खिताबे तकलीफ


खिताबे तकलीफ (हुक्मे तकलीफ़ी) में या तो किसी फे़अल (काम) को करने की तलब (demand) होगी या किसी फे़अल को तर्क करने की तलब या फिर इस में किसी फे़अल को करने या छोड़ने का इख़्तियार दिया जायेगा। इस के नतीजे में अहकामे शरईया की ये पांच किस्मे सामने आती हैं:

फ़र्ज़ , मंदूब , मुबाह , मकरूह और हराम । 

ज़िंदगी के तमाम अफ़आल इन्ही में महदूद हैं। उस की तफ़सील ये है:

फ़र्ज़:

शारेअ (अल्लाह سبحانه وتعالى) का ख़िताब (सम्बोधन) अगर किसी फे़अल (काम) के करने से मुताल्लिक़ हो और ये तलबे जाज़िम (definitive demand/ निश्चित/निर्णयक मांग) के साथ हो, तो ये फ़र्ज़ या वाजिब कहलाएगा। फ़र्ज़ और वाजिब के एक ही माअनी हैं और इनमें कोई फ़र्क़ नहीं क्योंकि ये दो लफ़्ज़ मुतरादिफ़ (पर्याय) हैं। ये कहना सही नहीं कि जो चीज़ क़तई दलील (क़ुरआन और सुन्नते मुतवातिर) से साबित है वो फ़र्ज़ है और जो ज़न्नी दलील (ख़बरे वाहिद और क़ियास) से साबित है वो वाजिब है। ये इसलिए क्योंकि दोनों नामों (फ़र्ज़ या वाजिब) की एक ही हक़ीक़त है और वो ये कि शारेअ ने किसी फे़अल करने की तलबे जाज़िम की है। इस ऐतबार से क़तई दलील और ज़न्नी दलील में कोई फ़र्क़ नहीं है क्योंकि ये मसला ख़िताब के मदलूल से मुताल्लिक़ है ना कि इस के सबूत से।

फ़र्ज़ वह है जिस के करने वाले की तारीफ़ की जाये और ना करने वाले की मज़म्मत की जाये या इसको छोड़ने वाला सज़ा का मुस्तहिक़ हो।

फ़र्ज़ को क़ायम करने की हैसियत से, उस की दो किस्में हैं: 

फ़र्ज़े ऐन और फ़र्ज़े किफ़ाया। 

उन के वाजिब होने के ऐतबार से, इन में कोई फ़र्क़ नहीं क्योंकि दोनों तलबे जाज़िम के साथ हैं। अलबत्ता उन को क़ायम करने की हैसियत से इनमें ये फ़र्क़ है कि फ़र्ज़ ऐन में हर फ़र्द से ज़ाती तौर पर फे़अल अंजाम देने का मुतालिबा किया गया है, जबकि फ़र्ज़े किफ़ाया में आम तौर पर मुसलमानों से फे़अल का मुतालिबा किया गया है, यानी ख़िताब का मक़सद मुअय्यन (खास) फे़अल की अंजाम दही है ना ये कि हर फ़र्दे वाहिद उसे अंजाम दे। लिहाज़ा अगर इस फे़अल को बाअज़ मुसलमानों ने सरअंजाम दे दिया (यानी फे़अल की अदायगी क़ायम हो चुकी) तो बाक़ीयों से इस का ज़िम्मा साक़ित हो जाएगा (हट जायेगा)। अलबत्ता सवाब के मुस्तहिक़ वही होंगे जिन्हों ने इस फे़अल को किया । और अगर इस फे़अल को किसी ने अंजाम नहीं दिया, तो जब तक वो क़ायम नहीं हो जाता, सब गुनहगार रहेंगे, मासिवा वो लोग जो उस की अदायगी में मशग़ूल हैं।

शारे की तरफ़ से किसी फे़अल को करने की तलब सेग़ा ए-अम्र (افعل) के साथ होगी या जो कुछ इस मानी के क़ाइम मक़ाम (मायने मे बराबर) हो। फिर अगर कोई ऐसा क़रीना पाया जाये जो फे़अल को तलबे जाज़िम होने का फ़ायदा दे , तो इस सेग़ा ऐ तलब और करीना ए जाज़िमा के वजह से, फे़अल (काम) वाजिब क़रार पायगा।

मिसाल :

