अल अज़ल जाईज़ है जो की मुंदरजाज़ेल
नीयत से किया जा सकता है:
1. बच्चा पैदा न
करने की,
2.
बच्चों की तादाद कम रखने की या
3.
बीवी के कमज़ोर होने की वजह से या इस पर हमदर्दी की वजह से हमल
(गर्भ) का बोझ ना डालना या
3.
औरत पर हमल का बार ना डालना चाहे या वो उस की जवानी को अपने
लिए बरक़रार रखना चाहता हो,
4.
बहरहाल किसी भी नीयत से मर्द के लिए अज़ल जायज़
अज़ल के मानी ये हैं कि मर्द जब
हमबिस्तरी के समय इंज़ाल के क़रीब हो तो पीछे हो जाए और इंज़ाल औरत के जिस्म से बाहर हो।
शरअन अज़ल जायज़ है लिहाज़ा मर्द के लिए हमबिस्तरी के वक़्त और इंज़ाल के क़रीब औरत के
जिस्म के बाहर इंज़ाल कर देना जायज़ है। बुख़ारी (رحمت اللہ علیہ) ने अता (رحمت اللہ علیہ) से रिवायत की है जो वो जाबिर (رضي الله عنه) से नक़ल करते हैं। हज़रत जाबिर (رضي الله عنه) कहते हैं कि हम अहदे नबवी (صلى الله عليه وسلم) में अज़ल
किया करते थे जब कुरान मजीद नाज़िल हो रहा था। अता (رحمت اللہ علیہ) से ही मर्वी है कि उन्होंने हज़रत जाबिर
(رضي
الله عنه) से सुना कि हम अज़ल किया करते थे जब क़ुरआने मजीद नाज़िल हो रहा था।
ये रिवायत बुख़ारी और मुस्लिम शरीफ़ में आई है। फिर मुस्लिम शरीफ़ में आता है:
))کُنَّا نعزل علی عھد رسول اللّٰہ ا فبلغہ
ذلک فلم ینھنا((
हम लोग अहदे नबवी (صلى الله عليه وسلم) में अज़ल
किया करते थे और ये बात आप (صلى الله عليه وسلم) तक पहुंची थी ताहम उन्होंने हम लोगों
को नहीं रोका।
अज़ल के बारे में हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) का ये
फ़ैसला था जो इस के जायज़ होने पर दलालत करता है क्योंकि अगर अज़ल हराम होता तो आप (صلى الله عليه وسلم) इस पर
ख़ामोश नहीं रहते। अज़ल का ये हुक्म सहाबी (رضي الله عنه) से मर्वी है और ये अहदे नबवी (صلى الله عليه وسلم) को पहुंचता
है चुनांचे ये उन के लिए हुक्म शरई हुआ क्योंकि वाज़िह है कि नबी (صلى الله عليه وسلم) को उस
की ख़बर थी और आप (صلى الله عليه وسلم) ने उसे क़ायम रखा था जबकि ऐसे कईं मौक़े
आए जहाँ-जहाँ सहाबा (رضی اللہ عنھم) ने अपने सवालात आप (صلى الله عليه وسلم) के सामने
हुक्म मालूम करने के लिए रखे। अज़ल की इजाज़त के तौर पर कईं सही अहादीस मौजूद हैं जो
मसनद अहमद, मुस्लिम शरीफ़ और सुनन अबु दाऊद में हज़रत जाबिर (رضي الله عنه) से मर्वी हैं :
))أنَّ رجلاً أتی النبی ا فقال:إن لي جاریۃ
ھي خادمتنا و سانیتُنا في النخل و أنا أطوف علیھا و أکرہ أن تحمل فقال:اعزل عنھا إن
شئت فإنہ سیأتیھا ما قدر لھا((
एक शख़्स हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) के पास
हाज़िर हुआ और कहा कि मेरे पास एक कनीज़ है जो हमारी ख़ादिमा है, वो हमारे लिए पानी लाती है और मैं उस से हमबिस्तरी करता हूँ
लेकिन मैं नहीं चाहता कि वो हामिला हो जाये। हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया:
अगर तुम चाहो तो अज़ल करो लेकिन बहरहाल जो इसके लिए मुक़र्रर हो गया है वो होगा ही।
और मुस्लिम शरीफ़ में हज़रत अबु
