दवाती जमात के लिए लाज़िमी अफ़्क़ार की तबन्नी (अपनाने) की फ़र्ज़ीयत

दवाती जमात के लिए लाज़िमी अफ़्क़ार की तबन्नी (अपनाने) की फ़र्ज़ीयत

शरअ के नज़दीक फ़क़त जमात का वजूद मतलूब (required/demanded) नहीं है बल्कि मतलूब ये है कि ऐसी जमात मौजूद हो जो वाक़ई ये काम कर सके यानी शरअ का मुतालिबा हम से सिर्फ़ ये नहीं है कि मुसलमानों में एक जमात मौजूद होनी चाहीए बल्कि ये है कि मुसलमानों में हमेशा एक ऐसी जमात मौजूद और क़ायम हो जो वाक़ई तौर पर उस पर लाज़िमी काम को अंजाम देती रहे और शरअ में बयान किए गए जमात के मक़सद को पूरा करती रहे यानी वो उस हुकूमत को क़ायम और बरक़रार रखती हो जो अम्र बिल मारुफ़ और नही अनिल मुनकर की ज़िम्मेदारी को अदा करे और साथ ही तमाम लोगों को ख़ैर यानी इस्लाम की तरफ़ दावत देती हो। इस्लाम में जमात के वजूद के दलायल से इस मतलूब मक़सद की वज़ाहत हो जाती है। जमात की मौजूदगी के ताल्लुक़ से क़ुरआन में अल्लाह (سبحانه وتعال) का ये हुक्म है कि:

وَلۡتَكُن مِّنكُمۡ أُمَّةٌ۬ يَدۡعُونَ إِلَى ٱلۡخَيۡرِ وَيَأۡمُرُونَ بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَيَنۡهَوۡنَ 
 عَنِ ٱلۡمُنكَرِۚ وَأُوْلَـٰٓٮِٕكَ هُمُ ٱلۡمُفۡلِحُونَ


“और तुम में एक जमात ज़रूर होनी चाहिए जो ख़ैर (इस्लाम) की तरफ़ दावत दे, अम्र बिल मारुफ़ व नही अन अलमनकर करे और यही लोग फ़लाह पाने वाले हैं ।” (3:104)

शरअ ने यहां एक ऐसी सियासी जमात बनाने को वाजिब क़रार दिया है ज़िंदगी गुज़ारने के लिए जिसका नज़रिया-ए-हयात (मब्दा) इस्लाम हो और वो अपने पास इस्लाम के उन तमाम अफ़्क़ार और शरई अहकामात को मौजूद रखती हो जो जमात पर आइद शरई मक़सद या ज़िम्मेदारी को पूरा करने के लिए ज़रूरी हैं और ये मक़सद ग़लबा-ए-दीन, दीन को क़ायम करना यानी दीन का निफ़ाज़ और समाज की बागडोर और इक़्तिदार दीन के हाथों में थमाना यानी ख़िलाफ़त है चुनांचे इस हुक्म में मुसलमानों से मुतालिबा जमात क़ायम करने के लिए जमात बनाना नहीं है, बल्कि हुक्म में मुतालिबा जमात बनाने के मक़सद को हासिल करना है यानी इस्लाम की दावत, अम्र बिल मारूफ और और नही अनिल मुनकर के हुक्म को पूरा करना है। इसी तरह इस्लाम की दावत, अम्र बिल मारूफ़ और और नही अनिल मुनकर के अमल से मुराद सिर्फ़ इन आमाल को अंजाम देना नहीं बल्कि ये आमाल भी इसी मक़सद को हासिल करने के लिए ज़रूरी हैं जिनकी पूर्ति के लिए उन्हें इस्लाम की दावत, अम्र बिल मारूफ़ और और नही अनिल मुनकर का हुक्म दिया गया है और ये मक़सद ग़लबा-ए- दीन, दीन को क़ायम करना और ख़िलाफ़त है। रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) का इरशाद है कि:

((لا يحل لثلاثة نفر يكونون بأرض فلاة إلا أمروا عليهم أحدهم))


