इंतिज़ामी इदारे (Administration)

रियासत के मुआमलात और जनता के हित के इंतिज़ाम विभिन्न विभागों और इदारों के ज़िम्मे होते हैं जो इन कामों को बख़ूबी अंजाम देते हैं। एक ही तरह के काम के लिए एक मुदीरे आम (Director General) होता है और इसके तहत विभिन्न कामों के लिए अलैहदा इदारे होते हैं जिनका एक मुदीर (Director) होता है जो इस काम का सीधे तौर पर पर ज़िम्मेदार होता है। ऐसे तमाम मुदरा (Directors) एक आला अफ़्सर को अपने काम के एतबार से जवाबदेह होते हैं जिसके सपुर्द उस नौईयत (श्रेणी) के काम हों, और साथ ही वाली और आमिल के सामने भी अहकाम और आम निज़ाम के तक़य्युद के लिहाज़ से जवाबदेह होते हैं।

हुज़ूरे अकरम  صلى الله عليه وسلم बज़ाते ख़ुद मुआमलात का एहतिमाम फ़रमाते और इदारों के लिए आफ़िसरान मुक़र्रर फ़रमाते थे। मदीना मुनव्वरा में आप  صلى الله عليه وسلم अवामी मुआमलात की निगरानी फ़रमाते, उनकी मुश्किलात का निवारण करते और उनके आपसी ताल्लुक़ात को संघठित किया करते थे। आप  صلى الله عليه وسلم अवाम की ज़रूरीयात का इंतिज़ाम फ़रमाते और उन्हें वो बातें बताते जो उनके हक़ में बेहतर होतीं। ये तमाम वो इंतिज़ामी मुआमलात हुए जो लोगों की ज़िंदगी को बगै़र किसी रुकावट और मुश्किलात के आसान बनाती है।

चुनांचे तालीम के मुआमले में आप  صلى الله عليه وسلم ने क़ुरैश के हर एक क़ैदी से दस दस मुसलमानों को तालीम दिलवाई, जबकि क़ैदीयों का फ़िदया मवेशी होते हैं जो मुसलमानों की मिल्कियत होती। लिहाज़ा तालीम का उपलब्ध करना मुसलमानों के हितों का प्रबन्धन करना हुआ।

और यही मुआमला चिकित्सा का हुआ, हुज़ूर नबी करीम  صلى الله عليه وسلم की ख़िदमत में एक तबीब (doctor) पेश किया गया था जिसे आप  صلى الله عليه وسلم  ने तमाम मुसलमानों के लिए आम फ़रमा दिया, यानी एक हदया आप को पेश किया गया जिसको आप ने अपने अधिकार में ना रखते हुए तमाम मुसलमानों के हितों  के लिए रखा, लिहाज़ा ततबीब (Medical Care ) के जनहित में होने के लिए ये दलील ठहरी।

