हज़रत अबू बक्र (رضي الله عنه)
हज़रत उमर (رضي الله عنه)
(2.) शाम (Syria) व मिस्र (Egypt) की फ़तह
शाम व मिस्र की फ़तह के लिए मुसलमानों ने जो कारनामे अंजाम दिए वे ईरान की फ़तह से कम नहीं थे। रूम की सल्तनत दुनिया की शक्तिशाली सल्तनतों में गिनी जाती थी और रूम का हुक्मरॉं हिरक़्ल (Heraclius) शायद अपने दौर का सबसे बडा़ सिपहसालार था।
यरमूक की जंग क़ादिसिया की तरह निर्णायक साबित हुई। इसमें सत्तर हज़ार से लेकर एक लाख तक रूमी काम आए जबकि इसके मुक़ाबले में सिर्फ तीन हजार मुसलमान शहीद हुए। यह जंग हज़रत ख़ालिद बिन वलीद (رضي الله عنه) की हैरत-अंगेज़ फ़ौजी सलाहियत का सबूत है जो इराक़ की शुरूआती जीतों के बाद हज़रत अबू बक्र (رضي الله عنه) के हुक्म से शाम (सीरिया) आ गए थे और यहॉ इस्लामी फ़ौज की कमान संभाल ली थी। जब क़ैसर-रूम हिरक़्ल को यरमूक के मैदान में रूमियों के पराजय की ख़बर मिली तो वह बडी़ हसरत और अफ़सोस के साथ शाम (सीरिया) को अलविदा कहकर क़ुस्तनतीनिया (Istanbul) चला गया।
हज़रत अम्र बिन आस (رضي الله عنه) ने कुछ समय बाद पश्चिम में 'बरक़ा' (Cyrenaica) और 'तराबुलुस' (Tripoli) को भी इस्लामी ख़िलाफ़त की सीमा में शामिल कर लिया। यह वह इलाक़ा है जो आजकल 'लीबिया' कहलाता है।
हज़रत उमर (رضي الله عنه) का ज़माना सिर्फ जंग की कामयाबियों के कारण मशहूर नहीं है, बल्कि न्याय, इन्साफ़, प्रजा-पालन और शासन-व्यवस्था की ख़ूबियों के कारण भी मशहूर है। हज़रत उमर (رضي الله عنه) के अहद में पहली बार विभिन्न प्रशासन-विभाग क़ायम किए गए और सरकारी आमदनी व ख़र्च का बाक़ायदा हिसाब तैयार किया गया। ये विभाग 'दीवान' कहलाते थे। प्रशासन-व्यवस्था के सिलसिले में हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने जो क़दम उठाए और सुधार किए, उन्हें इस्लामी इतिहास में हज़रत उमर (رضي الله عنه) की 'अव्वलियात' (प्राथमिकताऍ) कहा जाता है, यानी वे काम जो सबसे पहले हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने किए। (1.) सल्तनत को सूबों (प्रांतों) में बाँटा। (2.) फ़ौजी विभाग क़ायम किया। (3.) वित्त विभाग क़ायम किया। (4.) पुलिस विभाग क़ायम किया जिसे 'अहदास' कहा जाता था। (5.) अदालतें क़ायम कीं। (6.) बैतुलमाल क़ायम किया। (7.) ज़मीन का माप करवाया। (8.) जनगणना करवाई। (9.) जेल क़ायम की। (10.) ख़बरें हासिल करने के लिए पर्चानवीस मुक़र्रर किए। (11.) फ़ौजी छावनियॉं क़ायम कीं। (12.) इमामों और मुअज्जिनों की तनख़्वाहें मुक़र्रर कीं। (13.) मकतब और मदरसे क़ायम किए और उस्तादों की तनख़्वाहें मुक़र्रर कीं। (14.) मक्का और मदीना के बीच चौकियॉं क़ायम कीं और सराऍं बनवाई।
हज़रत उमर (رضي الله عنه) के इन सुधारों के बाद इस्लामी ख़िलाफ़त जो पहले ही क्षेत्रफल के एतबार से दुनिया की एक बडी़ सल्तनत बन चुकी थी, व्यवस्था और प्रशासनिक ढॉंचे के लिहाज़ से भी अपने दौर की एक निहायत संगठित और व्यवस्थित हुकूमत में बदल गई। हज़रत उमर (رضي الله عنه) का एक और बडा़ कारनामा यह है कि उन्होंने अपने शासनकाल में तमाम मुसलमानों के वज़ीफ़े मुक़र्रर कर दिए थे और वे इसे अपनी पूरी सल्तनत में फैला देना चाहते थे। इस बात को आप इतना महत्व देते थे कि बच्चे के पैदा होते ही उसका वज़ीफ़ा मुक़र्रर कर देते थे। वज़ीफ़ों का यह प्रबन्ध दुनिया में पहली बार किया गया और इस प्रकार पहली बार एक ऐसा राज्य वजूद में आया जो 'रफ़ाही राज्य' (Welfare) कहा जाता है और जिसमें हुकूमत जनता की बुनियादी ज़रूरतों की पूर्ति की जिम्मेदार होती है।
हज़रत उमर (رضي الله عنه) भी हज़रत अबू बक्र (رضي الله عنه) की तरह 'बैतुल-माल' का रुपया अपने ऊपर ख़र्च नहीं करते थे1 वह 'बैतुल-माल' को जनता की अमानत समझते थे। इसलिए उन्होंने अपनी तनख़्वाह मुक़र्रर कर ली थी और यह तनख़्वाह उतनी ही थी जो आम मुसलमानों की थी।
हिजरी-सन् जो इस्लामी दुनिया में राइज़ है हज़रत उमर (رضي الله عنه) का क़ायम किया हुआ है। हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने अपने शासनकाल में तीन शहर बसाए। उनके नाम कूफ़ा, बसरा और फिसतात हैं। बाद में यह तीनों शहर इस्लामी दुनिया के बहुत बडे़ शहर बन गए।
हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने कृषि के विकास के लिए नहरें खुदवाई और प्रशासन-व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए कई विभाग और कार्यालय खोले। जंगों की जीत, शासन-व्यवस्था, दूरदर्शिता, न्याय, प्रजा की भलाई और हुक्मरान की हैसियत से अपनी ज़िम्मेदारी (उत्तरदायित्व) के अहसास हज़रत उमर (رضي الله عنه) के वे कारनामे और ख़ूबियॉं हैं जिनकी मिसाल दुनिया का कोई दूसरा हुक्मरान पेश नहीं कर सकता।
हज़रत उसमान (رضي الله عنه)
