मुहब्बत अल्लाह के लिये और नफरत अल्लाह के लिये ( हिस्सा - 2)

रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः

((من لقي أخاہ المسلم بما یحب لیسرہ بذلک،
 سرہ اللہ عز وجل یوم القیامۃ))

जो अपने मुस्लिम भाई से इस तरह मिले जिस से इसका भाई ख़ुश हो तो इसके बदले 
क़यामत के दिन अल्लाह उसको ख़ुश करेगा।

इसी तरह ये भी मुस्तहब है के हश्शाश और बश्शास चेहरे के साथ मिला जाये। लिहाज़ा मुस्लिम शरीफ़़ में हज़रत अबूज़र (رضي الله عنه) से रिवायत है के रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने ताकीद के साथ फ़रमायाः

((لاتحقرن من المعروف شیئاً، ولو أن تلقی أخاک بوجہ طلق))

किसी भी नेकी के काम को छोटा और हक़ीर ना जानो, ख़्वाह अपने भाई के साथ मुस्कुरा कर मिलना ही क्यों ना हो।

इसी तरह जाबिर बिन अ़ब्दुल्लाह (رضي الله عنه) रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم)  से मुसनद अहमद और तिरमिज़ी में हदीसे सही रिवायत है के रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم)  ने फ़रमायाः

((کل معروف صدقۃ، وإن من المعروف أن تلقی أخاک بوجہ طلق، وأن تفرغ من دلوک في إناء أخیک))

हर नेकी सदक़ा है और नेकी ये भी है के तुम अपने भाई से पुर मसर्रत चेहरे के साथ मिलो या अपने डोल से अपने भाई के बर्तन में पानी ही भरना हो।

मुसनद अहमद, तिरमिज़ी, अबू दाऊद, नसाई और इब्ने हिब्बान में सही हदीस रिवायत है के अबू जरयाल हज़ीमी फ़रमाते हैं के मैं रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के पास आया और उनसे कहाः ऐ अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) हम गांव के रहने वाले हैं, यानी दूर दराज के इलाकों से ताल्लुक़ रखते है, आप हमें कुछ एैसी बातें बता दें, जिनके ज़रीये अल्लाह हमें फ़ायदा बख़्शे। आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया:

((لا تحقرن من المعروف شیئاً، ولو أن تفرغ من دلوک في إناء المستسقي، ولو أن تکلم أخاک ووجھک إلیہ منبسط، وإیاک وإسبال الإزار فإنہ من المخلیۃ، ولا یحبھا اللہ، وإن امرؤ شتمک بما یعلمہ فیک فلا تشمتہ بما تعلم فیہ، فإن أجرہ لک ووبالہ علی من قالہ))

किसी भी नेकी के काम को हक़ीर और छोटा ना समझो, अगरचे तुम अपने डोल से अपने भाई के बर्तन को भरो, या तुम अपने भाई से बात ही करो और तुम्हारे चेहरे पर फ़रह ओ तबस्सुम हो, अपने पाऐंचे टख़नों से नीचे ना करो क्योंकि ये तकब्बुर की अ़लामत है और अल्लाह سبحانه وتعالیٰ इसको पसंद नहीं करता। अगर कोई तुम को एैसी बात पर शर्मिंदा करे जो वाक़ई तुम्हारे अंदर हो तो तुम उसकी किसी एैसी बात पर जिसका तुम्हें इ़ल्म हो उसे शर्मिंदा ना करो क्योंकि इसका अज्र-ओ-सवाब तुम्हारे लिए है और वबाल उस शर्मिंदा करने वाले पर है।

इसी तरह ये भी मुस्तहब है के अपने भाई को तोहफ़े तहाइफ़ दिए जाऐें। लिहाज़ा इमाम बुख़ारी ने अपनी किताब अल अदब अलमुफर्रद में हज़रत अबू हुरैराह (رضي الله عنه) से रिवायत नक़ल की है के रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) फ़रमाते हैं

((تہادوا تحابوا))
तोहफ़े दिया करो, इस से मुहब्बत बढ़ती है।

और इसके लिए ये बात भी मंदूब है के वो हदिया क़ुबूल करे और ख़ुद भी तोहफ़े दे। हज़रत आइशा (رضي الله عنه)ا फ़़रमाती हैं के रसूले अकरम (صلى الله عليه وسلم) तहाइफ़ को क़ुबूल फ़रमाते थे और ख़ुद भी तोहफ़े दिया करते थे। इसी तरह हज़रत इब्ने उ़मर (رضي الله عنه) की रिवायत अबू दाऊद और नसाई ने नक़ल की है के रसूले अकरम ने फ़रमायाः

