क़ियास:

क़ियास:
क़ियास की तारीफ़ : 

ھو إلحاق أمر بآخر في الحکم الشرعي لإتحاد بینھما في العلۃ

(इल्लत के इत्तिहाद की वजह से, हुक्मे शरई में, एक अम्र को दूसरे से मुल्हिक़ करना (जोडना) । दूसरे लफ़्ज़ों में हुक्मे शरई के बाइस में इत्तिहाद की वजह से इन दोनों मसाइल को आपस में मुल्हिक़ करना।)

जहां तक क़ियास की दलील का ताअल्लुक़ है तो जैसा कि तारीफ़ से ज़ाहिर है, क़ियास तब मुम्किन है जब हुक्मे शरई की इल्लत नस में मौजूद हो । चुनांचे क़ियास बज़ाते ख़ुद नस की तरफ़ वापिस लौटता है । इसलिए अगर शारेअ ने नस में इल्लत रखी है, तो इस का मतलब ये है कि शारे ने क़ियास को दलील क़रार दिया है बशर्ते कि इस के दलायल क़तई हो। चूँकि इल्लत क़ुरआन, सुन्नत और इज्माए सहाबा में वारिद हुई है और ये तमाम दलायल क़तई हैं, इसलिए क़ियास बज़ाते ख़ुद एक क़तई दलील है। जब शारेअ ने हुक्म बताने पर इक्तिफा नहीं किया मगर इस हुक्म के बाइस को नस में ज़ाहिर किया है, तो शारेअ का क़स्द इस बाइस को पूरा करना है ना फ़क़त हुक्म को बजा लाना, यानी मक़सूद बाइस का लिहाज़ रखना है क्योंकि माअलूल इल्लत के गिर्द घूमता है । दूसरे लफ़्ज़ों में क़ुरआन, सुन्नत और इजमा-ए- सहाबा के (कई) नुसूस बज़ाते ख़ुद हुक्म के बाइस पर दलालत कर रहे हैं और चूँकि ये सब क़तई हैं इसलिए क़ियास भी एक क़तई शरई दलील-व-माख़ज़ ठहरा।

रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم का लोगों को क़ियास का इस्तिमाल सिखाना साबित है, मसलन एक औरत ने आप صلى الله عليه وسلم से पूछा :

ان امي ماتت و علیھا صوم نذر أفأصوم عنھا ؟ قال : أراأیت لو کان علی أمک دین فقضیتیہ أکان یؤدي ذلک عنھا ؟ قالت: نعم ، قال: فصومي عن أمک (مسلم(
मेरी माँ फ़ौत हो गई है और उस ने रोज़ा रखने की मिन्नत मांगी थी, क्या मैं उसकी तरफ़ से रोज़ा रख सकती हूँ ?
आप صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया: क्या तुम देखती नहीं कि अगर तुम्हारी माँ ने कोई क़र्ज़ लिया होता तो क्या उसकी तरफ़ से तुम उसे ना लौटाती ? उस ने कहा: जी हाँ, आप ने फ़रमाया: तो अपनी माँ की तरफ़ से रोज़ा रख लोइसी तरह क़ियास का इस्तिमाल इज्मा ए सहाबा से भी साबित है।

याद रहे कि सिर्फ़ शरई क़ियास का ऐतबार किया जाएगा, दूसरे लफ़्ज़ों में ये लाज़िमी है कि इल्लत किसी मुअय्यन शरई नस में वारिद हो यानी ये शरई इल्लत हो, सिर्फ़ उसी सूरत में क़ियास मोतबर होगा क्योंकि यही कयास-ए-शरई है। जहां तक अक़्ली क़ियास का ताल्लुक़ है यानी अक़्ल ने, बगै़र मुअय्यन शरई नस के, मजमूई तौर पर शराअ की कोई इल्लत ढूंडी हो या बगै़र हुक्म के बाइस (इल्लत) में इश्तिराक के, फ़क़त मसाइल की मुमासिलत और मुशाबिहत की वजह से, उन पर एक ही हुक्म सादर किया हो, तो उसकी शराअ में कोई एहमीयत नहीं है। दूसरे लफ़्ज़ों में अक़्ली इल्लत का इस्तिमाल जायज़ नहीं । उसकी वजह ये है कि अक़्ल मिलते जुलते मसाइल पर एक ही हुक्म का फ़ैसला देती है और मुख़्तलिफ़ मसाइल पर मुख़्तलिफ़ हुक्मों का, जबकि इस के बरअक्स शराअ अक्सर मुख़्तलिफ़ मसाइल पर एक ही हुक्म लगाती है और मुमासिलत व मशाबहत के मसाइल पर मुख़्तलिफ़ अहकाम का। मसलन शराअ सफ़र पर चार रकात वाली नमाज़ों में तक़सीर की रुख़सत देती है जबकि दो या तीन रकात वाली नमाज़ों के लिए नहीं। ये मनी को ताहिर क़रार देती है मगर मज़ी को नापाक जबकि दोनों का इंज़ाल एक ही जगह से होता है। लेकिन ये मनी के निकलने पर ग़ुस्ल को वाजिब क़रार देती है ना कि मज़ी के निकलने पर। कपड़े पर बच्ची का पेशाब लगने पर उसे धोने को लाज़िम क़रार देती है जबकि बच्चे के पेशाब लगने पर इस पर पानी छिड़कने को काफ़ी गर्दानती है। ये मुतल्लक़ा की इद्दत तीन कुरुअ और बेवा की चार माह और दस दिन बताती है, चोर के हाथ काटने का हुक्म देती है जबकि ग़ासिब के लिए ये सज़ा नहीं रखती वग़ैरा। इन तमाम मसाइल में मुशाबिहत पाई जाती है, इस के बावजूद उनके अहकाम मुख़्तलिफ़ हैं जो इस बात की दलील है कि फ़क़त मुमासिलत-व-मुशाबिहत क़ियास के लिए काफ़ी नहीं है, बल्कि शरई इल्लत का मंसूस होना लाज़िमी है। मुख्तलिफात की मिसालें ये हैं कि शराअ पानी और मिट्टी दोनों को तहारत का जवाज़ बनाती है जबकि पानी साफ़ करता है और मिट्टी गंदा करती है । इसी तरह इस ने मुर्तद और ज़ानी मुहसिन, दोनों के लिए क़त्ल की सज़ा रखी है जबकि इन दोनों अम्लों की कैफियत मुख़्तलिफ़ है। शराअ ने एहराम की हालत में शिकार में किसी हैवान या परिंदे के क़त्ल पर, महरम पर उसकी ज़मान को वाजिब क़रार दिया है, चाहे ये क़त्ल उमदन हुआ हो या ख़ता से वग़ैरा। इन मसाइल की हक़ीक़त मुख़्तलिफ़ होने के बावजूद, उन पर शराअ एक ही हुक्म लगा रही है जो कि दोबारा इस अम्र पर दलालत करता है कि शराअ में अक़्ली क़ियास की कोई एहमियत नहीं है, बल्कि इस का इस्तिअमाल नाजायज़ है और सिर्फ़ शरई क़ियास एक दलील-ओ-माख़ज़ है। इसीलिए हज़रत अली رضي الله عنه का फ़रमान है कि “अगर दीन राय पर मौक़ूफ़ होता तो मौज़ो पर मसह ऊपर के बजाय निचले हिस्से पर किया जाता।“