सईद (رضي
الله عنه) से मर्वी है, वो कहते हैं:
))خرجنا مع رسول اللّٰہ ا في غزوۃ بني المصطلق
فأصبنا سبیاً من العرب فاشتھینا النساء و اشتدت علینا العزبۃ،لوأحببنا العزل فسألنا
عن ذلک رسول اللّٰہ ا فقال:ما علیکم أن لا تفعلوا فإن اللّٰہ عز و جل قد کتب ما ھوخالق
إلی یوم القیامۃ((
हम हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) के साथ
ग़ज़वाऐ बनी मुस्तलक़ पर निकले थे। हम ने कुछ ख़ूबसूरत अरब औरतें क़ैद में ली थीं जिन्हें
हम पसंद करते थे क्योंकि हम अपनी बीवीयों से दूर थे । हम अज़ल करना चाहते थे लिहाज़ा
हम ने हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) से इस के बारे में दरयाफ़त किया तो उन्होंने
फ़रमाया: तुम्हें ऐसा करने से क्या चीज़ रोकती है? बेशक अल्लाह (سبحانه وتعال) ने क़यामत तक के लिए जिस चीज़ का पैदा
होना मुक़र्रर फ़रमा दिया है वो तो बहरहाल होगा ही।
सुनन अबु दाऊद में हज़रत जाबिर
(رضي
الله عنه) से मर्वी है कि एक अंसार शख़्स हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) के पास
आया और कहा कि मेरे पास एक कनीज़ है जिससे में हमबिस्तरी करता हूँ लेकिन मैं नहीं चाहता
कि वो हामिला हो जाये। हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने उस
शख़्स से फ़रमाया: अगर तुम चाहो तो अज़ल कर लो लेकिन अल्लाह (سبحانه وتعال) ने जो मुक़र्रर कर दिया है वो तो पैदा
होगा ही। पस अज़ल बिल्कुल जायज़ है चाहे अज़ल करने वाला किसी भी नीयत से करे, चाहे उस की नीयत बच्चा ना होने की हो, बच्चों की तादाद कम रखने की हो या बीवी के कमज़ोर होने की वजह
से वो इस पर हमदर्दी की वजह से हमल (गर्भ) का बोझ ना डालना चाहता हो या औरत पर हमल
का बार ना डाल कर वो उस की जवानी को अपने लिए बरक़रार रखना चाहता हो, बहरहाल किसी भी नीयत से मर्द के लिए अज़ल जायज़ है क्योंकि अज़ल
के जो दलायल वारिद हुए हैं। इन में क़ैद नहीं है बल्कि वो मुतलक़ हैं और किसी भी मुतलक़
को उस की तख़सीस की ग़ैरमौजूदगी में मुक़य्यद नहीं जा सकता। मुतलक़ का आम होना बाक़ी रहता
है। ये नहीं कहा जा सकता कि अज़ल बच्चे को उस की पैदाइश से पहले क़त्ल कर देने के प्रयायवाची
है क्योंकि कईं अहादीस वारिद हुई हैं जो साफ तौर से इसकी तरदीद करती हैं। सुनन अबु
दाऊद में हज़रत अबु सईद (رضي الله عنه) से मर्वी है :
))أن رجلاً قال: یا رسول اللّٰہ ا إن لي جاریۃ
و أنا أعزل عنھا و أنا أکرہ أن تحمل وأنا أرید ما یرید الرجال لأإن الیھود تحدث أن
العزل الموء ودۃ الصغری۔ قال:کذبت یھود لو أراد اللّٰہ أن یخلقہ ما استطعت أن تصرفہ((
एक शख़्स ने हुज़ूर अक़दस (صلى الله عليه وسلم) से कहा
कि मेरी एक कनीज़ है मैं इस के साथ हमबिस्तरी में अज़ल करता हूँ क्योंकि मैं नहीं चाहता
कि वो हामिला हो जाये। मेरी भी वही ख़्वाहिश है जो मर्दों की होती है लेकिन यहूदी कहते
हैं कि अज़ल करना موء ودۃ الصغریٰ
है यानी बच्चे को ज़िंदा दफ़न करने जैसा। हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया:
