3. तलबे नुसरत: रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) का क़बाइल के सामने इस्लाम को पेश करना

3. तलबे नुसरत: रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) का क़बाइल के सामने इस्लाम को पेश करना

(खिलाफत के क़याम के मनहज का तीसरा मरहला और आखरी मरहला)

जब एक साल के अंदर अंदर रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की ज़ौजा मुहतरमा ख़दीजा (رضي الله عنها) और चचा अबू तालिब का इंतिक़ाल हुआ, इन दोनों की वफ़ात की वजह से रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की परेशानी में बेपनाह इज़ाफ़ा हुआ, अब क़ुरैश आप (صلى الله عليه وسلم) की ज़ात को अज़ीयत देने के दरपे हुए जो वो आप (صلى الله عليه وسلم) के चचा की वफ़ात से पहले नहीं कर सके थे और अबू तालिब की वफ़ात की वजह से उनको मौक़ा मिल गया, कुछ लोगों ने तो ये जसारत भी की कि आप (صلى الله عليه وسلم) के सर पर मिट्टी डाल 
दी, चुनांचे रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया: 

ا نالت مني قريش شيئاً أكرهه حتى مات أبو طالب))۔))

“अबू-तालिब की वफ़ात तक मैंने क़ुरैश की जानिब से कभी इतनी सख़्त नागवार हरकत नहीं देखी थी ।”
(सीरते इब्ने हिशाम)

चुनांचे जब अबू-तालिब का इंतिक़ाल हो गया तो रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ताइफ की तरफ़ गए ताकि अहले ताइफ से नुसरत व मदद तलब की जाये, आप (صلى الله عليه وسلم) वहां क़बीला बनू सक़ीफ़ के एक गिरोह की तरफ़ गए जो उस वक़्त सरदाराने सक़ीफ़ तस्लीम किए जाते थे, आप (صلى الله عليه وسلم) ने उनसे इस्लाम की हिमायत और मदद के मुताल्लिक़ फ़रमाया और क़ुरैश में से जो आप (صلى الله عليه وسلم) का विरोधी हो उसके ख़िलाफ़ आप (صلى الله عليه وسلم) के साथ हिमायत में खड़े होने को कहा, इन सरदारों ने आप (صلى الله عليه وسلم) की पेशकश को ठुकरा दिया और साथ ही आप (صلى الله عليه وسلم) के ताइफ आने की ख़बर क़ुरैश को दे दी हालाँकि आप (صلى الله عليه وسلم) ने उनसे इस मुलाक़ात को खु़फ़ीया रखने का मुतालिबा किया था, अब ये राज़ खुल जाने के बाद रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) मक्का में दाख़िल नहीं हो सकते थे सिवाए ये कि किसी की अमान आप (صلى الله عليه وسلم) को हासिल हो ।

जब आप (صلى الله عليه وسلم) अलग-अलग क़बीलो से मुलाक़ात के लिए जाते तो रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) क़बीले वालों के दरवाज़ों के सामने खड़े होकर फ़रमाते:

 “ए फ़ुलां के बेटो! में तुम्हारी तरफ़ अल्लाह (سبحانه وتعالى) का रसूल बना कर भेजा गया हूँ, (अल्लाह سبحانه وتعالى) तुम्हें हुक्म देता है कि तुम उसकी इबादत करो, उसके साथ किसी को शरीक ना बनाओ, जिन शरीकों की तुम इबादत करते हो इससे बाज़ आ जाऐ, मुझ पर ईमान लाओ और मेरी तस्दीक़ करो और मेरी हिफ़ाज़त करो यहाँ तक कि में उस चीज़ को बयान करदो जिसको देकर अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने मुझे भेजा है।” (सीरते इब्ने हिशाम)

