मध्यकालीन भारत में मुस्लिम शासकों की धार्मिक नीति
शिवाजी
बाह्य और आंतरिक सुरक्षा
एक नाम मात्र की रक़म जो जज़िया कहलाती थी, हुकूमत को देकर गैर मुसलमान इस्लामी हुकूमत के संरक्षण में अपनी व्यक्तिगत सुरक्षा कायम रख सकते थे। हर मुसलमान अनिवार्य फौजी खिदमत के लिए मजबूर था। गैर मुसलमान जज़िया देकर फौजी सेवा से मुक्त हो सकता था। गैर मुसलमानों में भी पुजारी, विध्यार्थी, बेकार, असमर्थ, भिक्षु, अपाहिज, लँगडे, लूले, अन्धे स्त्री और बच्चे जज़िया कर से मुक्त थे जिनकी सम्पत्ती 200 दिरहम से कम होती थी वो भी जज़िया कर से मुक्त था। जो गैर-मुसलमान फौजी सेवा के लिए राज़ी हो जाते थे वह भी जज़िया कर से मुक्त थे।
अल्लामा शिबली ने अपनी किताब में मुसलमानों और गैर-मुसलमानों के बीच इस तरह की बहुत सी सन्धियों की नकलें दी हैं, जिनमें मुसलमानों की इस अनिवार्य फौजी सेवा और उसके बदले में उनके जज़िया वसूल करने का हक़, इन दोनों का ज़िक्र है। सन 12 हिजरी में खालिद बिन वलीद ने गैर-मुसलमानों के साथ जो सन्धि की उसमें यह शब्द आते हैं “सलूबा बिन नस्तोमा” और आपके क़बीले वालों के साथ मैनें जज़िया लेने और आपकी हिफाजत करने का अहदनामा किया है। इसलिए आपकी हिफाजत करना और आपके जान माल की सलामती हमारा फर्ज़ है। जब तक हम अपने इस फर्ज़ को पूरा करेंगें तब तक ही हमें जज़िया लेने का हक़ है। जब हम इस फर्ज़ को पूरा न कर सकेगें तो हमें जज़िया लेने का कोई हक़ नहीं होगा।
एक शायर ने बडे दर्द के साथ लिखा है:
तुम्हें ले दे के, सारी दास्ताँ में, याद है इतना;
कि आलमगीर हिन्दूकुश था, ज़ालिम था, सितमगर था”।
इस फरमान के ज़रिए हुक्म दिया जाता है कि महंत बालकदास पिसरगोपी को बराए मसारिफ पूजा व भोग बालाजी तीन सौ तीस बीघा जमीन इनायत की जाती है। करोडियों और जागीरदारों को मुतनब्बे किया जाता है, चाहें मौजूदा हों और चाहें मुस्तक़बिल में होने वाले हों, मेरे हुक़्म की खिलाफवर्जी न करें और ना ही मेरे हुक़्मनामों में किसी किस्म का इन्हिराफ करें। यह तीन सौ तीस बीघा जमीन हर क़िस्म के लगान से आजाद होगी और कोई दूसरा इसमें शरीक नहीं माना जाएगा। अगर किसी दूसरी जगह भी इसकी कोई जायदाद है तो उसका एतबार नहीं किया जाये। इसी फरमान में जारी राजाज्ञा में कहा गया कि शहंशाह का आदेश है कि- इलाहाबाद सूबे के कालिंजर परगना के अंतर्गत चित्रकूट पुरी के निर्वाणी महंत बालकदास को श्री ठाकुर बालाजी महाराज के पूजा और भोग के लिए बिला लगानी (माफी) आठ गाँव-देवखरी, हिनौता, चित्रकूट, रोदेरा, सिरिया, पढेरी, जरवा और दोहरिया-दान के तौर पर दिए गए हैं और राठ परगना के जाराखाड गाँव की डैढ सौ बीघा जमीन और अमरावती गाँव् की एक सौ अस्सी बीघा जमीन (कुल तीन सौ तीस बीघा) बिला लगान और कोनी-प्रोष्ठा परगना की लगान वसूली से एक रूपया रोजाना अनुदान मंजूर किया जाता है।
सम्राट औरंगज़ेब भारत के कठोर सम्राटों में गिना जाता है। लेकिन जहाँ एक ओर उसने अपने पिता शाहजहाँ को क़ैद में रखा और भाईयों को क़त्ल करवाया, वहाँ दूसरी ओर वह त्याग, सदाचार और कठोर जीवन की प्रतिमूर्ति समझा जाता है। यदि एक और वह स्वेच्छाचारी था तो दूसरी और गरीबी और नम्रता से भरा हुआ। प्रजा की गाढी कमाई का एक पैसा भी व्यक्तिगत स्वार्थ के लिये खर्च करने को वह पाप समझता था। दुनिया के बडे से बडे सम्राटों में उसकी गिनती थी। उसका खजाना हीरे जवाहरात से लबालब था किंतु अधिकतर नमक और बाजरे की रोटी ही पर वह अपना जीवन काटता था। विलानागा उसने जीवन भर गंगाजल का ही व्यवहार किया। वह अपनी सल्तनत को ‘ईशवरीय मार्ग पर अर्पण’ मानता था। मरने से पहले सम्राट आलमगीर ने जो वसीयत की है, उसे देखकर हम इस महान सम्राट के अंतिम दिनों की मानसिक स्थिति को भलि भाँति समझ सकते हैं। वसीयत की धाराएँ ये हैं-
धार्मिक मामलों में भारत के मुसलमान बादशाह सत्रह्वीं सदी के जर्मनी की तरह कभी इस उसूल पर नहीं चले कि राजा का मज़हब ही देश की जनता का मज़हब होना चाहिये। बकल अपनी “हिस्ट्री आफ सिविलिज़ेशन“ में लिखता है- “अपने शासनकाल के अंत के दिनों में चार्ल्स पांचवाँ बडे घमंड के साथ कहा करता था कि मैनें अपने देश की अपेक्षा हमेशा अपने धर्म को प्राथमिकता दी है। मेरी सबसे पहली और सबसे बडी आकांक्षा यही रही कि ईसाई धर्म के हितों को सर्वोच्च वरीयता दी जाए।
“उस ज़माने के विशवस्त लेखकों के अनुसार, फिलिप के शासनकाल में नीदरलेन्ड्स के अन्दर पचास हज़ार से एक लाख व्यक्ति केवल अपने धार्मिक विशवासों के कारण मारे गए। 1520 के बीच उसने नए नए कानून इस उद्धेश्य से जारी किये कि जिन लोगों पर यह जुर्म साबित हो जाए कि वह बादशाह के धार्मिक सिद्धांतों को नहीं मानते उन्हें या तो क़त्ल कर दिया जाये या जिन्दा जला दिया जाये या ज़िन्दा दफन कर दिया जाये।
डच लोग सुधारकों के सम्प्रदाय में शामिल होना चाहते थे। बहुत से डच शामिल भी हो गये। इस पर बादशाह फिलिप (1555-1598 ईसवी) ने उनके साथ बडे अत्याचार शुरू कर दिए। यह अत्याचार तीस वर्ष तक जारी रहा। उसने हुक्म दे दिया कि जो व्यक्ति नये सम्प्रदाय के उसूलों का खन्डन करने से इनकार करे उसे जिंदा जला दिया जाये।
एल्फिंस्टन ने अपनी “हिस्ट्री आफ इंडिया” में लिखा है:
“शेरशाह की फौज में हिन्दुओं को बडे-बडे ओहदे दिये जाते थे। शेरशाह की यह नीति उसके शुरू के दिनों से ही चली आ रही थी। उसके अच्छे से अच्छे सेनापतियों में से एक ब्रह्मजीत गौड था। चौसा और बिलग्राम की लडाई के बाद ब्रह्म्जीत गौड को हुमायूँ का पीछा करने भेजा गया।“
