क़ायदा कुल्लिया

क़ायदा कुल्लिया

क़ायदा कुल्लिया की तारीफ़: 

قاعدہ کلیہ کی تعریف: ھي الحکم الکلي المنطبق علی (جمیع) جزئیاتہ
(वह कुल्ली हुक्म जो अपनी (तमाम) जुज़ईयात से मुताबिक़त रखे)

हुक्मे शरई अगर किसी ख़ास लफ़्ज़ की तरफ़ मंसूब हो तो वो हुक्म ख़ास होगा, अगर ये किसी आम लफ़्ज़ की तरफ़ मंसूब हो तो वो हुक्म आम होगा और अगर हुक्मे शरई की निसबत किसी कुल्ली लफ़्ज़ की तरफ़ हो तो वो हुक्म कुल्ली (क़ायदा कुल्लिया) होगा। चूँकि क़ायदा कुल्लिया हुक्मे शरई है, इसलिए ये ज़न्नी नस (या नुसूस) से भी अख़ज़ किया जा सकता है जैसे दीगर अहकाम। शरई तारीफ़ात भी इसी ज़ुमरे में
दाख़िल हैं।

लफ्ज़े ख़ास की तारीफ़: 

ھو کل لفظ مفرد أو مرکب لا یندرج تحتہ سواہ
(हर वो मुफ़रद या मुरक्कब लफ़्ज़ जिस में इस के सिवा कोई शामिल ना हो)

मिसाल के तौर पर जै़द एक ख़ास मर्द का इस्मे अलम है, زیتونۃ ৃ ख़ास किस्म के दरख़्त यानी ज़ैतून के दरख़्त का इस्मे इल्म है वग़ैरा ।

लफ्ज़े आम की तारीफ़:
ھوکل لفظ مفرد یندرج تحتہ أفراد
(हर वह मुफ़रद लफ़्ज़ जिस में अफ़राद शामिल हों)

मिसाल के तौर पर السارق، المیتۃ، الربا، الرجال و المسلمون ये सारे अल्फाज़ आम हैं और अपने अफ़राद को शामिल हैं। मसलन अल्लाह سبحانه وتعال के इस फ़रमान حرمت علیکم المیتۃ ))में लफ़्ज़ المیتۃ ৃ में हर किस्म का मुर्दार शामिल है चाहे वो चोट से मरा हो या इस का गला घोंटने से या गोली से, चाहे वो मुर्दार खाया जाता हो जैसे बकरा, या ना खाया जाता हो जैसे शेर वग़ैरा । चूँकि ये तमाम उस लफ्ज़े आम में शामिल हैं इसलिए ये हुर्मत के हुक्मे आम में दाख़िल हैं । इसी तरह अल्लाह سبحانه وتعال के इस फ़रमान (وحرم الربا) से हर किस्म के सूद का हराम होना साबित है।

लफ्ज़े कुल्ली की तारीफ़ : 

ھو کل لفظ مرکب یندرج تحتہ جزئیات
(हर वो मुरक्कब लफ़्ज़ जिस में जुज़ईयात शामिल हों)

क़ायदा कुल्लिया की पहली मिसाल : 

الوسیلۃ إلی الحرام حرام
(हराम का वसीला भी हराम है) ये क़ायदा इस आयत से मुस्तंबित किया गया है:


وَلَا تَسُبُّواْ ٱلَّذِينَ يَدۡعُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ فَيَسُبُّواْ ٱللَّهَ عَدۡوَۢا بِغَيۡرِ عِلۡمٍ۬
और गाली मत दो उन को जिन की ये लोग अल्लाह को छोड़कर इबादत करते हैं क्योंकि फिर वो बराह जुहल हद से गुज़र कर अल्लाह को गाली देंगे (अल अनाम-108)

