अब्बासी खिलाफत के कारनामे हिस्सा

बैद्धिक एवं साहित्यिक दुनिया

बनी अब्‍बासी के हालात पढ़कर मालूम हो गया होगा कि यह काल युद्ध विजय एवं साम्राज्‍य विस्‍तार का काल नहीं था, बल्कि सांस्‍कृतिक, बौद्धिक एवं साहित्यिक विकास का काल था। हम इस प्रकार कह सकते है कि बनी अब्‍बास का काल देश-विजय का काल नहीं था, बल्कि बौद्धिक एवं सांस्‍कृति‍क विजय का काल था। उस काल के आलिम जब तक बग़दाद आकर बडे़-बडे़ विद्वानों से शिक्षा नहीं प्राप्‍त कर लेते थे, तब तक वे अपने ज्ञान को पूर्ण नहीं समझते थे। यहॉं इस्‍लामी दुनिया के दूर-दराज़ इलाक़ों से आलिम, साहित्‍यकार और कवि शिक्षा प्राप्‍त करने भी आते थे और इसलिए भी आते थे कि उनका यहॉं सम्‍मान होता था। बग़दाद के अलावा बसरा और कूफ़ा के शहर भी उस काल में ज्ञान के बहुत बडे़ केन्‍द्र थे। मिस्र में ऐसा ही एक केन्‍द्र फिस्‍तात में था। बनी अब्‍बास के अन्तिम काल में क़ैरवान, रै, नेशापुर, मरू और बुख़ारा भी ज्ञान एवं साहित्‍य के बडे़ केन्‍द्र बन गए थे।

धार्मिक ज्ञान – इस्‍लामी हुकूमत का जब प्रारंभ हुआ तो शुरू-शुरू में शिक्षा मौखिक (ज़बानी) रूप में दी जाती थी। बनी उमय्या के अन्तिम काल से किताबों के लिखने का काम प्रारंभ हो गया, परन्‍तु लेखन का काम बनी अब्‍बास के काल में पूरे ज़ोर-शोर से शुरू हुआ। मुसलमान आलिमों ने सबसे पहले दीनी शिक्षा और धार्मिक ज्ञान की ओर ध्‍यान दिया। क़ुरआन की तफ़्सीरें (व्‍याख्‍या) लिखी गई। मुहम्‍मद (صلى الله عليه وسلم) के आदेश और उनकी बातें, जो 'हदीस' कहलातीं हैं, जमा की गई। फ़िक़ह (इस्‍लामी विधान) की भी किताबें लिखी गई। उन किताबों में बताया गया है कि जब कोई नया मसला पेश आए तो क़ुरआन और हदीस की रौशनी में उसे कैसे हल किया जाए। फ़िक़ह के आलिम को 'फ़क़ीह' और हदीस के आलिम को 'मुहद्दिस' कहा जाता है। तफ़सीर, हदीस और फ़िक़ह के अलावा इतिहास, साहित्‍य और कविता पर भी किताबें लिखी गई और अन्‍त में दर्शनशास्‍त्र, खगोलशास्‍त्र, गणित, चिकित्‍सा आदि पर किताबें लिखी गई।

अब्‍बासी काल में जो आलिम और साहित्‍यकार पैदा हुए उन पर मुसलमानों को गर्व है और वे इतने बडे़ है कि आज तक उनकी किताबें पढी़ जाती है। हमें आज इस्‍लाम के सम्‍बन्‍ध में जो मालूमात हैं, वह उन्‍हीं की लिखी हुई किताबों से हैं और तमाम इस्‍लामी ज्ञान की बुनियाद यही किताबें हैं। फ़िक़ह इस्‍लामी या इस्‍लामी विधान का संकलन और हदीस के प्रमाणिक किताबों का लेखन अब्‍बासी काल का महान इल्‍मी कारमाना है। फ़िक़ह के एतिबार से वे चार मस्‍लक जो सबसे ज्‍़यादा सम्‍मानित हुए, इसी काल से सम्‍बन्‍ध रखते हैं। वे चार मस्‍लक है : फ़िक़ह हनफ़ी, फ़िक़ह मालिकी, फ़िक़ह शाफ़ई और फ़िक़ह हंबली। इनके अलावा फ़िक़ह जाफ़री भी जिस पर असना-अशरी शीआ अमल करते हैं, इसी काल में संकलित हुआ। फ़िक़ह के इन मस्‍लकों को प्रारंभ करने वाले आलिम निम्‍न है :-

इमाम अबू हनीफ़ा (رحمت اللہ علیہ) (80 हि./699 ई. से 150 हि./767 ई.)

