यह एक बिल्कुल साफ और ज़ाहिर सवाल है लेकिन हममें से कई लोगों के पास इसका साफ जवाब नहीं होता है। मुझे याद है जब मुझसे यह सवाल मेरे भाई के ज़रिए पूछा गया जब मैं 14 साल का था और मेरा पहला जवाब यह था अच्छा इसलिए के हमारा परिवार मुसलमान है लेकिन उसके जवाब ने मुझे सोचने पर मज़बूर कर दिया जब उसने कहा अगर तुम्हारा परिवार हिन्दू या ईसाइ होता तो क्या तुम वही होते तो मेरा जवाब था के नहीं इस्लाम हक़ है। उसके बाद मुझे इस सवाल ने अपनी ज़िन्दगी के बारे में सोचने पर मज़बूर कर दिया और ज़िन्दगी की बुनियाद पर ही सवालिया निशान लगा दिया और मेरी ज़िन्दगी को बदल कर रख दिया।
उसने इस बात पर मुझे सोचने पर मज़बूर किया के मैं कैसे साबित करूँ कि इस्लाम हक़ है ना कि हम इस पर एक जज़बाती और अंधे तौर पर यक़ीन रखते है। हक़ीक़त यह है के अल्लाह سبحانه وتعال ने उन लोगों की तर्दीद (खण्डन) की है जो अपने बाप-दादाओं की अंधी तक़्लीद करते है और अपने अक़ीदे को बिना दलायल को इख्तियार करते है। अल्लाह سبحانه وتعال ने क़ुरआन मजीद में बयान फरमाया है :
وَمَا لَهُمْ بِهِ مِنْ عِلْمٍ إِنْ يَتَّبِعُونَ إِلا الظَّنَّ وَإِنَّ الظَّنَّ لا يُغْنِي مِنَ الْحَقِّ شَيْئًا
'' और इस बात को कुछ भी नहीं जानते महज़ वहम व गुमान पर चलते हैं और बैशक़ वहम व गुमान हक़ का
मुतबादिल नहीं हो सकता।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, अन नजम - 28)
مَا لَهُمْ بِهِ مِنْ عِلْمٍ إِلا اتِّبَاعَ الظَّنِّ وَمَا قَتَلُوهُ يَقِينًا
''उनको इल्मुल यक़ीन नहीं है और वोह नहीं करते मगर वहम व गुमान की पैरवी। और यक़ीनन उन्होंने (ईसा को) क़त्ल नहीं किया'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, अन्निसा - 157)
إِنْ هِيَ إِلا أَسْمَاءٌ سَمَّيْتُمُوهَا أَنْتُمْ وَآبَاؤُكُمْ مَا أَنْزَلَ اللَّهُ بِهَا مِنْ سُلْطَانٍ إِنْ يَتَّبِعُونَ إِلا الظَّنَّ وَمَا تَهْوَى الأنْفُسُ وَلَقَدْ جَاءَهُمْ مِنْ رَبِّهِمُ الْهُدَى
'यह कुछ नहीं मगर सिर्फ वोह नाम है जो तुमने और तुम्हारे बाप-दादाओं ने खुद गढ़ लिये है, जिसके लिए अल्लाह سبحانه وتعال ने कोई दलील नहीं उतारी है। और वोह इत्तिबा नहीं करते मगर सिर्फ वहम व गुमान और ज़न की और अपनी नफ्स की। इसके बावजूद भी के उनके पास रहनुमाई आ गयी है उनके रब की तरफ से।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, अन नजम- 23)
قُلْ هَلْ عِنْدَكُمْ مِنْ عِلْمٍ فَتُخْرِجُوهُ لَنَا إِنْ تَتَّبِعُونَ إِلا الظَّنَّ وَإِنْ أَنْتُمْ إِلا تَخْرُصُونَ
''क्या तुम्हारे पास ईल्म है जिसका तुम दावा करते हो ताके तुम दलील के तौर पर उसे ला सको? तुम नहीं चलते मगर सिर्फ वहम व गुमान।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, अल अनाम- 148)
अल्लाह के वजूद (अस्तित्व) की दलील
यह बिल्कुल साफ सिद्धांत है के कोई भी चीज़ गै़र-वजूद के बिना वजूद (अस्तित्व) में नहीं आ सकती यानी किसी चीज़ ने उसे वजूद बख्शा है तभी वोह वजूद में आती है। इसीलिए यह क़ायनात कहाँ से पैदा हुई? यह बिना कोई वजह, कारण के खुद मौजूद और अस्तित्व में नहीं आ सकती क्योंकि दुनिया के अंदर यह एक बिल्कुल साफ और वाजे़ह हक़ीक़त है जिसको हम महसूस कर सकते है. मिसाल के तौर पर अगर हम कोई मोबाइल देखते है तो कोई भी यह नहीं सोच सकता के यह बिना किसी के बनाए हुए वजूद में आ सकता है तो हम अपने आस-पास यह बात हर चीज़ पर लागू कर सकते है। नीचे दी गई मिसाल भी इस बिन्दू को अच्छी तरह वाजे़ह करती है। ईमाम अबू हनीफा رحمت اللہ علیہ से एक बार एक नास्तीक ने पूछा ''क्या खुदा के वजूद की कोई दलील है?'' उन्होंने जवाब दिया ''इस बात को भूल जाओ, इस वक़्त में एक जहाज के बारे में सोच रहा हूँ। लोगों ने मुझे बताया कि एक बहुत बडा़ जहाज है! और उसमें बहुत सारा सामान रखा हुआ है उसको कोई चलाने वाला नहीं है, ना ही उसकी कोई देखरेख करने वाला है, फिर भी यह जहाज अपने आप आगे चला जाता है आगे की तरफ ; यहॉं तक कि बडी़-बडी़ लहरों को पार करता हुआ समुद्र में आगे बडता हुआ जाता है ; वोह खास एक जगह पर रूक जाता है जहॉ पर उसको रूकना है! वोह लगातार एक दिशा में बढ़ता जाता है जिस तरफ उसे जाना है। इस जहाज का कोई कप्तान नहीं है और ना ही कोई इसके सफर की प्लानिंग करने वाला है।'' इतने में वो नास्तिक उन्हें रोकता है और हैरतज़दा होकर पूछता है, ''कितनी अजीब और बेवकूफी भरी बात है यह? कैसे कोई अक़्लमंद आदमी सोच सकता है के ऐसा मुम्किन हो सकता है?''
ईमाम अबू हनीफा رحمت اللہ علیہ ने कहा, ''मैं तुम्हारे हालात के बारे में बहुत अफ्सोस कर रहा हूँ! जब तुम एक जहाज के बारे में कल्पना नहीं कर सकते, जो बिना किसी के अपने आप चल रहा है और कोई उसका देखरेख करने वाला नहीं है, तो क्या तुम इस पूरी क़ायनात के बारे में यह बात सोच सकते हो जो कि बिल्कुल तर्तीब और बारीकी के साथ चलती है और उसका क्या कोई देखरेख करने वाला नहीं है और इसका कोई मालिक भी नहीं है?''
