इस्लाम का यकबार और हमागीर निफाज़ फ़र्ज़ है और इस्लाम का तदरीजन निफाज़ हराम है

अल्लाह (سبحانه وتعال) ने रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم पर क़ुरआन करीम को अहवाल-ओ-वाक़ियात के मुताबिक़ तदरीजन नाज़िल किया और जब भी कोई आयत नाज़िल होती, आप صلى الله عليه وسلم फिल फ़ौर (फौरन) इस आयत को लोगों तक पहुंचाते। अगर उस आयत में कोई हुक्म वारिद होता तो आप صلى الله عليه وسلم और मुसलमान इस पर फ़ौरी अमल दरआमद करते और अगर इस आयत में किसी चीज़ से रुक जाने का हुक्म होता तो आप صلى الله عليه وسلم और मुसलमान इस से फ़ौरन रुक जाते और उस चीज़ से इजतिनाब (किनारा) करते। जैसे ही कोई हुक्म नाज़िल होता उसे बिला ताख़ीर नाफ़िज़ किया जाता और किसी हुक्म के नाज़िल होने के साथ ही इस का निफाज़ लाज़िम हो जाता था ख़ाह वो हुक्म कोई भी हो। यहां तक कि अल्लाह (سبحانه وتعال) ने अपने दीन को मुकम्मल कर दिया और अपनी ये आयत नाज़िल की:

ٱلۡيَوۡمَ أَكۡمَلۡتُ لَكُمۡ دِينَكُمۡ وَأَتۡمَمۡتُ عَلَيۡكُمۡ نِعۡمَتِى وَرَضِيتُ لَكُمُ ٱلۡإِسۡلَـٰمَ دِينً۬ا

आज के दिन मैंने तुम्हारे लिये तुम्हारे दीन को मुकम्मल कर दिया और तुम पर अपनी नेअमत तमाम कर दी और तुम्हारे लिये इस्लाम को बतौर-ए-दीन पसंद कर लिय (अलमाइदा:3)

इस आयत के नाज़िल होने के बाद इस्लाम के तमाम तर अहकामात को मुकम्मल तौर पर नाफ़िज़ करना और उन पर अमल दरआमद करना मुसलमानों पर फ़र्ज़ हो गया चाहे इसका ताल्लुक़ अक़ाइद से हो या इबादात से, अख़लाक़ से हो या मुआमलात से, ख़ाह ये मुआमलात आपस में मुसलमानों के दरमियान हों या मुसलमानों और उन के हुक्मरान के दरमियान या फिर ये मुआमलात मुसलमानों और दूसरे अक़्वाम , रियासतों या लोगों के दरमियान हों। और चाहे इन अहकामात का ताल्लुक़ हुकूमत से हो या फिर मईशत (धन दौलत) से, मुआशरती (सामाजिक) मुआमलात से हो या जंग-ओ-अमन की हालत में ख़ारिजा पॉलीसी से। 
अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इरशाद फ़रमाया:

وَمَآ ءَاتَٮٰكُمُ ٱلرَّسُولُ فَخُذُوهُ وَمَا نَہَٮٰكُمۡ عَنۡهُ فَٱنتَهُواْۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۖ إِنَّ ٱللَّهَ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ

और जो कुछ रसूल صلى الله عليه وسلم तुम्हें दें वो ले लो और जिस चीज़ से तुम्हें मना करें इस से बाज़ रहो , और अल्लाह से डरते रहो, बेशक अल्लाह का अज़ाब शदीद ह (अलहशर:7)
यानी अल्लाह के रसूल صلى الله عليه وسلم जो कुछ दें उसे ले लो और इस पर अमल करो और जिस चीज़ से अल्लाह के रसूल صلى الله عليه وسلم ने मना किया है इस से इजतिनाब (किनारा) करो और और इस से दूर रहो। क्योंकि इस आयत में वारिद होने वाला लफ़्ज़ मा (जो कुछ ) “सैग़ा ए उमूम” में से है। चुनांचे आयत का मफ़हूम ये है कि हम हर वाजिब को इख्तियार करें और हर मुनकिर से बाज़ रहें । क्योंकि इख्तियार करने और इजतिनाब करने के लिये आयत में मौजूद तलब, तलब-ए-जाज़िम है लिहाज़ा ऐसा करना फ़र्ज़ है। और ये इस करीना की बिना पर है कि आयत में इस हुक्म के बाद तक़वा को इख्तियार करने का हुक्म दिया गया है और उन लोगों के लिये शदीद अज़ाब की वईद बयान की गई है जो रसूल صلى الله عليه وسلم के अता करदा को इख्तियार नहीं करते और उस चीज़ से इजतिनाब नहीं करते जिस से रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने मना किया है  और अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इरशाद फ़रमाया:

وَأَنِ ٱحۡكُم بَيۡنَہُم بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ وَلَا تَتَّبِعۡ أَهۡوَآءَهُمۡ وَٱحۡذَرۡهُمۡ أَن يَفۡتِنُوكَ عَنۢ بَعۡضِ مَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ إِلَيۡكَۖ

और ये कि आप صلى الله عليه وسلم उन के बीच अल्लाह (سبحانه وتعال) के नाज़िल करदा (अहकामात) के मुताबिक़ फ़ैसला करें और उन की ख़ाहिशात की पैरवी ना करें। और उन से मुहतात रहें कि कहीं ये अल्लाह (سبحانه وتعال) के नाज़िल करदा बाअज़ (अहकामात) के बारे में आप को फ़ित्ने में ना डाल दे (अलमाइदा:49)

ये अल्लाह (سبحانه وتعال) की तरफ़ से रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم और आप صلى الله عليه وسلم के बाद आने वाले तमाम मुसलमान हुक्मरानों के लिये एक लाज़िमी हुक्म है जो इस बात को फ़र्ज़ बनाता है कि वो इन तमाम तर अहकामात के मुताबिक़ हुकूमत करें जो अल्लाह ने नाज़िल किये हैं , ख़ाह वो अवामिर हों या नवाही। क्योंकि आयत में वारिद होने वाला लफ़्ज़ “मा” सैग़ा उमूम में से है , जिस का मतलब ये है कि इस में अल्लाह के नाज़िल करदा तमाम अहकामात शामिल हैं।
अल्लाह (سبحانه وتعال) ने रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم और आप के बाद आने वाले मुसलमानों के हुक्मरानों को लोगों की ख़ाहिशात की इत्तिबा करने और उन की तमन्नाओं की तरफ़ मैलान करने से मना फ़रमाया, क्योंकि अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इरशाद फ़रमाया:

وَلَا تَتَّبِعۡ أَهۡوَآءَهُمۡ
और उन की ख़ाहिशात की पैरवी ना कीजिए (अलमाइदा:49)

अल्लाह (سبحانه وتعال) ने अपने रसूल صلى الله عليه وسلم और उन के बाद आने वाले मुसलमान हुक्मरानों को, लोगों की ख़ाहिशात के फ़ित्ने का शिकार होकर अल्लाह के नाज़िल करदा कुछ क़वानीन के निफाज़ से पीछे हटने से ख़बरदार किया। बल्कि आप صلى الله عليه وسلم को हुक्म दिया गया कि आप صلى الله عليه وسلم उन तमाम अहकामात को नाफ़िज़ करें जो अल्लाह ने आप صلى الله عليه وسلم पर नाज़िल किये हैं , ख़ाह वो अवामिर हों या नवाही, और इस सिलसिले में इस चीज़ की तरफ़ ध्यान ना  दें कि लोग क्या चाहते हैं। क्योंकि अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इरशाद फ़रमाया:

وَٱحۡذَرۡهُمۡ أَن يَفۡتِنُوكَ عَنۢ بَعۡضِ مَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ إِلَيۡكَۖ
और उन से मुहतात रहें कि कहीं ये अल्लाह (سبحانه وتعال) के नाज़िल करदा बाअज़ (अहकामात) के बारे में आप को फ़ित्ने में ना डाल दें (अलमाइदा:49)

और अल्लाह (سبحانه وتعال) ने ये भी इरशाद फ़रमाया:

وَمَن لَّمۡ يَحۡكُم بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ فَأُوْلَـٰٓٮِٕكَ هُمُ ٱلۡكَـٰفِرُونَ 
और जो अल्लाह (سبحانه وتعال) के नाज़िल करदा (अहकामात) के ज़रीये फ़ैसला ना करें तो ऐसे लोग ही काफ़िर हैं (अलमाइदा:44)

और दूसरी आयत में फ़रमाया:

فَأُوْلَـٰٓٮِٕكَ هُمُ ٱلظَّـٰلِمُونَ
 तो ऐसे ही लोग ज़ालिम हैं (अलमाइदा:45)

और तीसरी आयत में फ़रमाया:
فَأُوْلَـٰٓٮِٕكَ هُمُ ٱلۡفَـٰسِقُونَ
 तो ऐसे लोग ही फ़ासिक़ हैं (अलमाइदा:47)

इन आयात में अल्लाह (سبحانه وتعال) ने उन लोगों को काफ़िर, ज़ालिम और फ़ासिक़ क़रार दिया जो अल्लाह के नाज़िल करदा अहकामात के मुताबिक़ हुकूमत नहीं करते। क्योंकि इन आयात में वारिद होने वाला लफ़्ज़ “मा” सैग़ा उमूम पर मबनी है। लिहाज़ा इस में वो तमाम शरई अहकाम-ए-शामिल हैं जो अल्लाह (سبحانه وتعال) ने नाज़िल किये हैं, ख़ाह वो अवामिर हों या नवाही।

अब तक जो कुछ बयान किया गया इस से ये बात बगैर किसी शक-ओ-शुबा के, वाज़िह और क़तई तौर पर साबित हो जाती है कि तमाम मुसलमानों , ख़ाह वो अफ़राद हों या गिरोह या फिर रियासत, पर किसी ताख़ीर, इलतिवा या तदरीज (सीढी दर सीढी) के बगैर इस्लाम के तमाम तर अहकामात को नाफ़िज़ करना फ़र्ज़ है । इस में इस बात की तरफ़ भी इशारा मिलता है कि किसी फ़र्द, गिरोह या रियासत के लिये इस्लाम के अहकामात को नाफ़िज़ ना करने का कोई उज़्र (मजबूरी) क़ाबिल-ए-क़बूल नहीं।
इस्लाम का निफाज़ जामि, हमागीर और एक साथ होना चाहीए , तदरीजन नहीं। इस्लाम का तदरीजन निफ़ाज़ इस्लाम के अहकामात से बिलकुल टकराता है। और इस्लाम उन लोगों को गुनाहगार क़रार देता है जो अल्लाह के कुछ क़वानीन को नाफ़िज़ करते हैं और कुछ क़वानीन को छोड़े रखते हैं, ख़ाह ये अफ़राद हों या गिरोह या ऐसा रियासत की तरफ़ से हो।
फ़र्ज़ हमेशा फ़र्ज़ रहता है और उस की तनफीज़ लाज़िम है , और हराम हमेशा हराम रहता है और इस से इजतिनाब वाजिब है। रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने बनू सक़ीफ़ की पेशकश को मुस्तर्द कर दिया जब उन के भेजे हुए वफ्द ने इस्लाम क़बूल करने के लिये ये शर्त रखी कि वो अपने बुत लात को तीन साल तक बाक़ी रखेंगे और उन्हें नमाज़ माफ़ होगी। रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इस बात को बिलकुल मुस्तर्द कर दिया और इस बात पुर इसरार किया कि बुत को फ़ौरन तोड़ा जाये और वो लोग बिला ताख़ीर नमाज़ अदा करें।
और जो हुक्मरान अल्लाह के तमाम अहकामात को नाफ़िज़ ना करे या कुछ अहकामात को नाफ़िज़ करे और कुछ को पस-ए-पुश्त डाल दे, और वह ये यक़ीन  रखता हो कि इस्लाम या इस के कुछ अहकामात मौज़ूं-ओ-मुनासिब नहीं हैं, अल्लाह (سبحانه وتعال) ने उसे काफ़िर क़रार दिया है। और वो हुक्मरान जो इस्लाम के अहकामात के मौज़ूनियत और सलाहियत पर तो यक़ीन रखता हो लेकिन वो अल्लाह के तमाम अहकामात को नाफ़िज़ ना करे या कुछ अहकामात को नाफ़िज़ करे और कुछ को पस-ए-पुश्त डाल दे, अल्लाह (سبحانه وتعال) ने उसे ज़ालिम या फ़ासिक़ क़रार दिया है।
रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने उसे हुक्मरान के ख़िलाफ़ लड़ने और इस के ख़िलाफ़ तलवार उठाने का हुक्म दिया जिस से कुफ्र बुवाह ज़ाहिर हो जाये। यानी जब वो उसे क़वानीन की बिना पर हुकूमत करे जिन के मुताल्लिक़ कोई शक-ओ-शुबा ना हो कि ये कुफ्रिया या अहकाम हैं , ख़ाह ये मुतअद्दिद (कईं) क़वानीन हों या चंद एक। जैसा कि उबादा बिन सामित से मरवी हदीस में वारिद हुआ:

((...و أن لا نُنازع ا لأمر أہلہ، قال: إلا أن تَروا کفراً بَواحاً، عندکم من اللّٰہ فیہ برہان))

और अहल-ए-अम्र के साथ तनाज़ा ना करना जब तक कि तुम उन की तरफ़ से सरिह कुफ्र ना देख लो जिस के मुताल्लिक़ तुम्हारे पास अल्लाह (سبحانه وتعال) की तरफ़ से बुरहान (वाज़िह दलील) मौजूद ना हो  (मुस्लिम ने रिवायत किया)

अहकाम-ए-शरीयत के निफाज़ में किसी किस्म का तसाहुल (सुस्ती) नहीं होना चाहीए और ना ही इस्लाम के अहकामात का तदरीजन निफाज़ किया जाना चाहिये। क्योंकि दो फर्ज़ों के दरमियान कोई फ़र्क़ नहीं और ना ही दो मुहर्रमात (हराम) के बीच कोई फ़र्क़ है। तमाम अहकाम बराबर हैं और उन की तनफीज़-ओ-ततबीक़ बगैर किसी ताख़ीर , तदरीज के होनी चाहिये, वर्ना हम पर अल्लाह (سبحانه وتعال) के इस क़ौल का इतलाक़ होगा:


أَفَتُؤۡمِنُونَ بِبَعۡضِ ٱلۡكِتَـٰبِ وَتَكۡفُرُونَ بِبَعۡضٍ۬ۚ فَمَا جَزَآءُ مَن يَفۡعَلُ ذَٲلِكَ مِنڪُمۡ إِلَّا خِزۡىٌ۬ فِى ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۖ وَيَوۡمَ ٱلۡقِيَـٰمَةِ يُرَدُّونَ إِلَىٰٓ أَشَدِّ ٱلۡعَذَابِ
क्या तुम किताब के कुछ हिस्से पर ईमान रखते हो और कुछ हिस्से का इनकार करते हो? और जो शख़्स ऐसा करेगा तो दुनिया में इस के लिए रुसवाई है और आख़िरत के दिन उन लोगों को सख़्त तरीन अज़ाब की तरफ़ लौटाया जाएगा (अलबक़रा:85)

लिहाज़ा आज इस्लामी दुनिया की किसी रियासत के लिये इस्लाम के अदम निफाज़ का कोई उज़्र नहीं कि वो इस बात को जवाज़ बना कर इस्लाम को नाफ़िज़ ना करे कि वो इस्लाम को नाफ़िज़ नहीं कर सकते या अभी इस्लाम के निफाज़ के लिये हालात साज़गार नहीं या आलमी राय आम्मा उसे क़बूल नहीं करेगी या सुपर ताकतें ऐसा नहीं होने देंगी या इसी तरह के दूसरे बहाने और कमज़ोर दलायल जिन का कोई वज़न नहीं। जो भी इन उज़्र के पीछे छुपता है उसे ये जान लेना चाहीए कि क़यामत के दिन अल्लाह इस से ये बात क़बूल नहीं करेगा
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