तलाक़ की शरई हैसियत

जिस तरह अल्लाह (سبحانه وتعال) ने निकाह का क़ानून बनाया उसी तरह तलाक़ भी शरअ की है। तलाक़ की बुनियाद किताबुल्लाह, सुन्नते नबवी (صلى الله عليه وسلم) और इजमा है। क़ुरआने हकीम में अल्लाह (سبحانه وتعال) का फ़रमान है:

ٱلطَّلَـٰقُ مَرَّتَانِۖ فَإِمۡسَاكُۢ بِمَعۡرُوفٍ أَوۡ تَسۡرِيحُۢ بِإِحۡسَـٰنٍ۬ۗ
तलाक़े रजई दो ही बार है फिर दस्तूर के लिहाज़ से रोक लिया जाये या नेक तरीक़े से रुख़स्त कर दिया जाये। (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अलबक़रह 229)

जहाँ तक तलाक़ के सुन्नत से इस्तिदलाल की बात है, तो हाकिम (رحمت اللہ علیہ) और इब्ने हब्बान (رحمت اللہ علیہ) ने हज़रत उमर बिन अलख़त्ताब (رضي الله عنه) से रिवायत किया है :

)) أنَّ النبي ا طلق حفصۃ ثم راجعھا((

नबी (صلى الله عليه وسلم) ने हज़रत हफ़सा  رضي الله عنها को तलाक़ दी फिर रजत फ़रमा ली।
और तिरमिज़ी (رحمت اللہ علیہ) और हाकिम (رحمت اللہ علیہ) ने हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (رضي الله عنه) से रिवायत किया है:

))کانت تحتي امرأۃ أحبھا وکان أبي یکرھھا فأمرني أن أطلقھا فأبیت فذکر ذلک للنبيا فقال:یا عبداللّٰہ ابن عمر طلق امرأتک((

मेरी एक बीवी थी जिसे मेरे वालिद नापसंद करते थे। उन्होंने मुझे उसे तलाक़ दे देने का हुक्म दिया जिसे मैंने नहीं माना, फिर उन्होंने हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) से इस का ज़िक्र किया और आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया कि ऐ अब्दुल्लाह बिन उमर ! उसे तलाक़ दे दो।

इसी तरह सहाबाऐ किराम (رضی اللہ عنھم) का भी तलाक़ पर इजमा हुआ।

तलाक़ निकाह के अक़्द (contract) की क़ैद को मंसूख़ (रद्द) या क़लमज़द कर देती है। इस के जायज़ होने के लिए कोई शरई इल्लत नहीं है और वो नुसूसे शरअ जो इस के जवाज़ में वारिद हुई हैं इन में तलाक़ की कोई इल्लत ना क़ुरआन में और ना ही अहादीस में बयान नहीं की गई है । लिहाज़ा तलाक़ इस लिए हलाल है कि शरीयत ने इसे हलाल किया है इसके सिवा तलाक़ के हलाल होने का कोई और सबब नहीं है। शरई तलाक़ तीन तलाक़ों यानी तीन लफ़्ज़ी अदायगीयों पर आधारित है जो एक के बाद एक हो। लिहाज़ा अगर एक बार लफ़्ज़ अदा किया गया तो एक तलाक़ हुई, अब शौहर इद्दत की मुद्दत के दौरान बगै़र दूसरे निकाह के औरत से रजअत कर सकता है। अगर वो दूसरी बार लफ़्ज़ अदा कर देता है तो दूसरी तलाक़ हुई, अब भी शौहर अपनी बीवी को इद्दत की मुद्दत के दौरान बगै़र दूसरे निकाह के औरत से रजअत कर सकता है। अगर इन दोनों सूरतों में इद्दत की मुद्दत गुज़र जाये और शौहर इस मुद्दत में रजअत ना करे तो औरत बाएना हो जाती है और ये बाइना सुग़रा कहलाती है। इस शक्ल में रजअत उसी वक़्त मुम्किन है जब शौहर नए महर से नया निकाह करे। अगर शौहर तीसरी बार तलाक़ दे देता है तो ये तीन अदायगीयां हो गईं और अब वो बाएना कुबरा हो गई। अब शौहर उस औरत से रजअत नहीं कर सकता जब तक कि कोई और शख़्स उस औरत से निकाह और हमबिस्तरी ना कर ले और औरत फिर उस शख़्स से अपनी इद्दत पूरी ना कर ले। अल्लाह (سبحانه وتعال) का इरशाद है:

ٱلطَّلَـٰقُ مَرَّتَانِۖ فَإِمۡسَاكُۢ بِمَعۡرُوفٍ أَوۡ تَسۡرِيحُۢ بِإِحۡسَـٰنٍ۬ۗ وَلَا يَحِلُّ لَڪُمۡ أَن تَأۡخُذُواْ مِمَّآ ءَاتَيۡتُمُوهُنَّ شَيۡـًٔا إِلَّآ أَن يَخَافَآ أَلَّا يُقِيمَا حُدُودَ ٱللَّهِۖ فَإِنۡ خِفۡتُمۡ أَلَّا يُقِيمَا حُدُودَ ٱللَّهِ فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡہِمَا فِيمَا ٱفۡتَدَتۡ بِهِۦۗ تِلۡكَ حُدُودُ ٱللَّهِ فَلَا تَعۡتَدُوهَاۚ وَمَن يَتَعَدَّ حُدُودَ ٱللَّهِ فَأُوْلَـٰٓٮِٕكَ هُمُ ٱلظَّـٰلِمُونَ * فَإِن طَلَّقَهَا فَلَا تَحِلُّ لَهُ ۥ مِنۢ بَعۡدُ حَتَّىٰ تَنكِحَ زَوۡجًا غَيۡرَهُ ۥۗ فَإِن طَلَّقَهَا فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡہِمَآ أَن يَتَرَاجَعَآ إِن ظَنَّآ أَن يُقِيمَا حُدُودَ ٱللَّهِۗ وَتِلۡكَ حُدُودُ ٱللَّهِ يُبَيِّنُہَا لِقَوۡمٍ۬ يَعۡلَمُونَ

तलाक़े रजई दो ही बार है फिर दस्तूर के लिहाज़ से रोक लिया जाये या नेक तरीक़े से रुख़स्त कर दिया जाये और तुम्हारे लिए जायज़ नहीं है कि जो कुछ तुम उन्हें दे चुके हो उसमें से कुछ ले लो सिवाए इस सूरत के कि दोनों को अंदेशा हो कि वो अल्लाह के हदूद पर क़ायम ना रह सकेंगे पस अगर तुम को ये अंदेशा हो कि वो अल्लाह के हदूद पर क़ायम ना रहेंगे तो औरत जो कुछ फ़िदया दे इस में उन के लिए कोई गुनाह नहीं। ये अल्लाह के हदूद हैं पस उन से तजावुज़ ना करो। और जो अल्लाह के हदूद से तजावुज़ करे तो ऐसे ही लोग ज़ालिम हैं। (दो तलाक़ों के बाद) फिर अगर वो उसे तलाक़ दे दे तो इस के बाद वो उसके लिए जायज़ ना होगी, जब तक कि वो उसके अलावा किसी दूसरे शौहर से हमबिसतर ना हो ले। पस अगर वो उसे तलाक़ दे दे तो फिर इन दोनों के लिए एक दूसरे की तरफ़ पलट आने में कोई गुनाह ना होगा अगर वो समझते हों कि अल्लाह के हदूद पर क़ायम रह सकते हैं और ये अल्लाह के मुक़र्रर किए हुए हदूद हैं जिन्हें वो उन लोगों के लिए बयान कर रहा है जो जानना चाहते हों। (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अलबक़रह 229-230)

इस आयत-ए-पाक में अल्लाह (سبحانه وتعال) ने मुसलमानों को तलाक़ देने का तरीक़ा बयान फ़रमा दिया, फ़रमाया: (ٱلطَّلَـٰقُ مَرَّتَانِ) यानी तलाक़ दो बार है। इस बयान के बाद अल्लाह (سبحانه وتعال) ने बंदों को इख्तियार दिया कि या वो अपनी बीवीयों को रखें, उन के साथ अच्छे बरताओ और अपने फ़राइज़ की तकमील के साथ रहें या उन्हें भले तरीक़े से छोड़ दें जो उन पर आइद किया गया है फिर फ़रमाया: (दो तलाक़ों के बाद) फिर अगर वो उसे तलाक़ दे दे तो इस के बाद वो उसके लिए जायज़ ना होगी, जब तक कि वो इस के अलावा किसी दूसरे शौहर से हमबिसतर ना हो ले। यानी अगर शौहर ने पिछली दो बार के बाद फिर तीसरी बार तलाक़ दे दी हो तो अब वो इस शौहर के लिए जायज़ ना रही जब तक कि औरत किसी और शख़्स से शादी ना कर ले। इस के बाद फ़रमाया: पस अगर वो उसे तलाक़ दे दे तो फिर इन दोनों के लिए एक दूसरे की तरफ़ पलट आने में कोई गुनाह ना होगा, यानी अगर दूसरा शौहर भी उस औरत को तलाक़ दे दे तो फिर पहले शौहर के लिए जायज़ हो गया कि वो नए निकाह और नए महर से साथ उसे अपना ले। यहाँ फ़िक़्ह (طَلَّقَهَا) यानी वो तलाक़ दे दे में फ़ाइल (कर्ता) दूसरा शौहर है, जबकि (يَتَرَاجَعَآ) में फ़ाइल का इशारा पहले शौहर की तरफ है। मुराद ये है कि वो अपनी बीवी के पास लौट आए। लिहाज़ा शौहर के लिए तीन तलाक़ों की अदायगी है जिन में से दो ऐसी हैं कि उन के दौरान लौटा जा सकता है और तीसरी के बाद उस वक़्त तक नहीं लौटा जा सकता जब तक कि औरत किसी और शख़्स से शादी ना कर ले।