आमतौर पर यह कहा जाता है कि औरंगज़ेब ने अपनी अनुदारता से अपनी हिन्दू रियाया को नाराज़ किया किंतु एल्फिंस्ट्न ने औरंगज़ेब के शासनकाल के सम्बन्ध में लिखा है: ”यह पता नहीं चलता कि किसी एक हिन्दू को भी अपने मज़हब की वजह से मौत की सज़ा या कैद की सज़ा बर्दाश्त करनी पडी हो। या किसी एक व्यक्ति को भी कभी अपने पूर्वजों के मज़हब पर खुले अमल करने के लिए जवाब तलब किया गया हो।
एल्फिंस्ट्न ने मुस्लिम प्रशासन के सम्बन्ध में लिखा है कि हिन्दुओं को उनके धर्मपालन में किसी प्रकार की बाधा नहीं पहुँचाई जाती थी। मन्दिरों और धर्मशालाओं की रक्षा की जाती थी। वृन्दावन, गोवर्धन और मथुरा के मन्दिरों को राजकीय सहायता दी जाती थी। शहंशाह अहमदशाह के एक दस्तखती फरमान से यह मालूम होता है कि मुसलमान शासकों की ओर से मन्दिर के खर्च के लिये रुपया भी मिलता था।
अकबराबाद सूबे के अछ्नेरा नामक क़स्बे के किसानों और जमींदारों के नाम शहंशाह अहमदशाह के
फरमान के जरिए “17 बीघा जमीन बिला लगान (माफी) शीतलदास वैरागी (मन्दिर के पुजारी) के नाम धर्मादे में दी जाती है, जिससे वह देवता के भोग और ठाकुर जी के खर्च का बोझ सम्भाल सकें। अछनेरा बाजार के चौधरी को यह मालूम होना चाहिए कि हर एक गाडी अनाज पर पाव सेर ठाकुर जी के लिए रखा जाए और वैरागी जी को जरूर मिल जाए।
“खुलासतुल तवारीख” के लेखक बटाला के सुजानराय ने थानेश्वर के सालाना हिन्दू मेले और नहान के सम्बन्ध में एक दिलचस्प घटना बयान की है:
जब सिकन्दर लोदी ने इस मेले को बन्द करने का इरादा जाहिर किया, तो दरबार के मशहूर मौलवी और आलिम फाजिल मियाँ अब्दुल्ला अजोधी ने इस बात का जोरदार विरोध करते हुए कहा कि मन्दिरों का गिरवाना और नदी और तालाब किनारे पुराने ज़माने से होने वाले नहान को बन्द करना क़ुरान और शरीअत के खिलाफ है। सिकन्दर लोदी गुस्से से लाल होकर एक नंगी तलवार लेकर उसपे झपट पडा कि “तू बुतपरस्तों की तरफदारी करता है?” उस आलिम ने हिम्मत के साथ जवाब दिया “मैं बादशाह सलामत को शरीअत का हुक़्म बता रहा था। अब आपकी मरज़ी है, चाहे मानें या न मानें।“ बादशाह के उपर इस बात का बडा असर हुआ। उसका गुस्सा शांत हुआ और फिर कभी उसने हिन्दू मेले को बन्द करने का इरादा न किया।“
मुस्लिम शासनकाल में हिन्दुओं और मुसलमानों, सभी को नागरिकता के पूरे अधिकार प्राप्त थे। लोगों के मालिकाना हक़ की कद्र की जाती थी। यदि कोई जमीन ली जाती थी तो मुआविज़ा दिया जाता था, जैसे ताज के लिए ली गई जमीन का मुआविज़ा दिया गया। इंसाफ के मामले में हिन्दू और मुसलमानों में कोई फर्क़ नहीं था। जहांगीर के शासनकाल में एक हिन्दू दुकानदार और एक सय्यद मुसलमान में किसी सामान के दाम या किसी मजदूर की मजदूरी के बारे में झगडा हो गया। थोडी देर में इस आपसी झगडे ने आपसी बलवे की शक्ल ले ली। कुछ लोग मारे गए जिनमें गिरधर कछ्वाह नामक एक सरदार भी थे। बारहा के सय्यद कबीर पर मुल्जिम होने का शक़ किया गया। तुरंत कैद करके वह जैल भेज दिया गया और जाँच पडताल के बाद 1018 हिजरी में उसको फाँसी दे दी गयी।“ औरंगज़ेब भी किसी को बलात मुसलमान बनाना पसन्द नहीं करता था। “मासरये आलमगीर” में उसकी हुकूमत में मुसलमान बनाए गये लोगों की फेहरिस्त है। इसे देखकर ऐसे सब बयान, कि औरंगज़ेब तलवार के बल पर मुसलमान बनाता था, झूठे और बेबुनियाद साबित होते हैं।
जलालुद्दीन खलजी ने कहा-“ हमेशा से हिन्दू पूजा करते आ रहे हैं। वह अपना मज़हबी काम आजादी से करते हैं। मैं उन्हें हमेशा अपने महल के पास ही जमुना के किनारे गाते-बजाते सुनता हूँ।“
सुलतान जलालुद्दीन ने हिन्दुओं की तरफ से अपने नरम रूख को बदलने से साफ इंकार कर दिया। बरनी ने लिखा है कि गद्दी पर बैठने से पहले एक हिन्दू (मन्दहार) ने जलालुद्दीन खलजी पर वार करके उसे चोंट पहुँचाई पर उसने उससे कोई बदला नहीं लिया और गद्दी पर बैठने के बाद जलालुद्दीन ने अपने उपर हमला करने वाले इस हिन्दू को मलिक खुर्रम के मातहत एक लाख जीतल तंख्वाह पर वकीलदार मुकर्रर किया।
“तारीख-ए-फिरोजशाही,” “फत्वा-ए-जहांगीरी,” “रिहला” और “मसालिकुल अबसार” आदि ग्रंथों को गौर से पढने से यह मालूम होता है कि यह इतिहास की द्रृष्टि से बिलकुल गलत है कि मुसलमानी हुकूमत में हिन्दुओं की हालत लकडहारों और पानी भरने वालों की सी थी। रिहला ने इसे बिलकुल गलत साबित किया है। इब्ने बतूता ने लिखा है कि एक हिन्दू सरदार ने काज़ी की अदालत में सुलतान मुहम्मद बिन तुगलक़ के खिलाफ मुक़दमा दायर किया। मुहम्मद बिन तुगलक़ बुलाया गया और बक़ायदा मुक़दमे की सुनवाई के बाद हिन्दू के पक्ष में फैसला हुआ और सुलतान मुहम्मद बिन तुगलक़ ने फैसले के मुताबिक़ वादी को संतुष्ट किया। इससे यह साबित होता है कि मुसलमानी हुकूमत में हिन्दू अपनी शिकायतों को दूर करा सकते थे। इब्ने बतूता के ज़रिये हमें मालूम होता है कि क़ायदे क़ानून को मानने वाले हिन्दुओं और मुसलमानों में अच्छा रिशता था।
लहौर के मुसलमान नवाब अमीर हुलाजन की गुलचन्द नाम के एक हिन्दू से दोस्ती थी। मुहम्मद बिन तुगलक़ ने एक हिन्दू रतन को सिन्ध का सूबेदार मुक़र्रर किया था। सुल्तान ने बहुत से हिन्दुओं को इसी तरह मदद दी थी। फरिश्ता ने लिखा है कि गुलबर्गा किले के रक्षक मीरन राय शाही फौज के बहुत विशवासपात्र अफ्सर थे। बरनी से मालूम होता है कि हिन्दू सरदार मुसलमान अमीरों के कन्धे से कन्धा भिडाकर चलते थे। हिन्दू सरदारों के पास घोडे थे, वह शानदार मकानों मे रहते थे, भडकीले कपडे पहनते थे और गुलाम रखते थे। राजधानी में भी हिन्दू सम्मान और इज़्ज़त से देखे जाते थे और उन्हें “राय” “ठाकुर” “महंत” और “पंडित” आदि कहकर आदर से पुकारा जाता था। उन्हें अपने धार्मिक ग्रंथों और संस्कृत पढने की पूरी आजादी थी।
