मजलिसे उम्मत के लाज़मी इख्तियारात

मजलिसे उम्मत के लाज़मी इख्तियारात:

मजलिसे उम्मत को मुन्दरजा ज़ैल (नीचे लिखे) इख्तियारात हासिल होते हैं:

1} (अ) खलीफा पर लाज़िम है की वो मजलिसे उम्मत से मशवरा करे और मजलिसे उम्मत को ये हक़ हांसिल है के वो हुकूमत,तालीम, सेहत, इक़्तिसादियत (आर्थिक), तिजारत, सनअत (उद्योग), ज़राअत (खेती बाडी) वग़ैरह से मुताल्लिक़ा इन अमली मुआमलात और इक़दामात में अपनी राय का इज़हार करे जिन के लिये गहरी नज़र और जाँच पडताल की ज़रूरत होती और इन मुआमलात में मजलिसे उम्मत की राय पर अमल करना खलीफा पर लाज़िम होता है।

(ब) वो फिकरी मुआमलात जिन के लिये गहरी नज़र और जाँच पडताल की ज़रूरत होती है जैसे के मालयाती  मुआमलात , फौज के मुआमलात और खारिजा पालिसी , इन में खलीफा को ये हक़ हांसिल है के वो मशावरती और राय के हुसूल (प्राप्ती) के लिये मजलिसे उम्मत की  तरफ रुजू करे । ताहम इन मुआमलात में मजलिसे उम्मत की राय पर अमल करना खलीफा पर लाज़िम नहीं होता।

 2} खलीफा को ये हक़ हांसिल है के वो मजलिसे उम्मत  की तरफ इन अहकाम और क़वानीन को भेजे जिन्हें वो इख्तियार करना चाहता है ।और मजलिस के मुसलमान अराकीन (सदस्यों) को ये हक़ हासिल है के वो इन पर बहस व मुबाहिस करें और अपनी राय का इज़हार करें । ताहम खलीफा पर उन की राय को इख्तियार करना लाज़िम नहीं होता।

3} मजलिसे उम्मत को ये हक़ हांसिल है कि वो रियासत के तमाम तर मुआमलात पर हुक्मरानों का मुहासबा करें चाहे उनका ताल्लुक़ दाखली (आंतरिक) मुआमलात से हो या खारजी (बाहरी) मुआमलात से चाहे ये मालयाती मुआमलात हो या अस्करी मुआमलात । अगर कोई मुआमला ऐसा हो जिस पर अक्सरती राय पर अमल करना लाज़िम होता है तो खलीफा इस राय पर अमल करने का पावन्द होगा और अगर ये ऐसा मुआमला हो जिस पर अक्सरती राय की पाबन्दी लाज़िम नहीं होती तो खलीफा इस राय पर अमल करने का पावन्द नहीं  होगा।

अगर मजलिस और ख़लीफ़ा के दरमियान किसी ऐसे मुआमले पर इख्तिलाफ हो जाये जिस पर अमल दरआमद हो चुका हो तो इस मुआमले को महकमा तुल मज़ालिम की तरफ़ भेजा जाएगा कि वो इस पर फैसला करे और इस के फैसले की पाबंदी लाज़िम होगी।

4} मजलिस-ए-उम्मत को ये हक़ हासिल है कि वो किसी भी वाली या आमिल पर अदम इत्मीनान (अविशवास) का इज़हार कर सकती है। इस में ख़लीफ़ा मजलिस की राय का पाबंद होगा और ख़लीफ़ा पर लाज़िम है कि वो उसे फ़ौरन बर्खास्त करे।

5} मजलिसे उम्मत के मुस्लिम अराकीन को ये हक़ हासिल है कि वो ख़िलाफ़त के उम्मीदवारों की फ़हरिस्त की काण्ट छांट करें। इस सिलसिले में मजलिस की राय पर अमल करना लाज़िम होगा और मजलिस के नामज़द करदा उम्मीदवारों के इलावा किसी और को उम्मीदवार तसव्वुर नहीं किया जाएगा।

ये सब मजलिसे उम्मत के लाज़िमी इख्तियारात हैं।

पहले आर्टीकल को दो भागों में बाँटा गया है। भाग (अ) की दलील अल्लाह (سبحانه وتعال) के इस इरशाद से अख़ज़ की गई है:

وَشَاوِرۡهُمۡ فِى ٱلۡأَمۡرِۖ
और वो अपने मुआमले में मश्वरा करते हैं
(आल-ए-इमरान:159)
और इरशाद हुआ:
وَأَمۡرُهُمۡ شُورَىٰ بَيۡنَہُمۡ
और उन का मुआमला आपस के मश्वरे से होताहै
(अलशूरा:38)
पस अल्लाह (سبحانه وتعال) ने हर मुआमले में मश्वरा करने का हुक्म दिया क्योंकि अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इरशाद फ़रमाया:  فِی الأَمْرِ  मुआमले में और लफ़्ज़ الامر इस्मे जिन्स है जिस की शुरूआत में “अलिफ़” और “लाम” लाए गए हैं और अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इरशाद फ़रमाया: और  وَأَمْرُھُم “उन का मुआमला” लफ़्ज़  امرھم  इस्म-ए-जिन्स मुसाफ़ है और ये दोनों आम अल्फाज़ हैं जो हर चीज़ का अहाता करते हैं।