((من استعاذ باللہ فأعیذوہ، ومن سألکم باللہ فأعطوہ، ومن استجار باللّٰہ فأجیروہ، ومن أتی إلیکم معروفاً فکافؤہ، فإن لم تجدوا، فادعوا لہ حتی تعلموا أن قد کافأتموہ))

जो अल्लाह के वास्ते पनाह तलब करे उसको पनाह दो, जो अल्लाह के नाम पर सवाल करे उसको अ़ता करो, जो अल्लाह के ज़रीये उजरत तलब करे, उसको उजरत दो, जो तुम्हारे साथ ख़ैर ख़्वाही करे उसको बराबर का बदला दो और अगर तुम नहीं दे सकते तो उसके लिए दुआ करो यहाँ तक के तुम जान लो के उसका बदला तुम ने चुका दिया है।

ये चीज़ अपने भाईयों और साथियों के ताल्लुक़ से है। अलबत्ता अपने हुक्काम को तहाइफ़ देने का ताल्लुक़ इन अहादीस से नहीं है बल्कि ये तहाइफ़ रिश्वत की तारीफ़़ में आते हैं जो के हराम है। बराबरी और बदला ये भी है के इस से जज़ाकल्लाहु ख़ैर कह दिया जाये। चुनांचे इमाम तिरमिज़ी ने उसामा बिन जै़द  (رضي الله عنه) की रिवायत नक़ल की है के रसूले अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः

((من صنع إلیہ معروف فقال لفاعلہ جزاک اللہ خیراً فقد أبلغ في الثناء))
किसी के साथ ख़ैर ख़्वाही की गई और उस ने ख़ैर ख़्वाह को जज़ाकल्लाह ख़ैरन कहा तो उसने शुक्रिये का हक़ अदा कर दिया।

ऐसे शख़्स के लिए जिस के पास इन अल्फाज़ के अ़लावा कोई दूसरी चीज़ ना हो ये तारीफ़़ और तौसीफ़, शुक्र ओ एहसानमंदी का इज़्हार, बदला और मकाफ़ात है। इसका बयान नबी करीम की हदीस से होता है जिस को इब्ने हिब्बान ने हज़रत जाबिर से रिवायत की है के आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः

((من أولي معروفاً فلم یجد لہ خیراً إلا الثناء، فقد شکرہ، ومن کتمہ فقد کفرہ، ومن تحلی بباطل فھو کلابس ثوبي زور))

जिस के साथ कोई भलाई की गई और उसके पास सना और तारीफ़़ के अ़लावा कुछ ना हो तो उसकी शुक्रगुज़ारी ही उस एहसान का बदला है और जिस ने एहसान को तस्लीम भी ना किया उस ने एहसान को फ़रामोश किया और जिस ने उस चीज़ पर अपनी ही मिल्कियत का दावा किया तो गोया उसने झूठ के दो लिबास जे़ब ए तन किऐ।

इसी तरह हज़रत जाबिर (رضي الله عنه) की एक दूसरी रिवायत ये है के रसूले अकरम ने फ़रमायाः

((من أعطی عطاء فوجد فلیجز بہ، فإن لم یجد فلیثن، فإن من أثنی فقد شکر، ومن کتم فقد کفر، ومن تحلی بما لم یعط، کان کلابس ثوبي زور))

जिस को कोई तोहफ़ा दिया गया और उसके पास इस जैसी कोई चीज़ हो तो वो उसे दे दे, और अगर ना हो वो तारीफ़़ ही कर दे जो इस तोहफे़ का शुक्रिया होगा, जिस ने तारीफ़़ कर दी उसने शुक्रगुज़ारी का हक़ अदा कर दिया और जिस ने इसको छुपाया उस ने नाशुक्री की, और जिस ने इस चीज़ पर दावा किया जो इसको दी ही नहीं गई तो गोया उसने झूठ के दो लिबास जे़ब ए तन किऐ।

तोहफ़े पर एहसान ना मानना और इसका इज़्हार ना करना तोहफ़े की नाशुक्री है। इमाम अबू दाउद और नसाई ने हज़रत अनस (رضي الله عنه) से नक़ल किया है के आँहज़रत (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः

((قال المھاجرون یا رسول اللہ، ذھب الأنصار بالأجر کلہ، ما رأینا قوماً أحسن بذلاً لکثیر، ولا أحسن مواساۃ في قلیل منھم، ولقد کفونا المؤونۃ، قال: ألیس 
تثنون علیھم بہ وتدعون لھم؟ قالوا بلی، قال: فذاک بذاک))

मुहाजिरों ने कहाः ऐ रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) अंसार सारा अज्र और सवाब ले लेते हैं, हम ने ऐसे लोग नहीं देखे जो अपने थोड़े में से भी इतना ख़र्च करते हों और हमारी रोज़ी की भी किफ़ालत करते हों, तो आप (صلى الله عليه وسلم) ने दरयाफ़्त किया “तुम इसके बदले उनकी तारीफ़़ और उनके लिए दुआ नहीं करते? उन्होंने कहा “क्यों नहीं”, आप ने फ़रमायाः बस बदले में ये चीज़ काफ़ी है।