फिरोजशाह तुगलक़ के समकालीन अफीक़ नामक इतिहासकार ने उसकी हुकूमत में रैयत की खुशहाली का बयान करते हुए लिखा है- “उनकी औरतें आमतौर से सोने और चाँदी के गहने पहनती थीं। हर रैयत के यहाँ साफ सुथरी फुलवाडी और अच्छे पलंग होते थे। “कट्टर से कट्टर इतिहासकार इस बात को मानेगा कि फीरोजशाह तुगलक़ की हुकूमत में हिन्दुओं और मुसलमानों, दोनों को समान लाभ था।
मुर्शिद कुली खाँ ने, जिस ज़माने में वह बंगाल के अन्दर औरंगज़ेब का वायसराय था, अपने माल के सब अफ्सर और वज़ीर विशवस्त हिन्दू ही मुकर्रर किए। वह सब बातों में अपने इन हिन्दू सलाहकारों की राय से ही काम किया करता था। ब्रेड्ले बर्ट ने लिखा है कि मुरशिद कुली खाँ का वज़ीर जसवंत राय बहुत बुद्धिमान शासक था और माल और खज़ाने के मोहकमों का बहुत बडा जानकार था और देश की तिजारत को बढाने की उसने शक्तिभर कोशिश की। मुर्शिद कुली खाँ ने उँचे से उँचे फौजी ओहदे भी हिन्दुओं को दे रखे थे। लाहोरीमल और दलीप सिंह उसके मशहूर सेनापति थे। जमींदारों में से रामजीवन, दयाराम और रघुराम समय समय पर बहुत जिम्मेवारी के सैनिक पदों पर रह चुके थे।इतिहास से साफ पता चलता है कि 13 वीं सदी से लेकर प्लासी की लडाई तक मुस्लिम शासनकाल में बंगाल के हिन्दुओं को कभी भी यह महसूस करने का मौका नहीं मिला कि उनके उपर किसी विदेशी की हुकूमत है।
निराधार आरोपों का शिकार टीपू सुलतान:
बिना स्वतंत्र शोध किये हुए महामहोपाध्याय डाक्टर हरप्रसाद शास्त्री ने अपनी इतिहास की पोथी में लिख दिया कि तीन हज़ार ब्राह्म्णों ने इसलिए आत्महत्या कर ली चूँकि टीपू सुल्तान उन्हें बलपूर्वक मुसलमान बनाना चाहता था। प्रो. श्रीकांतिया ने अपने शोधपूर्ण गवेषणा से यह सिद्ध किया है कि टीपू सुल्तान पर यह एक झूठा और बेबुनियाद आरोप था। उन्होनें 156 मन्दिरों की तालिका दी है जिन्हें टीपू सुल्तान ने जागीर दी थी। टीपू अंग्रेजी हुकुमत का परम शत्रु था। अंग्रेजों से वीरतापूर्वक लडते हुए उसे वीरगति प्राप्त हुई। कहीं टीपू का जीवन दूसरे स्वतंत्र्ताप्रेमियों के लिए आदर्श ना बन जाए इसलिए फर्ज़ी एतिहासिक ग्रंथों की रचना कर उसे धर्मान्ध घोषित किया गया।
शिवाजी
औसत दर्जे के पढे लिखे लोगों का यह आम विचार है कि शिवाजी इस्लाम का दुश्मन था, और वह मुसलमानों का नामोनिशान मिटाकर भारत में शुध्द हिन्दू साम्राज्य कायम करना चाहता था। शिवाजी में मज़हबी तरफदारी बिलकुल नहीं थी। उसका साम्राज्य शुध्द भारतीय साम्राज्य था। उसमें हिन्दू, मुसलमान दोनों को यक़्साँ अधिकार थे। उसका साम्राज्य मराठा साम्राज्य था, जिसके संरक्षण में सब धर्म वाले अमन और मुहब्बत से रहते थे और जिसमें हिन्दू मुसलमान का कोई फर्क नहीं था।
शिवाजी के निजी सेक्रेटरी मुल्ला हैदर थे। शिवाजी के सारे खुफिया दस्तावेज़ उसी के क़ब्ज़े में रहते थे। शिवाजी की सारी खत-किताबत उसी के सुपूर्द थी। शिवाजी की मृत्यु तक उसने वफादारी के साथ शिवाजी की नौकरी की। मगर शिवाजी के बेटे सम्भाजी की बद्सुलूकी से मुल्ला हैदर दिल्ली चला गया। वहाँ मुगल दरबार ने उसे सदर क़ाज़ी के ओहदे पर बिठाया। एक मुसलमान फर्राश मदारी शिवाजी के साथ आगरा गया और उसी की मदद से शिवाजी आगरे के क़िले से बच कर निकल सके। शिवाजी के अफ्सरों और कमांडरों में बहुत से मुसलमान थे।
कुछ मराठा इतिहासकारों ने यह साबित करने की कोशिश की है कि शिवाजी का मक़सद हिन्दू-पद-पादशाही कायम करना था। लेकिन “पूना-मज़हर” जिसमें शिवाजी के दरबार की कारवाइयाँ दर्ज हैं, उसमें सन 1657 में शिवाजी के अफसरों और जजों को मुकर्रर किया उनमें क़ाजी और नायब क़ाजियों को मुकर्रर का भी ज़िक्र है। जब मुस्लिम रियाया के मुकदमें पेश होते तो शिवाजी मुस्लिम काजियों के मशवरे से फैसले देते थे। शिवाजी के मशहूर नेवल कमान्डरों में दोलत खां और दरिया खां सहरंग थे। जिस वक़्त वे लोग पदम दुर्ग की हिफाज़त में लगे हुए थे उस वक़्त सिद्दि की फौज ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया। शिवाजी ने अपने सूबेदार जिवाजी विनायक को उन्हें रसद और रुपया भेजने की हिदायत दी, जिसे उसने वक़्त पर नहीं भेजा। इस पर शिवाजी ने उसे बरखास्तगी और क़ैद का हुक़्म देते हुए लिखा कि- “तुम समझते हो कि तुम ब्राहम्ण हो इसलिए मैं तुम्हें तुम्हारी इस दगाबाजी के लिए माफ कर दूँगा। तुम ब्राह्मण होकर भी दगाबाज़ निकले और तुमने सिद्दी से रिश्वत ले ली। लेकिन मेरे नेवल कमाँडर कितने वफादार निकले कि अपनी जान पर खेलकर एक मुसलमान सुल्तान के खिलाफ उन्होंने मेरे लिए बहादुराना लडाई लडी।“ खुद औरंगज़ेब के शिवाजी के नाम लिखे हुए पाँच पत्र अभी तक मौजूद हैं और सतारा के अजायबघर में पारसनीय के संग्रह में सुरक्षित हैं। इनमें से कई पत्र अफजल खाँ के वध के बाद लिखे गए थे और इन सब पत्रों में औरंगज़ेब ने शिवाजी को “मतीउल इस्लाम” अर्थात “इस्लाम का आज्ञाकारी” लिखा है। इन सब प्रमाणों के रहते हुए क्या कोई भी समझदार आदमी इस नतीजे पर पहुँच सकता है कि शिवाजी मुसलमानों से घृणा करते थे, उनका नामोंनिशान मिटा देना चाहते थे और भारत में शुध्द हिन्दू राज की स्थापना करना चाहते थे?