अगर तीन अफ़रद भी किसी सहरा हों तो उनके लिए बगै़र अमीर के रहना जायज़ नहीं उनको अपने में से एक को अपना अमीर मुक़र्रर करना चाहिए। (अहमद बन हन्बल)

चुनांचे ऐसा कोई भी संयुक्त इज्तिमाई काम जिसको अंजाम देने का मुसलमानों को हुक्म दिया गया है तो शरअ ने इशारा दिया है कि इसके लिए उनका एक वाजिबुल-इताअत अमीर होना चाहिए जिसकी इताअत उस संयुक्त इज्तिमाई काम (मक़सद) के लिए जमात के अफ़राद पर लाज़िम होगी जिसकी ख़ातिर इस फ़र्द को अमीर चुना गया है, जमात को उसकी अमीर की इताअत करनी लाज़िमी है ताकि इस संयुक्त काम का वो अच्छा खासा नतीजा निकले जो शरअ चाहती है।

जैसा कि हमें मालूम है कि अल्लाह (سبحانه وتعال) ने मुसलमानों पर बहुत सारे ऐसे फ़राइज़ फ़र्ज़ किए हैं जिनकी अदायगी की ज़िम्मेदारी ख़लीफ़ा पर डाली गई है इसलिए इन फ़राइज़ की अदायगी के लिए ख़लीफ़ा नियुक्त करना फ़र्ज़ है। चूँकि ख़लीफ़ा की नियुक्ति और ख़िलाफ़त का क़याम जमात के बगै़र मुम्किन नहीं,  चुनांचे एक ऐसी जमात का होना लाज़िमी है जो ख़िलाफ़त क़ायम करे और ख़लीफ़ा नियुक्त करे । इस क़ाअदे की वजह से भी जमात का वजूद लाज़िमी है कि:

(ما لا يتم الواجب إلا به فهو وجب) 
  

“जिस अमल के बगै़र फ़र्ज़ अदा नहीं होता वो अमल भी फ़र्ज़ है ।”

यूं मालूम हो गया कि जमात का वजूद मतलूबा शरई मक़सद के वजूद से ऐसा जुड़ा है कि जिससे कभी जुदा नहीं हो सकता, पस वो जमात ऐसी नहीं होगी जो सिर्फ़ इस्लाम की तरफ़ दावत देगी, जमात तब्लीग़ बराए तब्लीग़ के लिए नहीं होती बल्कि जमात वो है जो इस्लामी रियासत के क़याम के ज़रीये मुसलमानों की ज़िंदगीयों में इस्लाम को नाफ़िज़ करने के लिए काम करती है और ये व्यक्तिगत और इज्तिमाई तमाम इस्लामी अहकामात को नाफ़िज़ करने का शरई तरीक़ा है। इसलिए उसी जमात का वजूद लाज़िम है जो इस मक़सद को पूरा करे जिस मक़सद के लिए जमात बनाई जाती है।

ये जमात उस वक़्त इन तमाम ज़िम्मेदारीयों को पूरी करेगी जब वो ये काम करेगी:

उन तमाम शरई अफ़्क़ार, अहकाम और आरा (opinions) की तबन्नी जो इस काम की ख़ातिर उसके लिए ज़रूरी हैं । इस जमात के अफ़राद क़ौलन, अमलन और फ़िक्री लिहाज़ से उनकी पाबंदी करेंगे। क्योंकि तबन्नी जमात की वहदत और एकता की हिफ़ाज़त के लिए होती है। क्योंकि जिस वक़्त जमात के अफ़राद के विचार विभिन्न होंगे। इसमें कई इज्तिहादात होंगे, तो अगरचे इसके अफ़राद का मक़सद एक ही हो और उमूमी तौर पर इस्लाम के बारे में वो एक ही हो, लेकिन वो बहुत जल्द मुंतशिर होंगे और उसकी शाख़ें बनेंगी, जमात के अंदर से एहज़ाब निकलेंगी, जमात के अंदर ही जमातें बनेंगी, यूं ये दावत, लोगों को इस फ़र्ज़ की अदायगी के लिए दावत देने की बजाय दूसरों को अपनी जमात की तरफ़ दावत देने में बदल जाएगी, फिर ये आपस में उलझ पड़ेंगे और हर एक अपनी राय को सही समझने लगेगा। इस वजह से तबन्नी अहम और शरई है। जमात की वहदत को शरअ आवश्यक क़रार देती है, ये चीज़ उस वक़्त तक हासिल नहीं हो सकेगा जब तक काम से संबधित तमाम ज़रूरी अफ़्क़ार की एक तबन्नी ना की जाये, फिर जमात के शबाब पर इस तबन्नी को लाज़िम ना किया जाये। तबन्नी भी इस क़ाअदे की रु से मतलूब है कि:
(ما لا يتم الواجب إلا به فهو وجب) 
  

