ख़लीफ़ा के मुआविनीन

मुआवनीन वो वज़ीर होते हैं जिन्हें ख़लीफ़ा ख़िलाफ़त के बोझ को उठाने और ज़िम्मेदारीयों को निभाने में अपनी मुआविनत (सहायता) के लिये मुक़र्रर करता है। ख़िलाफ़त पर कई भारी ज़िम्मेदारियों होती हैं खासतौर पर जब रियासत वसीअ-ओ-अरीज़ (विस्तृत और विशाल) हो और ख़लीफ़ा के लिये अकेले उसे संभालना मुश्किल काम हो,इसलिये उसे इस बोझ को उठाने और ज़िम्मेदारीयों को पूरा करने के लिये लोगों की ज़रूरत होती है । मुआवनीन को मुक़र्रर करना मुबाहात में से है।

वो मुआवनीन जिन्हें ख़लीफ़ा इस भारी काम में अपनी मदद के लिये मुक़र्रर करता है, दो किस्म के होते हैं:
- मुआविन-ए- तफ़वीज़
- मुआविन-ए- तनफीज़

मुआविन-ए- तफ़वीज़:

मुआविन तफ़वीज़ वो वज़ीर है जिसे ख़लीफ़ा हुक्मरानी और इख्तियारात की ज़िम्मेदारीयों  में हाथ बटाने के लिये मुक़र्रर करता है ख़लीफ़ा अपनी राय के मुताबिक़ रियासत के मुआमलात को चलाने की ज़िम्मेदारी उसे सौंपता है और ये कि मुआविन ख़लीफ़ा के इज्तिहाद के मुताबिक़ और अहकाम-ए-शरीयत के मुताबिक़ रियासत के मुआमलात को निबटाए।

मुआवनीन को मुक़र्रर करना मुबाहात में से है जिस का मतलब ये है कि ख़लीफ़ा के लिये ये जायज़ है कि वो अपने लिये मुआविन मुक़र्रर कर सकता है जो मुख़्तलिफ़ उमूर और ज़िम्मेदारीयों में उस की मदद करें। हाकिम और तिरमिज़ी ने अबू सईद खुदरी (رضي الله عنه) से  रिवायत किया कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:

))وزیراي من السماء جبریل ومیکائیل ومن الأرض أبو بکر و عمر((
आसमानों में मेरे दो वज़ीर जिब्रईल और मीकाईल हैं और ज़मीन पर मेरे दो वज़ीर अबुबक्र और उमर हैं

इस हदीस में लफ़्ज़ वज़ीर का मतलब है मददगार और मुआविन इस लफ़्ज़ का लुगवी (शाब्दिक) मतलब है। क़ुरआन में लफ़्ज़ वज़ीर इन्हीं माएनों में इस्तिमाल किया गया है। अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इरशाद फ़रमाया:

وَٱجۡعَل لِّى وَزِيرً۬ا مِّنۡ أَهۡلِى
और मेरे ख़ानदान में से मुझे वज़ीर अता कर
(ताहा: 29)

हदीस में वारिद लफ़्ज़ वज़ीर मुतलक़ है और किसी भी मुआमले में मुआविनत इस में शामिल है। लिहाज़ा ख़िलाफ़त के काम और ज़िम्मेदारियां इस में शामिल हैं। अबू सईद खुदरी (رضي الله عنه) की ये हदीस सिर्फ़ हुकूमत में मुआविनत के साथ खास नहीं क्योंकी आसमान पर रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के दो वज़ीर यानी जिब्रईल और मीकाईल का हुकूमत के काम और ज़िम्मे दारीयों में मदद से कोई ताल्लुक़ नहीं। लिहाज़ा इस हदीस में लफ़्ज़ वज़ीरा के लुगवी मानी के अलावा कोई और मतलब नहीं यानी मेरे दो मददगार । जिस तरह किसी मुआमले में किसी को अपना मुआविन मुक़र्रर करना मुबाहात में से है इसी तरह किसी को हुक्मरानी में अपना वज़ीर मुक़र्रर करना भी मुबाह है । रसूल صلى الله عليه وسلم की तरफ़ से अबुबक्र और उमर को अपना वज़ीर मुक़र्रर करना लफ़्ज़ वज़ीर के लुगवी (शाब्दिक) माअने से मुतजाविज़ (बढकर/अतिशियोक्ति) नहीं क्योंकी ऐसा नहीं था कि वो रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के साथ हुक्मरानी में शरीक थे। ताहम अबुबक्र (رضي الله عنه)  और उमर (رضي الله عنه) को वज़ीर मुक़र्रर करने से उन्हें ये इख्तियारात हासिल हुए कि वो हुक्मरानी और हुकूमत के तमाम मुआमलात में बिला तहदीद (सीमा रहित) रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم की मुआविनत करें। अबुबक्र (رضي الله عنه) और उमर (رضي الله عنه) को वज़ीर मुक़र्रर करना इस बात पर दलालत करता है कि ख़लीफ़ा हुकूमत के मुआमलात में अपनी मदद के लिये किसी शख़्स को वज़ीर मुक़र्रर कर सकता है । जब अबूबक्र (رضي الله عنه) ख़लीफ़ा बने तो उन्होंने उमर (رضي الله عنه) को अपना मुआविन मुक़र्रर किया। उमर (رضي الله عنه) की मुआविनत इस हद तक साफ थी कि कुछ सहाबा ने अबूबक्र (رضي الله عنه) से कहा   हम ये फ़र्क़ नहीं कर सकते कि आप ख़लीफ़ा हैं या उमर (رضي الله عنه)। जब उमर (رضي الله عنه) ख़लीफ़ा बने तो उसमान (رضي الله عنه) और अली (رضي الله عنه) आप के मुआवनीन थे। लेकिन उसमान (رضي الله عنه) और अली (رضي الله عنه) की तरफ़ से हुकूमत के मुआमलात में उमर (رضي الله عنه) की मुआविनत ज़्यादा वाज़ेह (साफ) ना थी, उन की सूरत-ए-हाल अबुबक्र (رضي الله عنه) और उमर (رضي الله عنه) की तरफ़ से रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم की मुआवनत के मुशाबाह (समान) थी। उसमान (رضي الله عنه) के दौर में अली और मरवान बिन हकम, आप के मुआवनीन थे। ताहम अली (رضي الله عنه) कुछ मुआमलात पर ख़ुश ना थे लिहाज़ा उन्होंने अपने आप को पीछे रखा लेकिन मरवान बिन हकम की तरफ़ से हुकूमती मुआमलात में उसमान  (رضي الله عنه) की मुआविनत बहुत वाज़िह थी।

