलिसे उम्मत

रियासत के ये अरकान रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के अमल से माख़ूज़(लिये गये) हैं। आप صلى الله عليه وسلم  ने रियासत के ढाँचे को उसी शक्ल में उस्तिवार किया था। आप صلى الله عليه وسلم ख़ुद रियासत के सरबराह थे। इस तरह जब आप صلى الله عليه وسلم ने मुसलमानों को ख़लीफ़ा या इमाम मुक़र्रर करने का हुक्म दिया तो दरअसल आप صلى الله عليه وسلم ने मुसलमानों को हुक्मरान मुक़र्रर करने का हुक्म दिया। जहां तक मुआवनीन (सहायको) का ताल्लुक़ है तो आपصلى الله عليه وسلم ने उमर (رضي الله عنه) और अबूबक्र (رضي الله عنه)  को अपना मुआविन बनाया था, जैसा कि तिरमिज़ी की रिवायत है:

))وزیراي من السماء جبریل و میکائل و من أھل الأرض أبوبکر وعمر((
“आसमान पर मेरे दो वज़ीर जिब्रईल और मिकाईल हैं और अहले-ज़मीन में मेरे दो वज़ीर अबूबक्र और उमर हैं”

यहां लफ़्ज़ वज़ीराइ “ मेरे दो वज़ीर” से मुराद मेरे दो मुआविन है क्योंकि अरबी ज़बान में इस का यही मफ़हूम है। जहां तक लफ़्ज़ मिनिस्टर या वज़ीर का ताल्लुक़ है और जिस माअनों में लोग आजकल उसे इस्तिमाल करते हैं तो ये एक मग़रिबी इस्तिलाह (शब्द) है जिस का मतलब है एक ख़ास किस्म की हुक्मरानी का अमल। इस से मुसलमान वाक़िफ़ ना थे और ये इस्लामी निज़ाम-ए-हुकूमत से मतनाकज़ (टकराता) है, क्योंकि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم  ने जिस मुआविन को वज़ीर के नाम से पुकारा, इसे आपصلى الله عليه وسلم ने कोई मख़सूस ज़िम्मेदारी नहीं सौंपी, बल्कि वो ख़लीफ़ा के लिए काम सरअंजाम देने की उमूमी ज़िम्मेदारी अदा करता है। जहां तक वालीयों का ताल्लुक़ है तो रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने उन्हें मुख़्तलिफ़ विलायतों (सूबों) पर मुक़र्रर किया। आप صلى الله عليه وسلم ने उताब बिन उसैद को फ़तह मक्का के बाद मक्का का वाली मुक़र्रर किया, बाज़ान बिन सासान के इस्लाम क़बूल कर लेने के बाद आप صلى الله عليه وسلم ने उसे यमन का वाली मुक़र्रर किया। रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इस के इलावा भी कई वाली मुक़र्रर फ़रमाए। रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने लोगों के दरमयान तनाज़आत (झगडों) का फ़ैसला करने के लिए क़ाज़ी मुक़र्रर किए। आपصلى الله عليه وسلم ने अली बिन अबी तालिब(رضي الله عنه) को यमन का क़ाज़ी मुक़र्रर किया और मआज़ बिन जबल (رضي الله عنه) और अबु मूसा अल अशअरी (رضي الله عنه) को यमन की कज़ात और इमारत अता की। तिबरानी ने सिक़ह रावियों के ज़रीये मसरूक़ से रिवायत किया, उन्होंने बयान किया:

))کان أصحاب القضاء علی عھد رسول اللّٰہ ﷺ ستۃ : عمر و علي و عبداللّٰہ بن مسعود و أبي بن کعب و زید بن ثابت و أبو موسی الأ شعري((
रसूलुल्लाह के दौर में कज़ा पर ये छः लोग मुक़र्रर थे: उमर, अली, अब्दुल्लाह बिन मसऊद, अबी बिन काब, जै़द बिन साबित और अबु मूसा अल अशअरी