हज़रत उसमान (رضي الله عنه) भी उन सहाबियों में हैं जो शुरू में इस्लाम ले आए थे। हज़रत उसमान (رضي الله عنه) तिजारत करते थे और उनकी गिनती धनवान लोगों में होती थी। उनके ज़माने में भी कई जंगों में विजय हासिल हुई और इस्लामी हुकूमत पहले से भी ज़्यादा बडी़ हो गई। पूरब में ग़जनी और काबुल तक का इलाक़ा मुसलमानों के क़ब्जे़ में आ गया और पश्चिम में तूनिस (Tunis) पर, जो उस ज़माने में अफ्रीक़ा कहलाता था, मुसलमानों का क़ब्ज़ा हो गया। एशियाए कोचक में भी फ़तह हासिल हुई।
हज़रत उसमान (رضي الله عنه) के काल का एक बडा़ कारनामा जल सेना की स्थापना है। अब तक मुसलमानों ने तमाम लडा़इयॉं जमीन पर लडी़ थीं और समुद्री युद्ध से बिलकुल नावाकिफ़ थे। हज़रत उसमान (رضي الله عنه) के ज़माने में मुसलमानों ने पहली बार समुद्री बेडा़ तैयार किया।
हज़रत उसमान (رضي الله عنه) के ज़माने में जनता की सुविधा के लिए सड़कें, पुल और मुसाफिरखाने बनाए गए। उन्होंने मसजिदों में तनख़्वाहदार मुअज़्ज़िन (अज़ान पुकारने वाला) रखे। मसजिदे नबवी को पुन: बनवाया और उसे ज़्यादा बडा़ और शानदार बनाया। हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने लोगों के जो वज़ीफ़े मुक़र्रर किए थे, उन्हें जारी रखा। उनके ज़माने में भी हज़रत उमर (رضي الله عنه) के ज़माने जैसी ख़ुशहाली रही। हज़रत उसमान (रज़ि0) का एक और अहम कारनामा मुसलमानों को क़ुरआन को एक तरीक़े से पढ़ने पर सहमत करना है।
हज़रत अली (رضي الله عنه)
हज़रत अली (رضي الله عنه) की ख़िलाफ़त बडी़ मुश्किल और पेचीदा परिस्थितियों में शुरू हुई। हज़रत अली (رضي الله عنه) ने तक़रीबन चार साल ख़िलाफ़त की। शाम और मिस्र के अलावा बाक़ी तमाम सल्तनत उनके क़ब्जे़ में थी। चूँकि उनका ज़माना ज़्यादातर ख़ानाजंगी में गुज़रा इसलिए कोई नया मुल्क फ़तह नहीं किया गया। हज़रत अली (رضي الله عنه) की शासन-व्यवस्था बहुत हद तक हज़रत उमर (رضي الله عنه) जैसी थी। उनकी ज़िन्दगी भी उन्हीं की तरह सादा थी। फ़ैसला करते समय वे बडे से बडे आदमी की, यहॉं तक कि अपने रिश्तेदारों की भी रियायत नहीं करते थे। वे ख़ुद को आम जनता के बराबर समझते थे और हमेशा जवाबदेही के लिए तैयार रहते थे। हज़रत अली (رضي الله عنه) ने अपने बाद किसी को जानशीन (उत्तराधिकारी) मुक़र्रर नहीं किया।
आर्थिक न्याय
आर्थिक न्याय भी इन्सानी समाज की बुनियादी ज़रूरत है और ख़िलाफ़ते राशिदा में इस पर पूरी तवज्जोह दी गई। बैतुलमाल की रक़म क़ौम की अमानत समझी जाती थी। ख़लीफ़ा इस रक़म को न अपने आप पर ख़र्च करते थे और न अपने रिश्तेदारों पर। ख़लीफ़ा के अपने ख़र्चे के लिए उनकी तनख़्वाहें मुक़र्रर होती थी और यदि उन्हें कभी तनख़्वाह के अलावा पैसे की ज़रूरत होती थी तो वह उसे लेने से पहले अवाम से इजाज़त लेते थे। हज़रत उसमान (رضي الله عنه) चूँकि दौलतमंद थे, इसलिए वह बैतुलमाल से कोई तनख़्वाह नहीं लेते थे। बैतुलमाल को जिस प्रकार ख़लीफ़ा ने क़ौम की अमानत समझा और इस सम्बन्ध में जिस ज़िम्मेदारी के अहसास का सबूत दिया उसकी मिसाल दुनिया के इतिहास में नही मिलता।
जंगों में जिहाद की रूह
इस्लाम में जंग सिर्फ ख़ुदा की राह में जायज़ है और इसीलिए इस्लामी जंग को 'जिहाद फ़ी सबीलिल्लाह' कहा जाता है। मुसलमानों का तरीक़ा था कि लडा़ई शुरू करने से पहले दुश्मन को इस्लाम की दावत देते थे और जब वह इन्कार कर देता तो इस्लामी रियासत का आज्ञापालक बनने को कहते थे और जंग तभी शुरू करते थे जब दुश्मन इन दो बातों को रद्द कर देता था। यह दुनिया की तारीख़ में बिल्कुल नई चीज़ थी और इसने जंग को प्रसिद्धि, सामाज्य विस्तार और दूसरों को दास बनाने का ज़रिया बनाने के बजाय सुधार का ज़रिया बना दिया था। यही कारण है कि जब जंग का सिलसिला शुरू हुआ तो लोगों ने देखा कि मुसलमानों को इन लडा़इयों में लूट-खसोट, बर्बरता, ज़ुल्म और अत्याचार नज़र नहीं आता जो जंग के साथ अनिवार्य समझा जाता है।
शाम (सीरिया) पर चढा़ई के लिए जब पहला लश्कर मदीना से रवाना हुआ तो हज़रत अबू बक्र (رضي الله عنه) ने जो इस हिदायतें दीं वे जंगों की तारीख में 'मील का पत्थर' की हैसियत रखती हैं। आपने हिदायत की कि किसी औरत, बूढे़ और बच्चे का क़त्ल न किया जाए, फलदार पेडो़ं को न काटा जाए, आबाद जगह वीरान न की जाए, नख़लिस्तान (मरूद्यान) न जलाए जाए और ईसाई पादरियों को क़त्ल न किया जाए। ये हिदायतें एक बार नहीं बार-बार दी गई और इन पर पूरी तरह अमल भी किया गया।
ख़िलाफ़ते राशिदा में जंगों की जीत न सिकन्दर की जीतों से कम थी और न रूमियों और हूणों की जीतों से। लेकिन इसके बाद भी ख़िलाफ़ते राशिदा की जीतें इतनी शान्ति पूर्ण थी कि उन्हें जंगों की बजाय लूटेरो के खिलाफ़ पुलिस की कार्यवाही क़रार देना ज़्यादा सही है। कहीं क़त्ले आम नहीं हुआ, शहरों को उजाडा़ और लूटा नहीं गया और न कही औरतों की बेइज़्ज़ती हुई। एक बार एक शख़्स के खेतों को फ़ौज से नुक़्सान हुआ तो उसने मुक़दमा कर दिया और हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने उसको हर्जाना दिलाया। फ़ौज के सदाचरण का यह हाल था कि जब दमिश्क (Damascus) में दाखिल हुई तो घर के छज्जों से रूमियों की औरतें उन्हें देखने के लिए जमा हो गई थीं, लेकिन किसी फ़ौजीं ने उन्हें आंख उठाकर नहीं देखा। इसलिए कि क़ुरआन में ऐसे मौक़ो पर नज़रें नीची रख़ने की शिक्षा दी गई थी। इमाम मालिक (رحمت اللہ علیہ) कहते है कि जब सहाबा की फ़ौजें शाम (सीरिया) की सरज़मीन में दाखिल हुई तो शाम के ईसाई कहते थे कि मसीह के हवारियों की जो शान हम सुनते थे, ये तो उसी शान के लोग नज़र आते हैं।