ईमाम शाफई رحمت اللہ علیہ ने इस बात को इस तरह से बयान करते हुये फरमाया ''बैर की पत्तियॉं कईं सारी होती है लेकिन वोह सब एक जैसी होती है। हर पत्ती का स्वाद बिल्कुल एक जैसा है। इसी पत्ती के ऊपर कीडे़, मधुमख्खिया, गाय, बकरीयाँ, हिरण सब निर्भर रहती है। इसको खाने के बाद कीडा़ रेशम पैदा करता है, मधुमख्खी शहद पैदा करती है, हिरण मुश्क पैदा करता है, गाय और बकरी दूध देती है। क्या यह साफ दलील नहीं है के एक ही तरह की पत्ती खाने में इतने सारे गुण और सिफ्फते हो सकती है, आखिर वोह कौन है जिसने इनके अंदर इन सिफ्फतों (गुणों) की तख्लीक (रचना) की है? वोह खालिक (रचियता) है जिसको हम अल्लाह कहते है और यही तख्लीक करने वाला और ईजाद करने वाला है।''
''देखो ! ज़मीन और आसमान की तख्लीक (रचना) में और दिन और रात के आने जाने में बेशक़ उन लोगों के लिए निशानिया है जो समझ रखते है।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, आले इमरान-190)
''और उसकी निशानियों में से ज़मीन और आसमान की तख्लीक है, और तुम्हारी ज़बानों में पाये जाने वाला फर्क़ और तुम्हारे रंग। देखो, बेशक यह निशानिया है उन लोगों के लिए जो समझ रखते है।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, अल रोम-22)
أَفَلاَ يَنظُرُونَ إِلَى الإِبْلِ كَيْفَ خُلِقَتْ وَإِلَى السَّمَآءِ كَيْفَ رُفِعَتْ وَإِلَى الْجِبَالِ كَيْفَ نُصِبَتْ وَإِلَى الأَرْضِ كَيْفَ سُطِحَتْ
''क्या वोह ऊटों की तरफ नहीं देखते किस तरीक़े से वोह तख्लीक किये गये है! और आसमानों की तरफ, किसी तरह से उन्हें उठाया गया है! और पहाडों की तरफ, किसी तरह से उन्हें उस्तेवार किया (ग़ाडा) गया है! और ज़मीन की तरफ कैसे उसे फैलाया गया है।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, अल गाशिया – 17 से 20)
''तो इंसान गौर व फिक्र करे, के उसको किस चीज़ से बनाया गया है। उसको बनाया गया है ऊछलते हुए पानी से, जो कि रीड़ की हड्डी और पस्लियों के बीच से निकलता है।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, अत-तारीक़- 5-7)
١٦٤ إِنَّ فِى خَلۡقِ ٱلسَّمَـٰوَٲتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَٱخۡتِلَـٰفِ ٱلَّيۡلِ وَٱلنَّهَارِ وَٱلۡفُلۡكِ ٱلَّتِى تَجۡرِى فِى ٱلۡبَحۡرِ بِمَا يَنفَعُ ٱلنَّاسَ وَمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مِن مَّآءٍ۬ فَأَحۡيَا بِهِ ٱلۡأَرۡضَ بَعۡدَ مَوۡتِہَا وَبَثَّ فِيہَا مِن ڪُلِّ دَآبَّةٍ۬ وَتَصۡرِيفِ ٱلرِّيَـٰحِ وَٱلسَّحَابِ ٱلۡمُسَخَّرِ بَيۡنَ ٱلسَّمَآءِ وَٱلۡأَرۡضِ لَأَيَـٰتٍ۬ لِّقَوۡمٍ۬ يَعۡقِلُونَ
बेशक आसमान व ज़मीन की पैदाईश और रात दिन के रद्द बदल में और कश्तियों में जो लोगों के नफे की चीज़ें (माले तिजारत वग़ैरह) दरिया में लेकर चलती हैं और पानी में जो खुदा ने आसमान से बरसाया फिर उस से ज़मीन को मुर्दा होने के बाद जिला दिया (शादाब कर दिया) और उसमें हर क़िस्म के जानवर फैला दिये और हवाओं के चलाने में और अब्र में जो आसमान व ज़मीन के दरमियान खुदा के हुक्म से घिरा रहता है (इन सब बातों में) अक़्ल वालों के लिये निशानियाँ है (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, अल बकरा- 164)
أَمۡ خَلَقُواْ ٱلسَّمَـٰوَٲتِ وَٱلۡأَرۡضَۚ بَل لَّا يُوقِنُونَ
“या इन्होंने ही सारे आसमान व ज़मीन पैदा किये हैं (नहीं) बल्कि ये लोग यक़ीन ही नहीं रखते” (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, अत-तूर_ 36)
क़ुरआन के अल्लाह का कलाम होने का सबूत:-
एक बार जब हमने यह यक़ीनी तौर पर साबित कर दिया के अल्लाह मौजूद है तो जो अगला सवाल उठता है वोह यह है के क्या अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने हमारी इत्तिबा (अनुसरण) के लिए कोई 'वह्यी' नाज़िल की है। यह बिल्कुल साफ है के हम अल्लाह (سبحانه وتعالى) से गुफ्तगू नहीं कर सकते और इसलिए हम इस बात को जानने के लिये अयोग्य है के वोह हमसे क्या चाहता है, और यह बात भी के हम उसकी कैसे ईबादत करें और हम यह कैसे जाने के हम उसकी ईबादत कैसे करे और हम अपनी ज़िन्दगी में पेश आने वाली समस्याओं को कैसे समाधान करें। इन सब सवालों का उस वक़्त तक हल नहीं मिल सकता जब तक कि कोई ऐसा खालिक हो जो हम से गुफ्तगु करता हो और हमें रहनुमाई देता हो ताकि हम उस पर चल सकें। एक मुसलमान होने की हैसियत से हमारा यह ईमान है के पूरे इंसानियत के इतिहास में कई सारे पैगम्बर और रसूल आए, जो कि खालिक की तरफ से भेजे गए, जो कि वह्यी और क़वानीन (नियम) लेकर आए के इंसान को अपनी ज़िन्दगी कैसे गुज़ारना चाहिए। उनकों अल्लाह तआला ने मोजज़े दिये जिससे उन्होंने साबित किया के उनका अल्लाह सबानहू व तआला से कम्यूनीकेशन (विचारों का आदान प्रदान) रहा है और उन पर अल्लाह की तरफ से वह्यी नाज़िल हुई है। मौजज़ा वोह है जो कि प्रकृति के नियमों के खिलाफ जाता है जिसे हर किसी के लिए ज़ाहिर करना नामुमकिन है : मौजज़े के ज़रिए रसूलों ने यह बात साबित की के उनका खुदा से सीधे तौर पर ताल्लुक है। मिसाल के तौर पर हज़रत मूसा (علیہ ا لسلام) के पास एक असा था जिससे उन्होंने रेड सी (Red Sea) को बीच से अलग कर दिया था। हज़रत ईसा (علیہ ا لسلام) में यह सलाहियत थी के वोह बीमार को छूकर बीमारी से शीफा दे देते थे।
लेकिन हम कैसे जाने के पैगम्बर और रसूल कभी वजूद में हुआ करते थे? जो मौजज़े इस अंबियाओं की तरफ से सादिर हुए वोह मौज्ज़े सिर्फ एक खास वक़्त के लिए थे। हम कैसे यक़ीन करें कि यह कोई मनघडंत कहानी या किस्से नहीं है? तो आज हमारे पास ऐसा कौनसा मौजज़ा है जो हमें अपनी ज़िन्दगीयों में यक़ीन दिलाए और हमारी रहनुमाई करें? क़ुरआन अपने आप में एक सबसे अहम मोजज़ा है जो हज़रत मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) लेकर आए और वोह दूसरे मोजज़ात से बिल्कुल अलग है क्योंकि वोह मोजज़े सिर्फ अपने-अपने वक़्त के लिहाज़ से महदूद थे। क़ुरआन एक फिक्री मोजज़ा है (बौद्धिक चमत्कार), जो इस्लाम के हक़ होने को साबित करता है। यह हज़रत मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) पर छठी सदी ईसवी में नाज़िल हुआ, और यह आज भी मौजूद है और यह हर ज़माने के लिए नाज़िल किया गया है। यह एक यकीनी हक़ीक़त है के क़ुरआन हज़रत मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) पर अरबी ज़बान में 13 सालों के अंदर तकरीबन 1400 साल पहले नाज़िल हुआ । इस बात को यकीनी तौर पर साबित करने के लिए कि यह अल्लाह (سبحانه وتعالى) की तरफ से है, सबसे पहले हमें क़ुरआन को अल्लाह का कलाम साबित के लिए इसके मुम्किन स्त्रोतो या मनबा के बारें में सोचना होगा और हक़ तक पहुँचने के लिए जो गलत है उनको बरतरफ करके सही मनबे को पहचानना होगा। क़ुरआन के जो मुम्किन स्त्रोत हो सकते है वोह है :
(A) अरबों के द्वारा लिखा गया
(B) मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) ने खुद लिखा
(C) अल्लाह (سبحانه وتعالى) के ज़रिए नाज़िल फरमाया गया।
लेकिन वोह ऐसा करने में नाकामयाब हो गए तो अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने उन्हें फिर चैलेन्ज दिया जो बज़ाहिर आसान दिखता था और अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने फरमाया :
किसी अरबी नहीं जानने वाले के लिए यह बात समझना थोडा़ मुश्किल हो सकता है क्योंकि वोह क़ुरआन की भाषा को सीधे तौर पर नहीं समझ सकते। हाँलाकि इस बात पर सब लोग राजी हो सकते है के साहित्य का कोई भी एक टुकडा़ जो इंसान के ज़रिए लिखा गया है उसके जैसा कोई और भी लिखा जा सकता है, लोग उसकी नक़ल कर सकते है उसकी शैली की (अस्लूब की) और उसके मुकाबले में उसकी क्वालिटी का और उसके गुणों का कुछ और भी पेश कर सकते है। अगर हम अंग्रेजी के किसी मुसन्निफ जैसे शेक्सपियर वगैराह के काम को ले तो कोई भी यह दावा नहीं कर सकता के वोह पैगम्बर था और उसका काम और उसकी तस्नीफ (लेख) मौजज़ाना फितरत की थी। उसके बावजूद भी के वोह अपने काम में बहुत माहिर और जीनियस थे, फिर भी लोग कोशिश करने पर उनके जैसी महारत हासिल कर सकते है बल्कि उसके जैसे तीन जुमलें बना सकते है।