मिसाल के तौर पर ये कहा गया है कि उजरत पर वकालत (अक़द-ए-जायज़ा) को उजारह (उक़द-ए-लाज़िमा) पर क़ियास किया गया है क्योंकि दोनों में मुलाज़मत पर रखने की मुमासिलत-व-मुशाबिहत मौजूद है, इसलिए उजरत पर वकालत का मुआमला भी अक़द-ए-लाज़िमा ठहरा। ये कहना ग़लत होगा क्योंकि यहां इन दोनों उक़ूद में मुशाबिहत की वजह से क़ियास नहीं किया गया बल्कि इन दोनों के माबैन हुक्म के बाइस के इश्तिराक की वजह से। ये इल्लत उजरत है जो दोनों उक़ूद में मुश्तरक है और इसी वकालत को इजारहৃ (किरायादारी) पर क़ियास किया गया है । चुनांचे जब अजीर की तरफ़ से कोई काम अंजाम पाया और इस के इव्ज़ में मुस्ताजिर ने उसे मुतय्यन उजरत देने का इल्तिज़ाम अपने सर लिया, तो ये अक़द-ए-लाज़िमा क़रार पाया । लिहाज़ा ये उजरत वो हुक्म का बाइस है जो दोनों उक़ूद में मौजूद है, इसीलिए ये शरई क़ियास है ना कि अक़्ली क़ियास। अलबत्ता अगर वकालत बगै़र उजरत के की गई, तो उसे इजारह पर क़ियास नहीं किया जाएगा क्योंकि इन दोनों में मुश्तरक बाइस यानी इल्लत नहीं पाई गई और इस सूरत में ये अक़द-ए-जायज़ा क़रार पायगा ना उक़द-ए-लाज़िमा।

इसी तरह किसी हुक्मे शरई की आम इबारत के किसी मसले पर ततबीक़ को क़ियास नहीं कहा जाएगा, बल्कि इस सूरत में ये आम नस अपने तमाम उन अफ़राद को शामिल करेगी जो इस के मफ़हूम में दाख़िल हैं। मसलन ये ना कहा जाये कि ख़म्र के हुक्मे हुरमत को दूसरी नशा आवर अशिया पर क़ियास किया जाएगा, तो वो भी हराम ठहरें। ये इसलिए क्योंकि क़ियास से मुराद जुम्अ इल्लत की वजह से किसी एक मसले के हुक्म को दूसरे मसले तक मुंतक़िल करना है, लेकिन यहां ऐसी बात नहीं पाई गई क्योंकि हुक्म को किसी दूसरे मसले तक मुंतक़िल ही नहीं किया गया बल्कि यहां तो बज़ाते ख़ुद मसले के हुक्म को इस के अपने मौज़ूअ पर मुंतबिक़ किया गया है क्योंकि लफ्ज़े आम ख़म्र बज़ाते ख़ुद नशा आवर शैय को शामिल है। इस सिलसिले में जब किसी नए मसले की हक़ीक़त को जानने की तहक़ीक़ की जाये तो उसे इस्तिलाह में तहक़ीक़-ए-मनात कहा जाता है ना कि क़ियास। मनात का मक़्सद इस हक़ीक़त को जानना है जिस के बारे में शारेअ ने कोई हुक्म वारिद किया है। इसीलिए मनात को सही समझना इतना ही ज़रूरी है जितना हुक्म को, ताकि इस का इंतिबाक़ सही हो। वर्ना ये अंदेशा रहेगा कि किसी और हक़ीक़त का हुक्म इस पर मुंतबिक़ हुआ है, लिहाज़ा इन दोनों को सही तौर पर मरबूत करना इंतिहाई अहम है। मसलन ख़म्र की मिसाल में अक़्ल अफ़यून की हक़ीक़त की तहक़ीक़ करेगी और अगर इस में नशा आवर होने का वस्फ़ मौजूद हो, तो इस सूरत में हुरमत-ए-ख़मर का हुक्म इस नए मसले यानी अफ़यून पर लागू होगा और ये हराम क़रार पायगी । यही तहक़ीक़-ए-मनात है और इस में अक़्ल ख़ुद मुख्तारी से वाक़े को समझती है जब कि हुक्म की तलाश के लिए शरई नुसूस की तरफ़ रुजूअ करती है।