आप (صلى الله عليه وسلم) के पीछे पीछे आप (صلى الله عليه وسلم) का चचा अबू लहब खड़ा हो जाता और आप (صلى الله عليه وسلم) की बातों का जवाब देता जाता और आप (صلى الله عليه وسلم) का इन्कार करता जाता। किसी ने आप (صلى الله عليه وسلم) की बात ना सुनी और वो ये कहते कि : “तुम्हें तुम्हारी क़ौम बेहतर तौर पर जानती है ।” वो आप (صلى الله عليه وسلم) से बात करते तो बेहस और झगड़ा करते, रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) उनसे बात करते और ये कहते हुए उनको बराबर दावत देते रहते :

((اللهم لو شئت لم يكونوا هكذا))
“ए अल्लाह (سبحانه وتعالى) अगर आप चाहते तो ये ऐसे ना होते ।

सीरते इब्ने हिशाम में है, अल-ज़हरी ने रिवायत की है कि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) मिना के मुक़ाम पर निवासी क़बीला बनू-किन्दा के घरों में गए और ख़ुद को उनके सामने पेश किया लेकिन उन्होंने आप (صلى الله عليه وسلم) की मदद करने से इन्कार कर दिया। अल-ज़हरी आगे बयान करते हैं कि आप (صلى الله عليه وسلم) फिर क़बीला बनू कल्ब के घरों में गए और उन्होंने भी आप (صلى الله عليه وسلم) की पेशकश का इन्कार किया और फिर आप (صلى الله عليه وسلم) क़बीला बनी हनीफा के घरों में गए और उनसे भी नुसरत व मदद तलब की लेकिन तमाम अरबों में इनका जवाब निहायत ही बदशक्ल था, इसके बाद रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) क़बीला बनू आमिर बिन सासा की तरफ़ गए और उनको अल्लाह (سبحانه وتعالى) की तरफ़ दावत दी और ख़ुद को उनके सामने पेश किया। इनमें एक शख़्स जिसका नाम बैहारा बिन फ़िरास था इसने अपने क़बीले से कहा कि : “अल्लाह (سبحانه وتعالى) की क़सम अगर मैंने क़ुरैश से इस नौजवान को ले लिया तो इसके ज़रीये मैं यक़ीनन पूरे अरब को फ़तह कर लूंगा ।” फिर उसने आप (صلى الله عليه وسلم) से कहा: “तुम्हारा क्या इरादा है कि अगर हम तुम्हें तुम्हारे इस मामले में बैअत दें और तुम अल्लाह (سبحانه وتعالى) के फ़ज़्ल से अपने विरोधीयों पर ग़ालिब आ गए तो क्या इसके बाद हुकूमत हमारी होगी? ” तो जवाब में रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया:
((الأمر إلى الله يضعه حيث يشاء))
“इक़्तिदार (authority) अल्लाह (سبحانه وتعالى) का है वो जिसे चाहेगा देगा ।

तो फिर बैहारा ने कहा: “तुम्हारी हिफ़ाज़त में हम अपने गले कटवाने के लिए अरबों पर खोल देंगे और फिर जब अल्लाह (سبحانه وتعالى) तुम्हें ग़ालिब कर देगा तो अरब पर हुकूमत किसी और के हिस्सा में चली जाएगी, तो हमें तुम्हारी ऐसी क़ुव्वत और ताक़त की पेशकश की ज़रूरत नहीं ।”