यहूदीयों ने झूट कहा अगर अल्लाह किसी को पैदा करना चाहे तो तुम उस को रोक नहीं सकते।
चुनांचे यहाँ औलाद ना होने के
इरादे से अज़ल के जवाज़ के लिए यहाँ नस वारिद हुई है। मसनद अहमद और मुस्लिम शरीफ़ में
हज़रत उसामा बिन जै़द (رضي الله عنه) से मर्वी है:
))أن رجلاً جاء إلی النبي ا فقال إني أعزل
عن امرأتي۔ فقال رسول اللّٰہا لِمَ تفعل ذلک؟فقال لہ الرجل أشفق علی ولدھا،أو علی أولادھا
فقال رسول اللّٰہا لو کان ضاراً ضر فارس والروم((
एक शख़्स हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) के पास
आया और कहा कि मैं अपनी बीवी के साथ अज़ल करता हूँ। हुज़ूर अक़दस (صلى الله عليه وسلم) ने पूछा
कि तुम ऐसा क्यों करते हो? उसने कहा कि मुझे इसके बच्चे
या बच्चों पर रहम आता है। इस पर आँहज़रत (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया:
अगर ये नुक़्सानदेह होता तो रुम और फ़ारस को नुक़्सान हुआ होता।
इस हदीस में आँहज़रत (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया:
तुम ऐसा क्यों नहीं करते? आप (صلى الله عليه وسلم) ने ये
नहीं फ़रमाया कि तुम ऐसा मत करो। इस से मालूम हुआ कि आप (صلى الله عليه وسلم) ने इससे
इत्तिफ़ाक़ किया लेकिन ये भी मालूम हुआ कि एक के बाद दूसरी औलाद होना नुक़्सानदेह नहीं
होता जैसा कि मुस्लिम शरीफ़ में हज़रत उसामा बिन ज़ैद (رضي الله عنه) की रिवायत में आया है कि एक शख़्स हुज़ूर
अकरम के पास आया और कहा:
))إني أعزل عن امرأتي شفقۃ علی ولدھا فقال
رسول اللّٰہ إن کان کذلک فلا، ما ضر ذلک فارس ولا روم((
“मैं अपनी बीवी के साथ उसके बच्चे की वजह से अज़ल करता हूँ। आप
(صلى
الله عليه وسلم) ने फ़रमाया: अगर ऐसा है तो फिर नहीं, ऐसा करना रोमीयों और फ़ारसियों के लिए नुक़्सानदेह नहीं हुआ।
मुस्लिम शरीफ़ में अब्दुर्रहमान
बिन बशर (رحمت
اللہ علیہ) हज़रत अबु सईद (رضي الله عنه) से रिवायत करते हैं (خشیۃ أن یضر الحمل باولد الرضیع) कि यानि
इस ख़ौफ़ से कि दूध पीते बच्चे की वजह से हमल को नुक़्सान पहुंचेगा। लिहाज़ा जब आप (صلى الله عليه وسلم) ने हमल
को रोकने के लिए अज़ल से इत्तिफ़ाक़ फ़रमाया ताकि दूध पीते बच्चे को नुक़्सान ना हो तो
इसका इतलाक़ उस अज़ल पर भी हुआ जो ज़्यादा बच्चों की पैदाइश को रोकने के लिए किया जाये
या औलाद होने से बचने वग़ैरा के लिए किया जाये क्योंकि जब अल्लाह (سبحانه وتعال) को इल्म है कि बच्चा पैदा होगा, तो वो बच्चा लाज़िमन पैदा होगा चाहे अज़ल किया जाये या ना किया
जाये। चुनांचे बिन हब्बान में हज़रत अनस (رضي الله عنه) से मर्वी है कि एक शख़्स ने आप (صلى الله عليه وسلم) से अज़ल
के मुताल्लिक़ दरयाफ़त किया तो आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया:
))لو أنَّ الماء الًّذي یکون منہ الولد أھرقتہ
علی صخرۃ لأخرج منہ ولداً((
चाहे मनी जिस से बच्चा पैदा होता
है एक पत्थर पर ही गिरे, अल्लाह (سبحانه وتعال) इस से बच्चे को पैदा कर ही देगा।
ये नहीं कहा जा सकता कि अज़ल के