وأقیموا الصلاۃ
और नमाज़ क़ायम करो (अल नूर-56)

إن الصلاۃ کانت علی المؤمنین کتابا موقوتا
“यक़ीनन नमाज़ मोमिनों पर मुक़र्रर वक़्तों पर फ़र्ज़ है” (अन्निसा-103)

पहली आयत में ( أقیموا) सेग़ा ऐ अम्र (हुक्म/order/आदेश) में है और दूसरी में   (کتابا موقوتا) सेग़ा ऐ अम्र का क़ाइम मुक़ाम (बराबर) है क्योंकि ये अम्र (हुक्म/order/आदेश) के मानी में है। इन दोनों आयात से नमाज़ की तलब साबित है मगर जिस क़रीना ने इस तलब को जाज़िम (definitive/ निश्चित/निर्णयक) क़रार दिया वो ये आयत है:

مَا سَلَڪَكُمۡ فِى سَقَرَ ( ٤٢ ) قَالُواْ لَمۡ نَكُ مِنَ ٱلۡمُصَلِّينَ
“तुम्हें दोज़ख़ में किस चीज़ ने डाला? वो जवाब देंगे कि हम नमाज़ी ना थे” (मुदस्सिर-42,43)

यूं इस तलबे जाज़िम से नमाज़ की फ़र्ज़ीयत समझी गई है।

मंदूब:

शारेअ का ख़िताब अगर किसी फे़अल (काम) को करने के बारे में हो लेकिन तलबे जाज़िम के साथ ना हो, तो ये मंदूब कहलाएगा। मंदूब, सुन्नत और निफ्ल के एक ही मानी हैं, अलबत्ता इसे इबादात में सुन्नत व निफ्ल कहा जाता है, जब कि दूसरे मुआमलात पर मंदूब का इत्लाक़ होता (समझा जाता) है। मंदूब वो है जिस के करने वाले की तारीफ़ की जाये और छोड़ने वाले की मज़म्मत ना की जाये, यानी करने वाला सवाब का मुस्तहिक़ हो और छोड़ने वाला सज़ा का मुस्तहिक़ ना हो।

शारेअ के ख़िताब में किसी फे़अल (काम) को करने की तलब (डिमांड) पाई जाये, फिर इस में कोई ऐसा क़रीना (इशारा) पाया जाये जो तलब को ग़ैर-जाज़िम (non-definitive/ अनिश्चित/अनिर्णयक) होने का फ़ायदा दे, तो इस के वजह से फे़अल मंदूब क़रार पायगा।

मिसाल :

"صلاۃ الجماعۃ تفضل علی صلاۃ الفرد بسبع وعشرین درجۃ "
 (متفق علیہ)
“जमात में नमाज़ पढ़ना, अकेले पढ़ने से सत्ताईस मर्तबा बेहतर है”

यहां रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने सेग़ा ऐ अम्र के मानी में नमाज़े जमात की तलब फ़रमाई, मगर इस मसले में एक ऐसा क़रीना (इशारा) मौजूद है जो उसे तलबे ग़ैर-जाज़िम होने का फ़ायदा दे रहा है, वो यह की इन्फ़िरादी तौर पर नमाज़ पढ़ने पर, आप صلى الله عليه وسلم के सुकूत (खामोशी) की दलील है और इस फे़अल में अल्लाह से क़ुर्बत (नज़दीकी) का हुसूल, लिहाज़ा नमाज़े जमात मंदूब (सुन्नत) क़रार पाई।

हराम:

शारेअ का ख़िताब अगर किसी फे़अल (काम) को तर्क करने (छोडने) के बारे में हो और ये तलबे जाज़िम के साथ हो, तो ये हराम या महज़ूर कहलाएगा। इन दोनों का एक ही मानी है।

हराम वो है जिस के करने वाले की मज़म्मत की जाये और छोड़ने वाले की तारीफ़ की जाये या करने वाला सज़ा का मुस्तहिक़ हो।

शारेअ के ख़िताब में किसी फे़अल को तर्क करने की तलब सेग़ा ऐ नहीं (لا تفعل /नहीं करने) में होगी या जो कुछ इस मानी का क़ाइम मक़ाम (बराबर) हो। फिर अगर इस में कोई ऐसा क़रीना पाया जाये जो फे़अल के तर्क (छोडने) को तलबे जाज़िम होने का फ़ायदा दे, तो इस के बाइस (सबब) ये फे़अल हराम क़रार पायगा।