अगर ख़लीफ़ा किसी को अपना मुआविन मुक़र्रर करे तो वो उसे अपने नायब की हैसियत से उमूमी (आम) अंदाज़ में हुकूमती उमूर (मुआमलात ) की अंजाम देही की ज़िम्मेदारी सौंपता है। तफ़वीज़ करने के इस अमल के नतीजे में वो शख़्स वज़ीर बनता है और ख़लीफ़ा का मुआविन-ए- तफ़वीज़ ठहरता है। और इस के वही इख्तियारात होते हैं जो कि ख़लीफ़ा को हांसिल होते हैं। ताहम इस के ये इख्तियारात ज़ाती (व्यक्तिगत) नहीं होते, जबकि ख़लीफ़ा के इख्तियारात ज़ाती होते हैं। बल्कि ये इख्तियारात ख़लीफ़ा की तरफ़ से वज़ारतसौंपने के नतीजे में हासिल होते हैं कि उसे ख़लीफ़ा की नियाबत हासिल होगी। लिहाज़ा ख़लीफ़ा ये कहता है की मैंने फलां शख़्स को अपना वज़ीर तफ़वीज़ यह मुआविन-ए- तफ़वीज़ मुक़र्रर किया या ख़लीफ़ा किसी शख़्स से ये कहता है: जो ज़िम्मेदारी मेरी गर्दन पर है इस में मेरे नायब बन जाओ या कोई भी ऐसे अल्फाज़ जो अपने अंदर ये मफ़हूम रखते हों, तो इस के बाद उस शख़्स को ख़लीफ़ा का नायब होने की हैसियत से वो तमाम इख्तियारात हासिल होते हैं जिन का ख़लीफ़ा बज़ात-ए-ख़ुद मालिक होता है। अलमावर्दी ने अपनी किताब अहकामुस्सुल्तानिय्या में इस ओहदे को  वज़ारत-ए-तफ़वीज़  क़रार दिया है और वो इस का ये मतलब बयान करता है: “जहां तक वज़ारत-ए-तफ़वीज़ का ताल्लुक़ है इस से मुराद है कि ख़लीफ़ा एक वज़ीर को मुक़र्रर करता है जिसे वो अपनी राय और इज्तिहाद के मुताबिक़ रियासत के मुआमलात चलाने की ज़िम्मेदारी तफ़वीज़ करता है।“

ये मुआविन-ए- तफ़वीज़ की हक़ीक़त है कि वो ख़लीफ़ा के तमाम कामों में इस का मुआविन होता है और उसे ख़िलाफ़त के मुताल्लिक़ कोई भी मुआमलात अंजाम देने के इख्तियारात हासिल होते हैं; ख़ाह ख़लीफ़ा ने उसे कोई मख़सूस काम सौंपा हो या नहीं, क्योंकी उसे तफ़वीज़ आम्मा हासिल है। ताहम इस पर ये लाज़िम है कि वो कोई भी काम अंजाम देने पर ख़लीफ़ा को इस काम की पूरी खबर दे क्योंकी वो ख़लीफ़ा का नायब है और वो बज़ात-ए-ख़ुद ख़लीफ़ा नहीं है। चुनांचे वो ख़लीफ़ा से अलैहदा बज़ात-ए-ख़ुद किसी इख्तियार का हामिल नहीं बल्कि वो अपने हर अमल में ख़ाह ये अमल छोटा हो या बड़ा, ख़लीफ़ा को रिपोर्ट देने का पाबंद होता है। क्योंकी हुकूमत के मुआमलात को चलाना ख़लीफ़ा के लिये ही मख़सूस है।

मुआविन या वज़ीर की शरई हक़ीक़त ,जम्हूरी निज़ाम की वज़ारतों से बिल्कुल मुख़्तलिफ़ होती है। जम्हूरी निज़ाम में मौजूद विज़ारतें ही दरअसल हुकूमत होती हैं। ये अफ़राद का मजमूआ होता है जो एक मख़सूस गिरोह की हैसियत से हुकूमत करते हैं। क्योंकि उन के नज़दीक हुकूमत जमात के लिये होती है एक फ़र्द के लिये नहीं। दूसरे लफ़्ज़ों में इमारत इजतिमाई (सामुहिक) होती है इन्फ़िरादी (व्यक्तिगत) नहीं। लिहाज़ा विज़ारतें ही हाकिम हैं जिन के पास हुकूमत करने के तमाम इख्तियारात होते हैं, यानी विज़रा का मजमूआ हुक्मरान होता है और इन में से किसी के पास भी हुकूमत करने के तमाम तर इख्तियारात नहीं होते बल्कि हुकूमत करने के इख्तियारात में सब शिराकतदार (शिरकत करने वाले) होते हैं। जहां तक किसी एक वज़ीर का ताल्लुक़ है तो वो हुकूमत के शोबों में से किसी एक शोबे के लिये मख़सूस होता है और इस हुकूमती शोबे में उसे हुकूमती इख्तियारात हासिल होते हैं जिस पर हुकूमत मुशतर्का (मिले जुले) तौर पर उसे मुक़र्रर करती है। जहां तक इन शोबों का ताल्लुक़ है जो उसे तफ़वीज़ नहीं किये गए तो वो वज़ारती काबीना के हाथ में ही रहते हैं और वो इन का मालिक नहीं होता। मिसाल के तौर पर वज़ीर-ए- इंसाफ़ को अपनी वज़ारतमें कुछ इख्तियारात हासिल होते हैं और इस के इलावा जो मुआमलात होते हैं उन पर उसे कोई इख्तियार हासिल नहीं होता बल्कि हुकूमत मजमूई तौर पर वो मुआमलात चलाती है और फैसले करती है। ये जम्हूरी निज़ाम में वज़ारतों की हक़ीक़त है। इस से हम ये देख सकते हैं कि इस्लामी निज़ाम की वज़ारत और जम्हूरी निज़ाम की वज़ारत में बहुत फ़र्क़ है और ये कि जम्हूरी निज़ाम में वज़ीर से जो मानी मुराद लिये जाते हैं, इस में और इस्लामी निज़ाम में वज़ीर यानी मुआविन के माअने व मतलब में बहुत फ़र्क़ है। लिहाज़ा इस्लामी निज़ाम में वज़ीर और वज़ारत से मुराद ख़लीफ़ा की तमाम ज़िम्मेदारीयों में बिला किसी  रूकावट खलीफ़ा का मुआविन होना है , इन ज़िम्मेदारीयों को वो पूरा करता है और ख़लीफ़ा को इस के मुताल्लिक़ आगाह करता है। वज़ारत एक इन्फ़िरादी (व्यक्तिगत) ओहदा होता है और एक शख़्स इस का मालिक होता है और अगर एक से ज़्यादा अश्ख़ास को ये ओहदा दिया जाये तो वो सब उन ज़िम्मेदारीयों के मुताल्लिक़ मुकम्मल इख्तियार रखते हैं जो ख़लीफ़ा के ज़िम्मे होती हैं। जबकि जम्हुरी निज़ाम में वज़ारत एक गिरोह को हासिल होती है और ये इन्फ़िरादी नहीं होती जिसमें से हर वज़ीर को हुकूमत के  खास  हिस्सों में इख्तियारात हासिल होते हैं और उसे तमाम तर इख्तियारात हासिल नहीं होते बल्कि वो महदूद इख्तियारात का हामिल होता है। उपर लिखी तफ़सील इस्लामी निज़ाम और जम्हूरी निज़ाम के वज़ीर और वज़ारत के मफ़हूम के फ़र्क़ को वाज़िह कर देती है। ताहम जम्हूरी निज़ाम वज़ीर और वज़ारत का जो मफ़हूम पेश करता है वो उस वक़्त लोगों में आम और राइज है लिहाज़ा जब ये लफ़्ज़ बोला जाता है तो लामुहाला लोगों के ज़हन में फ़ौरन यही तसव्वुर पैदा होता है। चुनांचे किसी भी किस्म के मुग़ालते (ग़लत फहमी) से बचने और बाक़ी तमाम मफ़हूम-ओ-तसव्वुरात से हट कर उस लफ़्ज़ के शरई मानी को बयान करने के लिये ये दुरुस्त नहीं कि ख़लीफ़ा के मुआवनीन के लिये वज़ीर और वज़ारत का लफ़्ज़ बिना किसी पाबन्दी के इस्तिमाल किया जाये, बल्कि उसे मुआविन कहना चाहिये जो कि इस का असल मतलब है और जम्हूरी निज़ाम के साथ समानता से पैदा होने वाली गलत फहमियों को दूर करने के लिये वज़ीर और वज़ारत के अल्फाज़ को इस्तिमाल करते वक़्त किसी किस्म की पाबंदी की बुनियाद डालनी चाहिये ताकि इन अल्फाज़ के सिर्फ़ इस्लामी मआनी की तरफ़ इशारा हो सके। मुंदरजा बाला तमाम तर बयान से ये बात वाज़िह होती है कि मुआविन वो शख़्स होता है जिस की रियासत के तमाम इलाक़ों के तमाम मुआमलात पर नियाबत (delegation) होती है इसलिये ये कहा जाता है कि ख़लीफ़ा मुआविन को अपने ज़ाती नायब होने की हैसियत से इख्तियार-ए-आम्मा सौंपता है। लिहाज़ा मुआविन के काम की हक़ीक़त ये होती है: “ये रियासत के तमाम कामों की अंजाम देही में आम तौर पर ख़लीफ़ा का नायब होता है यानी वो हुक्मरान का मुआविन (सहायक) होता है।“