इसी तरह रोज़गार के मुआमले में एक शख़्स को हिदायत दी कि वो पहले रस्सी ख़रीदे और फिर कुल्हाड़ी, और लक्कड़ी काट कर लाए और बेचे लेकिन लोगों से सवाल ना करे, कि कोई दे देता है और कोई छिड़क देता है। चुनांचे लोगों के रोज़गार के काम भी जनहित का काम हुआ, चुनांचे मुसनद अहमद और तिरमिज़ी में रिवायत नक़ल है जिसे इमाम तिरमिज़ी رحمت اللہ علیہ ने हसन बताया है कहा कि एक शख़्स जो अंसार से था आप  صلى الله عليه وسلم के पास आया और सदक़े के बारे में सवाल किया। इस पर आप  صلى الله عليه وسلم ने पूछा कि “क्या तुम्हारे घर में कुछ है? उस शख़्स ने जवाब दिया “हाँ”, आप ने फ़रमाया कि “वो मुझे ला दो”। आप  صلى الله عليه وسلم ने उन चीज़ों को अपने हाथ में लिया और लोगों से पूछा कि “इन्हें कौन ख़रीदेगा?” एक शख़्स ने पेशकश की कि मैं ये दोनों चीज़ें दो दिरहम के बदले ख़रीदता हूँ। आप ने वो चीज़े उस शख़्स को सौंप दी और दो दिरहम लेकर उस अंसारी को दिए और फ़रमाया कि इनमें से एक दिरहम अपने घर वालों को दे दो और दूसरा दिरहम कुल्हाड़ी ख़रीद लाओ, फिर आप  صلى الله عليه وسلم ने अपने दस्ते मुबारक से इस पर दस्ता लगाया और उस शख़्स से फ़रमाया कि जा कर लकड़ियां काटो और फ़रोख़त करो और पंद्रह दिन तक ना आना, उस ने ऐसा ही किया और जब वो आया तो उसके पास दस दिरहम जमा थे। और बुख़ारी शरीफ़ में हदीस नक़ल की है कि एक शख़्स के लिए ये बेहतर है कि वो रस्सी ले और लकड़ियां बांध कर अपनी पीठ पर लाद कर लाए और बेचे और सवाल करने से बाज़ रहे, ये लोगों से मांगने से बेहतर है कि कोई दे देता है और कोई मना करदेता है।

इसी तरह रास्तों का मुआमला है, हुज़ूर नबी करीम  صلى الله عليه وسلم  ने अपने दौर में रास्तों को मुनज़्ज़म (व्यवस्थित) किया और ये हुक्म दिया कि अगर इस मुआमले में कोई झगडा हो जाये तो रास्तों की चौड़ाई सात हाथ के बराबर रखी जाये। बुख़ारी शरीफ़ में हज़रत अबु हुरैरह से रिवायत नक़ल है:

((قضی النبیا إذا تشاجروافی الطریق المیتاء سبعۃ أذرع))
हुज़ूरे अकरम  صلى الله عليه وسلم ने हुक्म दिया कि जब रास्तों के मुआमले में झगडा हो तो उनकी चौड़ाई सात हाथ के बराबर कर दो।
मुस्लिम शरीफ़ की रिवायत में ये अल्फाज़ हैं:

((إذا اختلفتم فی الطریق جعل عرضہ سبعۃ أذرع))
अगर तुम्हारे बीच रास्तों के मुआमले में मतभेद हो तो उनकी चौड़ाई सात हाथ कर दो।

ये उस ज़माने के एतबार से मुआमलात का एहतिमाम (प्रबन्धन) था और अगर ज़रूरत इससे ज़्यादा की हो, तो फिर ज़रूरत के मुताबिक़ किया जाये जैसा कि इमाम शाफ़ई رحمت اللہ علیہ का मज़हब है।

हुज़ूरे अकरम صلى الله عليه وسلم ने रास्तों के मुआमले में झगडे से मना फ़रमाया, तिबरानी رحمت اللہ علیہ ने जामि अलसग़ीर में नक़ल किया है:

((من أخذ من الطریق شبراً طوقہ اللّٰہ یوم القیامۃ بسبع أرضین))

जो शख़्स रास्ते की ज़मीन से एक बालिशत भर भी हड़प ले, अल्लाह (سبحانه وتعال) क़यामत के दिन उसकी गर्दन में सात ज़मीनों के बराबर तौक़ डाल देंगे।