आदमी को चाहिए के वो मामूली तोहफ़ों पर भी इसी तरह शुक्र अदा करे जैसा क़ीमती अशीया के लिए करता है और उन लोगों का शुक्रिया अदा करे जो इसके साथ ख़ैर ख़्वाही और भलाई का सुलूक करते हैं। चुनांचे अ़ब्दुल्लाह इब्ने अहमद ने अपनी ज़वाइद में हज़रत नोमान बन बशीर की रिवायत नक़ल की है के रसूले अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः

((من لم یشکر القلیل لم یشکر الکثیر، ومن لم یشکر الناس لم یشکر اللّٰہ، والتحدث بنعمۃ اللہ شکر وتر کھا کفر، والجماعۃ رحمۃ والفرقۃ عذاب))

जो छोटी चीज़ों का शुक्रिया अदा नहीं करता, वो बड़ी चीज़ों का भी शुक्रिया अदा नहीं करता और जो लोगों का शुक्र अदा नहीं करता वो अल्लाह का भी शुक्र अदा नहीं करता और अल्लाह की नेअ़मतों का बयान ही इसका शुक्र है और इसका तर्क कर देना नाशुक्री है, जमाअ़त बाइसे रहमत है, और तफ़र्क़ा अ़ज़ाब का सबब।

इसी तरह ये भी सुन्नत का अ़मल है के एक मुसलमान के साथ किसी अच्छे काम में उसकी भलाई की जाये या उसकी कोई मुश्किल जो उसे दरपेश हो उसे दूर किया जाये, चुनांचे बुख़ारी शरीफ़ में हज़रत अबू मूसा (رضي الله عنه) से नक़ल किया है के जब हुज़ूरे अकरम (صلى الله عليه وسلم) के पास एक साइल आया तो आप ने फ़रमायाः

((اشفعوا فلتؤجروا و یقض اللّٰہ علی لسان نبیہ ما شاء))
इस के काम आओ, अल्लाह इसका अज्र देगा जो अल्लाह ने जैसा चाहा अपने नबी से कहलवा दिया है।

हज़रत अ़ब्दुल्लाह इब्ने उ़मर (رضي الله عنه) से मुस्लिम शरीफ़ में रिवायत है के हुज़ूर नबी करीम (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः

((من کان وصلۃً لأخیہ المسلم إلی ذي سلطان لمنفعۃ برّ أو تیسیر عسیر أُعین علی اجازۃ الصراط یوم دحض الأقدام ))

जो शख़्स अपने मुस्लिम भाई की किसी भलाई के लिए या उसकी किसी परेशानी को रफ़ा करने के लिए हाकिम तक इसका वसीला बने, अल्लाह سبحانه وتعالیٰ उसे उस दिन सिरात से आसानी से गुज़ार देंगे जिस दिन क़दम उखड़ जाने वाले हैं।

मुसलमान के लिए ये भी ज़रूरी है के वो अपने मुसलमान भाई की ग़ैरमौजूदगी में उसकी इज़्ज़त की हिफ़ाज़त करे। तिरमिज़ी शरीफ़़ में अबू दरदा (رضي الله عنه) से सही हदीस रिवायत हैः

((من ردّ عن عرض اخیہ رد اللّٰہ عن وجھہ النار یوم القیامۃ))
जो अपने भाई की इज़्ज़त की हिफ़ाज़त करे अल्लाह سبحانه وتعالیٰ क़यामत के दिन आग से उसकी हिफ़ाज़त फ़रमाएंगे।

हज़रत अबू दरदा (رضي الله عنه) की ये रिवायत मुसनद अहमद में भी नक़ल है और वो कहते हैं के इस की सनद हसन हैः

((من ذب عن عرض أخیہ بظھر الغیب کان حقاً علی اللّٰہِ أن یعتقہ من النّار))

जो कोई अपने भाई की इज़्ज़त की हिफ़ाज़त, उसकी ग़ैरमौजूदगी में करे तो वो इस बात का मुस्तहिक़ हुआ के अल्लाह سبحانه وتعالیٰ उसे आग से बचाए।

हज़रत अनस (رضي الله عنه) से मुसनद अलशिहाब में अलक़ज़ाई ने नक़ल किया है के अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः

((من نصر أخاہ الغیب نصرہ اللّٰہ في الدنیا و الأخرۃ))

जो अपने भाई की उसकी ग़ैरमौजूदगी में मदद करे अल्लाह سبحانه وتعالیٰ उसे दुनिया और आख़िरत में कामयाब फ़रमाएंगे।

