इज्माए सहाबा: इजमाअ की तारीफ़:

इज्माए सहाबा:
इजमाअ की तारीफ़: 

ھو الاتفاق علی حکم واقعۃ من الوقائع بأنہ حکم شرعي
(किसी वाक़े के हुक्म के बारे में ये इत्तिफ़ाक़ कि वो हुक्मे शरई है)

इजमाअ से मक़सूद हुक्मे शरई को ज़ाहिर करना है और इस का ज़हूर हमेशा दलील-ए-शरई से होता है । जैसा कि बताया जा चुका है कि शरई दलील या तो क़ुरआन है या सुन्नत और सिर्फ़ यही वह्यी है, इनके अलावा और कुछ भी वह्यी नहीं । चूँकि शरई दलील फ़क़त वह्यी हो सकती है, इसलिए वह्यी इजमाअ मोअतबर हो सकता है जिस से किसी शरई दलील का इन्किशाफ़ हो यानी वह्यी का इन्किशाफ़ । अलबत्ता चूँकि पूरा क़ुरआन वह्यी मतल महफ़ूज़ है, इसलिए ये गुंजाइश फ़क़त सुन्नत में बाक़ी रह जाती है। लिहाज़ा इजमाअ से मुराद रसूलुल्लाह के अक़्वाल, अफ़आल और इक़रार यानी सुन्नत से किसी ऐसी शरई दलील का इन्किशाफ़ है, जो हदीस की शक्ल में हम तक नहीं पहुंची मगर इजमाअ की शक्ल में ।

सवाल ये पैदा होता है किन लोगों के इजमाअ से ये अम्र मुम्किन है। जवाब ये है कि ये अम्र फ़क़त सहाबा के लिए मुम्किन है कि उन्होंने रसूलुल्लाह के बारे में कुछ देखा या सुना हो और इस शरई दलील को अपने इजमा की शक्ल में नक़ल क्या हो । उसकी वजह ये है कि सिर्फ़ सहाबा ऐ किराम ही को रसूलुल्लाह की सोहबत का शर्फ हासिल किया है, उनके बाद की नसलों को ये मसर्रत नसीब नहीं हुई। इसलिए उनके लिए रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم से किसी शरई दलील को नक़ल करना मुहाल है और उनका इजमाअ कोई शरई दलील मुनकशिफ़ नहीं करता, लिहाज़ा इस का ऐतबार नहीं किया जा सकता । चुनांचे फ़क़त सहाबा का इजमा शरई दलील यानी शरई माख़ज़ होने की हैसियत रखता है। याद रहे कि यहां इजमाअ से मुराद शरई दलील का सहाबा को मालूम होना है, ना कि इस का लफ़ज़न रिवायत करना। यानी इन सब को ये मालूम होना कि ये दलील सुन्नत में से है। हासिल ये है कि इजमा की मज़कूरा तारीफ़ ये तक़ाज़ा करती है कि ये इज्मा ए सहाबा तक ही महदूद हो। जहां तक इज्मा ए सहाबा के दलायल का ताल्लुक़ है, तो वो ये हैं:

وَٱلسَّـٰبِقُونَ ٱلۡأَوَّلُونَ مِنَ ٱلۡمُهَـٰجِرِينَ وَٱلۡأَنصَارِ وَٱلَّذِينَ ٱتَّبَعُوهُم بِإِحۡسَـٰنٍ۬ رَّضِىَ ٱللَّهُ عَنۡہُمۡ وَرَضُواْ عَنۡهُ وَأَعَدَّ لَهُمۡ جَنَّـٰتٍ۬ تَجۡرِى تَحۡتَهَا 
ٱلۡأَنۡهَـٰرُ خَـٰلِدِينَ فِيہَآ أَبَدً۬اۚ ذَٲلِكَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡعَظِيمُ

और जो मुहाजिरीन और अंसार साबिक़ और मुक़द्दम हैं और जितने लोग इख़लास के साथ उनके पैरौ हैं अल्लाह उन सब से राज़ी हुआ और वो सब इस से राज़ी हुए और अल्लाह ने उनके लिए ऐसे बाग़ मुहय्या कर रखे हैं जिनके नीचे नहरें जारी होंगी जिन में हमेशा रहेंगे ये बड़ी कामयाबी है (अल तौबा-100)

इस आयत में अल्लाह سبحانه وتعال ने सहाबा के गिरोह की मदह फ़रमाई है और ये मदह बगै़र किसी क़ैद-व-तख़सीस के है जो कि उन की सदाक़त की क़तई दलील है। यहां ये ना कहा जाये कि आयत में ताबईन की भी मदह है, लिहाज़ा उनका इजमाअ भी हुज्जत ठहरा। ये इसलिए क्योंकि उन की मदह मुतलक़ नहीं बल्कि सहाबा के इत्तिबा से मुक़य्यद है, मुतलक़ मदह फ़क़त सहाबा किराम के लिए है, चुनांचे ये असल ठहरी। यहां ये भी नहीं कहाँ जा सकता कि जब सब सहाबा की तारीफ़ की गई है, तो इन्फ़िरादी तौर पर हर सहाबी भी इस के लायक़ ठहरे यानी एक सहाबी का क़ौल भी शरई दलील है। ये इसलिए क्योंकि यहां सहाबा की एक गिरोह की हैसियत से मदह पाई गई है ना कि इन्फ़िरादी हैसियत से क्योंकि (इत्तबिउहुम) सैग़ा ऐ जमा की ज़मीर के साथ वारिद हुआ है ना कि वाहिद की ज़मीर के साथ।

