फ़हमे दलील
जब मुज्तहिद ने ये ताअय्युन कर लिया कि वो मसाइल के हल कौनसे माख़ज़ से लेगा, तो अगला क़दम दलील समझने का होगा ताकि वो इस दलील से अहकाम मुसतंबत कर सके । इस ऐतबार से उसूले फ़िक़्ह में अजनास-ए-कलाम, अल्फाज़ की अक़साम और उन की दला लात के हवाले से मुफ़स्सल बहस की जाती है। इख्तिसार की वजह से नीचे फ़क़त दला लात-ए-अल्फाज़ पर रोशनी डाली जा रही है।
मंतूक़
मंतूक़ की तारीफ़ :
ھو ما فھم من دلالۃ اللفظ قطعا في محل النطق
(वो जो अलफ़ाज़े कलाम की दलालत से क़तई तौर पर समझा जाये)
यानी मंतूक़ वो है जो सराहतन किसी बात पर लुगवी तौर पर दलालत करे और ये इस के सीग़ा-ओ-अल्फाज़ की तरकीबी सूरत से समझा गया हो, बगै़र ज़हन में कोई और मानी दाख़िल हुए। दूसरे लफ़्ज़ों जो कलाम सुनते ही समझा जाये ।
मिसाल :
وَأَحَلَّ ٱللَّهُ ٱلۡبَيۡعَ وَحَرَّمَ ٱلرِّبَوٰاْۚ
अल्लाह ने तिजारत को हलाल किया और सूद को हराम (अल बक़रह-275)
मफ़हूममफ़हूम की तारीफ़ :
ما فھم من اللفظ في غیر محل النطق
(वो जो अल्फाज़े कलाम के अलावा समझा जाये)
फिर मफ़हूम की पाँच अक़साम हैं : दलालते इक़्तिज़ा, दलालते तंबियाह व ईमा, दलालते इशारह, मफहूमे मवाफिक़ा और मफहूमे मुख़ालिफा। इन तमाम इक़साम को दलालते इल्तिज़ाम से मौसूम किया जाता है क्योंकि ये तमाम दला लात अल्फाज़-व-कलाम से लाज़िमन समझी जाती हैं।
दलालते इक़्तिज़ा :
दलालते इक़्तिज़ा की तारीफ़:
ھي ما کان المدلول فیہ مضمرا أي غیر منطوق بہ بل ھو لازم لمعاني الألفاظ، إما لضرورۃ صدق المتکلم و إما لصحۃ وقوع الملفوظ بہ (عقلاً او لغۃ ً شر عًا
)
(वो जिस में मदलूल मुज़म्मिर (मख़फ़ी) है यानी ग़ैर मंतूक़ मगर ये अल्फाज़ के मआनी के लिए लाज़िम हो, ये चाहे कलाम-ए-मुतकल्लिम की ज़रूरी सदाक़त की वजह से हो या (अक़्लन या लुग़तन या शरअन) अदाईगिये अल्फाज़ के वक़ूअ की सेहत के लिए)
पहली मिसाल :
إن اللّٰہ وضع عن أمتي الخطأ والنسیان وما استکرھوا علیہ (ابن ماجہ)
मेरी उम्मत से ग़लती, भूल और जब्र हटा दी गई है (इब्ने माजा)
लेकिन हक़ीक़त में इंसान से ग़लती सादिर होती है, लिहाज़ा सिद्क़े कलाम का तक़ाज़ा ये है कि यहां लफ़्ज़ मुवाख़िज़ा-व-सज़ा का इज़ाफ़ा किया जाये, यानी मेरी उम्मत से ग़लती, भूल और जब्र से मुवाख़िज़ा-व-सज़ा को हटा दिया गया है।
दूसरी मिसाल:
وَلَن يَجۡعَلَ ٱللَّهُ لِلۡكَـٰفِرِينَ عَلَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ سَبِيلاً