तलाक़ देना शौहर का इख्तियार है ना कि बीवी का। ये तलाक़ का इख्तियार शौहर के पास सिर्फ़ इसलिए है कि अल्लाह (سبحانه وتعال) ने उसे शौहर के इख्तियार में रखा है और शरीयत में इस इख्तियार के मर्द को होने की कोई इल्लत (वजह) वारिद नहीं हुई है लिहाज़ा उस की कोई इल्लत बयान नहीं की जाएगी। अलबत्ता शादी की कैफ़ियते  वाक़िये पर ग़ौर किया जाये तो ये हक़ीक़त सामने आती है कि ये शादी एक नई अज़्दवाजी ज़िंदगी का आग़ाज़ है जहाँ एक मर्द और एक औरत अपनी मर्ज़ी और इख्तियार से अपनी पसंद का साथी चुनते हैं जहाँ दोनों को इख्तियार है कि वो जिसे चाहें चुनें और जिस से चाहें शादी ना करें लेकिन जब एक बार ये शादी हो गई तो मर्द को इस ख़ानदान की क़ियादत हाँसिल हो जाती है और वो औरत का रखवाला बन जाता है। लिहाज़ा नागुज़ीर हुआ कि तलाक़ का इख्तियार शौहर के पास रहे और ये उसका हक़ रहे क्योंकि वो इस ख़ानदान का अमीर और इस घर का कर्ता धर्ता है सिर्फ़ उसी पर घर की तमाम तर्ज़ुमादारी है चुनांचे ज़रूरी है कि इस निकाह के अक़्द की तहलील का इख्तियार भी उसी के पास हो। अधिकारों और ज़िम्मेदारीयों में अनुपात होता है लिहाज़ा मियाँ बीवी के बीच अलैहदगी इस के हाथ में हो सकती है जिस पर दूसरे की ज़िम्मेदारी का बार है। बहरहाल ये शरई हुक्म की इल्लत नहीं सिर्फ वाक़ियाऐ हाल का तजज़िया (विश्लेषण) भर है क्योंकि किसी भी शरई हुक्म की इल्लत सिर्फ़ वही हो सकती है जो नुसूसे शरअ में वारिद हुई हो।
अलबत्ता तलाक़ के सिर्फ़ शौहर के हाथ में होने से मुराद ये नहीं है कि औरत को अलैहदगी का इख्तियार नहीं है या वो अपने और शौहर के बीच अलैहदगी नहीं कर सकती। यक़ीनन शौहर को ही अस्लन, बिलाक़ैद और तमाम हालात मे ये इख्तियार है और वो बिना कारण भी तलाक़ देने का हक़दार है जबकि औरत को भी ये इख्तियार हासिल है कि वो अपने और शौहर के बीच ख़ास हालात में, जिन को शरीयत ने बयान किया है, अलैहदगी कर ले। शरीयत ने औरत को निम्नलिखित हालात में इस अलैहदगी की इजाज़त दी है:

*1 जब शौहर ही बीवी को ये इख्तियार सौंप दे उस वक़्त औरत अपने इस इख्तियार की वजह से ख़ुद को तलाक़ दे सकती है। औरत ये कह कर कि मैंने फ़ुलां शख़्स से अपने इस अधिकार के बमूजिब तलाक़ दी या वो शौहर से कहे कि मैंने अपने आप को तुम से तलाक़ दी अलबत्ता औरत ये नहीं कह सकती कि मैंने तुम्हें तलाक़ दी या तुम को तलाक़ हुई क्योंकि तलाक़ औरत पर वाक़े होती है ना कि शौहर पर चाहे तलाक़ औरत ही ने अपने इस हासिल शूदा इख्तियार के बमूजिज दी हो। शौहर तलाक़ का अपना ये इख्तियार औरत को मुंतक़िल (transfer) करने का हक़दार है क्योंकि आँहज़रत (صلى الله عليه وسلم) ने अपनी अज़्वाजे मुताहिरात को ये इख्तियार दिया था और इस पर सहाबाऐ किराम (رضی اللہ عنھم) का इजमा साबित है।