इसी किताब में यही रिवायत हज़रत इमरान बिन हसीन (رضي الله عنه) से इन इज़ाफ़ी अल्फाज़ से मरवी है के ((وهو يستطيع نصره)) यानी के वो जो उसकी मदद कर सकता हो।

सुनन अबी दाऊद और इमाम बुख़ारी की अदब अल अदब उल मुफर्रद में हज़रत अबू हुरैराह (رضي الله عنه) से रिवायत है जिसे इमाम ज़ैनुल इ़राक़ी ने हसन सनद बताया है के आँहज़रत (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः

((المؤمن مرآۃ المؤمن، والمؤمن أخو المؤمن من حیث لقیہ،یکف عنہ ضیقہ ویحوطہ من وراۂ))

एक मुसलमान जब दूसरे मुसलमान से मिलता है तो उसके लिए आईना और उसका भाई होता है, वो उसे ख़सारे से बचाता है और और पीछे से उसकी दिफ़ा करता है।

अल्लाह ने मुसलमान पर ये लाज़िम क़रार दिया है के वो दूसरे मुसलमान की माज़िरत को क़ुबूल करे, इसके राज़ की पर्दापोशी करे और उसे भली नसीहत करे। इब्ने माजा में जूदान (رضي الله عنه) की रिवायत है जिसे अलमंज़री ने कहा के इसकी सनद हसन है, फ़रमाया अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) नेः

((من اعتذر إلی أخیہ بمعذرۃ فلم یقبلھا، کان علیہ مثل خطیءۃ صاحب المکس))

जब एक शख़्स दूसरे के पास आए और माज़िरत चाहे और दूसरा उसकी माफ़ी को क़ुबूल ना करे तो इस पर वही गुनाह होगा जो मक्स (शरई हुक्म के ख़िलाफ़ टैक्स या चूंगी) वसूल करता है।

किसी की राज़दारी के सिलसिले में अबू दाऊद और तिरमिज़ी में जाबिर (رضي الله عنه) की रिवायत नक़ल की है जिसकी सनद हसन है, फ़रमाया हुज़ूर नबी (صلى الله عليه وسلم) नेः

((إذا حدّث رجلاً بحدیث ثم التفت فھو أمانۃ))

जब एक शख़्स दूसरे से कुछ कहे और कहने वाला आस पास देखे के कोई और तो नहीं सुन रहा तो ये बात अमानत हो गई।

किसी की अमानतदारी करना मुसलमान पर फ़र्ज़ है और उससे ख़यानत करना धोका है। हदीस में इसकी सराहत वारिद हुई है के अगर कहने वाला राज़दारी का वादा ना भी ले तो भी राज़दारी बरती जाये, बल्कि कहने वाले का चारों तरफ़ देखना ही इस वजह से है के वो इस मुआमले में राज़दारी चाहता है। लिहाज़ा अगर कहने वाला राज़दारी का मुतालिबा करे तो बात को राज़ रखना औला हो जाता है। अलबत्ता ये उन मुआमलात में है जिनसे कोई हुक्काम या अल्लाह سبحانه وتعالیٰیٰ का हक़ मुतास्सिर ना होता हो। सुनने वाले पर ये ज़रूरी होता है के वो बात कहने वाले को भली नसीहत करे और उसे बुरी चीज़ से बाज़ रखे नीज़ ये भी के वो गवाही देने के लिए बुलाए जाने से पहले ख़ुद पहल करे, जैसा के मुस्लिम शरीफ़ की हदीस में वारिद हुआ हैः

(( ألا أنبّئکم بخیر الشھود، الذي یشھد قبل أن یستشھد))
क्या मैं तुम्हें ना बताऊं के बेहतरीन गवाह कौन है? वो शख़्स जो बुलाए जाने से पहले गवाही दे।

भलाई की नसीहत देने के ताल्लुक़ से हज़रत जरीर इब्ने अ़ब्दुल्लाह (رضي الله عنه) की मुत्तफ़िक़ा अलैह रिवायत हैः

((بایعت رسول اللہ ا علی إقام الصلاۃ و إیات ء الزکوٰۃ والنصح لکل مسلم))
मैंने रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم)  से इस बात पर बैअ़त की के मैं नमाज़ क़ायम करूंगा, ज़कात दूंगा और हर मुसलमान को भलाई की नसीहत करूंगा।

इसी तरह मुस्लिम शरीफ़ में तमीम इब्न औस अलदारी (رضي الله عنه) की रिवायत नक़ल है के नबी अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः

((الدین نصحیۃ، قلنا لمَن؟ قال للّٰہِ ولکتابہ و لرسولہ لأئمۃ المسلمین ولعامتھم))
दीन नसीहत करने का नाम है। हम ने दरयाफ़्त किया के किस की नसीहत? तो फ़रमायाः मुसलमानों के बड़ों को और आम मुसलमानों को अल्लाह की, किताबुल्लाह की, इसके रसूल की नसीहत।