“जिस अमल के बगै़र फ़र्ज़ अदा नहीं होता वो अमल भी फ़र्ज़ है ।”

जब तक काम के बारे में जमात के अफ़्क़ार, अहकाम और आरा शरई हैं और जब तक ये जमात अपने शबाब पर भरोसा करती है, चूँकि अमल के बारे में अफ़्क़ार की पाबंदी शबाब के लिए जायज़ था चुनांचे मुसलमानों के लिए ये भी जायज़ है कि अपनी राय तर्क करके दूसरे की राय पर अमल करें, उस्मान (رضي الله عنه) की बैअत में जब ये शर्त रखी गई कि आप ओ आपना इज्तिहाद तर्क करेंगे और सय्यदना अबू-बक्र (رضي الله عنه) और सय्यदना उमर बिन अल-खत्ताब (رضي الله عنه) के इज्तिहाद पर कारबन्द रहेंगे तो सय्यदना उस्मान (رضي الله عنه) ने ये शर्त मान ली और सहाबा (رضی اللہ عنھم) ने उसको तस्लीम किया और आप की बैअत की। हाँ ये जायज़ है फ़र्ज़ नहीं क्योंकि अली (رضی اللہ عنھم) अपने इज्तिहाद को तर्क करने पर तैय्यार नहीं हुए और सहाबा (رضی اللہ عنھم) ने इसका इनकार नहीं किया। इस तरह इमाम शेबी (رحمت اللہ علیہ)  ने फ़रमाया कि अबू मूसा (رضي الله عنه), अली (رضي الله عنه) के क़ौम के मुक़ाबले में अपने क़ौल को तर्क करते थे, इस तरह जै़द (رضي الله عنه) अबी बन काब (رضي الله عنه) के क़ौल के मुक़ाबले में अपने क़ौल को तर्क करते थे, अब्दुल्लाह (رضي الله عنه), उमर (رضي الله عنه) के क़ौल की वजह से अपने क़ौल तर्क करते थे कई वाक़ेआत हैं कि अबू-बक्र (رضي الله عنه) और उमर (رضي الله عنه) ने अपने अक़्वाल छोड़कर अली (رضي الله عنه) के क़ौल पर अमल किया। ये इस बात की दलील है कि मुज्तहिद के लिए जायज़ है कि वो दूसरे मुज्तहिद पर भरोसे की वजह से अपना इज्तिहाद तर्क कर सकता है। इस जमात के शबाब के लिए ज़रूरी है कि वो अपनी फ़ेहम के पाबंद हों,  उनसे हर एक फ़िक्री और शऊरी हो।

जिस तरह जमात पर अपने अमल से संबधित अहकामे शरीया की तबन्नी लाज़िम है, उसी तरह उस पर इन अहकाम की तन्फीज़ (execution) के लिए असालीब (styles) की तबन्नी भी लाज़िम है। उस्लूब (style) हुक्मे शरई को नाफ़िज़ करने का ढंग है। ये वो हुक्म है जिसका ताल्लुक़ उस अस्ल हुक्म के साथ है जिसके लिये दलील मौजूद है, जैसे जमात से इस बात का मुतालिबा कि वो उस्वा रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) पर अमल करते हुए अपने शबाब को ज़बरदस्त सक़ाफ़्त (तर्बीयत) दे, ये हुक्मे शरई है जिसकी पाबंदी फ़र्ज़ है । लेकिन इस हुक्मे शरई को किस तरह और किस सूरत में नाफ़िज़ किया जाएगा? इसके लिए एक उस्लूब की ज़रूरत है जो इस हुक्म शरई के वास्ते से हो। इसके लिए हलक़ात, ख़ानदानी निज़ाम के ज़रीये या कोई और उस्लूब इस्तिमाल किया जा सकता है। 