अब रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) बस यही अमल करते रहे कि जब हज के मौसम में लोग जमा होते तो उस वक़्त मुख़्तलिफ़ दीगर क़बाइल को अल्लाह (سبحانه وتعالى) की तरफ़ बुलाते और इस्लाम की दावत देते, अपने आपको उनके सामने पेश कर देते, अल्लाह (سبحانه وتعالى) की जो रहमत और हिदायत आप (صلى الله عليه وسلم) लाते उनको वो बताते, जब कभी आप (صلى الله عليه وسلم) को ख़बर मिलती कि कोई असरो रसूख़ रखने वाला और इज़्ज़त, शौहरत और मर्तबा वाला अरब आने वाला है तो आप (صلى الله عليه وسلم) की तवज्जोह उस पर हो जाती और आप (صلى الله عليه وسلم) उसके पास जाते और उसको अल्लाह (سبحانه وتعالى) की तरफ़ दावत देते और पेशकश करते जो कुछ अल्लाह (سبحانه وتعالى) की जानिब से आप (صلى الله عليه وسلم) पर नाज़िल हुआ है यानी अपने आपको इसके सामने तलबे नुसरत के लिए पेश करते। रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) जिन क़बीलों के पास मुलाक़ात के लिए गए और उन्हें दावत दी और अपने आपको उनके सामने पेश किया मगर उन्होंने इन्कार कर दिया था इन क़बीलों के नाम इस तरह हैं । (1)बनू आमिर बिन सासा (2) मुहारिब बिन ख़सफ़हा (3) फ़ज़ाराह (4) ग़स्सान (5) मुर्राह (6) हनीफा (7) सुलेम (8) अबस (9) बनू-नज़र (10) बनू अल-बुका (11) किन्दा (12) कल्ब (13) अल-हारिस बिन काअब (14) उज़रा (15) अल-हज़रेमाह।

क़बाइल की ये फ़हरिस्त इब्ने-साद के मुताबिक़ है जो उन्होंने अपनी किताब “अल-तबक़ात” (नस्लें/The Generations) में बयान किया है ।
अहले मदीना ने दावत क़बूल करली:

रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) हर साल मजन्ना, उकाज़ और मिना में अरब के क़बीलों को अल्लाह (سبحانه وتعالى) की तरफ़ बुलाते रहे और ये कह कर अपने आपको उनके सामने पेश करते कि मुझे पनाह दें ताकि में अल्लाह (سبحانه وتعالى) के पैग़ाम को लोगों तक पहुंचाऊँ और इस मदद के बदले उन्हें जन्नत मिलेगी। अरब के किसी क़बीले ने आप (صلى الله عليه وسلم) की पेशकश क़बूल नहीं की, आप (صلى الله عليه وسلم) को सताया गया और रुस्वा करने की कोशिशें की गईं यहाँ तक कि अल्लाह (سبحانه وتعالى) की मर्ज़ी हुई कि दीन को ग़ालिब किया जाये, नबी (صلى الله عليه وسلم) की मदद करें और अपने वाअदे को पूरा करें, चुनांचे अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने अपने रसूल (صلى الله عليه وسلم) की मुलाक़ात अंसार के इस क़बीले से करवा दी, ये इस तरह हुआ कि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की मुलाक़ात अंसार के लोगों के एक ऐसे गिरोह से हो गई जो अपना सर मूंडवा रहे थे। आप (صلى الله عليه وسلم) उनके साथ जा बैठे और उनको अल्लाह (سبحانه وتعالى) की तरफ़ दावत दी, उनके सामने क़ुरआन की तिलावत की, उन लोगों ने अल्लाह (سبحانه وتعالى) और अल्लाह के रसूल की इस दावत को फ़ौरन क़बूल कर लिया, जल्द ही ईमान की तस्दीक़ की और आप (صلى الله عليه وسلم) पर ईमान क़बूल कर लिया । फिर ये लोग मदीने जाकर अपनी क़ौम को इस्लाम की दावत देने लगे और फिर मज़ीद दूसरे लोग भी इस्लाम क़बूल करने लगे।