क़ियास के ये चार अरकान हैं : असल, फुरूअ, हुक्मे शरई और इल्लत।

मसलन जुमे की अज़ान के वक़्त ख़रीद व फ़रोख़्त की तहरीम पर इजारहৃ की तहरीम का क़ियास क्योंकि दोनों सूरतों में नमाज़े जुमा के वक़्त मशग़ूलियत की इल्लत मौजूद है।

يَـٰٓأَيُّہَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا نُودِىَ لِلصَّلَوٰةِ مِن يَوۡمِ ٱلۡجُمُعَةِ فَٱسۡعَوۡاْ إِلَىٰ ذِكۡرِ ٱللَّهِ وَذَرُواْ ٱلۡبَيۡعَ .....(۹)فَإِذَا قُضِيَتِ ٱلصَّلَوٰةُ فَٱنتَشِرُواْ فِى ٱلۡأَرۡضِ وَٱبۡتَغُواْ
مِن فَضۡلِ ٱللَّهِ

ऐ ईमान वालो ! जुमे के दिन नमाज़ की अज़ान दी जाये तो तुम अल्लाह के ज़िक्र की तरफ़ दौड़ पडो....और ख़रीद व फ़रोख़्त छोड़ दो ......फिर जब नमाज़ हो चुके तो ज़मीन में फैल जाओ और अल्लाह का फ़ज़ल तलाश करो (अल जुमा-9,10)
असल : खरीदो व फ़रोख़्त

फुरूअ: इजारह

हुक्मे शरई: नमाज़े जुमा की अज़ान पर ख़रीद व फ़रोख़्त की तहरीम

इल्लत: नमाज़े जुमा के वक़्त में मशग़ूलियत

इल्लत की शराइत

(1) इल्लत मंसूस हो। यानी शरई हो ना अक़्ली इल्लत।

(2) ये हुक्म का बाइस हो और हुक्म की अलामत नहीं ।

मसलन रमज़ान का चांद देखना रोज़ा रखने की अलामत (सबब) है ना उसकी वजह (बाइस) ।

(3) ये वस्फ़-ए-मफ़हम हो। यानी ये ज़ाहिर, मुंज़बित और मुनासिब हो।

इस के ज़ाहिर होने की शर्त इसलिए है ताकि उसे नए वाक़ियात पर मुंतबिक़ किया जा सके, चुनांचे अगर ये ख़फ़ी होगी तो ये अम्र (काम) मुहाल है। मुंज़बित से मुराद इस का मुस्तक़िल होना है ताकि उसे, बगै़र किसी इस्त्तिसना के, तमाम मुताल्लिक़ा हालात पर मुंतबिक़ किया जा सके। मसलन नमाज़े क़स्र की इल्लत मशक़्क़त नहीं क़रार पाई क्योंकि हर शख़्स सफ़र में मशक़्क़त महसूस नहीं करता यानी ये ग़ैर मुंज़बित है, इसीलिए यहां सफ़र को इल्लत क़रार दिया गया है। मुनासिब से मुराद ये है कि इल्लत और हुक्म के माबैन अक़्ली राबिता मौजूद हो। मसलन ग़ुस्से की हालत में फ़ैसला ना देने का हुक्म । यहां इल्लत और हुक्म में एक अक़्ली राबिता मौजूद है।

(4) ये मुअस्सिर हो।

इस से ये मुराद है कि इल्लत के साबित होने से (हमेशा )हुक्म का हुसूल हो। अगर ये वस्फ़ हुक्म पर मुअस्सिर नहीं तो उसे इल्लत क़रार नहीं दिया जा सकता । जब कत्अ नज़र वस्फ़ के, हुक्म जारी रहे तो यहां ताअलील वाक़े नहीं हुई । मसलन हज के सिलसिले में अल्लाह سبحانه وتعال का फ़रमान है ( لیشھدوا منافع لھم )  (ताकि तुम इस (हज) में अपने फ़ायदे के काम देख सको) । यहां चाहे कोई फ़ायदा हो या ना हो, हज का हुक्म बाक़ी रहेगा । यानी ये हुक्म पर मुअस्सिर नहीं हो रहा ।

(5) ये मुतरदा हो।

इस से मुराद ये है कि वस्फ़ और हुक्म के माबैन वजह-व-नतीजा (cause-effect) का ताल्लुक़ हो। यानी इल्लत होगी तो हुक्म होगा। अगर ऐसा नहीं है तो उसे इस्तिलाह मेंन क़ज़ से मौसूम किया जाता है। जिस तरह वजह-ओ-नतीजा में हमेशा नतीजा वजह पर इन्हिसार करता है, इसी तरह हुक्म अपनी इल्लत पर निर्भर होता है। मसलन अल्लाह سبحانه وتعال का फ़रमान है:

