मजलिसे उम्मत

ये मजलिस ऐसे अफ़राद पर मुश्तमिल (आधारित) होती है जो मुसलमानों की राय की नुमाइंदगी करते हैं, जिस की तरफ़ ख़लीफ़ा मश्वरे के लिये रुजू करता है और मजलिस के अफ़राद हुक्मरानों के मुहासबे में उम्मत की नुमाइंदगी करते हैं। मजलिसे उम्मत को रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के इस अमल से अख़ज़ किया गया है कि जब रसूलल्लाह صلى الله عليه وسلم ने मुआमलात के मुताल्लिक़ मश्वरे के लिये अंसार और मुहाजरीन में से चौदह नक़बा (सरदारों) को नामज़द किया और उस की दलील ये भी है कि अबूबक्र (رضي الله عنه) ने मुहाजरीन और अंसार में से कुछ लोगों को मख़सूस किया और जब भी कोई वाक़िया रौनुमा होता तो आप मश्वरे के लिये उन की तरफ़ रुजू करते। अबू बक्र (رضي الله عنه) के दौर में अहल-ए-शूरा उलमा और अहल-ए- फ़तवा थे। इब्ने साद ने क़ासिम से रिवायत किया कि जब भी कोई वाक़िया पेश आता और अबूबक्र (رضي الله عنه) अहल-ए-राय और अहल-ए-फ़िक़्ह से मश्वरा करना चाहते तो आप मुहाजरीन और अंसार में से उमर (رضي الله عنه), उसमान (رضي الله عنه), अली (رضي الله عنه), अब्दुर्रहमान बिन औफ (رضي الله عنه), मआज़ बिन जबल (رضي الله عنه), अबी बिन काब (رضي الله عنه) और ज़ैद बिन साबित (رضي الله عنه) को बुलाते। ये सब लोग अबूबक्र (رضي الله عنه) के दौर में राय दिया करते थे। लोग भी उन से फ़तवा तलब किया करते थे। जब उमर ख़लीफ़ा बने तो आप भी उन लोगों से मश्वरा तलब किया करते थे जबकि आप के ज़माने में अहल-ए-फ़तवा उसमान (رضي الله عنه), अबी बिन काब (رضي الله عنه) और ज़ैद बिन साबित (رضي الله عنه) थे। ये इस बात पर दलालत करता है कि एक मख़सूस मजलिस का क़याम जायज़ है जो हुक्मरानों के एहतिसाब और शूरा में उम्मत की नुमाइंदगी करती हो। ये बात क़ुरआन-ओ-सुन्नत की नुसूस से साबित है। इसे मजलिस-ए- उम्मत कहा जाता है क्योंकि ये मुहासबे और मश्वरे में उम्मत की नुमाइंदगी करती है।

रियासत के गैर मुस्लिम बाशिंदों के लिये मजलिस-ए- उम्मत का रुक्न (pillar) बनना जायज़ है, ताकि वो अपने ऊपर इस्लाम के ग़लत निफाज़ या किसी हुक्मरान के ज़ुल्म की शिकायत कर सकें।

शूरा का हक़:

शूरा तमाम मुसलमानों का हक़ है जिसे पूरा करना ख़लीफ़ा पर लाज़िम है और ख़लीफ़ा को चाहिये कि वो इन मुआमलात में जिन पर मश्वरे की ज़रूरत होती है, मुसलमानों से मश्वरा करे। अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इरशाद फ़रमाया:

وَشَاوِرۡهُمۡ فِى ٱلۡأَمۡرِۖ فَإِذَا عَزَمۡتَ فَتَوَكَّلۡ عَلَى ٱللَّهِۚ
और उन से मुआमले में मश्वरा करो और जब तुम फैसला करो तो फिर अल्लाह पर भरोसा करो

(आल-ए-इमरान:159)

रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم लोगों की तरफ़ रुजू किया करते थे और उन से मश्वरा लिया करते थे। आप صلى الله عليه وسلم ने उन से ग़ज़वा-ए-बदर के मौक़े पर जंग के लिये जगह के चुनाव में मश्वरा किया और आप صلى الله عليه وسلم ने उन से ग़ज़वा उहद के मौक़े पर मश्वरा किया कि आया मदीना के अन्दर रह कर लड़ा जाये या बाहर जा कर मुशरिकीन-ए-मक्का का मुक़ाबला किया जाये। बदर के मौक़े पर आप صلى الله عليه وسلم ने एक तकनीकी मसले पर हबाब बिन मुंज़िर (رضي الله عنه) से मश्वरा किया जो इन चीज़ों के माहिर थे और आप صلى الله عليه وسلم ने उन की राय के मुताबिक़ अमल किया और दौर के मौक़ा पर आप صلى الله عليه وسلم ने अक्सरियत की राय को क़बूल किया अगरचे आप صلى الله عليه وسلم की अपनी राय इस से मुख़्तलिफ़ थी।

उमर (رضي الله عنه) ने ईराक़ की जीती गई ज़मीनों के मुताल्लिक़ मुसलमानों से मश्वरा किया कि इसे मुसलमानों के बीच तक़सीम कर दिया जाये क्योंकि ये माल-ए-ग़नीमत में से थी या उसे इस ज़मीन को इस के मौजूदा लोगों के हाथ में ही रहने दिया जाये, इस शर्त पर कि वो खिराज अदा करेंगे जबकि ज़मीन बुनियादी तौर पर बैतुलमाल की मिल्कियत क़रार पाएगी। फिर आप ने अपने इज्तिहाद पर अमल किया और अक्सर सहाबा (رضی اللہ عنھم) ने उस की ताईद की चुनांचे आप ने ज़मीन को उन लोगों के हाथ में ही रहने दिया और उन्हें खिराज अदा करने का हुक्म दिया। इसी तरह आप ने साद बिन अबी वक़्क़ास (رضي الله عنه) के ख़िलाफ़ शिकायात की बिना पर उन्हें माज़ूल कर दिया और कहा: “मैंने उसे किसी ख़ियानत या कमज़ोरी की वजह से माज़ूल नहीं किया “
जिस तरह मुसलमानों का ये हक़ है कि ख़लीफ़ा उन से मश्वरा करे , इसी तरह मुसलमानों पर ये वाजिब है कि वो हुक्मरानों के कामों व तसर्रुफात (इख्तियार) का मुहासिबा करें। अल्लाह (سبحانه وتعال) ने मुसलमानों पर फ़र्ज़ किया है कि वो हुक्मरानों का मुहासिबा करें और उन्हें सख़्ती से हुक्म दिया है कि अगर हुक्मरान लोगों के हुक़ूक़ (अधीकार) हडप करें और उन के मुताल्लिक़ अपनी ज़िम्मेदारीयों को पूरा ना करें या अल्लाह के नाज़िल करदा के इलावा किसी और बुनियाद पर हुकूमत करें तो मुसलमान इन का सख़्त मुहासिबा करें। मुस्लिम ने उम्मे सलमा (رضي الله عنها) से रिवायत किया कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:

((ستکون أمراء فتعرفون وتنکرون، فمن عرف برء، ومن أنکرسلم، ولکن من رضي وتابع، قالوا أفلانقاتلھم؟قال:لا،ماصلّوْا))

तुम्हारे ऐसे अमीर होंगे जिन के (बाअज़ कामों को) तुम मारूफ़ पाओगे और (बाअज़ को) मुनकिर तो जिस ने पहचान लिया वो बरी हुआ और जिस ने इनकार किया वो (गुनाह से) महफ़ूज़ रहा। लेकिन जो राज़ी रहा और ताबेदारी की (वो बरी हुआ ना महफ़ूज़ रहा)। लोगों ने पूछा:  ए अल्लाह के रसूल صلى الله عليه وسلم ! क्या हम उन को तलवार से निकाल बाहर ना करें ? आप صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया :  नहीं, जब तक कि वो नमाज़ पढ़ते रहें

सहाबा (رضی اللہ عنھم ) ने बाअज़ मौक़ों पर रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के बाअज़ इक़दामात पर एतराज़ भी किया। उमर (رضي الله عنه) ने हुदैबिया के मुआहिदे के उस हिस्से के ख़िलाफ़ सख़्त एहतिजाज (विरोध प्रदर्शन) किया:

((إنہ من أتی محمداً من قریش بغیر إذن ولیّہ رَدَّہُ علیہ، ومن جاء قریشاً ممن مع محمد لم یردوہ علیہ))
और क़ुरैश में से जो कोई अपने वली की इजाज़त के बगैर मुहम्मद के पास चला जाएगा तो उसे वापिस उन की तरफ़ लौटा दिया जाएगा। और जो कोई मुहम्मद का साथ छोड़कर क़ुरैश के पास आ जाएगा उसे वापिस नहीं किया जाएगा

इब्ने हिशाम ने अपनी सीरत की किताब में ज़ोहरी से रिवायत किया है कि जब अबूबक्र (رضي الله عنه) ने मुर्तदीन के ख़िलाफ़ क़िताल का फैसला किया तो शुरुआत में मुसलमानों ,खासतौर पर उमर (رضي الله عنه) ने इस से इख्तिलाफ किया। तलहा (رضي الله عنه) और ज़ुबेर (رضي الله عنه) ने अबूबक्र (رضي الله عنه) के इस इक़दाम से इख्तिलाफ़ किया जब उन्हें मालूम हुआ कि आप अपने बाद उमर (رضي الله عنه) को नामज़द करना चाहते हैं। इसी तरह बिलाल बिन रुबाह (رضي الله عنه), ज़ुबेर (رضي الله عنه) और दूसरे लोगों ने उमर (رضي الله عنه) के इस मौक़िफ़ से इख्तिलाफ किया कि इराक़ की सरज़मीन को जंग में शामिल लोगों के दरमियान तक़सीम ना किया जाये। एक औरत ने भी उमर की मुख़ालिफ़त की जब आप ने महर की हद मिक़दार 400 दिरहम मुक़र्रर करने का फैसला किया, जब उस औरत ने उमर (رضي الله عنه) से कहा: “ऐ उमर (رضي الله عنه) तुम्हें ये इख्तियार नहीं , क्या तुम ने अल्लाह का ये क़ौल नहीं सुना:

وَءَاتَيۡتُمۡ إِحۡدَٮٰهُنَّ قِنطَارً۬ا فَلَا تَأۡخُذُواْ مِنۡهُ شَيۡـًٔاۚ
अगर तुम ने उन्हें एक किंतार बराबर भी दिया हो तो भी इस में से कुछ वापिस मत लो
(अन्निसा:20)

इस पर उमर  (رضي الله عنه) ने कहा:  “औरत सही है और उमर ग़लत है”

लिहाज़ा मजलिस उम्मत को ये हक़ हासिल है कि इस से मश्वरा किया जाये नीज़ इस पर हुक्मरानों का मुहासिबा (जवाब तलबी) फ़र्ज़ है।

शूरा के मुताल्लिक़ हुक्म:

लफ़्ज़ शूरा, फे़अले शावरा का मस्दर है। इस के मानी हैं: “जिस से मश्वरा किया जाये उस की राय मालूम करना।“ जब कहा जाता है इस्तिशारा तो इस का मतलब ये है एक शख़्स का किसी से मश्वरा तलब करना।

लफ़्ज़ शूरा, अलमशूरा और मशवरा का एक ही मतलब है, लिसानुल अरब में बयान किया गया है कि ये कहना दुरुस्त है कि फलां शख़्स अलमशूरा और मशवरा में अच्छा है। अलफ़रा में बयान किया गया है कि अलमशूरा की असल मशवरा थी फिर ये मशूरा में तब्दील हो गया क्योंकि इस का तलफ़्फ़ुज़ (उच्चारण) आसान है। और लैस ने कहा है: अलमशवरा, मुफअला के वज़न पर है और इसे अलशारा से अख़ज़ किया गया है और ये बयान किया गया कि मशवरा और शूरा हम मानी हैं। इसी तरह अलमशूरा और अल मशवरा का एक ही मतलब है। इस बिना पर शावरता और इस्तशरता  के मआनी भी एक ही हैं। मुख़तारुल सिहाह में बयान किया गया: अल मशवरा तुल शूरा है और अलमशूरा भी यही है । जिस वजह से हम ये कहते हैं की शावरा फिल अम्र कहना या लफ्ज़ इस्तशारा लेकर आना एक ही मतलब रखता है।