नोमान बिन साबित, जो इमाम अबू हनीफ़ा के नाम से मशहूर हुए, कूफ़ा के रहने वाले थे और कपडे़ का व्‍यापार करते थे। उन्‍होंने जिस इस्‍लामी फ़िक़ह की बुनियाद रखी वह फ़िक़ह हनफ़ी के नाम से मशहूर है। इमाम अबू हनीफ़ा बडे़ अच्‍छे अख्‍़लाक वाले और दौलतमंद आदमी थे। वह अपनी दौलत से शागिर्दो की मदद किया करते थे। वह किसी की ग़ीबत (परोक्ष निंदा) नहीं करते थे और अपना काम ईमानदारी पूर्वक पूरा करते थे। एक बार एक व्‍यक्ति ने उनसे कपडा़ ख़रीदा, उस कपडे़ में कुछ ख़राबी थी। इमाम अबू हनीफ़ा (رحمت اللہ علیہ) ने उस ख़राबी को छुपाया नहीं और ख़रीदार से कहा कि यह ख़राबी को जानने के बाद अगर तुम ख़रीदना चाहो तो ख़रीद लो।

फ़िक़ह हनफ़ी का सबसे अधिक प्रसार इमाम अबू हनीफ़ा के शागिर्दो क़ाज़ी अबू यूसुफ़ (113 हि./731 ई. से 183 हि./799 ई.) और इमाम मुहम्‍मद बिन हसन शैबानी (132 हि./749 ई. से 189 हि./805 ई.) के कारण हुआ। काज़ी अबू यूसुफ़ ने सबसे पहले फ़िक़ह हनफ़ी की किताबें लिखीं। उन्‍हें चूँकि हारून रशीद ने पूरी खिलाफ़ते अब्‍बासिया का चीफ़ जस्टिस बनाया था इसलिए उनके कारण फ़िक़ह हनफ़ी का बहुत प्रसार हुआ। परन्‍तु फ़िक़ह हनफ़ी की वास्‍तविक बुनियाद इमाम मुहम्‍मद की लिखी किताबों पर है। वे पहले गुलाम थे, फिर आज़ाद हो गए थे। उन्‍होंने पच्‍चीस से ज्‍़यादा किताबें लिखी थी। शहर 'रै' में जब उनका इंतिक़ाल हुआ तो खुद हारून रशीद ने नमाज़े जनाज़ा पढा़ई और बडे़ अफ़सोस से कहा, ''आज इल्‍मे फ़िक़ह ज़मीन में दफ़न हो गया।''
इमाम मुहम्‍मद अंतर्राष्‍ट्रीय क़ानून के प्रथम संस्‍थापक समझे जाते हैं। फ़िक़ह हनफ़ी के मानने वालों की तादाद इस समय सबसे ज्‍़यादा है। चीन, भारत और पाकिस्‍तान के मुसलमान और अफ़ग़ान और तुर्क के मुसलमान आम तौर पर हनफ़ी मत को मानने वाले हैं।

इमाम मालिक (رحمت اللہ علیہ) (93 हि./711 ई. से 179 हि./795 ई.)

इस काल के एक महान आलिम इमाम मालिक (93 हि. से 179 हि.) हैं। इमाम अबू हनीफ़ा कूफ़ा में थे और इमाम मालिक लगभग उसी ज़माने में मदीना में थे। वे मदीना में रहने के कारण हज़रत मुहम्‍मद (صلى الله عليه وسلم) की हदीसों के अपने ज़माने में सबसे बडे़ आलिम थे। इमाम मालिक (رحمت اللہ علیہ) ने हदीसों का एक संकलन भी तैयार किया था, जिसका नाम 'मुवत्‍ता' था। इस वक्‍़त हदीसों की जितनी किताबें हैं, मोवत्‍ता उनमें सबसे पुरानी है। इमाम मालिक (رحمت اللہ علیہ) भी इमाम अबू हनीफ़ा (رحمت اللہ علیہ) की तरह लोगों की मदद करते थे। उन्‍हें खलीफ़ा की तरफ से जो तोहफ़े मिलते थे वे उन्‍हें लोगों में बॉंट दिया करते थे। इमाम मालिक बडे़ ईमानदार और उसूल के पक्‍के थे। वे अपने उसूल के मुक़ाबले में बडे़ इन्‍सान के सामने झुकने से इनकार कर देते थे। एक बार ख़लीफ़ा हारून रशीद मदीना आया और उसने अपनी इच्‍छा ज़ाहिर की कि वे महल में आकर 'मुवत्‍ता' की किताब उसके लड़कों को पढा़ दें। इमाम मालिक ने महल में जाने से मना कर दिया और कहा कि जिसे पढ़ने का शौक़ हो उसे खु़द आना चाहिए। इस पर हारून रशीद अपने दोनों बेटों अमीन और मामून को लेकर इमाम साहब के पास आया। वहॉं बहुत से लड़के पढ़ रहे थे। यह देखकर ख़लीफ़ा ने कहा, ''इस भीड़ को अलग कर दीजिए।'' इमाम मालिक ने जवाब दिया, ''दो-चार के कारण इतने सारे विद्या‍र्थियों को नुक़सान नहीं किया जा सकता।'' और इस प्रकार हारून रशीद और उसके लड़कों को तमाम विद्यार्थियों के साथ पढ़ना पडा़। मुवत्‍ता पढ़ने के बाद इमाम मालिक ने ख़लीफ़ा को मदीना के फ़क़ीरों और ग़रीबों की ओर ध्‍यान दिलाया और हारून ने उनकी हिदायत पर सभी फ़क़ीरों को रुपया बॉंटा।