और अल्लाह ने काफ़िरों के लिए मोमिनों पर ग़ालिब आने का हरगिज़ कोई रास्ता नहीं रखा (अन्निसा-141)
अलबत्ता हक़ीक़त में हम देख रहे हैं कि कुफ़्फ़ार का हर तरह से मुसलमानों पर ग़लबा है, लिहाज़ा इस ख़बर (अल्फाज़) के सही होने का अक़्लन तक़ाज़ा ये है कि मुतकल्लिम (शारेअ) ने इस बात से मना किया है कि काफ़िरों का मुसलमानों पर ग़लबा हो, यानी अल्लाह سبحانه وتعال ने हर्गिज इस बात की इजाज़त नहीं दी कि काफ़िरों का मुसलमानों पर किसी किस्म का ग़लबा हो। चुनांचे आज जो काफ़िरों का मुसलमानों पर सियासी, इक़्तिसादी, सक़ाफ़्ती और अस्करी ग़लबा है, इस के ख़ातमे का अल्लाह سبحانه وتعال ने इस आयते मुबारका में हुक्म दिया है (जिस का दाइमी ज़रीया सिर्फ़ इस्लामी रियासत यानी ख़िलाफ़त है)।
दलालते तंबियाह व ईमा
दलालते तंबियाह व ईमा की तारीफ़ :
فھم التعلیل من إضافۃ الحکم إلی وصف مناسب
(इज़ाफते हुक्म से तालील की वो समझ जो एक वस्फ़-ए-मुनासिब तक हो)
मिसाल :
وَإِنۡ أَحَدٌ۬ مِّنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ٱسۡتَجَارَكَ فَأَجِرۡهُ حَتَّىٰ يَسۡمَعَ كَلَـٰمَ ٱللَّهِ ثُمَّ
أَبۡلِغۡهُ مَأۡمَنَهُ
अगर मुशरिको में से कोई तुझ से पनाह तलब करे तो तू उसे पनाह दे दे यहां तक कि वो कलामुल्लाह सुन ले फिर उसे अपनी जाऐ अमन तक पहुंचा दे (अत्तौबा-6)
इस आयत में अल्लाह سبحانه وتعال हमें मुतनब्बाह कर रहा है कि काफ़िर को कलामुल्लाह सुनाना ज़रूरी है, ताकि ये मुम्किन हो सके कि वो इस्लाम में दाख़िल हो। यानी यहां पर इस्लाम की आगाही देना यहाँ तक कि तब्लीग़ मुम्किन हो सके इल्लते दलालतन है क्योंकि यहां पर हव्ता यसमआ कलामल्लाहि में हत्ता का इस्तिमाल बमानी तालील (उसकी वजह से) हुआ है। चुनांचे इस्लामी रियासत पर मुसलमानों की इस्लामी तदरीस-व-तसक़ीफ़ के लिए मदारिस-व-मराकज़ वग़ैरा का एहतिमाम करना वाजिब है ।
दलालते इशारह
दलालते इशारह की तारीफ़ :
ھو ما یؤخذ من إشارۃ اللفظ
(वो जो लफ़्ज़ के इशारे से लिया जाये)
पहली मिसाल:
وَٱلۡوَٲلِدَٲتُ يُرۡضِعۡنَ أَوۡلَـٰدَهُنَّ حَوۡلَيۡنِ كَامِلَيۡنِۖ لِمَنۡ أَرَادَ أَن يُتِمَّ ٱلرَّضَاعَةَۚ وَعَلَى ٱلۡمَوۡلُودِ لَهُ ۥ رِزۡقُهُنَّ وَكِسۡوَتُہُنَّ بِٱلۡمَعۡرُوفِۚ
माएं अपनी औलाद को दो साल कामिल दूध पिलाऐं जिन का इरादा दूध पिलाने की मुद्दत बिल्कुल पूरी करने का हो और जिनके बच्चे हैं उनके ज़िम्मे इन का रोटी कपड़ा है जो मुताबिक़ दस्तूर के है (अल बक़राह-233)