जनता की मुश्किलात और समस्याओं की इदारी तंज़ीम बहुत आसानी से फ़रमाते और इस में कुछ सहाबाऐ किराम رضی اللہ عنھم की मदद भी हाँसिल करते थे। जनता के हित एक संस्था के तहत व्यवस्थित होंगे जो ख़लीफ़ा या इसके ज़रीये मुक़र्रर करदा मुदीर की जे़रे निगरानी होगा जो उन आमाल की अंजाम देही में योग्यता रखता हो। अब चूँकि जनहित निहायत विस्तृत श्रेणी के हो चुके हैं और उनकी तादाद भी बहुत बढ़ चुकी है लिहाज़ा ख़लीफ़ा की ज़िम्मेदारीयों के बोझ में कमी करने के लिए हमने ये तबन्नी की है कि जनहित की देखभाल के लिए रियासत में ऐसा इदारा या विभाग हो जिससे रियाया की ज़िंदगी में सहूलयात बगै़र किसी अड़चन और देरी के उपलब्ध कराई जाएं और ज़रूरी हाजात पूरे किये जाएं।

ये इदारा विभिन्न विभागों, प्रबन्ध विभाग और उनकी क़िस्मों पर अधारित हो, यहां विभाग से तात्पर्य किसी भी ख़ास हित की उच्य संस्था से है जैसे शहरीयत, संचार व्यवस्था (Communication), परीवहन (transportation), सिक्को की ढुलाई (money coinage) , तालीम, सेहत, कृषि, रोज़गार और सड़कें वग़ैरा विभिन्न जनहित के लिए विभाग हैं। इनमें से हर एक विभाग अपने ख़ास काम का और अपने अंतर्गत आने वाले विभाग और उनकी क़िस्मों का निगरां हो। फिर हर विभाग का एक एक शोबा (Section) अपने शोबे, और अपने अंतर्गत आने वाली क़िस्मों पर निगरां हो और हर एक क़िस्म अपने ख़ास काम और अपने अंतर्गत आने वाली शाख़ों पर निगरां हो।
इन तमाम विभागों, शोबों और क़िस्मों की स्थापना का मक़सद जनहित और रियासत के मुआमलात के लिये तैयार रहना है। इन विभागों और शोबों की कारकर्दगी के लिए उनके ज़िम्मेदारान हों लिहाज़ा इनमें हर एक हित के विभाग के लिए एक मुदीरे आम (Director General) हो जो उस ख़ास विभाग के काम का सीधे तौर पर पर निगरां हो और अपने विभाग के अंतर्गत आने वाले तमाम शोबों और क़िस्मों का अफसरे आला हो। इसी तरह हर एक शोबा और क़िस्म के लिए मुदरा हों जो अपने अपने शोबे के और अपने अंतर्गत आने वाली शाख़ों के निगरां हों।

इंतिज़ामी इदारे एक शैली के अंतर्गत आते हैं, हाकिम नहीं होते:

इंतिज़ामी इदारे कार्यों की अंजाम दही के लिए शैली (Style) या वसीला होते हैं। उनके लिए किसी ख़ास दलील की ज़रूरत नहीं बल्कि उनके वजूद के लिए आम दलील काफ़ी है। ये नहीं कहा जा सकता कि ये इंसानों के काम हैं चुनांचे उन्हें ख़ास अहकामे शरई के अधीन होना चाहीए क्योंकि उनके लिए शरई दलील आम श्रेणी की है। इस में वो तमाम कार्य शामिल हैं जो असल काम की शाख़ें हैं, अलबत्ता अगर कोई ऐसी दलील हो जो इनमें से किसी पर ख़ास तौर पर लागू होती हो, तो फिर वो काम उस ख़ास दलील के अंतर्गत आएगा। जैसेकि अल्लाह (سبحانه وتعال) का हुक्म है:

وَءَاتَوُاْ ٱلزَّڪَوٰةَ
और ज़कात दें (तर्जुमा माअनीये क़ुरआन: अत्तौबा-11)