उस्लूब को इख़्तियार करना अक्ली इख़्तियार है इसको इसलिये इख़्तियार किया जाएगा कि हुक्मे शरई ज़्यादा मुनासिब तरीक़े से अदा हो, लेकिन अस्लन उस का हुक्म इबाहत (मुबाह/जाईज़) का है। शरअ ने हुक्मे शरई की अदायगी का हुक्म दिया और उस्लूबे तन्फीज़ (style of implementation) को मुसलमानों पर छोड़ा है।

एक ही हुक्मे शरई के कई असालीब होने की वजह से एक जमात पर दबाव होता है कि वो एक निर्धारित उस्लूब की तबन्नी करे और वही अपने शबाब को बताए, यूं जमात के पास हुक्मे शरई की तन्फीज़ के लिए एक स्थायी उस्लूब होगा। यही वजह है कि उस्लूब का वही हुक्म है जो अस्ल हुक्म का है । यानी उस्लूब भी हुक्म शरई के अधीन होने की वजह से उसी की तरह लाज़िमी है।

जब एक जमात इज्तिमाई तर्बीयत के लिए हलक़ात का उस्लूब इख़्तियार करे तो उसको चाहिए कि वो एक लाज़िमी उस्लूब के तौर पर उसकी तबन्नी भी करे, तबन्नी के वक़्त मक़सद तक पहुंचने के लिए इस उस्लूब को देखा जाएगा, हलक़ात के उस्लूब की तबन्नी का तक़ाज़ा है कि इससे मक़सद हासिल हो, जैसे हलक़े के अफ़राद की तादाद मक़सद को पेशे नज़र रख कर मुनासिब अंदाज़ से मुक़र्रर की जाये, अगर तादाद ज़्यादा हो जाए तो तर्बीयत सही तौर पर नहीं हो सकेगी और अगर तादाद बहुत कम हो तो हलक़ात बहुत ज़्यादा हो जाएंगे यूं मामला पेचीदा और मक़सद के लिए एक बोझ और रुकावट साबित होगा । इस तरह हलक़े की अवधि इतना वक़्त हो कि दारसीन ख़ूब बेदारी के साथ अफ़्क़ार को समझें क्योंकि ये वक़्त अगर बहुत ज़्यादा होगा तो समझना मुश्किल होगा, फिर हलक़ा रोज़ाना होना चाहिए या हफ़्तावार या पंद्रह रोज़ा ? ये अवधि भी इस तरह हो जिसका अमली दावत के ऊपर कोई बुरा असर ना पड़े, वरना शबाब अमली पहलू की बजाय इल्मी पहलू ही में मशग़ूल रहेंगे। इसी तरह तमाम अहकामे शरीया के लिए मुनासिब तबन्नी होनी चाहिए ताकि संगठित अंदाज़ से उस हुक्म को अदा किया जा सके जिसे अदा करना मक़सद है। असालीब के बारे में जो कुछ कहा गया वसाइल (means) का भी तक़रीबन यही हाल है। अमीर के लिए जायज़ है कि वो अमल की तन्फीज़ के मक़सद के मुताबिक़ असालीब और वसाइल में रद्दोबदल करे।
चूँकि जमात का काम रूए ज़मीन के एक विशाल क्षेत्र में फैला हुआ है, फिर मुल्कों के बीच फ़ासले हैं, लिहाज़ा इस भारी ज़िम्मेदारी की अदायगी के लिए जमात या हिज़्ब के पास ऐसी इंतिज़ामी मशीनरी होनी चाहिए जिसके वास्ते से हिज़्ब दावत और उसके लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए आसानी से काम कर सके। दावती तेहरीक को संगठित कर सके और उसको नियंत्रित कर सके। इसके लिए ऐसे इंतिज़ामी ढाँचे की ज़रूरत है जो बेहतर तरीक़े से इस काम को कर सके और उसकी निगरानी कर सके।