*2 अगर औरत को मालूम हो जाये कि शौहर में ऐसी कोई ख़ामी या नुक़्स है जो हमबिस्तरी में रुकावट हो जैसे वो नामर्द (Impotent) हो या आख़ता शूदा (Castrate/नसबन्दी किया हुआ) हो, और औरत में ख़ुद ये कमज़ोरी मौजूद ना हों । इन हालात में औरत उस शख़्स से अपने निकाह के फिस्ख (Null & Void) किए जाने की दरख़ास्त कर सकती । हाकिम या क़ाज़ी जब इन नवाक़िस के होने की यक़ीन दहानी करले तो वो इस मुआमले को एक साल की मुद्दत के लिए देरी करे और फिर भी अगर शौहर में ये नवाक़िस बरक़रार पाए तो औरत की दरख़ास्त को क़बूल करते हुए निकाह को फिस्ख कर दे। रिवायत वारिद हुई है कि इब्ने मुंज़िर ने एक औरत से शादी की जबकि इन में नपुंसकता (Impotence) थी । हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने उन से पूछा कि क्या औरत इस बात से वाक़िफ़ है ? तो उन्होंने जवाब दिया कि नहीं, उसे इस का इल्म नहीं है। हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने उन से कहा कि औरत को ये बात बता दो और उसे इख्तियार दे दो। मर्वी है कि हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने इस मुआमले को फिर एक साल तक लटकाऐ रखा। अगर औरत ये पाए कि शौहर का अज़ूवाऐ तनासुल (शर्मगाह) क़ताशूदा या शक्तिहीन (Paralysed) है तो उसे फ़ौरन अलैहदगी की दरख़ास्त करने का अधिकार हासिल हो जाता है। और इस मुआमले को मुल्तवी नहीं रखा जाता क्योंकि अब हमबिस्तरी की कोई तवक़्क़ो नहीं रहती और इंतिज़ार बेमानी होता है।

*3 अगर औरत को हमबिस्तरी से पहले या बाद में ये इल्म हो कि शौहर में कोई ऐसा मर्ज़ है जिस की वजह से वो उसके साथ बिना ख़ुद को नुक़्सान पहुंचाए गुज़र नहीं कर सकती मसलन जुज़ाम, कोढ़, आतिशक या (Syphilis), तपेदिक (Tuberculosis) तो औरत हाकिम या क़ाज़ी से रुजू करके अपने और शौहर के बीच अलैहदगी की माँग सकती है और मर्ज़ के साबित हो जाने और एक तय मुद्दत में इस मर्ज़ से छुटकारा पाने की संभावना ना होने पर इसकी माँग को मन्ज़ूर किया जाएगा। औरत का ये इख्तियार वक़्ती तौर पर नहीं होता बल्कि उसे ये इख्तियार हमेशा रहता है। उस की बुनियाद मौता इमाम मालिक में वारिद हज़रत सईद बिन मुसय्यब की रिवायत है वो कहते हैं कि: अगर एक शख़्स ने किसी औरत से मजनून पागल (Insane) होते हुए शादी की या उस शख़्स में नुक़्स था तो औरत को ये इख्तियार हो जाता है कि वो चाहे तो उसके साथ रहे और ना चाहे तो शौहर से अलैहदगी ले ले।

*4 अगर शौहर शादी होने के बाद मजनून हो जाए तो बीवी को इख्तियार होता है कि वो क़ाज़ी से संपर्क कर के अलैहदगी की माँग करे। क़ाज़ी एक साल तक इस मुआमले को मुल्तवी रखता है और अगर इस मुद्दत में शौहर का पागलपन ठीक नहीं होता और बीवी अपनी माँग पर क़ायम रहती है तो क़ाज़ी अलैहदगी का हुक्म जारी कर देगा जैसा कि पिछली रिवायत में वारिद हुआ।

*5 अगर शौहर किसी क़रीबी या दूर दराज़ के मुक़ाम का सफ़र करे और इस तरह ग़ायब हो जाए की ना तो उस की ख़बर मिलती हो और ना ही उससे बीवी का गुज़ारा भत्ता आता हो तो औरत को शौहर की तलाश और उस की ख़बर हासिल करने की तमाम तर कोशिश कर लेने के बाद ये हक़ होता है कि अलैहदगी की माँग करे क्योंकि हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) का मसनद इमाम अहमद (رحمت اللہ علیہ) और सुनन दार क़ुतनी में क़ौल नक़ल है कि आप (صلى الله عليه وسلم) ने बीवी के बारे में फ़रमाया कि वो कहते हैं:
))أطعمني و إلا فارقني((
यानी या मेरे लिए ग़िज़ा मुहय्या करो या मुझ से अलैहदा हो जाओ।
यहाँ ग़िज़ा मुहय्या ना करना अलैहदगी की इल्लत के तौर पर बयान किया गया।

*6 अगर शौहर और बीवी के बीच लडाई झगडा हो तो औरत अलैहदगी की माँग कर सकती है। क़ाज़ी ऐसे हालात में बीवी और शौहर के घर वालों में से एक एक शख़्स को इस झगडे का सालिस (मध्यस्त) बनाए और घर की ये कमेटी दोनों पक्षों की दुहाई और शिकायतों को सुने और दोनों में सुलह कराने के लिए अपनी तमाम तर कौशिश कर ले। फिर भी अगर ज़ौजैन (मियाँ बीवी) के बीच सुलह की कोई शक्ल ना बने तो ये कमेटी अपनी खोजबीन के बाद जिस तरह मुनासिब समझे, उनके बीच अलैहदगी कर दे।

