उसूले ए फ़िक़्ह की तारीफ़: (उन क़वाइद का इल्म जिनके ज़रीये अहकामे ए शरीया को तफ़सीली दलाइल से मुस्तंबित किया जाये)
इस तारीफ़ से ये वाजेह है कि इस फ़न में सारी बहस क़वाइद पर है और यूं ये फ़न इल्मे ए फ़िक़्ह से अलैहदा एक इल्म है क्योंकि फ़िक़्ह का दारोमदार और उसकी बहस फुरुअ पर है। ये बात उसकी तारीफ़ से वाजेह है:
फ़िक़्ह की तारीफ़: (शरीयत के उन अमली मसाइल का इल्म जो कि उनके तफ़सीली दलाइल से मुस्तंबित किए गए हो)
लिहाज़ा ये कहा जा सकता है कि इल्मे ए फ़िक़्ह दरअसल इल्मे ए उसूले ए फ़िक़्ह का नतीजा है और इसलिए ये एक मुनफ़रद इल्म है। उसूले फ़िक़्ह मुज्तहिद को नुसूस से अल्लाह का हुक्म मुस्तंबित करते वक़्त, एक ख़ास तरीका एकार (methodology) पर पाबंद रखता है ताकि इसके इज्तिहाद और इस्तिंबात में वज़ादारी (consistency) क़ायम रहे और वो ज़ाती तख़य्युल और रग़बत से दूर रहे क्योंकि अल्लाह سبحانه وتعال का फ़रमान है:
पस तुम ख़्वाहिश की पैरवी मत करो।
उसूले फ़िक़्ह उन आलात (tools) की हैसियत रखते हैं कि जिनके ज़रीये मुज्तहिद शरई नुसूस से अल्लाह का हुक्म मुस्तंबित करता है । इसलिए मुज्तहिद को चाहिए कि वो पहले इन उसूलों का तअय्युन और इज़हार करे, जिन की मदद से वो हुक्मे शरई मुस्तंबित करेगा ताकि हमेशा इस बुनियाद पर, इस के इज्तिहाद व इस्तिंबात को परखा जा सके।
चूँकि हुक्मे शरई के इस्तिंबात से मुराद किसी बात को अल्लाह سبحانه وتعال का क़स्द क़रार देना है, इसलिए ये एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है, जिस में इंतिहाई एहतियात और अमीक़ (गहरी) फ़िक्र दरकार है। चुनांचे फ़क़त एक आयत या हदीस को पढ़ कर, इस से अल्लाह का हुक्म नहीं समझा जा सकता, चाहे ब ज़ाहिर ऐसा लगे ।
मिसाल :
(और अपने में से दो परहेज़गार मर्दों को गवाह कर लो)। (वो तुम में से दो परहेज़गार हों या दूसरों (काफ़िरों) में से दो) । (और अपने में से दो मर्दों की गवाही कर लो और अगर ये ना हो सके तो एक मर्द और दो औरतों की) । (जो लोग पाक दामन औरतों पर ज़िना की तोहमत लगाऐं फिर चार गवाह ना पेश कर सकें तो उन्हें 80 कोड़े लगाओ और कभी भी उन की गवाही क़बूल ना करो, ये फ़ासिक़ लोग हैं। सिवाए उन लोगों के जो इस के बाद तौबा और इस्लाह कर लें)। (नबी करीम ने एक क़सम और एक गवाह (की बुनियाद) पर फ़ैसला दिया)। जबकि एक दूसरी हदीस में, रज़ाअत के मुआमले में,स रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم का एक औरत की गवाही को क़बूल करना भी साबित है ।
ये तमाम नुसूस गवाही के ज़िमन में वारिद हुए हैं, अब इन सब को कैसे समझा जाये ? कभी ये कहा जा रहा है कि फ़क़त मुसलमान की गवाही मक़बूल है जबकि किसी और जगह पर काफ़िर की गवाही को भी क़बूल किया जा रहा है। एक नस में दो मुसलमान मर्दों का मुतालिबा किया गया है जबकि दूसरी में एक मर्द की गवाही पर इक्तिफा (संतोष) किया गया है। कहीं पर दो औरतों का ज़िक्र हो रहा है जबकि किसी और जगह पर एक औरत की गवाही की मक़बूलियत साबित है । क्या उसकी तौबा करने के बाद काज़िफ़ की गवाही क़बूल की जा सकती है या ये कभी नहीं हो सकता? अगर नुसूस में तआरुज़ नज़र आ रहा है तो किस नस को इख़्तियार किया जाये और किस को रद्द? अगर एक नस को दूसरी का नासिख़ क़रार दिया गया है तो वो किस वजह से? और अगर इन तमाम नुसूस को जमा करना मुम्किन है, तो उसकी क्या कैफ़ीयत होगी यानी इन में ततबीक़ कैसे पैदा की जाएगी ? वग़ैरा।
