इस्लाम में हुक्म देने यानी तशरीअ का इख़्तियार सिर्फ़ अल्लाह سبحانه وتعال को हासिल है। इसलिए वही शारेअ है और उसी से हुक्म इख्तिराअ (originate) होता है। चुनांचे अल हाकिम होना अल्लाह سبحانه وتعال की सिफ़ात में से है जिस में कोई और शरीक नहीं हो सकता। उसकी हाकिमीयत में शरीक होने का दावा, उसकी रुबूबियत में शिराकत के दावे के मुतरादिफ़ है। अल्लाह سبحانه وتعال का फ़रमान हैं:
मग़रिबी क़ानूनी फ़लसफ़ा, जो अक़्ल को क़ानूनसाज़ी का मंबा गर्दानता है, इस्लाम के मज़कूरा उसूल के मुतज़ाद खिलाफ है। मग़रिबी फ़लसफ़े में अक़्ल को ही ये इख़्तियार हासिल है कि वो अच्छे और बुरे का फ़ैसला करे और इस अम्र में किसी ख़ारिजी उनसुर की मुदाख़िलत, मसलन वह्यी, नाक़ाबिले बर्दाश्त है। दूसरे लफ़्ज़ों में अक़्ल ही हाकिम है और यही वाक़ियात पर अपना अटल फ़ैसला सुनाती है। जबकि इस्लाम में अक़्ल का किरदार शरई नुसूस से, बंदे के अफ़आल से मुताल्लिक़ शारेअ के ख़िताब को, समझने तक महदूद है। अक़्ल इस समझने के सिलसिले में अपना कोई ख़ुद मुख़्तार फ़ैसला नहीं दे सकती बल्कि ये सिर्फ़ नुसूस में मुक़य्यद है। पस जिस बात पर ये दलालत करें या जिस तरफ़ इशारे, अक़्ल उसी हद तक जाएगी और इस से तजावुज़ नहीं कर सकती, यानी ये नुसूस की अक़्ली तावील से बाज़ रहेगी!
इंसान के अफ़आल पर गहरी नज़र डालने से ये साबित होता है कि अक़्ल उन पर अटल फ़ैसला नहीं दे सकती। उसकी पहली वजह ये कि अक़्ल महदूद है क्योंकि हर रोज़ उसकी मालूमात में इज़ाफ़ा होता है, जिस की वजह से ये नए नए इन्किशाफ़ करती है। फिर जब कोई हल देती है, तो वो उन्ही मालूमात की बुनियाद पर होता है। पस जब उसकी फ़िक्री उफ़ुक़ मज़ीद वसीअ होती है, तो ये अपना फ़ैसला बदल कर कोई नया फ़ैसला सुनाती है और उस वक़्त पुराना हल ग़लत नज़र आता है। दूसरे लफ़्ज़ों में इंसान जब अपनी अक़्ल से अफ़आल पर फ़ैसला सादर करने की कोशिश करता है, तो वह हमेशा आ रिज़ी होता है और हालात बदलने से इस का फ़ैसला भी बदल जाता है। मग़रिब में क़ानून साज़ी पर एक नज़र डालने से इस अम्र की तस्दीक़ होती है। वहां आए दिन क़वानीन बदलते हैं जब कि साबिक़ा हल ग़लत और फ़ुज़ूल नज़र आते हैं। यानी इंसान अफ़आल पर ये अटल फ़ैसला सुनाने से क़ासिर है कि कौन सा फे़अल सही-ओ-अच्छा है और कौनसा फे़अल ग़लत और बुरा। इसी से अक़्ल की क़ानून साज़ी में ला अहलीयत वाजेह हो जाती है।
अलावा अज़ीं जब इंसान की अक़्ल किसी फे़अल को अच्छे या बुरे होने से ताबीर करती है, तो सूरते हालात उसकी शरह पर असर अंदाज़ होते हैं। मसलन जंग की हालत में या किसी शख़्स से इंतिक़ाम लेने की सूरत में, अक़्ल क़त्ल को अच्छा समझ सकती है, जबकि कई दूसरे मवाक़ेअ पर ये क़त्ल को बुरा समझती है। चुनांचे किसी फे़अल से, ज़ाती तौर पर, उसकी अच्छाई या बुराई नहीं समझी जा सकती, बल्कि इस पर हमेशा ख़ारिजी अनासिर असर अंदाज़ होंगे। यहीं से साबित हुआ कि अक़्ले ए इंसानी क़ानून साज़ी के लिए आजिज़ है और एक ऐसी हस्ती इस काम के लिए दरकार है, जो तमाम मौजूदात का अहाता करे और अपनी मालूमात में कामिल हो! ज़ाहिर है कि सिर्फ़ तमाम जहानों का रब, अल्लाह ही उसकी क़ाबिलीयत रखता है, क्योंकि उसी ने इंसान की तख़लीक़ की और सिर्फ़ वह ही बता सकता है कि उसके लिए क्या अच्छा और क्या बुरा है। चुनांचे फ़क़त वही अफ़आल पर अटल फ़ैसला सुना सकता है और इसी लिए वही शारेअ (legislator/क़ानून निर्माता) है। पस जिसे शारे ने अच्छा क़रार दिया है, वो फे़अल इंसान के लिए अच्छा है और जिसे शारेअ ने बुरा क़रार दिया है, वो फे़अल इंसान के लिए बुरा !
