शर्त की तारीफ़:
ھو ما کان وصفا مکملا لمشروطہ
فیما اقتضاہ الحکم في ذلک المشروط أو فیما اقتضاہ المشروط نفسہ
मशरूत के लिए वो वस्फ़-ए-कामिल जो इस मशरूत का हुक्म तक़ाज़ा करे
या जिस का बज़ाते ख़ुद मशरूत तक़ाज़ा करे)।
1)
मशरूत के हुक्म का तक़ाज़ा: उसकी शर्त ख़िताबे तकलीफ की तरफ़ लौटती
है। मसलन नमाज़ (ख़िताबे तकलीफ) मशरूत है और उसकी शर्त (वस्फ़-ए-कामिल) वुज़ू है।
إِذَا
قُمۡتُمۡ إِلَى ٱلصَّلَوٰةِ فَٱغۡسِلُواْ وُجُوهَكُمۡ وَأَيۡدِيَكُمۡ إِلَى
ٱلۡمَرَافِقِ وَٱمۡسَحُواْ بِرُءُوسِكُمۡ وَأَرۡجُلَڪُمۡ إِلَى ٱلۡكَعۡبَيۡنِۚ
जब तुम नमाज़ के लिए उठो तो अपने मुँह को और अपने हाथों को कहनियों समेत धो लो और अपने सरों का मस्ह करो और अपने पांव को टखनों समेत धो लो (अल
माईदा-6)
ये बज़ाते ख़ुद नमाज़ की शर्त नहीं है यानी उसकी कैफियत की, बल्कि इस के हुक्म के लिए शर्त है यानी इस के वजूब-ए-अदायगी
की। इसी तरह नमाज़ में सतर का ढाँपना और रमज़ान में रोज़े की नीयत करना है वग़ैरा, ये सब हुक्म की शराइत हैं ।
2) बज़ाते ख़ुद मशरूत का तक़ाज़ा: उसकी शर्त ख़िताबे वज़ा की तरफ़ लौटती
है। मसलन ज़कात का निसाब (ख़िताबे वज़ा) मशरूत है और उसकी शर्त एक साल का गुज़रना है।
लिहाज़ा यहां शर्त बराहे रास्त हुक्म (ख़िताबे तकलीफ) से मुंसलिक नहीं है यानी उसकी अदायगी
से, बल्कि ज़कात के सबब (निसाब) से मुंसलिक है यानी ये ज़कात के निसाब
(ख़िताबे वज़ा) के लिए शर्त है । इसी तरह चोर का हाथ काटने की शर्त
महफ़ूज़ मुक़ाम (हिर्ज़) है क्योंकि हाथ काटने का सबब चोरी है और इस वजह से ये ख़िताबे
वज़ा है, फिर उसकी शर्त महफ़ूज़ मुक़ाम है, लिहाज़ा ये सबब की शर्त है ।
ما أخذ من عطنہ ففیہ القطع إذا
بلغ ما ےؤخذ من ذلک ثمن المجن
वो जो कुछ अपनी जगह से उठाया जाये तो (इस सूरत में) हाथ काटा जाये अगर चुराई हुई
चीज़ ढाल की क़ीमत तक पहुंच जाये
ماکان في الخزائن ففیہ القطع إذا
بلغ ثمن المجن
जो कुछ स्टोरों में था तो इस के लिए हाथ काटना है अगर उस चीज़ की क़ीमत ढाल की क़ीमत
तक पहुंच जाये
चाहे शर्त ख़िताबे तकलीफ की तरफ़ लौटे या ख़िताबे वज़ा की तरफ़, दोनों सूरतों में, ज़ाती तौर
पर, उसकी दलील का नस-ए-शरई से साबित होना लाज़िमी है। अलबत्ता शरई
उक़ूद जैसे ख़रीद ओ फ़रोख़्त, शिरकत और वक़्फ़ वग़ैरा, की शराइत इस से मुस्तसना हैं, इन में हर किस्म की शराइत लगाई जा सकती हैं चाहे वो किसी नस
में वारिद हुई हों या ना हों, बशर्ते कि किसी शरई नस के ख़िलाफ़ ना हों ।
فی کتاب اللّٰہ فھو باطل و إن کان ماءۃ شرط، قضاء اللّٰہ أحق وشرط اللّٰہ أوثق‘‘(البخاري
(
(बाअज़) लोगों
को क्या हो गया है कि वो ऐसी शराइत आइद करते हैं जो अल्लाह की किताब में नहीं हैं, हर वो शर्त जो अल्लाह की किताब में नहीं है तो वो बातिल है
