इस्लाम की अहया (revival) तरीक़ा आज भी वही है जो रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) का तरीक़ा था
“तुम से पहले भी रसूलों को झुटलाया गया, लेकिन उन्होंने झुटलाने पर सब्र किया, उनको अज़ीयत भी दी गई, यहां तक कि हमारी मदद आ गई और अल्लाह (سبحانه وتعالى) के फ़ैसलों को कोई तब्दील नहीं कर सकता, यक़ीनन तुम्हारे पास (पिछले) रसूलों की ख़बर पहुंची हुई है ।”
दावत के काम का तरीके-कार वही होगा जो कि मक्का में रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) का था, रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने मक्का में एक मुद्दत गुज़ारी जब वो दारुल-कुफ़्र था । रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने मक्का में ऐसे नतीजाख़ेज़ आमाल अंजाम दिये जिनके नतीजे में मदीना में दारुल-इस्लाम वजूद में आया । मक्का से मदीना की जानिब हिज्रत का अमल जहां इस्लामी रियासत क़ायम हुई थी, हिज्रत का अमल इन अफ़आल में दारुल-कुफ़्र से दारुल-इस्लाम में परिवर्तित होने वाला एक बिन्दू था।
यहां सवाल पैदा होता है कि क्या हमारी बात का ये मतलब है कि दावत आज भी दो मरहलों में होनी चाहिए यानी मक्की मरहला और मदनी मरहला जैसा कि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के ज़माने में था? इसका जवाब ये है कि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के दौर में दावत दो मराहिल (चरणों) से गुज़री है:
إِنَّ الَّذِينَ تَوَفَّاهُمُ الْمَلآئِكَةُ ظَالِمِي أَنْفُسِهِمْ قَالُواْ فِيمَ كُنتُمْ قَالُواْ كُنَّا مُسْتَضْعَفِينَ فِي الأَرْضِ قَالْوَاْ أَلَمْ تَكُنْ أَرْضُ اللّهِ وَاسِعَةً فَتُهَاجِرُواْ فِيهَا فَأُوْلَـئِكَ مَأْوَاهُمْ جَهَنَّمُ وَسَاءتْ مَصِيراً ! إِلاَّ الْمُسْتَضْعَفِينَ مِنَ الرِّجَالِ وَالنِّسَاء وَالْوِلْدَانِ لاَ يَسْتَطِيعُونَ حِيلَةً وَلاَ يَهْتَدُونَ سَبِيلاً ! فَأُوْلَـئِكَ عَسَى اللّهُ أَن يَعْفُوَ عَنْهُمْ وَكَانَ اللّهُ عَفُوّاً غَفُوراً﴾ {99-4:97}
इस वजह से आज हमारे हालात में ये कहना ग़लत है कि ये मक्की दौर है और या ये मदनी दौर है, अलबत्ता मक्का में दावत के जिन मराहिल से आप गुज़रे हैं और वो आमाल जो अल्लाह (سبحانه وتعالى) के रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने मक्का में रहते हुए अंजाम दिये हैं जिनके नतीजे में दारुल-इस्लाम वजूद में आया, हम दावत के इस अमल में सिर्फ़ उन मक्की मराहिल व अफ़आल के ताल्लुक़ से ज़रूर आप (صلى الله عليه وسلم) की सीरत की पैरवी करते हुए रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की इत्तिबा और आप के नक़श-ए-क़दम पर चलेंगे । ये मामला सिर्फ़ दारुल-इस्लाम के क़याम के काम से संबधित अहकामात के बारे में है जबकि बाक़ी दीगर अहकामात जो कि अफ़राद से संबधित व्यक्तिगत हैं उन पर अमल करना हर मुसलमान पर फ़र्ज़ है चाहे वो दारुल-इस्लाम में रहता हो या दारुल-कुफ़्र में ।