يَـٰٓأَيُّہَا ٱلنَّبِىُّ قُل لِّأَزۡوَٲجِكَ وَبَنَاتِكَ وَنِسَآءِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ يُدۡنِينَ عَلَيۡہِنَّ مِن جَلَـٰبِيبِهِنَّۚ ذَٲلِكَ أَدۡنَىٰٓ أَن يُعۡرَفۡنَ فَلَا يُؤۡذَيۡنَۗ

ऐ नबी! अपनी बीवीयों से और अपनी साहबज़ादियों से और मुसलमानों की औरतों से कह दो कि वो अपने ऊपर अपने जिलबाब लटका लें इस से बहुत जल्द उन की पहचान हो जाया करेगी फिर ये ना सताई जाएंगी (अल अहज़ाब-59)

चूँकि सताए जाने और जिलबाब पहनने के हुक्म में कोई वजह और नतीजे का ताल्लुक़ नहीं पाया जाता, इसलिए يُؤۡذَيۡنَۗ (सताए जाने) को हुक्म की इल्लत नहीं क़रार दिया जा सकता ।

(6) ये मुतअद्दिदया हो। यानी उसे दूसरी (नई) फुरूआत पर मुंतबिक़ किया जा सके वर्ना क़ियास करना मुहाल है।

मसलन चोरी चोर के हाथ काटने की वजह है मगर चूँकि उसे दूसरे वाक़िआत पर लागू नहीं जा सकता, इसलिए ये इल्लत कासिरा ठहरी और इसलिए उसे इल्लत नहीं गरदाना गया, बल्कि हुक्म की अलामत यानी सबब ठहराया गया है।

(7) इल्लत किसी असल के हुक्म का महल ना हो।

(8) ये क़ुरआन, सुन्नत और इज्माअ ए सहाबा की किसी नस के ख़िलाफ़ ना हो।
इल्लत की क़िस्में

इल्लत की ये चार अक़साम हैं : सराहतन, दलालतन, इस्तम्बातन और क़ियासन।
सराहतन : ये वो इल्लत है जो नस के मंतूक़ (explicit meaning ) से सरीह तौर पर, बगै़र नज़र-व-इस्तिदलाल के, इस के अल्फाज़-व-कलिमात से समझी जाये। मसलन लफ़्ज़ मन अजल ( की वजह से) अरबी में सरीह इल्लत का मफ़हूम अदा करता है :

إنما جعل الاستئذان من أجل البصر  (البخاري(
बेशक इजाज़त लेना, नज़र पड़ने की वजह से फ़र्ज़ किया गया है (बुखारी)

यहां शराअ ने किसी ग़ैर के घर दाख़िल होने के लिए इजाज़त लेने को लाज़िम क़रार दिया है, ताकि कहीं ऐसी चीज़ पर नज़र ना पड़े जिस को देखना हराम है, मसलन बेपर्दगी की हालत में अजनबी औरत का सतर। यहां من أجل सरीह तालील पर दलालत कर रहा है।

इसी तरह ख़ास हुरूफ़ जैसे لِ، کي، اِنّ، بِ  भी इल्लत की निशानदेही करते हैं बशर्ते कि उसकी शराइत मौजूद हों। मसलन अल्लाह سبحانه وتعال का फ़रमान है:

كَىۡ لَا يَكُونَ دُولَةَۢ بَيۡنَ ٱلۡأَغۡنِيَآءِ مِنكُمۡۚ
ताकि तुम्हारे दौलत मंदों के हाथ में ही ये माल गर्दिश करता ना रह जाये (अल हश्र-7))

शराअ ने यहां माल को मुहाजिरीन में तक़सीम करने के हुक्म की इल्लत ये बयान की है कि इस माल की गर्दिश फ़क़त दौलतमंदों में महदूद हो कर ना रह जाये, बल्कि इस का दूसरों में मुंतक़िल होना भी ज़रूरी है। यहां हर्फ़-ए-की तालील पर दलालत कर रहा है।

दलालतन : नस के अल्फाज़, या उसकी तरकीब या तरतीब जिस मफ़हूम पर दलालत करें, यानी लफ़्ज़ के मंतूक़ से नहीं बल्कि इस के मफ़हूम से ये इल्लत समझी जाये। उसे दलालत तंबीह-व-ईमा ( the indication of notification )भी

कहा जाता है। इस में दलालत एक इल्लत की तंबीह करती है। ये दो तरह से होता है:

1) जब हुक्म को वस्फ़-ए-मफ़हम से जोड़ा जाये, और इस तौर पर ये मफहूमे मवाफिक़ा (congruent meaning) हो या मफहूमे मुख़ालिफा (opposite meaning) और इस हाल में इल्लत की वस्फ़ मोअतबर हो। दूसरे लफ़्ज़ों में जब नस कोई ऐसा वस्फ़ बताए जिस का इस के हुक्म से अक़्ली राबिता हो। ये राबिता नस में सरीह तौर पर मौजूद ना हो बल्कि इस के मफ़हूम से समझा जाये।

पहली मिसाल :