शूरा के शरई होने की बुनियाद वो हुक्म है जिस में अल्लाह (سبحانه وتعال) ने रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم को मोमिनीन से मश्वरा करने का हुक्म दिया, अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इरशाद फ़रमाया:

                                     وَشَاوِرۡهُمۡ فِى ٱلۡأَمۡرِۖ                     
और मुआमले में उन से मश्वरा करो
(आल-ए-इमरान:159)

मश्वरे के इस हुक्म में तलब (demand) मौजूद है और कोई तलब वाजिब , मंदूब, मुबाह में से कुछ भी हो सकती है और हुक्म से जुडे क़राइन ही इस का ताय्युन करते हैं।

मश्वरे का हुक्म किसी ऐसे करीने से मुंसलिक (जुडा) नहीं जो इस हुक्म के क़तई और फ़र्ज़ होने पर दलालत करते हों। बल्कि ये हुक्म ऐसे क़राइन से मुंसलिक है जो क़तईयत और फ़र्ज़ीयत को इस हुक्म से दूर कर देते हैं, ये क़राइन मुंदरजा ज़ैल (नीचे लिखे) हैं:

1) इस आयत में अल्लाह (سبحانه وتعال) ने (فِى ٱلۡأَمۡرِ) के अल्फाज़ इस्तिमाल किये, जिस का मतलब है हर मुआमले में मश्वरा करना ख़ाह वो किसी भी नौईय्यत का हो। ताहम चूँकि फ़राइज़, मुहर्रमात और शरई अहकाम, शरीयत ने ख़ुद बयान किये हैं और ख़ुद उन का ताय्युन कर दिया है, जिस में इंसानी राय की कोई गुंजाइश नहीं लिहाज़ा इन मुआमलात में मश्वरे की कोई हैसियत नहीं। शारा सिर्फ़ अल्लाह सुब्हाना-ओ-ताला की ज़ात ही है, वही हाकिम-ए-कुल है और हुक्मरानी इस के लिये ही है। अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इरशाद फ़रमाया:

إِنِ ٱلۡحُكۡمُ إِلَّا لِلَّهِۚ
हुक्म तो सिर्फ़ अल्लाह ही के लिये है
(यूसुफ़:40)

और अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इरशाद फ़रमाया:

ٱتَّبِعُواْ مَآ أُنزِلَ إِلَيۡكُم
आप صلى الله عليه وسلم के रब की तरफ़ से आप صلى الله عليه وسلم की तरफ़ जो नाज़िल किया गया उस की इत्तिबा करो
(अल आराफ़:3)

और फ़रमाया:
وَمَآ ءَاتَٮٰكُمُ ٱلرَّسُولُ فَخُذُوهُ وَمَا نَہَٮٰكُمۡ عَنۡهُ فَٱنتَهُواْ
और रसूल صلى الله عليه وسلم जो दें वो ले लो और जिस चीज़ से मना करें इस से बाज़ रहो
(अलहशर:7)

इन आयात के अलावा दूसरी बहुत सी आयात हैं जो ये क़रार देती हैं कि शरई अहकामात के मुताल्लिक़ मश्वरे की कोई हैसियत नहीं और शरई अहकामात में मश्वरे की कोई गुंजाइश नहीं। ये इस बात की तरफ़ इशारा करता है कि ये अहकामात मश्वरे की आयत में वारिद होने वाले लफ़्ज़ (الأَمْرِ) के उमूमी  मआनी (आम अर्थों) की तहज़ीस  करते हैं यानि  अर्थ को सीमित कर देते हैं। ये इस बात की तरफ़ भी इशारा है कि मश्वरा सिर्फ़ मुबाह मुआमलात पर हो सकता है। और ये करीना शूरा के हुक्म से क़तईयत और फ़र्ज़ीयत को दूर कर देता है।

2) अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इसी आयत में इरशाद फ़रमाया:

فَإِذَا عَزَمۡتَ فَتَوَكَّلۡ عَلَى ٱللَّهِ
पस जब तुम फैसला कर लो तो अल्लाह पर ही भरोसा करो
(आल-ए-इमरान159 )