ख़िलाफ़ते राशिदा में तालीमी व्यवस्था
इस्लामी समाज में रिश्वत सबसे घटिया अपराध माना जाता है। ख़िलाफ़ते राशिदा का दौर इस बुराई से पाक था और इसका सबसे बडा़ कारण यह था कि वे इस्लामी आदेशों पर अमल करना ईमान में शामिल समझते थे। ख़िलाफ़ते राशिदा में सरकारी देख-रेख में शिक्षा के विकास पर बल दिया गया। इस्लामी ख़िलाफ़त की सीमा में हर जगह क़ुरआन की शिक्षा के लिए मकतब क़ायम किए गए जिनमें पढ़ना और लिखना दोनों सिखाए जाते थे। इन मकतबों में तनख़्वाहदार शिक्षक रखे गए थे। सिर्फ हज़रत उमर (رضي الله عنه) के ज़माने में मस्जिदों की तादाद चार हज़ार से ज़्यादा हो गई थी। ये मस्जिदें, जिनमें तनख़्वाहदार इमाम और मोअज़्ज़िन रखे गए थे, बाद में धीरे-धीरे मदरसों में बदलती गई। शिक्षा के विकास और व्यापकता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि हज़रत उमर (رضي الله عنه) के अहद में सिर्फ़ कूफ़ा शहर में तीन सौ हाफिजे़ क़ुरआन थे जो मदीना के बाद शिक्षा का सबसे बडा़ केन्द्र था। दूसरे बडे शिक्षा के केन्द्र मक्का, बसरा, दमिश्क़ और फिस्तात थे।
ख़िलाफ़ते राशिदा में रहने वाले ग़ुलाम और ज़िम्मी
ख़िलाफ़ते राशिदा में ग़ुलामी-प्रथा के सुधार और समाप्ति के सिलसिले में कई क़दम उठाए गए। इस ज़माने में ग़ुलामों को बडी़ तादाद में आज़ाद किया गया और अंदाज़ा है कि ख़िलाफ़ते राशिदा के ज़माने में 39 हज़ार से ज़्यादा ग़ुलाम आज़ाद किए गए। हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने विशेष रूप से ग़ुलामी-प्रथा की समाप्ति के सिलसिले में कई क़दम उठाए। हज़रत अबू बक्र (رضي الله عنه) के दौर में जो लोग ग़ुलाम बनाए गए थे, हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने उन सबको आज़ाद कर दिया और हुक्म दिया कि अब किसी को ग़ुलाम बिल्कुल न बनाया जाए। गै़र-अरब को भी ग़ुलाम बनाने के सिलसिले में हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने प्रोत्साहन नहीं दिया। जब मिस्र से कुछ ग़ुलाम मदीना लाए गए तो हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने उन्हें वापस कर दिया और मिस्र के हाकिम हज़रत अम्र बिन आस (رضي الله عنه) को उन्होंने जिन शब्दों में निर्देश दिया उसे ग़ुलामी के इतिहास में हमेशा स्वर्णाक्षरों से लिखा जाएगा। आपने लिखा – ''इनकी मांओं ने इन्हें आज़ाद जना है और किसी को यह हक़ नहीं पहुँचता कि वह इनका यह फितरी हक (प्राकृतिक अधिकार) छीन ले।''
हज़रत उमर (رضي الله عنه) ग़ुलामों का इतना ख़्याल रखते थे कि उन्हें अपने साथ बिठाकर खाना खिलाते थे। उन्होंने एक बार एक हाकिम को केवल इस जुर्म में अपदस्थ कर दिया था कि वह बीमार ग़ुलाम की 'अयादत' (बीमार का हाल पूछना) को नहीं गए थे। हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने वज़ीफ़ा तय करते समय भी आक़ा और ग़ुलाम का फ़र्क़ मिटा दिया और ग़ुलामों का वज़ीफ़ा उनके आक़ाओं के बराबर मुक़र्रर किया। ग़ुलाम आज़ाद करना चूँकि सवाब (पूण्य) का काम था इसलिए हज़रत उसमान (رضي الله عنه) हर जुमा को एक ग़ुलाम आज़ाद करते थे।
ख़िलाफ़ते राशिदा के ज़माने में सिर्फ़ वही लोग ग़ुलाम बनाए जा सकते थे जो जंगों में पकडे़ जाते थे। उनकी हैसियत दरअसल जंगी क़ैदियों की होती थी। चूँकि उन्हें सारी उम्र क़ैदी की हैसियत में रखना ग़ैर-इन्सानी काम होता, जैसा की आजकल होता है जिस मे जंग मे दौरान या सरहदों पर क़ैद किये गये क़ैदियों को पूरी ज़िन्दगी दुश्मन मुल्क मे क़ैद रहना पड जाता है, इसलिए उन्हें ग़ुलाम बनाकर घर और समाज का उपयोगी सदस्य बना लिया जाता था।
इस्लाम का प्रचार (दावत)
ख़िलाफ़ते राशिदा की सीमा में विभिन्न नस्ल, भाषा और धर्म से सम्बन्ध रखने वाली क़ौमे आबाद थीं। ईरान, इराक़, शाम और मिस्र में इस्लाम तेज़ी से फैल रहा था और यहॉं की क़ौमें अपने पैतृक धर्म को छोड़कर इस्लाम में शामिल हो रही थीं, लेकिन इन मुल्कों की बहुसंख्यक अब भी गै़र-मुस्लिम थी। मुसलमान नागरिकों को, चाहे वे किसी मुल्क अथवा नस्ल से सम्बन्ध रखते हों, वही अधिकार प्राप्त थे जो अरब मुसलमानों को प्राप्त थे। उनका गै़र-अरब होना अरबों के बराबर अधिकार प्राप्त करने की राह में बाधक नहीं था। आम नागरिक की हैसियत से गै़र-मुस्लिमों को मुसलमानों के बराबर अधिकार प्राप्त थे। इस्लामी हुकूमत ने चूँकि अनकी उन्नति और सुरक्षा की ज़िम्मेदारी अपने जिम्मा ली थी, इसलिए उस गै़र-मुस्लिम आबादी को ज़िम्मी कहा जाता था। ज़िम्मियों