यहां पर ٱلۡمَوۡلُودِ لَهُ के ज़रीये दलालते इशारह से ये हुक्म समझा गया है कि बच्चे की नसब बाप की तरफ़ लौटती है।
दूसरी मिसाल:
لَا يَسۡخَرۡ قَوۡمٌ۬ مِّن قَوۡمٍ عَسَىٰٓ أَن يَكُونُواْ خَيۡرً۬ا مِّنۡہُمۡ وَلَا نِسَآءٌ۬ مِّن نِّسَآءٍ عَسَىٰٓ أَن يَكُنَّ خَيۡرً۬ا مِّنۡہُنَّ
मर्द दूसरे मर्दों का मज़ाक़ ना उड़ाऐं मुम्किन है कि ये उनसे बेहतर हों और ना औरतें औरतों का मज़ाक़ उड़ाऐं मुम्किन है कि ये उनसे बेहतर हों (अल हुजरात-11)
यहां इशारे में ये समझा गया है कि मर्दों का इज्तिमाअ औरतों के इज्तिमाअ से अलैहदा होता है। ये इसलिए क्योंकि एक दूसरे का मज़ाक़ उड़ाना आदतन आमने सामने हुआ करता है जबकि यहां पर अल्लाह سبحانه وتعال ने इन का अलैहदा अलैहदा गिरोह होने की हैसियत से तज़किरा किया है । चुनांचे यहीं से मर्दों और औरतों की अलैहदगी का हुक्मे फर्ज़ियत दलालते इशारह से मुस्तंबत किया गया है।
तीसरी मिसाल :
ومن مات ولیس في عنقہ بیعۃ مات میتہ جاہلیۃ (مسلم)
जो कोई इस हाल में मरा कि उसकी गर्दन पर (ख़लीफ़ा की) बैअत का तौक़ ना हो तो वो जाहिलियत की मौत मरा (मुस्लिम)
मफहूमे मवाफिक़ा
मफहूमे मवाफिक़ा की तारीफ़ :
ھو ما یکون مدلول اللفظ في محل السکوت موافقا لمدلولہ في محل النطق
(महले सुकूत में वो मदलूल लफ्ज़ जो तलफ़्फ़ुज़ में अपने मदलूल के मुवाफ़िक़ हो)
मफहूमे मवाफिक़ा में अदना से आला या आला से अदना की तरफ़ (من باب أولی) से ख़िताब को समझा जाता है, इस सूरत में उसे फ़हवया-ए-ख़िताब कहा जाता है और अगर ये बराबर की हैसियत रखता हो तो उसे लहने ख़िताब से मौसूम किया जाता है।
पहली मिसाल :
فَلَا تَقُل لَّهُمَآ أُفٍّ۬
उनके आगे उफ़ तक ना कहना (अल इसरा-23)
यहां पर फ़हवया-ए-ख़िताब से ये हुक्म समझा गया है कि वालिदैन को मारना हराम है और ये अदना से आला की मिसाल है।
दूसरी मिसाल:
وَٱحۡذَرۡهُمۡ أَن يَفۡتِنُوكَ عَنۢ بَعۡضِ مَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ إِلَيۡكَۖ
और उनसे होशयार रहिये कि कहीं ये आप को अल्लाह के उतारे हुए किसी हुक्म से इधर इधर ना कर दें (अल माईदा-49)
आयत में फ़हवया-ए-ख़िताब से तमाम अल्लाह سبحانه وتعال के नाज़िल कर्दा अहकाम से हटा देने पर होशयारी का हुक्म साबित हुआ है। आज हमारे इस्लामी मुमालिक में फ़क़त बाअज़ अहकाम अल्लाह से मुँह नहीं फेरा जा रहा बल्कि पूरी शरियते इस्लामी को नज़रअंदाज किया जा रहा है।आला से अदना की मिसाल :
