मुहब्बत अल्लाह के लिये और नफरत अल्लाह के लिये

حُبّ فی اللہ के मानी ये हैं के आदमी से मुहब्बत अल्लाह की ख़ातिर होनी चाहिए यानी उस शख़्स के ईमान और इसकी इताअ़त और फ़रमाबरदारी की वजह से उससे मुहब्बत करनी चाहिए। بغض فی اللہ  के मानी किसी से नफ़रत उसके कुफ्र और मासियत की बिना पर होनी चाहिए। حُبّ فی اللہ और بغض فی اللہ   में فی (फी) ताअ़लील और इल्लत बयान करने के लिए आया है जैसे अल्लाह سبحانه وتعالیٰ का ये क़ौलः

                                قَالَتْ فَذٰلِكُنَّ الَّذِيْ لُمْتُنَّنِيْ فِيْهِ١ؕ  
                    
वो बोली ये वही है जिस के मुआमले में तुम मुझे मलामत कर रही थीं। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने करीमः यूसुफ़ - 32)

और अल्लाह سبحانه وتعالیٰ का ये फ़रमानः

وَ لَوْ لَا فَضْلُ اللّٰهِ عَلَيْكُمْ وَ رَحْمَتُهٗ فِي الدُّنْيَا وَ الْاٰخِرَةِ لَمَسَّكُمْ فِيْ مَاۤ اَفَضْتُمْ فِيْهِ عَذَابٌ عَظِيْمٌۚۖ

तो जिस बात में तुम पड़ गए इसके बाइस तुम्हें एक बड़ा अ़ज़ाब आ लेता (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने करीमः अल नूर -14)

इसी तरह रसूले अकरम (صلى الله عليه وسلم) ये क़ौलः

دخلت امراۃ النار فی ھرۃ

एक औरत बिल्ली (से बदसुलूकी के बाइस) की वजह से जहन्नुम में दाख़िल हुई

मुतीअ़ और फ़रमाबरदार मोमिनों से मुहब्बत करने का बहुत बड़ा अज्रो सवाब है चुनांचे अबू हुरैराह (رضي الله عنه) हुज़ूरे अकरम (صلى الله عليه وسلم) से रिवायत करते हैं के आप ने फ़रमायाः

((سبعۃ یظلھم اللہ في ظلہ، یوم لا ظل إلا ظلہ: إمام عادل، وشاب نشأ في عبادۃ اللہ عز وجل، ورجل قلبہ معلق بالمساجد، ورجلان تحابا في اللہ، اجتمعا علیہ، وتفرقا علیہ، ورجل دعتہ امرأۃ ذات منصب وجمال، فقال إني أخاف اللہ، ورجل تصدق بصدقۃ فأخفاھا، حتی لا تعلم شمالہ ما تنفق یمینہ، ورجل ذکر اللہ خالیا، ففاضت عیناہ))

सात लोग ऐसे हैं जिनको अल्लाह अपने साया में जगह देगा उस दिन जब सिवाए अल्लाह के साये के कोई और साया ना होगाः 1.आदिल इमाम और ख़लीफ़ा। 2. वो नौजवान जिसकी जवानी अल्लाह سبحانه وتعالیٰ की इ़बादत में गुजरी। 3. वो आदमी जिसका दिल मस्जिद में लगा रहता है। 4. वो दो आदमी जिनकी मुहब्बत अल्लाह के लिए होती है उनका मिलना भी अल्लाह के लिए होता है और उनकी जुदाई भी अल्लाह के लिए होती है। 5. ऐसा आदमी जिसे ख़ूबसूरत और मालदार औरत (बदकारी की) दावत दे तो वोह कहे मैं अल्लाह से ख़ौफ़ खाता हूँ। 6. वो आदमी जो सद्क़ा करे और इसको छुपाऐ यहाँ तक के इसका बायां हाथ ना जान सके के दाएं हाथ ने क्या ख़र्च किया। 7. वो आदमी जो तन्हाई में अल्लाह को याद करे और उसकी आँखों से आँसू बह जाऐं।

अबू हुरैराह (رضي الله عنه) से मरवी है के रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः
((إن اللہ تعالی یقول یوم القیامۃ: أین المتحابون بجلالي الیوم أظلھم في ظلي یوم لا ظل إلا ظلي؟))