ज़रीये बच्चे की तादाद को सीमित करना हुज़ूर अक़दस (صلى الله عليه وسلم) की इस
तरग़ीब (encourage/प्रोत्साहन) से टकराता है जहाँ आप (صلى الله عليه وسلم) ने कसरते
औलाद की तरग़ीब दिलाई और फ़रमाया: निकाह करो, हमबिस्तरी करो और औलाद में कसरत करो। ये दोनों चीज़ें आपस में
टकराती नहीं हैं क्योंकि एक कसरते नसल की तरग़ीब है और दूसरी अज़ल की इजाज़त। फिर मसनद
अहमद की वो हदीस जिससे जुज़ामा बिंत वह्ब अलअसदी (رضي الله عنها) ने रिवायत किया है, वो कहती हैं कि मैं उस वक़्त आप (صلى الله عليه وسلم) पास थी
जब आप (صلى
الله عليه وسلم) और लोगों के बीच थे और फ़रमा रहे थे:
))لقد ھممت أن أنھی عن الغیلۃ فنظرت في الروم
و فارس فإذا ھم یغیلون فلا یر أولادھم شےئاً،ثم سألوہ عن العزل فقال رسول اللّٰہ: ذلک
الوأد الخفي وھی (وَاِذَا الْمَوْء،دَۃُ سُءِلَتْ خص ل((
मैंने इरादा किया था कि बच्चे
को दूध पिलाने वाली औरतों से हमबिस्तरी को रोक दूं, फिर रोमीयों और फ़ारसियों को देखा कि वो भी ऐसा ही करते हैं
और उन की औलाद को इस से नुक़्सान नहीं पहुँचता। फिर लोगों ने आप (صلى الله عليه وسلم) से अज़ल
के बारे में पूँछा तो आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया: ये दफ़न करने का छोटा रूप
है। फिर आप (صلى
الله عليه وسلم) ने आयत पढ़ी कि “और जब ज़िंदा दफन की गई लड़की
से पूछा जाएगा।“
ये हदीस उन सही और साफ अहादीस
से टकराती है जो अज़ल के जवाज़ में वारिद हुई हैं जब कोई हदीस किसी दूसरी अहादीस से टकराऐ
जिन की असनाद इससे ज़्यादा हों तो वो हदीस मज़बूत होती है जिसकी रिवायात टकराने वाली
हदीस से ज़्यादा हों। इस बुनियाद पर उस हदीस को उससे मज़बूत और ज़्यादा असनाद वाली अहादीस
के हक़ में तर्क किया जाएगा।
इसी तरह इस हदीस और अज़ल की इजाज़त
की दूसरी अहादीस को जमा कर कर के ये भी नहीं कहा जा सकता कि ये हदीस अज़ल के ना पसंदीदा
होने पर दलालत है। ऐसा उस वक़्त मुम्किन होता जब हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) की अज़ल
से नफ़ी (मनाही) के बारे में दूसरी हदीस इसी हदीस के माअनों में वारिद होती और इस नफ़ी
में टकराव ना होता, लेकिन वो हदीस जो सुनन अबु दाऊद
और मसनद अहमद में हज़रत अबु सईद से मर्वी है जिस में आता है:
))أإن الیھود تحدث أن العزل الموء ودۃ الصغری۔
قال:کذبت یھود لو أراد اللّٰہ أن یخلقہ ما استطعت أن تصرفہ((
यहूदी कहते हैं कि अज़ल करना موء ودۃ الصغریٰ है यानी बच्चे को ज़िंदा दफ़न करने जैसा। हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया:
यहूदीयों ने झूट कहा।
जबकि जुज़ामा बिंत वह्ब अलअसदी
(رضي
الله عنها) वाली हदीस में आता है:
))ذلک الوأد الخفي((
इन दोनों रिवायतों को जमा करना
मुम्किन नहीं। इनमें से एक मंसूख़ (रद्द) होगी या जो मज़बूत हो उसके हक़ में ज़ईफ़ (कमज़ोर)
को रद्द किया जाएगा। अब चूँकि इन दोनों अहादीस की तारीख़ ग़ैर मारूफ़ (अप्रसिद्ध) है
और हज़रत अबु सईद (رضي الله عنه) वाली हदीस की पुष्टी कईं अहादीस और कईं