ताहम उन आम अल्फाज़ को अहकामे शरीयत के अलावा दूसरे मुआमलात के लिये खास किया गया है क्योंकि अहकामे शरीयत अल्लाह (سبحانه وتعال) की तरफ़ से वही करदा हैं और अल्लाह के नाज़िल करदा मुआमलात में लोगों की राय की कोई गुंजाइश नहीं और सिर्फ़ अल्लाह ही हाकिम और शारे है।

जहां तक अमली उमूर और मुआमलात पर मजलिस-ए-उम्मत की राय का ताल्लुक़ है, जिन के लिये तफ़सीली जायज़े और जांच पड़ताल की ज़रूरत नहीं होती,तो उस की दलील ये है कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने ग़ज़वा उहद के मौक़े पर मदीना से बाहर जा कर मुशरिकीन का मुक़ाबला करने की अक्सरीयती राय को इस बात के बावजूद क़बूल किया कि आप صلى الله عليه وسلم की अपनी राय और किबार सहाबा की राय इस के बरख़िलाफ़ थी और वो मदीना के अन्दर रह कर मुशरिकीन का मुक़ाबला करना चाहते थे। और उसे इस बात से भी अख़ज़ किया गया है कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने अबूबक्र (رضي الله عنه) और उमर (رضي الله عنه) से फ़रमाया:

((لو اجتمعتما في مشورۃ ما خالفتکما))
अगर तुम किसी मश्वरे पर इत्तिफ़ाक़ कर लो तो मैं इस के ख़िलाफ़ नहीं करूंगा

जहां तक भाग (ब) का ताल्लुक़ है तो उस की दलील ये है कि ग़ज़वा बदर के मौक़ पर जगह के इंतिख़ाब के लिये रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने हब्बाब बिन मुंज़िर (رضي الله عنه) की राय पर अमल किया और इस सिलसिले में आप صلى الله عليه وسلم ने राय जानने के लिये दूसरे सहाबा से मश्वरा ना किया । लिहाज़ा फ़िक्री और तकनीकी मुआमलात, मालीयाती उमूर, फ़ौजी मुआमलात और ख़ारिजा उमूर के लिये तकनीकी और पेशावारना माहिरीन की तरफ़ रुजू किया जाएगा और इस में लोगों की अक्सरीयती या अक़्लीयती राय को कोई अहमियत नहीं दी जाएगी।

मश्वरे का मुबाह उमूर के लिये होना इस बात का करीना है कि मश्वरा करना एक मंदूब अमल है। बिलाशुबा रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم मश्वरा करने और राय मालूम करने के लिये सहाबा (رضی اللہ عنھم) की तरफ़ अक्सर रुजू फ़रमाया करते थे। अहमद ने अनस (رضي الله عنه) से रिवायत किया:

((أن رسول اللّٰہ ﷺ شاورحین بلغہ إقبال أبی سفیان))
रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم को जब अबूसुफ़ियान की मुहिम की ख़बर पहुंची तो आप صلى الله عليه وسلم ने लोगों से मश्वरा किया

अहमद ने अनस (رضي الله عنه) से  रिवायत किया :

((استشار النبیﷺ مخرجہ إلی بدر فأشار علیہ أبوبکر ثم استشار عمر فأشار علیہ عمر، ثم استشارہم، فقال بعض الأنصار: إیاکم یرید نبی اللّٰہﷺ یا معشر الأنصار، فقال قائل الأنصار: تستشیرنا یا نبی اللّٰہ؟ إنا لا نقول کما قالت بنو إسرائیل لموسی علیہ السلام: اذہب أنت وربک فقاتلا إنا ہہنا قاعدون ولکن والذي بعثک بالحق لو ضربت 
أکبادھا إلی برک الغماد لاتبعناک))

जब रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم बदर गए तो आप صلى الله عليه وسلم ने मश्वरा फ़रमाया। अबूबक्र (رضي الله عنه) ने अपनी राय बयान की। फिर आप صلى الله عليه وسلم ने उमर (رضي الله عنه) से मश्वरा किया और उमर (رضي الله عنه) ने अपनी राय बयान की। फिर आप صلى الله عليه وسلم ने इन (अंसार) से मश्वरा किया तो कुछ अंसार ने कहा: ऐ माशिर अंसार! अल्लाह के नबी صلى الله عليه وسلم चाहते हैं की तुम बोलो। कुछ अंसार ने कहा: क्या आप صلى الله عليه وسلم हमारी राय तलब करते हैं। हम वैसा नहीं कहेंगे जैसा कि बनू इसराईल ने मूसा अलैहि अस्सलाम से कहा कि तुम और तुम्हारा रब जाओ और जा कर लड़ो हम तो यहीं बैठे हैं; लेकिन उस ज़ात की क़सम जिस ने आप صلى الله عليه وسلم को हक़ के साथ भेजा। अगर आप हमें “बर्क उल गुमार लेकर जाएं तब भी हम आप की पैरवी करेंगे