चाहे वो सौ ही क्यों ना हों, अल्लाह की शराइत ज़्यादा हक़ वाली हैं और ज़्यादा मज़बूत भी
اشتریھا فأعتقیھا ولیشترطوا ما
شاء وا (البخاري(
उसे ख़रीद कर आज़ाद कर दो और उन्हें वो शराइत आइद करने दो जो वो चाहते हैं
यहां ولیشرطوا
ما شاء وا इसकी इबाहत पर सरीह नस है कि इंसान जो चाहे शराइत आइद कर
सकता है।
المسلمون عند شروطھم (الحاکم(
मुसलमान अपनी (आपस की) शराइत पर पूरा उतरते हैं
यानी अपनी आइद करदा शराइत जो (इज़ाफ़ी तौर पर) रखी गई हैं। अलबत्ता, जैसे पहले भी बताया गया है, इन शराइत का शराअ के ख़िलाफ़ होना नाजायज़ है। मिसाल के तौर पर, एक अक़द-ए-बैअ में दो मुख़्तलिफ़ मद्दात की शराइत आइद करना । मसलन
अगर कोई ये कहे कि में इस शर्त पर तुम्हें ये चीज़ बेचूगा अगर तुम अपनी बेटी मुझ से
ब्याह दो, तो ये शर्त बातिल होगी और इसलिए ये अक़्द भी बातिल
ठहरेगा।
لا یحل سلف وبیع ولا شرطان فی
بیع ‘‘ (أبو داود(
एक बैयाना और एक बैअ (एक ही वक़्त पर) जायज़ नहीं और ना ही एक बैअ में दो शर्तें
इसी तरह अगर बाए अपना सामान किसी ख़रीदार को फ़रोख़्त करते हुए उस से ये मुतालिबा
करे कि वो इस सामान को आगे ना बेचे, तो ये शर्त बातिल होगी। उसकी वजह ये है कि ये शर्त मक़तज़य-ए-अक़्द के मुनाफ़ी है क्योंकि
जब कोई शख़्स किसी चीज़ को ख़रीद लेता है तो वो उसकी मिल्कियत बन जाती है और इस के नतीजा
में वो इस के तसर्रुफ़ का पूरा हक़दार होता है। इसलिए ये शर्त आइद कर देना कि तुम उसे
नक़ल कर के आगे नहीं फ़रोख़्त करोगे, हुक्मे शरई के ख़िलाफ़ है। आजकल सरमाया दाराना निज़ाम की बदौलत, इस्लामी मुमालिक में ये अमल आम हो रहा है और वे intellectual property rights के नाम पर। इस्तिअमारी क़ुव्वतें ऐसे क़वानीन के ज़रीये दूसरी क़ौमों
को तरक़्क़ी से रोकती हैं और उन की मुहताजी को बरक़रार रखना चाहती हैं, खासतौर पर उम्मते मुस्लिमा को। इस के बावजूद मुसलमानों की हुकूमतें
ऐसे क़वानीन को, ख़ूबसूरत बना कर, उम्मत के सामने पेश कर रही हैं हालाँ कि ये अमल हराम है।
इसी तरह कोई ऐसी शर्त लगाना जो हलाल को हराम बनाए या हराम को हलाल, भी नाजायज़ है।
المسلمون علی شروطھم إلا شرطا
حرم حلالا أو أحل حراما (الترمذي(
मुसलमान अपनी (आपस की) शराइत पर पूरा उतरते हैं मासिवा कोई ऐसी शर्त जो हराम को
हलाल क़रार दे या हलाल को हराम
ख़ुलासा ये है कि ख़िताबे तकलीफ और ख़िता बे वज़ा की शराइत नुसूस से साबित होना लाज़िमी
है, जब कि शरई उक़ूद में ऐसा ज़रूरी नहीं, आक़िदीन जो चाहें शराइत लगा सकते हैं, फ़क़त ये किसी शरई नस के ख़िलाफ़ ना हो।
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