इन मसाइल को हल करने के लिए इज्तिहाद दरकार है जो मुज्तहिद से इस बात का तक़ाज़ा करता है कि वह अपने इज्तिहाद में उसूलों को इख़्तियार (adopt) करे, और जब उस ने ऐसा किया तो वह अपने दूसरे इज्तिहादात में उन को नज़रअंदाज नहीं कर सकता। उसे उन्ही उसूलों पर पाबंद रहना पड़ेगा वर्ना उस का इज्तिहाद और इस्तिंबात बातिल होगा क्योंकि
(पस तुम ख़्वाहिश की पैरवी मत करो)।
पस अगर उसने, मिसाल के तौर पर, किसी मसले में इस उसूल को इख़्तियार किया है कि हदीसे मुर्सल दलील नहीं है, तो ये किसी और मसले में उसे बतौर हुज्जत इस्तिमाल नहीं कर सकता। इसी तरह अगर उसने ये उसूल अपनाया है कि अम्र वजूब के लिए होता है, तो उसे तमाम मसाइल में इस उसूल पर क़ायम रहना पड़ेगा। और अगर वह अपने उसूलों को तब्दील करता है, तो उसे उन का बयान और इज़हार करना चाहिए ताकि आइन्दा इन नए उसूलों की बुनियाद पर इसका मुहासिबा हो सके। उस मुख़्तसर बयान से उसूले फ़िक़्ह की ज़रूरत का अंदाज़ा लगाया जा सकता है ।
उसूले फ़िक़्ह में हुक्मे शरई और उसकी अक़साम, दलाइल और माख़ज़, अल्फाज़ और दलालत और इज्तिहाद और तक़लीद वग़ैरा की बहस शामिल है।
इस तारीफ़ से ये वाजेह है कि इस फ़न में सारी बहस क़वाइद पर है और यूं ये फ़न इल्मे ए फ़िक़्ह से अलैहदा एक इल्म है क्योंकि फ़िक़्ह का दारोमदार और उसकी बहस फुरुअ पर है। ये बात उसकी तारीफ़ से वाजेह है:
फ़िक़्ह की तारीफ़: (शरीयत के उन अमली मसाइल का इल्म जो कि उनके तफ़सीली दलाइल से मुस्तंबित किए गए हो)
लिहाज़ा ये कहा जा सकता है कि इल्मे ए फ़िक़्ह दरअसल इल्मे ए उसूले ए फ़िक़्ह का नतीजा है और इसलिए ये एक मुनफ़रद इल्म है। उसूले फ़िक़्ह मुज्तहिद को नुसूस से अल्लाह का हुक्म मुस्तंबित करते वक़्त, एक ख़ास तरीका एकार (methodology) पर पाबंद रखता है ताकि इसके इज्तिहाद और इस्तिंबात में वज़ादारी (consistency) क़ायम रहे और वो ज़ाती तख़य्युल और रग़बत से दूर रहे क्योंकि अल्लाह سبحانه وتعال का फ़रमान है:
पस तुम ख़्वाहिश की पैरवी मत करो।
उसूले फ़िक़्ह उन आलात (tools) की हैसियत रखते हैं कि जिनके ज़रीये मुज्तहिद शरई नुसूस से अल्लाह का हुक्म मुस्तंबित करता है । इसलिए मुज्तहिद को चाहिए कि वो पहले इन उसूलों का तअय्युन और इज़हार करे, जिन की मदद से वो हुक्मे शरई मुस्तंबित करेगा ताकि हमेशा इस बुनियाद पर, इस के इज्तिहाद व इस्तिंबात को परखा जा सके।
चूँकि हुक्मे शरई के इस्तिंबात से मुराद किसी बात को अल्लाह سبحانه وتعال का क़स्द क़रार देना है, इसलिए ये एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है, जिस में इंतिहाई एहतियात और अमीक़ (गहरी) फ़िक्र दरकार है। चुनांचे फ़क़त एक आयत या हदीस को पढ़ कर, इस से अल्लाह का हुक्म नहीं समझा जा सकता, चाहे ब ज़ाहिर ऐसा लगे ।