जमात पर ये लाज़िम है कि उन अफ़आल का गहरा अध्ययन करे जो आमाल रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने अंजाम दिये हैं जिनके नतीजे में इस्लाम की सबसे पहली इस्लामी रियासत मदीना में क़ायम हुई, जी हाँ बेशक वही तरीक़ा आज भी होगा जो रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) का था, वही मराहिल आज भी होंगे जिनकी शुरूआत अल्लाह (سبحانه وتعالى) के हुक्म से रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने की थी और उन्हें अंजाम दिया था । लिहाज़ा दावत को अंजाम देने के लिए भी आज अल्लाह (سبحانه وتعالى) के अहकामात की पहचान इस दौर से हासिल होगी, फिर इस दावत में हर किस्म की मुश्किलात के बावजूद सब्र और इस्तिक़ामत को अपनाकर इसी तरीक़े पर कारबन्द रहना होगा जो हक़ की दावत के रास्ते का क़ानून है और हर हक़ की पुकार देने वाले को इससे गुज़रना पड़ता है कोई ऐसा नहीं जो इस इम्तिहान से छूटा हो । जैसा कि वही के नुज़ूल की शुरूआत में ही वरक़ाह बिन नौफ़ल ने रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) से कहा:
((لتكذبنه، و لتؤذينه، و لتخرجنه، و لتقاتلنه)) ((أو مخرجي هم))
“इस दावत में तुम झुटलाए जाओगे, तुम्हें तकलीफ़ दी जाएगी, तुम्हें (यहां से) निकाल दिया जाये गा और तुम से जंग करेंगे । रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने उनसे पूछा:
क्या वाक़ई मेरी क़ौम मुझे निकाल देगी? तो वरक़ाह ने कहा : तुम से पहले जो रसूल आए कोई भी ऐसा ना था जिसको उनकी क़ौम ने नहीं निकाला ।” इरशादे बारी है:
क्या वाक़ई मेरी क़ौम मुझे निकाल देगी? तो वरक़ाह ने कहा : तुम से पहले जो रसूल आए कोई भी ऐसा ना था जिसको उनकी क़ौम ने नहीं निकाला ।” इरशादे बारी है:
﴿وَلَقَدْ كُذِّبَتْ رُسُلٌ مِّن قَبْلِكَ فَصَبَرُواْ عَلَى مَا
كُذِّبُواْ وَأُوذُواْ حَتَّى أَتَاهُمْ نَصْرُنَا وَلاَ مُبَدِّلَ
لِكَلِمَاتِ اللّهِ وَلَقدْ جَاءكَ مِن نَّبَإِ الْمُرْسَلِينَ﴾ {6:34}
“तुम से पहले भी रसूलों को झुटलाया गया, लेकिन उन्होंने झुटलाने पर सब्र किया, उनको अज़ीयत भी दी गई, यहां तक कि हमारी मदद आ गई और अल्लाह (سبحانه وتعالى) के फ़ैसलों को कोई तब्दील नहीं कर सकता, यक़ीनन तुम्हारे पास (पिछले) रसूलों की ख़बर पहुंची हुई है ।”
दावत के काम का तरीके-कार वही होगा जो कि मक्का में रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) का था, रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने मक्का में एक मुद्दत गुज़ारी जब वो दारुल-कुफ़्र था । रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने मक्का में ऐसे नतीजाख़ेज़ आमाल अंजाम दिये जिनके नतीजे में मदीना में दारुल-इस्लाम वजूद में आया । मक्का से मदीना की जानिब हिज्रत का अमल जहां इस्लामी रियासत क़ायम हुई थी, हिज्रत का अमल इन अफ़आल में दारुल-कुफ़्र से दारुल-इस्लाम में परिवर्तित होने वाला एक बिन्दू था।