बाह्य और आंतरिक सुरक्षा
खलजियों के उत्थान के लगभग 60 वर्ष पूर्व बर्बर मंगोल भारत की सरहद पर बवंडर की तरह मंडरा रहे थे। उन्होंने आमू दरिया और सीर दरिया के दोआब के इलाके अर्थात तुर्किस्तान, ईरान और अफगानिस्तान के समस्त समृद्ध शहरों को बरबाद कर दिया था। चंगेज़ खाँ और हुलाकू के बर्बर आक्रमणों से एशिया और यूरोप के देश थर्रा रहे थे। वह जहाँ जाते थे, पुरूषों को क़त्ल करते थे और औरतों को दासी बना लेते थे। क़त्ले आम से उन्हें खुशी मिलती थी। जो गिरोह मंगोलों के इस तूफान को रोक देता वही समस्त भारत के धन्यवाद का पात्र होता। हिन्दूओं की सरदारी राजपूतों के हाथ में थी। किंतू उनमें आपस में इतनी फूट थी और ग्रहयुद्ध से उन्हें इतना प्रेम था कि वह न तो मंगोलों से भारत की रक्षा के लिए लोगों को इकट्ठा कर सकते थे और न भीतरी प्रबन्ध का ही भार ले सकते थे।
वह राजपूत नहीं, मुसलमान थे जिन्होनें मंगोलों के आक्रमण से भारत की रक्षा की। अलाउद्दीन खलजी के समय मुसलमानों ने पिछले अनुभव को काम मे लाकर मंगोलों के आक्रमणों को रोक दिया। उसके बाद यह स्वभाविक था कि अलाउद्दीन खलजी के नेतृत्व में भारत में केन्द्रीय सत्ता संगठित होती।“
दूसरा महत्वपूर्ण कदम जो अलाउद्दीन ने उठाया वह देश के आंतरिक़ सुशासन का था। शहाबुद्दीन के हमले से सदियों पहले ग्राम पंचायतों का प्रबन्ध छिन्न-भिन्न हो चुका था। कानून और रिवाज की जगह स्वेच्छाचारिता ने ले ली थी। ऐसे व्यापक कुशासन के ज़माने में मुखिया लोग, यह देखकर कि कोई बडी शक्ती उनको दबाने वाली नहीं है, गाँव में खुदमुख्तार बन बैठे थे और गरीब रियाया को सताना शुरू कर दिया था। इन जातियों में उँची जाति के हिन्दू प्रमूख थे। ऐसे हालात में एक बलवान हुकूमत ही गरीब क़ाश्तकारों को मुखियों के पंजों से छुडा सकती थी। भारतीय जनता को इन मुखियों से छुडाने का श्रेय श्री अलाउद्दीन खलजी को है। उसने इन उच्च जातिय मुखिया सामंतों के अधिकार छीनकर उनकी स्वेच्छाचारिता का अंत कर दिया और इस तरह देश के आंतरिक प्रशासन को दृढ करके आंतरिक सुरक्षा को भी मजबूत किया।
जज़िया
जज़िया
एक नाम मात्र की रक़म जो जज़िया कहलाती थी, हुकूमत को देकर गैर मुसलमान इस्लामी हुकूमत के संरक्षण में अपनी व्यक्तिगत सुरक्षा कायम रख सकते थे। हर मुसलमान अनिवार्य फौजी खिदमत के लिए मजबूर था। गैर मुसलमान जज़िया देकर फौजी सेवा से मुक्त हो सकता था। गैर मुसलमानों में भी पुजारी, विध्यार्थी, बेकार, असमर्थ, भिक्षु, अपाहिज, लँगडे, लूले, अन्धे स्त्री और बच्चे जज़िया कर से मुक्त थे जिनकी सम्पत्ती 200 दिरहम से कम होती थी वो भी जज़िया कर से मुक्त था। जो गैर-मुसलमान फौजी सेवा के लिए राज़ी हो जाते थे वह भी जज़िया कर से मुक्त थे।
अल्लामा शिबली ने अपनी किताब में मुसलमानों और गैर-मुसलमानों के बीच इस तरह की बहुत सी सन्धियों की नकलें दी हैं, जिनमें मुसलमानों की इस अनिवार्य फौजी सेवा और उसके बदले में उनके जज़िया वसूल करने का हक़, इन दोनों का ज़िक्र है। सन 12 हिजरी में खालिद बिन वलीद ने गैर-मुसलमानों के साथ जो सन्धि की उसमें यह शब्द आते हैं “सलूबा बिन नस्तोमा” और आपके क़बीले वालों के साथ मैनें जज़िया लेने और आपकी हिफाजत करने का अहदनामा किया है। इसलिए आपकी हिफाजत करना और आपके जान माल की सलामती हमारा फर्ज़ है। जब तक हम अपने इस फर्ज़ को पूरा करेंगें तब तक ही हमें जज़िया लेने का हक़ है। जब हम इस फर्ज़ को पूरा न कर सकेगें तो हमें जज़िया लेने का कोई हक़ नहीं होगा।
अल्लामा शिबली के अनुसार, जज़िया से जो कुछ रूपया वसूल होता था वह फौज के लिए सामान खरीदने में, सरहदों की सुरक्षा में और किलेबन्दी करने में खर्च होता था। जज़िया की दर ढाई फ्रैंक सालाना से 30 फ्रैंक सालाना तक होती थी।
जो मुसलमान फौजी खिदमत करने में लाचारी प्रकट करते थे उनसे भी उसी तरह जज़िया वसूल किया जाता था जिस तरह गैर-मुसलमानों से। मिसाल के तौर पर, मिस्र में वहाँ के मुसलमानों ने फौजी खिदमत से बरी किये जाने की दरख्वास्त की तो उनसे बजाए फौजी खिदमत के जज़िया वसूल किया जाने लगा।
सम्राट बाबर का वसीयतनामा “अल्लाह के नाम के साथ”
ऐ मेरे फरज़न्द, सल्तनत के स्थायी रखने की गरज़ से यह वसीयतनामा लिखा गया है। हिन्दुस्तान का मुल्क़ भिन्न-भिन्न धर्मों का गहवारा है। उस अल्लाह की तारीफ है जो न्यायवान, दयावान और महान है कि जिसने तुझे बादशाही बख्शी है। यह मुनासिब है कि तू अपने दिल से सभी धर्मों की तरफ अगर कोई बदगुमानी है तो उसे निकाल दे और हर मिल्लत अथवा सम्प्रदाय के साथ उनके अपने तरीके से उनका न्याय कर, विशेष रूप से गाय की क़ुरबानी से बिलकुल परहेज़ कर, क्योंकि इससे तू हिन्दुस्तान के दिल को जीत लेगा और इस मुल्क़ की रय्यत का दिल इस एहसान से दबकर तेरी बादशाही के साथ रहेगा। तेरे सम्प्रदाय में हर धर्म के जितने मन्दिर और पूजा घर हैं उनको नुकसान न हो। इस तरह अदल और इंसाफ करना जिससे रय्यत शाह से और शाह रय्यत से आसूदा रहे। इस्लाम की तरक्की, ज़ुल्म की तेग के मुक़ाबले में अहसान की तेग से ज़्यादा अच्छी हो सकती है। शिया और सुन्नियों के झगडे को नज़र अन्दाज़ करना क्योंकि इन झगडों से इस्लाम कमज़ोर होता है। प्रकृति के पाँचों तत्वों की तरह विविध धर्मों के पेरोकारों के प्रति व्यवहार करना ताकि सल्तनत का जिस्म विविध व्याधियों से पाक और साफ रहे। हज़रत तैमूर के कारनामों को अपनी नज़र के सामने रखना ताकि सल्तनत के काम में तुम पुख्ता हो जाओ। “और हमारा काम महज तुम्हें सलाह देना है।“ हिजरी 933, जमादि-उल-अव्वल की पहली तारीख (11 जनवरी, 1529 ई)