मुआविन-ए- तफ़वीज़ की शराइत:

मुआविन-ए- तफ़वीज़ की शराइत वही हैं जो कि ख़लीफ़ा की शराइत हैं यानी वो एक बालिग़, आक़िल, आदिल , आज़ाद, मुसलमान मर्द हो और तफ़वीज़ करदा ज़िम्मेदारीयों को निभाने की काबिलियत रखता हो।

इन शराइत के शरई दलायल वही हैं जो कि ख़लीफ़ा की शराइत के हैं। लिहाज़ा मुआविन के लिये लाज़िम है कि वो मर्द हो क्योंकी बुख़ारी ने अबी बक्र (رضي الله عنه) से रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم का ये इरशाद रिवायत फ़रमाया:

))لن یفلح قوماً وَلّوا أمرھم امرأۃ((
वो क़ौम कभी फ़लाह नहीं पा सकती जो औरत को अपना हुक्मरान बना ले

मुआविन का आज़ाद होना भी ज़रूरी है क्योंकी ग़ुलाम अपने मुआमलात पर मुख़तार नहीं होता लिहाज़ा वो लोगों के मुआमलात को चलाने पर क़ादिर  नहीं हो सकता  । ये भी फ़र्ज़ है कि वो बालिग़ हो क्योंकी अबु दाऊद ने रिवायत किया कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:

))رفع القلم عن ثلاثۃ عن النائم حتی یستیقظ، وعن الصبي حتی یبلغ، وعن المعتوہ حتی یبرأ((

तीन अफ़राद से क़लम उठा लिया गया है , सोए हुए (शख़्स ) से ,जब तक कि वो बेदार ना हो। बच्चे से ,जब तक कि वो बालिग़ ना हो जाये और मजनून (पागल) से जब तक कि वो सहतयाब ना हो जाये

ये बात भी फ़र्ज़ है कि वो आक़िल हो क्योंकि इसी हदीस में इरशाद फ़रमाया गया:

))وعن المعتوہ حتی یبرأ((
और मजनून से जब तक कि वो सहतयाब ना हो जाये

एक और रिवायत में बयान किया गया:


))وعن المجنون المغلوب علی عقلہ حتی یفیق((
और मजनून से जब तक कि उस की अक़्ल वापिस ना लौट आए

मुआविन का आदिल होना भी फ़र्ज़ है क्योंकि अल्लाह (سبحانه وتعال) ने अदल को गवाही के लिये शर्त क़रार दिया। अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इरशाद फ़रमाया:

وَأَشۡہِدُواْ ذَوَىۡ عَدۡلٍ۬ مِّنكُمۡ
लिहाज़ा ख़लीफ़ा के मुआविन का आदिल होना बदरजा ऊला ज़रूरी है और मुआविन हुकूमती मुआमलात को चलाने के लिये क़ाबिल हो, ताकि वो ख़िलाफ़त के बोझ को उठाने और हुकूमत की ज़िम्मेदारीयों को निभाने में ख़लीफ़ा की मुआविनत (सहायता) कर सके।

मुआविन-ए- तफ़वीज़ को मुक़र्रर करने की शराइत:

मुआविन-ए- तफ़वीज़ को मुक़र्रर करने की दो शराइत हैं: (पहली ) उसे आम इख्तियार सौंपे  जाये । (दूसरा) उसे नायब मुक़र्रर किया जाये। लिहाज़ा ख़लीफ़ा के लिये लाज़िम है कि वो ये कहे: मैं तुम्हें अपनी ज़िम्मेदारियां सौंपता हूँ कि तुम उन्हें मेरे नायब की हैसियत से पूरा करो, यह फिर इसी मफ़हूम पर दलालत करते हुए कोई भी अल्फाज़ कहे जो उमूमी (आम) इख्तियारात और नियाबत को बयान करते हों। अगर उसे इन बुनियादों पर मुक़र्रर नहीं किया गया तो वो मुआविन नहीं कहलाएगा और ना ही उसे मुआविन के लाज़िमी इख्तियारात हासिल होंगे जब तक कि उसे मुंदरजा बाला बुनियाद पर मुक़र्रर ना किया जाये।