क़यामत के दिन अल्लाह سبحانه وتعالیٰ कहेगाः कहाँ हैं वो लोग जो मेरी ख़ातिर एक दूसरे से मुहब्बत करते हैं? आज के दिन मैं उनको अपने साये में रखूंगा जबकि मेरे साये के सिवा कोई और साया नहीं।

मुस्लिम में अबू हुरैराह की एक रिवायत है के रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) फ़रमाते हैं:

(( والذي نفسي بیدہ، لا تدخلوا الجنۃ حتی تؤمنوا، ولا تؤمنوا حتی تحابوا، أولا أدلکم علی شيء إذا فعلتموہ تحاببتم، أفشوا السلام بینکم))۔ ووجہ الاستدلال في قولہ ا ((ولا تؤمنوا حتی تحابوا))

क़सम है उस ज़ात की जिस के क़ब्ज़े में मेरी जान है। तुम जन्नत में दाख़िल नहीं होगे जब तक के ईमान ना ले आओ और तुम मोमिन नहीं हो सकते जब तक के आपस में मुहब्बत ना रखो, क्या मैं तुम्हारी रेहनुमाई ऐसी चीज़ की तरफ़ ना करूं जिस के अंजाम देने से मुहब्बत पैदा होगी। अपने दरमियान सलाम को रिवाज दो। यानी तुम मोमिन नहीं हो सकते जब तक के तुम्हारे दरमियान मुहब्बत ना हो।

सही बुख़ारी में हज़रत अनस (رضي الله عنه) से मरवी है के रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) का फ़रमान है

((لایجد أحد حلاوۃ الإیمان حتی یحب المرء لا یحبہ اللہ ۔۔۔))

कोई भी शख़्स ईमान की हलावत नहीं चख सकता जब तक के वो दूसरों से मुहब्बत ना रखे और ये मुहब्बत सिफ़ अल्लाह के लिए ही हो।

मआज़ (رضي الله عنه) से रिवायत है के रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया के अल्लाह का क़ौल हैः

((قال اللّٰہ عز وجل: المتحابون في جلالي، لھم منابر من نور، یغبطھم النبیون والشھداء))

मेरे जलाल की वजह से मुहब्बत करने वालों के लिए नूर के मिंबर होंगे अन्बिया और शुहदा उनको देख कर रश्क करेंगे।

अन्बिया और शुहदा का रश्क करना, उन लोगों के आला मुक़ाम और हुस्ने क़ियाम से किनाया है के अन्बिया और शुहदा उनके अहवाल से ख़ुश होंगे ना के इस की चाहत करेंगे इसलिए के इनका मुक़ाम और मर्तबा तो उन सब से अफ़ज़ल और बेहतर होगा। इसी तरह हज़रत अनस (رضي الله عنه) की हदीस है केः

((جاء رجل إلی النبیا، فقال یارسول اللہ الرجل یحب الرجل، ولا یستطیع أن یعمل کعملہ، فقال رسول اللہ ا: المرء مع من أحب۔ فقال أنس فما رأیت أصحاب رسو ل اللہ ا فرحو بشيء قط، إلا أن یکون الإسلام، ما فرحوا بھذا من قول رسول اللہ ا، فقال أنس: فنحن نحب رسول اللہ ا ولا نستطیع أن نعمل بعملہ، فإذا کنا معہ فحسبنا))

एक आदमी नबी अकरम के पास आया और कहाः ऐ अल्लाह के रसूल, आदमी आदमी से मुहब्बत करता है लेकिन उसकी तरह का अ़मल नहीं कर पाता। रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः आदमी उसके साथ होगा जिस से वो मुहब्बत रखता है। हज़रत अनस (رضي الله عنه) कहते हैं के मैंने सहाबा को इस बात के अ़लावा किसी और बात से इतना ख़ुश होते हुए नहीं देखा सिवाए इस्लाम के। हज़रत अनस (رضي الله عنه) फिर कहते हैं के हम रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) से मुहब्बत रखते हैं मगर उनकी तरह आमाले सालिहा अंजाम नहीं दे पाते, हमारे लिए सिर्फ़ इतना ही काफ़ी है के हम उनके साथ होंगे।