असनाद से होती है जबकि जुज़ामा बिंत वह्ब अलअसदी (رضي الله عنها) वाली हदीस सिर्फ़ एक है और उसकी ताईद
किसी भी और हदीस से नहीं होती लिहाज़ा इसे रद्द करके मज़बूत हदीस जो जुज़ामा बिंत वह्ब
अलअसदी (رضي
الله عنها) वाली हदीस से मज़बूत है, उसे इख्तियार
किया जाता है। लिहाज़ा अज़ल बगै़र किसी कराहत के जायज़ होगा चाहे अज़ल करने वाले की इससे
जो भी मंशा हो क्योंकि अज़ल के दलायल की नौईयत (क़िस्म) आम है। अज़ल के लिए मर्द औरत की
इजाज़त का मुहताज नहीं क्योंकि ये मर्द का मुआमला है औरत का नहीं। ये कहना कि जब हमबिस्तरी
औरत का हक़ है तो मनी भी उसी का हक़ हुआ और इसलिए औरत की बगै़र इजाज़त उसे उसके फ़र्ज के
बाहर ना निकाला जाये ठीक नहीं क्योंकि ये अक़्ली इल्लत हुई जिस की कोई वक़अत (values) नहीं होती। इस पर मज़ीद ये कि औरत का हक़ हमबिस्तरी है ना कि मनी
का इंज़ाल और उसकी दलील ये है कि जब एक शख़्स जो सिफ़ते रजूलीयत से महरूम (Impotent) हो अगर वो हमबिस्तरी कर लेता है लेकिन मनी ख़ारिज नहीं होती तो
ये माना जाएगा कि उसने हमबिस्तरी का हक़ अदा किया और इस सूरत में औरत को अपने निकाह
को फिस्ख़ (annul)
करने का इख्तियार नहीं रह जाता। फिर जहाँ तक सुनन बिन माजा में
हज़रत उमर बिन अल ख़त्ताब (رضي الله عنه) से मरवी हदीस का सवाल है जिस में आता
है:
))نھی رسول اللّٰہا أن یعزل عن الحرۃ إلا
بإذنھا((
हुज़ूर अक़दस (صلى الله عليه وسلم) ने किसी
आज़ाद औरत से अज़ल करने से मना फ़रमाया।
ये ज़ईफ़ (कमज़ोर) हदीस है और इसके
रावियों में बिन लुहीया ৃहै जिस के बारे में काफ़ी कुछ कहा गया है लिहाज़ा उन अहादीस का
स्थाई होना क़ायम रहा जिन में अज़ल इजाज़त आई है।
अज़ल का ये हुक्म दवाओं, माने हमल वसीलों जैसे Condoms and Copper Coils पर भी होता है। ये तमाम वसाइल इसी हुक्म के तहत आते हैं क्योंकि
अज़ल की इजाज़त के दलायल उन पर मुकम्मल लागू होते हैं। इस का सबब ये है कि हुक्म ये है
कि मर्द हमल को रोकने की तदबीर कर सकता है चाहे वो अज़ल के तरीक़े से हो या किसी और वसीला
से। और जो चीज़ मर्द के लिए जायज़ है वही औरत के लिए भी क्योंकि असल हुक्म हमल को रोकने
का जवाज़ है चाहे अज़ल के ज़रीये से या किसी और तरह।
अज़ल का ये हुक्म वक़्ती नौईयत
तक ही ख़ास है,
रही बात उसे दाइमी (स्थिर) तौर पर रोकना और अक़ीम (Sterile/बांझ) बन जाना, तो ये हराम है
। ऐसी दवाओं का इस्तिमाल जो हमल को स्थाई तौर पर रोक कर नसल के ख़त्म होने का कारण बनें, या ऐसी जर्राही अमलीयात (Surgical Operations) जो हमल को हमेशा के लिए रोक कर नसल के ख़त्म होने का सबब बनें
वो हराम होंगे और उन को इख्तियार करना जायज़ नहीं होगा। इस का सबब ये है कि ऐसे साधन
ख़स्सा (Castration/नसबन्दी) के दायरे में आते हैं लिहाज़ा उन पर ख़स्सा का ही हुक्म
मुंतबिक़ होगा क्योंकि ख़स्सा की तरह ही ये साधन भी नसल के ख़ात्मे के लिए हैं। ख़स्सा
की तहरीम (हराम होने) के लिए साफ हुक्म आया है। हज़रत साद बिन अबी वक़्क़ास (رضي الله عنه) से बुख़ारी और मुस्लिम शरीफ़ में मर्वी