ये आयत ज़कात के लिए आम दलील है, जबकि इससे मुताल्लिक़ तफ़सीली अहकाम की दलील, जैसेकि ज़कात की संख्या, ज़कात जमा करने वाले आमिलीन, जिन चीज़ों पर ज़कात वसूल की जाती है वग़ैरा असल ज़कात की तफ़सील हैं जिनकी दलील अलग से नहीं बल्कि उसी आयत के अंतर्गत आई है। ये नहीं बताया गया कि ये ज़कात किस तरह जमा की जाये, ज़कात जमा करने वाले ज़कात लेने पैदल जाएं या सवारी पर, वो अपनी मदद के लिए और लोगों की ख़िदमात लें या ना लें, वो इनका हिसाब ख़ास रजिस्टरों में करें या ना करें, इस काम के लिए अलैहदा दफ़्तर हो जिसमें ज़कात जमा करने वाले साथ बैठें या नहीं, वो इस माल को जमा करने के लिए एक ख़ास गोदाम (Warehouse) रखें या ना रखें, ये गोदाम ज़मीन के अन्दर हों या खलीहानों की तरह, या ज़कात थैलों में जमा की जाये या सन्दूकों में। ये तमाम काम एक ही असल काम की प्रयायवाची शाख़ें हैं जो इस आयत के अंतर्गत आती है और इन तमाम कामों की दलील ऐसी आम दलील के अंतर्गत आती है। यही मिसाल तमाम कामों की है जो हुकूमती इंतिज़ाम के अंतर्गत आते हैं। लिहाज़ा असालीब (Styles) इसी असल काम की विभिन्न शाख़ें हैं और उनकी दलील इसी असल काम की दलील के अंतर्गत आती है और तमाम असालीब पर लागू होती है।

लिहाज़ा इंतिज़ामी असालीब का किसी भी दूसरे निज़ाम से अख़ज़ (प्राप्त) करना जायज़ होगा सिवाऐ उस वक़्त जब ऐसे असालीब के को अख़ज़ करने के लिए कोई ख़ास नस मौजूद हो। इसके अलावा इंतिज़ामी मुआमलात में सहूलियत और जनता के हितों की निगरानी की बेहतरी के लिए असालीब अख़ज़ किए जा सकते हैं, क्योंकि दरअसल ये असालीब ऐसे अहकाम नहीं जिनके लिए शरई दलील ज़रूरी हो। चुनांचे हज़रत उमर رضي الله عنه ने जनसंपत्ति और सरकारी संपत्ति के अम्वाल (funds), फ़ौजीयों और जनता में तनख़्वाहें और सदक़ात बाँटने के लिए फ़ौजीयों और जनता का नामांकरण (nomination) कराया और इसके लिए दीवान (Register) का तरीक़ा अपनाया।

आबिद इब्ने यहया
, हारिस इब्ने नफ़ील से रिवायत करते हैं कि हज़रत उमर رضي الله عنه ने दीवान की स्थापना करने के लिए मुसलमानों से मश्वरा किया तो हज़रत अली رضي الله عنه ने मश्वरा दिया: साल भर में जिस क़दर माल आप के पास जमा होता है इस पूरे को बाँट दीजीए और इस में से कुछ ना बचा के रखिए। हज़रत उस्मान رضي الله عنه का मश्वरा था: मेरे ख़्याल से माल इतना है कि तमाम लोगों के लिए काफ़ी होगा, अगर हम ये हिसाब ना रखें कि किस को दिया गया और किसे नहीं मिला तो मुझे ख़ौफ़ है कि ये मुआमला हाथ से निकल जाएगा। अल वलीद इब्ने हिशाम इब्ने मुग़ीरह ने कहा: मै मुल्के शाम में था और मैंने वहाँ देखा कि वहाँ के बादशाह दीवान रखते हैं जिसमें फ़ौजीयों की गिनती होती है, चुनांचे उनके क़ौल के मुताबिक़ फिर दीवान तैयार हुआ जिसमें फ़ौजीयों के नाम और उनकी संख्या लिखी गई। हज़रत उमर رضي الله عنه ने हज़रत अक़ील इब्ने अबी तालिब, मख़रमा इब्ने नौफ़ल और जुबैर इब्ने मताम رضی اللہ عنھم को बुलाया जो क़ुरैश के मुआमलाते नसब के माहिर माने जाते थे और उनसे फ़रमाया :