सुनन अबू दाऊद, मुसनद अहमद और इब्ने हिब्बान में रिवायत है के हज़रत अबूज़र ने हुज़ूरे अकरम से पूछा

(( قلت یارسول اللہا ، الرجل یحب القوم لا یستطیع أن یعمل بأعمالھم، قال: أنت یا أبا ذر مع من أحببت۔ قال: قلت فإني أحب اللہ ورسولہ یعیدھا مرۃ أو مرتین))

ऐ रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) एक आदमी किसी क़ौम से मुहब्बत करता है मगर वो उन जैसे नेक आमाल अंजाम देने की ताक़त नहीं रखता (उसका क्या हाल होगा?) आप ने फ़रमायाः ऐ अबूज़र! तुम उसके साथ होगे जिस से तुम को मुहब्बत होगी। हज़रत अबूज़र ने फिर एक बार या दो बार कहा के मैं अल्लाह और उसके रसूल से मुहब्बत करता हूँ।

अ़ब्दुल्लाह बिन मसऊ़द (رضي الله عنه) कहते हैं केः

((جاء رجل إلی رسول اللہ ا فقال: یارسول اللہ کیف تقول في رجل أحب قوماً ولم یلحق بھم؟ فقال رسول اللہ ا: ’’المرء مع من أحب‘‘))

एक आदमी रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की ख़िदमत में हाज़िर हुआ और कहाः ऐ रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم)! उस शख़्स के बारे में आप का क्या ख़्याल है जो किसी क़ौम से मुहब्बत करता हो मगर इसके आमाल उस क़ौम जैसे ना हों? तो आप ने फ़रमायाः आदमी उसके साथ होगा जिस से वो मुहब्बत करता हो।

अ़ब्दुल्लाह बिन मसऊ़द (رضي الله عنه) कहते हैं के रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने मुझ को मुख़ातिब करते हुए फ़रमायाः

((یاعبد اللہ بن مسعود، فقلت: لبیک یارسول اللہ: ثلاث مرار، قال: ھل تدري أي عری الإیمان أوثق؟ قلت: اللہ ورسولہ اعلم، قال: أوثق الإیمان الولایۃ في اللہ، بالحب فیہ، والبغض فیہ ۔۔۔))

ऐ अ़ब्दुल्लाह बिन मसऊ़द! मैंने कहाः लब्बैक या रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) (इस तरह तीन मर्तबा हुआ) आप ने फ़रमायाः क्या तुम जानते हो के ईमान का कौन सा बंधन सब से ज़्यादा मज़बूत है। मैंने कहाः अल्लाह और उसके रसूल बेहतर जानते हैं। तो आप ने फ़रमायाः मज़बूत तरीन ईमान ये है के दोस्ती अल्लाह के लिए हो, उसके लिए ही मुहब्बत हो और उसके लिए ही नफ़रत हो।

उ़मर बिन ख़त्ताब (رضي الله عنه) फ़रमाते हैं के रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः

((للّٰہِ عباد لا بأنبیاء ولا شھداء یغبطھم الأنبیاء والشھداء بمکانھم من اللہ عز وجل، قالوا: یارسول اللہ من ھم؟ وما أعمالھم؟ لعلنا نحبھم، قال: قوم تحابوا بروح اللّٰہ، لا أرحام بینھم، ولا أموال یتعاطونھا، واللہ إن وجوھم نور، وإنھم لعلی منابر من نور، لا یخافون إذا خاف الناس، ولایحزنون إذا حزن الناس، ثم قرأ (اَلَآ اِنَّ اَوْلِیَآءَ اللّٰہِ لَا خِوْفٌ عَلَیْھِمْ وَلَا ھُمْ یَحْزَنُوْن)))