है:
))ردّ رسول اللّٰہ ا علی عثمان ابن مظعون
التبتل،ولو أذن لہ لاختصین((
हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने हज़रत
उस्मान बिन मज़ऊन (رضي الله عنه) के तजर्रुद को मुस्तर्द कर दिया , अगर आप (صلى الله عليه وسلم) ने इजाज़त दी होती तो उन्होंने ऐसा कर
लिया होता।
हज़रत उस्मान बिन मज़ऊन (رضي الله عنه) हुज़ूर अक़दस (صلى الله عليه وسلم) के पास
हाज़िर हुए थे और कहा था कि ऐ अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) मैं एक
मर्द हूँ और अपने कुंवारे पन की वजह से आजिज़ (परेशान) हूँ लिहाज़ा मुझे ख़स्सा की इजाज़त
दीजिए। आप (صلى
الله عليه وسلم) ने फ़रमाया:
))لا ولکن علیک بالصیام ((
नहीं, लेकिन तुम्हें चाहीए कि रोज़े रखो
एक दूसरी रिवायत में आता है: ऐ
अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) मुझे ख़स्सा की इजाज़त दीजिए। आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया:
))إن اللّٰہ أبدلنا بالرھبانیۃ الحنیفیۃ السمحۃ((
अल्लाह (سبحانه وتعال) ने हमारे लिए रहबानीयत के बदले सीधा
और हक़ दीन रखा है।
मसनद अहमद में हज़रत अनस (رضي الله عنه) से मर्वी है :
))کان النبيا یأمرنا بالباء ۃ و ینھی عن التبتل
نھیاً شدیداً، و یقول: تزوجوا الودود الولود فإني مکاثر بکم الأمم یوم القیامۃ((
हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) हमें सख़्ती से कुँवारा रहने को मना फ़रमाते और
शादी करने का हुक्म देते थे,आप (صلى الله عليه وسلم) फरमाते
कि मुहब्बत व उल्फत वालियों से शादी करो जो ख़ूब औलाद ख़ेज़ हों क्योंकि यक़ीनन मैं चाहता
हूँ कि मेरी उम्मत क़यामत के दिन सब से ज़्यादा कसरत से हो।
इस के साथ फिर ये भी हक़ीक़त है
कि अल्लाह (سبحانه
وتعال) ने जो हमले औलाद और नसल को बढाने को शादी का असल मक़सद रखा है, ख़स्सा का इख्तियार करना इस असल मक़सद से टकराता है। अल्लाह
(سبحانه
وتعال) अपने करम व रहमत को लोगों पर वाज़िह करते हुए फ़रमाता है:
وَجَعَلَ
لَكُم مِّنۡ أَزۡوَٲجِڪُم بَنِينَ وَحَفَدَةً۬
और तुम्हारी
बीवीयों से तुम्हारे लिए बेटे और पोते
पैदा किए (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अल नहल 72)
अल्लाह (سبحانه وتعال) ने कसरते औलाद को पसंदीदा (मंदूब) रखा
और लोगों को उस की तरग़ीब दिलाई और औलाद की ज़्यादा तादाद की तारीफ भी की। चुनांचे मसनद
अहमद में हज़रत अनस (رضي الله عنه) से मर्वी है :
))تزوجوا الودود الولود فإني مکاثر بکم الأمم
یوم القیامۃ((
आप (صلى الله عليه وسلم) फ़रमाते
हैं कि मुहब्बत व उल्फत वालियों से शादी करो जो ख़ूब औलाद ख़ेज़ हों क्योंकि यक़ीनन में
चाहता हूँ कि मेरी उम्मत क़यामत के दिन सब से ज़्यादा कसरत से हो।
हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर से मसनद
अहमद ही में रिवायत है कि आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया:
))انکحوا أمھات الأولاد فإني أباھي بکم یوم
القیامۃ((