यानी फैसले के इख्तियार को रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم से मंसूब किया गया है ना कि उन लोगों की तरफ़ कि जिन से मश्वरा किया जा रहा हो। ये इस बात की दूसरी दलील है कि मश्वरे का हुक्म फ़र्ज़ नहीं है।

3) रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने अपनी हयात-ए-मुबारका में कई उमूर अंजाम दिये और कई मुआमलात पर फैसला किया जैसा कि वालीयों, काज़ियों और मुंतज़मीन का तक़र्रुर, जंगी मुहिम्मात और फ़ौज के सालारों का तक़र्रुर, जंग बंदी के मुआहिदे, क़ासिदों और वफ़ूद को रवाना करना। रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने ये तमाम काम सहाबा ( رضی اللہ عنھم) से मश्वरे के बगैर अंजाम दिये। ये इस बात का तीसरा करीना है कि शूरा का हुक्म-ए-क़त्ई और वाजिब नहीं है। अगर ये फ़र्ज़ होता तो रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم इन मुआमलात में सहाबा ( رضی اللہ عنھم) से मश्वरा फ़रमाते।

चूँकि शूरा, मशवरा और इस्तिशारा फ़र्ज़ नहीं पस ये या तो मंदूब (मुस्तहब) अमल है और या फिर मुबाह। दलायल-ओ-क़राइन का जायज़ा लेने से हम ने जाना कि मश्वरा करना एक मंदूब अमल है। जो दलायल इस बात की तरफ़ इशारा करते हैं कि शूरा , मशूरा या इस्तिशारा एक मंदूब अमल है, इन में से कुछ दर्ज ज़ैल हैं:

1) अल्लाह (سبحانه وتعال) ने मोमिनीन के आपस में मश्वरे को तारीफ़ी अंदाज़ में बयान किया है। अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इरशाद फ़रमाया:

وَأَمۡرُهُمۡ شُورَىٰ بَيۡنَہُمۡ
और उन का मुआमला आपस के मश्वरे से होताहै
(अलशूरा:38)

2) रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم सहाबा किराम ( رضی اللہ عنھم) के साथ मुआमलात में कसरत से मश्वरा फ़रमाते थे। आप صلى الله عليه وسلم का कसरत से मश्वरा करना और इस का एहतिमाम (बन्दोबस्त) करना उस की अहमियत को बयान करता है। नीज़ ये मुसलमानों को इस बात की तालीम देना था कि वो आप صلى الله عليه وسلم के बाद भी मश्वरे का एहतिमाम करें। तिरमिज़ी ने अबूहुरैरह (رضي الله عنه) से  रिवायत किया कि उन्होंने बयान किया:

((ما رأیت أحداً أکثر مشورۃ لأصحابہ من رسول اللّٰہ ﷺ ))
मेंने कोई शख़्स ऐसा नहीं देखा जो रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم से ज़्यादा अपने साथियों से मश्वरा करता हो

3) अल्लाह ताला की तरफ़ से रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم को मोमिनीन से मश्वरा करने का हुक्म उस मौक़े पर आया जब अल्लाह (سبحانه وتعال) आप صلى الله عليه وسلم को मोमिनीन के साथ नरमी बरतने, उन से अफू दरगुज़र (मुआफ) करने और उन के लिये मग़फ़िरत तलब करने का हुक्म दे रहे हैं। चुनांचे इरशाद हुआ:

فَبِمَا رَحۡمَةٍ۬ مِّنَ ٱللَّهِ لِنتَ لَهُمۡۖ وَلَوۡ كُنتَ فَظًّا غَلِيظَ ٱلۡقَلۡبِ لَٱنفَضُّواْ مِنۡ حَوۡلِكَۖ فَٱعۡفُ عَنۡہُمۡ وَٱسۡتَغۡفِرۡ لَهُمۡ وَشَاوِرۡهُمۡ فِى ٱلۡأَمۡرِۖ

अल्लाह (سبحانه وتعال) की रहमत के बाइस आप صلى الله عليه وسلم उन के लिये नरम दिल हैं। और अगर आप صلى الله عليه وسلم बदज़बान और सख़्त दिल होते तो ये आप से भाग खड़े होते । पस आप उन से दरगुज़र किया करें और उन के लिये मग़फ़िरत तलब किया करें और मुआमले में उन से मश्वरा किया करें
(आल-ए-इमरान:159)