यहां सवाल पैदा होता है कि क्या हमारी बात का ये मतलब है कि दावत आज भी दो मरहलों में होनी चाहिए यानी मक्की मरहला और मदनी मरहला जैसा कि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के ज़माने में था? इसका जवाब ये है कि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के दौर में दावत दो मराहिल (चरणों) से गुज़री है:
1। मक्की मरहला : जहां रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) पर ज़्यादा तर अक़ाइद से संबधित और बहुत कम तादाद में अहकामात से संबधित आयात वह्यी के ज़रीये नाज़िल हुईं । अहकामात का जो कुछ हिस्सा नाज़िल हो चुका था मुसलमान इसके अलावा मज़ीद किसी हुक्म के लिए शरई तौर पर पाबंद या मुकल्लिफ़ (legally responsible) नहीं थे । रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) को लोगों को माफ़ कर देने का हुक्म मिला था और हिक्मत के साथ दावत देने और ख़ूबसूरत अंदाज़ से वाअज़ (preaching) करने के हुक्म के साथ साथ हथियार इस्तिमाल ना करने और इस रास्ते में किसी भी नुक़्सान या अज़ीयतें पेश आने पर सब्र का हुक्म दिया गया था।
2। मदनी मरहला: जहां रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) पर अक़ाइद से संबधित बाक़ी तमाम आयात और अहकामात से संबधित तमाम आयात वह्यी के ज़रीये नाज़िल हुई । यहां रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) को इस्लामी अहकामात को क़ानून के तौर पर क़ायम करने, ऊक़ूबात (सज़ाओं) को नाफ़िज़ करने, जिहाद का ऐलान करने और इलाक़ों को फ़तह करने और लोगों के मामलात की निगरानी का हुक्म दिया गया था। इस मरहले में हर एक मुसलमान पूरे इस्लाम पर पाबंद और मुकल्लफ़ था और मुकम्मल इस्लाम के बारे में ज़िम्मेदार किया गया था।
2। मदनी मरहला: जहां रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) पर अक़ाइद से संबधित बाक़ी तमाम आयात और अहकामात से संबधित तमाम आयात वह्यी के ज़रीये नाज़िल हुई । यहां रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) को इस्लामी अहकामात को क़ानून के तौर पर क़ायम करने, ऊक़ूबात (सज़ाओं) को नाफ़िज़ करने, जिहाद का ऐलान करने और इलाक़ों को फ़तह करने और लोगों के मामलात की निगरानी का हुक्म दिया गया था। इस मरहले में हर एक मुसलमान पूरे इस्लाम पर पाबंद और मुकल्लफ़ था और मुकम्मल इस्लाम के बारे में ज़िम्मेदार किया गया था।
आज हम पूरे इस्लाम के बारे में ज़िम्मेदार हैं चाहें मक्का में जो कुछ हिस्सा नाज़िल हुआ या मदीना में, इन तमाम में से किसी भी हुक्म के मुताल्लिक़ किसी भी किस्म की कोताही पर मुसलमान की पकड़ होगी। चुनांचे मुसलमान से तलाक़ व निकाह के अहकामात, लेन देन, जिहाद, रोज़े और हज के अहकामात, ऊक़ूबात व गवाही से संबधित अहकामात, ज़मीनों और मिल्कियत (संपत्ति) से संबधित अहकामात समेत इन दीगर तमाम अहकामात के बारे में पूछा जाएगा जो मदीना में नाज़िल हुए । हाँ बाअज़ अहकामात ऐसे हैं जिन पर अमल करना शरअ ने ख़लीफ़ा पर लाज़िम किया है किसी फ़र्द को उनको अंजाम देने की इजाज़त नहीं है, जैसे ऊक़ूबात के मुकम्मल अहकामात, इस्लामी