अल्लाह के कुछ बंदे हैं जो ना तो नबी हैं और ना ही शहीद, मगर उनको अल्लाह के अ़ता करदा मुक़ाम को देख कर अन्बिया और शुहदा रश्क करेंगे। सहाबा رضی اللہ عنھم ने दरयाफ़्त फ़रमायाः या रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) वो कौन लोग हैं? उनके आमाल कैसे हैं? हमें मालूम हो, ताके हम उनसे मुहब्बत करें? आप ने फ़रमायाः वो ऐसे लोग हैं जो अल्लाह سبحانه وتعالیٰ के लिए मुहब्बत करते हैं जबकि उनके दरमियान कोई रिश्तेदारी नहीं और ना ही माल और दोलत का लेन देन है, अल्लाह की क़सम उनके चेहरे नूरानी हैं और वो नूर के मिंब्बरों पर जलवा अफरोज़ हैं। जब लोग दहशत ज़दा होंगे तो उनको कोई दहशत लाहक़ ना होगी। जब लोगों को रंज और ग़म लाहक़ होगा तो उनको कोई हुज़्न और मलाल ना होगा। फिर आप (صلى الله عليه وسلم) ने इस आयत की तिलावत फ़रमाईः

اَلَاۤ اِنَّ اَوْلِيَآءَ اللّٰهِ لَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَ لَا هُمْ يَحْزَنُوْنَۚۖ

सुन लो, अल्लाह के दोस्तों को ना तो कोई डर है, और ना वो ग़मगीन ही होंगे। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने करीम: यूनुस -62)

हज़रत मआज़ बिन अनस अलजहनी (رضي الله عنه) की एक रिवायत है के रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः

((من أعطی للہ، ومنع للّٰہ، وأحب للّٰہ، وأبغض للہ، وأنکح للہ،
 فقد استکمل إیمانہ))

जो अल्लाह के लिए कुछ दे, अल्लाह के लिए ही रोके और मुहब्बत अल्लाह ही के लिए करे, ग़ुस्सा हो तो अल्लाह के लिए, और निकाह करे तो अल्लाह के लिए, उसका ईमान मुकम्मल हुआ।

अबू ईसा ने कहा के ये हदीस सही और हसन है, हाकिम ने इसको अपनी मुस्तदरक में लिया है और कहा है के ये सही उल असनाद है हालाँके शैख़ैन ने इसे रिवायत नहीं किया है। सुनन अबी दाऊद ने इसे अबी उमामा से रिवायत किया है लेकिन इस रिवायत में अल्लाह के लिए निकाह का ज़िक्र नहीं है। जो शख़्स अपने किसी भाई से मुहब्बत और उलफ़त रखता है उसे चाहिए के वो उससे अपनी मुहब्बत का इज़हार कर दे, चुनांचे हज़रत मिक़दाद बिन मादीकर्ब (رضي الله عنه) की रिवायत है के आप ने फ़रमायाः
((إذا أحب الرجل أخاہ فلیخبرہ أنہ یحبہ))

जब आदमी अपने भाई से मुहब्बत करे तो उसे ये बता दे के वो उससे मुहब्बत करता है।
इसी तरह अबू दाऊद में हज़रत अनस (رضي الله عنه) से मरवी है कि:

((أن رجلاً کان عند النبی ا، فمر بہ رجل فقال: یا رسول اللہ إني لأحب ہذا، فقال لہ النبي ا أعلمتہ؟ قال: لا، قال أعلمہ، فلحقہ، فقال: إني أخیک في اللہ، فقال: أحبک الذي أحببتني لہ))

एक आदमी नबी अकरम (صلى الله عليه وسلم) के साथ था। उसके पास से एक आदमी का गुज़र हुआ तो उसने कहाः ऐ अल्लाह के रसूल में इस शख़्स (गुज़रने वाले) को मेहबूब रखता हूँ। आप ने फ़रमायाः तुम ने उसको बताया? उस शख़्स ने जवाब दियाः नहीं। आप ने कहा उसको अपनी मुहब्बत से बाख़बर कर दो। चुनांचे वो शख़्स उठा और उस गुज़रने वाले के पास पहुंच कर कहाः मैं अल्लाह के लिए तुम से मुहब्बत करता हूँ। तो उस शख़्स ने भी कहाः मैं भी तुम्हें इसलिए चाहता हूँ क्योंकि तुम मुझे अल्लाह की ख़ातिर चाहते हो।

इसी तरह इमाम बज़्ज़ार ने अ़ब्दुल्लाह बिन उमरो (رضي الله عنه) की रिवायत नक़ल की है अ़ब्दुल्लाह बिन उमरो (رضي الله عنه) कहते हैं कि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः

((من أحب رجلاً للہ، فقال: إني أحبک للہ، فدخلاالجنۃ فکان الذي أحب أرفع منزلۃ من الآخر۔ ألحق بالذي أحب للہ))