मिसाल :
وَلَا تَقۡرَبُواْ ٱلزِّنَىٰٓۖ إِنَّهُ ۥ كَانَ فَـٰحِشَةً۬ وَسَآءَ سَبِيلاً۬
“ख़बरदार ज़िना के क़रीब भी ना फटकना क्यों कि वो बड़ी बेहयाई है और बहुत ही बुरी राह है” (अल इसरा-32)

यहां सेग़ाए नहीं (لا تقربوا) से तलबे तर्क (छोडने की मांग) साबित है , जबकि (إنہ کان فاحشہ وساء سبیلا) इस के तलबे जाज़िम होने का क़रीना (इशारा) है। यूं ज़िना का हराम होना साबित हुआ।

मकरूह:

शारेअ (शरीअत अता करने वाला/ अल्लाह سبحانه وتعالى) का ख़िताब अगर किसी फे़अल (काम) को तर्क करने (छोडने) के बारे में हो मगर तलब जाज़िम के साथ ना हो, तो ये मकरूह कहलाएगा। मकरूह वो है जिस के छोड़ने वाले की तारीफ़ की जाये और करने वाले की मज़म्मत ना की जाये, या जिस का छोड़ना करने से बेहतर हो।

शारेअ के ख़िताब में किसी फे़अल को तर्क करने की तलब (मांग) पाई जाये, फिर इस में कोई ऐसा क़रीना (इशारा) पाया जाये जो उस को तलबे ग़ैर- जाज़िम (बिना निश्चित मांग का) होने का फ़ायदा दे, तो इस के बाइस ये फ़ेअले मकरुह क़रार पायगा।

मिसाल :

)من کان موسرا ولم ینکح فلیس منا (البیھقي(
(वो जो मालदार हो और निकाह ना करे तो वो हम में से नहीं)

यहां सेग़ाऐ नहीं (मनाही) के मानी में रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने निकाह नहीं करने से मना किया है, अलबत्ता आप صلى الله عليه وسلم ने बाअज़ मालदारों के निकाह ना करने पर सुकूत (खामोशी) इख़्तियार कि, जो इस तलब (मांग) के ग़ैर-जाज़िम (अनिश्चत) होने का क़रीना है। लिहाज़ा मालदारों के लिए अदम निकाह मकरूह क़रार पाया।

मुबाह (Permitted/जाईज़/हलाल):

शारेअ का ख़िताब जब किसी फे़अल को करने या तर्क करने के बारे में इख़्तियार दे, तो वो मुबाह कहलाएगा। यानी इस इख़्तियार पर कोई शरई दलील हो। ये इसलिए क्योंकि मुबाह अहकामे शरईया में से है, यानी ये, इबाहत के हुक्मे पर शारेअ का ख़िताब (सम्बोधन) है जो हमेशा दलील से साबित होता है, क्योंकि क़ाइदा है

)لا حکم قبل ورود الشرع(
(शराअ मे वारिद होने से पहले कोई हुक्मे नहीं)

लिहाज़ा ये नहीं कहा जा सकता कि हर वो फे़अल जिस पर शराअ (शरीअत) ख़ामोश है, यानी जिसे ना शराअ ने हराम क़रार दिया हो और ना हलाल, तो वो मुबाह है। जहां तक इस हदीस का ताल्लुक़ है :

الحلال ما أحل اللّٰہ في کتابہ والحرام ما حرم اللّٰہ
في کتابہ وما سکت عنہ فھو مما عفا عنہ  )الترمذي(
(हलाल वो है जिसे अल्लाह ने अपनी किताब में हलाल क़रार दिया है और हराम वो है जिसे अल्लाह سبحانه وتعال ने अपनी किताब में हराम क़रार दिया है और जिस पर वो ख़ामोश है वो माफ़ है)

तो इस में इस बात की दलील नहीं है कि जिस चीज़ पर क़ुरआन ख़ामोश है तो वो मुबाह है, क्योंकि क़ुरआन की तरह हदीस में भी हराम और हलाल के अहकाम पाए जाते हैं जैसा कि आप का फ़रमान है:

ألا اني أوتیت القرآن و مثلہ معہ ) أحمد(
(बेशक मैं क़ुरआन और उस की मिस्ल (सुन्नत) के साथ भेजा गया हूँ)

पस पहली हदीस का मानी ये नहीं है कि जिस बात पर वह्यी ख़ामोश है तो वो मुबाह है। ये इसलिए क्योंकि आप صلى الله عليه وسلم के फ़रमान: الحلال ما أحل اللّٰہ में हर वो चीज़ शामिल है जो हराम ना हो, चुनांचे इस में फ़र्ज़, मंदूब, मुबाह और मकरूह, सब शामिल हैं क्योंकि ये सब हलाल हैं, यानी वह्यी ने उन्हें हराम नहीं क़रार दिया। जहां तक हदीस के दूसरे हिस्से का ताल्लुक़ है : وما سکت عنہ فھو مما عفا عنہ तो इस का मतलब ये है कि जिन चीज़ों पर सुकूत (खामोशी) है, वो हलाल हैं और ये अल्लाह की तरफ़ से माफ़ हैं और ये इंसानों पर उस की रहमत है कि उस ने, उन के लिए उन्हें हराम नहीं बल्कि हलाल क़रार दिया। उस की दलील ये हदीस है:

إن أعظم المسلمین في المسلمین جرما من سأل عن شیء
لم یحرم علی المسلمین فحرم علیھم من أجل مسألتہ ‘‘(مسلم(
(मुसलमानों में से वह जो मुसलमानों के ख़िलाफ़ अपने जुर्म में सब से बड़ा है जिस ने किसी ऐसी चीज़ के बारे में जो मुसलमानों के लिए हराम नहीं थी मगर इस के सवाल करने की वजह से वो उन पर हराम कर दी गई)

यानी ऐसी चीज़ के बारे में पूछ जिस की तहरीम (हराम होने) पर वह्यी ख़ामोश है। लिहाज़ा इन अहादीस में सुकूत (खामोशी) से मुराद किसी चीज़ की तहरीम पर सुकूत है, ना कि हुक्मे शरई के बयान पर सुकूत। ये इसलिए क्योंकि ऐसा कोई फे़अल या चीज़ है ही नहीं जिसे शारेअ (अल्लाह कानून साज़) ने बयान ना किया हो, बल्कि वह्यी में हर मसले का हल है क्योंकि अल्लाह سبحانه وتعال का फ़रमान है:

وَنَزَّلۡنَا عَلَيۡكَ ٱلۡكِتَـٰبَ تِبۡيَـٰنً۬ا لِّكُلِّ شَىۡءٍ۬
हम ने ऐसी किताब नाज़िल की है जो हर चीज़ को खोल खोल कर बयान  करती है (अल नहल-89)

यह आयत इस बात की क़तई दलील है कि शराअ ज़िंदगी के किसी मसले में ख़ामोश नहीं, बल्कि इस में ज़िंदगी के तमाम अफ़आल और अशिया (ज़रूरत की चीज़ों) पर हुक्मे मौजूद है और इस बात पर एतिक़ाद ईमान का तक़ाज़ा है। पस दूसरे अहकामे शरईया की अक़साम की तरह मुबाह भी अपनी दलील से साबित होता है।

मिसाल :

وَإِذَا حَلَلۡتُمۡ فَٱصۡطَادُواْۚ
जब तुम एहराम उतार डालो तो शिकार खेलो (अल माईदा-2)

यहां एहराम खोलने के बाद शिकार का हुक्म दिया जा रहा है मगर एक दूसरे क़रीना की वजह से शिकार खेलना फ़र्ज़ या मंदूब नहीं, बल्कि मुबाह है। वो क़रीना ये है:

غَيۡرَ مُحِلِّى ٱلصَّيۡدِ وَأَنتُمۡ حُرُمٌۗ
हालते एहराम में शिकार को हलाल जानने वाले ना बनना (अल माईदा -1)

शिकार का हुक्मे, एहराम पहनने की नहीं (मनाही) के बाद आया है, पस एहराम खोलने के बाद शिकार मुबाह ठहरा क्योंकि ये अपनी असली हालत की तरफ़ वापस लौटेगा, यानी एहराम से पहले वाली हालत जिस में शिकार मुबाह है।