’’اکتبوا الناس علی منازلھم‘‘
लोगों को घर घर के एतबार से इंदिराज  (नामांकित) करो।

जब इस्लाम ईराक़ आया तो महसूलात (taxes) और ख़र्चे के दीवान पहले ही की तरह चलते रहे। शाम में दीवान लातीनी (latin) ज़बान में था क्योंकि शाम पहले रोम का हिस्सा था और ईराक़ का दीवान फ़ारसी में था क्योंकि ईराक़ फ़ारस का हिस्सा था। अब्दुल मलिक इब्ने मरवान के दौर में यानी 81 हिजरी में शाम का दीवान अरबी में लिखा जाने लगा। फिर विभिन्न जरूरतों के लिए जैसी रियाया की ज़रूरत की माँग होती, कई दीवान मुरत्तब (सारणीबद्ध) किये गये। फ़ौज में सिपाहीयों के दाख़िले और उन्हें तनख़्वाहें तक़सीम करने के लिए दीवान मुरत्तब किये गये। तमाम कामों की तफ़सील और उन कामों के ख़र्च और हुक़ूक़ दर्ज करने के लिए अलग दीवान मुरत्तिब किए गए। इसी तरह वालियों और उम्माल (Amils) की नियुक्ति और बर्ख़ास्तगी को क़लम बन्द करने के लिए स्थाई रजिस्टर या दीवान जारी हुआ। बैतुल माल में आमदनी और इस में से विभिन्न मद्दों में होने वाले ख़र्चों को अलग अलग दीवान में लिखा गया, वग़ैरा। इस तरह दीवान ज़रूरत के हिसाब से हर काम के लिए अलग अलग बनाए गए और हर दौर में उनकी शक्ल ज़रूरत के मुताबिक़ बदलती रही।

लिहाज़ा दवावीन (Registers) जिस काम के लिए मुरत्तिब किए जा रहे हों उस काम की नौईयत (category) के एतबार से उनका ढंग अलग हो सकता है, ये उस्लूब (ढंग/style) हर ज़माने में भिन्न, या हर विलायत और हर शहर में भी भिन्न हो सकते हैं। रियासत के तमाम कर्मचारी एक तरफ़ तो शहरी होते हैं और दूसरी तरफ़ उनकी हैसियत तंख़्वाहदार कर्मचारी की होती है। कर्मचारी होने की हैसियत ये लोग अपने शोबे (Section) के अमीर को जवाबदेह हैं। और फिर बहैसीयत शहरी वो मुआविनीन या वालियों जैसे शासकों और ख़लीफ़ा को जवाबदेह हैं और अहकाम शरई और रियासत के इंतिज़ामी ढांचा के क़वानीन के पाबंद होते हैं।

इंतिज़ामी मुआमलात की पालिसी:

इंतिज़ामी मुआमलात की पालिसी, व्यवस्था के आसान होने या व्यवस्था को आसान रखने पर आधारित होती है। इस का लक्ष्य होता है कि तमाम काम बगै़र किसी ग़ैर ज़रूरी देरी या अड़चन (Red tape) के अंजाम पायें, और उन्हें अंजाम देने वाले इन कामों की योग्यता रखते हों। ये पालिसी इस बात से ली गई है कि जो शख़्स ये काम करवाने का तालिब है उसका उद्देश्य होता है कि ये काम जल्द और बख़ूबी पूरे हों। हुज़ूरे अकरम صلى الله عليه وسلم ने एक हदीस में फरमाया:

((إنَّ اللّٰہَ کَتَبَ الإحْسَان علی کل شیء، فإذا قتلتم فأحسنوا القتلۃ،وإذا ذبحتم فأحسنوا الذبح۔۔۔))