दावत को फैलाने के लिए जिहाद करने के अहकामात, रियासत की सरकारी मिल्कियत से मुताल्लिक़ अहकामात और ख़िलाफ़त के अहकामात । इसी तरह कुछ अहकामात ऐसे हैं जो कि ख़लीफ़ा की ज़िम्मेदारी नहीं हैं अलबत्ता हर एक मुसलमान पर हर हाल में उनकी अदायगी फ़र्ज़ की गई है और उन पर पाबंद ना रहने पर उसकी पकड़ की जाएगी चाहे वो अहकामात मक्का में नाज़िल हुए हों या मदीना में, यहां तक कि अगर एक मुसलमान किसी रियासत में इन्फ़िरादी (व्यक्तिगत) अहकामात पर अमल नहीं कर सकता तो वहां से हिज्रत करना उस पर फ़र्ज़ हो जाता है। इरशाद बारी ताअला है:
إِنَّ الَّذِينَ تَوَفَّاهُمُ الْمَلآئِكَةُ ظَالِمِي أَنْفُسِهِمْ قَالُواْ فِيمَ كُنتُمْ قَالُواْ كُنَّا مُسْتَضْعَفِينَ فِي الأَرْضِ قَالْوَاْ أَلَمْ تَكُنْ أَرْضُ اللّهِ وَاسِعَةً فَتُهَاجِرُواْ فِيهَا فَأُوْلَـئِكَ مَأْوَاهُمْ جَهَنَّمُ وَسَاءتْ مَصِيراً ! إِلاَّ الْمُسْتَضْعَفِينَ مِنَ الرِّجَالِ وَالنِّسَاء وَالْوِلْدَانِ لاَ يَسْتَطِيعُونَ حِيلَةً وَلاَ يَهْتَدُونَ سَبِيلاً ! فَأُوْلَـئِكَ عَسَى اللّهُ أَن يَعْفُوَ عَنْهُمْ وَكَانَ اللّهُ عَفُوّاً غَفُوراً﴾ {99-4:97}
“बेशक जिन लोगों को मलायका ने (वफ़ात दी) उठा लिया जबकि वो अपनी जानों पर ज़ुल्म कर रहे हैं (क्योंकि वो काफ़िरों के साथ ज़िंदगी गुज़ार रहे थे हालाँकि हिज्रत उन पर फ़र्ज़ हो गई थी) जब उनसे पूछा जाएगा कि तुम ने ऐसा क्यों किया, तो वो कहेंगे हम दुनिया में कमज़ोर थे और ज़मीन पर हम पर ज़ुल्म किया गया । वो (फ़रिश्ते) उनसे कहते हैं कि क्या अल्लाह (سبحانه وتعالى) की ज़मीन वसीअ नहीं थी कि तुम इसमें हिज्रत करते ? पस उन लोगों का ठिकाना जहन्नुम है क्या ही बुरा ठिकाना है वहां मर्दों, औरतों और बच्चों में से वो लोग जो कि वाक़ई कमज़ोर हैं जिनके पास ना कोई बहाना था और ना ही उनके सामने कोई रास्ता था, यही लोग हैं जिनसे शायद अल्लाह (سبحانه وتعالى) दरगुज़र करें और अल्लाह (سبحانه وتعالى) बड़ा दरगुज़र करने वाला है ।”
इस वजह से आज हमारे हालात में ये कहना ग़लत है कि ये मक्की दौर है और या ये मदनी दौर है, अलबत्ता मक्का में दावत के जिन मराहिल से आप गुज़रे हैं और वो आमाल जो अल्लाह (سبحانه وتعالى) के रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने मक्का में रहते हुए अंजाम दिये हैं जिनके नतीजे में दारुल-इस्लाम वजूद में आया, हम दावत के इस अमल में सिर्फ़ उन मक्की मराहिल व अफ़आल के ताल्लुक़ से ज़रूर आप (صلى الله عليه وسلم) की सीरत की पैरवी करते हुए रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की इत्तिबा और आप के नक़श-ए-क़दम पर चलेंगे । ये मामला सिर्फ़ दारुल-इस्लाम के क़याम के काम से संबधित अहकामात के बारे में है जबकि बाक़ी दीगर अहकामात जो कि अफ़राद से संबधित व्यक्तिगत हैं उन पर अमल करना हर मुसलमान पर फ़र्ज़ है चाहे वो दारुल-इस्लाम में रहता हो या दारुल-कुफ़्र में ।
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