बदर के कैदियों के मुताल्लिक़ अहमद ने उमर (رضي الله عنه) से रिवायत किया:

((فاستشاررسول اللّٰہﷺ أبا بکرو علیاً و عمر۔۔۔))

रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने अबुबक्र, अली और उमर (رضي الله عنه) से मश्वरा किया----

इब्ने इसहाक़ ने अलज़ोहरी से रिवायत किया, जिन्होंने बयान किया:

((فلما اشتد علی الناس البلاء بعث رسول اللّٰہﷺإلی عُےَےْنَۃ بن حصن والحارث بن عوف المرّي وہما قائدا غطفان، فأعطاہما ثلث ثمار المدینۃ علی أن یرجعا بمن معہما عنہ و عن أصحابہ، فجری بینہ و بینہما الصلح حتی کتبوا الکتاب، ولم تقع الشہادۃ، ولا عزیمۃ الصلح إلا المراوضۃ في ذلک، فلما أراد رسول اللّٰہﷺ أن یفعل، بعث إلی سعد بن معاذ و سعد بن عبادۃ، فذکر ذلک لھما واستشارہما۔۔۔))

जब लोगों पर तंगी और बढ़ गई तो आप صلى الله عليه وسلم ने उययना बिन हसन और हारिस बिन औफ़ को बुला भेजा, जो ग़ुत्फ़ान के सरदार थे। और उन्हें इस शर्त पर मदीना की पैदावार के तीसरे हिस्से की पेशकश की कि वो अपने लोगों को साथ लेकर वापिस चले चाएं और आप صلى الله عليه وسلم और आप के साथियों से लड़ाई तर्क कर दें। वो इस बात पर इस हद तक आमादा हो गए कि उन्होंने इस बात को ख़त में लिखा, बगैर किसी गवाह के और इस फैसले के बगैर कि अमन का क़याम इस के मुताल्लिक़ बात चीत के ज़रीए होगा। जब रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने ये मुआहिदा तै करने का इरादा किया तो आप صلى الله عليه وسلم ने साद बिन माअज़ (رضي الله عنه) और साद बिन उबादा (رضي الله عنه) को बुलाया। आप ने उन से इस मुआमले का ज़िक्र किया और उन से मश्वरा तलब किया।

इसी तरह रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने ग़ज़वा उहद के मौक़े पर अपने सहाबा (رضی اللہ عنھم) से  मश्वरा किया कि मदीना से बाहर निकल कर लड़ा जाये या मदीना के अन्दर रह कर ही मुक़ाबला किया जाये। इस के इलावा रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने कई दूसरे मौक़ों पर अपने सहाबा से मश्वरा किया। इसी तरह अबूबक्र (رضي الله عنه) मश्वरे के लिये अंसार और मुहाजरीन और उन के औलमा की तरफ़ रुजू किया करते थे। आप صلى الله عليه وسلم ने मुर्तदीन और ज़कात का इंकार करने वालों के ख़िलाफ़ क़िताल के मुआमले पर उन से मश्वरा किया और  रोम के ख़िलाफ़ जंग पर उन से मश्वरा किया और इसी तरह दूसरे मुआमलात में आप ने उन से मश्वरा किया । इसी तरह उमर (رضي الله عنه) और उन के बाद आने वाले खुलफा भी राय और मश्वरे के लिये लोगों की तरफ़ रुजू किया करते थे।

और बाअज़ मौक़ों पर लोगों ने किसी मुआमले पर मश्वरे के लिये बज़ात-ए-ख़ुद ख़लीफ़ा की तरफ़ रुजू किया। जैसा कि उस वक़्त हुआ जब अबूबक्र (رضي الله عنه) ने ख़लीफ़ा बनने के बाद उसामा के लश्कर को रवाना करने का इरादा किया। उस वक़्त अक्सर अरब इस्लाम से फिर गए थे। पस उमर, उसमान , अबू उबैदा, साद बिन अबी वक़्क़ास और साद बिन ज़ेद ( رضی اللہ عنھم) अबुबक्र (رضي الله عنه) के पास आए और उन्हें मश्वरा दिया कि वो उसामा के लश्कर को रवाना ना करें। अबूबक्र (رضي الله عنه) ने उन की राय को रद्द कर दिया। रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने ये आमाल अंजाम दिये और आप صلى الله عليه وسلم के बाद खुलफा-ए-राशिदीन ने सहाबा (رضی اللہ عنھم) के सामने ये अमल अंजाम दिया जो इस बात पर दलालत करता है कि लोगों की तरफ़ मश्वरे के लिये रुजू करना और उन की राय लेना मंदूब अमल है। लिहाज़ा ये ख़लीफ़ा के लिये मंदूब है कि वो मश्वरे के लिये मजलिसे उम्मत की तरफ़ रुजू करे और मुख़्तलिफ़ इक़दामात पर उन से राय ले।