बच्चों की माओं से निकाह करो क्योंकि
यक़ीनन में क़यामत के दिन तुम पर फ़ख़्र करूंगा
सुनन अबु दाऊद में माक़ुल बिन यसार
(رضي
الله عنه) से मर्वी है कि एक शख़्स हुज़ूर अक़दस (صلى الله عليه وسلم) आया और कहा कि मुझे एक औरत मिली है जो अच्छे घराने
की और ख़ूबसूरत है लेकिन उसे औलाद नहीं होती, क्या मैं उस से शादी कर लूं? आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया: नहीं, वो शख़्स फिर दूसरी बार हाज़िर हुआ तो फिर मना फ़रमा दिया, फिर जब वो तीसरी मर्तबा आप (صلى الله عليه وسلم) की ख़िदमत
में हाज़िर हुआ तो आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया: मुहब्बत व उल्फत वालियों
से शादी करो जो ख़ूब औलाद ख़ेज़ हों क्योंकि यक़ीनन में चाहता हूँ कि मेरी उम्मत सब से
ज़्यादा कसरत से हो।
हमल के इस तरह अज़ल या किसी और
वसीले से वक़्ती तौर रोकने से मुराद इस्क़ाते हमल (गर्भपात) का जायज़ हो जाना नहीं है।
ऐसा हमल जिस में रूह फूंक दी गई हो उस का इस्क़ात हराम हो जाता है चाहे वो दवाएं लेने
से हो या शदीद झटके दिए जाएं या तिब्बी जर्राहत (Surgical Operation) से किया जाये या चाहे ये माँ की तरफ़ से किया जाये या बाप की
तरफ़ से या फिर तबीब (doctor) के ज़रीये, ये हराम ही होगा क्योंकि ये ऐसी इंसानी जान पर हमला है जिस का
ख़ून मासूम है। ये ऐसा जुर्म है जिस पर दिया (ख़ून बहा) अदा करना वाजिब हो जाता है जिस
की मिक़दार एक मर्द या औरत ग़ुलाम आज़ाद कराने की है जो एक मुकम्मल ज़िंदा इंसान के दिया
की मिक़दार का दसवां हिस्सा है। अल्लाह (سبحانه وتعال) फ़रमाता है:
इस अयात का हवाला
गलत है
और किसी जान को जिसे अल्लाह ने
मुहतरम ठैहराया है क़त्ल ना करो
(तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अल अनाम 152)
और बुख़ारी और मुस्लिम शरीफ़ में
हज़रत अबु हुरैरह (رضي الله عنه) से नक़ल है:
))قضی رسول اللّٰہا في جنین امرأۃ من بني
لحیان سقط میتاً بغرّۃ عبدٍ أو أَمَۃٍ((
हुज़ूर अक़दस (صلى الله عليه وسلم) ने क़बीलाऐ
बनी लहियान की एक औरत के इस्क़ाते हमल पर फ़ैसला दिया कि एक मर्द या औरत ग़ुलाम दिया
के तौर पर आज़ाद कराया जाये।
इस्क़ाते हमल के लिए जो हमल की
कम अज़ कम मुद्दत जिस के गिराए जाने पर दिया वाजिब होता है वो ये वाज़िह होना है कि भ्रूण
(Foetus) में इंसानी शक्ल के कुछ अंग जैसे उंगलियाँ, या हाथ, पैर, सर, आँख या नाखून बन जाएं।
जबकि अगर इस्क़ाते हमल इस में रूह
डाले जाने से पहले हुआ हो तो ये क़ाबिल-ए-ग़ौर होगा कि हमल की शुरूआत से चालीस दिन के
बाद जब कि तख़लीक़ की शुरुआत होती है तो ये हराम ही के हुक्म में रहेगा। मुस्लिम शरीफ़
में हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद (رضي الله عنه) से नक़ल है कि उन्होंने हुज़ूर अक़दस
(صلى
الله عليه وسلم) से सुना:
))إذا مر بالنطفۃ ثنتان و أربعون لیلۃ بعث
اللّٰہ إلیھا ملکاً فصورھا وخلق سمعھا و بصرھا و جلدھا و لحمھاوعظامھا ثمَّ قال:یا
ربّ أذکر أم أنثی فیقضی((...