फ़िक़ह मालिकी की सबसे अहम किताब 'मद्दव्‍वना' है जो क़ैरवान के क़ाज़ी और फ़ातेह सक़लिया असद बिन फ़रात (मुत्‍यु 213 हि./828 ई.) और इमाम सहनून (मृत्‍यु 240 हि./854 ई.) ने संपादित की थी।

इमाम शाफ़ई (رحمت اللہ علیہ) (150 हि./767 ई. से 204 हि./820 ई.)

इमाम मालिक (رحمت اللہ علیہ) के शागिर्द मुहम्‍मद बिन इद्रीस, जो इमाम शाफ़ई के नाम से मशहूर हैं, अपने ज़माने के बहुत बडे़ आलिम थे। उन्‍होंने तक़रीबन एक सौ किताबें लिखी थीं जिनमें से बहुत-सी अब भी मौजूद है। इमाम शाफ़ई (رحمت اللہ علیہ) की ज़िन्दगी का अधिकतर समय मक्‍का, मदीना, बग़दाद और मिस्र में गुज़रा है और आखिर में मिस्र में ही इंतिक़ाल किया। इमाम मालिक (رحمت اللہ علیہ) के बाद वे अपने ज़माने के सबसे बडे़ आलिम थे। वे बहुत अच्‍छे लेखक थे। उनकी गिनती अरबी भाषा में सबसे अच्‍छे लेखकों में होती है। 'किताबुल-उम' और 'अल-रिसाला' उनकी बहुत प्रसिद्ध किताबें हैं। अल-रिसाला का उर्दू में अनुवाद हो चुका है।

मिस्र अरब, शाम (सीरिया), इराक़ और ईरान उस ज़माने में इस विशाल भू-भाग में जितने महान आलिम हुए है, उनमें अधिकतर शाफ़ई थे। आजकल इंडोनेशिया, मलेशिया, हिजाज़ मिस्र व शाम और उत्‍तरी अफ्रीक़ा के अधिकतर मुसलमान फ़िक़ह शाफ़ई के अनुयायी हैं। इस्‍लामी दुनिया में फ़िक़ह हनफ़ी के बाद सबसे ज्‍़यादा अनुयायी फ़िक़ह शाफ़ई के हैं।

इमाम अहमद बिन हम्‍बल (رحمت اللہ علیہ) (164 हि./780 ई. से 241 हि./855 ई.)

इस दौर के चौथे बडे़ आलिम शाफ़ई (رحمت اللہ علیہ) के शागिर्द इमाम अहमद बिन हम्‍बल (رحمت اللہ علیہ) हैं। इमाम अहमद बिन हम्‍बल (رحمت اللہ علیہ) अपने ज़माने में हदीस के सबसे बडे़ आलिम थे। उन्‍होंने 'मुसनद' के नाम से हदीसों की एक बहुत बडी़ किताब लिखी, जिसमें लगभग चालीस हदीसें हैं। इमाम शाफ़ई की तरह इमाम अहमद बिन हम्‍बल भी ग़रीब थे। उन्‍हें ख़लीफ़ा और प्रशासन की ओर से हज़ारों रुपये मिलते थे, लेकिन वे उसमें से अपने ऊपर कुछ भी खर्च नहीं करते थे। यह सारी रक़म लोगों में बॉंट देते थे। ख़लीफ़ा मोतसिम ने एक बार उन पर बडी़ सख्‍़ती की। वह चाहता था कि एक बात, जिसे इमाम अहमद बिन हम्‍बल ग़लत समझते थे, उनसे मनवा ले, लेकिन उन्‍होंने इनकार कर दिया। इस पर ख़लीफ़ा ने उन्‍हें कोडो़ं से इतना पिटवाया कि वे बेहोश हो गए। इमाम अहमद बिन हम्‍बल ने यह सभी अत्‍याचार सहन कर लिए, परन्‍तु जिस बात को वे ग़लत समझते थे उसे उन्‍होंने सही नहीं कहा। उनकी कुर्बानियों के कारण उन्‍हें सारी इस्‍लामी दुनिया में ऐसी लोकप्रियता प्राप्‍त हुई कि वे दिलों के बादशाह बन गए। जब उनका बग़दाद में इंतिक़ाल हुआ तो आठ लाख से ज्‍़यादा लोग जनाज़े में शरीक थे।