जब ख़लीफ़ा अमली मुआमलात और इक़दामात पर राय मालूम करने के लिये मजलिसे उम्मत की तरफ़ रुजू करे तो इस पर लाज़िम है कि मजलिसे उम्मत की अक्सरियत जो राय दे, वो उस की पाबंदी करे। उस की दलील ये है कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने उहद  के मौक़े पर अक्सरियत की राय पर अमल किया अगरचे आप صلى الله عليه وسلم की ज़ाती राय और किबार (बडे) सहाबा की राय इस के बरख़िलाफ़ थी। आप صلى الله عليه وسلم ने अपनी और सहाबा किराम ( رضی اللہ عنھم) की राय को तर्क कर के अक्सरीयती राय के मुताबिक़ अमल किया। ये इस बात की तरफ़ इशारा है कि ऐसे मुआमलात जिन का ताल्लुक़ उस किस्म के इक़दामात से हो जिन के लिये तफ़सीली जायज़े और जांच पड़ताल की ज़रूरत नहीं होती। उन में मुसलमानों की अक्सरियत की राय को इख्तियार किया जाएगा। इस बात को रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के इस क़ौल से भी लिया गया है जो आप صلى الله عليه وسلم ने अबूबक्र (رضي الله عنه) और उमर (رضي الله عنه) के मुताल्लिक़ इरशाद फ़रमाया, जिसे अहमद ने इब्ने ग़नम अल अशअरी से रिवायत किया:

((لو اجتمعتما في مشورۃ ما خالفتکما))
अगर तुम किसी मश्वरे पर इत्तिफ़ाक़ कर लो तो मैं इस के ख़िलाफ़ नहीं करूंगा

इस हदीस में मशूरा का मतलब शूरा ही है और इस में हर अमली मुआमले या इक़दाम पर मश्वरा शामिल है।

ये तो पहले आर्टीकल की पहली शक़ (भाग) के मुताल्लिक़ था। जहां तक दूसरी शक़ का ताल्लुक़ है कि ख़लीफ़ा अगर इन मुआमलात की मुताल्लिक़ राय लेने के लिये मजलिसे उम्मत की तरफ़ रुजू करे जिस का ज़िक्र इस शक़ में किया गया, तो ऐसे मुआमलात में ख़लीफ़ा मजलिस-ए-उम्मत की राय पर अमल करने का पाबंद नहीं; उस की तफ़सील ये है कि बुनियादी तौर पर ख़लीफ़ा इन मुआमलात में औलमा,तकनीकी व पेशेवर माहीरीन  और माहिरीन-ए-इल्म-ओ-फ़न की तरफ़ रुजू करता है, जैसा कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने जंगे बदर के मौक़े पर जगह के इंतिख़ाब के लिये हब्बाब बिन मुंज़िर (رضي الله عنه) की राय को इख्तियार किया। सीरत इब्ने-ए-हिशाम में रिवायत किया गया:

((إن علیہ السلام حین نزل عند أدنی ماء من بدر لم یرض الحباب بن المنذر بھذا المنزل، وقال للرسولﷺ: یا رسول اللّٰہ أرأیت ھذہ المنزل أمنزلاً أنزلکہ اللّٰہ لیس لنا أن نتقدمہ ولا نتأخر عنہ۔ أم ہو الرأي والحرب والمکیدۃ؟ قال:بل ہو الرأي والحرب والمکیدۃ، فقال:یا رسول اللّٰہ فإن ہذالیس بمنزل فانہض بالناس حتی نأتی أدنی ماء من القوم فننزلہ ثم نغوّر ما وراء ہ من القُلُب، ثم نبني علیہ حوضاً فنملؤہ ماء، ثم نقاتل القوم فنشرب ولا یشربون، فقال رسول اللّٰہﷺ:لقد أشرت بالرأي، فنہض رسول اللّٰہﷺومن معہ من الناس، فسار حتی إذا أتی أدنی ماء من القوم نزل علیہ، ثم أمر بالقُلُب فغُوّرت، وبنی حوضاً علی القلیب الذی نزل علیہ،فملئ ماء ثم قذفوا فیہ الآنےۃ))

जब आप صلى الله عليه وسلم ने मैदान-ए-बदर में पानी के करीबी किनारे पर पडाओ डाला तो हब्बाब बिन मुंज़िर (رضي الله عنه) उस जगह पढ़ाओ डालने पर ख़ुश ना थे। उन्होंने रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم से कहा: या रसूलुल्लाह क्या इस पडाओ का हुक्म अल्लाह (سبحانه وتعال) ने दिया है और हम उस जगह से कहीं जा नहीं सकते या आप صلى الله عليه وسلم ने ऐसा राय, जंग और हिक्मत-ए-अमली के तहत किया। आप صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया: ये राय, जंग और हिक्मत-ए-अमली की बिना पर है। हब्बाब ने कहा: या रसूलुल्लाह! ये पडाओ के लिये (सही) जगह नहीं। लोगों को लेकर चलें यहां तक कि हम उस मुक़ाम पर पहुंचे जहां दुश्मन पानी के नज़दीक तरीन है, और हम वहां पडाओ डालें । और हम इस मुक़ाम से पीछे पानी को बन्द कर दें । और हम पानी जमा कर लें। फिर जब हम लोगों के ख़िलाफ़ लड़ेंगे तो हम पानी पी सकेंगे जब कि वो इस से महरूम रहेंगे। रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया: तुम ने (दुरुस्त) राय दी। पस रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم और लोगों को लेकर चले यहां तक कि आप वहां पहुंचे जहां दुश्मन पानी के नज़दीक तरीन था और आप صلى الله عليه وسلم ने वहां पडाओ डाला । फिर आप صلى الله عليه وسلم ने हुक्म दिया कि पानी को रोक दिया जाये और ऐसा ही किया गया और आप صلى الله عليه وسلم ने वहां पानी को जमा कर लिया, फिर उन्होंने पानी भर लिया और अपने बर्तन पानी में डाल दिये