जहां तक इंतिज़ामी निज़ाम का ताल्लुक़ है तो रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने रियासत के मुख़्तलिफ़ शोबों (इलाक़ो) को चलाने के लिए सैक्रेटरी मुक़र्रर फ़रमाए जो कि इन इदारों के मुदीर (चलाने वाले) थे। मुअकेब बिन अबी फ़ातमा (رضي الله عنه)  ग़नीमतों के इंचार्ज मुक़र्रर किए गए, जबकि ख़ज़ीफ़ा बिन यमान (رضي الله عنه) हिजाज़ की पैदावार का तख़मीना (अन्दाज़ा) लगाने पर मामूर थे। आप صلى الله عليه وسلم ने दीगर महिकमों पर मज़ीद लोगों को मुक़र्रर किया। जहां तक फ़ौज का ताल्लुक़ है जो कि इंतिज़ामी लिहाज़ से अमीरे जिहाद के मातहत (अधीन) होती है, तो अमली तौर पर रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ही फ़ौज के कमांडर इन चीफ़ थे और आप صلى الله عليه وسلم फ़ौज के इंतिज़ामी और दीगर उमूर को मुनज़्ज़म (सुसंघठित) करते थे। ताहम रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने मुख़्तलिफ़ फौजी मुहिमों के लिए मुख़्तलिफ़ लोगों को कमांडर मुक़र्रर फ़रमाया। एक मौक़ा पर आप रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने अबदुल्लाह बिन जह्श को क़ुरैश की जासूसी के लिए मिशन की क़ियादत दे कर भेजा। एक और मौक़ा पर रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने अबु सलमा बिन अबदुल अम्र को 150 आदमीयों के दस्ते पर अमीर बना कर भेजा और आप रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने उन्हें एक झंडा अता किया। इस के दस्ते में चंद बेहतरीन मुसलमान जंगजू शामिल थे। अबु उबैदा बिन अल जरह (رضي الله عنه)  , साद बिन अबी वक़्क़ास (رضي الله عنه)  और असद बिन हज़ीर(رضي الله عنه) इस दस्ते का हिस्सा थे। जहां तक मजलिसे उम्मत का ताल्लुक़ है, जिस का काम मश्वरा देना और हुक्मरान का मुहासिबा करना है, रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने अपनी ज़िंदगी के दौरान कोई स्थिर मजलिस क़ायम नहीं की लेकिन आप صلى الله عليه وسلم ने जब भी ज़रूरत महसूस की मुसलमानों से मश्वरा किया। आप صلى الله عليه وسلم ने ग़ज़वा उहद में मुसलमानों को जमा किया और उन से मश्वरा लिया और कई और मौक़ों पर आप صلى الله عليه وسلم ने ऐसा किया। आप صلى الله عليه وسلم उमूमन लोगों को जमा कर के उन से मश्वरा लेते थे लेकिन आप صلى الله عليه وسلم अपने चंद सहाबा किराम को बुला कर बाक़ायदगी से मश्वरा किया करते थे। ये अश्ख़ास लोगों के सरदार समझे जाते थे , ये हमज़ा, अबूबक़्र, जाफ़र, उमर, अली, अबदुल्लाह बिन मसऊद, सलमान, अम्मार, हुज़ैफ़ा, अबूज़र, अल मिक़राद और बिलाल (رضی اللہ عنھم  ) थे। ये रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم की मज्लिसे शूरा थी क्योंकि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم इन से बाक़ायदगी से मश्वरा किया करते थे। इस से ज़ाहिर होता है कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने रियासत के लिए एक मख़सूस ढांचा मुतय्यन किया और आप صلى الله عليه وسلم इस पर कारबंद रहे यहां तक कि आप صلى الله عليه وسلم खालिक़े हक़ीक़ी से जा मिले। आप صلى الله عليه وسلم के बाद ख़ुलफ़ाए किराम ने उस की पैरवी की उन्होंने इस ढाँचे के मुताबिक़ हुकूमत की जो आप صلى الله عليه وسلم ने ख़ुद क़ायम किया था। ख़ुलफ़ाए किराम ने ये अमल सहाबा (رضی اللہ عنھم  ) के सामने किया लिहाज़ा इस्लामी रियासत में हुकूमत इसी बनावट पर होनी चाहीए।