अब्‍बासी ख़िलाफ़त के पतन काल में फ़िक़ह हम्‍बली के मानने वालों का बग़दाद में बडा़ ज़ोर था। परन्‍तु अब सिर्फ अरब के सूबा नज़द में उनकी अक्‍सरियत है। हम्‍बली फ़िक़ह के मानने वाले आलिमों में सबसे ज्‍़यादा प्रसिद्धि 'इमाम इब्‍न तैमिया' ने प्राप्‍त की, जिनकी चर्चा आगे चलकर होगी। फ़िक़ह जाफ़री के संस्‍थापक इमाम जाफ़र सादिक़ (80 हि./699 ई. से 148 हि./765 ई.) है, जिनकी चर्चा उमवी काल में हो चुकी है। इमाम अबू हनीफ़ा और इमाम मालिक दोनों इमाम जाफ़र सादिक़ के शागिर्द रह चुके थे। पाकिस्‍तान, भारत, ईरान और इराक़ के शिआ नागरिक फ़िक़ह जाफ़री पर अमल करते हैं।

इमाम बुख़ारी (رحمت اللہ علیہ) (194 हि./810 ई. से 256 हि./870 ई.)

इस काल के मुहद्दिसों में मुहम्‍मद बिन इस्‍माईल जो इमाम बुख़ारी के नाम से मशहूर हैं, बहुत बडे़ मुहद्दिस माने जाते हैं। उन्‍होंने हज़रत मुहम्‍मद (صلى الله عليه وسلم) के आदेशों और उनकी ज़िन्दगी की घटनाओं को बडी़ खोज-बीन के बाद एक किताब में जमा किया। यह किताब 'सहीह बुख़ारी' कहलाती है। इस किताब के लिखने में इमाम बुख़ारी (رحمت اللہ علیہ) की ज़िन्दगी के तीस साल लगे। इमाम बुख़ारी (رحمت اللہ علیہ) उस ज़माने के अन्‍य बहुत से आलिमों की तरह व्‍यापार किया करते थे। वे बहुत दोलतमंद थे, लेकिन सादा ज़िन्दगी गुज़ारते थे और अपने रुपए से दूसरों की मदद किया करते थे।

इमाम बुख़ारी (رحمت اللہ علیہ) ने 'सहीह हदीसों' का यह संकलन हज़रत मुहम्‍मद (صلى الله عليه وسلم) के इंतिक़ाल के लगभग ढाई सौ साल बाद तैयार किया। इससे पहले इमाम मालिक भी 'मुवत्‍ता' के नाम से हदीसों का एक प्रमाणिक संकलन तैयार कर चुके थे, जो हज़रत मुहम्‍मद (صلى الله عليه وسلم) के इंतिक़ाल के डेढ़ सौ साल बाद तैयार किया गया था, परन्‍तु इससे यह समझना कि हज़रत मुहम्‍मद (صلى الله عليه وسلم) के बाद डेढ़ सौ साल तक हदीसों की कोई किताब लिखी ही नहीं गई थी, सही नहीं। हम पढ़ चुके हैं कि हदीसों को लिखने का काम खिलाफ़ते राशिदा ही के ज़माने में प्रारंभ हो गया था और सौ साल के अन्‍दर-अन्‍दर ख़ुद सहाबा की जिन्‍दगियों में अनगिनत संकलन तैयार हो गए थे और आलिम मसजिदों में उनका दर्स दिया करते थे, लेकिन चूँकि उस ज़माने के लोग याद कर लेने को खिलने के मुक़ाबले में ज्‍़यादा अच्‍छा तरीक़ा समझते थे, इसलिए यह किताबें मशहूर नहीं हुई। इसके अलावा इन किताबों में हर प्रकार की हदीसें मौजूद थीं। वे हदीसें भी जिनको सही समझा जाता था और वे भी जिनके सही होने में शक था। दर्स देने वाले आलिम तो सही-ग़लत का फर्क़ समझा देते थे, परन्‍तु संकलनों में सही-ग़लत को पहचानना आम लोगों के लिए बहुत मुश्किल था। इमाम बुखारी (رحمت اللہ علیہ) और बाद के मुहद्दिसों ने इस मुश्किल को देखकर फ़ैसला किया कि उन हदीसों का एक संकलन तैयार किया जाए जो हर लिहाज़ से सही हों, जिन्‍हें सहाबा (رضي الله عنه) और उनके बाद आने वाले बुज़ुर्ग एवं आलिम सही समझते आए हैं, ताकि इस प्रकार मुसलमान बिना किसी दिक्‍़कत के हज़रत मुहम्‍मद (صلى الله عليه وسلم) के सही आदेशों को मालूम कर सकें।    
       