पर फ़ौजी सेवा अनिवार्य नहीं थी और इसके बदले में उनसे एक मामूली टैक्स लिया जाता था जो जिज़्या कहलाता था। ख़िलाफ़ते राशिदा में इसकी मिसालें मौजूद हैं कि जब मुसलमान किसी जीते हुए इलाक़े की हिफाज़त नहीं कर सकते थे और उस इलाक़े को ख़ाली करने को मजबूर होते थे तो जिज़्या की रक़म गै़र-मुस्लिमों को वापस कर देते थे। जंगें हारी हुई क़ौमों और दूसरे धर्मो के लोगों से ऐसे न्याय पर आधारित सुलूक की मिसाल इस्लामी खिलाफत के अलावा दूसरी ग़ैर-इस्लामी रियासतों के इतिहास मे नहीं मिलेगी। इस्लामी हुकूमत मुसलमानों की तरह गै़र-मुस्लिमों के आर्थिक आत्मनिर्भरता की भी जिम्मेदार थी और गै़र-मुस्लिम मुहताज हो जाते थे उन्हें सरकारी बैतुलमाल से वज़ीफ़ा दिया जाता था। कुछ जगहों की ज़िम्मी आबादी को एक विशेष प्रकार का लिबास पहनने की हिदायत दी गई थी, परन्तु उसका मक़सद उन्हें अपमानित करना नहीं था जैसा कि कुछ ग़ैर-मुस्लिम इतिहासकार इल्ज़ाम लगाते हैं। इस्लाम में चूँकि लिबास के मामले में मुसलमानों को गै़र-मुस्लिमों से एकरूपता पैदा करने से मना किया गया है, इसलिए इस पाबंदी का मक़सद दोनों क़ौमों की व्यक्तिगत पहचान को क़ायम रखना था, किसी को अपमानित करना या किसी को निम्न समझना इस आदेश का मक़सद नहीं था।
किसी क़ौम की तारीख़ में तीस साल की अवधि बहुत कम होती है। परन्तु ठोस कारनामों को सामने रखा जाए तो ख़िलाफ़ते राशिदा के ये तीस साल दूसरी क़ौमों के सैकडो़ सालों के इतिहास पर भारी हैं। इस अल्प अवधि में इस मामूली रियासत जो अरब प्रायद्वीप तक सीमित थी, दुनिया की सबसे बडी़ और शक्तिशाली रियासत बन गई।
इराक़, शाम और मिस्र थे, जहॉं इन्सान ने सबसे पहले सभ्यता का पाठ पढा़ था और जिसके कारण उस क्षेत्र को सभ्यता का केन्द्र कहा जाता है। तीस साल की इस अल्प अवधि में उन तमाम प्रचीन क़ौमों की राजनीतिक शक्ति ही ख़त्म नहीं हुई, बल्कि सभ्यता के मैदान में भी उन्हें हार माननी पडी़। उन्होंने तेज़ी से अपने पुराने धर्म को छोड़कर इस्लाम क़बूल करना शुरू किया कि आगामी पचास-साठ साल की अवधि में उन मुल्कों की लगभग सारी आबादी मुसलमान को गई और ये मुल्क हमेशा के लिए इस्लामी दुनिया का हिस्सा बन गए। धर्म के साथ ही इन क़ौमों का जीवन से सम्बन्धित दृष्टिकोण भी बदल गया और इस प्रकार एक नई सभ्यता का बुनियाद पडी़ जो स्थानीय विशेषताओं के बावजूद इस्लामी सभ्यता सभ्यता कहलाई और जिसके चिह्न चौदह सौ साल बाद आज भी बाक़ी हैं। मुसलमानों की यह महान सफलता, तलवार का नतीजा नहीं थी, बल्कि इस्लाम की श्रेष्ठ एवं उच्च शिक्षाओं का नतीजा थी।
हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) ने चूँकि अपने बाद किसी को जानशीन (उत्तराधिकारी) मुक़र्रर नहीं किया था इसलिए अब यह फ़ैसला करना आम मुसलमानों की ज़िम्मेदारी थी कि आप (صلى الله عليه وسلم) की जगह इस्लामी रियासत का संचालक कौन हो। अत: मुसलमानों ने मदीना में एक जगह जमा होकर, जिसे 'सुक़ैफ़ा बनी सअदह' कहा जाता है, बहस व मुबाहिसा के बाद हज़रत अबू बक्र (رضي الله عنه) को प्यारे नबी (صلى الله عليه وسلم) का जानशीन यानी 'खलीफा' चुन लिया। सक़ीफ़ा बनी साअदह में ख़लीफ़ा चुने जाने के बाद दूसरे दिन मसजिदे नबवी की आम सभा में हज़रत अबू बक्र (رضي الله عنه) के हाथ पर मुसलमानों ने 'बैअत' की और इस प्रकार हज़रत अबू बक्र (رضي الله عنه) मुसलमानों के पहले ख़लीफ़ा हो गए।
आप (صلى الله عليه وسلم) के ज़माने में हालांकि पूरे अरब पर मुसलमानों की हुकूमत क़ायम हो गई थी, लेकिन तमाम लोग अभी इस्लाम नहीं लाए थे और जो इस्लाम ला चुके थे उनमें कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने दिल से इस्लाम क़बूल नहीं किया था। आप (صلى الله عليه وسلم) के इंतिक़ाल के बाद ऐसे ही क़बीले के एक शख़्स मुसैलिमा ने तो नबी होने का दावा कर दिया। चूँकि यह शख़्स झूठा था इसलिए इसे 'मुसैलिमा कज़्ज़ाब' यानी झूठ बोलने वाला कहा जाता है।
हज़रत अबू बक्र (رضي الله عنه) ने सबसे पहले उन बागियों का मुक़ाबला किया। फ़ौजें रवाना कीं और सबको इताअत पर मजबूर कर दिया। मुसैलिमा कज़्ज़ाब को उन्होंने एक सख़्त जंग के बाद हराया। हज़रत अबू बक्र (رضي الله عنه) ने ख़लीफ़ा होने के बाद शाम (Syria) पर, जो रूमियों के क़ब्जे़ में था, बाक़ायदा फ़ौजी कार्यवाही शुरू कर दी। ईरान और रूम की दोनों हुकूमतों से एक ही वक़्त में मुसलमानों की जंग शुरू हो गई। हज़रत ख़ालिद बिन वलीद (رضي الله عنه) को हज़रत अबू बक्र (رضي الله عنه) ने पहले ईरान की ओर भेजा। वहॉं कई शहर फ़तह करने के बाद हज़रत अबू बक्र (رضي الله عنه) के हुक्म पर वह रूमियों के मुक़ाबले के लिए शाम (सीरिया) चले गए। लडा़ई को अभी ज़्यादा मुद्दत नहीं गुज़री थी कि ढाई साल की ख़िलाफ़त के बाद हज़रत अबू बक्र (رضي الله عنه) का इंतिक़ाल हो गया। हज़रत अबू बक्र (رضي الله عنه) ने सिर्फ़ ढाई साल हुकूमत की लेकिन उनका यह ज़माना इस्लामी इतिहास में बडी़ अहमियत रखता है। हज़रत अबू बक्र (رضي الله عنه) का यह बडा़ कारनामा है कि उन्होंने आप (صلى الله عليه وسلم) के इंतिक़ाल के बाद