नेज़ी यह भी नहीं कहा जा सकता कि अगर किसी फे़अल के बारे में कोई हर्ज (ना इत्तिफाकी) ना पाया जाये तो वो फे़अल ख़ुदबख़ुद मुबाह (हलाल) ठहरेगा। या अगर किसी फे़अल से हर्ज उठा लिया गया हो तो इस के मानी इजाज़त है। ये इसलिए क्योंकि किसी चीज़ की हुर्मत से उस की ज़िद (उल्टा/opposite) का हुक्म साबित नहीं होता और ना ही किसी चीज़ के हुक्मे से उस की ज़िद पर तहरीम (हराम होना) साबित होती है। बल्कि रफ़उल हर्ज (हर्ज का उठना) किसी फ़र्ज़ से जुडा हुआ हो सकता है जैसे :

فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡهِ أَن يَطَّوَّفَ بِهِمَاۚ
पस बैतुल्लाह का हज व उमरा करने वाले पर उनके तवाफ़ कर लेने में भी कोई गुनाह नहीं (अल बक़राह-158)

 इस आयत में, रफ़उल हर्ज (हर्ज का उठना) के बावजूद, हज और उमरा के दौरान तवाफ़ करना फ़र्ज़ है मुबाह नहीं। इसी तरह रफ़उल हर्ज किसी रुख़सत के साथ भी मुंसलिक (जुडा) हो सकता है जैसे
:
وَإِذَا ضَرَبۡتُمۡ فِى ٱلۡأَرۡضِ فَلَيۡسَ عَلَيۡكُمۡ جُنَاحٌ أَن تَقۡصُرُواْ مِنَ ٱلصَّلَوٰةِ
जब तुम सफ़र में जा रहे हो तो तुम पर नमाज़ों के कस्र करने में कोई गुनाह नहीं (अन्निसा- 101)

यहां रफ़उल हर्ज का मतलब इबाहत नहीं, बल्कि एक हालत (सफ़र) में क़सरे नमाज़ की रुख़स्त दी गई है। लिहाज़ा मुबाह वो नहीं है जिस में हर्ज ना पाया जाये या जिस से हर्ज उठा लिया जाये , बल्कि मुबाह वह है जिस के छोड़ने या करने के इख़्तियार (इजाज़त) के बारे में शारे के ख़िताब पर कोई समई दलील पाई जाये ।

मिसाल :

نِسَآؤُكُمۡ حَرۡثٌ۬ لَّكُمۡ فَأۡتُواْ حَرۡثَكُمۡ أَنَّىٰ شِئۡتُمۡۖ
तुम्हारी बीवीयां तुम्हारी खेतियां हैं अपनी खेतियों में जिस तरह चाहो आओ (अल बक़राह-223)

अलावा अज़ीं ये कहना भी ग़लत है कि दौरे जाहिलियत के कई मुआमलात इस्लाम की बेअसत (आने) के बाद भी जारी रहे और इस्लाम ने उन पर ख़ामोशी इख़्तियार की और वे मुबाह माने गए, जबकि जिन चीज़ों से रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने मना फ़रमाया, सिर्फ़ वही नाजायज़ ठहरे। लिहाज़ा यह कहना की असल ये है कि जब तक शराअ किसी बात पर ख़ामोश है और उसे हराम नहीं क़रार देती, तो वे जायज़ होगी, ये इस वजह से ग़लत है क्योंकि किसी बात पर रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم की ख़ामोशी का मतलब ये नहीं है कि शराअ ख़ामोश है। बल्कि, इस के बरअक्स, शराअ ने तो हुक्मे को बयान कर दिया है, जो इस सूरत में मुबाह है। ये इसलिए क्योंकि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم की ख़ामोशी, आप صلى الله عليه وسلم के अफ़आल और अक़वाल की तरह, बज़ाते ख़ुद दलील है और सुन्नत का एक जुज़ (हिस्सा), और सुन्नत क़ुरआन की तरह एक शरई माख़ज़ (स्त्रोत/सरचश्मा) है। लिहाज़ा आज जब हम कोई ऐसा फे़अल अंजाम देते हैं जो दौरे-जाहिलियत में भी हुआ करता था, तो हम उसे इस हैसियत से इख़्तियार करते हैं कि ये हुक्मे शरई है और उस की कोई दलील मौजूद है, ना इस हैसियत से कि ये दौरे-जाहिलियत की कोई रस्म या मुआमला है।

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