सिहाहे सित्‍ता– हदीसों की एक और हिताब 'सहीह मुस्लिम' भी इसी ज़माने में लिखी गई। यह इमाम मुस्लिम (رحمت اللہ علیہ) (202 हि./821 ई. या 206 हि./821 ई. से 261 हि./875 ई.) की लिखी हुई है और सहीह बुख़ारी के दर्जे की है। इसी ज़माने में मुहाद्दिस इमाम तिरमिज़ी (209 हि./824 ई. से 279 हि./893 ई.) ने जो इमाम बुख़ारी के शागिर्द थे, 'शमाइल' के नाम से एक किताब लिखी। इसमें सहीह हदीसों की मदद से हज़रत मुहम्‍मद (صلى الله عليه وسلم) की ज़िन्दगी की घटनाऍं लिखी गई हैं। इसके अतिरिक्‍त उन्‍होंने 'सहीह तिरमिज़ी' के नाम से हदीसों की एक किताब भी लिखी थी।

सहीह बुख़ारी, सहीह मुस्लिम और सहीह तिरमिज़ी के अलावा इस ज़माने में हदीसों के तीन और प्रसिद्ध और प्रमाणिक संकलन तैयार किए गए जो अपने तैयार करने वालों के नाम पर 'अबू दाऊद' (202 हि./817 ई. से 275 हि./888 ई.), 'इब्‍न माजा' (209 हि./824 ई. से 273 हि.886 ई.) और 'नसई' (221 हि./836 ई. से 303 हि./915 ई.) कहलाते हैं। सहीह हदीसों की चूँकि ये कुल छ: किताबें हैं, इसलिए इन्‍हें 'सिहाहे सित्‍ता' यानी छ: सही किताबें कहा जाता है। इस प्रकार इन किताबों को इस्‍लामी ज्ञान के समझने में बुनियादी अहमियत हासिल है।

इतिहास एवं भूगोल

इस काल में इतिहास एवं जीवन चरित्र की भी बडी़-बडी़ कितबों लिखी गई। इनमें एक इब्‍न हिशाम (मृत्‍यु 213 हि./828 ई.) की लिखी हुई 'सीरतुन-नबी' है। इसमें हज़रत मुहम्‍मद (صلى الله عليه وسلم) की ज़िन्दगी की घटनाऍं लिखी गई हैं। परन्‍तु इस काल के सबसे बडे़ जीवनी लेखक इब्‍न साद (168 हि./784 ई. से 230 हि./845 ई.) हैं। इन्‍होंने 'तबक़ात' के नाम से एक बहुत बडी़ किताब लिखी है। इसमें हज़रत मुहम्‍मद (صلى الله عليه وسلم) के अलावा उनके सहाबा (رضي الله عنه) और सहाबा के बाद आने वाले महान लोगों जिन्‍हें 'ताबईन' कहा जाता है, के हालात लिखे है। इस प्रकार 'तबक़ात' इब्‍न साद से कई सौ महापुरूषो के हालात मालूम हो सकते हैं।    
    
युद्ध विजयों का हाल एक और इतिहासकार बलाज़ुरी (मृत्‍यु 279 हि./892 ई.) ने अपनी किताब 'फ़ुतूहुल-बलदान' में लिखा है। इस किताब में हज़रत उमर (رضي الله عنه) के काल की विजयों और उसके बाद अंदलुस (स्‍पेन), मध्‍य ऐशिया और सिन्‍ध आदि की विजयों का अल्‍लेख किया है। परन्‍तु इस काल के सबसे बडे़ इतिहासकार इब्‍न जरीर तबरी (224 हि./839 ई. से 310 हि./923 ई.) हुए है। उन्‍होंने चौदह वृहत भागों में इतिहास की एक किताब लिखी है, जिसमें अल्‍लाह के नबी हज़रत मुहम्‍मद (صلى الله عليه وسلم) के ज़माने से अपने ज़माने तक तीन सौ वर्ष का इतिहास विस्‍तार में लिखा है। तबरी बहुत बडे़ विद्वान थे। उन्‍होंने क़ुरआन की एक बहुत बडी़ तफ़्सीर भी लिखी है। इन दो किताबों के अलावा वे कई बडी़-बडी़ किताबों के लेखक हैं। तबरी इस्‍लामी इतिहास के सबसे बडे़ लेखक हैं। उन्‍होंने जितनी किताबें लिखीं, आज तक किसी ने नहीं लिखीं। कहा जाता है कि वे प्रत्‍येक दिन चौदह पृष्‍ठ लिखा करते थे और य‍ह सिलसिला ज़िन्दगी भर जारी रहा।