في الغنم السائمہ زکاۃ  (أبو داود(
घास चरने वाली भेड़ों पर ज़कात है (अबु दाऊद)

यहां पर वो वस्फ़ जो हुक्म को वुजूद में लाता है चरना है। चरने के मफ़हूम पर ग़ौर करने से ये समझा गया है कि इस से मुराद खुले चरागाह से चरना है जो कि आम मिल्कियत में से है । इसलिए अवाम के वसाइल के इस्तिमाल को ज़कात की शक्ल में लोगों को लौटाया जाये। चुनांचे अगर किसी छोटे बाड़े में भेड़ों को चरवाया गया हो तो उन पर ज़कात नहीं होगी। लिहाज़ा यहां इल्लत आम मिल्कियत से चरवाना है, इसलिए अगर ऊंटों ने यहां से चरा हो तो उन पर भी ज़कात आइद होगी। नस में वस्फ़ और हुक्म के माबैन तालील सरीह तौर पर मज़कूर नहीं है इसलिए ये सरीह इल्लत नहीं है, अलबत्ता चूँकि उसे लफ्ज़े السائمہ (चरने वाली) और इस के हुक्म के राबिता से समझा गया है (वस्फ़-ए-मफ़हम), इसलिए ये इल्लत दलालतन है यानी इल्लत तंबीहन नस के मफ़हूम से समझी गई है, ना इस के मंतूक़ से।

दूसरी मिसाल :

وَأَعِدُّواْ لَهُم مَّا ٱسۡتَطَعۡتُم مِّن قُوَّةٍ۬ وَمِن رِّبَاطِ ٱلۡخَيۡلِ تُرۡهِبُونَ بِهِۦ عَدُوَّ ٱللَّهِ وَعَدُوَّڪُمۡ
और तुम (उनके ख़िलाफ़) मक़दूर भर तैय्यारी करो क़ुव्वत और पले हुए घोड़े ताकि तुम इस से अल्लाह के दुश्मन और अपने दुश्मन पर धाक बिठा सको (अल अनफाल-60)

यहां दुश्मन पर धाक बिठाना दुश्मनी के लिए वस्फ़-ए-मफ़हम मुनासिब है। यानी इल्लत तरहूबन बिही अदुव्वुकुम वादोकुम (दुश्मन पर धाक बिठाना) है और इस का मतलब ये है कि आज मुसलमानों पर लाज़िम है कि वो ऐसे हथियार का बंद-व-बस्त करें जिस से इस्तिमारी कुंवतों में, जो इस्लाम की बड़ी दुश्मन हैं, मुसलमानों से ख़ौफ़ पैदा हो। इसलिए आज मुसलमानों पर फ़र्ज़ है कि वो जदीद तरीन टेक़्नोलौजी, जिस में टैंकस-व-मिज़ाइलज़ और जंगी तय्यारे वग़ैरा भी शामिल हैं, की तैय्यारी करें (हुक्म) ताकि दुशमनाने इस्लाम में ख़ौफ़ (इल्लत) का हुसूल हो सके।

(2) इल्लते दलालतन का दूसरे ज़मुरा इन अल्फाज़ का इस्तिमाल है जो असलन लुगत में तालील का मानी नहीं अदा करते मगर ये उनके मफ़हूम से समझा जाता है यानी उनके मदलूले लफ्ज़ से। उसकी पाँच अक़साम हैं । अलबत्ता यहां एक मिसाल पर इक्तिफा किया जा रहा है:

من أحیا أرضا میتۃ فھي لہ  (البخاري(
जिस किसी ने बंजर ज़मीन की अहया की वो उसी की हो गई (बुख़ारी) 

यहां हर्फ़ فاء ताक़ीब (नतीजा) के लिए है, इसलिए ब वजहे-ए-तरतीब ( किसी तक पहुंचने का ज़रीया बनना ) का मानी अदा कर रहा है और ज़मीन की अहया को उसकी मिल्कियत की इल्लत क़रार दे रहा है। यानी तरतीब में पहले ज़मीन की अहया है और इस के नतीजा में ज़मीन की मिल्कियत। चुनांचे ज़मीन की काश्त या इस पर इमारत बनाने से कोई शख़्स ज़मीन का मालिक बन जाता है। हर्फे فاء असल में तालील का फ़ायदा नहीं देता मगर यहां इस के सियाक़ से, इस के इल्लत होने का मफ़हूम समझा गया है, इसीलिए ये इल्लत दलालतन है ना सराहतन।

इस्तिम्बातन : ये इल्लत ना सराहतन और ना दलालतन अल्फाज़-व-कलिमात में मज़कूर होती है बल्कि उसे एक या मुतअद्दिद मुअय्यन नुसूस की तरकीब से मुस्तंबत किया जाता है।

मिसाल :

المسلمون شرکاء في ثلاثۃ: الماء والکلاء والنار ‘‘(أبو داود(
मुसलमान तीन चीज़ों में शुरका हैं: पानी, घास और आग (अबु दाऊद)