अलख़त्ताबी ने कहा है के हदीस के मानी ये हैं के नसीहत दीन की बुनियाद है और इस की मिसाल ऐसी है जैसे हुज़ूरे अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने हज के बारे में फ़रमाया के ((الحج عرفۃ)) यानी अरफ़ात हज का रुक्न और सब से अहम बुनियाद है। हुज़ूर अकरम ने इसी तरह मुसलमानों के मुसलमान पर हुकूक़ भी वाज़ेह फ़रमा दिए और उनका अ़ज़ीम सवाब भी बता दिया। मुस्लिम शरीफ़ में हज़रत अबू हुरैराह (رضي الله عنه) से रिवायत नक़ल है के आँहज़रत (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः

((حق المسلم علی المسلم ست، قیل ما ھن یا رسول اللّٰہ؟ قال: إذا لقیتہ فسلم علیہ،وإذا دعاک فأجبہ،و إذا استنصحک فانصح لہ، وإذا عطس فحمد اللّٰہ فشمتہ، وإذا مرض فعدّہ وإذا مات فاتبعہ))

मुसलमान के मुसलमान पर छः हुकूक़ हैं: पूछा गया के ऐ अल्लाह के रसूल वो क्या हैं? फ़रमायाः जब उससे मिलो तो सलाम करो, जब वो बुलाए तो दावत क़बूल करो, जब वो मश्वरा मांगे तो मश्वरा दो, जब उसे छींक आए तो अल्लाह की तारीफ़ करो (अलहम्दु लिल्लाह कहे और जवाबन यरहमकुल्लाह कहा जाये), जब वो बीमार हो तो अ़यादत करो और जब मौत आए तो जनाज़े में शामिल हो।

बुग़्ज़ के सिर्फ़ अल्लाह سبحانه وتعالیٰ के लिए होने के ताल्लुक़ से आया है के कुफ़्फ़ार, मुनाफ़िक़ीन और खुले हुए फ़ासिक़ से मुहब्बत रखने को अल्लाह سبحانه وتعالیٰ ने मना फ़रमाया हैः

يٰۤاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَتَّخِذُوْا عَدُوِّيْ وَ عَدُوَّكُمْ اَوْلِيَآءَ تُلْقُوْنَ اِلَيْهِمْ بِالْمَوَدَّةِ وَ قَدْ كَفَرُوْا بِمَا جَآءَكُمْ مِّنَ الْحَقِّ١ۚ يُخْرِجُوْنَ الرَّسُوْلَ وَ اِيَّاكُمْ اَنْ تُؤْمِنُوْا بِاللّٰهِ رَبِّكُمْ١ؕ اِنْ كُنْتُمْ خَرَجْتُمْ جِهَادًا فِيْ سَبِيْلِيْ وَ ابْتِغَآءَ مَرْضَاتِيْ١ۖۗ تُسِرُّوْنَ اِلَيْهِمْ بِالْمَوَدَّةِ١ۖۗ وَ اَنَا اَعْلَمُ بِمَاۤ اَخْفَيْتُمْ وَ مَاۤ اَعْلَنْتُمْ١ؕ وَ مَنْ يَّفْعَلْهُ مِنْكُمْ فَقَدْ ضَلَّ سَوَآءَ السَّبِيْلِ۰۰۱

ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अगर तुम मेरी राह में जिहाद के लिए और मेरी रज़ाजोई के लिए निकले हो तो, मेरे दुश्मनों को और अपने दुश्मनों को दोस्त ना बनाओ के उनके पास मुहब्बत के पैग़ाम भेजते हो जब के तुम्हारे पास जो हक़ आया है इसका वो इंकार  कर चुके हैं, रसूल को और तुम्हें इसलिए निकालते हैं के तुम अपने रब, अल्लाह पर ईमान लाए हो। तुम राज़दाराना उनसे दोस्ती की बातें करते हो, हालाँके मैं ख़ूब जानता हूँ जो कुछ तुम छुपाते हो और जो कुछ तुम ज़ाहिर करते हो। जो कोई भी तुम में से ऐसा करे, वो राहे रास्त से भटक गया है। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआन: मुम्तहिन्ना -01)

يٰۤاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَتَّخِذُوْا بِطَانَةً مِّنْ دُوْنِكُمْ لَا يَاْلُوْنَكُمْ خَبَالًا١ؕ وَدُّوْا مَا عَنِتُّمْ١ۚ قَدْ بَدَتِ الْبَغْضَآءُ مِنْ اَفْوَاهِهِمْ١ۖۚ وَ مَا تُخْفِيْ صُدُوْرُهُمْ اَكْبَرُ١ؕ قَدْ بَيَّنَّا لَكُمُ الْاٰيٰتِ اِنْ كُنْتُمْ تَعْقِلُوْنَ۰۰۱۱۸ هٰۤاَنْتُمْ اُولَآءِ تُحِبُّوْنَهُمْ وَ لَا يُحِبُّوْنَكُمْ وَ تُؤْمِنُوْنَ بِالْكِتٰبِ كُلِّهٖ١ۚ وَ اِذَا لَقُوْكُمْ قَالُوْۤا اٰمَنَّا١ۖۗۚ وَ اِذَا خَلَوْا عَضُّوْا عَلَيْكُمُ الْاَنَامِلَ مِنَ الْغَيْظِ١ؕ قُلْ مُوْتُوْا بِغَيْظِكُمْ١ؕ اِنَّ اللّٰهَ عَلِيْمٌۢ بِذَاتِ الصُّدُوْرِ

ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अपने सिवा दूसरों को अपना महरमे राज़ ना बनाओ वो तुम्हें नुक़्सान पहुंचाने में कोई कसर नहीं उठा रखते जितनी भी तुम ज़ेहमत में पढ़ो उन्हें महबूब है। इनका बग़्ज़ तो उनके मुंह से ज़ाहिर हो चुका है, और जो कुछ उनके सीने छुपाऐ हुए हैं वो तो इस से भी बढ़ कर है। अगर तुम अ़क़्ल से काम लो तो हम ने तुम्हारे लिए निशानियां खोल कर बयान कर दी हैं। ये तो तुम हो जो उनसे मुहब्बत रखते हो, और वो तुम से मुहब्बत नहीं करते हालाँके तुम तमाम किताब पर ईमान रखते हो, और जब वो तुम से मिलते हैं तो कहने को तो कहते हैं के हम ईमान लाए हैं, लेकिन जब वो अलग होते हैं तो तुम पर मारे ग़ुस्से के उंगलियां काटने लगते हैं। कह दो के तुम अपने ग़ुस्से में आप मरे जाओ अल्लाह तो दिलों की बात जानता ही है। (तर्जुमा मआनीये क़ुरआन:आले इमरान-118,119)

तिबरानी में सही सनद से हज़रत अ़ली (رضي الله عنه) के ज़रीये रिवायत है के हुज़ूरे अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः

((ثلاث ھن حق:لا یجعل اللّٰہ من لھم سھم في الإسلام کمن لا سھم لہ،ولا یتولی 
اللّٰہ عبدٌ فیولیہ غیرہ،ولا یحب رجل قوماً إلا حشر معھم))

तीन बातें हक़ हैं: पहली ये के अल्लाह سبحانه وتعالیٰ उस शख़्स को जिस का इस्लाम में हिस्सा है ऐसा नहीं मानता जैसा उस शख़्स को जिस का इस्लाम में कोई हिस्सा नहीं। दूसरी ये के कोई शख़्स ऐसा नहीं जो अल्लाह को अपना वाली बनाए और अल्लाह उसे किसी और के लिए छोड़ दे। और तीसरे ये के जो भी शख़्स जिस किसी क़ौम से मुहब्बत करेगा वो उन्ही के साथ उठाया जाऐगा।

इस हदीस में ये बात सराहत से मना कर दी गई के एहले सू (बुरे लोगों) से मुहब्बत रखी जाये क्योंकि इस में उन्ही के साथ हश्र का ख़तरा है। तिरमिज़ी में हज़रत मआज़ बिन अनस अलजुहनी (رضي الله عنه) से मर्वी है के रसूले अकरम  ने फ़रमायाः

((من أعطی للہ، ومنع للّٰہ، وأحب للّٰہ، وأبغض للّٰہ، وأنکح للّٰہ، فقد استکمل إیمانہ))

जिस ने अल्लाह के लिए ख़र्च किया और उसी की ख़ातिर मना किया, मुहब्बत की तो अल्लाह के लिए की नफ़रत की तो अल्लाह के लिए की, शादी की तो अल्लाह के लिए की, तो उसका ईमान मुकम्मल हुआ।

इसी तरह इमाम मुस्लिम ने अपनी सही में हज़रत अबू हुरैराह (رضي الله عنه) की ये रिवायत नक़ल की है के आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः

((۔۔۔ وإذا أبغض اللہ عبداً دعا جبریل فیقول إنی أبغض فلاناً فأبغضہ، قال فیبغضہ جبریل ثم ینادي في اھل السماء إن اللہ یبغض فلاناً فأبغضوہ، قال فیبغضونہ ثم توضع لہ البغضاء في الأرض ۔۔۔))

