इस्लाम के निफ़ाज़, इस्लाम की दावत को पहुंचाने , नीज़ इस्लाम की मुसलसल और अच्छे तरीक़े से निफाज़ की तबई (स्वाभाविक) ज़मानत हुक्मरान का मुत्तक़ी होना और उस की ज़ात का तक़वा से भरा होना है। क्योंकि अल्लाह का ख़ौफ़ हुक्मरान को इस्लाम के मुताल्लिक़ उस की अपनी ज़ात और ज़रूरियात से ज़्यादा फ़िक्रमंद बना देता है। इस के नतीजे में इस के अंदर एहसास पैदा होता है , वो हर लहज़ा अल्लाह को याद करता है और अपने हर अमल और तमाम तर तसर्रुफ़ात (इख्तियारात) में अल्लाह से डरता है। अगर हुक्मरान में अल्लाह का ख़ौफ़ बाक़ी ना रहे तो इस्लाम के निफाज़ , उस की तनफीज़ में बेहतरी और तसलसुल और इस्लाम की दावत की ज़िम्मेदारी को उठाने की तबई ज़मानत मफ़क़ूद हो जाएगी। चूँकि ये मुम्किन है कि हुक्मरान का दिल तक़वे से ख़ाली हो जाये लिहाज़ा ऐसे माद्दी ज़रीये का होना ज़रूरी है जो उसे इस्लाम के निफाज़ पर कारबन्द रखें और जिसे ये इख्तियार हासिल हो कि वो उस की जगह ऐसा हुक्मरान मुक़र्रर कर सके, जो इस्लाम को नाफ़िज़ करे और इस्लाम की दावत की ज़िम्मेदारी उठाए। ये अमली ज़रीया उम्मते मुस्लिमा है। लिहाज़ा उम्मते मुस्लिमा पर फ़र्ज़ है कि अगर वो ज़ालिम हुक्मरान को देखें जो अल्लाह (سبحانه وتعال) की हुदूदो क़यूद को तोड़ रहा हो अल्लाह के वाअदे की पासदारी ना कर रहा हो, सुन्नत-ए-रसूल صلى الله عليه وسلم की मुख़ालिफ़त कर रहा हो और अल्लाह के बंदों के साथ गुनाह और ज़ुल्म का मुआमला कर रहा हो तो वो उसे अपनी ज़बान और अमल के ज़रीए चैलेंज करे या उसे तब्दील कर दे। इस फ़र्ज़ की अंजाम दही के लिये उम्मत का तक़वे की सिफ़त से मौसूफ़ होना ज़रूरी है। क्योंकि अल्लाह (سبحانه وتعال) का डर उम्मत के अंदर इस्लाम और इस के निफाज़ के बारे में फ़िक्र पैदा करता है और उसे इस बात पर मजबूर करता है कि वो हुक्मरान के कामों पर इस का मुहासिबा करे और जब भी वो ये देखे कि हुक्मरान इस्लाम के निफाज़ में कोताही कर रहा है या इस्लाम के अहकामात से रुगिरदानी कर रहा है या इस्लाम के निज़ामों को ग़लत अंदाज़ में नाफ़िज़ कर रहा है तो वो हुक्मरान का मुहासिबा करे और इस से मुनाक़शा (झगडा) करे। इस से इस्लाम का निफाज़ ना सिर्फ़ बरक़रार रहेगा बल्कि इस के निफाज़ में बेहतरी पैदा होगी
ताहम उम्मत, कि जो हुक्मरान के एहतिसाब करने और इस पर कड़ी नज़र रखने के ज़रीये दुनिया में इस्लाम के निफाज़ का अमली ज़रीया है , के लिए अपने अंदर एक दुरुस्त जमाती ढांचा क़ायम करना ज़रूरी है , जिस की बुनियाद इस्लाम पर हो , जिस की फ़िक्र में गहराई हो और जिस में अल्लाह का ख़ौफ़ शदीद हो। इस जमाती ढाँचे की वाहिद बुनियाद इस्लामी अक़ीदा होती है , ये जमाती ढांचा कसीफ़ (गहरी) इस्लामी सक़ाफत (culture) से लोगों की इजतिमाई तसक़ीफ़ करता है । वो इस्लामी सक़ाफत जो अक़्ल को वुसअत देती है , फ़हम को मज़बूत करती है और नफ्स का तसफ़ीया करती है । क्योंकि ये सक़ाफत जज़बात को सही फ़िक्र के साथ जोड़ती है और अफ़्क़ार और रुजहानात में हम आहंगी पैदा करती है। इस के नतीजे में मुसलमान मतलूबा इस्लामी शख़्सियत बन जाता है । जब ऐसी शख़्सियात पर मबनी (आधारित) जमाती ढांचा क़ायम हो जाता है तो ये उम्मत को इस्लाम के क़ालिब में ढालने का ज़रीया बनता है क्योंकि इस्लाम ही उम्मत के अफ़्क़ार को आलाईशों से पाक करता है , एक फ़िक्र के मुताबिक़ उम्मत को ढालता है और यूं एक मक़सद की तरफ़ उसे मुतहर्रिक (प्रेरित) करता है यानी इस्लाम की ख़ातिर ज़िंदगी बसर करना और इस्लाम की दावत की ज़िम्मेदारी उठाना। फिर उम्मत इस मब्दा (आईडीयालोजी) के मुताल्लिक़ हर वक़्त बेदार और आगाह रहती है ,जिसे वो इख्तियार किए हुए है। जो चीज़ उम्मत को बेदार करती है वो ये जमाती ढांचा है जिस की हयात सिर्फ़ इस मब्दा की तरफ़ दावत देने , उसे नाफ़िज़ करने और उस की तनफ़ीज़ को बरक़रार रखने की ख़ातिर ही होती है।