औरंगज़ेब और हिन्दू मन्दिर
एक शायर ने बडे दर्द के साथ लिखा है:
तुम्हें ले दे के, सारी दास्ताँ में, याद है इतना;
कि आलमगीर हिन्दूकुश था, ज़ालिम था, सितमगर था”।
बचपन में मैनें भी इसी तरह का इतिहास पढा था और मेरे दिल में भी इसी तरह की बदगुमानी थी। लेकिन एक घटना ऐसी पेश आई जिसने मेरी राय बदल दी। मैं सन् 1948-53 में इलाहाबाद म्युनिसिपैलिटी का चैयरमैन था। त्रिवेणी संगम के निकट सोमेशवर महादेव का मन्दिर है। उसके पुजारी की मृत्यु के बाद मन्दिर और मन्दिर की जयदाद के दो दावेदार खडे हो गये। उनमें से एक फरीक ने कुछ दस्तावेज दाखिल किए थे। दूसरे फरीक के पास कोई दस्तावेज़ नहीं थे। जब मैंने दस्तावेज़ पर नज़र डाली तो देखा कि वह औरंगज़ेब का फरमान था। जिसमें मन्दिर के पुजारी को ठाकुर जी को भोग और पूजा के लिए जागीर में दो गाँव अता किए गये थे। मुझे शुबहा हुआ कि ये दस्तावेज़ नकली है। औरंगज़ेब तो बुतशिकन, मूर्तिभंजक था। वह बुत परस्ती के साथ अपने आप को कैसे वाबस्ता कर सकता था। मैं अपना शक़ रफा करने के लिए सीधा अपने चैम्बर से उठकर सर तेज बहादुर सप्रू के यहाँ गया। सप्रू साहब फारसी के आलिम थे। उनहोंने फरमान को पढकर कहा कि ये फरमान असली है।
मैंने कहा- “डाक्टर साहब ! आलमगीर तो मन्दिर तोडता था। बुतशिकन था, वह ठाकुर जी को भोग और पूजा के लिए कैसे जायदाद दे सकता था?”
डा. सप्रू साहब ने अपने मुंशी को आवाज़ देकर कहा- “मुंशी जी ज़रा बनारस के जंगमबाडी शिवमन्दिर की अपील की मिसिल तो लाओ। “मुंशी जी मिसिल लेकर आए तो डाक्टर सप्रू ने दिखाया कि औरंगज़ेब के चार फरमान और थे जिनमें जंगमों को माफी की जमीन अता की गई थी। डा. सप्रू की सलाह से मैंने भारत के प्रमुख मन्दिरों की सूची प्राप्त की और उन सबके नाम पत्र लिखा कि अगर उनके मन्दिरों को औरंगज़ेब या मुगल बादशाह ने कोई जागीर दी हो, तो उनकी फोटो कापियाँ मेहरबानी करके भेजिये। दो तीन महीने की प्रतीक्षा के बाद हमें महाकाल मन्दिर, (उज्जैन), बालाजी मन्दिर (चित्रकूट), उमानन्द मन्दिर(गौहाटी), जैन मन्दिर (गिरनार), दिलवाडा मन्दिर (आबू), गुरूद्वारा रामराय (देहरादून) वगैरह से सूचना मिली कि उनको औरंगज़ेब ने जागीरें अता की थीं। एक नया औरंगज़ेब हमारी आँखों की सामने उभर कर आया।
हमारी तरह ही प्रसिद्ध पुरातत्वेत्ता डा. परमेशवरीलाल गुप्त ने भी अपने शोध प्रबन्धों से हमारे इस कथन की पुष्टि की है। उनके अनुसार:-
“हिन्दूद्रोही और मन्दिर भंजक के रूप में जिस किसी इतिहासकार ने औरंगज़ेब का यह चित्र उपस्थित किया, उसने अंगरेजों को अपनी फूट डालो और राज करो वाली नीति के प्रतिपादन के लिए एक जबरदस्त हथियार दे दिया। उसका भारतीय जनता पर इतना गहरा प्रभाव पडा कि उदार राष्ट्रीय विचारधारा के इतिहासकार और विशिष्ट चिंतक भी उससे अपने को मुक्त नहीं कर सके हैं। उन्होंने भी स्वयं तटस्थ भाव से तथ्यों का विश्लेषण न कर यह मान लिया है कि औरंगज़ेब हिन्दूओं के प्रति असहिष्णु था।
“इसमें सन्देह नहीं कि औरंगज़ेब एक धर्म्निष्ठ् मुसलमान था। उसके द्वारा जज़िया कर का ज़ारी किया जाना भी उसकी इस्लामी सिद्धांतों के प्रति आस्था का प्रतीक है। अत: हमारे इतिहासकारों की औरंगज़ेब के बारे में क्या विचारधारा रही है, इसको जानने और मानने की अपेक्षा अधिक उचित यही होगा कि हम औरंगज़ेब के समसामयिक बुद्धिवादियों के कथन को महत्व दें और जानें कि औरंगज़ेब के सम्बन्ध में उनकी क्या धारणा थी।“
“इसमें सन्देह नहीं कि औरंगज़ेब एक धर्म्निष्ठ् मुसलमान था। उसके द्वारा जज़िया कर का ज़ारी किया जाना भी उसकी इस्लामी सिद्धांतों के प्रति आस्था का प्रतीक है। अत: हमारे इतिहासकारों की औरंगज़ेब के बारे में क्या विचारधारा रही है, इसको जानने और मानने की अपेक्षा अधिक उचित यही होगा कि हम औरंगज़ेब के समसामयिक बुद्धिवादियों के कथन को महत्व दें और जानें कि औरंगज़ेब के सम्बन्ध में उनकी क्या धारणा थी।“
1908 हिजरी का औरंगज़ेब के द्वारा जारी फरमान है, जिसमें कहा गया है कि बनारस में गंगा किनारे बेंनीमाधो घाट पर दो टुकडे जमीन बिना निर्माण के खाली पडी है और बैतु-उल-माल है। इनमें से एक बडी मसजिद के पीछे रामजीवन गुंसाईं के मकान के सामने है और दूसरा उससे कुछ उँचाई पर है। इस भूमि के इन टुकडों को हम रामजीवन गुंसाईं और उसके लडकों को बतौर इनाम देते हैं ताकि वह उस पर धार्मिक ब्राह्म्णों और साधुओं के रहने के लिए सत्र बनवाएँ।