जब अल्लाह سبحانه وتعالیٰ अपने किसी बंदे से नाराज होता है और उससे नफ़रत करता है, तो जिब्रईल अलैहिस्सलाम को बुलाता है, और उनसे कहता है के मैं फलाँ शख़्स से नफ़रत करता हूँ, चुनांचे तुम भी उससे नफ़रत करो तो जिब्रईल भी उससे नफ़रत करते हैं, फिर एहले आसमाँ में ये एैलान कर दिया जाता है के अल्लाह फलाँ शख़्स से नफ़रत करता है, लिहाज़ा तुम भी उससे नफ़रत करो। इसके बाद उसकी नफ़रत दुनिया में फैला दी जाती है।

उसकी नफ़रत को दुनिया में फैला दिए जाने में ख़बर है जिससे अम्र (हुक्म) और तलब (मांग) मक़सूद है और यही इस चीज़ का तकाज़ा है, क्योंकि ऐसे बहुत से कुफ़्फ़ार, मुनाफ़िक़ और फ़ासिक़ लोग हैं, जिन से मुहब्बत करने वाले तो मौजूद हैं, मगर उनसे नफ़रत नहीं की जाती, इस जुमले में दलालतुल इक़्तिदा है जिस से तलब मुराद है। गोया ये कहा जा रहा हैः ऐ एहले ज़मीन! उससे नफ़रत करो, जिससे अल्लाह سبحانه وتعالیٰ नफ़रत करता है। लिहाज़ा ये हदीस इस बात के वाजिब होने पर दलालत कर रही है के जिस शख़्स से अल्लाह नफ़रत करता है, उस से नफ़रत की जाये। इसके तहत नफ़रत का वजूब (वाजिब होना) भी साबित होता है चुनांचे हज़रत आईशा (رضي الله عنه)ا से मर्वी है के आप  ने फ़रमायाः

((إن أبغض الرجال إلی اللّٰہ الألد الخصم))

अल्लाह سبحانه وتعالیٰ के नज़दीक सब से ज़्यादा क़ाबिले नफ़रत शख़्स वो है जो झगड़ालू और मुख़ासमत (दुशमनी) रखने वाला है।

जो शख़्स अंसार से नफ़रत करे उससे नफ़रत करना वाजिब है। चुनांचे हज़रत बरा (رضي الله عنه)  फ़रमाते हैं के मैंने रसूले अकरम (صلى الله عليه وسلم) को कहते सुनाः

((الأنصار لا یحبھم إلا مؤمن، ولا یبغضھم إلا منافق، فمن أحبھم أحبہ اللّٰہ، ومن أبغضھم أبغضہ اللّٰہ))، (متفقٌ علیہ)

अंसार से मुहब्बत सिर्फ़ मोमिन ही कर सकता है और उनसे बुग़्ज़ सिर्फ़ मुनाफ़िक़ रखता है लिहाज़ा जिस ने अंसार से मुहब्बत की उस से अल्लाह मुहब्बत करेगा, और जिस ने उनसे बुग़्ज़ रखा अल्लाह उस से नफ़रत करेगा। (मुत्तफिक़ अलैहि)

इसी तरह उस शख़्स से भी बुग़्ज़ रखने का वजूब (वाजिब होना) साबित है जो हक़ बात ज़बान से तो कह देता है लेकिन ये हक़ ख़ुद उसके हलक़ से नीचे नहीं उतरता, चुनांचे मुस्लिम शरीफ़ में हज़रत अ़ली (رضي الله عنه) से रिवायत है के

(( إنَّ رسول اللّٰہَ وصف ناساً، إنِّي لأعرف صفتھم في ھٰؤلاء ، یقولون الحق بألسنتھم، لا یجوز ھذا منھم، وأشار إلی حلقہ، من أبغض خلق اللہ إلیہ))

हुज़ूर नबी करीम  ने कुछ लोगों की सिफ़ात बयान फ़रमाइं हैं जिन्हें मैं कुछ लोगों में पाता हूँ, ये लोग अपनी ज़बान से हक़ और सच बात तो कहते हैं और आप (صلى الله عليه وسلم) ने अपने हलक़ की जानिब इशारा करते हुए फ़रमाया लेकिन वो हक़ बात उनके हलक़ से नीचे नहीं उतरती, ये लोग अल्लाह की मबगूज़ तरीन मख़्लूक़ात में से हैं।

इसी तरह उस शख़्स से भी नफ़रत करना वाजिब है जो बदज़बान और फ़ेहश गो हो चुनांचे तिरमिज़ी ने हज़रत अबू दरदा (رضي الله عنه) की रिवायत नक़ल की है और इसको हसन सहीह बताया है। आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः

((۔۔۔ وإن اللّٰہ لیبغض الفاحش البذيء))