इसके बावजूद भी के वही अरबी ज़बान और वही शब्द और वही ग्रामर, वही जुमलों की बनावट और वही लुग़ात (डिशनरी) आज भी मौजूद है, अरबी भाषा की जानकारी रखने वाले लोग अभी तक क़ुरआन जैसा कोई टुकडा़ नहीं पेश कर सकें है जो उसका मुकाबला कर सके। इसलिए यह नामुम्किन है के क़ुरआन किसी अरब के ज़रिए लिखा गया। यह भी नाकबिले समझ है के क़ुरआन हज़रत मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) के ज़रिये लिखी गई किताब है। ऐसा इसलिए के आखिरकार वोह भी अरबों में से एक अरब थे। इसके अलावा चाहे उनकी अक़्ल का मियार कितना ही आला रहा हो लेकिन वोह भी नस्ल से एक इंसान थे और अरबों के ही एक कबीले और कौम से ताल्लुक रखते थे। चूँके अरब क़ुरआन जैसा लाने में नाकामयाब रहे, यही बात हज़रत मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) पर भी लागू होती है। इसके अलावा मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) की बातों को सही अहादीस और मुतावातिर अहादीस में मेहफूज़ कर लिया गया है जिनकी सनद में किसी भी तरह का कोई शक व शुबा नहीं है। अगर इनमें से किसी भी अहादीस को क़ुरआन की किसी आयत से मवाज़ना (तुलना) किया जाए, तो उन दोनों के अस्लूब (शैली) में कोई समानता नहीं पाई जाएगी। आप (صلى الله عليه وسلم) जो भी बोला करते थे, आप (صلى الله عليه وسلم) पर जो वह्यी होती थी उन आयतों की आप तिलावत फरमाते थे, उसके साथ-साथ उसी वक़्त आप अपनी हदीस भी बयान फरमाते थे और दोनों के अस्लूब (शैली) में काफी फर्क़ पाया जाता है। जब भी कोई आदमी अपनी बोली को अलग बनाने के कोशिश करता है, तो वोह अपने अस्लूब (शैली) को अलग बना नहीं सकता, यानी उसकी शैली एक जैसी रहती है, क्योंकि यह उसकी शख्सियत (व्यक्तित्व) का हिस्सा होती है। इसलिए क़ुरआन और हदीस के अस्लूब में कोई समानता नहीं पाई जाती, इसलिए क़ुरआन क़तई तौर पर हज़रत मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) की बोली नहीं है। यहॉं इस बात की तरफ तवज्जो दिलाना भी ज़रूरी है के कोई भी अरब, जो हज़रत मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) से नफरत करते थे, खास तौर से उस समय में, वोह अरबी भाषा के सबसे बडे़ जानकार थे और लेकिन उनमें से किसी ने यह दावा नहीं किया के क़ुरआन हज़रत मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) का कलाम (बोली) है, या उनकी भाषा से मिलती-जुलती भाषा है।
चूँके यह साबित हो गया है के क़ुरआन ना तो अरबों में से किसी अरब का कलाम है और ना ही यह हज़रत मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) का कलाम है, इसलिए यह यकीनी तौर पर अल्लाह (سبحانه وتعالى) का कलाम है और यही एक अक़्ली दलील है जो हमारे पास रह जाती है।
क़ुरआन का यह चैलेन्ज बहुत अनोखा है क्योंकि खालिक यानी अल्लाह (سبحانه وتعالى) खुद इन्सान की तवज्जों इस तरफ मबज़ूल करता है के वोह अपनी क़ाबलियत का इस्तेमाल करे और क़ुरआन के अल्लाह के कलाम होने को ग़लत साबित कर दे। यह एक बहुत सादा लेकिन बहुत गहरा चैलेन्ज है। ज़रा तसव्वुर करो के इस्लाम के इतिहास के पूरे दौर में, इस्लाम के सारे दुश्मनों को यह चाहिए था के वोह इस चैलेन्ज का मुकाबला करते और इस्लाम की सारी बुनियादों को हिला देते। इसके बावजूद भी कोई एक भी, ना तो कोई गै़र-मुस्लिम अरब या गै़र-अरब ऐसा कर पाया हॉंलाकि अरबी भाषा के तमाम सामान आज उनके पास आसानी से मौजूद है। पश्चिमी देशों और सरकारों की नफरत इस्लाम के खिलाफ मशहूर है। अगर उनको कुछ करना है इस्लाम को तबाह और शिकस्त देने के लिए तो सिर्फ इतना करना है, और यह के एक बिलियन से ज़्यादा मुसलमानों को मुरतद बनाना है तो उसके लिए उन्हे अफगानिस्तान, ईराक़ पर क़ब्ज़ा करके बिलियन डॉलर खर्च करने की ज़रूरत नहीं और ''झूठी दहशतगर्दी के खिलाफ जंग'' को थोपने की ज़रूरत नहीं। उनको सिर्फ इतना करना है के क़ुरआन के जैसा एक बाब (पाठ) वोह बना के दिखा दे।
आज तक मुस्लिम और गै़र-मुस्लिम विद्वान क़ुरआन में किसी तरह का टकराव नहीं खोज पाए ना कोई ग़लती खोज पाए। इसके अलावा अगर क़ुरआन की हर कॉपी के एक-एक शब्द को आपस में मिलाया जाए यानी आज के ज़माने में पाई जाने वाली कॉपी और हज़रत मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) के ज़माने में पाई जाने वाली एक नकल का मवाज़ना (तुलना) किया जाए तो पता लगेगा के एक मामूली से शब्द का भी अन्तर नहीं पाया जाता. ना तो उसमें कुछ बडा़या गया है और ना घटाया गया है। क़ुरआन की कॉपी जो कि इस्लाम की पहली सदी हिजरी में पाई जाती थी वोह कॉपी आज भी इस्तम्बोल और ताशकन्त में मौजूद है। अल्लाह (سبحانه وتعالى) फरमाता है :
एक मुसलमान होने के नाते हम इस बात पर ईमान रखते है के अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने कई किताबें अलग-अलग दौर में नाज़िल फरमाई जैसे असली इंजील (गॉस्पल) और तौरात। अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने हमें इस बात की खबर क़ुरआन मजीद में दी है इसलिए हम इस बात पर ईमान रखते है। हॉलाकि हमें इस बात की भी खबर दी गई है के इन किताबों में तब्दीली की जा चुकी है और आज जो वर्ज़न इन किताबों के मौजूद है वोह, वोह किताबें नहीं है जो अल्लाह ने नाज़िल फरमाई थी। इसके अलावा क़ुरआन एक आखरी वह्यी है जो अल्लाह (سبحانه وتعالى) के तरफ से जो पुरानी सारी किताबों को मन्सूख कर देती है।
अल्लाह (سبحانه وتعالى) फरमाते है :
एक बार जब हमने अक़्ली दलील से साबित कर दिया के अल्लाह (سبحانه وتعالى) मौजूद है और क़ुरआन अल्लाह की किताब है, तो हमें हर उस चीज़ पर ईमान लाना होगा जिसके बारे में क़ुरआन हमें खबर देता है और उसका हुक्म देता है, चाहे हम उसे समझ पाए या ना समझ पाए। इसलिए क़यामत के दिन पर हमारा ईमान होना चाहिए, ज़न्नत पर, ज़हन्नुम पर, हिसाब-किताब पर और अज़ाब पर, फरिश्तो पर, जिन्नात पर, शयातीन पर, और उन सब चीज़ों पर जो कि क़ुरआन और हदीसे मुतावातीर (क़तई रिवायत) में जिक्र हुआ है। इन चीज़ों पर ईमान लाना इसलिए गै़र-अक़्ली नहीं है क्योंकि हमने उन्हें देखा नहीं है या हम उन्हें जिस्मानी तौर पर महसूस नहीं कर सकते. बल्कि हमारा इन पर इमान अक़्ल के आधार पर है क्योंकि हमारे पास यकीनी सबूत है जो किताब अल्लाह (سبحانه وتعالى) के तरफ से है वोह क़ुरआन है और जो हमें इन सब चीज़ों की खबर देता है।
एक बार जब अल्लाह पर, उसके रसूल पर और क़ुरआन पर ईमान साबित हो गया, तो हर मुसलमान पर यह फर्ज़ है के वोह इस्लामी शरीअत पर पूरा का पूरा ईमान लाए। हम जैसा चाहे उसमें से एक चीज़ को नहीं चुन सकते और दूसरी को नहीं छोड़ सकते। शरीअत को अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने अपनी किताब क़ुरआन शरीफ में नाज़िल फरमाया और हज़रत मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) ने हम तक पहुँचाई। अगर कोई इस पर ईमान नहीं रखता है तो वोह काफिर होगा। इसलिए यह कुफ्र है के हम शरीअत के अहकाम का पूरे तौर पर इंकार करें या किसी क़तई अहकाम की तफ्सीलात का इन्कार करें। चाहे यह अहकाम ईबादात से सम्बन्धित हो, मुआमलात से, ऊकुबात (सजाओं) से, मतुबात (खाने-पीने की चीजे़) या मलबूसात (कपडे पहने की नियमों) वगैराह-वगैराह से मुताल्लिक हो। इसलिए इस आयत का इन्कार :
وَاَحَلَّ اللّٰهُ الْبَيْعَ وَحَرَّمَ الرِّبٰوا
''अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने तिजारत को हलाल किया और सूद को हराम।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, अल बक़राह - 275)
وَالسَّارِقُ وَالسَّارِقَةُ فَاقْطَعُوْٓا اَيْدِيَهُمَا
“और चोर ख़्वार मर्द हो या औरत तुम उनके करतूत की सज़ा में उनका (दाहिना) हाथ काट डालो” (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, सूरह अलमाईदा, आयत 38)
حُرِّمَتْ عَلَيْكُمُ الْمَيْتَةُ وَالدَّمُ وَلَحْمُ الْخِنْزِيْرِ وَمَآ اُهِلَّ لِغَيْرِ اللّٰهِ
“(लोगों) तुम पर हराम किय गया है मरा हुआ जानवर और ख़ून और सूअर का गोश्त और जिस (जानवर) पर (ज़िबाह) के वक़्त ख़ुदा के सिवा किसी दूसरे का नाम लिया जाये” (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, अलमाईदा- 3)
فَلَا وَرَبِّكَ لَا يُؤْمِنُوْنَ حَتّٰي يُحَكِّمُوْكَ فِيْمَا شَجَــرَ بَيْنَھُمْ ثُمَّ لَا يَجِدُوْا فِيْٓ اَنْفُسِهِمْ حَرَجًا مِّمَّا قَضَيْتَ وَيُسَلِّمُوْا تَسْلِــيْمًا
इसलिए हमें अल्लाह (سبحانه وتعالى) के ज़रिए नाज़िल किये गये जितने भी अहकाम है उनके सामने अपने आपको सरेन्डर (सनरगूँ) कर देना चाहिए चाहे हम उनके अन्दर कोई अक़्ली वजह पाए या ना पाए।