बेशक अल्लाह (سبحانه وتعال) ने हर काम में उम्दगी (perfection) और नफ़ासत (Excellence) को फ़र्ज़ क़रार दिया है, सौ अगर तुम क़त्ल करो तो इस में उम्दगी हो और अगर तुम ज़िबह करो तो इस में भी उम्दगी और नफ़ासत हो। (मुस्लिम शरीफ़: रावी शद्दाद इब्ने ओस)
लिहाज़ा हर काम में उम्दगी का शरीयत की तरफ़ से लिहाज़ रखा गया है। इंतिज़ामीया के कामों में उम्दगी को यक़ीनी बनाने के लिए तीन चीज़ें ज़रूरी होती हैं: व्यवस्था का आसान होना (Simplicity of System), मुआमलात का जल्द निबटारा होना क्योंकि इससे उस शख़्स को सहूलियत होती है जिसका काम मतलूब (desired) है, तीसरे जो लोग इस काम को अंजाम देने पर नियुक्त किये गये हों इनमें इस काम की योग्यता का होना। इसी योग्यता से काम में उम्दगी पैदा होती है और काम की अंजाम दही के लिए ये ज़रूरी भी है।

रियासत के इंतिज़ामीया में नौकरी के हक़दार कौन हैं:

हर वो शख़्स जो रियासत का शहरी है, जिसमें मुताल्लिक़ा काम की योग्यता है, चाहे वो मर्द हो या औरत, मुस्लिम हो या ग़ैर मुस्लिम उसे किसी भी इंतिज़ामी विभाग का मुदीर (Director) बनाया जा सकता है या उस विभाग में मुलाज़िम रखा जा सकता है।

इस तरह किसी को उजरत पर मुलाज़िम रखने की दलील मुतलक़ (Absolute) है इस में मुस्लिम या ग़ैर मुस्लिम होने की शर्त नहीं है।

अल्लाह (سبحانه وتعال) का क़ौल है:

فَإِنۡ أَرۡضَعۡنَ لَكُمۡ فَـَٔاتُوهُنَّ أُجُورَهُنَّ

और अगर वो तुम्हारी ख़ातिर दूध पिलाऐं, तो तुम उन्हें उनके मुआवज़े दो (तर्जुमा माअनीये क़ुरआन: अत्तलाक़-6)

चुनांचे इजारा या उजरत की दलील आम है, बुख़ारी शरीफ़ में हज़रत अबु हुरैरह رضي الله عنه से रिवायत है कि नबी  صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया:

((قال اللّٰہ تعالیٰ:ثلاثۃ أنا خصمھم یوم القیامۃ۔۔۔ و رجل استأجر أجیراً فاستوفی منہ

 ولم یعطہ أجرہ))
अल्लाह (سبحانه وتعال) ने फ़रमाया कि तीन क़िस्म के लोगों से क़यामत के दिन मेरी दुश्मनी होगी (इनमें एक) वो शख़्स है जो किसी को किसी काम के लिए उजरत पर रखे, इससे वो काम ले फिर उसे वो उजरत ना दे।

ये दलील भी आम है। हुज़ूरे अकरम صلى الله عليه وسلم ने एक बार बनी अल दील के एक शख़्स को जो ग़ैर मुस्लिम था, उजरत पर रखा था। इससे भी किसी ग़ैर मुस्लिम को उजरत पर मुलाज़िम रखने की दलील मिलती है। इसी तरह औरत को उजरत पर रखने की भी इजाज़त इसी दलील की आम नौईयत (category) से प्राप्त होती है। चुनांचे वो किसी विभाग या दफ़्तर की मुदीर हो सकती है या इस में मुलाज़िम हो सकती है। इसी तरह एक ग़ैर मुस्लिम किसी विभाग या दफ़्तर में मुदीर या मुलाज़िम हो सकता है क्योंकि ये उजरत या इजारा का मुआमला है और उसकी दलील आम नौईयत की है।


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