पस रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने हब्बाब (رضي الله عنه) की राय से इत्तिफ़ाक़ किया और इस के मुताबिक़ अमल किया।

इस मुआमले का ताल्लुक़ राय, जंग और हिक्मत-ए-अमली से था , जिस में लोगों की राय को कोई अहमियत नहीं दी गई बल्कि एक माहिर की राय को वज़न दिया गया। इसी तरह फ़िक्री और फ़न्नी मुआमलात ,जिन के लिये तफ़सीली जायज़े और जांच पड़ताल की ज़रूरत होती है, नीज़ इस्तिलाहात-ओ-तारीफ़ात भी इसी के मुमासिल (समान) हैं। इन तमाम मुआमलात में पेशावर माहिरीन-ए-इल्म-ओ-फ़न की तरफ़ रुजू किया जाता है ना कि अवामुन्नास (जनता) की राय की तरफ़। इन मुआमलात में अक्सरीयती राय का कोई वज़न नहीं होता बल्कि अहल-ए- इल्म, तजुर्बाकार लोगों और माहिरीन की राय को अहमियत हासिल होती है।

इस का इतलाक़ मालीयाती उमूर (आर्थिक मुआमलात) पर भी होता है, क्योंकि शरेह ने अम्वाल (दौलत) की इक़साम (क़िस्मों) का ताय्युन कर दिया है जिन्हें इकट्ठा करना लाज़िम है और इस बात का भी ताय्युन कर दिया है कि किन मुद्दों पर इन अम्वाल को ख़र्च किया जाना चाहिये। शरेह ने इस बात का भी ताय्युन कर दिया है कि किन हालात में टैक्स लगाए जा सकते हैं। लिहाज़ा अम्वाल के इकट्ठा करने और मुख़तस करने में लोगों की राय का कोई अमल दख़ल नहीं। अफ़्वाज (फौजों) का भी यही मुआमला है । शरेह ने अफ़्वाज के उमूर की तंज़ीम (संस्था) को ख़लीफ़ा की सवाबदीद (सलाह) पर छोड़ा है और शरेह ने जिहाद के अहकामात का भी ताय्युन कर दिया है। लिहाज़ा शरेह के मुतय्यन करदा मुआमलात के मुताल्लिक़ लोगों की राय की कोई हैसियत नहीं। यही सूरत-ए-हाल रियासत के दूसरी रियासतों के साथ ताल्लुक़ात की है क्योंकि ये उन अफ़्क़ार में से है जो तफ़सीली जायज़े और गहरी जांच पड़ताल के मुहताज होते हैं और इस का ताल्लुक़ जिहाद से होता है। अलावा अज़ीं इस का ताल्लुक़ राय ,जंग और हिकमत-ए-अमली से है। लिहाज़ा इस में लोगों की अक्सरियत या अक़्लियत की राय का कोई अमल दख़ल नहीं। ताहम ख़लीफ़ा को इस बात की इजाज़त है कि वो इन मुआमलात को मश्वरे और राय के लिये मजलिस-ए-उम्मत के सामने रखे क्योंकि ऐसा करना मुबाह है और इन मुआमलात में मजलिस-ए- उम्मत की राय की पाबंदी लाज़िम नहीं जैसा कि बदर के वाक़िये से ज़ाहिर है।

