सिला रहमी (क़रीबी रिश्तेदारों) के मुताल्लिक़ बेहतर सुलूक करने का हुक्म

अल्लाह (سبحانه وتعال) ने जाहिली असबीयत (भेदभाव) से मना फ़रमाया कि क़बाइली या ख़ानदानी असबीयत उम्मते इस्लामीया के बेटों के बीच सम्बन्ध की बुनियाद ना बने और ना ही उस की बुनियाद पर मुसलमानों के मुआमलात तय हों हालाँकि इसके साथ मुसलमानों को ये हुक्म दिया कि वो अपने क़रीबी रिश्तेदारों से बेहतर सम्बन्ध रखें और उनके साथ नरम रवैय्या का सुलूक करें। हाकिम (رحمت اللہ علیہ) और इब्ने हब्बान  (رحمت اللہ علیہ) ने तारिक़ुल महारबी से नक़ल किया है कि आँहज़रत (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया:

))أمک وأباک وأختک وأخاک، ثم أدناک أدناک((
तुम्हारी माँ, तुम्हारा बाप, तुम्हारे भाई बहन और फिर उन के नीचे वाले।

हज़रत अस्मा बिंते अबु बक्र (رضي الله عنها) से मर्वी है कि वो फ़रमाती हैं:

))أتتني أمي وھي مشرکۃ في عھد قریش ومدتھم إذ عاھدوا النبي مع ابنھا فاستفتیت النبي ا وھي راغبۃ۔ قال:نعم صلي أمک)متفقٌ علیہ((

मेरी वालिदा जो एक मुशरिका थीं मुझसे उन दिनों मिलने आईं जब हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) का क़ुरैश से मुआहिदा हो चुका था और वो मुझ से अच्छे सुलूक की उम्मीद करती थीं। मैं हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) से पूंछने आई कि उनसे मेरा क्या सुलूक हो? आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया: हाँ उनसे ख़ुश सुलूकी करो।(बुख़ारी और मुस्लिम शरीफ़)

इस्लाम ने अज़ीज़ और क़रीबी रिश्तेदारों को दो हिस्सों में बाँटा है: एक वो क़रीबी रिश्तेदारो जिन से मौत के बाद विरासत में हिस्सा होता है और दूसरे माँ की तरफ के क़रीबी रिश्तेदारों यानी ऊलुल अरहाम । पहली क़िस्म में जिनसे विरासत का ताल्लुक़ होता है उनमें अस्हाबे अलफिरोज़ यानी वो रिश्तेदार जिनका विरासत में हिस्सा हो और अस्बात यानी वालिद की तरफ के रिश्तेदार होते हैं। ऊलुल अरहाम यानी माँ की तरफ से आज़ा उन से भिन्न होते हैं कि इनका विरसे में हिस्सा नहीं होता और ना ही वो असबात में से होते हैं। इनमें दस असनाफ होती हैं: मामू, ख़ाला, नाना, नवासा, भांजा, भतीजी, चचाज़ाद बहन, फूफी, वालिदा के चचा और मामू ज़ाद भाई और जो कोई इनमें से हो। इन रिश्तों का किसी की मीरास में हिस्सा नहीं होता जबकि तमाम क़रीबी रिश्तेदारों (रिश्तेदारों) से सिला रहमी और ख़ुश सुलूकी की ताकीद की है। इब्ने हब्बान (رحمت اللہ علیہ) और इब्ने खुज़ैमा (رحمت اللہ علیہ) ने हज़रत जाबिर (رضي الله عنه) से नक़ल किया है कि हुज़ूर अक़दस (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया:

))إذا کان أحدکم فقیراً فلیبدأ بنفسہ فإن کان لہ فضل فعلی عیالہ فإن فضل فعلی قرابتہ((
अगर तुम में से कोई शख़्स मुफ़लिस (ग़रीब) हो तो वो (अपना माल) ख़ुद पर ही ख़र्च करे और अगर उसके पास माल ज़्यादा हो तो वो अपने घरवालों पर ख़र्च करे और अगर फिर भी उसके पास माल हो तो वो अपने क़रीबी रिश्तेदारों पर ख़र्च करे।

बुख़ारी शरीफ़ में हज़रत अबु अय्यूब अंसारी (رضي الله عنه) से नक़ल किया है कि एक शख़्स ने हुज़ूर अक़दस (صلى الله عليه وسلم) से कहा: ऐ अल्लाह के रसूल मुझे ऐसा कोई अमल बता दीजिए जिसके सबब मैं जन्नत में दाख़िल हो जाऊं तो लोगों ने कहा कि इस शख़्स को क्या हो गया है, इस शख़्स को क्या हो गया है। हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया कि ये कुछ पूछना चाहता है। फिर फ़रमाया:

))تعبد اللّٰہ لا تشرک بہٖ شیئاً و تقیم الصلاۃ و تؤتي الزکاۃ وتصل الرحم((

अल्लाह (سبحانه وتعال) की बंदगी करो। सलात (नमाज़)  क़ायम करो, ज़कात अदा करो और अपने क़रीबी रिश्तेदारों से सिला रहमी करो।