जब नुत्फे पर बयालिस (42) रातें गुज़र जाती हैं तो अल्लाह (سبحانه وتعال) एक फ़रिश्ते को भेजता है और इस भ्रूण
को शक्ल अता फ़रमाता है; इस में समाअत, बसारत डाली जाती है, उस की जिल्द (Skin) बनाई जाती है, गोश्त पोस्त और हड्डियां बनाई जाती हैं फिर वो फ़रिश्ता अर्ज़
करता है। ऐ मेरे रब, ये ज़िक्र (Male) होगा या उंसी (Female) ।
चालीस दिन वाली इस रिवायत में
जब हमले जनीन (Foetus/
भ्रूण) की तख़लीक़ का आग़ाज़ होता है तो इस के गिराए जाने पर गर्भपात
का इतलाक़ होगा और दिया वाजिब हो जाएगा जो एक मर्द या औरत ग़ुलाम आज़ाद करना है। इस का
कारण ये है कि जब भ्रूण की ज़िंदगी का आग़ाज़ हो गया और इस में कुछ आज़ा का ज़हूर हुआ तो
इस भ्रूण का ही (ज़िंदा) होना क़रार पाया , अब ये भ्रूण
मुकम्मल इंसान बन जाने की राह पर चल पड़ी है लिहाज़ा इस पर हमला इंसानी ज़िंदगी पर हमले
की तरह है जिस का ख़ून मुक़द्दस है और इस पर हमला इसे ज़िंदा कब्र में दफन करने की तरह
है जिसे अल्लाह (سبحانه وتعال) ने हराम क़रार दिया है। इरशादे रब्बानी
है:
وَإِذَا
ٱلۡمَوۡءُ ۥدَةُ سُٮِٕلَتۡ * بِأَىِّ ذَنۢبٍ۬ قُتِلَتۡ
और जब ज़िंदा दरे गौर की गई लड़की
से पूछा जाएगा कि वो किस गुनाह पर क़त्ल की गई। (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अत्तकवीर 8-9)
लिहाज़ा इस कारण हमल के पैदा होने
के चालीस दिन गुज़र जाने पर इस का गिराया जाना, माँ, बाप या डॉक्टर पर हराम हो
जाएगा। जो भी कोई इस का गर्भपात करे, वो जुर्म और
गुनाह दोनों का मुर्तक़िब होगा और इस पर भ्रूणहत्या का ‘दिया’
वाजिब हो जाएगा जो कि एक मर्द या औरत ग़ुलाम की अदायगी है जैसा
कि बुख़ारी और मुस्लिम शरीफ़ की अहादीस में वारिद हुआ है।
भ्रूण का गर्भपात चाहे दौरे तख़लीक़
में हो या इस में जान फूँक दिए जाने के बाद, इस की इजाज़त नहीं है अलबत्ता ये कि इंसाफ पसन्द डॉक्टर ये फ़ैसला
कर ले कि इस हमल का माँ के पेट में बाक़ी रहना माँ और उस के साथ हमल की मौत का सबब बनेगा।
ऐसी सूरते हाल में माँ की जान बचाने के लिए गर्भपात जायज़ हो जाता है।
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