बेशक अल्लाह سبحانه وتعالیٰ बदज़ुबान फ़ेहश गो को नापसंद करता है।
ये तो अल्लाह के रसूल की क़ौली और अ़मली अहादीस हैं, और इसी तरह सहाबा भी  कुफ़्फ़ार से नफ़रत करते थे। इस सिलसिले में भी बहुत से आसार वारिद हैं, मुस्लिम शरीफ़ में सलमा बिन अकूआ (رضي الله عنه) से रिवायत हैः
((۔۔۔فلما اصطلحنا نحن و أھل مکۃ، و اختلط بعضنا بعض، أتیت شجرۃ،فکسحت شوکھا، فاضطجعت في أصلھا، قال: فأتاني أربعۃ من المشرکین من أھل مکۃ فجعلوا یقعون في رسول اللّٰہِا فأبغضتھم فتحولت إلی شجرۃ أخری۔۔۔))
जब एहले मक्का और हमारे दरमियान सुलह हो गई और लोग एक दूसरे से मिलने लगे, मैं एक पेड़ के कांटे साफ़ कर के नीचे लेट गया। चार लोग मेरे पास आए जो के मक्के से ताल्लुक़ रखते थे और अल्लाह के रसूल के बारे में बदकलामी शुरू की तो मैंने उनसे नफ़रत ग़ुस्से का इज़हार किया और दूसरे पेड़ के नीचे चला गया।
इसी तरह मुसनद अहमद में हज़रत जाबिर इब्ने अ़ब्दुल्लाह (رضي الله عنه) की रिवायत है के हज़रत अ़ब्दुल्लाह इब्ने रवाहा (رضي الله عنه) ने ख़ैबर के यहूद से कहाः
((یا معشر الیھود، انتم ابغض الخلق إلي قتلتم أنبیا اللّٰہ عز وجل، وکذبتم علی اللّٰہ 

ولیس یحملنی بغضي إیاکم علی أن احیف علیکم۔۔۔))
ऐ यहूद, अल्लाह की मख़्लूक़ में तुम लोग मेरे नज़दीक सब से ज़्यादा क़ाबिले नफ़रत हो, तुम ने अल्लाह के नबियों को क़त्ल किया और अल्लाह पर झूठ घड़ा लेकिन तुम्हारे लिए मेरी नफ़रत की वजह से मैं तुम्हारे साथ फिर भी कोई नाइंसाफी नहीं कर सकता।
इस तरह मुसलमानों में ही से कोई किसी शर का बाइस बने तो इस से भी बुग़्ज़ रखने के सिलसिले में आसार वारिद होते हैं मुसनद अहमद, अब्दुर्रज़्ज़ाक़ और मुसनद अब्बू यअ़ला, हाकिम की मुस्तदरक में मुस्लिम शरीफ़ की शर्त पर सही सनद से हज़रत उ़मर बिन ख़त्ताब (رضي الله عنه) का ख़ुतबा मर्वी है के आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः
(۔۔۔ومن أظھر منکم شراً ظننا بہ شراً و أبغضنا علیہ)

तुम में से जिस किसी में शर ज़ाहिर हो तो हम उसे शर मानते हुए उससे बुग़्ज़ करते हैं।
चुनांचे एक मुस्लिम जो अल्लाह की रज़ा, उसकी रहमत, उसकी नुसरत और उसकी जन्नत का तलबगार है, उसमें हुब्ब फ़िल्लाह और बुग़्ज़ फ़िल्लाह जैसी सिफ़ात का होना लाज़िमी है।



Share on Google Plus

About Khilafat.Hindi

This is a short description in the author block about the author. You edit it by entering text in the "Biographical Info" field in the user admin panel.
    Blogger Comment
    Facebook Comment

0 comments :

इस्लामी सियासत

इस्लामी सियासत
इस्लामी एक मब्दा (ideology) है जिस से एक निज़ाम फूटता है. सियासत इस्लाम का नागुज़ीर हिस्सा है.

मदनी रियासत और सीरते पाक

मदनी रियासत और सीरते पाक
अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) की मदीने की जानिब हिजरत का मक़सद पहली इस्लामी रियासत का क़याम था जिसके तहत इस्लाम का जामे और हमागीर निफाज़ मुमकिन हो सका.

इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी का इतिहास

इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी का इतिहास
इस्लाम एक मुकम्म जीवन व्यवस्था है जो ज़िंदगी के सम्पूर्ण क्षेत्र को अपने अंदर समाये हुए है. इस्लामी रियासत का 1350 साल का इतिहास इस बात का साक्षी है. इस्लामी रियासत की गैर-मौजूदगी मे भी मुसलमान अपना सब कुछ क़ुर्बान करके भी इस्लामी तहज़ीब के मामले मे समझौता नही करना चाहते. यह इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी की खुली हुई निशानी है.