जहां तक आर्टीकल (2) का ताल्लुक़ है, अगरचे अहकामात और क़वानीन की तबन्नी करना ख़लीफ़ा का इख्तियार है और इस मुआमले में मजलिस की राय की पाबंदी लाज़िम नहीं , ताहम ख़लीफ़ा जिन अहकाम-ए-शरीयत और क़वानीन की तबन्नी करना चाहता है , उन्हें वो मजलिस-ए-उम्मत की तरफ़ भेज सकता है ,ताकि वो उन के मुताल्लिक़ मजलिस-ए-उम्मत की राय को जान सके। जैसा कि उमर (رضي الله عنه) ने अहकाम-ए-शरीयत के मुताल्लिक़ मुसलमानों की तरफ़ रुजू किया और सहाबा किराम ( رضی اللہ عنھم) ने इस पर एतराज़ ना किया। चुनांचे इराक़ की मफ़्तूहा (विजयी) ज़मीन के मुताल्लिक़ मुसलमानों ने उमर (رضي الله عنه) से  कहा कि आप इसे उन मुजाहिदीन के बीच तक़सीम कर दें जिन्होंने इस इलाक़े को फ़तह किया है । पस आप ने लोगों से इस के मुताल्लिक़ पूछा ताहम आप ने ये राय इख्तियार की कि ज़मीन को इस शर्त पर इस के मालिकान के पास रहने दिया जाये कि वो खिराज की एक मुतय्यन मिक़दार अदा करेंगे नीज़ हर शख़्स पर जिज़िया भी लागू होगा। उमर (رضي الله عنه) उन से पहले अबूबक्र (رضي الله عنه) की राय के लिये सहाबा (رضی اللہ عنھم) की तरफ़ रुजू करना और सहाबा (رضی اللہ عنھم ) की तरफ़ से इस पर एतराज़ ना करना , सहाबा (رضی اللہ عنھم) की तरफ़ से इस बात पर इजमा की दलील है कि ख़लीफ़ा को ये इख्तियार हासिल है कि वो अहकाम-ए-शरीयत के मुताल्लिक़ मुसलमानों की राय ले सकता है जब उसे इस मुआमले पर किताबुल्लाह और सुन्नत-ए- रसूल صلى الله عليه وسلم में से कोई साफ नस ना मिले या वो उसे समझने में मुश्किल महसूस करे या जब वो अहकाम-ए-शरीयत की तबन्नी करना चाहता हो। इन तमाम मुआमलात में मजलिसे उम्मत की राय की पाबंदी करना ख़लीफ़ा पर लाज़िम नहीं।
ख़लीफ़ा जिन अहकामात और क़वानीन की तबन्नी करना चाहता है, इस में मजलिस-ए- उम्मत के गैर मुस्लिम अराकीन को राय देने का कोई हक़ हासिल नहीं क्योंकि वो इस्लाम पर ईमान ही नहीं रखते। ताहम उन्हें हुक्मरान के ज़ुल्मके ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करने का पूरा हक़ हासिल है अलबत्ता शरई अहकाम-ओ-क़वानीन पर राय देने का कोई हक़ हासिल नहीं।

जहां तक आर्टीकल (3) का ताल्लुक़ है उस की दलील वो आम नुसूस हैं जो हुक्काम (शासकों) के मुहासबे (जवाब तलबी) के मुताल्लिक़ वारिद हुई हैं। अहमद ने इब्ने उमर (رضي الله عنه) से रिवायत किया उन्होंने कहा कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:

((سیکون علیکم أمراء ےأ مرونکم بما لا یفعلون، فمن صدقہم بکذبہم، وأعانہم علی ظلمہم فلیس مني ولست منہ، ولن یرد عليّ الحوض))

तुम पर ऐसे उमरा होंगे जो तुम्हें ऐसी बातों का हुक्म देंगे जो वो ख़ुद नहीं करेंगे। जिस ने भी उन की बातों की तसदीक़ की और ज़ुल्म में उन की मदद की मेरा उस  से कोई ताल्लुक़ नहीं और ना उसका मुझ से कोई ताल्लुक़ है और वो हौज़ पर मुझ से नहीं मिलेगा

अहमद ने अबू सईद ख़ुदरी (رضي الله عنه) से रिवायत किया ,जिन्होंने बयान किया कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:

((۔۔۔أفضل الجھاد کلمۃ حق عند سلطان جائر))
अफ़ज़ल जिहाद जाबिर सुल्तान के सामने कलिमा हक़ कहना है

हाकिम ने जाबिर (رضي الله عنه) से रिवायत किया कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:

((سید الشہداء حمزۃ بن عبد المطلب، ورجل قام إلی إمام جائر فأمرہ و نھاہ فقتلہ))
 हमज़ा बिन मुतल्लिब (رضي الله عنه) शुहदा के सरदार हैं,और वह शख़्स भी जो ज़ालिम हुक्मरान के सामने खड़ा हुआ और उसे नेकी का हुक्म दिया और बुराई से मना किया और उस (हुक्मरान) ने उसे क़त्ल कर दिया

मुस्लिम ने औफ़ बिन मालिक अल अशजई (رضي الله عنه) से  रिवायत किया कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:

((۔۔۔اأامن ولي علیہ والٍ فرآہ ےأتي شےئاً من معصےۃ اللّٰہ، فلیکرہ ما ےأتي من معصےۃ اللّٰہ ولا ینزعنّ یداً من طاعۃ))

ख़बरदार जिस पर भी वाली मुक़र्रर किया जाये और वो उस की तरफ़ से अल्लाह (سبحانه وتعال) की मासियत का इर्तिकाब देखे, तो वो इस मासियत से नफ़रत करे लेकिन उस की इताअत से हाथ ना खींचे

मुस्लिम ने उम्मे सलमा से रिवायत किया कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:
((ستکون أمراء فتعرفون وتنکرون، فمن عرف برء، ومن أنکر سَلِمَ، ولکن من رضي و تابع۔۔۔))

ऐसे अमीर होंगे जिन के (बाअज़ कामों को) तुम मारूफ़ पाओगे और (बाअज़ को) मुनकिर। तो जिस ने (इन कामों को) पहचान लिया वो बरी हुआ और जिस ने इनकार किया वो(गुनाह से) महफ़ूज़ रहा। लेकिन जो राज़ी रहा और ताबेदारी की (वो बरी हुआ ना महफ़ूज़ रहा) -------