उसने इस बात पर मुझे सोचने पर मज़बूर किया के मैं कैसे साबित करूँ कि इस्लाम हक़ है ना कि हम इस पर एक जज़बाती और अंधे तौर पर यक़ीन रखते है। हक़ीक़त यह है के अल्लाह سبحانه وتعال ने उन लोगों की तर्दीद (खण्डन) की है जो अपने बाप-दादाओं की अंधी तक़्लीद करते है और अपने अक़ीदे को बिना दलायल को इख्तियार करते है। अल्लाह سبحانه وتعال ने क़ुरआन मजीद में बयान फरमाया है :
وَمَا لَهُمْ بِهِ مِنْ عِلْمٍ إِنْ يَتَّبِعُونَ إِلا الظَّنَّ وَإِنَّ الظَّنَّ لا يُغْنِي مِنَ الْحَقِّ شَيْئًا
'' और इस बात को कुछ भी नहीं जानते महज़ वहम व गुमान पर चलते हैं और बैशक़ वहम व गुमान हक़ का
मुतबादिल नहीं हो सकता।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, अन नजम - 28)
مَا لَهُمْ بِهِ مِنْ عِلْمٍ إِلا اتِّبَاعَ الظَّنِّ وَمَا قَتَلُوهُ يَقِينًا
''उनको इल्मुल यक़ीन नहीं है और वोह नहीं करते मगर वहम व गुमान की पैरवी। और यक़ीनन उन्होंने (ईसा को) क़त्ल नहीं किया'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, अन्निसा - 157)
إِنْ هِيَ إِلا أَسْمَاءٌ سَمَّيْتُمُوهَا أَنْتُمْ وَآبَاؤُكُمْ مَا أَنْزَلَ اللَّهُ بِهَا مِنْ سُلْطَانٍ إِنْ يَتَّبِعُونَ إِلا الظَّنَّ وَمَا تَهْوَى الأنْفُسُ وَلَقَدْ جَاءَهُمْ مِنْ رَبِّهِمُ الْهُدَى
'यह कुछ नहीं मगर सिर्फ वोह नाम है जो तुमने और तुम्हारे बाप-दादाओं ने खुद गढ़ लिये है, जिसके लिए अल्लाह سبحانه وتعال ने कोई दलील नहीं उतारी है। और वोह इत्तिबा नहीं करते मगर सिर्फ वहम व गुमान और ज़न की और अपनी नफ्स की। इसके बावजूद भी के उनके पास रहनुमाई आ गयी है उनके रब की तरफ से।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, अन नजम- 23)
قُلْ هَلْ عِنْدَكُمْ مِنْ عِلْمٍ فَتُخْرِجُوهُ لَنَا إِنْ تَتَّبِعُونَ إِلا الظَّنَّ وَإِنْ أَنْتُمْ إِلا تَخْرُصُونَ
''क्या तुम्हारे पास ईल्म है जिसका तुम दावा करते हो ताके तुम दलील के तौर पर उसे ला सको? तुम नहीं चलते मगर सिर्फ वहम व गुमान।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, अल अनाम- 148)
दूसरे धर्मो के मानने वालों के पास निश्चित तौर पर अपने अक़ीदे (आस्था) को
अक़्ली तौर पर सहीह साबित करने का कोई सबूत नहीं है, इसलिए वोह उनके धर्म
पर ज़ज्बाती तौर पर या सिर्फ अंधी तक्लीद के तौर पर ईमान रखते है, हममें
से कोई यह सोच सकता है के हम में बिना वाजे़ह दलील के भी ईमान हो सकता है।
हाँलाकि जबकि हम ज़िन्दगी के आम मामलात में देखते है तो हम पाते है कि लोग
छोटी-छोटी बातों में भी सोच विचार करते है जैसाकि उन्हें कार खरीदना हो,
घर खरीदना हो, अगर उन्हें यूनिवर्सिटी का कोई कोर्स करना है या उनको कोई
नोकरी या बिज़नेस करना हो, ऐसा कैसे हो सकता है के जब ज़िन्दगी के बारे में
सबसे अहम सवाल का मामला आए जिससे हमें अपनी ज़िन्दगी का मक़सद पता लगता है
तो हम यह कहते है के हमारे पास सिर्फ ईमान होना चाहिए जबकि हम पूरी तरह से
उससे मुतमईन नहीं होते।
इसलिए यह बहुत अहम है के एक मुसलमान बिना किसी शक के अल्लाह سبحانه وتعال
के वजूद पर, हज़रत मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) की रिसालत पर इमान लाये और
यह की क़ुरआन अल्लाह سبحانه وتعال की आखरी किताब है, जो वह्यी के ज़रिए
इन्सानों के लिये नाज़िल हुई है, और यह की अल्लाह سبحانه وتعال की तरफ से
क़ुरआन एक आखरी किताब है जो ज़िन्दगी के दस्तूर के तौर पर तमाम इंसानो के पास
भेजी गई है। इस्लाम दूसरे मज़हबों की तरह नहीं है क्योंकि इसमे ईल्मे
यक़ीन यानी यकीनी दलील पाये जातें है जो दिल व दिमाग को मुतमईन करतें है।
अल्लाह के वजूद (अस्तित्व) की दलील
सबसे पहले हम अल्लाह سبحانه وتعال के वजूद की दलील को साबित करते है। हमने
ऐसी कई थ्योरियॉं और सिद्धांत पढे़ है जिसमें क़ायनात (सृष्टि) की
उत्पत्ति के बारे में बताया जाता है और इंसान की भी उत्पत्ति (शुरूआत)
जैसे कि बिग बैंग थ्योरी और थ्योरी ऑफ इवोलूशन (क्रमिक विकास) का
सिद्धांत, अगर हम गौर व फिक्र करेंगे तो हम पायेंगे के यह सिद्धांत हक़ीक़त
से टकराते है, यानी उन हक़ीक़त से जिसको हर आदमी महसूस कर सकता है।
अल्लाह سبحانه وتعال के मौजूद होने की जो बुनियादी दलील है वो ये है की हम
हमारे आस-पास जितनी भी चीज़ो को महसूस करते है जैसे कि पहाड़, दरख्त,
सूरज, चॉंद, सितारे या जानवार या हमारे जैसे इन्सान वोह सबके सब सीमित और
मेहदूद है और अबदी (अनन्त/हमेशा रहने वाले) भी नहीं है। यहाँ सीमित होने से
हमारा मतलब यह है के उन पर किसी तरह की प्राकृतिक पाबंदियॉ और रुकावटे है,
उनकी शुरूआत है और उनका एक अंत भी है और उनके गुणों (सिफ्फतों) को कुछ
सीमित अंदाज में बयान किया जा सकता है, यानी कि वोह सबके सब मेहदूद है
(सीमित है)। जैसे इंसान पैदा होते है और मर जाते है। ऐसा कोई भी नहीं है जो
जिन्दा है और वोह मरेगा नहीं। इस ज़िन्दगी में वोह एक मेहदूद लम्बाई,
चौडा़ई, फैलाव और वज़न तक बढे़गें।
यह भी सच है के दुनिया में पाई जाने वाली अलग-अलग चीज़ों में, जो क़ायनात में पाई जाती है, उनमें फर्क़ पाया जाता है हॉंलाकि वोह सारी की सारी चीज़ें एक खूबी में समान है और वोह है के वोह सब मेहदूद (सीमित) और आकार में महदूद है, चाहे धरती कितनी ही बडी़ हो लेकिन फिर भी उसका एक महदूद, और खास आकार है, वज़न है और आयतन है जिसके ज़रिए वोह महदूद (सीमित) हो जाती है और यही हाल सूरज, चॉंद, सितारों और तमाम ग्रहो का है और गेलेक्सी का भी है, हाँलाकि गेलेक्सी हमें बहुत ज़्यादा बडी़ दिखाई देती है जिस तरीक़े से धरती हमें बहुत बडी़ दिखाई देती है मगर इनमें से कोई भी अपने आकार मे लामहदूद (अनन्त) में से नहीं है। इसके बावजूद भी की अगर सारी गेलेक्सीयों को और सृष्टि के तमाम पत्थरों को सबको एक साथ मिला दिया जाए तब भी वोह लामहदूद (अनन्त) नहीं बन सकती और इससे पता लगता है के उनकी उत्पत्ति और उनके जन्म की एक शुरूआत है। कोई साईंसदान आज तक मज़बूत तथ्यों से यह साबित नहीं कर सका के यह सृष्टि और क़ायनात की कोई हदें नहीं है। बल्के हक़ीक़त में वोह जो बात कहते है वोह यह है के क़ायनात की उत्पत्ति और जन्म बिन बैंन्ग से हुआ है और वोह धीरे-धीरे फैल रहा है जब वोह फैलने की बात कबूल करते है इसका मतलब यह है के वोह अपने आकार में महदूद है क्योंकि अगर वोह महदूद नहीं होता तो वोह फैलता नहीं! हक़ीक़त में ऐसी कोई चीज़ नहीं है जो कि लामहदूद (अनंत) हो, असीमित हो, हम कितनी ही कोशिश कर ले हम ऐसी कोई चीज़ ना पा सकेंगे जो हमारे आसपास लामहदूद हो । हम जो भी चीज़ देखते है वोह महदूद और सीमित है।
यह बिल्कुल साफ सिद्धांत है के कोई भी चीज़ गै़र-वजूद के बिना वजूद (अस्तित्व) में नहीं आ सकती यानी किसी चीज़ ने उसे वजूद बख्शा है तभी वोह वजूद में आती है। इसीलिए यह क़ायनात कहाँ से पैदा हुई? यह बिना कोई वजह, कारण के खुद मौजूद और अस्तित्व में नहीं आ सकती क्योंकि दुनिया के अंदर यह एक बिल्कुल साफ और वाजे़ह हक़ीक़त है जिसको हम महसूस कर सकते है. मिसाल के तौर पर अगर हम कोई मोबाइल देखते है तो कोई भी यह नहीं सोच सकता के यह बिना किसी के बनाए हुए वजूद में आ सकता है तो हम अपने आस-पास यह बात हर चीज़ पर लागू कर सकते है। नीचे दी गई मिसाल भी इस बिन्दू को अच्छी तरह वाजे़ह करती है। ईमाम अबू हनीफा رحمت اللہ علیہ से एक बार एक नास्तीक ने पूछा ''क्या खुदा के वजूद की कोई दलील है?'' उन्होंने जवाब दिया ''इस बात को भूल जाओ, इस वक़्त में एक जहाज के बारे में सोच रहा हूँ। लोगों ने मुझे बताया कि एक बहुत बडा़ जहाज है! और उसमें बहुत सारा सामान रखा हुआ है उसको कोई चलाने वाला नहीं है, ना ही उसकी कोई देखरेख करने वाला है, फिर भी यह जहाज अपने आप आगे चला जाता है आगे की तरफ ; यहॉं तक कि बडी़-बडी़ लहरों को पार करता हुआ समुद्र में आगे बडता हुआ जाता है ; वोह खास एक जगह पर रूक जाता है जहॉ पर उसको रूकना है! वोह लगातार एक दिशा में बढ़ता जाता है जिस तरफ उसे जाना है। इस जहाज का कोई कप्तान नहीं है और ना ही कोई इसके सफर की प्लानिंग करने वाला है।'' इतने में वो नास्तिक उन्हें रोकता है और हैरतज़दा होकर पूछता है, ''कितनी अजीब और बेवकूफी भरी बात है यह? कैसे कोई अक़्लमंद आदमी सोच सकता है के ऐसा मुम्किन हो सकता है?''