जिस ने किसी आदमी से अल्लाह के लिए मुहब्बत की और कहा कि मैं तुम से अल्लाह के लिए मुहब्बत और उलफ़त रखता हूँ तो दोनों जन्नत में दाख़िल होंगे। चुनांचे इन में से जिस शख़्स ने ज़्यादा मुहब्बत की होगी उसका दर्जा बुलंदतर होगा।

दो मुहब्बत करने वालों में से सब से अफ़ज़ल वो शख़्स है जो अपने साथी से ज़्यादा मुहब्बत करे। चुनांचे हज़रत अनस (رضي الله عنه) से मरवी रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) का फ़रमान हैः

((ما تحاب رجلان في اللہ قط، إلا کان أفضلھما أشد ھما حباً لصاحبہ))

जब दो लोग आपस में अल्लाह की ख़ातिर मुहब्बत करें तो वो शख़्स लाज़िमन अफ़ज़ल होगा जो मुहब्बत में शदीद है।

हर शख़्स को चाहिए के अपने साथी की ग़ैर मौजूदगी में उसके लिए दुआ करे, जैसा के उम्मे दरदा (رضي الله عنه)ا की रिवायत है, वो कहती हैं के मेरे आक़ा (यानी उनके शौहर हज़रत अबू दरदा (رضي الله عنه)) ने मुझ से हदीस बयान की के उन्होंने मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) को कहते सुना है कि

((من دعا لأخیہ بظھر الغیب، قال الملک الموکل بہ: آمین، ولک بمثل))
जो शख़्स अपने भाई के लिए पीठ पीछे दुआ करता है तो मुतय्यन फ़रिश्ता कहता है आमीन और कहता है के ऐसा ही तुम्हारे लिए भी हो।

इसी तरह एक दूसरी रिवायत सफ़वान बिन अ़ब्दुल्लाह बिन सफ़वान से है के वो कहते हैं के मैं मुल्क शाम से अबू क़तादा (رضي الله عنه) के पास आया वो घर पर नहीं मिले, मगर उम्मे दरदा को मौजूद पाया। उन्होंने पूछाः क्या हज का इरादा है? मैंने कहाः हाँ। तो उन्होंने कहाः मेरे लिए दुआऐ ख़ैर करना, क्योंकि नबी अकरम ने फ़रमाया हैः

((دعوۃ المرء المسلم لأخیہ بظھر الغیب مستجابۃ، عند رأسہ ملک موکل، کلما دعا لأخیہ بخیر، قال الملک الموکل بہ: آمین، ولک بمثل))

मुस्लिम शख़्स की दुआ जो वो उसकी ग़ैर मौजूदगी में करे वो क़ुबूल होती है। जब बंदा अपने भाई के लिए दुआए ख़ैर करता है तो मुतय्यन फ़रिश्ता कहता है आमीन और तुम्हारे लिए भी यही है।

सफ़वान बिन अ़ब्दुल्लाह कहते हैं के मैं बाज़ार गया तो वहाँ हज़रत अबू दरदा (رضي الله عنه) से मुलाक़ात हुई उन्होंने भी वही बात कही जो उम्मे दरदा (رضي الله عنه)ا ने कही थी।

और इसी तरह सुन्नत ये भी है के वो अपने भाई से दुआ का मुतालिबा करे चुनांचे अबू दाऊद और तिरमिज़ी में हज़रत उ़मर (رضي الله عنه) की रिवायत है वो कहते हैं के मैंने रसूले अकरम (صلى الله عليه وسلم) से उ़मरे की इज़ाज़त तलब की तो उन्होंने इज़ाज़त दी और कहाः (لا تنسنا يا أخي من دعائك) ऐ मेरे भाई अपनी दुआओं में हम को मत भूलना। उ़मर (رضي الله عنه) कहते हैं इस एक कलिमे ने मुझे इतना ख़ुश कर दिया के इतनी ख़ुशी मुझे पूरी दुनिया के मिल जाने से भी ना होती। दूसरी रिवायत में है के आप ने फ़रमायाः (أشركنا يا أخي في دعائك)। हमें भी अपनी दुआओं में शरीक करना।