ये नुसूस अपने अल्फाज़ में आम हैं और इस बात पर दलालत करती हैं कि किसी भी अमल पर मुहासिबा किया जा सकता है। सहाबा (رضی اللہ عنھم ) ने हुदैबिया के मुआहिदे पर रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم से तआरुज़ (झगडा) किया और शदीद रद्द-ए-अमल (परस्पर विरोध) का इज़हार किया और रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इस तआरुज़ पर उन की सरज़निश (भर्तसना) नहीं की। बल्कि आप صلى الله عليه وسلم ने उन की राय को मुस्तर्द (रद्द) करते हुए अमन मुआहिदा कर लिया क्योंकि आप صلى الله عليه وسلم ने जो किया वो अल्लाह (سبحانه وتعال) की तरफ़ से वही थी जिस में लोगों की राय की कोई हैसियत नहीं होती। अलबत्ता आप صلى الله عليه وسلم ने उस वक़्त उन की सरज़निश की जब उन्होंने अपने क़ुर्बानी के जानवरों को ज़बह करने, सर मुंडवाने और एहराम खोल देने के हुक्म की इत्तिबा ना की। आप صلى الله عليه وسلم ने बदर के मौक़े पर हब्बाब बिन मुंज़िर (رضي الله عنه) की भी सरज़निश नहीं की जब उन्होंने आप صلى الله عليه وسلمके पड़ाओ डालने के मुक़ाम के इंतिख़ाब पर एतराज़ किया। बल्कि आप صلى الله عليه وسلم ने उन की राय पर अमल किया। लिहाज़ा मजलिस-ए-उम्मत ख़लीफ़ा , इस के मुआवनीन, वालीयों और आमिलों के अफ़आल का मुहासिबा करती है, अगर उन के अफ़आल अहकाम-ए-शरीयत के बरख़िलाफ़ हों या मुसलमानों के लिये नुक़्सानदेह हों या फिर शासक लोगों के उमूर की देख भाल में सुस्ती या नाइंसाफ़ी करें। ख़लीफ़ा पर लाज़िम है कि वो इस मुहासबे और एतराज़ात का जवाब दे और मजलिसे उम्मत को अपने नुक़्ता-ए-नज़र और उन दलायल से आगाह करे कि जिस की बुनियाद पर इस ने मुख़्तलिफ़ इक़दामात उठाए और मुख़्तलिफ़ उमूर अंजाम दिये ताकि मजलिस-ए-उम्मत को ख़लीफ़ा की हुस्न तदबीर, इख़लास और इमानदारी पर इत्मीनान हासिल हो। ताहम अगर मजलिस ख़लीफ़ा के नुक़्ता-ए-नज़र को तस्लीम ना करे और इस के दलायल को रद्द कर दे तो इस मुआमले का जायज़ा लिया जाएगा। अगर ये मुआमला ऐसे मुआमलात में से है जिस में अक्सरियत की राय की पाबंदी करना लाज़िम होता है तो फिर मजलिस की राय की पाबंदी की जाएगी वरना नहीं।

ये कहना दुरुस्त नहीं कि ख़लीफ़ा का मुहासिबा करने का क्या फ़ायदा अगर वो इस मुहासबे के मुताबिक़ अमल करने का पाबंद ही नहीं? ये कहना सही नहीं क्योंकि हुक्मरान का मुहासिबा करना हुक्मे शरई है जिसे पूरा करना ज़रूरी है और ये फ़र्ज़े किफ़ाया है।   इसके अलावा मुहासबे की हक़ीक़त ये है कि इस से राय के बारे में पता चलता है और उस की वज़ाहत होती है। ये राय आम्मा (public openion) को ख़बरदार करता है और उसे उभारता है और राय आम्मा अपने अंदर फौज से ज़्यादा ताक़त रखती है और हर जगह हुक्मरान राय आम्मा से डरते हैं। लिहाज़ा हुक्मरान का हिसाब किताब करते रहना निहायत अहमियत रखता है।

अगर मुहासिबा करने वाले, हुक्मरान के साथ किसी क़ानूनी नुक़्ता नज़र के मुताल्लिक़ इख्तिलाफ (मतभेद) करें तो फिर ये मुआमला मजलिसे उम्मत की दरख़ास्त पर क़ाज़ी मज़ालिम की तरफ़ भेजा जाता है, क्योंकि अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इरशाद फ़रमाया:

يَـٰٓأَيُّہَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُواْ ٱلرَّسُولَ وَأُوْلِى ٱلۡأَمۡرِ مِنكُمۡۖ فَإِن تَنَـٰزَعۡتُمۡ فِى شَىۡءٍ۬ فَرُدُّوهُ إِلَى ٱللَّهِ وَٱلرَّسُولِ

ऐ ईमान वालो! इताअत करो अल्लाह (سبحانه وتعال) की और इताअत करो रसूल صلى الله عليه وسلم की और अपने में से उलिल अम्र (यानी हुकमरानों) की भी । अगर तुम किसी मुआमले पर आपस में तनाज़ा करो तो उसे अल्लाह और रसूल صلى الله عليه وسلم की तरफ़ लौटा दो
(अन्निसा:59)