إِنَّا نَحۡنُ نَزَّلۡنَا ٱلذِّكۡرَ وَإِنَّا لَهُ ۥ لَحَـٰفِظُونَ
हम ने ये क़ुरआन नाज़िल किया और हम ही इस के मुहाफ़िज़ हैं (अल हिज्र-9)

ये आयत भी सहाबा के इजमा की सदाक़त पर दलालत कर रही है क्योंकि अमली तौर पर उन्ही की जमा, नक़ल और हिफ़ाज़त से क़ुरआन हम तक क़तई तरीक़ से पहुंचा है। और अल्लाह سبحانه وتعال का फ़रमान है :

لَّا يَأۡتِيهِ ٱلۡبَـٰطِلُ مِنۢ بَيۡنِ يَدَيۡهِ وَلَا مِنۡ خَلۡفِهِۦۖ
बातिल इस को ना आगे से छू सकता है ना पीछे से (फुस्सिलात-42)

ये आयत इस बात की क़तई दलील है कि सहाबा किसी ग़लती पर जमा नहीं हो सकते और ये अम्र उन के इजमाअ की क़तई शरई दलील है। अगर उनके ख़ता पर इकट्ठे होने को मान लिया जाये तो पूरे दीन में ग़लती के इमकान को मानना लाज़िम आएगा, और ये अम्र नामुमकिन है बदलील मज़कूरा। इन्ही से हम ने अपना दीन लिया है और उसी की बुनियाद पर यौम क़ियामत में सब का हिसाब होगा। याद रहे कि इजमाअ से मुराद उन की ज़ाती राय पर इत्तिफ़ाक़ नहीं है, बल्कि ये ऐसी शरई दलील (सुन्नत) को मुनकशिफ़ करना है जिस का हुक्म उनसे बिला दलील मर्वी हो।

इजमा सहाबा की तारीफ़ : 

ھو الإجماع علی حکم من الأحکام بأنہ حکم شرعي
( ( सहाबा किराम का) किसी हुक्म के बारे में ये इजमाअ कि वो हुक्मे शरई है )

इज्मा ए सुकूति भी एक दलील है और इस से मुराद ये है कि जब बाअज़ सहाबा से एक हुक्मे शरई मज़कूर हो, तो बाक़ी इस पर सुकूत इख़्तियार करें क्योंकि किसी ख़ता पर इन का इजमा नामुमकिन है बदलील मज़कूरा। इजमाअ सुकवती तब मोतबर होगा जब ये तीन शराइत पूरी हूँ :

(1) हुक्मे शरई वो है जिस का आदतन इनकार किया जाये और सहाबा ऐ किराम ने इस पर सुकूत ना इख़्तियार किया हो ।

(2) सहाबा तक किसी वाक़े की इत्तिला पहुंचे और उन्होंने इसे सुना और इस पर सुकूत इख़्तियार किया। अगर उन्होंने नहीं सुना तो ये मोतबर नहीं होगा।

(3) ये सुकूत ख़लीफ़ा के इस तसर्रुफ़ के बारे में ना हो जो वह अपनी राय-व-इज्तिहाद के मुताबिक़ करता है । मसलन रियासती मिल्कियत के अमवाल का तसर्रुफ़ । इस सूरत में सहाबा के सुकूत को इजमाअ नहीं बल्कि ख़लीफ़ा की इताअत समझा जाएगा।

इज्मा ए सहाबा की मिसालें : रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم की वफ़ात के बाद किबार सहाबा सक़ीफ़ा बनी साअदा की तरफ़ तशरीफ़ ले गए और ख़लीफ़ा के तक़र्रुर में तीन दिन मसरूफ़ रहे, बावजूद कि मय्यत की तदफ़ीन वाजिब है । चूँकि तमाम सहाबा का किसी नाजायज़ फे़अल पर जमा होना नामुमकिन है, इसलिए आप की तदफ़ीन से क़ब्ल ख़लीफ़ा का तक़र्रुर, उनके इजमाअ पर दलालत कर रहा है।

इसी तरह हज़रत उमर رضي الله عنه ने ख़िलाफ़त के लिए छः ऐसे सहाबा को नामज़द किया जो अशराऐ मुबश्शरा में से थे। उन्हें ये हुक्म दिया कि तीन दिन के अंदर जब ये लोग किसी एक शख़्स की बैअत पर मुत्तफ़िक़ हो जाएं, फिर अगर इन में से कोई सहाबी इस से तनाज़ा करे, तो उसकी गर्दन उड़ा दो और आप की इस बात पर तमाम सहाबा ने सुकूत इख़्तियार किया । किसी मुसलमान को नाहक़ क़त्ल करना हराम है, अलबत्ता उनका मर्तबा आम मुसलमानों से बुलंद होने के बावजूद सहाबा ऐ किराम इस क़त्ल के हुक्म पर ख़ामोश रहे, ये वाक़े उनके इजमाअ सुकूती की दलील है। लिहाज़ा इन दोनों वाक़ियात से तीन दिन के अंदर ख़लीफ़ा के तक़र्रुर का वुजूब इजमाअ-ए-सहाबा से साबित हुआ।

और इज्मा ए सहाबा से ये क़ायदा लिया गया है : 

أمر الإمام یرفع الخلاف
(इमाम का हुक्म इख़्तिलाफ को ख़त्म करता है)। यानी सिर्फ़ ख़लीफ़ा ही अहकाम और क़वानीन की तबन्नी का इख़्तियार रखता है, ना कोई और मसलन मजलिसे उम्मत ( मजलिसे शूरा )।

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