ये भी सुन्नत में से है के अपने भाई से अल्लाह की ख़ातिर मिलता रहा जाये, इसके साथ बाहम बैठा जाये, ताल्लुक़ रखा जाये। चुनांचे मुस्लिम शरीफ़ में हज़रत अबू हुरैराह (رضي الله عنه) से रिवायत है के नबी (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः

((أن رجلاً زار أخاً لہ في قریۃأخری، فأرصد اللہ تعالی لہ ملکاً، فلما أتي علیہ قال: أین ترید؟ قال أرید أخاً لي في ھذہ القریۃ، قال ھل لک علیہ من نعمۃ تربھا علیہ؟ قال: لا، غیر أني أحببتہ في اللہ تعالی، قال: فإني رسول اللہ إلیک، بأن اللہ قد أحبک کما أحببتہ فیہ))

आदमी जब दूसरे गांव में अपने भाई से मुलाक़ात करने जाता है तो अल्लाह उसके पीछे एक फ़रिश्ता मुक़र्रर कर देता है। लिहाज़ा जब वो फ़रिश्ता उसके पास आता है तो पूछता है के आप कहाँ जा रहे हैं? तो आदमी जवाब देता है फ़लाँ बस्ती में मेरा भाई है उसके पास जा रहा हूँ। तो फ़रिश्ता फिर सवाल करता है के क्या उसके पास तुम्हारी कोई चीज़ है जिस को तुम ने उसके पास रख छोड़ा है? तो आदमी जवाब देता है नहीं मैं उस से अल्लाह के लिए मुहब्बत करता हूँ। तो फ़रिश्ता कहता है कि मैं अल्लाह का पयम्बर हूँ (और इसका पयाम ये है के) उसे तुम से मुहब्बत है जिस तरह तुम अपने भाई से मुहब्बत रखते हो।

एक हदीसे क़ुदसी में है के रब्बुल इज़्ज़त फ़रमाता हैः

((حقت محبتي للمتحابین فيّ، وحقت محبتي للمتزاورین فيّ، وحقت محبتي للمتباذلین فيّ، وحقت للمتواصلین فيّ))

मैं भी उन लोगों से मुहब्बत करता हूँ जो मेरी ख़ातिर आपस में मुहब्बत करते हों या एक दूसरे के पास आते जाते हों या एक दूसरे पर माल ख़र्च करते हों और आपसी मेल जोल रखते हों।

मुअत्ता में हज़रत उ़बादा बिन सामित (رضي الله عنه) से मरवी है के हुज़ूरे अकरम ने फ़रमाया के अल्लाह سبحانه وتعالیٰ का क़ौल हैः

((حقت محبتي للمتحابین فيّ، وحقت محبتي للمتزاورین فيّ، وحقت محبتي للمتباذلین فيّ، وحقت للمتواصلین فيّ))

मेरी मुहब्बत उन लोगों के लिए वाजिब हो गई है जो मेरे लिए आपस में मुहब्बत और उलफ़त रखते हैं, एक दूसरे के पास आते जाते हैं, एक दूसरे पर ख़र्च करते हैं और एक दूसरे से मुलाकातें करते रहते हैं।

बुख़ारी शरीफ़़ में हज़रत आईशा (رضي الله عنه)ا से मरवी है के वो फ़रमाती हैं:
((لم أعقل أبوي إلا وھما یدینان الدین، و لم یمر یوم ألا یأتینا فیہ رسول اللّٰہ ا طرفي النھار بکرۃ و عشیۃ))

मैंने अपने वालिदैन को दीन इस्लाम पर ही पाया और कोई दिन ऐसा नहीं गुज़रा के जिस में रसूलुल्लाह दोनों वक़्त सुबह और शाम ना आते हों।

रसूले अकरम (صلى الله عليه وسلم) उस मोमिन के अ़ज़ीम अज्र और सवाब को वाज़ेह करते हैं जो अपने भाई के लिए वोही चीज़ पसंद करता है जो अपने लिए पसंद करता है और हत्तल मक़दूर अपने भाई के लिए दुनिया और आख़िरत की भलाई चाहता है। चुनांचे हज़रत अनस (رضي الله عنه) से मरवी है के रसूले अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः

((لایؤمن أحدکم حتی یحب لأخیہ ما یحب لنفسہ))