उस की दलील मुआविन के काम की हक़ीक़त है कि वो ख़लीफ़ा का नायब होता है और नियाबत एक अक़्द है और कोई अक़्द उस वक़्त तक सहीह नहीं होता जब तक कि उसे साफ अल्फाज़ में बयान ना किया जाये। लिहाज़ा मुआविन को मुक़र्रर करने के लिये ये ज़रूरी है कि ये तक़र्रुर उसे अल्फाज़ में हो जो इस बात पर दलालत करते हों कि इस का काम ख़लीफ़ा की नियाबत है। इसके अलावा मुआविन की हक़ीक़त ये है कि वोउ अन तमाम इख्तियारात का मालिक होता है जो हुकूमत में ख़लीफ़ा को हासिल होते हैं, लिहाज़ा ये ज़रूरी है कि ये तक़र्रुर (नियुक्ति) तमाम मुआमलात पर एक उमूमी तक़र्रुर हो । दूसरे लफ़्ज़ों में तक़र्रुरी के मुआहिदे के अल्फाज़ इस बात पर दलालत करें कि मुआविन को हुक्मरानी से मुताल्लिक़ तमाम इख्तियारात हासिल होंगे। मिसाल के तौर पर ये कहा जाये : मैं अपनी ज़िम्मेदारियां तुम्हें सौंपता हूँ कि तुम मेरे नायब की हैसियत से काम करो। या ये कहा जाये: मैं तुम्हें अपना वज़ीर मुक़र्रर करता हूँ कि मैं तुम्हारे कामों पर इन्हिसार (भरोसा) करूंगा जो तुम मेरी जगह अंजाम दोगे या इस से मिलते जुलते अल्फाज़। ताहम अगर ख़लीफ़ा उसे उमूमी इख्तियारात तफ़वीज़ करे और ये ना कहे कि वो इन इख्तियारात को मेरे नायब की हैसियत से इस्तिमाल करेगा तो ये अक़्द (contract) वज़ारत के अक़्द की बजाय वली अहद मुक़र्रर करने का अक़्द होगा और वली अहद का ओहदा जायज़ नहीं लिहाज़ा ये अक़्द भी बातिल (नाजायज़) होगा। अगर ये तक़र्रुर सिर्फ़ नियाबत तक महदूद (सीमित) हो और इस में वाज़िह तौर पर ये बयान ना किया जाये कि मुआविन को उमूमी इख्तियारात हासिल होंगे तो एक मुबहम (धुंधला) और गैर वाज़िह (अस्पष्ट) नियाबत होगी; यानी ये नियाबत आम है या ख़ास, तफ़वीज़ी है या तनफीज़ी। चुनांचे वज़ारत का इनेक़ाद नहीं होगा और अगर ख़लीफ़ा किसी से ये कहे कि  तुम अदालती उमूर या पॉलीसी साज़ी या तालीमी उमूर में मेरी नुमाइंदगी करो तो भी वज़ारत का अक़्द वक़ूअ पज़ीर (प्रकट) नहीं होगा और वो शख़्स मुआविन तफ़वीज़ नहीं होगा। क्योंकी मुआविन-ए-तफ़वीज़ का तक़र्रुर करते वक़्त उन अल्फाज़ का इस्तिमाल ज़रूरी है जो उस शख़्स की हक़ीक़त को बयान करते हो कि ये ख़लीफ़ा की नियाबत है और उन इख्तियारात का हामिल होना है जो ख़लीफ़ा को हासिल होते हैं। दूसरे लफ़्ज़ों में मुआविन तफ़वीज़ के अक़्द के लिये लाज़िमी है कि इस मुआहिदे के अल्फाज़ में ये दो शराइत मौजूद हों: (1) उमूमी (आम) इख्तियारात (2) नियाबत। अगर अक़्द में ये दो शराइत मौजूद ना हों तो उस शख़्स के मुआविन-ए-तफ़वीज़ के ओहदे का मुआहिदा अमल पज़ीर ना होगा। चूँकि एक से ज़्यादा मुआवनीन का तक़र्रुर मुबाह मुआमलात में से है लिहाज़ा ख़लीफ़ा को ये इख्तियार हासिल है कि वो अपने लिये एक से ज़्यादा मुआवनीन मुक़र्रर करे। अगर ख़लीफ़ा एक से ज़्यादा मुआवनीन का तक़र्रुर करता है तो इन में से हर एक को ख़लीफ़ा के उमूमी इख्तियारात हासिल होंगे । ताहम ख़लीफ़ा के लिये ये जायज़ नहीं कि वो किसी मुआमले पर  एक वक़्त में दो मुआवनीन को मुशतर्का (मिले जुले) इख्तियार दे दे ,क्योंकी हुकूमत की विलायत इन्फ़िरादी (व्यक्तिगत) होती है इजतिमाई (सामुहिक) नहीं। चुनांचे अगर ख़लीफ़ा ऐसा करता है तो इस मुआमले में दोनों की तैनाती बातिल (ग़लत) होगी,  क्योंकि ये अमीर को मुक़र्रर करना है और किसी मुआमले पर एक से ज़्यादा अमीर नहीं हो सकते क्योंकि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:

))فلےؤمروا أحدھم((
वो अपने में से एक अमीर मुक़र्रर करलीं

और आप صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया:

))إلا أمّروا علیھم أحد ھم((
सिवाए ये कि वो अपने में से एक शख़्स को अपने ऊपर अमीर मुक़र्रर कर लें

लिहाज़ा ये इमारात के सहीह होने की शर्त है।

मुआविन-ए-तफ़वीज़ का काम:
मुआविन-ए-तफ़वीज़ का काम ये है कि वो ख़लीफ़ा के सामने ऐसे तमाम मुआमलात पेश करे जो वो अंजाम देना चाहता है और फिर वो ख़लीफ़ा को रिपोर्ट देता है कि तै करदा फैसलों में से उसने किन पर अमल दरआमद कर दिया है, इंतिज़ामी उमूर (मुआमलात) और तक़र्रुरियों (नियुक्तियों) में से कौनसी वो पूरी कर चुका है, ताकि इख्तियारात में वो ख़लीफ़ा की मानिंद ना हो जाए। मुआविन का काम अपने कामों का जायज़ा पेश करना और फिर उन्हें पाया तकमील तक पहुंचाना है, जब तक कि ख़लीफ़ा उसे ऐसा करने से ना रोके।

उस की दलील मुआविन के ओहदे की हक़ीक़त है कि वो ख़लीफ़ा का नायब है और नायब उस शख़्स की नियाबत का काम अंजाम देता है जो उसे नायब मुक़र्रर करता है। लिहाज़ा वो ख़लीफ़ा से आज़ाद नहीं होता बल्कि वो अपने हर अमल से ख़लीफ़ा को मतला (खबर) करता है, बिलकुल इसी तरह जैसा कि उमर (رضي الله عنه) किया करते थे, जब वो ख़लीफ़ा अबूबक्र (رضي الله عنه) के वज़ीर थे। जब वो कोई अमल अंजाम देना चाहते तो ख़लीफ़ा अबू बक्र  (رضي الله عنه) के साथ उस अमल का जायज़ा लेते और फिर इस के मुताबिक़ अमल करते। ख़लीफ़ा के साथ किसी बात का जायज़ा लेने से मुराद ये नहीं कि इस अमल की बारीक तफ़सीलात के मुताल्लिक़ भी ख़लीफ़ा से इजाज़त ले क्योंकि ये मुआविनत की हक़ीक़त के मुनाफ़ी (विपरीत) है। बल्कि ख़लीफ़ा के साथ किसी मुआमले का जायज़ा लेने का मतलब ये है कि ख़लीफ़ा से इस मुआमले पर बातचीत और ग़ौर ओ फिक्र की जाये मिसाल के तौर पर किसी विलाया पर काबिल वाली का तक़र्रुर या बाज़ार में अशिया ए ख़ुर्द नोश (खाने पीने की चीज़ों) की कमी के मुताल्लिक़ लोगों की शिकायात का इज़ाला (निवारण) या कोई भी रियासती उमूर। मुआविन किसी मुआमले की तमाम तर तफ़ासील को ख़लीफ़ा के सामने पेश कर सकता है ताकि मुस्तक़बिल (भविष्य) में इस मंसूबे पर अमल दरआमद के दौरान उसे मंसूबे की तफ़सीलात के बारे में ख़लीफ़ा से इजाज़त लेने की ज़रूरत ना हो। ताहम अगर ख़लीफ़ा किसी मंसूबे पर अमल दरआमद से रुक जाने का हुक्म जारी करे तो फिर इस मंसूबे पर अमल दरआमद नहीं किया जाएगा। लिहाज़ा ख़लीफ़ा के सामने पेश करने का मतलब सिर्फ़ ख़लीफ़ा के सामने तजावीज़ (प्रस्ताव) को रखना और ख़लीफ़ा से मश्वरा करना है और इस का मतलब किसी मंसूबे पर अमल दरआमद के लिये ख़लीफ़ा की इजाज़त लेना नहीं। मुआविन मुताल्लिक़ा मंसूबे पर अमल दरआमद कर सकता है जब तक कि ख़लीफ़ा उसे ना रोक दे।