کونوا کأصحاب عیسی نشروا بالمناشیر وحملوا علی الخشب
(المعجم الکبیر)
हो जाओ तुम लोग ईसा के हव्वारियों जैसे, उन्हें आरी से काटा जाता था मगर वो इस के बावजूद इस सख़्ती को बर्दाश्त करते (अलमुअजमुल कबीर)
फ़हवया-ए-ख़िताब से दाईआने इस्लाम को जेल में क़ैद होने पर सब्र करने का हुक्म समझा गया है।
लहने ख़िताब की मिसाल :
إِنَّ ٱلَّذِينَ يَأۡڪُلُونَ أَمۡوَٲلَ ٱلۡيَتَـٰمَىٰ ظُلۡمًا إِنَّمَا يَأۡڪُلُونَ فِى بُطُونِهِمۡ نَارً۬ا
जो लोग नाहक़ ज़ुल्म से यतीमों का माल खा जाते हैं वो अपने पैट में आग ही भर रहे हैं (अन्निसा-10)लहने ख़िताब से यतीमों का माल बर्बाद करने का हुक्म-ए-तहरीम मुस्तंबत किया गया है क्योंकि ये उनका माल खा जाने के मसावी है।
मफहूमे मुख़ालिफा
मफहूमे मुख़ालिफा की तारीफ़ :
ھو ما یکون مدلول اللفظ في محل السکوت مخالفا لمدلولہ في محل النطق
(महले सुकूत में वो मदलूले लफ्ज़ जो तलफ़्फ़ुज़ में अपने मदलूल के मुख़ालिफ़ हो) इसे दलील-ए-ख़िताब से भी मौसूम किया जाता है ।
मफहूमे मुख़ालिफा पर अमल तब लाज़िमी है जब ख़िताब में इन चार उमूर में से एक मौजूद होने की कोई दलील हो: सिफ़त, अदद, ग़ायत या शर्त। अगर इन में से कोई ना पाया गया हो तो मफहूमे मुख़ालिफा पर अमल सही ना होगा, मसलन इस्म, चाहे वो असम-ए-जिन्स हो या इस्मे इल्म या जो कुछ इस का हम मानी है जैसे लक़ब या कुनिय्यत, या फिर वो इस्म-ए-जामिद हो या मुश्तक़-ए-ग़ैर वस्फ़, इन तमाम सूरतों में मफहूमे मुख़ालिफा नहीं लिया जाएगा
(1) सिफ़त : यहां सिफ़त से मुराद वस्फ़-ए-मुफ़हम मुनासिब है जिस का ज़िक्र इल्लत के बाब में गुज़रा है। ये इसलिए क्योंकि हुक्म (मालूल) अपनी इल्लत के गिर्द घूमता है यानी अपने अदम और वजूद में। चुनांचे वस्फ़-ए-मुफ़हम मुनासिब का तालील के लिए इस्तिमाल मफहूमे मुख़ालिफा के अमल पर दलालत करता है।
मिसाल:
إِن جَآءَكُمۡ فَاسِقُۢ بِنَبَإٍ۬ فَتَبَيَّنُوٓاْ
अगर तुम्हें कोई फ़ासिक़ ख़बर दे तो तुम उसकी अच्छी तरह तहक़ीक़ कर लिया करो (अल हुजरात-6)
यहां फ़ासिक़ हुक्म के लिए वस्फ़-ए-मुफ़हम मुनासिब है, चुनांचे मफहूमे मुख़ालिफा से ये समझा गया है कि किसी आदिल की ख़बर की तहक़ीक़ वाजिब नहीं है । पस जब कोई आदिल शख़्स कोई ख़बर लाए तो उसे क़बूल किया जाएगा।
(2) अदद:
ٱلزَّانِيَةُ وَٱلزَّانِى فَٱجۡلِدُواْ كُلَّ وَٲحِدٍ۬ مِّنۡہُمَا مِاْئَةَ جَلۡدَةٍ۬ۖ
ज़िनाकार औरत और मर्द में से हर एक को सौ कोड़े लगाओ (अल नूर-2)