ईमाम अबू हनीफा رحمت اللہ علیہ ने कहा, ''मैं तुम्हारे हालात के बारे में बहुत अफ्सोस कर रहा हूँ! जब तुम एक जहाज के बारे में कल्पना नहीं कर सकते, जो बिना किसी के अपने आप चल रहा है और कोई उसका देखरेख करने वाला नहीं है, तो क्या तुम इस पूरी क़ायनात के बारे में यह बात सोच सकते हो जो कि बिल्कुल तर्तीब और बारीकी के साथ चलती है और उसका क्या कोई देखरेख करने वाला नहीं है और इसका कोई मालिक भी नहीं है?''
हमारे आस-पास जितनी भी चीज़े है उनके जो गुण है वोह सब यह बताते है के वोह सब ज़रूरतमंद और और अपने वजूद के लिए दूसरों पर निर्भर हैं। वोह अपने आप को खुद क़ायम (बाकी) नहीं रख सकती ना ही वोह अपने आप पर पूरी तरह निर्भर हैं। जैसे इंसान की ज़िन्दा रहने के लिए कुछ ज़रूरते हैं जो उसको पूरी करनी होती है। उसकी कुछ जिस्मानी ज़रूरीयात है मिसाल के तौर पर उसे जिन्दा रहने के लिए खाना खाने की ज़रूरत है, पानी पीने की ज़रूरत है । अगर वोह ऐसा नहीं करेगा तो वोह मर जायेगा। हम देखते है पेडो़ और जानवारों में भी ज़रूरत और निर्भरता है। वोह दूसरों पर अपने फूड चेन के लिए और अलग-अलग हिस्सों में अपने वज़ूद के लिए निर्भर रहते है। पानी चक्र (water cycle) सूरज पर निर्भर है और सूरज़ खुद गैलेक्सीयो के क़वानीन (नियमों) के ऊपर निर्भर करता है। और उस जलते हुए मास के ऊपर जिससे उसमें रोशनी पैदा होती है और वगैराह वगैराह।
तो हम देखते है कि कोई भी चीज़ ऐसी नहीं है जो खुद अपने आप पर निर्भर करती है। तो इसलिए अशिया (चीज़ें) मौजूद है लेकिन उनमें अपने आप में खुद में शक्ति और पावर नहीं है के वोह खुद अपने दम पर मौजूद रह सके। इसलिए जो कुछ हम देखते है वोह यह है के हमारे आस-पास हर चीज़ महदूद है और सीमित है। हर चीज़ महदूद और मोहताज़ है और निर्भर है और हर चीज़ अपने से बडी़ किसी दूसरी चीज़ पर निर्भर है और मोहताज़ है। इसको हर चीज़ पर लागू करते हुए इससे हम एक नतीजा निकालते हैं कि अगर क़ायनात में हर चीज़ महदूद और निर्भर है तो आखिर वोह कौनसी चीज़ और वजूद है जिन पर सारी चीज़े अपने वजूद के लिए निर्भर रहती है? तो ऐसा वजूद खुद किसी पर निर्भर नहीं होना चाहिये वरना वोह खुद भी दूसरे मोहताज वजूदों की तरह होगा. यानी वोह लामहदूद (असीमित और अनंत) होना चाहिये जो अपने वजूद और अस्तित्व के लिये किसी दूसरे पर निर्भर न हो और वाजिबल वुजूद हो यानी स्वयं पर अपने वुजूद के लिये निर्भर हो वही तमाम दूसरे वजूदों का खालिक (रचयता) होना चाहिए।
आज कई सिद्धांत पाए जाते है जो कि क़ायनात कि उत्पत्ति (शुरूआत) के बारे में बताते जैसेकि ''बिग बैन थ्योरी''। बिग बैन का मतलब है बहुत ज़ोर से धमाका होना या बिग करंच थ्योरी या डायलेटिक मटेरियलिज़्म, तो यह सारे सिद्धांत एक साधारण से तथ्य (हक़ीक़त) से टकराते हैं जिसके मुताबिक तमाम क़ायनात का एक असीमित और गै़र-निर्भर रचियता (खालिक) की ज़रूरत महसूस होती है।
एक और मिसाल जो इस हक़ीक़त को वाजे़ह (साफ) करती है वोह है ज़िन्दगी की उत्पत्ति या शुरूआात। जितनी भी जीवित वस्तुऐं है जैसे कि पौधे, जानवर और इंसान वोह र्निजीव चीज़ों से अलग है यानी की मरी हुई या जिनमें जान नहीं होती. यह जीवित चीज़ें इसलिये अलग है की इन में कुछ खास खूबियाँ पाई जाती है वोह यह की वोह अपने आप में उम्र मे बड़ती जाती है, गति करती और अपनी नस्ल पैदा करती है। जो लोग यह माने के क़ायनात हमेशा मौजूद रही है और हमेशा रहेगी या वोह एक ब्लास्ट या एक धमाके से पैदा हुई है, इसका मतलब यह है के वोह मानते है के जीवन भी परिवर्तित और एक र्निजीव वस्तु से जैसे कि गैस, तरल और सख्त प्रदार्थ से विकसित होता रहता है । इस केस में अगर यह मामला सही है तो उनको सिर्फ ऐसी कोई मिसाल दिखानी चाहिए जिससे यह बात साबित हो जाए के किसी र्निजीव चीज़ ने किसी जीवित चीज़ को पैदा किया गया है, लेकिन हक़ीक़त में ऐसी कोई मिसाल देखने को नहीं मिलेगी। हॉं, उन मे से कोई यह कहता कि यह वाकिया इत्तेफाक से कई मिलियन या करोडो़ साल पहले हो गया जब कुछ अमीनो ऐसिड और केमिकल आपस में मिले और उनके मिलने से पहली ज़िन्दगी बनी। अगर यह हक़ीक़त है, तो फिर वोह किसी तरह से इस इत्तेफाक को पैदा करके दिखा दे चाहे वोह अपने बिलियन डॉलर खर्च करे और जितनी टेक्नोलोजी उनके पास है उसे लगाकर करके दिखाए।
लेकिन वोह इसके योग्य नहीं है के वोह ज़िन्दगी के सबसे नाकिसा (मामूली) रूप जिसको अमिबा कहते है, जिसको एक कोशिकीय जीव भी कहा जाता है, उसको भी पैदा करके दिखा दे। अगर सांइसदा (वैज्ञानिक) कुछ कर सकते हैं तो वोह सिर्फ जो गुण (सिफ्फत) इंसान की कोशिकाओं में पहले से मौजूद है उनसे फायदा उठाकर और उन्ही जीवित वस्तुओं का इस्तेमाल करके उनको दूसरा रूप दे सकते है जैसेकि जेनेटिक क्लोनिंग : हॉंलाकि इसका मतलब यह नहीं है कि उन्होंने किसी मुर्दा चीज़ से जीवित चीज़ को पैदा किया। वोह सिर्फ अल्लाअ سبحانه وتعال के दिए हुए गुण जो कि उसने जीवन में रखे है उनके रूपो के साथ खिलवाड़ कर रहे है, ठीक उस तरीक़े से जिस तरीक़े से हम एक धातु से एक चाकु या एक कार बना देते है।
इससे हमें पता लगा कि यह बिल्कुल साफ तथ्य है के इस क़ायनात का एक खालिक होना चाहिए। हमारे सामने यह सवाल अब भी रहता है के क्या यह खालिक खुद इस क़ायनात की तरह है यानी की वोह महदूद है या वोह खालिक लामहदूद और अज़ली (हमेशा रहने वाला/अनंत) है। अगर यह खालिक भी इस क़ायनात की तरह महदूद है तो उसको भी दूसरे किसी खालिक की ज़रूरत पडे़गी क्योंकि अगर वोह महदूद (सीमित) है तो उसको किसी खालिक की ज़रूरत पडे़गी और वोह खुद भी महदूद चीज़ों की तरह हुआ। और अगर इससे पहले कोई दूसरी क़ायनात थी तो उससे पहले क्या था? तो इस तरीक़े से यह कडी़याँ आपस में चलती रहेगी यहॉ तक कि कहीं से कोई शुरूआत या उत्पत्ति (पैदायश) की बात पैदा होती है, यहॉ तक कि ऐसा तब ही मुम्किन हो सकता है जब इन चीज़ों को किसी ऐसी हस्ती ने पैदा किया हो जो खुद बिना किसी वजह के हो और जो अब्दी हो, अज़ली हो और बिना किसी कारण के हो, बिना किसी की मोहताजी से हो, बिना किसी की पैदायश के हो जिसको हम अल्लाह سبحانه وتعال कहते है। इसके अलावा क़ायनात, ज़िन्दगी और इंसान की हैरत अंगेज़ डिजाईन (मंसूबाबन्दी/प्लानिंग) है, वो इस बात का सबूत है के अल्लाह मौजूद है।
ईमाम शाफई رحمت اللہ علیہ ने इस बात को इस तरह से बयान करते हुये फरमाया ''बैर की पत्तियॉं कईं सारी होती है लेकिन वोह सब एक जैसी होती है। हर पत्ती का स्वाद बिल्कुल एक जैसा है। इसी पत्ती के ऊपर कीडे़, मधुमख्खिया, गाय, बकरीयाँ, हिरण सब निर्भर रहती है। इसको खाने के बाद कीडा़ रेशम पैदा करता है, मधुमख्खी शहद पैदा करती है, हिरण मुश्क पैदा करता है, गाय और बकरी दूध देती है। क्या यह साफ दलील नहीं है के एक ही तरह की पत्ती खाने में इतने सारे गुण और सिफ्फते हो सकती है, आखिर वोह कौन है जिसने इनके अंदर इन सिफ्फतों (गुणों) की तख्लीक (रचना) की है? वोह खालिक (रचियता) है जिसको हम अल्लाह कहते है और यही तख्लीक करने वाला और ईजाद करने वाला है।''
जब हम क़ुरआन की तरफ देखते है तो क़ुरआन हमारी तवज्जों अपने आस-पास पाए जाने वाली चीज़ों की तरफ खेंचता है और इससे हम अल्लाह के वजूद पर गौर व फिक्र करने के नतीजे की तरफ पहुचते है। क़ुरआन में ऐसी सैकडो़ आयते है जो इस मायने को बयान करती है जैसे:
إنَّ فِي خَلْقِ ألسَمَاوَاتِ وَالأرْضِ وَاخْتِلافِ ألَّيْلِ وَالنَّهــارِ لأََيــاتٍ لِأُوْلـــىالْبــَابِ
''देखो ! ज़मीन और आसमान की तख्लीक (रचना) में और दिन और रात के आने जाने में बेशक़ उन लोगों के लिए निशानिया है जो समझ रखते है।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, आले इमरान-190)
وَمِنْ آيَاتِهِ خَلْقُ السَّمَاوَاتِ وَالأَرْضِ وَاخْتِلاَفُ
أَلْسِنَتِكُمْ وَأَلْوَانِكُمْ إِنَّ فِي ذلِكَ لآيَاتٍ لِّلْعَالَمِينَ
''और उसकी निशानियों में से ज़मीन और आसमान की तख्लीक है, और तुम्हारी ज़बानों में पाये जाने वाला फर्क़ और तुम्हारे रंग। देखो, बेशक यह निशानिया है उन लोगों के लिए जो समझ रखते है।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, अल रोम-22)
أَفَلاَ يَنظُرُونَ إِلَى الإِبْلِ كَيْفَ خُلِقَتْ وَإِلَى السَّمَآءِ كَيْفَ رُفِعَتْ وَإِلَى الْجِبَالِ كَيْفَ نُصِبَتْ وَإِلَى الأَرْضِ كَيْفَ سُطِحَتْ
''क्या वोह ऊटों की तरफ नहीं देखते किस तरीक़े से वोह तख्लीक किये गये है! और आसमानों की तरफ, किसी तरह से उन्हें उठाया गया है! और पहाडों की तरफ, किसी तरह से उन्हें उस्तेवार किया (ग़ाडा) गया है! और ज़मीन की तरफ कैसे उसे फैलाया गया है।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, अल गाशिया – 17 से 20)
فَلْيَنظُرِ الإِنسَانُ مِمَّ خُلِقَ خُلِقَ مِن مَّآءٍ دَافِقٍ يَخْرُجُ مِن بَيْنِ الصُّلْبِ وَالتَّرَآئِبِ
''तो इंसान गौर व फिक्र करे, के उसको किस चीज़ से बनाया गया है। उसको बनाया गया है ऊछलते हुए पानी से, जो कि रीड़ की हड्डी और पस्लियों के बीच से निकलता है।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, अत-तारीक़- 5-7)
١٦٤ إِنَّ فِى خَلۡقِ ٱلسَّمَـٰوَٲتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَٱخۡتِلَـٰفِ ٱلَّيۡلِ وَٱلنَّهَارِ وَٱلۡفُلۡكِ ٱلَّتِى تَجۡرِى فِى ٱلۡبَحۡرِ بِمَا يَنفَعُ ٱلنَّاسَ وَمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مِن مَّآءٍ۬ فَأَحۡيَا بِهِ ٱلۡأَرۡضَ بَعۡدَ مَوۡتِہَا وَبَثَّ فِيہَا مِن ڪُلِّ دَآبَّةٍ۬ وَتَصۡرِيفِ ٱلرِّيَـٰحِ وَٱلسَّحَابِ ٱلۡمُسَخَّرِ بَيۡنَ ٱلسَّمَآءِ وَٱلۡأَرۡضِ لَأَيَـٰتٍ۬ لِّقَوۡمٍ۬ يَعۡقِلُونَ
बेशक आसमान व ज़मीन की पैदाईश और रात दिन के रद्द बदल में और कश्तियों में जो लोगों के नफे की चीज़ें (माले तिजारत वग़ैरह) दरिया में लेकर चलती हैं और पानी में जो खुदा ने आसमान से बरसाया फिर उस से ज़मीन को मुर्दा होने के बाद जिला दिया (शादाब कर दिया) और उसमें हर क़िस्म के जानवर फैला दिये और हवाओं के चलाने में और अब्र में जो आसमान व ज़मीन के दरमियान खुदा के हुक्म से घिरा रहता है (इन सब बातों में) अक़्ल वालों के लिये निशानियाँ है (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, अल बकरा- 164)
أَمۡ خَلَقُواْ ٱلسَّمَـٰوَٲتِ وَٱلۡأَرۡضَۚ بَل لَّا يُوقِنُونَ
“या इन्होंने ही सारे आसमान व ज़मीन पैदा किये हैं (नहीं) बल्कि ये लोग यक़ीन ही नहीं रखते” (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, अत-तूर_ 36)
क़ुरआन के अल्लाह का कलाम होने का सबूत:-
एक बार जब हमने यह यक़ीनी तौर पर साबित कर दिया के अल्लाह मौजूद है तो जो अगला सवाल उठता है वोह यह है के क्या अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने हमारी इत्तिबा (अनुसरण) के लिए कोई 'वह्यी' नाज़िल की है। यह बिल्कुल साफ है के हम अल्लाह (سبحانه وتعالى) से गुफ्तगू नहीं कर सकते और इसलिए हम इस बात को जानने के लिये अयोग्य है के वोह हमसे क्या चाहता है, और यह बात भी के हम उसकी कैसे ईबादत करें और हम यह कैसे जाने के हम उसकी ईबादत कैसे करे और हम अपनी ज़िन्दगी में पेश आने वाली समस्याओं को कैसे समाधान करें। इन सब सवालों का उस वक़्त तक हल नहीं मिल सकता जब तक कि कोई ऐसा खालिक हो जो हम से गुफ्तगु करता हो और हमें रहनुमाई देता हो ताकि हम उस पर चल सकें। एक मुसलमान होने की हैसियत से हमारा यह ईमान है के पूरे इंसानियत के इतिहास में कई सारे पैगम्बर और रसूल आए, जो कि खालिक की तरफ से भेजे गए, जो कि वह्यी और क़वानीन (नियम) लेकर आए के इंसान को अपनी ज़िन्दगी कैसे गुज़ारना चाहिए। उनकों अल्लाह तआला ने मोजज़े दिये जिससे उन्होंने साबित किया के उनका अल्लाह सबानहू व तआला से कम्यूनीकेशन (विचारों का आदान प्रदान) रहा है और उन पर अल्लाह की तरफ से वह्यी नाज़िल हुई है। मौजज़ा वोह है जो कि प्रकृति के नियमों के खिलाफ जाता है जिसे हर किसी के लिए ज़ाहिर करना नामुमकिन है : मौजज़े के ज़रिए रसूलों ने यह बात साबित की के उनका खुदा से सीधे तौर पर ताल्लुक है। मिसाल के तौर पर हज़रत मूसा (علیہ ا لسلام) के पास एक असा था जिससे उन्होंने रेड सी (Red Sea) को बीच से अलग कर दिया था। हज़रत ईसा (علیہ ا لسلام) में यह सलाहियत थी के वोह बीमार को छूकर बीमारी से शीफा दे देते थे।
लेकिन हम कैसे जाने के पैगम्बर और रसूल कभी वजूद में हुआ करते थे? जो मौजज़े इस अंबियाओं की तरफ से सादिर हुए वोह मौज्ज़े सिर्फ एक खास वक़्त के लिए थे। हम कैसे यक़ीन करें कि यह कोई मनघडंत कहानी या किस्से नहीं है? तो आज हमारे पास ऐसा कौनसा मौजज़ा है जो हमें अपनी ज़िन्दगीयों में यक़ीन दिलाए और हमारी रहनुमाई करें? क़ुरआन अपने आप में एक सबसे अहम मोजज़ा है जो हज़रत मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) लेकर आए और वोह दूसरे मोजज़ात से बिल्कुल अलग है क्योंकि वोह मोजज़े सिर्फ अपने-अपने वक़्त के लिहाज़ से महदूद थे। क़ुरआन एक फिक्री मोजज़ा है (बौद्धिक चमत्कार), जो इस्लाम के हक़ होने को साबित करता है। यह हज़रत मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) पर छठी सदी ईसवी में नाज़िल हुआ, और यह आज भी मौजूद है और यह हर ज़माने के लिए नाज़िल किया गया है। यह एक यकीनी हक़ीक़त है के क़ुरआन हज़रत मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) पर अरबी ज़बान में 13 सालों के अंदर तकरीबन 1400 साल पहले नाज़िल हुआ । इस बात को यकीनी तौर पर साबित करने के लिए कि यह अल्लाह (سبحانه وتعالى) की तरफ से है, सबसे पहले हमें क़ुरआन को अल्लाह का कलाम साबित के लिए इसके मुम्किन स्त्रोतो या मनबा के बारें में सोचना होगा और हक़ तक पहुँचने के लिए जो गलत है उनको बरतरफ करके सही मनबे को पहचानना होगा। क़ुरआन के जो मुम्किन स्त्रोत हो सकते है वोह है :
(A) अरबों के द्वारा लिखा गया
(B) मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) ने खुद लिखा
(C) अल्लाह (سبحانه وتعالى) के ज़रिए नाज़िल फरमाया गया।
जिस वक़्त क़ुरआन नाज़िल हुआ उस वक़्त बुतपरस्त अरब लोग शायरी के शौक़ में डूबे हुए थे। और उस समाज के अंदर शायरी करना एक शराफत की आला किस्म की निशानी मानी जाती थी। लोग सेहराओं की तरफ कई-कई दिनों के लिए सिर्फ शायरी लिखने के लिए जाया करते थे। अरबी भाषा के अंदर काफी सलासत और बात को अच्छे ढंग से कहने की गहराई है, इसलिए अरबों में इसको बहुत बडा़ मकाम दिया जाता था। अल्लाह سبحانه وتعال ने क़ुरआन में अरबों को यह चैलेन्ज दिया के वोह क़ुरआन में इस्तेमाल की गई ज़बान (भाषा) के मुकाबले में उसके जैसे कोई दूसरी ज़बान (भाषा) बना कर दिखा दे और हक़ीक़त में वोह लोग ऐसा करने में नाकामयाब रहे। शुरू में अल्लाह (سبحانه وتعالى) में उन्हें चैलेन्ज दिया के वोह क़ुरआन के दस सूरह बना के दिखा दे जो उसके जैसी हो :