ख़लीफ़ा पर लाज़िम है कि वो इस बात का जायज़ा ले कि मुआविन किसी तरह से मुख़्तलिफ़ काम निबटाता और मुआमलात का इंतिज़ाम करता है ताकि वो दुरुस्त अमल की तौसीक़ (पुष्टी) करे और ग़लत काम का तदारुक (निवारण) करे। क्योंकि उम्मत के मुआमलात का इंतिज़ाम ख़लीफ़ा की ज़िम्मेदारी है और ये मुआमलात ख़लीफ़ा के इज्तिहाद के मुताबिक़ अंजाम पाते हैं।

उस की दलील रेय्यत पर मुसव्वलियत वाली हदीस है, जिस में रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:

                          ))الإمام راع و ھو مسؤول عن رعیتۃ((
इमाम राई है और वो अपनी रेय्यत के बारे में जवाबदेह है

लिहाज़ा हुकूमती मुआमलात को चलाना ख़लीफ़ा के ज़िम्मे है और वही अपने अवाम पर ज़िम्मेदार है जबकि मुआविन तफ़वीज़ अवाम पर ज़िम्मेदार नहीं बल्कि वो सिर्फ़ अपने किये हुए कामों पर जवाबदेह होता है। लिहाज़ा सिर्फ़ ख़लीफ़ा ही अवाम पर ज़िम्मेदार होता है। इसलिये ख़लीफ़ा पर लाज़िम है कि वो मुआविन के आमाल और कारकर्दगी का जायज़ा लेता कि वो अवाम से मुताल्लिक़ अपनी ज़िम्मेदारी को पूरा कर सके। इसके अलावा मुआविन तफ़वीज़ किसी मौक़े पर गलतियां कर सकता है और ख़लीफ़ा पर लाज़िम है कि वो उन गलतियों का तदारुक (निवारण) करे। चुनांचे ख़लीफ़ा के लिये ज़रूरी है कि वो मुआविन के तमाम तर कामों का जायज़ा ले। लिहाज़ा अवाम से मुताल्लिक़ ज़िम्मेदारीयों को पूरा करने और मुआविन–ए-तफ़वीज़ की गलतियों को दूर करने; दोनों वजूहात की बिना पर ख़लीफ़ा पर लाज़िम है कि वो मुआविन के तमाम तर आमाल का जायज़ा ले।
अगर मुआविन-ए- तफ़वीज़ किसी मुआमले के मुताल्लिक़ कोई फैसला करे और ख़लीफ़ा इस पर रजामंदी ज़ाहिर करे तो मुआविन कोई रद्दोबदल किये बगैर इस पर अमल कर सकता है। अगर ख़लीफ़ा मुआविन के किये हुए किसी काम से इत्तिफ़ाक़ ना करे तो इस मुआमले का जायज़ा लिया जाएगा। अगर मुआविन ने किसी फैसले पर सहीह तरीके से अमल किया या वो अम्वाल (funds) को सहीह मसारिफ़ यह किसी ख़ास मंसूबे पर ख़र्च कर चुका है तो फिर मुआविन की राय को नाफ़िज़ किया जाएगा क्योंकि बुनियादी तौर पर ये ख़लीफ़ा की राय है और ख़लीफ़ा को इस बात का इख्तियार नहीं कि वो मुआविन के नाफ़िज़ करदा अहकामात या ख़र्च किये जाने वाले अम्वाल का तदारुक (समाधान) करे ताहम अगर मुआविन ने दूसरी किस्म के काम अंजाम दिये हों, मिसाल के तौर पर वाली का तक़र्रुर या फ़ौज की तैय्यारी तो इस में ख़लीफ़ा को ये हक़ हासिल है कि वो मुआविन के अमल को कुलअदम (निरस्त) क़रार दे दे। क्योंकि जिस तरह ख़लीफ़ा को अपने अमल की तबदीली का हक़ हासिल है इसी तरह उसे मुआविन के आमाल को तब्दील कर देने का हक़ भी हासिल है।