यानी अहल-ए-अम्र के साथ तनाज़े की सूरत में, मुसलमान इस मुआमले को अल्लाह और इस के रसूल صلى الله عليه وسلم की तरफ़, यानी शरेह की हाकमियत की तरफ़ ,लौटा दें। जिस से मुराद है कि अदालत यानी महकमा तुल मज़ालिम की तरफ़ रुजू किया जाये और उस की राय की पाबंदी करना लाज़िम होता है।

जहां तक आर्टीकल(4) का ताल्लुक़ है तो उस की दलील ये है कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने अला बिन हज़रमी को बहरीन की आमलियत से हटा दिया क्योंकि अब्दे केस के वफ्द (नुमाइन्दगान) ने उन के बारे में शिकायत की। इब्ने-ए-साद ने मुहम्मद बिन उमर से रिवायत किया:

((أن رسول اللّٰہﷺ قد کتب إلی العلاء بن الحضرمي أن یقدم علیہ بعشرین رجلاًمن عبد القیس، فقدم علیہ بعشرین رجلاً رأسہم عبداللّٰہ بن عوف الأشجّ واستخلف العلاء علی البحرین المنذر بن ساوی، فشکا الوفد العلاء بن الحضرمي، فعزلہ رسول اللّٰہﷺ وولّی أبان بن سعید بن العاص، وقال لہ استوصِ بعبد القیس خیراً وأکرم سراتھم))
 रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने अला बिन ख़ज़रमी को लिखा कि अब्दे क़ेस के बीस आदमियों के हमराह मेरे पास पहुंचो। चुनांचे वो बीस आदमियों के साथ आप صلى الله عليه وسلم की ख़िदमत में हाज़िर हुआ जिन का सरदार अब्दुल्लाह बिन औफ़ अलअशज था और इला ने मुंज़िर बिन सावी को अपनी गैर मौजूदगी में बहरीन पर आमिल मुक़र्रर किया। अब्दे क़ैस के वफ्द ने अला के मुताल्लिक़ शिकायत की । चुनांचे रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने उसे बरतरफ़ कर के अबान बिन सईद उल आस को मुक़र्रर फ़रमाया और इस से कहा: अब्दे क़ैस का ख़्याल रखना और उन के सरदारों का एहतिराम करना।

इसी तरह उमर (رضي الله عنه) बिन खत्ताब ने लोगों की शिकायत पर साअद बिन अबी वक़्क़ास (رضي الله عنه) को वाली के ओहदे से माज़ूल (बर्खास्त) कर दिया और कहा: मैंने उन्हें किसी कोताही या खियानत की वजह से माज़ूल नहीं किया। इस का मतलब ये है कि सूबों के अवाम को अपने वालीयों और उमरा (शासकों) के मुताल्लिक़ अपने अदम इत्मीनान (असंतुष्टी) और नाराज़गी के इज़हार का हक़ हासिल है जिस पर ख़लीफ़ा के लिये उसे माज़ूल करना लाज़िम हो जाता है। इसी तरह मजलिस-ए-उमत, जो रियासत के तमाम मुसलमानों की नुमाइंदगी करती है, को ये हक़ हासिल है कि वो वालीयों और आमिलीन पर अपने अदम इत्मीनान और नाराज़गी का इज़हार कर सकती है। ऐसी सूरत में ख़लीफ़ा के लिये इन्हें हटाना लाज़िम हो जाता है।


जहां तक आर्टीकल (5) का ताल्लुक़ है तो उस की दलील ये है कि जब उमर (رضي الله عنه) को ज़ख़्मी किया गया और वो अपनी मौत के करीब थे तो लोगों ने उन से मुतालिबा किया कि वो अपने बाद किसी को ख़लीफ़ा मुक़र्रर कर दें लेकिन आप ने इस दरख्वास्त को रद्द कर दिया। लोगों की तरफ़ से इसरार पर आप ने छः अफ़राद को नामज़द किया और ये इजमा सुकूती (खामोश इजमा) था। जो इस बात की दलील है कि मजलिस-ए-उम्मत के मुसलमान अराकीन (सदस्यों) को इस बात का हक़ हासिल है कि वो ख़िलाफ़त के ओहदे के उम्मीदवारों की फ़हरिस्त की काण्ट छांट कर सकती है। ये बात साबित है कि उमर (رضي الله عنه) ने अपने नामज़द करदा छः अफ़राद की निगरानी के लिये पच्चास लोगों को मुक़र्रर किया और उन्हें ये हुक्म दिया कि इन में से जो कोई भी ख़लीफ़ा के चिन्ह पर बाक़ी अफ़राद से इख्तिलाफ करे उस की गर्दन उड़ा दी जाये। आप ने इन छः अफ़राद के लिये तीन दिन की मुद्दत मुक़र्रर की जिस का मफ़हूम है कि इस मुआमले में मजलिस की राय पर अमल करना लाज़िम है। जहां तक मजलिस-ए-उम्मत के गैर मुस्लिम अराकीन का ताल्लुक़ है तो उन्हें उम्मीदवारों की फ़हरिस्त की काण्ट छांट का कोई हक़ हासिल नहीं क्योंकि बैअत सिर्फ़ मुसलमानों के साथ मख़सूस है।
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