नस, बगै़र किसी वजह के, सिर्फ़ मज़कूरा तीन अशिया में मुसलमानों की शिराकत बता रही है। अलबत्ता रसूलुल्लाह का ताइफ और मदीना में पानी को इन्फ़िरादी मिल्कियत बनने की इजाज़त देना भी साबित है । चुनांचे इस में इस तरफ़ इशारा है कि पानी में कोई ऐसा वस्फ़ है जो उसे एक हालत में इन्फ़िरादी मिल्कियत बनने की इजाज़त देता है और किसी दूसरी हालत में इस से रोकता है। वो पानी जो आप ने बाअज़ लोगों की मिल्कियत में दिया, इसलिए था कि ये लोग अपने बाग़ात को पानी दे सके यानी महदूद मिक़दार जिस पर मुआशरा निर्भर नहीं था, जबकि दूसरी हदीस में आप ने पानी को इन्फ़िरादी मिल्कियत बनने से मना फ़रमाया और सब को इस के इस्तिमाल में शरीक ठहराया है। इन नुसूस से ये समझा गया है कि जो बात पानी को इन्फ़िरादी मिल्कियत बनने से रोकती है वो मुआशरे को उसकी ज़रूरत है, चुनांचे मुआशरे की ज़रूरत को इल्लत की हैसियत से मुस्तंबित किया गया है और यही इल्लत-ए-इस्तिम्बातन है। ये इस हदीस में वारिद तीन अशिया तक महदूद नहीं बल्कि तमाम अशिया जिन में ये इल्लत पाई जाये, वो मिल्कियत आम्मा ठहरेंगी और उसकी इन्फ़िरादी मिल्कियत नाजायज़ होगी। अलबत्ता अगर इल्लत ना पाई जाये तो ये जायज़ होगा। इस इल्लत की वजह से आम मिल्कियत में तेल, गैस, बिजली वग़ैरा भी शामिल हैं और उन की अवाम तक रसाई इस्लामी रियासत यानी ख़िलाफ़त की ज़िम्मेदारी है। इस से ये भी मालूम हुआ कि आज सरमाया दाराना निज़ाम की वजह से जो बड़ी बड़ी कंपनीयां अवाम के ज़ख़ाइर पर क़ाबू पा लेती हैं और इस वजह से उन की रसाई की अवाम से मुँह मांगी क़ीमत लेती हैं, जोमहंगाई का बाइस बनता है, ये सब इस्लाम में नाजायज़ है क्योंकि ये मिल्कियते आम्मा है।

क़ियासन : जब नस में इल्लते दलालतन हो और इस के और हुक्म-ए-असल के माबैन कोई मुअस्सिरा ताअल्लुक़ (वस्फ़-ए-मफ़हम) मौजूद हो, तब इस मुअस्सिर ताअल्लुक़ की वजह से, इल्लते दलालतन पर किसी नई इल्लत का क़ियास किया जाये, जो इन दोनों में मुशतरका है, तो इस नई इल्लत को क़ियासी कहा जाता है । मसलन ये हिफ़ाज़ती हिदायत : थकावट की हालत में गाड़ी मत चलाऐ । यहां थकावट और हुक्म के माबैन मुअस्सिर ताअल्लुक़ ये है कि थकावट में गाड़ी चलाना किसी सानिहा का सबब बन सकता है । चूँकि यहां असल वस्फ़ और हुक्म के माबैन मुअस्सिर ताअल्लुक़ पाया गया है, इसलिए मौजूदा वस्फ़ और किसी ऐसे नए वस्फ़ के माबैन क़ियास करना मुम्किन है जिस में ये मुशतरका मुअस्सिर ताअल्लुक़ पाया जाये। चुनांचे खिचाओ (stress )को थकावट पर क़ियास किया जाएगा क्योंकि इन दोनों में मुअस्सिर ताअल्लुक़ मुशतरका है यानी खिचाओ भी किसी सानिहा का सबब बन सकता है, इसलिए ये नई इल्लत जो क़ियास से साबित की गई है, इल्लते क़ियासन कहलाती है।

मिसाल :

لا یقضي القاضي و ھو غضبان ‘‘(متفق علیہ(
क़ाज़ी ग़ुस्से की हालत में फ़ैसला ना दे (मुत्तफिक़ अलैहि)

यहां ग़ुस्सा वस्फ़-ए-मफ़हम है और हुक्म-ए-असल फ़ैसला देने की नही है। इस नही की इल्लते दलालतन ग़ज़बान (ग़ुस्सा) है क्योंकि ये फ़ैसले को मुताअस्सिर करता है, इसलिए ग़ुस्से के वस्फ़ और हुक्म के माबैन मुअस्सिर ताअल्लुक़ फ़िक्र की तशवीश है । इस मुअस्सिर ताअल्लुक़ की वजह से मौजूदा वस्फ़ यानी ग़ुस्से और नए औसाफ़ में क़ियास किया जा सकता है बशर्ते कि इन में, मुअस्सिर ताअल्लुक़ में, इश्तिराक पाया जाये, तो इस सूरत में नई इल्लत निकालना मुम्किन होगा । मिसाल के तौर पर भूख को ग़ुस्से पर क़ियास किया जाएगा क्योंकि इन दोनों में मुअस्सिर ताअल्लुक़ का इश्तिराक वाक़े है जो फ़िक्र की तशवीश है। लिहाज़ा क़ियास के ज़रीये भूख (नई वस्फ़-ए-मफ़हम) की नई इल्लत निकाली गई है और इसलिए भूख की हालत में फ़ैसला देना भी नाजायज़ ठहरा।