ये वो अंदाज़ है जिसे मुआविन अपने आमाल की अंजाम देही में इख्तियार करता है और जिस के मुताबिक़ ख़लीफ़ा मुआविन के काम का जायज़ा लेता है। उसे इस बात से अख़ज़ (प्राप्त) किया गया है कि वो कौन से अमल हैं जिन्हें वापिस लेने की ख़लीफ़ा को इजाज़त है और वो कौन से आमाल हैं जिन्हें ख़लीफ़ा अमल दरआमद हो जाने के बाद वापिस नहीं ले सकता,   क्योंकि मुआविन-ए- तफ़वीज़ के आमाल ख़लीफ़ा के आमाल समझे जाते हैं। मिसाल के तौर पर मुआविन के लिये ये जायज़ है कि वो बज़ात-ए-ख़ुद हुकूमत करने का काम अंजाम दे और हुक्काम को मुक़र्रर करे जैसा कि ये ख़लीफ़ा के लिये जायज़ है। क्योंकि हुकूमत की शराइत उसे तफ़वीज़ (delegate) की गई हैं, मुआविन को ये इख्तियार भी हासिल है कि वो शिकायात या मज़ालिम (अत्याचारों) की जांच पड़ताल करे या इस काम पर किसी को मुक़र्रर करे  क्योंकि मुज़लिमा की शराइत उसे तफ़वीज़ की गई हैं। मुआविन को ये इख्तियार भी हासिल है कि वो बज़ात-ए-ख़ुद जिहाद को मुनज़्ज़म (सुव्यवस्थित) करे या किसी को इस काम के लिये मुक़र्रर करे क्योंकि हर्ब की शराइत उसे तफ़वीज़ की गई हैं, उसे ये इख्तियार भी हासिल है कि वो अपने तै करदा फैसलों को नाफ़िज़ करे यह इन फैसलों के निफाज़ के लिये किसी को मुक़र्रर करे, क्योंकि तदबीर (युक्ति) और राय की शराइत उसे तफ़वीज़ की गई हैं। ताहम इस का मतलब ये नहीं कि अगर मुआविन ने ख़लीफ़ा को अपने किसी इक़दाम (कार्यवाही) से आगाह किया हो तो फिर ख़लीफ़ा मुआविन के फैसले को तब्दील नहीं कर सकता। बल्कि इस से मुराद ये है कि मुआविन को वो तमाम इख्तियारात हासिल होते हैं जो कि ख़लीफ़ा के हैं लेकिन मुआविन अपने इख्तियारात के इस्तिमाल में पूरा आज़ाद नहीं होता बल्कि वो ख़लीफ़ा के नायब के तौर पर इन इख्तियारात को बरुए कार लाता है। लिहाज़ा ख़लीफ़ा को ये इख्तियार है कि वो किसी मुआमले पर मुआविन से इख्तिलाफ(मतभेद) करे और इस के उठाए हुए इक़दामात की तसहीह करे और उसके किसी भी अमल को तब्दील कर दे। यहां ये बात ज़हन में रहे कि इस का इतलाक़ सिर्फ़ उसे आमाल पर होता है जो ख़लीफ़ा अगर ख़ुद अंजाम दे तो वो उन्हें भी तब्दील कर सकता है। लेकिन अगर मुआविन ने किसी हुक्म पर दुरुस्त तरीके से अमल किया यह सहीह मुसर्रिफ़ पर अम्वाल को ख़र्च किया तो फिर ख़लीफ़ा के एतराज़ की कोई हैसियत ना होगी और मुआविन का फैसला नाफ़िज़ किया जाएगा। क्योंकि बुनियादी तौर पर मुआविन का फैसला ख़लीफ़ा के अपने फैसलों की मानिंद है जिस पर अमल दरआमद हो चुका हो और उसे मुआमलात में अगर ये फैसला ख़लीफ़ा ने ख़ुद किया हो तो वो बज़ात-ए-ख़ुद भी अपने इस फैसले को तब्दील नहीं कर सकता । ताहम अगर मुआविन ने किसी वाली, मुंतज़िम, फ़ौज के कमांडर या किसी और मुलाज़िम को मुक़र्रर किया या इस ने कोई मआशी (आर्थिक) हिकमत-ए-अमली तय्यार की या कोई फ़ौजी मंसूबा या सनअती (उद्योगिक) प्रोग्राम या इस तरह का कोई और मंसूबा बनाया तो ख़लीफ़ा इन्हीं मंसूख़ (निरस्त) करने का इख्तियार रखता है। ये इस वजह से है कि अगरचे ये तमाम इक़दामात ख़लीफ़ा की अपनी राय समझे जाएंगे लेकिन इन का शुमार उसी फैसलों में होता है जिन्हें ख़लीफ़ा तब्दील कर सकता है ख़ाह इस ने ये इक़दामात बज़ात-ए-ख़ुद किये हों और यही क़दम वो मुआविन के फैसलों के मुताल्लिक़ भी उठा सकता है लिहाज़ा इस बारे में ख़लीफ़ा मुआविन के इक़दामात को मंसूख़ कर सकता है। चुनांचे इस सिलसिले में बुनियादी क़ाअदा ये होगा: कोई भी ऐसा अमल जो कि ख़लीफ़ा अगर ख़ुद अंजाम दे और उसे उस को तब्दील करने का इख्तियार हासिल हो तो वो मुआविन के उसी ही अमल को तब्दील करने का इख्तियार भी रखता है और कोई भी एसा अमल जो अगर ख़लीफ़ा अंजाम दे और फिर उसे वापिस ना ले सकता हो, तो वो मुआविन के इसे अमल को तब्दील करने का इख्तियार भी नहीं रखता।

मुआविन-ए- तफ़वीज़ का तक़र्रुर किसी मख़सूस शोबे (विभाग) मसलन शोबा तालीम वगैरह के लिये नहीं होता और ना ही इस का तक़र्रुर किसी मख़सूस अमल को अंजाम देने के लिये किया जाता है मिसाल के तौर पर फ़ौज की तैय्यारी और इस के असलेह (हथियार) का निज़ाम। क्योंकि मुआविन का तक़र्रुर उमूमी इख्तियारात के साथ होता है। इसी तरह वो इंतिज़ामी उमूर को भी अंजाम नहीं देता बल्कि वो ख़लीफ़ा की तरह होता है जो इन तमाम विभागों की निगरानी करता है। अगर उसे इस अंदाज़ में मुक़र्रर किया जाये तो इस तक़र्रुर (नियुक्ती) के ज़रीए उस की वज़ारत का इनेक़ाद (स्थापन) नहीं होगा और ना ही वो इस मुआमले में उमूमी निगरानी शामिल नहीं जो कि मुआविन-ए- तफ़वीज़ के तक़र्रुर के लिये शर्त है। जहां तक क़ाज़ी उल क़ज़ातत के तक़र्रुर का ताल्लुक़ है तो ये ख़लीफ़ा की तरफ़ से अदलिया पर अपना मुआविन मुक़र्रर करना नहीं बल्कि ये हुकूमत के इलावा एक मख़सूस विलाया पर वाली को मुक़र्रर करना है जैसा कि फ़ौज की इमारत या सदक़ात की विलाया वगैरह ,इन का इनेक़ाद मुआविन तफ़वीज़ के तक़र्रुर की तरह नहीं बल्कि ये दूसरे विलाया की तरह होता है । लिहाज़ा क़ाज़ी अलक़ज़ात एक अमीर है जिसे काज़ियों के तक़र्रुर, अदलिया से मुताल्लिक़ मुआमलात का जायज़ा लेने और लोगों के दरमियान फैसला करने के इख्तियारात हासिल होते हैं, लेकिन वो ख़लीफ़ा का मुआविन नहीं होता। पस मुआविन-ए- तफ़वीज़ को किसी एक शोबे (विभाग) के लिये मख़सूस करना दुरुस्त नहीं और अगर मुआविन को किसी मख़सूस शोबे पर मुक़र्रर किया जाये तो इस का अक़्द बातिल होगा। मुआविन तफ़वीज़ के तक़र्रुर के सहीह होने के लिये ज़रूरी है कि ये तक़र्रुरी लाज़िमी तौर पर एक अक़्द के ज़रीये हो यानी उसे साफ अल्फाज़ में बयान किया जाये जिस में ये दो शराइत मौजूद हों:(पहला) उमूमी इख्तियारात (दूसरा) नियाबत । मुआविन को किसी एक मख़सूस शोबे पर मुक़र्रर करने से इस के अक़्द की दो शराइत में से एक शर्त खत्म हो जाएगी लिहाज़ा इस के तक़र्रुर का अक़्द बातिल (ग़लत) हो जाएगा। इलावा अज़ीं मुआविन के लिये ये भी जायज़ नहीं कि वो इंतिज़ामी उमूर (मुआमलात) चलाए, क्योंकि वो लोग जो इंतिज़ामीया चलाते हैं वो हुकूमती मुलाज़मीन (सरकारी कर्मचारी ) होते हैं ना कि हुक्मरान और चूँकि मुआविन-ए-तफ़वीज़ हाकिम होता है और वो हुकूमती मुलाज़िम नहीं होता लिहाज़ा इस का काम लोगों के मुआमलात की देख भाल होता है और वो, वो काम अंजाम नहीं देता जिस के लिये हुकूमती मुलाज़मीन को भर्ती किया जाता है।