काशी मे शैव सम्प्रदाय के लोगों का एक सुविख्यात मठ जंगमबाडी है। इस मठ के महंत के पास औरंगज़ेब के द्वारा दिए गये कतिपय फरमान हैं। इनमें से पाँच रमज़ान 1071 हिजरी को जारी किया गया औरंगज़ेब का फरमान है जिसके द्वारा उसने जंगमों को परगना में 178 बीघा जमीन अपने सिर से निसार स्वरूप प्रदान किया है और कहा कि यह भूमि माफी समझी जाये ताकि वह उसका उपभोग कर सकें और राज्य के चिरस्थाई बने रहने की कमना करते रहें।
ये राजपत्र इस बात की स्पष्ट अभिव्यक्ती करते हैं कि औरंगज़ेब का हिन्दू धर्म के प्रति कोई विद्वेष्णा न थी। यह बात मूर्तियों और मन्दिरों के बारे में भी कही जा सकती है।
औरंगज़ेब की भावना को स्पष्ट करने की दृष्टि से अधिक महत्व का फरमान वह है जिसे उसने जालना के एक ब्राह्म्ण की फरीयाद पर जारी किया था। उस ब्राह्म्ण ने अपने घर में गणेश की एक मूर्ति प्रतिष्ठीत की थी। उसे वहाँ के एक मुसलमान अधिकारी ने हटवा दिया था। इस कार्य के विरुद्ध उसने औरंगज़ेब से फरियाद की। औरंगज़ेब ने तत्काल मूर्ति लौटाने का आदेश दिया और इस प्रकार के हस्तक्षेप का निषेध किया। इन सबसे अधिक महत्व का वह फरमान है जो ”बनारस फरमान” के नाम से इतिहासकारों के बीच प्रसिद्ध है और जिसे लेकर यदुनाथ सरकार सदृश गम्भीर इतिहासकार ने अपनी “हिस्ट्री आफ औरंगज़ेब” में यह मत प्रतिपादित किया है कि औरंगज़ेब ने हिन्दू धर्म पर अपना आक्रमण बडे छद्म रूप में प्रारम्भ किया। इस फरमान का सहारा लेकर यदुनाथ सरकार ने औरंगज़ेब को धर्मान्ध सिद्ध करने की कोशिश में इस फरमान के केवल कुछ शब्द ही उद्धृत किए हैं। यदि इन इतिहासकारों ने इमानदारी बरती होती और समूचे फरमान को सामने रखकर सोचा होता तो तथ्य निस्सन्देह भिन्न रूप में सामने आता और औरंगज़ेब का वह रूप सामने न होता जो इन इतिहासकारों ने प्रस्तुत किया है। इस फरमान के सम्बन्ध में 1905 ई. से पूर्व किसी भी इतिहासकार को कोई जानकारी न थी। उस समय तक वह काशी के मंगलागौरी मुहल्ले के एक ब्राह्म्ण परिवार में दबा पडा था। उस वर्ष किसी पारिवारिक विवाद के प्रसंग में गोपी उपाद्ध्याय के दैहित्र मंगल पान्डेय ने इस फरमान को सिटी मजिस्ट्रेट की अदालत में उपस्थित किया।
इस फरमान के अनुसार “हमारी व्यक्तिगत एवं स्वाभाविक सद्भावनाएँ समग्र रूप से ऐसी दिशा में झुकी हुई हैं कि जिससे जनता की भलाई और देश में रहने वालों का सुधार हो, तथा हमारे धर्म में ऐसा निश्चित है, कि मन्दिर कतई न तोडे जाएँ और नए मन्दिर न बनवाए जाएँ। हमारे न्यायपूर्ण राज्य में यह सूचना मिली है कि कुछ लोग बनारस के रहने वाले हिन्दुओं पर और उनके पास रहने वालों पर, वहाँ के रहने वाले ब्राह्म्णों पर, जो कि मन्दिरों का इंतज़ाम करते रहे हैं, हस्तक्षेप कर अत्याचार कर रहे हैं, और चाहते हैं कि वहाँ का प्रबन्ध जो चिर्काल से उनके हाथ में है, छिन लें। इस कारण वे लोग बहुत परेशान और बेहाल हैं। अत: यह सन्देश भेजा जाता है कि इस फरमान के पहुँचने के साथ ही दृढता के साथ यह घोषित कर दिया जाए कि कोई भी व्यक्ति किसी भी कारण इन ब्राहम्णों और इस स्थान के रहने वाले अन्य हिन्दुओं को बिलकुल न छेडें और न उन्हें परेशान करें। इस आदेश को आवश्यक और गम्भीर समझा जाए।“
इस फरमान में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे यदुनाथ सरकार की शब्दावली में “छद्म रूप से हिन्दू धर्म पर आक्रमण” की संज्ञा दी जा सके। वरन इस फरमान से इसके विपरीत, यह ज्ञात होता है कि हिन्दुओं और ब्राहम्णों के धार्मिक मामलों, मन्दिरों के प्रबन्ध में कुछ लोग अनुचित हस्तक्षेप कर रहे थे और उन्हें तंग कर रहे थे। हो सकता है, कि मन्दिरों को तोडे जाने की भी बात की जा रही हो। इन सबकी शिकायत जब औरंगज़ेब के पास पहुँची तो उसने यह फरमान जारी कर उसकी आवश्यकता और गम्भीरता पर जोर देते हुए दुष्टता करने वालों को कडी चेतावनी दी। स्पष्ट रूप से कहा गया कि सम्राट के धर्म अर्थात इस्लाम में यह आदेश है कि मन्दिर कतई न तोडे जाएं और नये मन्दिर न बनवाए जाएं।
इन सब तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में स्वभाविक रूप से यह प्रशन उभरता है कि यदि औरंग्ज़ेब का वस्तुत: इस कथन में विशवास था कि मन्दिर न तोडे जाएं तो फिर क्यों उसी के शासनकाल में और उसी के आदेश से ज्ञानवापीवाला विश्वनाथ मन्दिर तोडा गया? इस सम्बन्ध में हम पाठकों का ध्यान पट्टाभि सीतारामैया की पुस्तक “फैदर्स एंड स्टोंस” की और आकृष्ट करना चाहेंगे। उन्होंने इस ग्र्ंथ में लिखा है कि लखनऊ के किसी प्रतिष्ठित मुसलमान सज्जन (नाम/नहीं दिया है) के पास कोई हस्तलिखित ग्रंथ था जिसमें इस घटना पर प्रकाश डाला गया है। सीतारामैया का कहना है कि इस ग्रंथ का समुचित परीक्षण किए जा सकने के पूर्व उक्त सज्जन का निधन हो गया और वह ग्रंथ प्रकाश में न आ सका। उस ग्रंथ में इस घटना के सम्बन्ध में जो कुछ कहा गया था उसका सीतारामैया ने अपनी पुस्तक में उल्लेख किया है। उनके कथनानुसार घटना इस प्रकार है:
“तत्कालीन शाही परम्परा के अनुसार, मुगल सम्राट किसी यात्रा पर निकलते थे तो उनके साथ राज सामंतों की काफी बडी संख्या चलती थी और उनके साथ उन सबका अंत:पुर भी चलता था। कहना ना होगा, मुगल दरबार में हिन्दू सामंतों की संख्या काफी बडी थी। उक्त ग्रंथ के अनुसार, एक बार औरंगज़ेब बनारस के निकट के प्रदेश से गुजर रहे थे। ऐसे अवसर पर भला कौन हिन्दू होता जो दिल्ली जैसे दूर प्रदेश से आकर गंगास्नान और विश्वनाथ दर्शन किए बिना चला जाता, विशेष रूप से स्त्रियाँ। अत: प्राय: सभी हिन्दू दरबारी अपने परीवार के साथ गंगा स्नान करने और विश्वनाथ दर्शन के लिए काशी आए। विश्वनाथ दर्शन करके जब लोग बाहर आए तो ज्ञात हुआ कि उनके दल की एक रानी गायब है। इस रानी के बारे में कहा जाता है कि वह कच्छ् की रानी थी। लोगों ने उन्हें मन्दिर के भीतर जाते देखा था पर मन्दिर से बाहर आते वह किसी को नहीं दिखीं।
लोग इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि वह मन्दिर के भीतर ही कहीं रह गई हैं। काफी छानबीन की गई पर उनका पता न चला। जब अधिक कडाई और सतर्क्ता से खोज की गई तो मन्दिर के नीचे एक दुमंज़िले तहखाने का पता चला जिसका द्वार बाहर से बन्द था। उस द्वार को तोडकर जब लोग अन्दर घुसे तो उन्हें वस्त्राभूषण विहीन, भय से त्रस्त रानी दिखाई पडीं। जब औरंगज़ेब को पंडों की यह काली करतूत ज्ञात हुई तो वह बहुत कुद्ध हुआ और बोला- जहाँ मन्दिर के गर्भ-ग्रह के नीचे इस प्रकार की डकैती और बलात्कार हों तो वह निस्सन्देह ईश्वर का घर नहीं हो सकता। और उसने उसे तुरंत गिराने का आदेश दे दिया। आदेश का तत्काल पालन हुआ। जब उक्त रानी को सम्राट के इस आदेश और उसके परिणाम की खबर मिली तो वह अत्यंत दुखी हुई और उसने सम्राट को कहला भेजा कि इसमें मन्दिर का क्या दोष, दुष्ट तो पान्डे हैं। उसने यह भी हार्दिक इच्छा प्रकट की कि उसका फिर से निर्माण करा दिया जाए। औरंगज़ेब के अपने धार्मिक विश्वास के कारण, जिसका उल्लेख उसने बडी स्पष्टता से अपने “बनारस फरमान” में किया है, उसके लिए नया मन्दिर बनवाना असम्भव था। अत: उसने मन्दिर के स्थान पर मस्जिद खडी कर रानी की इच्छा पूरी कर दी।
यह घटना कितनी एतिहासिक है, यह कहने के लिए सम्प्रित कोई साधन नहीं है किंतु इस प्रकार की घटनाएँ प्राय: मन्दिरों में घटती रही है, यह सर्वविदित है। यदि ऐसी कोई घटना औरंगज़ेब के समय में घटी हो तो कोई आश्चर्य नहीं। यदि एसी घटना वस्तुत: घटी थी तो औरंगज़ेब स्दृश मुसलमान नरेश ही नहीं, कोई भी न्यायप्रिय शासक यही करता। यदि औरंगज़ेब के परिप्रेक्ष्य में विश्वनाथ मन्दिर गिराया गया था तो उसके लिए औरंगज़ेब पर किसी प्रकार का कोई आरोप नहीं लगाया जा सकता।
बालाजी मन्दिर चित्रकूट: औरंगज़ेब का फरमान
बालाजी मन्दिर चित्रकूट: औरंगज़ेब का फरमान
इस फरमान के ज़रिए हुक्म दिया जाता है कि महंत बालकदास पिसरगोपी को बराए मसारिफ पूजा व भोग बालाजी तीन सौ तीस बीघा जमीन इनायत की जाती है। करोडियों और जागीरदारों को मुतनब्बे किया जाता है, चाहें मौजूदा हों और चाहें मुस्तक़बिल में होने वाले हों, मेरे हुक़्म की खिलाफवर्जी न करें और ना ही मेरे हुक़्मनामों में किसी किस्म का इन्हिराफ करें। यह तीन सौ तीस बीघा जमीन हर क़िस्म के लगान से आजाद होगी और कोई दूसरा इसमें शरीक नहीं माना जाएगा। अगर किसी दूसरी जगह भी इसकी कोई जायदाद है तो उसका एतबार नहीं किया जाये। इसी फरमान में जारी राजाज्ञा में कहा गया कि शहंशाह का आदेश है कि- इलाहाबाद सूबे के कालिंजर परगना के अंतर्गत चित्रकूट पुरी के निर्वाणी महंत बालकदास को श्री ठाकुर बालाजी महाराज के पूजा और भोग के लिए बिला लगानी (माफी) आठ गाँव-देवखरी, हिनौता, चित्रकूट, रोदेरा, सिरिया, पढेरी, जरवा और दोहरिया-दान के तौर पर दिए गए हैं और राठ परगना के जाराखाड गाँव की डैढ सौ बीघा जमीन और अमरावती गाँव् की एक सौ अस्सी बीघा जमीन (कुल तीन सौ तीस बीघा) बिला लगान और कोनी-प्रोष्ठा परगना की लगान वसूली से एक रूपया रोजाना अनुदान मंजूर किया जाता है।
तारीख 19 रमज़ान के पवित्र महीने की 19 वीं तारीख को आलमगीर बादशाह के शासनकाल के 35 वें वर्ष में यह फरमान जारी किय गया। वाकये नवीस रफीउल्लाह सआदत खाँ। यह फरमान रमज़ान की 25 वीं तारीख दिन शनिवार को शाही रजिस्टर में दर्ज किया गया। इसे शाही कागज़ात में दर्ज किया नाजिम आफताब खाँ ने।
आलमगीर का वसीयतनामा
सम्राट औरंगज़ेब भारत के कठोर सम्राटों में गिना जाता है। लेकिन जहाँ एक ओर उसने अपने पिता शाहजहाँ को क़ैद में रखा और भाईयों को क़त्ल करवाया, वहाँ दूसरी ओर वह त्याग, सदाचार और कठोर जीवन की प्रतिमूर्ति समझा जाता है। यदि एक और वह स्वेच्छाचारी था तो दूसरी और गरीबी और नम्रता से भरा हुआ। प्रजा की गाढी कमाई का एक पैसा भी व्यक्तिगत स्वार्थ के लिये खर्च करने को वह पाप समझता था। दुनिया के बडे से बडे सम्राटों में उसकी गिनती थी। उसका खजाना हीरे जवाहरात से लबालब था किंतु अधिकतर नमक और बाजरे की रोटी ही पर वह अपना जीवन काटता था। विलानागा उसने जीवन भर गंगाजल का ही व्यवहार किया। वह अपनी सल्तनत को ‘ईशवरीय मार्ग पर अर्पण’ मानता था। मरने से पहले सम्राट आलमगीर ने जो वसीयत की है, उसे देखकर हम इस महान सम्राट के अंतिम दिनों की मानसिक स्थिति को भलि भाँति समझ सकते हैं। वसीयत की धाराएँ ये हैं-