कोई ये कह सकता है कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने  माली उमूर (आर्थिक मुआमलात) के लिए एक अलैहदा मसल मुक़र्रर फ़रमाया। इस से ये ख़्याल पैदा हो सकता है कि शोबा मालियात एक ख़ुदमुख़तार इदारा है और ये मजमूई हुकूमती ढाँचे का हिस्सा नहीं। ताहम हक़ीक़त ये है कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने मालीयाती उमूर पर एक अलैहदा ओहदेदार ज़रूर मुक़र्रर फ़रमाया, जिस का मतलब ये है कि उसे चलाने के लिए एक अलैहदा शोबा (विभाग) दिया गया मगर आप صلى الله عليه وسلم ने मालीयाती शोबे को एक ख़ुदमुख़तार ढांचा नहीं बनाया बल्कि ये हुकूमती ढाँचे का ही एक हिस्सा था। कुछ वालीयों को विलाएत-ए-आम्मा अता की गई जिस में हुकूमत और मालीयाती उमूर दोनों शामिल थे जबकि कुछ को सिर्फ़ हुकूमती इख़तियार दिए गए जबकि मालीयाती उमूर के लिए आप صلى الله عليه وسلم ने एक उमूमी (आम) वाली मुक़र्रर किया।

मिसाल के तौर पर आप صلى الله عليه وسلم ने  अमरो बिन हज़म (رضي الله عنه)  को उमूमी इख्तियारात के साथ यमन पर वाली बना कर भेजा जिस में आम हुकूमत और मालीयाती उमूर दोनों शामिल थे जैसा कि इस ख़त से ज़ाहिर होता है जो कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने  इब्ने हज़म को अता किया, जबकि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने फ़रो बिन मुसैक को मुराद, ज़ुबैर और मुज़हज क़बीले पर आमिल बना कर भेजा और उन के साथ ख़ालिद बिन सईद बिन उल आस को ज़कात की वसूली पर मामूर किया । वो वाली जो आम हुकूमत के इख्तियारात रखते थे उन्हें वाले-ए-सलात कहा जाता था ये एक शरई इस्तिलाह है जिस से मुराद ऐसा वाली है जो मालीयाती अमूर (आर्थिक मुआमलात) के इलावा तमाम इंतिज़ामी उमूर, अदलिया (अदालतें), सियासत, हर्ब (जंग), इबादात और दीगर मुआमलात का इंचार्ज हो। जबकि मालीयाती उमूर का वाली वाली-ए-खिराज कहलाता था यानी वो वाली जो ज़कात ,खिराज और दीगर माली ज़िम्मेदारीयों का इंचार्ज होता था और वो वाली जिसे विलायत-ए-आम्मा हासिल होती थी उसे वाले-ए-सलात व खिराज कहते थे। ये इस बात को वाज़िह कर देता है कि मालीयाती उमूर का शोबा एक अलग से ढांचा ना था बल्कि इमारत यानी विलायत की ज़िम्मेदारीयों का एक हिस्सा था। एक वाली को ख़ुसूसी तौर पर किसी सूबे के मालीयाती उमूर के लिए मुक़र्रर किया जा सकता है या फिर उसे उमूमी तौर पर तमाम ज़िम्मेदारीयां सौंपी जा सकती हैं। दोनों सूरतों में मालीयाती उमूर का शोबा मर्कज़ में ख़ुसूसी मुक़ाम नहीं रखता बल्कि ख़लीफ़ा के ही मातहत होता है। चुनांचे ये रियासती ढाँचे का हिस्सा होता है ना कि ख़ुद से एक अलग ढांचा।

इसी तरह इमारत-ए-जिहाद जो कि जंग व हर्ब, ख़ारिजा उमूर (विदेश नीति), दाख़िली सलामती (गृह रक्षा) और सनअती उमूर (तकनीकी मुआमलात) की निगरानी करती है, हमेशा रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के बराह-ए-रास्त कंट्रोल में थी। रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم जिस तरह ख़ारिजा और दाख़िली उमूर को चलाते थे इसी तरह वो फ़ौज की तैय्यारी, उस की तर्बीयत और असलाह साज़ी (हथियार निर्माण) की देख भाल करते थे और इस के मुआमलात चलाते थे। आप صلى الله عليه وسلم ने  लोगों को यमन में जुरशा में असलाह साज़ी का तरीक़ा कार सीखने के लिए भेजा। आप صلى الله عليه وسلم के खुलफा ने भी इस पालिसी पर अमल दरआमद किया। ताहम उमर बिन खत्ताब (رضي الله عنه) ने अपनी ख़िलाफ़त के दौरान “दीवान अलजुनद” क़ायम किया और इस का अलैहदा सरबराह मुक़र्रर किया जिसे अमीरे जिहाद के इख्तियारात हासिल थे।

चुनांचे रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने जिस रियासत को क़ायम किया वो इस ढाँचे पर उस्तिवार थी।








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