मसऊदी

इस काल के लेखकों में मसऊदी (मृत्‍यु 345 हि./956 ई.) का नाम भी उल्‍लेखनीय है। वह इतिहासकार होने के अलावा एक बडे़ भूगोलशास्‍त्री और महान पर्यटक भी थे। मसऊदी बग़दाद के रहने वाले थे। उन्‍होंने 305 हि./917 ई. से कुछ पहले इस शहर से अपना सफ़र शुरू किया। सबसे पहले वे ईरान गए। वहॉं से पाकिस्‍तान आए। सिन्‍ध और मुल्‍तान की सैर की। फिर वे भारत के पश्‍चिमी समुद्र तट के साथ-साथ कोकण और मालाबार के इलाक़े की सैर करते हुए श्रीलंका पहुँचे। जब वे श्रीलंका पहुँचे तो उन्‍हें बग़दाद से निकले हुए तीन वर्ष हो चुके थे। यहॉं से वे एक तिजारती क़ाफिले के साथ चीन गए। चीन से वापसी पर उन्‍होंने ज़ंजबार का रुख किया और पूर्वी अफ्रीक़ा के समुद्री तटों की सैर करते हुए मेडगास्‍कर पहुँचे। यहॉं के दक्षिणी अरब और अम्‍मान होते हुए अपने वतन बग़दाद वापस आ गए।

अनुमान लगाया जा सकता है कि पुराने ज़माने में जबकि कोई हवाई जहाज़, रेलें और मोटरें नहीं थीं और एक देश के लोग दूसरे देश के लोगों से बिल्‍कुल अनभिज्ञ होते थे, सफ़र करना कितना कठिन होता होगा। विशेषकर समुद्र का सफ़र तो बहुत ही ख़तरनाक होता था। छोटे-छोटे जहाज़ों की समुद्र की तूफ़ानी लहरों के आगे क्‍या हक़ीक़त थी, लेकिन इस बहादुर पर्यटक ने इल्‍म और मालूमात हासिल करने के लिए इन तमाम ख़तरों का मुक़ाबला किया और अपनी जान हथेली पर रखकर दुनिया के एक बडे़ हिस्‍से की सैर कर डाली और अपनी यात्रा वृतांत लिखकर इन विभिन्‍न देशों की सभ्‍यता एवं संस्‍कृति से लोगों को परिचित कराया। मसऊदी ने सफ़र की कठिनाइयों का उल्‍लेख करते हुए एक जगह लिखा है : ''मैने चीन, रूम, क़ुलज़म और यमन के समुद्रों में सफ़र किया है। इन समुद्री सफ़रों के बीच मुझे तरह-तरह के ख़तरों से इतना अधिक मुक़ाबला करना पडा़ कि मैं उनका विस्‍तार से उल्‍लेख नहीं कर सकता। लेकिन पूर्वी अफ्रीक़ा और भारत के बीच समुद्र में मैने जो कुछ देखा वह आज भी याद है। यहॉं मुझे बेहद ख़ौफ़नाक और कठिन क्षणों से गुज़रना पडा़। यहॉं मैने एक ऐसी मछली देखी जो एक सौ गज़ लम्‍बी है या उससे भी ज्‍़यादा। जहाज़ चालक उसे 'आवाल' कहते हैं। यह मछली समुद्र में कहीं न कहीं नज़र आ जाती है और जब उसका एक पर कहीं नज़र आता है तो यूँ लगता है, जैसे किसी डूबते हुए जहाज़ का बादबान है। यह मछली कभी-कभी सिर निकालकर इतने ज़ोर से सांस लेती है कि पानी आसमान की ओर तीर की तरह निकलता है। दिन हो या रात जहाज़ के चालकों के लिए यह एक समस्‍या बनी रहती है और वे उसे भगाने के लिए ख़ौफ़नाक आवाज़ों वाले गोले छोड़ते रहते हैं।'' मसऊदी ने जिस मछली का उल्‍लेख किया है वह संभवत: वही मछली है जिसे आजकल ह्वेल कहा जाता है।   

मसऊदी बीस से अधिक किताबों के लेखक थे, परन्‍तु मात्र दो किताबों के अब उनकी और कोई किताब नहीं मिलती। उन किताबों के नाम 'मुरव्‍वजुज़-ज़ह्ब' और 'अल-तंबीह वल-अशरफ़' हैं। मसऊदी की किताबों की सबसे बडी़ विशेषता यह है कि उन्‍हें पढ़कर चौथी सदी हिजरी की ज़िन्दगी आईना के समान हमारे सामने आ जाती है और उस काल की सभ्‍यता एवं संस्कृति का नक्‍़शा खिंच जाता है। यह बात उस ज़माने के किसी और इतिहासकार में नहीं मिलती
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अबुल हसन अशअरी