- बुराईयों में डूबा हुआ मैं गुनहगार, वली हज़रत हसन की दरगाह पर एक चादर चढाना चाहता हूँ, क्योंकि जो व्यक्ति पाप की नदी में डूब गया है, उसे रहम और क्षमा के भंडार के पास जाकर क्षमा की भीख माँगने के सिवाय और क्या सहारा है। इस पाक काम के लिए मैनें अपनी कमाई का रुपया अपने बेटे मुहम्मद आज़म के पास रख दिया है। उससे लेकर ये चादर चढा दी जाए।
- टोपियों की सिलाई करके मैनें चार रुपये दो आने जमा किए हैं। यह रकम महालदार लाइलाही बेग के पास जमा हैं। इस रक़म से मुझ गुनहगार पापी का कफ्न खरीदा जाए।
- क़ुरान शरीफ की नक़ल करके मैनें तीन सौ पाँच रुपये इकट्ठा किये हैं। मेरे मरने क बाद यह रक़म फक़ीरों में बाँट दी जाय। यह पवित्र पैसा है इसलिए इसे मेरे क़फन या किसी भी दूसरी चीज़ पर खर्च न किया जाय।
- नेक राह को छोडकर गुमराह हो जाने वाले लोगों को आगाह करने के लिए मुझे खुली जगह पर दफनाना और मेरा सर खुला रहने देना, क्योंकि उस महान शहंशाह परवरदिगार परमात्मा के दरबार में जब कोई पापी नंगे सिर जाता है, तो उसे जरूर दया आ जाती होगी।
- मेरी लाश को ऊपर से सफेद खद्दर के कपडे से ढक देना। चद्दर या छतरी नही लगाना, न गाने बाजे के साथ जुलुस निकालना और न मौलूद करना।
- अपने क़ुटुम्बियों की मदद करना और उनकी इज़्ज़त करना। क़ुरान शरीफ की आयत है- प्राणीमात्र से प्रेम करो। मेरे बेटे! यही तुम्हें मेरी हिदायत है। यही पैगम्बर का हुक़्म है। इसका इनाम अगर तुम्हें इस ज़िन्दगी में नहीं तो अगली ज़िन्दगी में ज़रूर मिलेगा।
- अपने क़ुटुम्बियों के साथ मुहब्बत का बर्ताव करने के साथ-साथ तुम्हें यह बात भी ध्यान में रखनी होगी कि उनकी ताक़त इतनी न बढ जाए कि उससे हुक़ूमत को खतरा हो जाए।
- मेरे बेटे! हुक़ूमत की बागडोर मजबूती से अगर पकडे रहोगे तो तमाम बदनामियों से बच जाओगे।
- बादशाह को हुकूमत में चारों और दौरा करते रहना चाहिये। बादशाहों को कभी भी एक मकाम पर नहीं रहना चाहिए। एक जगह में आराम तो ज़रूर मिलता है, लेकिन कई तरह की मुसीबतों का सामना करना पडता है।
- अपने बेटों पर कभी भूलकर भी ऐतबार न करना, न उनके साथ नज़दीकी ताल्लुक रखना।
- हुकूमत के अन्दर होने वाली तमाम बातों की तुम्हें इत्तला रखनी चाहिए- यही हुक़ूमत की कुँजी है।
- बादशाह को हुक़ूमत के काम में ज़रा भी सुस्ती नहीं करनी चाहिए। एक लम्हे की सुस्ती सारी ज़िन्दगी की मुसीबत की बाइस बन जाती है।
यह है संक्षेप में सम्राट आलमगीर का वसीयतनामा। इस वसीयत की धाराओं को देखकर यह पता चलता है कि सम्राट को अपने अंतिम दिनों में अपने पिता को क़ैद करने अपने भाईयों को क़त्ल करने पर मनसिक खेद और पश्चाताप था।
इसी वसीयतनामे के मुताबिक़ औरंगाबाद के निकट खुल्दाबाद नामक छोटे से गाँव में जो आलमगीर का मकबरा बनाया गया, उसमें सीधे सादे तरीके से दफन किया गया। उसकी क़ब्र कच्ची मिट्टी की बनाई गई। जिस पर आसमान के सिवाय कोई दूसरी छत नहीं रखी गई। क़ब्र के मुजाविर उसकी क़ब्र पर जब तब हरी दूब लगा देते हैं। इसी कच्चे मज़ार में पडा हुआ भारत का यह महान सम्राट रोजे महशर के दिन तक अपने परमात्मा से रूबरु होने की प्रतीक्षा में है।
अपने बेटे मुअज़्ज़म शाह को उसने मरने से पहले जो खत लिखा, उसमें लिखा- “बादशाहों को कभी आराम या ऐशोइशरत की ज़िन्दगी नहीं बरतनी चाहिए। यह गैरमर्दांगी की आदत ही मुल्कों और बादशाहों के नाश की वजह साबित हुई है। बादशाहों की अपनी हुकूमत में नशीली चीज़ों और शराब बेचने या पीने की कभी इज़ाज़त न देनी चाहिए। इससे रियाया का चरित्र नाश होता है। इस मद की आमदनी को उन्हें हराम समझना चाहिए।“
अपने बनारस के सूबेदार के नाम एक खत में आलमगीर लिखता है-
“अपनी हिन्दू रियाया के साथ ज़ुल्म न करना। उनके साथ धार्मिक उदारता बरतना और उनकी धार्मिक भवनाओं का लिहाज करना।“
आलमगीर मनुष्य मनुष्य के बीच के फर्क को अल्लाह की नज़रों मे गुनाह समझता था। उसका पिता शाहजँहा जब तख्त पर था तो उसने एक बार आलमगीर से शिकायत की कि उसे शहजादे की हैसियत से छोटे बडे सब से एक तरह नहीं मिलना चाहिए। इस पर आलमगीर ने अपने बाप की हर तरह से इज़्ज़त करते हुए जवाब दिया-
“लोगों के साथ मेरा बराबरी का बर्ताव इस्लाम के सिद्धांतों के बिलकुल अनुरूप है। इस्लाम के पैगम्बर ने कभी अपनी ज़िन्दगी में छोटे बडे की तमीज़ नहीं की। खुदा की नज़रों में सब इंसान बराबर हैं। इसलिये मैं आपकी आज्ञा मानने में अपने आप को असमर्थ पाता हूँ।“
ऐसा था वह महान सम्राट, जिस पर इतिहास ने एक काली चादर डाल रखी है और जिसके सम्बन्ध में आम पढे लिखे आदमी के दिल में क्रूरता की एक भयंकर तस्वीर खींची हुई है। जैसे जैसे जाँच पडताल की तेज आँखें विगत के परदे हटाती जाती हैं, वैसे वैसे हमें सम्राट आलमगीर के जीवन के मानवीय पहलू भी दिखाई दे रहे हैं।
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