ये ढांचा वो मबदाई हिज़्ब है जो उम्मत में से उभरती है। दूसरे लफ़्ज़ों में ये वो जमात है जो इस्लाम की बुनियाद पर क़ायम होती है , जो इस्लाम को अपनी फ़िक्री क़ियादत बनाती है जिसे वो उम्मत के सामने पेश करती है ताकि वो उसे जज़ब कर ले और जो इस्लाम की दावत को हर जगह लेकर जाती है ताकि लोग इस से चिमट जाएं ।पस ये हिज़्ब ,हिज़्ब-ए-दावत होती है और ये दावत के सिवा कोई और काम नहीं करती । क्योंकि दूसरे शोबों (विभागों) के उमूर रियासत की ज़िम्मेदारी है और ये एक हिज़्ब के करने के काम नहीं।
जब हिज़्ब क़ायम हो जाती है और उम्मत की क़ियादत करती है तो वो रियासत पर निगरान आँख की मानिंद बन जाती है क्योंकि यही उम्मत है या उम्मत की नुमाइंदा है। ये उम्मत की क़ियादत करती है और इस के ज़रीये उम्मत रियासत के साथ बेहस-ओ-मुनाक़शा करने, इस का मुहासिबा करने , ज़बान से और अमलन रियासत को चैलेंज करने, हत्ता कि अगर रियासत से इस्लाम के वजूद को ख़तरा हो तो उसे तबदील करने, के फ़र्ज़ को पूरा करती है।
एक ऐसी हिज़्ब की मौजूदगी के बगै़र जो रियासत के सामने उम्मत की क़ियादत के तौर पर मौजूद हो , उम्मत के लिए रियासत के साथ बेहस-ओ-मुनाक़शा करना और रियासत का मुहासिबा करना मुहाल है । क्योंकि उम्मत के सामने कई मुश्किलात हैं जिन पर वो क़ाबू नहीं पा सकती सिवाए ये कि उम्मत में एक मर्कूज़ क़ियादत (केन्द्रिय नेतृत्व) मौजूद हो जो एक जमाती ढाँचे की शक्ल में हो ना कि एक फ़र्द या कुछ अफ़राद की शक्ल में । लिहाज़ा ये ज़रूरी है कि उम्मत में एक मबदाई और सियासी हिज़्ब मौजूद हो। इस का काम सिर्फ़ इस्लाम की दावत की ज़िम्मेदारी को उठाना है और ये इस के लिए सिर्फ़ सियासी तरीक़ा इख्तियार करती है । लिहाज़ा ऐसी हिज़्ब का क़याम नागुज़ीर (लाज़मी) है क्योंकि ये वो अमली ज़रीया है जो उम्मत की रहनुमाई करता है और जो उम्मत में अपनी क़ियादत की बदौलत इस बात की ज़मानत देता है कि रियासत अपनी ज़िम्मेदारी को अहसन तरीक़े से अंजाम दे , और ये ज़िम्मेदारी इस्लाम की दावत का हामिल बनना , इस्लाम को नाफ़िज़ करना और इस निफाज़ को ज़िन्दगी बख्शना है । नीज़ ये इस्लाम की ग़लत तनफ़ीज़ को रोकने का अमली ज़रीया भी है।
रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم का मुसलमानों को इस्लाम के आसपास एक ढाँचे की तरह मुनज़्ज़म (व्यवस्थित) करना दार-ए-अरक़म से वाज़िह है। फिर इस में सब सहाबा (رضی اللہ عنھم) शामिल हो गए। पस वो एक बलॉक की मानिंद थे जो मुसलमानों में से उभरा जिस ने अमली तौर पर इस्लाम का हामिल बनने की ज़िम्मेदारी को अपने कंधों पर उठाया अगरचे तमाम मुसलमान आम तौर पर अपनी ज़िम्मेदारीयां पूरी किया करते थे। और ये रिवायत किया गया कि जब रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم का विसाल हुआ तो आप صلى الله عليه وسلم ने अपने पीछे साठ हज़ार सहाबा ( رضی اللہ عنھم ) की जमात छोड़ी। ये सहाबा (رضی اللہ عنھم ) इस्लामी ढांचा या इस्लामी हिज़्ब थे जिन्होंने अमली तौर पर इस्लाम की ज़िम्मेदारी को अपने कंधों पर उठाया जबकि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के विसाल के वक़्त मुसलमानों की मजमूई तादाद सहाबा ( رضی اللہ عنھم ) की तादाद से कहीं ज़्यादा थी। फिर जब सहाबा (رضی اللہ عنھم ) , ताबईन और तबा ताबईन का दौर ख़त्म हुआ तो ये हिज़्ब भी ख़त्म हो गई। पस हुक्मरानों के नफ़ूस में कमज़ोरी आना शुरू हो गई क्योंकि कोई ऐसी हिज़्ब मौजूद ना थी जो हुक्मरानों पर नज़र रखने, उन से बेहस-ओ-मुनाक़शा करने और उन का एहतिसाब करने में उन की क़ियादत करती। ये सिलसिला जारी रहा यहां तक कि इस्लाम के अहकामात के निफाज़ में कजी आ गई । लिहाज़ा इस्लाम के निफ़ाज़, इस्लाम की दावत की ज़िम्मेदारी को उठाने और इस्लाम के निफाज़ में रोज़ अफ़्ज़ूँ बेहतरी लाने की हक़ीक़ी ज़मानत इस्लामी और सियासी हिज़्ब है
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