अगले साल हज के मौसम में मदीना से बनू ओस और बनू ख़ज़रज के वो बारह अफ़राद आए जिन्होंने इस्लाम क़बूल किया था, रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने उक़्बा (घाटी) के मुक़ाम पर उनसे मुलाक़ात की। ये उक़्बा की पहली मुलाक़ात थी यहां उन्होंने आप (صلى الله عليه وسلم) को औरतों वाली बैअत (बैअतुन्निसा) दी। उनकी दरख़ास्त पर रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने मुसअब (رضي الله عنه) बिन उमैर को उनके साथ मदीना रवाना किया। आप (صلى الله عليه وسلم) ने मुसअब (رضي الله عنه) बिन उमैर को हुक्म दिया कि उनको क़ुरआन पढ़कर सुनाए, उनको इस्लाम सिखाएं और इनमें दीन की समझ फैलाए । मुसअब (رضي الله عنه) बिन उमैर को अल-मक़री (क़ारी) के नाम से जाना जाता था । मुसअब (رضي الله عنه) बिन उमैर मदीना जाकर असअद बिन ज़ुराराह के मकान में क़याम पज़ीर हुए, इसके बाद यूं हुआ कि उसैद (رضي الله عنه) बिन हुज़ैर और साद (رضي الله عنه) बिन मआज़ ईमान ले आए, ये दोनों अफ़राद अपनी क़ौम के सरदार थे, जब साद (رضي الله عنه) बिन मआज़ ने इस्लाम क़बूल किया तो उन्होंने अपनी क़ौम से सवाल क्या: मेरे बारे में तुम लोगों का क्या ख़्याल है? वो कहने लगे: आप हमारे सरदार हैं, हम आप को हम में सबसे उम्दा राय रखने वाले और बहैसीयत सरदार हमेशा सही राहनुमाई करने वाला पाते हैं । उन्होंने कहा: तुम्हारे मर्दों और तुम्हारी औरतों पर मुझ से बात करना उस वक़्त तक हराम है जब तक वो अल्लाह (سبحانه وتعالى) और उसके रसूल (صلى الله عليه وسلم) पर ईमान ना लाएंगे । इसके बाद शाम होते होते ख़ानदान अब्दल अश्हल में ऐसी कोई एक औरत और कोई मर्द बाक़ी नहीं रह गया था जो ईमान ना लाया हो।

उक़्बा की बैअत:

फिर मुसअब (رضي الله عنه) मक्का वापिस लौटे। हज के मौसम में अंसार में से कुछ मुसलमान अपनी क़ौम के कुछ मुशरिकीन के साथ जो कि हज पर जा रहे थे हज के लिए मक्का की तरफ़ निकले, उन्होंने अय्यामे तशरीक़ के दरमयानी दिनों (यानी चार दिन, जो दस ज़िल-हिज्ज से चौदह ज़िल-हिज्ज हैं ) के दौरान उक़्बा में रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) से बैअत ली। वो रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के पास आए और फिर आप (صلى الله عليه وسلم) ने उनसे मुलाक़ात की, ये कुल 73 मर्द और 2 ख़वातीन थे। मुलाक़ात के वक़्त रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के साथ सिर्फ़ आप (صلى الله عليه وسلم) के चचा अब्बास थे। असअद बिन ज़ुराराह ने बयान किया कि: बातचीत में पहल रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के चचा अब्बास ने ये कहते हुए की कि: “ए ख़ज़रज वालो! तुम लोगों ने मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) को दावत दी    है। मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) अपनी क़ौम में सबसे शरीफ़ और मुअज़्ज़िज़ तरीन आदमी हैं । अल्लाह (سبحانه وتعالى) की क़सम हम में से वो जो मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) पर ईमान लाया हो या ना लाया हो उसने मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) की हिफ़ाज़त मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) के हसब व निसबत और शराफ़त (lineage and honour) की वजह से की है । मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) ने दूसरे तमाम लोगों का इन्कार किया है और तुम्हारी दावत क़बूल की है, अगर तुम ताक़त और इस्तिक़ामत रखते हो, जंगी तजुर्बा और महारत रखते हो और तमाम अरब की दुश्मनी का अकेले सामना करने के लिए तैय्यार हो जो कि तुम्हारे ख़िलाफ़ एक होकर लड़ेंगे तो फिर अच्छी तरह सोच लो तुम जो भी करना चाहते हो और फिर कर गुज़रो, अपने सरदारों को साथ करो और इज्तिमाई तौर पर ये फ़ैसला करो, एक मर्तबा सब लोगों के सामने और मुत्तफ़िक़ा (unanimously) तौर पर फ़ैसला कर लेने के बाद आपस में इख़्तिलाफ़ करके अलग अलग जत्थे ना बन जाओ, बेशक अच्छी बात वही है जो साफ़ और सच्ची है।” उन्होंने कहा:  हमने सुन लिया जो कुछ तुमने कहा लेकिन ए अल्लाह के रसूल आप (صلى الله عليه وسلم) फ़रमाईए और अपने लिए और आपके रब के लिए क़बूल कर लीजिए जो कुछ आपको पसंद है?  चुनांचे रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने गुफ़्तगु शुरू की, पहले आप रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने क़ुरआन की तिलावत की फ़िर उनको अल्लाह (سبحانه وتعالى) की तरफ़ दावत दी और इस्लाम क़बूल करने पर उभारा, और ये शर्त रख दी कि तुम अल्लाह (سبحانه وتعالى) ही की इबादत करोगे और इसके साथ किसी को शरीक नहीं करोगे, फिर फ़रमाया:
“मैं इस बात पर तुम से बैअत लेता हूँ कि तुम मेरी ऐसी हिफ़ाज़त करोगे जिस तरह अपने औरतों और बच्चों की हिफ़ाज़त करते हो ।” (सीरते इब्ने हिशाम)