 अल्लाह (سبحانه وتعال) का इरशाद है:

وَإِنۡ خِفۡتُمۡ شِقَاقَ بَيۡنِہِمَا فَٱبۡعَثُواْ حَكَمً۬ا مِّنۡ أَهۡلِهِۦ وَحَكَمً۬ا مِّنۡ أَهۡلِهَآ إِن يُرِيدَآ إِصۡلَـٰحً۬ا يُوَفِّقِ ٱللَّهُ بَيۡنَہُمَآۗ
और अगर तुम्हें इन दोनों के बीच इफ़्तिराक़ का अंदेशा हो, तो एक सालिस मर्द के लोगों में से और एक सालिस औरत के लोगों में से मुक़र्रर करो, अगर वो दोनों बनाओ चाहेंगे, तो अल्लाह उनमें मुवाफ़िक़त की सूरत पैदा कर देगा  (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अन्निसा 35)

चुनांचे इन खास हालात में शरीयत ने औरत को पहली सूरते हाल में ख़ुद को तलाक़ देने और बाक़ी हालात में शौहर से अलैहदगी की माँग करने का अधिकार रखा। इन हालात का जायज़ा लिया जाये तो स्पष्ट हो जाता है कि शरीयत इस अज़्दवाजी ज़िंदगी (वैवाहिक जीवन) में औरत को शौहर के साथी और शरीक की हैसियत से देखती है जो घर में होने वाले हर दुख और मुसीबत का उसी तरह शिकार होती है जिस तरह शौहर इनसे प्रभावित होता है। लिहाज़ा ये ज़रूरी हुआ कि वो शरीयत औरत को निकाह के अक़्द (contract) से आज़ाद होने का हक़ रखे । और निजी ख़ुशीयों और अमन और सलामती से महरूम होने की सूरत में भी वो इसी ज़िंदगी से बंधी रहने के लिए उसे मजबूर नहीं छोड़ दिया। उसे इस बात का हक़ रखा कि वो इन हालात में जहाँ निजी ज़िंदगी में बा आबरू और वैवाहिक ख़ुशहाली के ना होने की संभावना की सूरत में अपने निकाह को फिस्ख कर दे।

इस तरह ये बात वाज़िह हो जाती है कि अल्लाह (سبحانه وتعال) ने तलाक़ का इख्तियार मर्द के हाथ में रखा है क्योंकि मर्द औरत का वाली और निगरां और घर का ज़िम्मेदार होता है और ये कि निकाह को फिस्ख करने का इख्तियार औरत के लिए भी रखा है ताकि वो वैवाहिक ज़िंदगी में दुख और तकलीफों में बेबस ना हो जाये और वो घर जो सुकूनो इत्मिनान का गहवारा होना चाहीए, वो कशमकश और परेशानीयों का घर ना बन जाये।
जहाँ तक तलाक़ के लिए किसी इल्लत (वजह) की मशरूईयत  का सवाल है तो शरई नुसूस में तलाक़ की कोई इल्लत बयान नहीं की गई है लिहाज़ा उस की कोई इल्लत नहीं है अलबत्ता तलाक़ के क़ानून की हक़ीक़ते वाक़िया, शादी से इस का ताल्लुक़ और तलाक़ के छुपे हुऐ बिन्दु बयान किए जा सकते हैं। शादी की वाक़ई शक्ल ये है कि ये ख़ानदान की तामीर और उस ख़ानदान में चैन और सुकून की ग़रज़ के लिए होती है। लिहाज़ा अगर सूरते हाल ये हो कि इस में वैवाहिक ज़िंदगी ना मुम्किन बन जाये तो ऐसा रास्ता होना चाहीए जिसके ज़रीये शोहर और बीवी दोनों के लिए एक दूसरे से छुटकारा पाना मुम्किन हो। ऐसी सूरत में जहाँ दोनों या एक पक्ष के लिए भी ये बन्धन नागवार हो तो फिर उसे क़ायम रखने की इजाज़त नहीं है और इसी ग़रज़ के लिए अल्लाह (سبحانه وتعال) ने तलाक़ का क़ानून रखा है। अल्लाह (سبحانه وتعال) का फ़रमान है:

ٱلطَّلَـٰقُ مَرَّتَانِۖ فَإِمۡسَاكُۢ بِمَعۡرُوفٍ أَوۡ تَسۡرِيحُۢ بِإِحۡسَـٰنٍ۬ۗ
तलाक़े रजई दो ही बार है फिर दस्तूर के लिहाज़ से रोक लिया जाये या नेक तरीक़े से रुख़स्त कर दिया जाये। (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अल बक़रह 229)