पस इसके लिए एक दावती जमात/हिज़्ब को इंतिज़ामी मशीनरी या तंज़ीमी ढाँचे की ज़रूरत है जो दावती कामों की निगरानी इंतिहाई कामयाबी से करे जिस से मक़सक हाँसिल किया जा सकता हो । फिर इस तबन्नी के बाद तंज़ीमी क़ानून है जिसमें हिज़्ब का पूरा जिस्म और उसकी हरकत समा जाती है। यही क़ानून अमीर के इख़्तियारात को मुतय्यन करता है वो किस तरह हिज़्ब की तंज़ीम करेगा, उनके इख़्तियार की इंतिहा क्या होगी? इलाक़ों और विलायात (provinces) के ज़िम्मेदारों को कौन निर्धारित करेगा। उनके इख़्तियारात की हदें क्या होंगी? यही क़ानून है जो हिज़्ब के तमाम कामों को व्यवस्थित करेगा और सबब के इख़्तियारात की हदें निर्धारित करेगा।

ये सब उस्लूब और वसाइल के हुक्म में हैं जो कि अमल से संबधित अहकामे शरीया को क्रियांवित करने के लिए लाज़िम हैं । तबन्नी शुदा इंतिज़ामी असालीब पर जमे रहना उस वक़्त तक वाजिब होता है जब तक अमीर उनको लाज़िमी समझे, क्योंकि अमीर की इताअत फ़र्ज़ है। 

जो चीज़ तबन्नी शुदा है उसका इल्तिज़ाम (अमलपैरा होना), फिर उस क़ानून के उलंघन की सूरत में हिज़्ब क्या करेगी? क्या चेतावनी देकर के उलंघन का ईलाज किया जाएगा या इंतिज़ामी तौर पर सज़ा दी जाएगी? जमात के लिए ज़रूरी है कि वो तबन्नी शुदा अहकामात की ख़िलाफ़वर्ज़ी करने वालों या शरई हदों से निकलने वालों के लिए सज़ाएं भी तबन्नी करे। इन सज़ाओं का जवाज़ (अमीर की मुख़ालिफ़त) के बाब के तहत होगा। चूँकि हुक्मे शरई ने अमीर की मौजूदगी को वाजिब क़रार दिया है, इस तरह उसकी इताअत को वाजिब और उसकी मुख़ालिफ़त को हराम क़रार दिया है। वरना जमात के लिए अमीर की मौजूदगी का क्या माअनी है। रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) का इरशाद है:


((من أطاعني فقد أطاع الله، ومن يعصني فقد عصى الله،

 ومن يطع الأمير فقد أطاعني ومن يعص الأمير فقد عصاني))


“जिसने मेरी इताअत की इसने अल्लाह (سبحانه وتعال) की इताअत की, जो मेरी नाफ़रमानी करता है वो अल्लाह (سبحانه وتعال) की नाफ़रमानी करता है, जो अमीर की इताअत करता है वो मेरी इताअत करता है और जो अमीर की नाफ़रमानी करता है वो मेरी ना फ़रमानी करता है ।”  (मुस्लिम)