यही वजह है कि मुआविन इंतिज़ामी मुआमलात नहीं चलाता। ताहम इस का मतलब ये नहीं कि उसे इंतिज़ामी उमूर को चलाने की मुमानअत (मनाही) है बल्कि इस से मुराद ये है कि वो इंतिज़ामी आमाल तक महदूद नहीं बल्कि उसे वसीअ तर (बहुत विस्तृत) आम इख्तियारात हासिल होते हैं।

मुआविन-ए- तनफीज़:
मुआविन-ए- तनफीज़ वो वज़ीर है जिसे ख़लीफ़ा अपने अहकामात के निफाज़ , निगरानी और तामील पर मुआविनत के लिये मुक़र्रर करता है। वो ख़लीफ़ा और रियासत के मुख़्तलिफ़ शोबों (विभागों), अवाम और दफ़्तर-ए-ख़ारिजा (विदेशी विभाग) के बीच राबिता (माध्यम) होता है वो ख़लीफ़ा के पैग़ामात को उन तक पहुंचाता है और उन के पैग़ामात को ख़लीफ़ा तक पहुंचाता है। नतीजतन वो अहकामात पर अमल दरआमद में ख़लीफ़ा का मुआविन होता है और वो लोगों पर हुक्मरान नहीं होता और ना ही उसे ये इख्तियारात हासिल होते हैं। इस का काम इंतिज़ामी नोईय्यत का होता है , हुकूमत करना नहीं । इस का शोबा वो विभाग होता है जिसे ख़लीफ़ा अंदरूनी और ख़ारिजा दफ़ातिर (विदेशी दफ्तरों) से मुताल्लिक़ अपने अहकामात की तनफीज़ के लिये इस्तिमाल करता है नीज़ मुआविन-ए-तनफीज़ ख़लीफ़ा को वो सब पहुंचाता है जो इन दफ़ातिर की तरफ़ से ख़लीफ़ा की जानिब इरसाल किया (भेजा) जाये। इस का शोबा (विभाग) ख़लीफ़ा और दूसरे शोबों के बीच पुल का काम देता है, वो ख़लीफ़ा की तरफ़ से उन शोबों को अहकामात जारी करता है और उन शोबों के पैग़ामात को ख़लीफ़ा तक पहुंचाता है।

ख़लीफ़ा हुक्मरान है जिस की ज़िम्मेदारीयों में हुकूमत करना , अहकामात को नाफ़िज़ करना और लोगों के उमूर (मुआमलात) की देख भाल करना शामिल है। हुकूमत करने, अहकामात को नाफ़िज़ करने और लोगों के उमूर की देख भाल के लिये इंतिज़ामी आमाल दरकार होते हैं। जो इस बात का तक़ाज़ा करते हैं कि ऐसा खास विभाग क़ायम किया जाये जो कामों को मुनज़्ज़म करने के लिये ख़लीफ़ा के साथ काम करे ताकि ख़लीफ़ा ख़िलाफ़त की ज़िम्मे दारीयों को निभा सके । लिहाज़ा मुआविन-ए-तनफीज़ की ज़रूरत होती है जिसे ख़लीफ़ा इंतिज़ामी मुआमलात को अंजाम देने के लिये मुक़र्रर करता है और इस का काम हुकूमत करना नहीं होता। मुआविन-ए-तफ़वीज़ के बरअक्स मुआविन-ए-तनफीज़ हुकूमत करने का काम अंजाम नहीं देता। पस वो ना तो वालीयों या आमिलीन को मुक़र्रर करता है और ना ही लोगों के उमूर की देख भाल करता है । उस की ज़िम्मेदारी इंतिज़ामी नोईय्यत की होती है यानी हुकूमत के अहकामात, और ख़लीफ़ा या मुआविन-ए-तफ़वीज़ के जारी करदा इंतिज़ामी मुआमलात को नाफ़िज़ करना। यही वजह है कि उसे मुआविन-ए-तनफीज़ कहते हैं। फुक़हा ने इसे “वज़ीर-ए-तनफीज़” कहा है जिस का मतलब मुआविन–ए-तनफीज़ है क्योंकि लफ़्ज़ वज़ीर के लुगवी मानी मुआविन के ही हैं। उन्होंने कहा: ये वज़ीर ख़लीफ़ा और उस के अवाम और वालीयों के बीच वास्ते (माध्यम) का काम अंजाम देता है, ख़लीफ़ा के जारी करदा अहकामात को उन तक पहुंचाता है और इस के अहकामात का निफाज़ करवाता है। पस वो तमाम मुताल्लिक़ा अफ़राद को वालीयों के तक़र्रुर, अफ़्वाज की तैय्यारी और सरहदों पर उन की तैनाती से मतला (बाखबर) करता है। मुख़्तलिफ़ शोबों से जो कुछ भी हांसिल होता है और जो भी नए मुआमलात पैदा होते हैं और सूरत-ए-हाल जन्म लेती है, वो ख़लीफ़ा को इस से आगाह करता है ताकि ख़लीफ़ा जो भी अहकामात दे वो उन्हें नाफ़िज़ कर सके। ये बात उसे अहकामात के निफाज़ में ख़लीफ़ा का मुआविन बनाती है, वो लोगों पर हुक्मरान नहीं होता और ना ही उसे ये काम सौंपा जाता है।
मुआविन-ए-तफ़वीज़ की तरह मुआविन-ए-तनफीज़ भी सीधे तौर ख़लीफ़ा से मुंसलिक (जुडा) होता है। चूँकि वो ख़लीफ़ा के मुसाहबीन में से होता है और अगरचे उस का काम इंतिज़ामी नौईय्यत का होता है लेकिन वो हुक्मरानी से सीधे तौर मुंसलिक होता है लिहाज़ा मुआविन-ए-तनफीज़ का औरत होना जायज़ नहीं, क्योंकि औरत के लिये हुक्मरान बनना या इस से मुंसलिक कोई काम अंजाम देना जायज़ नहीं। ये रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم की इस हदीस की बिना पर है जिसे बुख़ारी ने अबी बक्र से रिवायत किया: 

))لن یفلح قوم ولّوا أمرھم امرأۃ((

वो क़ौम कभी फ़लाह नहीं पा सकती जो औरत को अपना हुक्मरान बना ले

मुआविन-ए-तनफीज़ के ओहदे पर किसी काफ़िर का मुक़र्रर करना भी जायज़ नहीं और ये लाज़िम है कि मुआविन-ए-तनफीज़ मुसलमान हो क्योंकि वो ख़लीफ़ा के साहेबीन में शामिल है। क्योंकि अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इरशाद फ़रमाया:

يَـٰٓأَيُّہَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَتَّخِذُواْ بِطَانَةً۬ مِّن دُونِكُمۡ لَا يَأۡلُونَكُمۡ خَبَالاً۬ وَدُّواْ مَا عَنِتُّمۡ قَدۡ بَدَتِ ٱلۡبَغۡضَآءُ مِنۡ أَفۡوَٲهِهِمۡ وَمَا تُخۡفِى صُدُورُهُمۡ أَكۡبَرُ

ऐ ईमान वालो! अपने सिवा किसी को अपना राज़दार मत बनाओ ये लोग तुम में फ़ित्ना अंगेज़ी करने में कोई कोताही नहीं करते, चाहते हैं कि तुम्हें तकलीफ़ पहुंचे , बुग़्ज़ उन के मुँह से टपकता है और जो कुछ उन के दिलों में पोशीदा है वो तो इस से भी बढ़ कर है
(आल ए इमरान: 118)

ख़लीफ़ा की तरफ़ से किसी गैर मुस्लिम को अपने साहेबीन में दाख़िल करने की मुमानअत इस आयत से बिलकुल साफ है। लिहाज़ा मुआविन-ए-तनफीज़ के लिये काफ़िर होना जायज़ नहीं बल्कि ये लाज़िम है कि वो मुसलमान हो क्योंकि मुआविन-ए-तफ़वीज़ की तरह वो भी ख़लीफ़ा के साथ सीधे तौर पर जुडा  होता है और ख़लीफ़ा से क़ुरबत (निकटता) रखता है । हुक्मरानी की ज़रूरियात के मुताबिक़ मुआविन-ए-तनफीज़ एक से ज़्यादा भी हो सकते हैं।

वो शोबे (विभाग) जिन में मुआविन-ए-तनफीज़ ख़लीफ़ा और दूसरे लोगों के दरमियान वास्ते (माध्यम) का काम अंजाम देता है, वो ये चार हैं ।

1) रियासत के इदारे
2) अफ़्वाज
3) उम्मत
4) आलमी उमूर (अंतर्राष्ट्रीय मुआमलात)

मुआविन-ए-तनफीज़ इन उन्वा के काम अंजाम देता है। चूँकि वो ख़लीफ़ा और दूसरे लोगों और इदारों के बीच राबते  का काम देता है इसलिये उस की हैसियत राब्ताकार शोबे की सी होती है। इस बिना पर वो रियासती इदारों से मतलूब कामों का जायज़ा लेता है।

ख़लीफ़ा अमली तौर पर हाकिम होता है वो बज़ात-ए-ख़ुद हुकूमत करता है अहकामात का निफाज़ करता है और लोगों के मुआमलात की देखभाल करता है लिहाज़ा वो हुकूमती ढाँचे ,बैनुल अक़वामी (अंतर्राष्ट्रीय) उमूर और उम्मत के साथ मुसलसल मुंसलिक (जुडा) होता है। वो अहकामात को जारी करता है, मुआमलात का फैसला करता है, हुकूमती ढाँचे की कारकर्दगी की निगरानी करता है और उसके दरपेश मुश्किलात को दूर करता है और उस की ज़रूरियात को पूरा करता है। उम्मत की तरफ़ से आने वाली शिकायात, मुतालिबात (demands/माँगों) और मसाइल से ख़लीफ़ा आगाही हासिल करता है और इस के साथ साथ वो आलमी सतह पर मुआविन-ए-तनफीज़ इन मुआमलात में ख़लीफ़ा का राबिता कार (माध्यम) होता है। यानी वो ख़लीफ़ा तक पैग़ामात पहूँचाने में ख़लीफ़ा का राबिता कार होता है। वो ख़लीफ़ा तक पैग़ामात को पहुंचाता है और ख़लीफ़ा से अहकामात दूसरों तक पहुंचाता है। चूँकि अहकामात के निफाज़ के लिये ख़लीफ़ा की तरफ़ से विभिन्न महकमों को भेजे जाने वाले अहकामात और हिदायात और जो इन शोबों से ख़लीफ़ा की तरफ़ भेजे जाते हैं , की पैरवी की ज़रूरत होती है, लिहाज़ा मुआविन-ए-तनफीज़ पर लाज़िम होता है कि वो ये निगरानी अंजाम दे ताकि अहकामात की तनफीज़ का काम अच्छे तरीके से पाया-ए- तकमील तक पहुंच जाये। वो ख़लीफ़ा और रियासती इदारों के साथ मुआमलात का मुसलसल जायज़ा लेता रहता है और इस मुसलसल जायज़े के अमल को तर्क नहीं करता जब तक कि ख़लीफ़ा ख़ुसूसी तौर पर ऐसा ना कहे , इस सूरत में इस पर ख़लीफ़ा के हुक्म की इताअत लाज़िम है और वो इस मुआमले के मुसलसल जायज़े को तर्क कर देता है, क्योंकि ख़लीफ़ा हुक्मरान है और इस का हुक्म नाफ़िज़ होता है।

जहां तक अफ़्वाज और बैनुल अक़वामी (अंतर्राष्ट्रीय) सम्बन्धों का ताल्लुक़ है , ये आम तौर पर मख़फ़ी (खुफिया) रखे जाते हैं और ये ख़लीफ़ा के साथ मख़सूस होते हैं। लिहाज़ा मुआविन-ए-तनफीज़ इन मुआमलात में ख़लीफ़ा के अहकामात की तनफीज़ की मुसलसल पैरवी नहीं करता, मासवाए ख़लीफ़ा ख़ुद उसे ऐसा करने के लिये कहे। इस सूरत में वो सिर्फ़ इन मुआमलात का मुसलसल जायज़ा लेता है जिस के मुताल्लिक़ ख़लीफ़ा इसे हुक्म दे और वो दूसरे मुआमलात का जायज़ा नहीं लेता।


जहां तक उम्मत का ताल्लुक़ है, तो उम्मत के मुआमलात की देख भाल करना, उस की ज़रूरियात को पूरा करना और उन से ज़ुल्म को दूर करना, ख़लीफ़ा की ज़िम्मेदारी है कि वो अपने नायबीन के साथ मिल कर इन कामों को अंजाम दे। ये मुआमलात मुआविन-ए- तनफीज़ के दायरा इख्तियार में नहीं आते। पस वो इन उमूर (मुआमलात) का मुसलसल जायज़ा लेने का काम नहीं करता मासवाए वो जिन के मुताल्लिक़ ख़लीफ़ा उसे ऐसा करने का हुक्म दे। इस सिलसिले में इस का काम सिर्फ़ अहकामात का निफाज़ होता है और वो मुआमलात का मुसलसल जायज़ा नहीं लेता। इस तमाम का इन्हिसार (भरोसा) ख़लीफ़ा के काम की नोईय्यत पर होता है , जिस के मुताबिक़ मुआविन-ए-तनफीज़ के काम की नोईय्यत का ताय्युन होता है।

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