यहां अल्लाह سبحانه وتعال ने कुफ्र के बुतों को गाली देने से मना किया है (ولا تسبوا)और आयत में नही जाज़िम का क़रीना ये सबब बताया गया है (فیسبوا اللّٰہ) यानी काफ़िरों का अल्लाह سبحانه وتعال को गाली देना जो कि हराम है। यहां فاء सबबीयत के लिए है यानी ये तहरीम की इल्लत है और इस से मुराद ये है कि उनके बुतों को गाली देना अगर अल्लाह سبحانه وتعال को गाली देने तक पहुंचाए (सबब), तो उनके बुतों को गाली देना हराम होगा, अगरचे उसूली तौर पर ये मुबाह है। यानी उनके बुतों को गाली देने से मना करने की वजह, अल्लाह को गाली देना है। चुनांचे यहीं से ये क़ायदा-ए-कुल्लिया  الوسیلۃ إلی الحرام حرام समझा गया है, कि अगर कोई फे़अल असलन मुबाह हो मगर इस का करना, ग़ालिब गुमान (غلبۃ الظن) से, किसी हराम तक पहुंचाए यानी इस का वसीला बने, तो वो फे़अल भी हराम हो जाएगा।

मिसाल: इस्लामी रियासत में ख़लीफ़ा ही को क़ाज़ी उल मज़ालिम को मुक़र्रर करने और उसे माअज़ूल करने का इख़्तियार हासिल है। अलबत्ता जब, किसी शरई शर्त पर पूरा ना उतरने की वजह से, ख़लीफ़ा की माज़ूली पर क़ाज़ी उल मज़ालिम ग़ौर-ओ-फ़िक्र कर रहा हो, तो अगर ऐसी सूरत में उसे माअज़ूल करने का इख़्तियार ख़लीफ़ा के पास बाक़ी रहे, तो ग़ालिब गुमान ये होगा कि उसकी माअज़ूली से पहले ही ख़लीफ़ा इस क़ाज़ी को अपने मंसब से हटा देगा और ये हुक्मे शरई को ज़ाइल करना है । चुनांचे इस सूरत पर क़ाअदा الوسیلۃ إلی الحرام حرام का इतलाक़ होगा और इसलिए ये इख़्तियार महकमतुल मज़ालिम को दे दिया जाएगा।

क़ायदा कुल्लिया की दूसरी मिसाल:

ما لا یتم الواجب إلا بہ فھو واجب
 (जिस अमल के बगै़र कोई फ़र्ज़ पूरा नहीं होता तो वो भी फ़र्ज़ है) ये क़ायदा इस आयत से समझा गया है:

فَٱغۡسِلُواْ وُجُوهَكُمۡ وَأَيۡدِيَكُمۡ إِلَى ٱلۡمَرَافِقِ
अपने मुँह को और अपने हाथों को कहनियों तक धो लो (अल माईदा-6)

यहां (إلی المرافق) में कुहनियों तक धोने का हुक्म है, अलबत्ता ये तब तक मुम्किन नहीं जब तक कुहनी का एक जुज़ ना धो लिया जाये ताकि कुहनी तक धोने का हुक्म साबित हो जाए। ये इसलिए क्योंकि अगर कुहनी का कोई जुज़ नहीं धोया गया तो ये हुक्म पूरा नहीं हुआ, लिहाज़ा ग़ायत को हासिल करने के लिए ये ज़रूरी ठहरा कि कुहनी का एक जुज़ भी धोया जाये। यहीं से ये क़ायदा समझा गया है कि अगर कोई फे़अल, बुनियादी तौर पर मुबाह हो, लेकिन कोई फ़र्ज़ इस पर निर्भर हो यानी इस फे़अल के बगै़र ये फ़र्ज़ पूरा ना होता हो, तो इस सूरत में वो भी फ़र्ज़ हो जाएगा।

मिसाल : हदूद का निफाज़ फ़र्ज़ है, अलबत्ता ये इमाम (ख़लीफ़ा ) की मौजूदगी पर निर्भर है, लिहाज़ा इमाम का तक़र्रुर भी फ़र्ज़ ठहरा यानी ख़िलाफ़त का क़ियाम फ़र्ज़ है।

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