(1) मुसलमानों में एकता क़ायम की, (2) अरब में होने वाली बग़ावतों को कुचल दिया और (3) हुकूमत को जल्दी ही इतना मज़बूत कर दिया कि मुसलमानों ने ईरान व रूम की हुकूमतों के ख़िलाफ, जो उस ज़माने की सबसे बडी़ हुकूमतें थीं, एक साथ जिहाद शुरू करके उनके बहुत से इलाक़े फ़तह कर लिए।
हज़रत अबू बक्र (رضي الله عنه) ने अपनी ज़िन्दगी ही में हज़रत उमर (رضي الله عنه) को अपना जानशीन नामज़द कर दिया था।
हज़रत उमर (رضي الله عنه)
हज़रत उमर (رضي الله عنه) के ख़लीफ़ा मुक़र्रर हो जाने के बाद पडौ़सी देशो से जंगे पूरे ज़ोर से शुरू हो गई।
(1.) इराक़ और ईरान की फ़तह
क़ादिसिया की जंग इस्लामी इतिहास में निर्णायक जंगों में गिनी जाती है। इस जंग में ईरानियों को ऐसी शिकस्त हुई कि वे अपनी राजधानी 'मदाइन' को भी नहीं बचा सके जो दजला नदी के पूर्वी तट पर उस जगह आबाद थी, जहॉं अब बग़दाद आबाद है। मुसलमान जब दजला के तट पर पहुँचे तो हज़रत सअद बिन अबी वक़्क़ास ने अल्लाह का नाम लेकर अपना घोडा़ नदी में उतार दिया। अपने सरदार को आगे बढ़ते देख बाक़ी मुसलमानों ने भी अपने घोडे़ नदी में डाल दिए और इस प्रकार पूरी फ़ौज बिना पुल के ही नदी पार कर गई। ईरानी यह समझते थे कि मुसलमान नदी को पार नहीं कर सकेंगे, लेकिन जब मुसलमानों ने नदी को पार कर लिया तो उनके हाथ-पांव फूल गए और ऐसे डरे कि 'देव आ गए, देव आ गए' कहते हुए भाग खडे़ हुए। मुसलमानों ने उनकी राजधानी मदाइन पर आसानी से क़ब्ज़ा कर लिया। मुसलमानों ने अपनी इस शानदार कामयाबी पर सबसे पहले शुक्राना नमाज़ पढी़ और उसके बाद जुमा की नमाज़ 'किसरा' के शाही महल में अदा की।
हज़रत सअ्द ने जब शाही ख़जाना और माल व असबाब मदीना रवाना किया तो हज़रत उमर (رضي الله عنه) उसे देखकर रो पडे़। लोगों ने पूछा, ''यह तो ख़ुशी की बात है, आप रोते क्यों हैं ?'' हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने जवाब दिया, ''मैं इसलिए रोता हूँ कि माल व दौलत की इस बहुतायत में मुझे मुसलमानों के ज़वाल (अवनति) के आसार नज़र आ रहे हैं।'' मदाइन की फ़तह के बाद मुसलमान जल्द ही पूरे इराक़ और ख़ूजिस्तान को इस्लामी हुकूमत के दायरे में ले आए।
(2.) शाम (Syria) व मिस्र (Egypt) की फ़तह
शाम व मिस्र की फ़तह के लिए मुसलमानों ने जो कारनामे अंजाम दिए वे ईरान की फ़तह से कम नहीं थे। रूम की सल्तनत दुनिया की शक्तिशाली सल्तनतों में गिनी जाती थी और रूम का हुक्मरॉं हिरक़्ल (Heraclius) शायद अपने दौर का सबसे बडा़ सिपहसालार था।
यरमूक की जंग क़ादिसिया की तरह निर्णायक साबित हुई। इसमें सत्तर हज़ार से लेकर एक लाख तक रूमी काम आए जबकि इसके मुक़ाबले में सिर्फ तीन हजार मुसलमान शहीद हुए। यह जंग हज़रत ख़ालिद बिन वलीद (رضي الله عنه) की हैरत-अंगेज़ फ़ौजी सलाहियत का सबूत है जो इराक़ की शुरूआती जीतों के बाद हज़रत अबू बक्र (رضي الله عنه) के हुक्म से शाम (सीरिया) आ गए थे और यहॉ इस्लामी फ़ौज की कमान संभाल ली थी। जब क़ैसर-रूम हिरक़्ल को यरमूक के मैदान में रूमियों के पराजय की ख़बर मिली तो वह बडी़ हसरत और अफ़सोस के साथ शाम (सीरिया) को अलविदा कहकर क़ुस्तनतीनिया (Istanbul) चला गया।
हज़रत अम्र बिन आस (رضي الله عنه) ने कुछ समय बाद पश्चिम में 'बरक़ा' (Cyrenaica) और 'तराबुलुस' (Tripoli) को भी इस्लामी ख़िलाफ़त की सीमा में शामिल कर लिया। यह वह इलाक़ा है जो आजकल 'लीबिया' कहलाता है।
हज़रत उमर (رضي الله عنه) का ज़माना सिर्फ जंग की कामयाबियों के कारण मशहूर नहीं है, बल्कि न्याय, इन्साफ़, प्रजा-पालन और शासन-व्यवस्था की ख़ूबियों के कारण भी मशहूर है। हज़रत उमर (رضي الله عنه) के अहद में पहली बार विभिन्न प्रशासन-विभाग क़ायम किए गए और सरकारी आमदनी व ख़र्च का बाक़ायदा हिसाब तैयार किया गया। ये विभाग 'दीवान' कहलाते थे। प्रशासन-व्यवस्था के सिलसिले में हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने जो क़दम उठाए और सुधार किए, उन्हें इस्लामी इतिहास में हज़रत उमर (رضي الله عنه) की 'अव्वलियात' (प्राथमिकताऍ) कहा जाता है, यानी वे काम जो सबसे पहले हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने किए। (1.) सल्तनत को सूबों (प्रांतों) में बाँटा। (2.) फ़ौजी विभाग क़ायम किया। (3.) वित्त विभाग क़ायम किया। (4.) पुलिस विभाग क़ायम किया जिसे 'अहदास' कहा जाता था। (5.) अदालतें क़ायम कीं। (6.) बैतुलमाल क़ायम किया। (7.) ज़मीन का माप करवाया। (8.) जनगणना करवाई। (9.) जेल क़ायम की। (10.) ख़बरें हासिल करने के लिए पर्चानवीस मुक़र्रर किए। (11.) फ़ौजी छावनियॉं क़ायम कीं। (12.) इमामों और मुअज्जिनों की तनख़्वाहें मुक़र्रर कीं। (13.) मकतब और मदरसे क़ायम किए और उस्तादों की तनख़्वाहें मुक़र्रर कीं। (14.) मक्का और मदीना के बीच चौकियॉं क़ायम कीं और सराऍं बनवाई।