मफहूमे मुख़ालिफा से ये समझा गया है कि फिर सौ के अदद से कम या ज़्यादा कूड़े लगाना दरुस्त नहीं है।
(3) ग़ायत: हर्फ़-ए-हत्ता और हर्फ़-ए-इला ग़ायत की इंतिहा तक के लिए वारिद होते हैं मगर ये दोनों अपने मा क़ब्ल में अपने मा बाद के मुख़ालिफ़ (बरअक्स) होते हैं, क्योंकि ये मा बाद में दाख़िल नहीं होते ।
मिसाल:
وَلَا تَقۡرَبُوهُنَّ حَتَّىٰ يَطۡهُرۡنَۖ
और जब तक वो पाक ना हो जाएं तो उनके क़रीब ना जाओ (अल बक़राह-222)
मफहूमे मुख़ालिफा से ये हुक्म समझा गया है कि जब(हायज़) औरतें पाक हो जाएं, तब उनसे मुबाशरत मुबाह है।
ثُمَّ أَتِمُّواْ ٱلصِّيَامَ إِلَى ٱلَّيۡلِ
फिर रात तक रोज़े को पूरा करो (अल बक़रह-187)
यहां मफहूमे मुख़ालिफा से ये समझा गया है कि जब रात हो जाये तो खाया पिया जा सकता है ।
(4) शर्त: शर्त के लिए अक्सर हर्फे إِن इस्तिमाल होता है।
मिसाल :
وَإِن كُنَّ أُوْلَـٰتِ حَمۡلٍ۬ فَأَنفِقُواْ عَلَيۡہِنَّ
और अगर वो हमल से हों तो उन्हें ख़र्च देते रहा करो (अत्तलाक़-6)
यहां मफहूमे मुख़ालिफा से ये समझा गया है कि अगर मुतल्लक़ा हामिला नहीं, तो इस का नान-व-नफ़क़ा मर्द पर फ़र्ज़ नहीं है।
फिर मफहूमे मुख़ालिफा पर अमल की शर्तें ये हैं कि वो किसी सरीह नस के ख़िलाफ़ ना हो या नुज़ूले इस्लाम के दौर में आयत या हदीस में मज़कूर वाक़े बतौर-ए-रिवाज आम ना हो ।
मिसाल :
لَا تَأۡڪُلُواْ ٱلرِّبَوٰٓاْ أَضۡعَـٰفً۬ا مُّضَـٰعَفَةً۬ۖ
बढ़ा चढा कर सूद ना खाओ (आले इमरान-130)
यहां पर मज़कूर मिसाल أَضۡعَـٰفً۬ا مُّضَـٰعَفَةً۬ۖৃ (बढ़ा चढा कर) वाक़िय की रियायत के तौर पर है यानी सूद की उस वक़्त जो सूरत-ए-हाल थी, इस का बयान-व-इज़हार है । चुनांचे इस का मतलब ये नहीं है कि अगर बढ़ा चढा कर सूद ना लिया जाये तो ये जायज़ होगा। और ये मतलब इस सरीह नस के भी ख़िलाफ़ है जिस में सूद को मुतलक़न हराम क़रार दिया गया है :
وَأَحَلَّ ٱللَّهُ ٱلۡبَيۡعَ وَحَرَّمَ ٱلرِّبَوٰاْۚ
और अल्लाह ने तिजारत को हलाल किया और सूद को हराम (अल बक़राह-275)
यानी इस मुआमले में मफहूमे मुख़ालिफा का कोई जवाज़ नहीं है । इस के बावजूद आज सरमाया दाराना निज़ाम के मुसलमानों पर निफाज़ और इस के ग़लबे-व-दबाओ की वजह से, बाअज़ मुफ़्तियों ने ये फ़तवा जारी किया है कि दौरे हाज़िर में थोड़े सूद लेने देने में कोई मज़ाइक़ा नहीं है जबकि अल्लाह سبحانه وتعال ने इसे सराहतन ममनूअ क़रार दिया है। (मआज़ अल्लाह)
0 comments :
Post a Comment