अज़ीमत और रुख़सत
अज़ीमत की तारीफ़:
ما شرع من الأحکام تشریعا عاما و ألزم بالعمل بہ
(अहकाम शरईया में से जिस की तशरीअ आम है और जिस पर अमल करना लाज़िम है)
रुख़सत की तारीफ़:
ما شرع من الأحکام تخفیفا للعزیمۃ لعذر مع بقاء حکم العزیمۃ و لکن بغیر إلزام للعباد بالعمل بہ
(अहकामे शरईया में से जिस की तशरीअ में किसी उज़्र की वजह से अज़ीमत में तख़फ़ीफ़
पाई जाये, बगै़र बंदे के लिए इस पर अमल के लाज़िम होने के, अज़ीमत का हुक्म बाक़ी रहे)
रुख़सत चूँकि ख़िताबे वज़ा में से है जो बंदे के अफ़आल से मुताल्लिक़ शारेअ का ख़िताब है, इसलिए उसकी कोई शरई दलील होना लाज़िमी है। दूसरे लफ़्ज़ों में इस उज़्र का ज़िक्र शरई नुसूस में होना ज़रूरी है।
मिसाल :
)لیس علی الأعمی حرج ولا علی الأعرج حرج ولا علی المریض حرج(
नाबीना,लँगड़े और मरीज़ का जिहाद से घर रहने पर कोई हर्ज नहीं
आयत में अंधापन, अपाहिजी और मर्ज़ को जिहाद में जाने के लिए उज़्र क़रार दिया गया है। लिहाज़ा यहां जिहाद की अज़ीमत यानी आम हुक्म की रुख़सत को बयान किया गया है। इसी तरह रोज़ा रखना अज़ीमत है और सफ़र में रोज़ा ना रखना रुख़सत है, वुज़ू में ख़ास अज़ा को धोना अज़ीमत है जबकि ज़ख्म पर मस्ह करना रुख़सत है और नमाज़ों को अपने अपने औक़ात में अदा करना अज़ीमत है जबकि सफ़र या बारिश में उन्हें (ज़ुहर-व-अस्र को और मग़रिब-व-इशा को) जमाअ करना रुख़सत है । अलबत्ता इन तमाम उज़रात के बावजूद अज़ीमत का हुक्म बरक़रार रहेगा और उसी पर अमल करना अफ़ज़ल होगा, जब तक इस के बरअक्स कोई दलील ना हो। ये इसलिए क्योंकि रुख़सत मुबाह हुआ करती है, ना कि मंदूब या फ़र्ज़। यहां ये ना कहा जाये कि अगर हलाक होने का ख़ौफ़ हो तो सूअर का गोश्त खाना फ़र्ज़ हो जाएगा क्योंकि अपने आप को हलाक करना हराम है, लिहाज़ा इस सूरत में रुख़सत फ़र्ज़ ठहरी। ये इसलिए ना कहा जाये क्योंकि हलाकत के ख़ौफ़ से सूअर का गोश्त हराम ही रहेगा, हाँ अगर उसे ना खाने से उसकी हलाकत का यक़ीन हो जाए, तब इस पर हराम य होगा कि वो अपने आप को उसे खाने से बाज़ रखे और इस पर ये खाना वाजिब हो जाएगा। इस सूरत में इस ने रुख़सत पर नहीं बल्कि हक़ीक़त में अज़ीमत पर अमल किया, क्योंकि अगर कोई मुबाह अमल हराम का वसीला बने तो वो भी हराम है, शरई क़ाअदा है: الوسیلۃ إلی الحرام حرام (हराम का वसीला भी हराम है) । ये क़ाअदा तमाम मुबाहात पर लागू होता है सिर्फ़ रुख़सत पर ही नहीं। पस रुख़सत मुबाह है, लेकिन अगर इस का तर्क और अज़ीमत पर अमल, हतमी तौर पर हराम तक पहुंचाए, तो मुबाह पर अमल हराम होगा।
अज़ीमत का हुक्म आम है इसलिए आम तौर पर उसी पर अमल वाजिब होगा। सिर्फ़ इस सूरत में जब कोई शरई उज़्र वाक़ेअ हो, तो इस में रुख़सत मोतबर होगी और इस पर अमल जायज़ होगा। अलबत्ता जूंही ये उज़्र ज़ाइल हो जाए तो ये मुआमला अज़ीमत की तरफ़ लौट आएगा और दोबारा इस (अज़ीमत) पर अमल करना लाज़िम होगा। चूँकि ये मुअय्यन आज़ार मुअय्यन अहकाम के लिए, अपने शरई दलायल के साथ वारिद हुए हैं और इन में कोई शरई इल्लत नहीं पाई गई, इसलिए उन्हें दूसरे मसाइल पर क़ियास नहीं किया जाएगा। लिहाज़ा ये ना कहा जाये कि सफ़र में कस्र-ए-नमाज़ की इल्लत मशक़्क़त है और फिर इस के नतीजा में जिस मौक़ा पर मशक़्क़त पाई जाये तो नमाज़ की तक़सीर जायज़ हो जाएगी। ये इसलिए क्योंकि इस मुआमले में मशक़्क़त नहीं बल्कि सफ़र इल्लत है क्योंकि शारेअ ने नुसूस में उसे इल्लत बयान किया है (من کان)إلی قولہ( علی سفر فعدۃ من أیام أخر) (तुम में से जो शख़्स ..... मुसाफ़िर हो, उसे दूसरे दिनों में ये गिनती पूरी करनी चाहिए ) मशक़्क़त इल्लत-ए-कासिरा है क्योंकि ये मुम्किन है कि कोई शख़्स गाड़ी में सफ़र करे जिस की वजह से इस में कोई मशक़्क़त ना पाई जाये, मगर इस के लिए नमाज़ की क़स्र मुबाह होगी क्योंकि इल्लत पाई गई है जो कि सफ़र है। इसी तरह अगर कोई शख़्स सहरा में मुक़ीम हो और वहां शदीद गर्मी पड़े, तो मशक़्क़त के बावजूद वो नमाज़ की क़सर नहीं कर सकता, इस के लिए पूरी नमाज़ पढ़ना वाजिब होगा। हाँ अगर वह शदीद गर्मी में सहरा में मुसाफ़िर है तो उसकी क़स्र जायज़ होगी, मगर मशक़्क़त की वजह से नहीं बल्कि सफ़र की
वजह से।
लिहाज़ा रुख़सत अपने मख़सूस हुक्म तक महदूद रहेगी और इस का, किसी सूरत में, दूसरे अहकाम में ऐतबार नहीं किया जाएगा । मसलन पहली आयत में अंधेपन के उज़्र को जिहाद के तर्क की रुख़सत बयान किया गया है, लेकिन ये नमाज़ के तर्क का उज़्र नहीं है और इसी तरह तमाम रख़सत को देखा जाएगा।
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