हज़रत उमर (رضي الله عنه) के इन सुधारों के बाद इस्लामी ख़िलाफ़त जो पहले ही क्षेत्रफल के एतबार से दुनिया की एक बडी़ सल्तनत बन चुकी थी, व्यवस्था और प्रशासनिक ढॉंचे के लिहाज़ से भी अपने दौर की एक निहायत संगठित और व्यवस्थित हुकूमत में बदल गई। हज़रत उमर (رضي الله عنه) का एक और बडा़ कारनामा यह है कि उन्होंने अपने शासनकाल में तमाम मुसलमानों के वज़ीफ़े मुक़र्रर कर दिए थे और वे इसे अपनी पूरी सल्तनत में फैला देना चाहते थे। इस बात को आप इतना महत्व देते थे कि बच्चे के पैदा होते ही उसका वज़ीफ़ा मुक़र्रर कर देते थे। वज़ीफ़ों का यह प्रबन्ध दुनिया में पहली बार किया गया और इस प्रकार पहली बार एक ऐसा राज्य वजूद में आया जो 'रफ़ाही राज्य' (Welfare) कहा जाता है और जिसमें हुकूमत जनता की बुनियादी ज़रूरतों की पूर्ति की जिम्मेदार होती है।
हज़रत उमर (رضي الله عنه) भी हज़रत अबू बक्र (رضي الله عنه) की तरह 'बैतुल-माल' का रुपया अपने ऊपर ख़र्च नहीं करते थे1 वह 'बैतुल-माल' को जनता की अमानत समझते थे। इसलिए उन्होंने अपनी तनख़्वाह मुक़र्रर कर ली थी और यह तनख़्वाह उतनी ही थी जो आम मुसलमानों की थी।
हिजरी-सन् जो इस्लामी दुनिया में राइज़ है हज़रत उमर (رضي الله عنه) का क़ायम किया हुआ है। हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने अपने शासनकाल में तीन शहर बसाए। उनके नाम कूफ़ा, बसरा और फिसतात हैं। बाद में यह तीनों शहर इस्लामी दुनिया के बहुत बडे़ शहर बन गए।
हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने कृषि के विकास के लिए नहरें खुदवाई और प्रशासन-व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए कई विभाग और कार्यालय खोले। जंगों की जीत, शासन-व्यवस्था, दूरदर्शिता, न्याय, प्रजा की भलाई और हुक्मरान की हैसियत से अपनी ज़िम्मेदारी (उत्तरदायित्व) के अहसास हज़रत उमर (رضي الله عنه) के वे कारनामे और ख़ूबियॉं हैं जिनकी मिसाल दुनिया का कोई दूसरा हुक्मरान पेश नहीं कर सकता।
हज़रत उसमान (رضي الله عنه)
हज़रत उसमान (رضي الله عنه) भी उन सहाबियों में हैं जो शुरू में इस्लाम ले आए थे। हज़रत उसमान (رضي الله عنه) तिजारत करते थे और उनकी गिनती धनवान लोगों में होती थी। उनके ज़माने में भी कई जंगों में विजय हासिल हुई और इस्लामी हुकूमत पहले से भी ज़्यादा बडी़ हो गई। पूरब में ग़जनी और काबुल तक का इलाक़ा मुसलमानों के क़ब्जे़ में आ गया और पश्चिम में तूनिस (Tunis) पर, जो उस ज़माने में अफ्रीक़ा कहलाता था, मुसलमानों का क़ब्ज़ा हो गया। एशियाए कोचक में भी फ़तह हासिल हुई।
हज़रत उसमान (رضي الله عنه) के काल का एक बडा़ कारनामा जल सेना की स्थापना है। अब तक मुसलमानों ने तमाम लडा़इयॉं जमीन पर लडी़ थीं और समुद्री युद्ध से बिलकुल नावाकिफ़ थे। हज़रत उसमान (رضي الله عنه) के ज़माने में मुसलमानों ने पहली बार समुद्री बेडा़ तैयार किया।
हज़रत उसमान (رضي الله عنه) के ज़माने में जनता की सुविधा के लिए सड़कें, पुल और मुसाफिरखाने बनाए गए। उन्होंने मसजिदों में तनख़्वाहदार मुअज़्ज़िन (अज़ान पुकारने वाला) रखे। मसजिदे नबवी को पुन: बनवाया और उसे ज़्यादा बडा़ और शानदार बनाया। हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने लोगों के जो वज़ीफ़े मुक़र्रर किए थे, उन्हें जारी रखा। उनके ज़माने में भी हज़रत उमर (رضي الله عنه) के ज़माने जैसी ख़ुशहाली रही। हज़रत उसमान (रज़ि0) का एक और अहम कारनामा मुसलमानों को क़ुरआन को एक तरीक़े से पढ़ने पर सहमत करना है।
हज़रत अली (رضي الله عنه)
हज़रत अली (رضي الله عنه) की ख़िलाफ़त बडी़ मुश्किल और पेचीदा परिस्थितियों में शुरू हुई। हज़रत अली (رضي الله عنه) ने तक़रीबन चार साल ख़िलाफ़त की। शाम और मिस्र के अलावा बाक़ी तमाम सल्तनत उनके क़ब्जे़ में थी। चूँकि उनका ज़माना ज़्यादातर ख़ानाजंगी में गुज़रा इसलिए कोई नया मुल्क फ़तह नहीं किया गया। हज़रत अली (رضي الله عنه) की शासन-व्यवस्था बहुत हद तक हज़रत उमर (رضي الله عنه) जैसी थी। उनकी ज़िन्दगी भी उन्हीं की तरह सादा थी। फ़ैसला करते समय वे बडे से बडे आदमी की, यहॉं तक कि अपने रिश्तेदारों की भी रियायत नहीं करते थे। वे ख़ुद को आम जनता के बराबर समझते थे और हमेशा जवाबदेही के लिए तैयार रहते थे। हज़रत अली (رضي الله عنه) ने अपने बाद किसी को जानशीन (उत्तराधिकारी) मुक़र्रर नहीं किया।
आर्थिक न्याय
आर्थिक न्याय भी इन्सानी समाज की बुनियादी ज़रूरत है और ख़िलाफ़ते राशिदा में इस पर पूरी तवज्जोह दी गई। बैतुलमाल की रक़म क़ौम की अमानत समझी जाती थी। ख़लीफ़ा इस रक़म को न अपने आप पर ख़र्च करते थे और न अपने रिश्तेदारों पर। ख़लीफ़ा के अपने ख़र्चे के लिए उनकी तनख़्वाहें मुक़र्रर होती थी और यदि उन्हें कभी तनख़्वाह के अलावा पैसे की ज़रूरत होती थी तो वह उसे लेने से पहले अवाम से इजाज़त लेते थे। हज़रत उसमान (رضي الله عنه) चूँकि दौलतमंद थे, इसलिए वह बैतुलमाल से कोई तनख़्वाह नहीं लेते थे। बैतुलमाल को जिस प्रकार ख़लीफ़ा ने क़ौम की अमानत समझा और इस सम्बन्ध में जिस ज़िम्मेदारी के अहसास का सबूत दिया उसकी मिसाल दुनिया के इतिहास में नही मिलता।