ताकि घर में बदहाली और आफ़ात नहीं बल्कि लोगों के बीच निजी खुशगवारी और मसर्रतें क़ायम रहें। अगर दो लोगों के बीच उनके मिज़ाज और तबीयतों की वजह से, या उन पर ऐसे हालात हुए हों जिस से सूरते हाल बिगड़ चुकी हो अगर ऐसा ख़ुशगवार रिश्ता नहीं क़ायम नहीं रह सकता तो दोनों के लिए ऐसे अवसर उपलब्ध होना चाहिऐं जहाँ वो अपनी वैवाहिक खुशियाँ किसी और साथी में तलाश कर लें। अलबत्ता इस्लाम ने सिर्फ कराहत और बे रग़बती को तलाक़ का कारण नहीं बनाया बल्कि ज़ौजैन (मियाँ बीवी) को ये हुक्म दिया कि वो आपस में इज़्ज़त से ज़िन्दगी बसर करें और उन्हें तरग़ीब दिलाई कि वो ना गवारियों में सब्र से काम लें। मुम्किन है ये नागवारीयाँ किसी ख़ैर का कारण हों। अल्लाह (سبحانه وتعال) ने फ़रमाया:

وَعَاشِرُوهُنَّ بِٱلۡمَعۡرُوفِۚ فَإِن كَرِهۡتُمُوهُنَّ فَعَسَىٰٓ أَن تَكۡرَهُواْ شَيۡـًٔ۬ا وَيَجۡعَلَ ٱللَّهُ فِيهِ خَيۡرً۬ا ڪَثِيرً۬ا
और उन के साथ भले तरीक़े से रहो सहो, फिर अगर वो तुम्हें पसंद ना आएं तो मुम्किन है कि एक चीज़ तुम्हें पसंद ना हो और अल्लाह इसमें बहुत कुछ भलाई रख दे।
(तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अन्निसा 19)

अल्लाह (سبحانه وتعال) ने मर्द को हुक्म दिया कि वो ऐसी सबील और तरीक़े अपनाऐ  जिससे औरतों की नाफ़रमानियों की शिद्दत में कमी हो चुनांचे अल्लाह (سبحانه وتعال) का इरशाद है:

وَٱلَّـٰتِى تَخَافُونَ نُشُوزَهُنَّ فَعِظُوهُنَّ وَٱهۡجُرُوهُنَّ فِى ٱلۡمَضَاجِعِ وَٱضۡرِبُوهُنَّۖ
और वो औरतें जिनकी सरकशी का तुम्हें अंदेशा हो उन्हें समझाओ और बिस्तरों में उन्हें तन्हा छोड़ दो और उन्हें मार भी सकते हो। (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अन्निसा 34)

इस तरह अल्लाह (سبحانه وتعال) ने मियाँ बीवी के बीच तमाम समस्याओं को निमटाने और हल करने के लिए तमाम नरम और ग़ैर नरम तरीक़ा इख्तियार करने का हुक्म दिया ताकि तलाक़ की नौबत ना आए । ऐसे हालात में भी जब बा वक़ार ज़िंदगी नामुमकिन हो, शदीद वसाइल भी कारगर ना हों और मुआमला सिर्फ नापसंदी, नाफ़रमानी और सरकशी से बढ कर के झगडे और टूट फूट तक बढ़ जाये तब भी इस्लाम ने इसके बाद तलाक़ का मरहला नहीं रखा गो कि मियाँ बीवी के बीच सख्त संकट की हालत हो। इस के बरअक्स ये हुक्म दिया कि इस मुआमले में  मियाँ बीवी के रिश्तेदारों से रुजू किया जाये ताकि वो ज़ौजैन के बीच मुसालेहत की कोशिश कर सकें। अल्लाह (سبحانه وتعال) ने फ़रमाया:

وَإِنۡ خِفۡتُمۡ شِقَاقَ بَيۡنِہِمَا فَٱبۡعَثُواْ حَكَمً۬ا مِّنۡ أَهۡلِهِۦ وَحَكَمً۬ا مِّنۡ أَهۡلِهَآ إِن يُرِيدَآ إِصۡلَـٰحً۬ا يُوَفِّقِ ٱللَّهُ بَيۡنَہُمَآۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلِيمًا خَبِيرً۬ا
और अगर तुम्हें इन दोनों के बीच इफ्तिराक़ का अंदेशा हो तो एक सालिस मर्द के लोगों में से और एक सालिस औरत के लोगों में से मुक़र्रर करो अगर वो दोनों बनाओ चाहेंगे तो अल्लाह इन में मुवाफ़िक़त की सूरत पैदा कर देगा बेशक अल्लाह सब कुछ जानने वाला ख़बर रखने वाला है। (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अन्निसा 35)
अगर ये दोनों सालिस (mediater) भी मियाँ बीवी के बीच सुलैह कराने में कामयाब ना हों तो फिर इन तमाम कोशिशों के बाद अज़्दवाजी ज़िंदगी बरक़रार रखने की गुंजाइश बाक़ी नहीं रह जाती क्योंकि उन के बीच झगडे की गिरहें सुलझाई नहीं जा सकतीं और अलैहदगी के सिवा कोई राह नहीं रह जाती। अब तलाक़ लाज़मी हो जाती है ताकि वो अपनी वैवाहिक ख़ुशियाँ कहीं और हासिल कर सकें और तलाक़ उस मसले को हल कर सके। अल्लाह (سبحانه وتعال) ने फ़रमाया:

وَإِن يَتَفَرَّقَا يُغۡنِ ٱللَّهُ ڪُلاًّ۬ مِّن سَعَتِهِۦۚ وَكَانَ ٱللَّهُ وَٲسِعًا حَكِيمً۬ا
और अगर दोनों अलग ही हो जाएँ तो अल्लाह अपनी वुसअत से हर एक को बेनियाज़ कर देगा। अल्लाह है भी बड़ा कुशादा दामन, निहायत हिक्मत वाला (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अन्निसा 130)

बहरहाल उस तलाक़ के बाद भी ज़ौजैन के लिए गुंजाइश है कि वो फिर एक हो सकें। लिहाज़ा उनके बीच तलाक़ की वजह से होने वाली ये अलैहदगी स्थाई नहीं हुई। उन्हें पहली और दूसरी तलाक़ के बाद भी रजअत का हक़ होता है। पहली और दूसरी तलाक़ के बाद मियाँ बीवी अपनी शादी शुदा ज़िंदगी बहाल कर सकते हैं यानी पहली तलाक़ के बाद दूसरी बार और दूसरी तलाक़ के बाद तीसरी मर्तबा वो शादीशुदा ज़िंदगी की तरफ़ लौट सकते हैं। इस से मालूम हुआ कि शरीयत ने तलाक़ तीन बार रखी है। अल्लाह (سبحانه وتعال) का फ़रमान है:

ٱلطَّلَـٰقُ مَرَّتَانِۖ فَإِمۡسَاكُۢ بِمَعۡرُوفٍ أَوۡ تَسۡرِيحُۢ بِإِحۡسَـٰنٍ۬ۗ
तलाक़े रजई दो ही बार है फिर दस्तूर के लिहाज़ से रोक लिया जाये या नेक तरीक़े से रुख़स्त कर दिया जाये। (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन:अल बक़रह 229)

ताकि शौहर और बीवी दोनों को ये इख्तियार हो कि वो एक दूसरे को दुबारा अपना कर उन के सीने जो अल्लाह (سبحانه وتعال) के तक़्वे से लबरेज़ है, उसकी तरफ़ लौट आएं और अपनी शादीशुदा ज़िंदगी और इसमें ख़ुशियाँ और इत्मिनान लाने की फिर कोशिश करें। इस तरह पता चलता है कि इस्लाम ने शौहर के लिए ये इजाज़त रखी है कि वो अपनी बीवी से पहली और दूसरी तलाक़ के बाद रजअत कर ले। इस तरह शरई तरीक़ेकार ज़ौजेन को रजअत करके अपने पिछले तरीक़े पर दोबारा से ग़ौरो फिक्र करने का मौक़ा देता है ताकि वो पहले से ज़्यादा संजीदगी से मुआमले पर ग़ौर कर सकें। इस्लाम ने तलाक़ के बाद इद्दत की अवधि तीन हैज़ की रखी है जो क़रीब तीन माह की होती है या फिर हामिला औरत की ज़चकी (delivery) तक रखी और शौहर पर इद्दत के दौरान औरत के गुज़ारा भत्ता और सकन उपलब्ध कराना फ़र्ज़ रखा है, साथ ही उस औरत को इस दौरान घर से निकाल बाहर करने से रोका गया है जब तक कि उस की इद्दत पूरी ना हो जाये ताकि इस दौरान इनमें सुलैह की सूरत पैदा हो और एक दूसरे को क़बूल कर के पाकीज़गी की एक नई ज़िंदगी शुरू कर सकें। इस नुक़्ताऐ नज़र से क़ुरआने हकीम में साफ तंबीह और सरज़निश की गई। अल्लाह (سبحانه وتعال) ने फ़रमाया:

وَإِذَا طَلَّقۡتُمُ ٱلنِّسَآءَ فَبَلَغۡنَ أَجَلَهُنَّ فَأَمۡسِكُوهُنَّ بِمَعۡرُوفٍ أَوۡ سَرِّحُوهُنَّ بِمَعۡرُوفٍ۬ۚ وَلَا تُمۡسِكُوهُنَّ ضِرَارً۬ا لِّتَعۡتَدُواْۚ وَمَن يَفۡعَلۡ ذَٲلِكَ فَقَدۡ ظَلَمَ نَفۡسَهُ
और जब तुम औरतों को तलाक़ दे दो और उन की इद्दत पूरी होने को आ जाए तो दस्तूर के मुताबिक़ उन्हें रोक लो या दस्तूर के मुताबिक़ उन्हें रुख़स्त कर दो और तुम उन्हें नुक़्सान पहुंचाने की ग़रज़ से ना रोको कि हदूद से तजावुज़ करो और जो ऐसा करेगा उसने ख़ुद ही अपने ऊपर ज़ुल्म किया।
(तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अल बक़रह  231)

