शारेअ का ख़िताब अगर किसी फे़अल
(काम) को करने के बारे में हो लेकिन तलबे जाज़िम के साथ ना हो, तो ये मंदूब कहलाएगा। मंदूब,
सुन्नत और निफ्ल के एक ही मानी हैं, अलबत्ता
इसे इबादात में सुन्नत व निफ्ल कहा जाता है, जब कि दूसरे
मुआमलात पर मंदूब का इत्लाक़ होता (समझा जाता) है।
मंदूब वो है जिस के करने वाले
की तारीफ़ की जाये और छोड़ने वाले की मज़म्मत ना की जाये, यानी करने वाला सवाब का मुस्तहिक़ हो और छोड़ने वाला सज़ा का मुस्तहिक़ ना हो।
शारेअ के ख़िताब में किसी फे़अल
(काम) को करने की तलब (डिमांड) पाई जाये, फिर इस में कोई ऐसा क़रीना
(इशारा) पाया जाये जो तलब को ग़ैर-जाज़िम (non-definitive/ अनिश्चित/अनिर्णयक) होने का फ़ायदा दे, तो इस के
वजह से फे़अल मंदूब क़रार पायगा।
मिसाल
:
"صلاۃ الجماعۃ تفضل علی
صلاۃ الفرد بسبع وعشرین درجۃ "
(متفق علیہ)
“जमात में
नमाज़ पढ़ना,
अकेले पढ़ने से सत्ताईस मर्तबा बेहतर है”
यहां रसूलुल्लाह صلى
الله عليه وسلم ने सेग़ा
ऐ अम्र के मानी में नमाज़े जमात की तलब फ़रमाई, मगर इस
मसले में एक ऐसा क़रीना (इशारा) मौजूद है जो उसे तलबे ग़ैर-जाज़िम होने का फ़ायदा दे रहा
है,
वो यह की इन्फ़िरादी तौर पर नमाज़ पढ़ने पर, आप صلى الله عليه وسلم के सुकूत (खामोशी) की दलील है और इस फे़अल
में अल्लाह से क़ुर्बत (नज़दीकी) का हुसूल, लिहाज़ा
नमाज़े जमात मंदूब (सुन्नत) क़रार पाई।
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