मिसाल :
(और अपने में से दो परहेज़गार मर्दों को गवाह कर लो)। (वो तुम में से दो परहेज़गार हों या दूसरों (काफ़िरों) में से दो) । (और अपने में से दो मर्दों की गवाही कर लो और अगर ये ना हो सके तो एक मर्द और दो औरतों की) । (जो लोग पाक दामन औरतों पर ज़िना की तोहमत लगाऐं फिर चार गवाह ना पेश कर सकें तो उन्हें 80 कोड़े लगाओ और कभी भी उन की गवाही क़बूल ना करो, ये फ़ासिक़ लोग हैं। सिवाए उन लोगों के जो इस के बाद तौबा और इस्लाह कर लें)। (नबी करीम ने एक क़सम और एक गवाह (की बुनियाद) पर फ़ैसला दिया)। जबकि एक दूसरी हदीस में, रज़ाअत के मुआमले में,स रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم का एक औरत की गवाही को क़बूल करना भी साबित है ।
ये तमाम नुसूस गवाही के ज़िमन में वारिद हुए हैं, अब इन सब को कैसे समझा जाये ? कभी ये कहा जा रहा है कि फ़क़त मुसलमान की गवाही मक़बूल है जबकि किसी और जगह पर काफ़िर की गवाही को भी क़बूल किया जा रहा है। एक नस में दो मुसलमान मर्दों का मुतालिबा किया गया है जबकि दूसरी में एक मर्द की गवाही पर इक्तिफा (संतोष) किया गया है। कहीं पर दो औरतों का ज़िक्र हो रहा है जबकि किसी और जगह पर एक औरत की गवाही की मक़बूलियत साबित है । क्या उसकी तौबा करने के बाद काज़िफ़ की गवाही क़बूल की जा सकती है या ये कभी नहीं हो सकता? अगर नुसूस में तआरुज़ नज़र आ रहा है तो किस नस को इख़्तियार किया जाये और किस को रद्द? अगर एक नस को दूसरी का नासिख़ क़रार दिया गया है तो वो किस वजह से? और अगर इन तमाम नुसूस को जमा करना मुम्किन है, तो उसकी क्या कैफ़ीयत होगी यानी इन में ततबीक़ कैसे पैदा की जाएगी ? वग़ैरा।
इन मसाइल को हल करने के लिए इज्तिहाद दरकार है जो मुज्तहिद से इस बात का तक़ाज़ा करता है कि वह अपने इज्तिहाद में उसूलों को इख़्तियार (adopt) करे, और जब उस ने ऐसा किया तो वह अपने दूसरे इज्तिहादात में उन को नज़रअंदाज नहीं कर सकता। उसे उन्ही उसूलों पर पाबंद रहना पड़ेगा वर्ना उस का इज्तिहाद और इस्तिंबात बातिल होगा क्योंकि
(पस तुम ख़्वाहिश की पैरवी मत करो)।
पस अगर उसने, मिसाल के तौर पर, किसी मसले में इस उसूल को इख़्तियार किया है कि हदीसे मुर्सल दलील नहीं है, तो ये किसी और मसले में उसे बतौर हुज्जत इस्तिमाल नहीं कर सकता। इसी तरह अगर उसने ये उसूल अपनाया है कि अम्र वजूब के लिए होता है, तो उसे तमाम मसाइल में इस उसूल पर क़ायम रहना पड़ेगा। और अगर वह अपने उसूलों को तब्दील करता है, तो उसे उन का बयान और इज़हार करना चाहिए ताकि आइन्दा इन नए उसूलों की बुनियाद पर इसका मुहासिबा हो सके। उस मुख़्तसर बयान से उसूले फ़िक़्ह की ज़रूरत का अंदाज़ा लगाया जा सकता है ।
उसूले फ़िक़्ह में हुक्मे शरई और उसकी अक़साम, दलाइल और माख़ज़, अल्फाज़ और दलालत और इज्तिहाद और तक़लीद वग़ैरा की बहस शामिल है।
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