फिर अगर इन तमाम वसाइल का भी मुआमलात पर सही असर ना हो या पहली और दूसरी तलाक़ के बाद कुछ असर हुआ हो लेकिन फिर भी तीसरी तलाक़ हो जाये तो फिर ये सूरते हाल निहायत गहरी और उलझी हुई और आपसी शिकायत हद दर्जा होगी ऐसी सूरते हाल में निकाह का बाक़ी रहना तो दूर, रजअत बेफायदा होगी। अब इस ज़ौजीयत को बहाल करने की दुबारा कोशिश के बजाय पूरी तरह से हल और दूसरी शादी में नई ज़िंदगी ही एक मात्र हल बाक़ी रह जाता है। इस तरह ये तीसरी तलाक़ फ़ैसलाकुन होती है। अल्लाह (سبحانه وتعال) फ़रमाता है:

فَإِن طَلَّقَهَا فَلَا تَحِلُّ لَهُ ۥ مِنۢ بَعۡدُ حَتَّىٰ تَنكِحَ زَوۡجًا غَيۡرَهُ
(दो तलाक़ों के बाद) फिर अगर वो उसे तलाक़ दे दे तो इसके बाद वो उसके लिए जायज़ ना होगी जब तक कि वो इस के अलावा किसी दूसरे शौहर से हमबिसतर ना हौले। (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अल बक़रह 230)
अब इस तीसरी तलाक़ के बाद वो औरत अपने पिछले शौहर के लिए वर्जित हो गई जब तक कि वो किसी और शौहर के साथ रह कर हमबिस्तर ना हो जाए। हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया:
))حتی تذوق عسیلتہٖ و یذوق عسیلتھا((
जब तक कि वो एक दूसरे की मिठास ना चख लें।

यहाँ मिठास चखने से मुराद हमबिस्तरी है यानी जब तक वो मुकम्मल तौर पर वैवाहिक बन्धन में ना बंध जाएं। फिर अगर औरत किसी और शौहर के साथ फ़ितरी वैवाहिक जीवन में रहे और उसे वहाँ भी राहत ना हो और उन के बीच फिर अलैहदगी वाक़े हो जाये तो फिर औरत के लिए ये गुंजाइश है कि वो दुबारा अपने पहले शौहर से निकाह कर ले क्योंकि उसने दूसरे शौहर के साथ वैवाहिक ज़िन्दगी गुज़ार ली है और दोनों के बीच तुलना कर ली है। अब अगर वो पहले शौहर से रुजू कर रही है तो वो अपनी पसंद से कर रही है। यहाँ हम देखते हैं कि शरीयत ने उसे दूसरी शादी के बाद अपने पिछले शौहर जिसने उसे तीन बार तलाक़ दे दी थी, उससे रुजू करने की इजाज़त दी है। अल्लाह (سبحانه وتعال) ने फ़रमाया:

فَإِن طَلَّقَهَا فَلَا تَحِلُّ لَهُ ۥ مِنۢ بَعۡدُ حَتَّىٰ تَنكِحَ زَوۡجًا غَيۡرَهُ
(दो तलाक़ों के बाद) फिर अगर वो उसे तलाक़ दे दे, तो इस के बाद वो उसके लिए जायज़ ना होगी, जब तक कि वो इस के अलावा किसी दूसरे शौहर से हमबिसतर ना हौले।
(तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अल बक़रह 230)

इस के बाद इसी आयत में फ़ौरन फ़रमाया कि (فَإِن طَلَّقَهَا) अगर पहले शौहर के बाद दूसरा शौहर भी तलाक़ दे दे तो (فَلَا جُنَاحَ عَلَیْھِمَآ) उन के लिए कोई गुनाह नहीं, यानी पहला शौहर और वो औरत जिस की दूसरे शौहर से तलाक़ हो गई हो कि (أَنْ یَتَرَاجِعًا) वो दोनों फिर रजअत कर लें यानी दोनों आपस में शादी कर लें।
तलाक़ के कानून की कैफ़ीयत से ये बातें मालूम होती हैं और तलाक़ का तरीक़ा स्पष्ट होता है, इसके घटित होने और इसकी हिक्मत सामने आती है और सामाजिक ज़िंदगी पर उस की गहरी नज़र अयाँ होती है जिस से खुशियों भरी ज़िंदगी मुम्किन बने। अगर ये राहत बाक़ी ना रहे और उसे बहाल करने की कोई संभावना भी ना रहे तो मियाँ बीवी के बीच अलैहदगी ज़रूरी हो जाती है और इसीलिए अल्लाह (سبحانه وتعال) ने तलाक़ का हुक्म रखा है जिसे हम ने यहाँ वाज़िह कर दिया।

  
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