इंतिबाक़-ए-हुक्म के ऐतबार से इल्लते दलालतन और इल्लते क़ियासन में ये फ़र्क़ है : इल्लते दलालतन में नए मसले पर हुक्म का इंतिबाक़ इस सूरत में होता है जब इस नए मसले में असल वस्फ़-ए-मफ़हम का इश्तिराक वाक़े हो यानी नया मसला इसी वस्फ़ के अंदर आता है और नए अहकाम उसी की बुनियाद पर अख़ज़ किए जाते हैं, जबकि इल्लते क़ियासन में नया मसला असल वस्फ़-ए-मफ़हम के जे़रे साया नहीं आता बल्कि हुक्म का इंतिबाक़ नई इल्लत की बुनियाद पर होता है । दूसरे लफ़्ज़ों में नए अहकाम को ऐसे नए औसाफ़ की बुनियाद पर अख़ज़ किया जाता है जिन में मुअस्सिर ताअल्लुक़ का इश्तिराक हो। मसलन चरने वाले ऊंटों पर ज़कात इसलिए है क्योंकि इस में चरने का असल वस्फ़ मौजूद है यानी वस्फ़ का इश्तिराक । इस के बरअक्स भूख का वस्फ़ ग़ुस्से के वस्फ़ से

मुख़्तलिफ़ है, अलबत्ता यहां पुराने वस्फ़ के मुअस्सिर ताअल्लुक़ में इश्तिराक वाक़े हुआ है ना बज़ाते ख़ुद वस्फ़ में। इल्लत और हिक्मत में फ़र्क़

साबिक़ा ज़िक्र से ये ज़ाहिर है कि इल्लत हुक्म की तशरीअ के बाइस को कहते हैं यानी हुक्म उसकी वजह से है, जब कि हिक्मत हुक्म की ग़ायत-व-नतीजे को कहा जाता है । इल्लत अपने वजूद और अदम में हमेशा मालूल के मुवाफ़िक़ होती है क्योंकि ये हुक्म का बाइस है, जब कि हिक्मत का हक़ीक़त में ज़ाहिर होना लाज़िमी नहीं है यानी ये बाअज़ हालात में ज़ाहिर हो सकती है और दूसरे हालात में नहीं भी। इल्लत चूँकि हुक्म का बाइस है इसलिए ये हुक्म से क़ब्ल मौजूद होती है जबकि हिक्मत चूँकि हुक्म का नतीजा है इसलिए ये हुक्म के बाद वुजूद में आती है यानी हुक्म के निफाज़ के नतीजे में। इल्लत हो या हिक्मत, बहरहाल लाज़िमी है कि ये नुसूस में वारिद हो वर्ना हमारी अक़्ल उनके इदराक से क़ासिर है।

शरई नुसूस से मजमूई तौर पर पूरी शरीयत का हिक्मत होना साबित है और बाअज़ अहकाम का ऐनी तौर पर भी। मसलन:

हम ने आप को सारे जहानों के लिए रहमत बना कर भेजा है (हवाला गलत है )

यहां पर शरीयत का रहमत से मौसूफ़ होना इस के नतीजे की हैसियत से है, ना इस के तशरीअ का बाइस होने की हैसियत से । यानी शरीयत का सब इंसानों के लिए रहमत होना उसकी हिक्मत है ना कि इल्लत, क्योंकि आयत में तालील का सैग़ा नहीं पाया गया ।

हिक्मत की दीगर मिसालें:

لِّيَشۡهَدُواْ مَنَـٰفِعَ لَهُمۡ
ताकि तुम ( हज में ) नफ़ा देख सको (अल हज्ज -28)

لا تنکح المرأۃ علی عمتھا ولا علی خالتھا ولا علی ابنۃ أخیھا
ولا علی ابنۃ أختھا فإنکم إن فعلتم ذلک قطعتم أرحامکم ‘‘(متفق علیہ(

एक औरत को उसकी चची और ख़ाला के साथ ना बियाहो और ना ही उस के भाई और बहन की बेटीयों के साथ वर्ना तुम अपना रिश्ता तोड़ डालोगे (मुत्तफिफ अलैहि) 

आयत में हज के दौरान नफ़ा पाना हुक्म की हिक्मत है ना कि इल्लत । ये इसलिए क्योंकि मुम्किन है कि हज करने में कोई नफ़ा नहीं बल्कि नुक़्सान हो, मसलन जिस्म के किसी अज़ू या जान का, जैसा कि बाअज़ औक़ात वाकिअतन होता है। और उसे इल्लत क़रार देने का मतलब ये होगा कि अगर नफ़ा नहीं पाया जाये तो हुक्म साक़ित हो जाएगा क्योंकि हुक्म का बाइस मौजूद नहीं, जबकि हज की फ़र्ज़ीयत का हुक्म इस आयत से साबित है:

وَلِلَّهِ عَلَى ٱلنَّاسِ حِجُّ ٱلۡبَيۡتِ مَنِ ٱسۡتَطَاعَ إِلَيۡهِ سَبِيلاً۬ۚ وَمَن كَفَرَ فَإِنَّ ٱللَّهَ غَنِىٌّ عَنِ ٱلۡعَـٰلَمِينَ

अल्लाह ने उन लोगों पर जो उसकी तरफ़ राह पा सकते हों इस घर का हज फ़र्ज़ कर दिया है  और जो कोई कुफ्र करे तो अल्लाह तमाम दुनिया से बे परवाह है (आले इमरान-97) 