असअद बिन ज़ुराराह अल-बराब आगे बयान करते हैं कि अलबरा-मारूर ने बैअत देने के लिए आप (صلى الله عليه وسلم) का हाथ पकड़ लिया और कहा : “हाँ, उस ज़ात की क़सम जिसने आपको हक़ की ख़बर देने वाला बना कर भेजा है हम तुम्हारी इसी तरह हिफ़ाज़त करेंगे जिस तरह हम अपनी औरतों और बच्चों की हिफ़ाज़त करते हैं । ए अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) हम आपको ऐसी बैअत देते हैं, अल्लाह (سبحانه وتعالى) की क़सम हम जंगजू मर्द हैं और हथियारों के माहिर लोग हैं जो हमें हमारे एक सरदार से दूसरे सरदार तक मिलने वाली पुश्त दर पुश्त विरासत है    ।”
अभी अलबरा-बात कर ही रहे थे कि अबुल-हैथमी इब्नुल-तैहान ने मुदाख़िलत की और कहा:  “ए अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) हमारे और दीगर लोगों (यहूद) के बीच मुआहिदे और ताल्लुक़ात हैं अगर हम उनको तोड़ दें, और फिर शायद जब हमारे ताल्लुक़ात ख़त्म हो जाएं और अल्लाह (سبحانه وتعالى) आपको ग़लबा अता कर दे तो क्या आप (صلى الله عليه وسلم) अपनी क़ौम की तरफ़ लौटेंगे और हमें छोड़ देंगे? ” रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) मुस्कुराए और फ़रमाया:

((بل الدم الدم، والهدم الهدم، أنا منكم وأنتم مني، أحارب من حاربتم وأسالم من سالمتم))