إِنِ ٱلۡحُكۡمُ إِلَّا لِلَّهِ
हुक्म तो सिर्फ़ अल्लाह ही के लिए है (अल अनाम:57)
أَلَا لَهُ ٱلۡخَلۡقُ وَٱلۡأَمۡرُ
याद रखो ! उसी (अल्लाह) के लिए है ख़ास ख़ालिक़ होना और हाकिम होना (अल आराफ: 54)
मग़रिबी क़ानूनी फ़लसफ़ा, जो अक़्ल को क़ानूनसाज़ी का मंबा गर्दानता है, इस्लाम के मज़कूरा उसूल के मुतज़ाद खिलाफ है। मग़रिबी फ़लसफ़े में अक़्ल को ही ये इख़्तियार हासिल है कि वो अच्छे और बुरे का फ़ैसला करे और इस अम्र में किसी ख़ारिजी उनसुर की मुदाख़िलत, मसलन वह्यी, नाक़ाबिले बर्दाश्त है। दूसरे लफ़्ज़ों में अक़्ल ही हाकिम है और यही वाक़ियात पर अपना अटल फ़ैसला सुनाती है। जबकि इस्लाम में अक़्ल का किरदार शरई नुसूस से, बंदे के अफ़आल से मुताल्लिक़ शारेअ के ख़िताब को, समझने तक महदूद है। अक़्ल इस समझने के सिलसिले में अपना कोई ख़ुद मुख़्तार फ़ैसला नहीं दे सकती बल्कि ये सिर्फ़ नुसूस में मुक़य्यद है। पस जिस बात पर ये दलालत करें या जिस तरफ़ इशारे, अक़्ल उसी हद तक जाएगी और इस से तजावुज़ नहीं कर सकती, यानी ये नुसूस की अक़्ली तावील से बाज़ रहेगी!
इंसान के अफ़आल पर गहरी नज़र डालने से ये साबित होता है कि अक़्ल उन पर अटल फ़ैसला नहीं दे सकती। उसकी पहली वजह ये कि अक़्ल महदूद है क्योंकि हर रोज़ उसकी मालूमात में इज़ाफ़ा होता है, जिस की वजह से ये नए नए इन्किशाफ़ करती है। फिर जब कोई हल देती है, तो वो उन्ही मालूमात की बुनियाद पर होता है। पस जब उसकी फ़िक्री उफ़ुक़ मज़ीद वसीअ होती है, तो ये अपना फ़ैसला बदल कर कोई नया फ़ैसला सुनाती है और उस वक़्त पुराना हल ग़लत नज़र आता है। दूसरे लफ़्ज़ों में इंसान जब अपनी अक़्ल से अफ़आल पर फ़ैसला सादर करने की कोशिश करता है, तो वह हमेशा आ रिज़ी होता है और हालात बदलने से इस का फ़ैसला भी बदल जाता है। मग़रिब में क़ानून साज़ी पर एक नज़र डालने से इस अम्र की तस्दीक़ होती है। वहां आए दिन क़वानीन बदलते हैं जब कि साबिक़ा हल ग़लत और फ़ुज़ूल नज़र आते हैं। यानी इंसान अफ़आल पर ये अटल फ़ैसला सुनाने से क़ासिर है कि कौन सा फे़अल सही-ओ-अच्छा है और कौनसा फे़अल ग़लत और बुरा। इसी से अक़्ल की क़ानून साज़ी में ला अहलीयत वाजेह हो जाती है।
अलावा अज़ीं जब इंसान की अक़्ल किसी फे़अल को अच्छे या बुरे होने से ताबीर करती है, तो सूरते हालात उसकी शरह पर असर अंदाज़ होते हैं। मसलन जंग की हालत में या किसी शख़्स से इंतिक़ाम लेने की सूरत में, अक़्ल क़त्ल को अच्छा समझ सकती है, जबकि कई दूसरे मवाक़ेअ पर ये क़त्ल को बुरा समझती है। चुनांचे किसी फे़अल से, ज़ाती तौर पर, उसकी अच्छाई या बुराई नहीं समझी जा सकती, बल्कि इस पर हमेशा ख़ारिजी अनासिर असर अंदाज़ होंगे। यहीं से साबित हुआ कि अक़्ले ए इंसानी क़ानून साज़ी के लिए आजिज़ है और एक ऐसी हस्ती इस काम के लिए दरकार है, जो तमाम मौजूदात का अहाता करे और अपनी मालूमात में कामिल हो! ज़ाहिर है कि सिर्फ़ तमाम जहानों का रब, अल्लाह ही उसकी क़ाबिलीयत रखता है, क्योंकि उसी ने इंसान की तख़लीक़ की और सिर्फ़ वह ही बता सकता है कि उसके लिए क्या अच्छा और क्या बुरा है। चुनांचे फ़क़त वही अफ़आल पर अटल फ़ैसला सुना सकता है और इसी लिए वही शारेअ (legislator/क़ानून निर्माता) है। पस जिसे शारे ने अच्छा क़रार दिया है, वो फे़अल इंसान के लिए अच्छा है और जिसे शारेअ ने बुरा क़रार दिया है, वो फे़अल इंसान के लिए बुरा !
0 comments :
Post a Comment