ۖ قُلۡ فَأۡتُواْ بِعَشۡرِ سُوَرٍ۬ مِّثۡلِهِۦ مُفۡتَرَيَـٰتٍ۬ وَٱدۡعُواْ
مَنِ ٱسۡتَطَعۡتُم مِّن دُونِ ٱللَّهِ إِن كُنتُمۡ صَـٰدِقِينَ
“कह दो कि अगर तुम (अपने दावे में सच्चे) हो तो ऐसे दस सूरह अपनी तरफ से बना लाओ” (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, हूद -13)
लेकिन वोह ऐसा करने में नाकामयाब हो गए तो अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने उन्हें फिर चैलेन्ज दिया जो बज़ाहिर आसान दिखता था और अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने फरमाया :
وَاِنْ كُنْتُمْ فِىْ رَيْبٍ مِّمَّا نَزَّلْنَا عَلٰي عَبْدِنَا فَاْتُوْا بِسُوْرَةٍ مِّنْ مِّثْلِهٖ ۠ وَادْعُوْا شُهَدَاۗءَكُمْ مِّنْ دُوْنِ اللّٰهِ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ
“और अगर तुम लोग इस कलाम से
जो हमने अपने बन्दे (मुहम्मद صلى الله عليه وسلم) पर नाज़िल किया है शक में
पडे हो पस अगर तुम सच्चे हो तो तुम (भी) एक सूरह बना लाओ और खुदा के सिवा
जो भी तुम्हारे मददगार हों उनको भी बुला लो” (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, अल
बक़राह -23)
क़ुरआन की सबसे छोटी सूरत 'सूरे अल कौसर' जिसमें सिर्फ तीन जुमले इस्तेमाल किये गए है, तो यक़ीनी तौर पर इतिहास में ऐसा कोई तो होना चाहिए जो कि इस चैलेन्ज का मुकाबला कर सकता? हज़रत मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) के ज़माने में अरब ऐसा करने में नाकामयाब हो गए, हाँलाकि वोह अरबी ज़बान की सबसे बेहतरीन ज्ञान रखते थे। इसके अलावा अरबी साहित्य मे तो उनसे पहले और ना उनके बाद अभी तक कोई उनकी बराबरी कर सका है. अरबी भाषा का बहतरीन इस्तेमाल करने के बावजूद भी वोह क़ुरआन की भाषा के करीब भी नहीं आ सके।
किसी अरबी नहीं जानने वाले के लिए यह बात समझना थोडा़ मुश्किल हो सकता है क्योंकि वोह क़ुरआन की भाषा को सीधे तौर पर नहीं समझ सकते। हाँलाकि इस बात पर सब लोग राजी हो सकते है के साहित्य का कोई भी एक टुकडा़ जो इंसान के ज़रिए लिखा गया है उसके जैसा कोई और भी लिखा जा सकता है, लोग उसकी नक़ल कर सकते है उसकी शैली की (अस्लूब की) और उसके मुकाबले में उसकी क्वालिटी का और उसके गुणों का कुछ और भी पेश कर सकते है। अगर हम अंग्रेजी के किसी मुसन्निफ जैसे शेक्सपियर वगैराह के काम को ले तो कोई भी यह दावा नहीं कर सकता के वोह पैगम्बर था और उसका काम और उसकी तस्नीफ (लेख) मौजज़ाना फितरत की थी। उसके बावजूद भी के वोह अपने काम में बहुत माहिर और जीनियस थे, फिर भी लोग कोशिश करने पर उनके जैसी महारत हासिल कर सकते है बल्कि उसके जैसे तीन जुमलें बना सकते है।
इसके बावजूद भी के वही अरबी ज़बान और वही शब्द और वही ग्रामर, वही जुमलों की बनावट और वही लुग़ात (डिशनरी) आज भी मौजूद है, अरबी भाषा की जानकारी रखने वाले लोग अभी तक क़ुरआन जैसा कोई टुकडा़ नहीं पेश कर सकें है जो उसका मुकाबला कर सके। इसलिए यह नामुम्किन है के क़ुरआन किसी अरब के ज़रिए लिखा गया। यह भी नाकबिले समझ है के क़ुरआन हज़रत मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) के ज़रिये लिखी गई किताब है। ऐसा इसलिए के आखिरकार वोह भी अरबों में से एक अरब थे। इसके अलावा चाहे उनकी अक़्ल का मियार कितना ही आला रहा हो लेकिन वोह भी नस्ल से एक इंसान थे और अरबों के ही एक कबीले और कौम से ताल्लुक रखते थे। चूँके अरब क़ुरआन जैसा लाने में नाकामयाब रहे, यही बात हज़रत मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) पर भी लागू होती है। इसके अलावा मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) की बातों को सही अहादीस और मुतावातिर अहादीस में मेहफूज़ कर लिया गया है जिनकी सनद में किसी भी तरह का कोई शक व शुबा नहीं है। अगर इनमें से किसी भी अहादीस को क़ुरआन की किसी आयत से मवाज़ना (तुलना) किया जाए, तो उन दोनों के अस्लूब (शैली) में कोई समानता नहीं पाई जाएगी। आप (صلى الله عليه وسلم) जो भी बोला करते थे, आप (صلى الله عليه وسلم) पर जो वह्यी होती थी उन आयतों की आप तिलावत फरमाते थे, उसके साथ-साथ उसी वक़्त आप अपनी हदीस भी बयान फरमाते थे और दोनों के अस्लूब (शैली) में काफी फर्क़ पाया जाता है। जब भी कोई आदमी अपनी बोली को अलग बनाने के कोशिश करता है, तो वोह अपने अस्लूब (शैली) को अलग बना नहीं सकता, यानी उसकी शैली एक जैसी रहती है, क्योंकि यह उसकी शख्सियत (व्यक्तित्व) का हिस्सा होती है। इसलिए क़ुरआन और हदीस के अस्लूब में कोई समानता नहीं पाई जाती, इसलिए क़ुरआन क़तई तौर पर हज़रत मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) की बोली नहीं है। यहॉं इस बात की तरफ तवज्जो दिलाना भी ज़रूरी है के कोई भी अरब, जो हज़रत मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) से नफरत करते थे, खास तौर से उस समय में, वोह अरबी भाषा के सबसे बडे़ जानकार थे और लेकिन उनमें से किसी ने यह दावा नहीं किया के क़ुरआन हज़रत मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) का कलाम (बोली) है, या उनकी भाषा से मिलती-जुलती भाषा है।
चूँके यह साबित हो गया है के क़ुरआन ना तो अरबों में से किसी अरब का कलाम है और ना ही यह हज़रत मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) का कलाम है, इसलिए यह यकीनी तौर पर अल्लाह (سبحانه وتعالى) का कलाम है और यही एक अक़्ली दलील है जो हमारे पास रह जाती है।
क़ुरआन का यह चैलेन्ज बहुत अनोखा है क्योंकि खालिक यानी अल्लाह (سبحانه وتعالى) खुद इन्सान की तवज्जों इस तरफ मबज़ूल करता है के वोह अपनी क़ाबलियत का इस्तेमाल करे और क़ुरआन के अल्लाह के कलाम होने को ग़लत साबित कर दे। यह एक बहुत सादा लेकिन बहुत गहरा चैलेन्ज है। ज़रा तसव्वुर करो के इस्लाम के इतिहास के पूरे दौर में, इस्लाम के सारे दुश्मनों को यह चाहिए था के वोह इस चैलेन्ज का मुकाबला करते और इस्लाम की सारी बुनियादों को हिला देते। इसके बावजूद भी कोई एक भी, ना तो कोई गै़र-मुस्लिम अरब या गै़र-अरब ऐसा कर पाया हॉंलाकि अरबी भाषा के तमाम सामान आज उनके पास आसानी से मौजूद है। पश्चिमी देशों और सरकारों की नफरत इस्लाम के खिलाफ मशहूर है। अगर उनको कुछ करना है इस्लाम को तबाह और शिकस्त देने के लिए तो सिर्फ इतना करना है, और यह के एक बिलियन से ज़्यादा मुसलमानों को मुरतद बनाना है तो उसके लिए उन्हे अफगानिस्तान, ईराक़ पर क़ब्ज़ा करके बिलियन डॉलर खर्च करने की ज़रूरत नहीं और ''झूठी दहशतगर्दी के खिलाफ जंग'' को थोपने की ज़रूरत नहीं। उनको सिर्फ इतना करना है के क़ुरआन के जैसा एक बाब (पाठ) वोह बना के दिखा दे।
आज तक मुस्लिम और गै़र-मुस्लिम विद्वान क़ुरआन में किसी तरह का टकराव नहीं खोज पाए ना कोई ग़लती खोज पाए। इसके अलावा अगर क़ुरआन की हर कॉपी के एक-एक शब्द को आपस में मिलाया जाए यानी आज के ज़माने में पाई जाने वाली कॉपी और हज़रत मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) के ज़माने में पाई जाने वाली एक नकल का मवाज़ना (तुलना) किया जाए तो पता लगेगा के एक मामूली से शब्द का भी अन्तर नहीं पाया जाता. ना तो उसमें कुछ बडा़या गया है और ना घटाया गया है। क़ुरआन की कॉपी जो कि इस्लाम की पहली सदी हिजरी में पाई जाती थी वोह कॉपी आज भी इस्तम्बोल और ताशकन्त में मौजूद है। अल्लाह (سبحانه وتعالى) फरमाता है :