तुम में से कोई उस वक़्त तक मोमिन नहीं हो सकता जब तक के वो अपने भाई के लिए वही चीज़ पसंद ना करे जो अपनी ज़ात के लिए पसंद करता है।

इसी तरह इब्ने ख़ुज़ामा की सही, हाकिम की मुस्तदरक और इब्ने हिब्बान मैं शैख़ैन की सनद पर सही हदीस हज़रत अ़ब्दुल्लाह इब्ने अ़म्र (رضي الله عنه) से नक़ल है के आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः

((خیر الأصحاب عند اللہ خیرھم لصاحبہ، وخیر الجیران عند اللہ
خیرھم لجارہ))

अल्लाह के नज़दीक बेहतरीन लोग वो हैं जो अपने साथियों के लिए बेहतर हों और बेहतरीन पड़ोसी वो है जो अपने पड़ोसी के लिए अच्छा हो।

लिहाज़ा एक मोमिन को चाहिए के वो दूसरे मोमिन की परेशानी और ख़ुशहाली में उसका साथ दे और उसकी मुश्किलात और परेशानियों को दूर करे। चुनांचे हज़रत इब्ने उ़मर (رضي الله عنه) से रिवायत है के रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) फ़रमाते हैं:

((الْمُسْلِمُ أخو المسلم لایظلمہ ولا یسلمہ، من کان في حاجۃ أخیہ کان اللہ في حاجتہ، ومن فرج عن مسلم کربۃ فرج اللّٰہ عنہ بھا کربۃ من کرب یوم القیامۃ، ومن ستر مسلماً سترہ اللّٰہ یوم القیامۃ))

मुसलमान मुसलमान का भाई है, वो ना तो उस पर ज़ुल्म करता है और ना उसे छोड़ देता है और जो अपने भाई की हाजत रवाई में लगा रहता है अल्लाह उसकी हाजत को पूरी करता है और जो शख़्स एक मुसलमान की किसी परेशानी को दूर करता है अल्लाह आख़िरत में उसकी परेशानी को दूर करेगा और जो मुसलमान किसी मुसलमान के उ़यूब (ऐबों) को छुपाता है, क़यामत के दिन अल्लाह سبحانه وتعالیٰ उसके उ़यूब छुपाऐगा। (मुत्तफिक़ अ़लैह)
इसी मानी की दूसरी हदीस हज़रत ज़ैद बिन साबित (رضي الله عنه) से तिबरानी मे मरवी है के रसूले अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः


((لا یزال اللہ في حاجۃ العبد مادام في حاجۃ أخیہ))
अल्लाह बंदे की हाजत रवाई में लगा रहता है जब तक बंदा अपने भाई की हाजत रवाई करता है।


और ये भी मुस्तहब है के वो इस तरह मिले के जिस से इसका भाई ख़ुश हो जैसा हज़रत अनस (رضي الله عنه) की इस रिवायत से मालूम होता है जिसे तिबरानी ने सही असनाद से नक़ल किया है। 
Share on Google Plus

About Khilafat.Hindi

This is a short description in the author block about the author. You edit it by entering text in the "Biographical Info" field in the user admin panel.
    Blogger Comment
    Facebook Comment

0 comments :

इस्लामी सियासत

इस्लामी सियासत
इस्लामी एक मब्दा (ideology) है जिस से एक निज़ाम फूटता है. सियासत इस्लाम का नागुज़ीर हिस्सा है.

मदनी रियासत और सीरते पाक

मदनी रियासत और सीरते पाक
अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) की मदीने की जानिब हिजरत का मक़सद पहली इस्लामी रियासत का क़याम था जिसके तहत इस्लाम का जामे और हमागीर निफाज़ मुमकिन हो सका.

इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी का इतिहास

इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी का इतिहास
इस्लाम एक मुकम्म जीवन व्यवस्था है जो ज़िंदगी के सम्पूर्ण क्षेत्र को अपने अंदर समाये हुए है. इस्लामी रियासत का 1350 साल का इतिहास इस बात का साक्षी है. इस्लामी रियासत की गैर-मौजूदगी मे भी मुसलमान अपना सब कुछ क़ुर्बान करके भी इस्लामी तहज़ीब के मामले मे समझौता नही करना चाहते. यह इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी की खुली हुई निशानी है.