ये वो क़राइन (संकेत) हैं जो इस बात पर दलालत करते हैं कि मश्वरा करना एक मंदूब अमल है।
यानी मुबाह मुआमलात पर मश्वरा करना मंदूब है, ताहम वो मुआमलात जिन के मुताल्लिक़ क़ुरआन-ओ-सुन्नत में कोई सरिह नस वारिद ना हुई हो तो इस के मुताल्लिक़ हुक्म शरई जानने के लिये औलमा की तरफ़ रुजू किया जाएगा; और वह मुआमलात जिन के ताय्युन के लिये रिसर्च और जांच पड़ताल की ज़रूरत होती है, नीज़ तारीफ़ात,तकनीकी और फ़िक्री उमूर जिन के लिये ग़ौर-ओ-ख़ौज़ की ज़रूरत होती है, और वो मुआमलात जिन का ताल्लुक़ राय, जंगी उमूर और मंसूबा बंदी से होता है, के लिये इन उमूर के माहिरीन और तजुर्बाकार लोगों की तरफ़ रुजू किया जाएगा। और इन उमूर में अक्सरियत (majority) या अकलियत (minority) की राय की कोई हैसियत नहीं। इसके अलावा जिन लोगों से मश्वरा तलब किया जाये उन की राय पर अमल करना लाज़िम नहीं। ये बात रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के अमल से अख़ज़ की गई है जब आप صلى الله عليه وسلم ने बदर के कैदियों के मुताल्लिक़ सहाबा (رضی اللہ عنھم) की तरफ़ रुजू किया ताकि आप صلى الله عليه وسلم जंगी कैदियों से मुताल्लिक़ नाज़िल शूदा हुक्म में मौजूद मुख़्तलिफ़  मुतबादिल (विकल्प) में से किसी एक का चुनाव करें। और उसे इस बात से भी अख़ज़ किया गया है कि अबूबक्र (رضي الله عنه) और उमर (رضي الله عنه) को अपने दौर-ए-ख़िलाफ़त में जब कोई मुआमला पेश आता या कोई मुआमला फैसले के लिये पेश किया जाता और उन्हें किताब-ओ-सुन्नत में इस के मुताल्लिक़ कोई सरिह हुक्म ना मिलता तो वो बडे सहाबा (رضی اللہ عنھم) और औलमा की तरफ़ रुजू करते, और उसे इस बात से अख़ज़ किया गया है कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने बदर के मौक़े पर जगह के इंतिख़ाब के मुताल्लिक़ हब्बाब बिन मुंजिर  (رضي الله عنه) की राय को क़बूल फ़रमाया।

अगरचे मुबाह उमूर पर मश्वरा करना मंदूब अमल है, ताहम ख़लीफ़ा के लिये ये जायज़ है कि वो इस में से कुछ या तमाम उमूर को अपने ऊपर लाज़िम कर ले। लेकिन जब वो अपने आप पर किसी मुआमले को लाज़िम कर ले तो फिर वो इस पर अमल करने का पाबंद हो जाता है और इस पर ये वाजिब होता है कि वो इस मुआमले पर मश्वरे के मुताबिक़ अमल करे। ये इस बात से अख़ज़ किया गया है कि जब उसमान (رضي الله عنه) को इस शर्त के साथ ख़लीफ़ा के ओहदे की पेशकश की गई कि वो अबूबक्र (رضي الله عنه) और उमर (رضي الله عنه) के तरीके पर चलेंगे तो आप ने उसे क़बूल किया। ये सहाबा (رضی اللہ عنھم ) की मौजूदगी में हुआ और किसी ने इस पर ऐतराज़ नहीं किया।