जंगों में जिहाद की रूह
इस्लाम में जंग सिर्फ ख़ुदा की राह में जायज़ है और इसीलिए इस्लामी जंग को 'जिहाद फ़ी सबीलिल्लाह' कहा जाता है। मुसलमानों का तरीक़ा था कि लडा़ई शुरू करने से पहले दुश्मन को इस्लाम की दावत देते थे और जब वह इन्कार कर देता तो इस्लामी रियासत का आज्ञापालक बनने को कहते थे और जंग तभी शुरू करते थे जब दुश्मन इन दो बातों को रद्द कर देता था। यह दुनिया की तारीख़ में बिल्कुल नई चीज़ थी और इसने जंग को प्रसिद्धि, सामाज्य विस्तार और दूसरों को दास बनाने का ज़रिया बनाने के बजाय सुधार का ज़रिया बना दिया था। यही कारण है कि जब जंग का सिलसिला शुरू हुआ तो लोगों ने देखा कि मुसलमानों को इन लडा़इयों में लूट-खसोट, बर्बरता, ज़ुल्म और अत्याचार नज़र नहीं आता जो जंग के साथ अनिवार्य समझा जाता है।
शाम (सीरिया) पर चढा़ई के लिए जब पहला लश्कर मदीना से रवाना हुआ तो हज़रत अबू बक्र (رضي الله عنه) ने जो इस हिदायतें दीं वे जंगों की तारीख में 'मील का पत्थर' की हैसियत रखती हैं। आपने हिदायत की कि किसी औरत, बूढे़ और बच्चे का क़त्ल न किया जाए, फलदार पेडो़ं को न काटा जाए, आबाद जगह वीरान न की जाए, नख़लिस्तान (मरूद्यान) न जलाए जाए और ईसाई पादरियों को क़त्ल न किया जाए। ये हिदायतें एक बार नहीं बार-बार दी गई और इन पर पूरी तरह अमल भी किया गया।
ख़िलाफ़ते राशिदा में जंगों की जीत न सिकन्दर की जीतों से कम थी और न रूमियों और हूणों की जीतों से। लेकिन इसके बाद भी ख़िलाफ़ते राशिदा की जीतें इतनी शान्ति पूर्ण थी कि उन्हें जंगों की बजाय लूटेरो के खिलाफ़ पुलिस की कार्यवाही क़रार देना ज़्यादा सही है। कहीं क़त्ले आम नहीं हुआ, शहरों को उजाडा़ और लूटा नहीं गया और न कही औरतों की बेइज़्ज़ती हुई। एक बार एक शख़्स के खेतों को फ़ौज से नुक़्सान हुआ तो उसने मुक़दमा कर दिया और हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने उसको हर्जाना दिलाया। फ़ौज के सदाचरण का यह हाल था कि जब दमिश्क (Damascus) में दाखिल हुई तो घर के छज्जों से रूमियों की औरतें उन्हें देखने के लिए जमा हो गई थीं, लेकिन किसी फ़ौजीं ने उन्हें आंख उठाकर नहीं देखा। इसलिए कि क़ुरआन में ऐसे मौक़ो पर नज़रें नीची रख़ने की शिक्षा दी गई थी। इमाम मालिक (رحمت اللہ علیہ) कहते है कि जब सहाबा की फ़ौजें शाम (सीरिया) की सरज़मीन में दाखिल हुई तो शाम के ईसाई कहते थे कि मसीह के हवारियों की जो शान हम सुनते थे, ये तो उसी शान के लोग नज़र आते हैं।
ख़िलाफ़ते राशिदा में तालीमी व्यवस्था
इस्लामी समाज में रिश्वत सबसे घटिया अपराध माना जाता है। ख़िलाफ़ते राशिदा का दौर इस बुराई से पाक था और इसका सबसे बडा़ कारण यह था कि वे इस्लामी आदेशों पर अमल करना ईमान में शामिल समझते थे। ख़िलाफ़ते राशिदा में सरकारी देख-रेख में शिक्षा के विकास पर बल दिया गया। इस्लामी ख़िलाफ़त की सीमा में हर जगह क़ुरआन की शिक्षा के लिए मकतब क़ायम किए गए जिनमें पढ़ना और लिखना दोनों सिखाए जाते थे। इन मकतबों में तनख़्वाहदार शिक्षक रखे गए थे। सिर्फ हज़रत उमर (رضي الله عنه) के ज़माने में मस्जिदों की तादाद चार हज़ार से ज़्यादा हो गई थी। ये मस्जिदें, जिनमें तनख़्वाहदार इमाम और मोअज़्ज़िन रखे गए थे, बाद में धीरे-धीरे मदरसों में बदलती गई। शिक्षा के विकास और व्यापकता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि हज़रत उमर (رضي الله عنه) के अहद में सिर्फ़ कूफ़ा शहर में तीन सौ हाफिजे़ क़ुरआन थे जो मदीना के बाद शिक्षा का सबसे बडा़ केन्द्र था। दूसरे बडे शिक्षा के केन्द्र मक्का, बसरा, दमिश्क़ और फिस्तात थे।
ख़िलाफ़ते राशिदा में रहने वाले ग़ुलाम और ज़िम्मी
ख़िलाफ़ते राशिदा में ग़ुलामी-प्रथा के सुधार और समाप्ति के सिलसिले में कई क़दम उठाए गए। इस ज़माने में ग़ुलामों को बडी़ तादाद में आज़ाद किया गया और अंदाज़ा है कि ख़िलाफ़ते राशिदा के ज़माने में 39 हज़ार से ज़्यादा ग़ुलाम आज़ाद किए गए। हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने विशेष रूप से ग़ुलामी-प्रथा की समाप्ति के सिलसिले में कई क़दम उठाए। हज़रत अबू बक्र (رضي الله عنه) के दौर में जो लोग ग़ुलाम बनाए गए थे, हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने उन सबको आज़ाद कर दिया और हुक्म दिया कि अब किसी को ग़ुलाम बिल्कुल न बनाया जाए। गै़र-अरब को भी ग़ुलाम बनाने के सिलसिले में हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने प्रोत्साहन नहीं दिया। जब मिस्र से कुछ ग़ुलाम मदीना लाए गए तो हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने उन्हें वापस कर दिया और मिस्र के हाकिम हज़रत अम्र बिन आस (رضي الله عنه) को उन्होंने जिन शब्दों में निर्देश दिया उसे ग़ुलामी के इतिहास में हमेशा स्वर्णाक्षरों से लिखा जाएगा। आपने लिखा – ''इनकी मांओं ने इन्हें आज़ाद जना है और किसी को यह हक़ नहीं पहुँचता कि वह इनका यह फितरी हक (प्राकृतिक अधिकार) छीन ले।''