“नहीं, ख़ून का बदला ख़ून है, तबाही का बदला तबाही है, मैं तुममें से हूँ और तुम मुझ में से हो, जिसके साथ तुम लड़ोगे उसके साथ में लड़ूंगा और जिसके साथ तुम अमन (मुआहिदा) करोगे इसके साथ में अमन करूंगा ।” (सीरते इब्ने हिशाम)
चुनांचे उन्होंने कहा कि : “हम आपको बैअत करते हैं कि हम इसके लिए तैय्यार रहेंगे कि हमें माली नुक़्सान उठाना पड़े या हमारे शरीफ़ों को ज़िब्ह कर दिया जाये  ।" फिर अल्बर आइने कहा: ए अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) अपना हाथ बाहर फैलाएं। फिर तमाम सत्तर (70) अफ़राद ने आप (صلى الله عليه وسلم) के हाथ पर हाथ धरे और आप (صلى الله عليه وسلم) को बैअत दी। जब लोग बैअत दे चुके और बैअत मुकम्मल हो गई तो शैतान ने ज़ोरदार आवाज़ में उक़्बा के ऊपर से चीख़ कर कहा: ए अहले अखाशिब (मक्का वालों) क्या तुम चाहते हो कि मुहम्मद और साबईन (जिन्होंने अपना दीन छोड़ दिया) तुम्हारे ख़िलाफ़ साथ मिल कर लड़ाई लड़ें ?, ये आवाज़ सुनी गई । रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया:

((أخرجوا لي منكم اثني عشر نقيباً ليكونوا كفلاء على قومهم ككفالة الحواريين لعيسى بن مريم- وأنا كفيل على قومي))

“आपस में ख़ुद से बारह सरदार चुन लो और उन्हें मेरे सामने लाओ ताकि वो ईसा इब्ने मरियम के हव्वारियों की तरह अपनी अपनी क़ौम के मामलात की ज़िम्मेदारी सन्भालें और मैं अपनी क़ौम का ज़िम्मेदार हूँ ।”
उन्होंने बारह नक़ीब (दोनों क़बीलों के लिए सरदार) चुन लिए और यूं इस ख़ालिस ईमानी माहौल में ये बैअत मुकम्मल हुई। उन पर इस बैअत के ईमानी माहौल का इतना असर हुआ था कि अब्बास बिन उबादा ने रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) से अर्ज़ किया: “उस ज़ात की क़सम जिसने आप (صلى الله عليه وسلم) को हक़ के साथ मबऊस फ़रमाया आप (صلى الله عليه وسلم) अगर चाहें तो कल ही हम अपनी तलवारों से अहले मिना पर टूट पड़ेंगे ।”

रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया:

((لم نؤمر بذلك، ولكن ارجعوا إلى رحالكم))۔
“हमें इसका हुक्म नहीं मिला है, तुम अपने सामान की तरफ़ लौटो।” (सीरते इब्ने हिशाम)


हज का मौसम ख़त्म हुआ, आए हुए लोग अब मक्का छोड़कर चले गए वो मक्का जो गु़स्से में तिलमिला रहा था क्योंकि अहले मक्का को इस बैअत की ख़बर पहुंच गई थी । इब्ने -साद ने अपनी किताब “तबक़ात” में उरवाह से और उरवाह ने आइशा (رضي الله عنها) से रिवायत किया है कि: “जब ये सत्तर (70) अफ़राद रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) से अलग होकर चले गए तो रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) को ऐसा एहसास हुआ था कि अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने आप (صلى الله عليه وسلم) को एक ऐसी क़ुव्वत की पनाह दे दी है जो जंगजू क़ौम होने के अलावा आप (صلى الله عليه وسلم) की इताअत पर तैय्यार और आप (صلى الله عليه وسلم) की मददगार है लेकिन इसके बाद मुसलमानों पर सख़्ती और आज़माईश अधिक बढ़ गई । चुनांचे सहाबा (رضی اللہ عنھم) ने इसकी शिकायत की और हिज्रत की इजाज़त चाही तो रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने उनको हिज्रत करने की इजाज़त दे दी और साथ ही उनको बतलाया कि आप (صلى الله عليه وسلم) को उस जगह की ख़बर भी दे दी गई है जहां उन्हें (खुद) हिज्रत करके जाना है (ये जगह यसरिब यानी मदीना थी) और जो कोई जाना चाहता है वहां चले जाये। रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया: (अल-बुख़ारी व मुस्लिम)