أَفَلَا يَتَدَبَّرُونَ ٱلۡقُرۡءَانَۚ وَلَوۡ كَانَ مِنۡ عِندِ غَيۡرِ ٱللَّهِ لَوَجَدُواْ فِيهِ ٱخۡتِلَـٰفً۬ا ڪَثِيرً۬ا
“क्या वोह क़ुरआन पर गौर व फिक्र नहीं करते? अगर यह अल्लाह के सिवा किसी और की तरफ से नाज़िल हुआ होता तो यकीनी तौर पर वोह उसमें टकराव पाते।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, अन्निसा -82)
आज ऐसे बहुत सी किताबें मौजूद है जो यह दावा करती है कि वोह खुदा की तरफ से है, जैसे कि इसाईयों की बाईबल और यहूदियों की तौरात वगैराह। हॉंलाकि उनके पास इस बात का सबूत नहीं है के वोह अल्लाह (سبحانه وتعالى) के ज़रिए नाज़िल की गई, अगर वोह अपने अंदर मौजज़े की सिफ्फत नहीं रखती तो इसकी कोई वजह नहीं कि आज मौजूद उन किताबों पर ईमान लाया जाए।
एक मुसलमान होने के नाते हम इस बात पर ईमान रखते है के अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने कई किताबें अलग-अलग दौर में नाज़िल फरमाई जैसे असली इंजील (गॉस्पल) और तौरात। अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने हमें इस बात की खबर क़ुरआन मजीद में दी है इसलिए हम इस बात पर ईमान रखते है। हॉलाकि हमें इस बात की भी खबर दी गई है के इन किताबों में तब्दीली की जा चुकी है और आज जो वर्ज़न इन किताबों के मौजूद है वोह, वोह किताबें नहीं है जो अल्लाह ने नाज़िल फरमाई थी। इसके अलावा क़ुरआन एक आखरी वह्यी है जो अल्लाह (سبحانه وتعالى) के तरफ से जो पुरानी सारी किताबों को मन्सूख कर देती है।
अल्लाह (سبحانه وتعالى) फरमाते है :
قُوْلُوْٓا اٰمَنَّا بِاللّٰهِ وَمَآ
اُنْزِلَ اِلَيْنَا وَمَآ اُنْزِلَ اِلٰٓى اِبْرٰھٖمَ وَاِسْمٰعِيْلَ
وَاِسْحٰقَ وَيَعْقُوْبَ وَالْاَسْبَاطِ وَمَآ اُوْتِيَ مُوْسٰى وَعِيْسٰى
وَمَآ اُوْتِيَ النَّبِيُّوْنَ مِنْ رَّبِّهِمْ ۚ لَا نُفَرِّقُ بَيْنَ
اَحَدٍ مِّنْھُمْ ڮ وَنَحْنُ لَهٗ مُسْلِمُوْنَ
''कह
दीजिए, हम अल्लाह पर ईमान रखते है, और उस वह्यी पर जो हम तक भेजी गई, और
जो कुछ इब्राहिम, इस्माईल, इस्हाक़, और (औलादे) याकूब पर नाज़िल हुआ, और जो
कुछ मूसा और ईसा को दिया गया, और जो कुछ तमाम पैगम्बरों को अपने रब की तरफ
से दिया गया और हम उनके बीच में फर्क्र नहीं करते, और हम अल्लाह के सामने
झुकने वाले हैं।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, अल बक़रा-136)
एक बार जब हमने अक़्ली दलील से साबित कर दिया के अल्लाह (سبحانه وتعالى) मौजूद है और क़ुरआन अल्लाह की किताब है, तो हमें हर उस चीज़ पर ईमान लाना होगा जिसके बारे में क़ुरआन हमें खबर देता है और उसका हुक्म देता है, चाहे हम उसे समझ पाए या ना समझ पाए। इसलिए क़यामत के दिन पर हमारा ईमान होना चाहिए, ज़न्नत पर, ज़हन्नुम पर, हिसाब-किताब पर और अज़ाब पर, फरिश्तो पर, जिन्नात पर, शयातीन पर, और उन सब चीज़ों पर जो कि क़ुरआन और हदीसे मुतावातीर (क़तई रिवायत) में जिक्र हुआ है। इन चीज़ों पर ईमान लाना इसलिए गै़र-अक़्ली नहीं है क्योंकि हमने उन्हें देखा नहीं है या हम उन्हें जिस्मानी तौर पर महसूस नहीं कर सकते. बल्कि हमारा इन पर इमान अक़्ल के आधार पर है क्योंकि हमारे पास यकीनी सबूत है जो किताब अल्लाह (سبحانه وتعالى) के तरफ से है वोह क़ुरआन है और जो हमें इन सब चीज़ों की खबर देता है।
يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا
اٰمِنُوْا بِاللّٰهِ وَرَسُوْلِهٖ وَالْكِتٰبِ الَّذِيْ نَزَّلَ عَلٰي
رَسُوْلِهٖ وَالْكِتٰبِ الَّذِيْٓ اَنْزَلَ مِنْ قَبْلُ ۭ وَمَنْ يَّكْفُرْ
بِاللّٰهِ وَمَلٰۗىِٕكَتِهٖ وَكُتُبِهٖ وَرُسُلِهٖ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ
فَقَدْ ضَلَّ ضَلٰلًۢا بَعِيْدًا
“ऐ
ईमान वालों ख़ुदा और उसके रसूल पर और उसकी किताब पर जो उसने पहले नाज़िल की
ईमान लाओ और (ये भी याद रहे कि) जो शख़्स खुदा और उसके फरिशतों और उसकी
किताबों और उसके रसूलों और रोज़े आखिरत का मुंकिर हुआ तो वो रास्ते से भटक
के दूर जा पडा” (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, अन्निसा-136)
एक बार जब अल्लाह पर, उसके रसूल पर और क़ुरआन पर ईमान साबित हो गया, तो हर मुसलमान पर यह फर्ज़ है के वोह इस्लामी शरीअत पर पूरा का पूरा ईमान लाए। हम जैसा चाहे उसमें से एक चीज़ को नहीं चुन सकते और दूसरी को नहीं छोड़ सकते। शरीअत को अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने अपनी किताब क़ुरआन शरीफ में नाज़िल फरमाया और हज़रत मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) ने हम तक पहुँचाई। अगर कोई इस पर ईमान नहीं रखता है तो वोह काफिर होगा। इसलिए यह कुफ्र है के हम शरीअत के अहकाम का पूरे तौर पर इंकार करें या किसी क़तई अहकाम की तफ्सीलात का इन्कार करें। चाहे यह अहकाम ईबादात से सम्बन्धित हो, मुआमलात से, ऊकुबात (सजाओं) से, मतुबात (खाने-पीने की चीजे़) या मलबूसात (कपडे पहने की नियमों) वगैराह-वगैराह से मुताल्लिक हो। इसलिए इस आयत का इन्कार :
وَاَقِيْمُوا الصَّلٰوةَ
''तो नमाज़ क़ायम करों'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, अल बक़राह - 43)
इस दूसरी आयत के इन्कार जैसा ही है जैसे:
''तो नमाज़ क़ायम करों'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, अल बक़राह - 43)
इस दूसरी आयत के इन्कार जैसा ही है जैसे:
وَاَحَلَّ اللّٰهُ الْبَيْعَ وَحَرَّمَ الرِّبٰوا
''अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने तिजारत को हलाल किया और सूद को हराम।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, अल बक़राह - 275)
وَالسَّارِقُ وَالسَّارِقَةُ فَاقْطَعُوْٓا اَيْدِيَهُمَا
“और चोर ख़्वार मर्द हो या औरत तुम उनके करतूत की सज़ा में उनका (दाहिना) हाथ काट डालो” (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, सूरह अलमाईदा, आयत 38)
حُرِّمَتْ عَلَيْكُمُ الْمَيْتَةُ وَالدَّمُ وَلَحْمُ الْخِنْزِيْرِ وَمَآ اُهِلَّ لِغَيْرِ اللّٰهِ
“(लोगों) तुम पर हराम किय गया है मरा हुआ जानवर और ख़ून और सूअर का गोश्त और जिस (जानवर) पर (ज़िबाह) के वक़्त ख़ुदा के सिवा किसी दूसरे का नाम लिया जाये” (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, अलमाईदा- 3)
فَلَا وَرَبِّكَ لَا يُؤْمِنُوْنَ حَتّٰي يُحَكِّمُوْكَ فِيْمَا شَجَــرَ بَيْنَھُمْ ثُمَّ لَا يَجِدُوْا فِيْٓ اَنْفُسِهِمْ حَرَجًا مِّمَّا قَضَيْتَ وَيُسَلِّمُوْا تَسْلِــيْمًا
“पस (ऐ रसूल) तुम्हारे परवर दिगार की क़सम ये लोग सच्चे
मोमिन न होंगे जब तक कि अपने आपसी झगडों में तुमको अपना हाकिम न बना लें
फिर (यही नहीं बल्कि) जो कुछ तुम फैसला करो उससे किसी तरह तंग दिल भी न हों
बल्कि खुशी खुशी उसको मान लें” (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, अन्निसा- 65)
इसलिए हमें अल्लाह (سبحانه وتعالى) के ज़रिए नाज़िल किये गये जितने भी अहकाम है उनके सामने अपने आपको सरेन्डर (सनरगूँ) कर देना चाहिए चाहे हम उनके अन्दर कोई अक़्ली वजह पाए या ना पाए।
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