जब हज के फ़रीज़े को किसी इल्लत से मरबूत नहीं किया गया तो ये कैसे कहा जा सकता है कि हज इस वजह (बाइस) से फ़र्ज़ की गई है कि इस में हमारे लिए फ़ायदा है? अलबत्ता ये हुक्म-ए-हज की हिक्मत ज़रूर है।
हदीस शरीफ़ में मज़कूरा औरतों से शादी ना करने की वजह क़ता रहमी बताई गई है, ये हुक्म की इल्लत नहीं बल्कि उसकी हिक्मत है । इल्लत होने की सूरत में अगर क़ताअ रहमी नहीं पाई गई तो उनसे निकाह जायज़ हो जाएगा क्योंकि हुक्म का बाइस ग़ैर मौजूद है और ये सरासर ग़लत होगा । चुनांचे ये हुक्म की हिक्मत है।
इसी तरह मक़ासिदे शराईत या जल्बे मस्लिहत व दफ़ऐ मफ़ासिद ना मजमूई तौर पर शरीयत की अलल हैं और ना ही हर हुक्म की ऐनी तौर पर, और ये अहकाम के दलायल भी नहीं हैं। अलबत्ता ये शरीयत की ग़ायत-व-मक़्सद यानी हिक्मत ज़रूर हैं। चुनांचे मिसाल के तौर पर ये कहना बिलकुल ग़लत होगा कि चोर के हाथ काटने की इल्लत इन्फ़िरादी मिल्कियत का तहफ़्फ़ुज़ है। ये इसलिए क्योंकि चोर के हाथ काटने की दलील ये आयत है :

وَٱلسَّارِقُ وَٱلسَّارِقَةُ فَٱقۡطَعُوٓاْ أَيۡدِيَهُمَا
और चोर, मर्द हो या औरत, उनके हाथ काट दो (अल माईदा-38)

यहां सज़ा की एक मुअय्यन इल्लत है ना कि इन्फ़िरादी मिल्कियत के तहफ़्फ़ुज़ की मुतलक़ इल्लत, इसीलिए ये एक ख़ास हुक्म की ख़ास इल्लत है, ना इन्फ़िरादी मिल्कियत के तहफ़्फ़ुज़ की सज़ा के लिए आम इल्लत क्योंकि नस में इस का कोई ज़िक्र ही नहीं है। यहां ٱلسَّارِقُ (चोर) वस्फ़-ए-मफ़हम है और یقطع (काटना) के लिए मुनासिब है, चुनाँचे काटने की वजह السرقۃ  (चोरी) है यानी हाथ काटने की इल्लत चोरी है, जो नस से ज़ाहिर है । इन्फ़िरादी मिल्कियत के तहफ़्फ़ुज़ को इल्लत क़रार देने से ये लाज़िम आएगा कि हर इस सूरत में हाथ काटा जाये जब भी कोई किसी की मिल्कियत पर क़ाबू पाले। ये ग़लत होगा क्योंकि मसलन ग़सब के मुआमले में ग़ासिब का हाथ नहीं काटा जाएगा, क्योंकि शरीयत ने उसकी ये सज़ा नहीं ठहराई।

लिहाज़ा वाजेह हो जाना चाहिए कि इल्लत और हिक्मत में बहुत बड़ा फ़र्क़ है । और अहकाम के इस्तिंबात के लिए इस के दलायल की तरफ़ रुजूअ किया जाएगा, ना शरीयत के मक़ासिद-व-नताइज की तरफ़। ये इसलिए क्योंकि हुक्म अपनी दलील से साबित होता है ना अपनी हिक्मत से । इसीलिए फ़िक़्ह की ये तारीफ़ बताई गए है :

علم بالمسائل الشرعیۃ العملیۃ المستنبطۃ من أدلتھا التفصیلیۃ
(शरीयत के उन अमली मसाइल का इल्म जो कि उनके तफ़सीली दलायल से मुस्तंबित किए गए हों)

आज उन्ही इस्लामी इस्तिलाहात मक़ासिदे शरीअत, मस्लिहत और हिक्मत की आड़ में, सरीह अहकाम-ओ-नुसूस के ख़िलाफ़ बातें बनाई जा रही हैं और सरकारी सतह पर भी ऐसे फतावा जारी किए जा रहे हैं जो इस्लाम के ख़िलाफ़ हैं। ये सब कुछ, इस्तिअमारी कूंवतों की ख़ातिर, कुफ्र को इस्लामी लुबादा चढ़ाने की कोशिशें हैं ताकि मग़रिबी अफ़्क़ार-व-नज़रियात यानी मग़रिबी तहज़ीब, मुसलमानों के मुआशरे में परवान चढ़े और इस से उनके मुफ़ादात को तहफ़्फ़ुज़ मिल सके। उसकी एक मिसाल इस्लामी ममालिक के तालीमी निसाब में वो तबदीलीयां हैं जो अमरीका की इमदाद से की जा रही हैं ताकि मुसलमानों के मुस्तक़बिल की नस्ले मग़रिब वफ़ादार पैदा हों। इस्तिअमारी कूंवतों की इस साज़िश को मुसलमानों के हुक्मरान, बड़ी बेक़रारी से अमली जामा पहना रहे हैं। चुनांचे उम्मत के लिए इस्लाम में इन अफ़्क़ार की हक़ीक़त को जान लेना इंतिहाई अहम है ताकि ये दुशमनाने इस्लाम की इस चाल से ख़बरदार रहे और उनके ख़िलाफ़ फ़िक्री-व-सियासी तहरीक चला सके।

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