जब ख़लीफ़ा मश्वरे के लिये मजलिसे उम्मत की तरफ़ रुजू करे तो इस के लिये अमली उमूर में और इन मुआमलात में जिन के लिये रिसर्च और जांच पड़ताल की ज़रूरत नहीं होती, मजलिस-ए- उम्मत की अक्सरियत की राय पर अमल करना लाज़िम होता है। इस का इतलाक़ हुकूमत, तालीम, सेहत, तिजारत, सनअत-ओ-हिर्फ़त (उद्योग), ज़राअत (खेती बाडी) वगैरह से मुताल्लिक़ रियासत के इंदौरनी मुआमलात पर होता है। इन उमूर से मुताल्लिक़ ख़लीफ़ा के इक़दामात (कार्यवाहियों) पर मजलिस उम्मत जो मुहासिबा करती है, इस पर भी इस बात का इतलाक़ होता है। उसे इस बात से अख़ज़ किया कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने ग़ज़वा उह्द के मौक़ा पर लोगों की अक्सरीयती राय पर अमल किया कि मुशरिकीन के ख़िलाफ़ मदीना से बाहर निकल कर लड़ना चाहिये, अगरचे आप صلى الله عليه وسلم और बडे सहाबा (رضی اللہ عنھم ) की राय ये थी कि मदीना के अन्दर रह कर ही मुशरिकीन का मुक़ाबला किया जाये और मदीना से बाहर ना निकला जाये और रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم की इस बात से भी अख़ज़ किया गया जब रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने अबूबक्र (رضي الله عنه) और उमर (رضي الله عنه) से कहा:

((لو اجتمعتما في مشورۃ ما خالفتکما))
अगर तुम दोनों किसी मुशावरती अम्र पर इत्तिफ़ाक़ करो तो मैं तुम से इख्तिलाफ नहीं करूंगा  
(अहमद ने उसे इब्ने ग़नम अल अशअरी से रिवायत किया)

ताहम अगर ख़लीफ़ा दूसरे मुआमलात में मजलिस उम्मत के साथ मश्वरा करे मसलन तकनीकी और फ़िक्री मुआमलात कि जिन के लिये गहरी नज़र और जांच पड़ताल की ज़रूरत होती है या फिर ऐसे मुआमलात जिन का ताल्लुक़ अस्करी (फौजी) उमूर और मंसूबा बंदी से हो, तो इस सूरत में ख़लीफ़ा पर अक्सरीयती राय पर अमल करना लाज़िम नहीं होता और फैसला करने का इख्तियार ख़लीफ़ा के हाथ में होता है। उसे इस बात से अख़ज़ किया गया है कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने ग़ज़वा बदर के मौक़े पर जगह के इंतिख़ाब में हब्बाब बिन मुंजिर की राय को क़बूल किया और इस मुआमले पर दूसरे सहाबा (رضي الله عنه) से  कोई मश्वरा नहीं किया। इसी तरह अबूबक्र (رضي الله عنه) ने ख़लीफ़ा बनने के बाद, अक्सर सहाबा की इस राय को रद्द कर दिया कि मुर्तदीन और ज़कात देने से इनकार करने वालों के ख़िलाफ़ नहीं लड़ना चाहिये। इस बात का इतलाक़ उन मुआमलात से मुताल्लिक़ ख़लीफ़ा के इक़दामात (steps) के बारे में मजलिस उम्मत के एहतिसाब पर भी होता है और इस मुआमले में अक्सरियत की राय पर अमल करना ख़लीफ़ा पर लाज़िम नहीं होता।

जहां तक उन अहकाम-ए-शरीयत और क़वानीन का ताल्लुक़ है कि ख़लीफ़ा जिन की तबन्नी करना चाहता हो, तो मजलिस-ए-उम्मत की राय मालूम करने के लिये उसे क़वानीन को मजलिसे उम्मत के सामने रखना जायज़ है। ताहम क़वानीन की तबन्नी के मुताल्लिक़ मजलिस उम्मत की राय पर अमल करना ख़लीफ़ा पर लाज़िम नहीं चाहे ये राय अक्सरियत की हो या फिर अकलियत की। इस मुआमले में फैसले का इख्तियार ख़लीफ़ा के पास होता है क्योंकि अहकाम-ए-शरीयत और क़वानीन की तबन्नी करना सिर्फ़ ख़लीफ़ा की ज़िम्मेदारी है, क्योंकि सहाबा (رضی اللہ عنھم ) के इजमा से ये बात वाज़िह है। उसे इस बात से भी अख़ज़ किया गया है कि जब इराक़ की फ़तह के बाद उमर (رضي الله عنه) ने इराक़ की ज़मीन के मुआमले में मुसलमानों से मश्वरा किया तो मुसलमानों ने उमर (رضي الله عنه) के फैसले पर इत्तिफ़ाक़ किया।