इंतिज़ामी सज़ाएं सबके लिए होनी चाहिए यानी अमीर से लेकर जमात के एक अदना सदस्य तक के लिए। ये सज़ाएं हर तबन्नी शुदा मामलात के विरोध पर होनी चाहिए। जो तबन्नी शुदा अहकामे शरीया की मुख़ालिफ़त करे या असालीब की या इंतिज़ामी ढाँचे या इंतिज़ामी क़ानून और या अपने इख़्तियारात से तजावुज़ करे उसका मुहासिबा करना वाजिब है। इसी तरह तंज़ीमी दायरे के साथ फ़िक्री दायरा भी हो जो अमल के अफ़्क़ार और तरीक़े के अहकाम की दकी़क़ तौर पर तर्जुमानी करे। हम ने अपनी आँखों से कई इस्लामी और ग़ैर इस्लामी तंज़ीमों के ज़वाल और पतन को देखा जिसकी वजह तंज़ीमी पहलू के बारे में उनमें आगाही नही थी। ये स्वाभाविक बात है कि जमात इस किस्म की तबन्नी नहीं करेगी तो इसमें इख़्तिलाफ़ात पैदा होंगे, वो अंधेरे में रहेंगे और आहिस्ता आहिस्ता वो बाहर निकलेंगे जिस पर एहतिसाब नहीं होगा, यूं ये वो जमात ही नहीं रहेगी जो शरई ज़रूरत की प्राप्ति की ख़ातिर वजूद में आई थी। ये भी स्वाभाविक बात है कि सदस्यों और मुसलीन (people of responsibility) का चुनाव संगठित शरई शर्तों की बुनियाद पर नहीं होगा। रिश्तेदार, सामाजिक मरतबे, मंसब या इल्मी मरतबे के लिहाज़ से होगा तो इससे ज़िम्मेदारीयों की सही तौर पर अदायगी नहीं होगी और जमात के अफ़राद मनासिब (positions) के ख़ाहिशमंद होंगे। ये भी हक़ीक़त है कि जब तक ऐसे तंज़ीमी क़वानीन नहीं होंगे जिनके सामने सब सुरंगों हों तब तक मुहासिबा नहीं होगा और इंसाफ़ नहीं हो सकेगा। ये भी स्वाभाविक बात है कि जब तक इंतिज़ामी सज़ाएं नहीं होंगी जिनसे छोटी बड़ी हर मुख़ालिफ़त को नहीं रोका जाएगा तो काम में नाफ़रमानी और गलतीयां बढ़ती जाएंगी। ये भी स्वाभाविक बात है कि जब तक इंतिज़ामी सज़ाएं नहीं होंगी जिनसे छोटी बड़ी हर मुख़ालिफ़त को नहीं रोका जाएगा तो काम में नाफ़रमानी और गलतीयां बढ़ती जाएंगी। यही वजह है कि तंज़ीमी पहलू और हिज़्ब को एक मुतहर्रिक और फ़आल जिस्म बनाने पर तवज्जो केन्द्रित होनी चाहिए, जो अपने अफ़्क़ार और अपने शबाब दोनों के लिहाज़ से संगठित हो। जिसकी वजह से काम आसान हो, जमात या हिज़्ब की तरकीब मुकम्मल तौर पर इस तरह हो कि जिससे वो मक़सद हासिल हो सके जिसके लिए जमात बनाई गई है।

कोई ये गुमान ना करे कि तंज़ीमी पहलू (structural aspect) अतिरिक्त चीज़ है, बल्कि ये इंतिहाई अहम चीज़ है। जब तक इस पहलू को मद्दे-नज़र नहीं रखा जाएगा और इसके लिए ज़रूरी अहकामात की तबन्नी नहीं की जाएगी। तो जैसा कि हम ने कहा कि जमात के अन्दर यह बीमारी फैल जाएगी और वो बिलआख़िर नाकाम होगी। फिर हिज़्बी ज़िम्मेदारीयों की अदायगी के लिए हिज़्ब या जमात पर बाअज़ माद्दी (materialistic) ज़िम्मेदारीयां भी फ़र्ज़ हो जाती हैं कुछ शबाब का बिलकुल फ़ारिग़ हो जाना जमात के लिए ज़रूरी है, ताकि अख़राजात को मुंतक़िल करने और तबाअत (printing) के काम के लिए और इस जैसे कामों के लिए जो इस्लामी दावत के लिए ज़रूरी हैं । इन माली ज़रूरीयात को भी ख़ुद हिज़्ब यानी इसके शबाब को बर्दाश्त करना चाहिए, जो अपने नफ़्स को दावत के लिए पेश करता है तो इसके लिए इससे मामूली चीज़ पेश करना कोई मसला नहीं । जमात के लिए ज़रूरी है कि वो जमात के बाहर किसी के सामने हाथ ना फैलाए चाहे ये बाहर वाला फ़र्द हो, जमात हो या हुकूमत हो, जब जमात काम करेगी तो दावत के दुश्मन सोचेंगे कि जमात को माल की ज़रूरत है तो पहले तो वो माली मुआवनत (financial support) की पेशकश, लालच और मोहताजी की वजह से मुआवनत होगी।
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