चुनांचे क़रीबी रिश्तेदारों से सिला रहमी का हुक्म दिया गया जबकि इस हदीस में और इस विषय पर दूसरी अहादीस में ये तय नहीं किया गया कि क्या सिला रहमी में सिर्फ़ ऊलुल अरहाम ही दाख़िल होंगे या हर वो शख़्स जिससे रिश्ता है। बहरहाल इन अहादीस के आम होने से ज़ाहिर होता है कि इस हुक्म में तमाम क़रीबी रिश्तेदारों दाख़िल हैं चाहे वो ऊलुल अरहाम में से हों, महरम रिश्तेदार हों, ग़ैर महरम रिश्तेदार हों, वालिद की तरफ़ से हों या वालिदा की तरफ से, इन सब पर उसी ख़ुश सुलूकी का इतलाक़ होता है। सिला रहमी के ताल्लुक़ से कईं अहादीस आई हैं चुनांचे मुस्लिम शरीफ़ में हज़रत मुतइम बिन जबीर (رضي الله عنه) से रिवायत है कि हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया:

))لا یدخل الجَنَّۃ قاطع رحم((
ख़ून का रिश्ता तोड़ने वाला जन्नत में दाख़िल नहीं होगा।

बुख़ारी और मुस्लिम शरीफ़ में हज़रत अनस बिन मालिक (رضي الله عنه) से मर्वी है कि हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया:

))من أحب أن یبسط في رزقہ و ینسأ لہ في أثرہ فلیصل رحمہ((
जो शख़्स ये ख्वाहिश रखता हो कि उसके रिज़्क में कुशादगी हो और उस की उम्र बढ़ा दी जाये तो चाहीए कि वो सिला रहमी करे।

हज़रत अबु हुरैरा (رضي الله عنه) से बुख़ारी और मुस्लिम शरीफ़ में रिवायत है। यहाँ बुख़ारी शरीफ़ के अल्फाज़ हैं कि हुज़ूर अक़दस (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया:

))اِنَّ اللّٰہَ خَلَقَ الخَلْقَ حتی إذا فَرَغَ مِن خلقہٖ قالت الرَّحمُ ھَذَا مَقَامُ العائذِ بک مِن القطیعۃ قال نعم أَما ترضینَ أَن أَصلَ مَن وَصَلَکِ وَأَقْطَعَ مَنْ قَطَعَکِ قالتْ بَلَی یا رَبِّ قالَ فَھُوَ لَکِ قال رسول اللّٰہِ صلی اللّٰہ علیہ وسلم فاقْرَءُ وا إِن شِئتُمْ فَھَل عَسَیتُمْ إِن تَوَلَّیتُمْ أَن تُفسدوا فِي الأَرْضِ وَتَقَطّعُوا أَرْحَامَکُمْ((

अल्लाह (سبحانه وتعال) ने मख़लूक़ को पैदा फ़रमाया और जब ये काम कर चुका तो रहमे मादर (माँ की कोख) ने उठ कर कहा कि ऐ अल्लाह! मैं उस शख़्स से तेरी पनाह चाहती हूँ जो मुझ से रिश्ता तोड़े। अल्लाह (سبحانه وتعال) ने फ़रमाया: क्या तुझे ये पसंद नहीं कि मेरा इनाम उस शख़्स पर हो जो तुझ से रिश्ता जोड़े रहे और उस शख़्स से अपना इनाम रोक लूं जो तुझ से रिश्ता तोड़े? कोख ने कहा कि ये ठीक है। अल्लाह (سبحانه وتعال) ने फ़रमाया कि बस यही तेरे लिए है और अगर तू चाहे तो ये पढ़:

فَهَلۡ عَسَيۡتُمۡ إِن تَوَلَّيۡتُمۡ أَن تُفۡسِدُواْ فِى ٱلۡأَرۡضِ وَتُقَطِّعُوٓاْ أَرۡحَامَكُمۡ
अगर तुम उल्टे फिर गए तो क्या तुम इस से क़रीब हो कि ज़मीन में फ़साद बरपा करो और अपने रहमी रिश्तों को काट डालो? (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन : मुहम्मद 22)

हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (رضي الله عنه) से बुख़ारी में मर्वी है कि हुज़ूर अक़दस (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया:

))لیس الواصل بالمکافء، ولکن الواصل الَّذي إذا قطعت رحمہ وصلھا((
वासिल,यानी रिश्ता जोड़ कर रखने वाला वो नहीं है जो अपने क़रीबी रिश्तेदारों की भलाइयों का सिर्फ सिला देता है बल्कि वासिल वो है जो रिश्ता टूट जाने पर उसे फिर जोड़े।

ये तमाम अहादीस सिला रहमी पर ज़ोर देती हैं। अल्लाह (سبحانه وتعال) ने अज़ीज़-ओ-क़रीबी रिश्तेदारों से रिश्ता क़ायम रखने के हुक्म से इशारा मिलता है कि मुसलमानों की जमाअत में मुहब्बत व क़ुर्बानी किस क़दर अहम है और उन के बीच आपसी सहयोग कैसा होना चाहीए और ये कि शरीयत ने मर्द और औरत के ताल्लुक़ को संघठित करने और इस ताल्लुक़ से पैदा होने वाले रिश्तों और दूसरे छुपे हुऐ रिश्तों को पैदा करने कितना ज़ोर दिया है।लिहाज़ा शरीअते इस्लामी ने समाज के इज्तिमाई पहलू से जो अहकाम जारी किए हैं यही इंसानियत के लिए बेहतरीन इज्तिमाई निज़ाम है।

  
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