इस काल के आलिमों में अबुल हसन अशअरी (260 हि./873 ई. से 324 हि./935 ई.) का नाम भी उल्‍लेखनीय है। ईरानियों और दूसरी गै़र अरब क़ौमों के मुसलमान हो जाने के कारण एवं गै़र-मुस्लिम नागरिकों के साथ मेलजोल और उनकी किताबों के अरबी में अनुवाद हो जाने के कारण, उस काल के मुसलमानों में गै़र-इस्‍लामी विचारधारा फैलनी शुरू हो गई थी। इमाम अहमद बिन हम्‍बल और इमाम शाफ़ई आदि ने इन विचारधाराओं की रोकथाम की, परन्‍तु इन गुमराह करने वाली विचाराधाराओं को बौद्धि‍क स्‍तर पर जिसने कामयाब मुक़ाबला किया वह इमाम अबुल हसन अशअरी हैं। उन्‍होंने पहली बार बौद्धिक आधार पर इस्‍लामी आस्‍थाओं और सिद्धान्‍तों की सच्‍चाई साबित की और एक नए इल्‍म की बुनियाद डाली जो इल्‍मे कलाम (तर्कशास्‍त्र) कहलाता है। जिसका उद्देश्‍य बौद्धिक दलीलों से इस्‍लाम की सच्‍चाई साबित करना है।

विज्ञान – अब्‍बासी काल में दीनी उलूम (धार्मिक ज्ञान) के अलावा दूसरे उलूम जैसे चिकित्‍साशास्‍त्र, गणित, खगोलशास्‍त्र, रसायनशास्‍त्र, दर्शनशास्‍त्र और अन्‍य विषयों ने भी तरक्‍़क़ी की। इन विषयों का ज्ञान मुसलमानों ने पहली बार यूनानी, संस्‍कृत और दूसरी भाषाओं से अरबी में अनुवाद की हुई किताबों से सीखा, परन्‍तु जल्‍द ही वे इन विषयों पर इस प्रकार हावी हो गए कि जैसे ये उनके अपने विषय हों। उन्‍होंने इस मामले में रसूल (صلى الله عليه وسلم) की इस हदीस पर अमल किया – ''हिकमत (विज्ञान का ज्ञान) मुसलमानों की खोई हुए मीरास है, इसलिए वह जहॉं मिले हासिल कर लो।''

अत: मुसलमानों ने इन विषयों में ऐसी-ऐसी किताबें लिखीं कि आज भी वे अपने विषय की बुनियादी किताबें समझी जाती है। इन मुसलमान वैज्ञानिकों में से कुछ के नाम ये है :

मुहम्‍मद बिन मूसा ख़्वारिज़मी

मुहम्‍मद बिन मूसा ख्‍़वारिज़मी जिनका इंतिक़ाल (220 हि./833 ई. या 230 हि./844 ई.) में हुआ, इस काल के सबसे बडे़ गणितज्ञ थे। उन्‍होंने गणित, बीजगणित और खगोलशास्‍त्र पर बडी़ मेयारी किताबें लिखीं और इन विषयों में नए अध्‍याय जोडे़। यूरोप वालों ने गिनती के अंकों और शून्‍य का प्रयोग उनही की किताबों से सीखा।
मेकेनिक यानी विभिन्‍न यन्‍त्र बनाने की कला को तीन भाइयों ने जो बनू मूसा बिन शाकिर कहलाते थे, बडी़ तरक्‍़क़ी दी और इन विषयों में ऐसी किताबें लिखीं जो पहले कभी नहीं लिखी गई। मामून रशीद के काल में भूमण्‍डल की माप इन्‍ही भाइ्रयों ने की थी, जिनके नाम अहमद, हसन और मुहम्‍मद थे। प्रसिद्ध रसायनशास्‍त्री जाबिर बिन हय्यान (मृत्‍यु 161 हि.) भी इसी काल में हुआ। यूरोप के कुछ वैज्ञानिकों ने उसे आधुनिक रसायनशास्‍त्र का संस्‍थापक कहा है। रसायनशास्‍त्र पर उसने जो किताबें लिखीं वे एक हज़ार पृष्‍ठों पर फैली हुई हैं और यूरोप में छप गई हैं। यूरोप में आधुनिक काल से पहले जो वैज्ञानिक हुए हैं, उन्‍होंने जाबिर की उन किताबों से फ़ायदा उठाया और यही कारण है कि जाबिर को आधुनिक रयासनशास्‍त्र का संस्‍थापक कहा गया है।

चिकित्‍साशास्‍त्र में सबसे ज्‍़यादा प्रसिद्धि मुहम्‍मद ज़करिया राज़ी (240 हि./854 ई. से 320 हि./932 ई.) ने प्राप्‍त की। राज़ी न केवल ईस्‍लामी इतिहास में सबसे बडे़ चिकित्‍सक माने गए है, बल्कि दुनिया के सबसे बडे़ चिकित्‍सकों और डॉक्‍टरों में गिने जाते हैं। उन्‍होंने चिकित्‍साशास्‍त्र पर जो किताबें लिखीं उनका बाद में यूरोप की कई भाषाओं में अनुवाद हुआ और उनकी मदद से पूरोप ने चिकित्‍सा का ज्ञान सीखा।