((رأيت في المنام أني أهاجر من مكة إلى أرض بها نخل، فذهب وهلي إلى أنها اليمامة أو هجر، فإذا هي المدينة يثرب))

“मैंने ख़्वाब देखा कि में मक्का से एक ऐसी जगह हिज्रत कर रहा हूँ जहां खजूरें हैं, मुझे गुमान हो कि शायद ये यमामा है जहां मुझे हिज्रत करनी है लेकिन वो शहर यसरिब था ।”
क़बाइल से नुसरत हासिल करने की कोशिशें और फिर बैअत उक़्बा ऊला और बैअत उक़्बा सानिया ये सब इशारा देते हैं कि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) एक ऐसा धड़ा या ढांचा चाहते थे जो ताक़तवर हो और आप (صلى الله عليه وسلم) के दीन के लिए एक मददगार और मज़बूत पनाहगाह हो। क्योंकि मामला अब सिर्फ दावत फैलाने और उसकी तब्लीग़ की राह में मुसीबतें बर्दाश्त करने तक ही सीमित नहीं रहा था, अल्लाह (سبحانه وتعالى) के दीन का मामला इस बिन्दू पर भी पहुंच चुका था जब एक ऐसी क़ुव्वत मौजूद होनी चाहिए थी जिसके ज़रीये मुसलमान अपनी हिफ़ाज़त और दिफ़ा कर सकें, यहाँ तक कि अब इससे कहीं ज़्यादा बढ़ कर इस बिन्दू पर आ पहुंचा था कि एक ऐसा बीज या केन्द्रिय बिन्दू क़ायम कर दिया जाये जो इस्लामी रियासत की बुनियाद और संगे तामीर बन जाये जो इस्लामी रियासत के क़याम में निहायत मददगार हो और इस्लाम को समाज में नाफ़िज़ करे और एक आलमी पैग़ाम के तौर पर लोगों के सामने पेश करे और साथ ही अपने पास वो क़ुव्वत व ताक़त रखे जो इस्लाम की हिफ़ाज़त करे और हर उस माद्दी रुकावट (material obstacles) को हटाए जो इस्लाम की तब्लीग़ के रास्ते में खड़ी होती हो। चुनांचे हिज्रत वाक़ेअ हुई और इस हिज्रत के लिए मुहाजिरीन ने कई क़ुर्बानियां दीं, जिनमें माल व जायदाद, अपने वतन और बीवी बच्चों से हाथ धोना भी शामिल था। मदीना की तरफ़ की गई ये विशेष हिज्रत हब्शा की हिज्रत से बिलकुल भिन्न थी।

हब्शा की तरफ़ हिज्रत ऐसे कुछ अफ़राद की हिज्रत थी जो अपने दीन की ख़ातिर और तशद्दुद के ख़तरात से अपने आपको बचाने की ग़रज़ से फ़रार हुए थे। अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने इस हिज्रत को मुसलमानों के लिए तशद्दुद और सताए जाने से बचाव की एक सूरत बनाई ताकि वो अपने हालात बदल लें और ज़ुल्म और तशद्दुद की चक्की में ना पिसते रहें बल्कि उनकी जानों को कुछ राहत मिल सके और फिर वो दीन की दावत को दुबारा मज़बूत और सक्रिय अंदाज़ में अंजाम देने के लिए ताज़ा दम हो जाएं, लिहाज़ा हब्शा की ये हिज्रत नबवी दावती तरीक़े कार का कोई मरहला नहीं बनती है कि जिसके दौरान बाहर दूसरी रियासत में जाकर मुहाजिरीन दावती गतिविधियों को अंजाम दें या जिस रियासत में उन्होंने हिज्रत की हो उस ममलकित (regime) की मदद या तआवुन से उनके अपने वतन में हुकूमत को तब्दील करने की कोशिश की जाये।

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