हज़रत उमर (رضي الله عنه) ग़ुलामों का इतना ख़्याल रखते थे कि उन्हें अपने साथ बिठाकर खाना खिलाते थे। उन्होंने एक बार एक हाकिम को केवल इस जुर्म में अपदस्थ कर दिया था कि वह बीमार ग़ुलाम की 'अयादत' (बीमार का हाल पूछना) को नहीं गए थे। हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने वज़ीफ़ा तय करते समय भी आक़ा और ग़ुलाम का फ़र्क़ मिटा दिया और ग़ुलामों का वज़ीफ़ा उनके आक़ाओं के बराबर मुक़र्रर किया। ग़ुलाम आज़ाद करना चूँकि सवाब (पूण्य) का काम था इसलिए हज़रत उसमान (رضي الله عنه) हर जुमा को एक ग़ुलाम आज़ाद करते थे।
ख़िलाफ़ते राशिदा के ज़माने में सिर्फ़ वही लोग ग़ुलाम बनाए जा सकते थे जो जंगों में पकडे़ जाते थे। उनकी हैसियत दरअसल जंगी क़ैदियों की होती थी। चूँकि उन्हें सारी उम्र क़ैदी की हैसियत में रखना ग़ैर-इन्सानी काम होता, जैसा की आजकल होता है जिस मे जंग मे दौरान या सरहदों पर क़ैद किये गये क़ैदियों को पूरी ज़िन्दगी दुश्मन मुल्क मे क़ैद रहना पड जाता है, इसलिए उन्हें ग़ुलाम बनाकर घर और समाज का उपयोगी सदस्य बना लिया जाता था।
इस्लाम का प्रचार (दावत)
ख़िलाफ़ते राशिदा की सीमा में विभिन्न नस्ल, भाषा और धर्म से सम्बन्ध रखने वाली क़ौमे आबाद थीं। ईरान, इराक़, शाम और मिस्र में इस्लाम तेज़ी से फैल रहा था और यहॉं की क़ौमें अपने पैतृक धर्म को छोड़कर इस्लाम में शामिल हो रही थीं, लेकिन इन मुल्कों की बहुसंख्यक अब भी गै़र-मुस्लिम थी। मुसलमान नागरिकों को, चाहे वे किसी मुल्क अथवा नस्ल से सम्बन्ध रखते हों, वही अधिकार प्राप्त थे जो अरब मुसलमानों को प्राप्त थे। उनका गै़र-अरब होना अरबों के बराबर अधिकार प्राप्त करने की राह में बाधक नहीं था। आम नागरिक की हैसियत से गै़र-मुस्लिमों को मुसलमानों के बराबर अधिकार प्राप्त थे। इस्लामी हुकूमत ने चूँकि अनकी उन्नति और सुरक्षा की ज़िम्मेदारी अपने जिम्मा ली थी, इसलिए उस गै़र-मुस्लिम आबादी को ज़िम्मी कहा जाता था। ज़िम्मियों पर फ़ौजी सेवा अनिवार्य नहीं थी और इसके बदले में उनसे एक मामूली टैक्स लिया जाता था जो जिज़्या कहलाता था। ख़िलाफ़ते राशिदा में इसकी मिसालें मौजूद हैं कि जब मुसलमान किसी जीते हुए इलाक़े की हिफाज़त नहीं कर सकते थे और उस इलाक़े को ख़ाली करने को मजबूर होते थे तो जिज़्या की रक़म गै़र-मुस्लिमों को वापस कर देते थे। जंगें हारी हुई क़ौमों और दूसरे धर्मो के लोगों से ऐसे न्याय पर आधारित सुलूक की मिसाल इस्लामी खिलाफत के अलावा दूसरी ग़ैर-इस्लामी रियासतों के इतिहास मे नहीं मिलेगी। इस्लामी हुकूमत मुसलमानों की तरह गै़र-मुस्लिमों के आर्थिक आत्मनिर्भरता की भी जिम्मेदार थी और गै़र-मुस्लिम मुहताज हो जाते थे उन्हें सरकारी बैतुलमाल से वज़ीफ़ा दिया जाता था। कुछ जगहों की ज़िम्मी आबादी को एक विशेष प्रकार का लिबास पहनने की हिदायत दी गई थी, परन्तु उसका मक़सद उन्हें अपमानित करना नहीं था जैसा कि कुछ ग़ैर-मुस्लिम इतिहासकार इल्ज़ाम लगाते हैं। इस्लाम में चूँकि लिबास के मामले में मुसलमानों को गै़र-मुस्लिमों से एकरूपता पैदा करने से मना किया गया है, इसलिए इस पाबंदी का मक़सद दोनों क़ौमों की व्यक्तिगत पहचान को क़ायम रखना था, किसी को अपमानित करना या किसी को निम्न समझना इस आदेश का मक़सद नहीं था।
किसी क़ौम की तारीख़ में तीस साल की अवधि बहुत कम होती है। परन्तु ठोस कारनामों को सामने रखा जाए तो ख़िलाफ़ते राशिदा के ये तीस साल दूसरी क़ौमों के सैकडो़ सालों के इतिहास पर भारी हैं। इस अल्प अवधि में इस मामूली रियासत जो अरब प्रायद्वीप तक सीमित थी, दुनिया की सबसे बडी़ और शक्तिशाली रियासत बन गई।
इराक़, शाम और मिस्र थे, जहॉं इन्सान ने सबसे पहले सभ्यता का पाठ पढा़ था और जिसके कारण उस क्षेत्र को सभ्यता का केन्द्र कहा जाता है। तीस साल की इस अल्प अवधि में उन तमाम प्रचीन क़ौमों की राजनीतिक शक्ति ही ख़त्म नहीं हुई, बल्कि सभ्यता के मैदान में भी उन्हें हार माननी पडी़। उन्होंने तेज़ी से अपने पुराने धर्म को छोड़कर इस्लाम क़बूल करना शुरू किया कि आगामी पचास-साठ साल की अवधि में उन मुल्कों की लगभग सारी आबादी मुसलमान को गई और ये मुल्क हमेशा के लिए इस्लामी दुनिया का हिस्सा बन गए। धर्म के साथ ही इन क़ौमों का जीवन से सम्बन्धित दृष्टिकोण भी बदल गया और इस प्रकार एक नई सभ्यता का बुनियाद पडी़ जो स्थानीय विशेषताओं के बावजूद इस्लामी सभ्यता सभ्यता कहलाई और जिसके चिह्न चौदह सौ साल बाद आज भी बाक़ी हैं। मुसलमानों की यह महान सफलता, तलवार का नतीजा नहीं थी, बल्कि इस्लाम की श्रेष्ठ एवं उच्च शिक्षाओं का नतीजा थी।
0 comments :
Post a Comment