दर्शनशास्‍त्र में याक़ूब किन्‍दी और फ़ाराबी (259 हि./873 ई. से 339 हि./950 ई.) ने प्रसिद्धि प्राप्‍त की। किन्‍दी ख़लीफ़ा मानून रशीद और उसके उत्‍तराधिकारियों के काल में था और पहला अरब दार्शनिक समझा जाता है। फ़राबी ने दर्शनशास्‍त्र को और तरक्‍़क़ी दी और 'मुअल्लिम सानी' (द्वितीय गुरू) के नाम से प्रसिद्ध हुआ। मुअल्लिम अव्‍वल (प्रथम गुरू) अरस्‍तु को समझा जाता है जो प्राचीन काल में यूनान का सबसे बडा़ दार्शनिक था। किन्‍दी और फ़राबी की किताबों ने भी यूरोप के दार्शनिकों को प्रभावित किया।

साहित्‍य – साहित्‍य के विकास के लिहाज़ से भी अब्‍बासी काल को एक उच्‍च स्‍थान प्राप्‍त है। शब्‍दकोष और व्‍याकरण का जन्‍म इसी काल में हुआ। इस विषय के सबसे बडे़ विद्वान और लेखक ख़लील नहवी (100 हि./718 ई. से 175 हि./791 ई.), सीबवैह (मृत्‍यु 177 हि./793 ई.) और असमई (122 हि./740 ई. से 216 हि./831 ई.) थे। ये तीनों अरबी शब्‍दकोष और व्‍याकरण का प्रारंभ करने वाले थे।

साहित्‍य में सबसे बडे़ विद्वान जाहिज़ (160 हि./775 ई. से 255 हि./868 ई.) की है, जिन्‍हें अरबी भाषा के सबसे बडे़ साहित्‍यकारों में गिना जाता है। उनकी किताब 'अल-हैवान' उन चार किताबों में गिनी जाती है जिन पर अरबी साहित्‍य आधारित है। अरबी साहित्‍य के इन चार शाहकारों में से बाक़ी तीन भी इसी दौर में लिखे गए। यानी इब्‍न क़ुवैता (213 हि./828 ई. से 276 हि./889 ई.) की 'अदबुल-कातिब' और 'ऐवानुल-अख़बार' और मुबर्रद (210 हि./826 ई. से 285 हि./898 ई.) की 'अल-कामिल फिल-अदब'। सादा ले‍खन शैली, वैचारिक गंभीरता, कवियों जैसी मधुरता जाहिज़ के लेखन की विशेषता हैं। वे नस्‍ल से हबशी और धार्मिल आस्‍था की दृष्टि से मुतजिला थे। उनकी किताबों में से 'हिताबुल-हैवान' और 'किताबुल-बयान' ने प्रसिद्धि आर्जित की।   
इब्‍न क़ुतैबा की 'ऐवानुल-अख़बार' दस भागों में है। यह साहित्‍य का ऐसा नमूना है जिसका अनुकरण बडे़-बडे़ साहित्‍यकारों ने किया। 'ऐवानुल-अख़बार' और मुबर्रद की 'अल-कामिल फिल-अदब' उस काल के सामाजिक जीवन के बारे में मालूमात प्राप्‍त करने का बहुत अच्‍छा स्‍त्रोत हैं। अरबी शायरी भी अपने चरम पर उसी काम में पहुँची। उमवी काल में तीन शायर अख़तल, जरीर और फ़रज्‍़दक़ का पीछे उल्‍लेख हो चुका है। ये तीनों अरबी के प्रथम श्रेणी के शायरों में गिने जाते हैं। परन्‍तु अब्‍बासी काल के शायर इन सबसे आगे बढ़ गए। उन शायरों में अबू तम्‍माम (180 हि./796 ई. से 228 हि./842 ई.), अबुल-अताहिया (130 हि./748 ई. से 210 हि./825 ई.), अबू नूवास (145 हि./762 ई. से 196 हि./813 ई.) और बुहतरी (204 हि./820 ई. 284 हि./897 ई.) सबसे प्रसिद्धि हैं।

संक्षेप यह है कि अब्‍बासी काल में बडे़-बडे़ विद्वान जिस बहुलता से गुज़रे है, इस्‍लामी इतिहास में उसकी मिसाल नहीं मिलती बल्कि आधुनिक काल को छोड़कर सारी दुनिया के इतिहास में इसकी मिसाल नहीं मिल सकती। हमने सिर्फ़ कुछ के ही नाम लिखे हैं।


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