मजलिस उम्मत के अराकीन (members) का चुनाव:
मजलिसे उम्मत के अराकीन मुंतख़ब (चयनित) किये जाते हैं और वो मुक़र्रर करदा नहीं होते। वो लोगों की राय की वकालत करते हैं और वकील का इंतिख़ाब (चुनाव) उन लोगों को करना चाहिये जिन की वो वकालत करता हो ना कि वकील को मुवक्किल पर मुसल्लत किया जाये। मजलिसे उम्मत के अराकीन इन्फ़िरादी (व्यक्तिगत) और इजतिमाई (सामुहिक) तौर पर लोगों की राय की नुमाइंदगी करते हैं और एक बड़े इलाक़े में लोगों और लातादाद अफ़राद की राय मालूम करना उन की तरफ़ से अपने नुमाइंदों के इंतिख़ाब के बगैर मुम्किन नहीं। रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने मश्वरा के लिये लोगों का इंतिख़ाब उन की काबिलियत, इस्तिदाद और शख्सियत की बुनियाद पर नहीं किया था बल्कि आप صلى الله عليه وسلم ने दो बुनियादों पर उन्हें मुंतख़ब किया था:

पहला: वो अपने क़बीलों के सरदार थे, इस बात से क़ता नज़र कि उन की काबिलियत और इस्तिदाद क्या थी।

दूसरा : वो मुहाजरीन और अंसार की नुमाइंदगी करते थे।

अहल शूरा के वजूद की वजह लोगों की नुमाइंदगी है। लिहाज़ा मजलिस-ए-उम्मत के अराकीन के इंतिख़ाब की बुनियाद लोगों की नुमाइंदगी होना चाहिये। जैसा कि अंसार और मुहाजरीन के नुमाइंदगान के चुनाव के मौक़े पर किया गया।

अनगिनत लोग और गिरोहों की नुमाइंदगी इंतिख़ाबात (चुनावों) के बगैर मुम्किन नहीं। लिहाज़ा मजलिसे उम्मत के अराकीन मुंतख़ब करदा ही होने चाहिऐं। जहां तक इस बात का ताल्लुक़ है कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने बज़ात-ए-ख़ुद उन लोगों का इंतिख़ाब किया जिन से वो मश्वरा किया करते थे, ये इस वजह से था कि वो जगह जहां पर मुहाजरीन और अंसार बसते थे यानी मदीना तैय्यबा ,वो एक छोटा सा इलाक़ा था और ये कि आप صلى الله عليه وسلم मुसलमानों से वाक़िफ़ थे। इस के बरख़िलाफ़ बैअते उक़बा सानिया में जिन मुसलमानों ने रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم को बैअत दी,आप صلى الله عليه وسلم उन्हें नहीं जानते थे, यही वजह है कि आप صلى الله عليه وسلم ने लोगों में से सरदार चुनने का मुआमला उन पर छोड़ दिया और कहा:

((أخرجوا إلیَّ منکم اثني عشر نقیباً لیکونوا علی قومہم بما فیہم))
अपने में से बारह सरदार मुंतख़ब करो जो अपने और अपने लोगों के ज़िम्मेदारहों
(इसे इब्ने हिशाम ने काब बिन मालिक (رضي الله عنه) से  रिवायत किया)


पस साबित ये हुआ कि मजलिसे उम्मत के अराकीन लोगों की राय की नुमाइंदगी करते हैं और वो इल्लत (शरई वजह) कि जिस की बिना पर मजलिसे उम्मत क़ायम की जाती है , ये है कि मजलिस राय को बयान करने और हुक्मरानों का मुहासिबा करने में अफ़राद और गिरोहों की नुमाइंदगी करे। और अगर ये लोग नामालूम हों तो ये इल्लत पूरी नहीं होती, जब तक कि आम इंतिख़ाबात (चुनाव) ना कराए जाएं। इस से ये साबित हुआ कि मजलिसे उम्मत के अराकीन मुंतख़ब करदा होने चाहिऐं और ये मुक़र्रर करदा नहीं होने चाहिऐं।
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