मजलिसे उम्मत (शूरा और मुहासिबा)

मजलिसे उम्मत मुसलमानों की राय की नुमाइंदगी करने वाले व्यक्तियों की मजलिस होती है जिनसे ख़लीफ़ा मुआमलात में मशवरा करता है। और मजलिसे उम्मत में प्रतिनिधि उम्मत के नायब की हैसियत से शासकों का मुहासिबा (हिसाब किताब और घेराव) करते हैं। ये बात हुज़ूरे अक़्दस صلى الله عليه وسلم  से माख़ूज़ है जो अपने लोगों की नेतृत्व करने वाले मुहाजिरीन और अंसार से मश्वरा फ़रमाते थे, और आप صلى الله عليه وسلم ने अपने कुछ अस्हाब  رضی اللہ عنھم को मशवरे के लिए ख़ास कर रखा था जिनसे आप صلى الله عليه وسلم मश्वरे के लिए दूसरे अस्हाब की बनिसबत ज़्यादा रुजू किया करते थे। इन अस्हाबे रसूल رضی اللہ عنھم में हज़रत अबुबक्र, हज़रत उमर, हज़रत अली, हज़रत हमज़ा, हज़रत सलमान अल फारसी, हज़रत हुज़ैफ़ा इब्ने अल यमान رضی اللہ عنھم  वग़ैरह थे।

और मजलिसे उम्मत की फ़िक्र हज़रत अबुबक्र رضي الله عنه से भी माख़ूज़ है जो किसी मुआमले में मुहाजिरीन और अंसार से मश्वरों के लिए रुजू किया करते थे। हज़रत अबुबक्र رضي الله عنه के दौर में अहले शूरा में औलमा और अहले फतावा हुआ करते थे। तबक़ात इब्ने साद رضي الله عنه में अल क़ासिम से रिवायत मनक़ूल है कि: जब हज़रत अबुबक्र को कोई ऐसा मुआमला पेश आता जिसमें वो अहले फ़िक़्ह और अहले राय से मश्वरा करना चाहते तो मुहाजिरीन और अंसार को बुलाते जिनमें हज़रत उमर, हज़रत उस्मान, हज़रत अली, हज़रत अब्दुर्रहमान इब्ने औफ़, हज़रत मआज़ इब्ने जबल, हज़रत अबी इब्ने काब, हज़रत जै़द इब्ने साबित رضی اللہ عنھم थे। हज़रत अबुबक्र رضي الله عنه के दौर मे ये तमाम हज़रात फ़तवा दिया करते थे और लोग फतावा के लिए इन ही से रुजू किया करते थे। हज़रत अबुबक्र का यही तरीक़ा रहा और आप के बाद जब हज़रत उमर ख़लीफ़ा बने तो वो भी इन ही हज़रात से रुजू किया करते। इसी तरह वो दलायल भी वारिद होते हैं जिनमें मुसलमानों को शासकों के मुहासिबे के लिए कहा गया है। ख़ुलफ़ाए राशिदीन के दौर में मुसलमान इस मुहासिबे पर कारबंद रहे। जिस तरह उम्मत पर शूरा के लिए अपने प्रतिनिधि नियुक्त करना ज़रूरी है उसी तरह मुहासिबे के लिए भी अनिवार्य है। इन तमाम से एक ख़ास मजलिस जारी करने के जायज़ होने का प्रमाण मिलता है जो शासकों के मुहासिबे और शूरा में जो क़ुरआन और सुन्नत की नुसूस (Text) से साबित है, उम्मत का प्रतिनिधित्व करें। इसको मजलिसे उम्मत इसलिए कहा गया है क्योंकि ये शूरा और मुहासिबे में उम्मत की नियाबत करती है।

इस मजलिस में रियासत के ग़ैर मुस्लिम शहरीयों के सदस्य भी हो सकते हैं जो शासकों के मज़ालिम की शिकायात पहुंचाएं या इस्लाम के उन पर लागू होने में ग़लतीयों को उठाऐं या जो सहूलियात उन्हें ना पहुंच पाइं उनकी शिकायत रखें, वग़ैरा।

शूरा का हक़:

तमाम मुसलमानों का ये हक़ है कि उनकी राय ख़लीफ़ा तक पहुंचे। मुसलमानों का ये हक़ है कि ख़लीफ़ा विभिन्न मुआमलात में उनसे रुजू करके मश्वरा करे, अल्लाह (سبحانه وتعال) का फ़रमान है:

وَشَاوِرۡهُمۡ فِى ٱلۡأَمۡرِۖ فَإِذَا عَزَمۡتَ فَتَوَكَّلۡ عَلَى ٱللَّهِۚ إِنَّ ٱللَّهَ يُحِبُّ ٱلۡمُتَوَكِّلِينَ
और मुआमलात में उनसे मश्वरा लेते रहो, फिर जब तुम्हारा इरादा किसी राय पर मुस्तहकम हो जाये, तो अल्लाह पर भरोसा करो, (तर्जुमा माअनीये क़ुरआन: आलेइमरान-159)

और फ़रमाया:
                                         وَأَمۡرُهُمۡ شُورَىٰ بَيۡنَہُمۡ

इनका मुआमला उनके आपस के मश्वरे से चलता है (तर्जुमा माअनीये क़ुरआन: अश्शूरा-38)

हुज़ूरे अक़्दस صلى الله عليه وسلم  लोगों से मश्वरे के लिए रुजू करते थे, चुनांचे ग़ज़वाऐ बद्र के वक़्त उनसे जंग के युद्ध क्षेत्र के बारे में मश्वरा फ़रमाया, ग़ज़वाऐ उहद के वक़्त लोगों से राय ली कि जंग मदीने ही में की जाये या मदीने से बाहर निकला जाये, फिर बद्र के मौक़े पर हज़रत हब्बाब इब्ने मुंज़िर رضي الله عنه की राय को माना की जो एक माहिर की फ़न्नी राय (Technical Opinion) थी, जबकि उहद के वक़्त अक्सरीयत की राय मानी बावजूद इसके कि ख़ुद आपकी राय इसके विपरीत थी।

हज़रत उमर رضي الله عنه ने ईराक़ की फ़तह के बाद वहाँ की ज़मीन के सिलसिले में लोगों से मश्वरा किया कि क्या इस ज़मीन को मुसलमानों में तक़सीम कर दिया जाये या उसे बैतुल माल की मिल्कियत बना कर अहले ईराक़ ही के पास रहने दिया जाये और वो इस ज़मीन की ख़िराज अदा करते रहें। फिर हज़रत उमर ने अपने इज्तिहाद ही पर अमल किया और ज़मीन उन्हीं लोगों के पास ख़िराज के बदले रहने दी। इस पर अक्सर सहाबा किराम رضی اللہ عنھم ने हज़रत उमर رضي الله عنه से इत्तिफ़ाक़ किया।

मुहासिबे का अधिकार :

जिस तरह मुसलमानों का ये हक़ है कि ख़लीफ़ा उनसे मश्वरा करे उसी तरह उन पर ये लाज़िम है कि वो शासकों के कार्यों व अधिकारों पर उनका मुहासिबा करें। अल्लाह (سبحانه وتعال) ने मुसलमानों पर ये फ़र्ज़ क़रार दिया है कि वो शासकों का मुहासिबा करें और अल्लाह का ये हुक्म हतमी (स्थाई) है कि शासकों का मुहासिबा किया जाये और अगर वो जनता के अधिकारों को हडप करें या इसके तईं अपने फ़राइज़ में कोताही करें या अवाम के मुआमलात से ग़फ़लत बरतें, या इस्लामी अहकाम की ख़िलाफ़वरज़ी करें या अल्लाह (سبحانه وتعال) के नाज़िल करदा अहकाम के मासिवा से हुकूमत करें तो उन्हें बदल दिया जाये। मुस्लिम शरीफ़ में हज़रत उम्मे सलमा से रिवायत मनक़ूल है कि आँहज़रत صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया:

))ستکون أمراء فتعرفون وتنکرون،فمن عرف برء،ومن أنکر سلم ولکن رضي وتابع،قالوا أفلا نقاتلھم؟ قال: لا، ما صلّوا۔۔۔))
ऐसे उमरा होंगे जिनके कुछ कामों को तुम पहचानोगे और कुछ के मानने से इंकार करोगे, सौ जो पहचान जाएगा वो गुनाह से बरी हुआ और जिस ने (वो बुराई) मानने से इंकार किया वो महफ़ूज़ हो गया, लेकिन जो इन कामों से राज़ी हो गया और इताअत की (वो महफ़ूज़ ना रहा) सहाबा ने अर्ज़ किया कि क्या हम उनसे ना लड़ें? फ़रमाया नहीं, जब तक कि व नमाज़पर क़ायम रहें।

यहां सलात (नमाज़) दरअसल इस्लाम से हुकूमत करने के लिए किनाया (indication) के तौर पर आया है।

सहीहीन में हज़रत अबु हुरैराह स से रिवायत है कि जब हुज़ूरे अक़्दस صلى الله عليه وسلم  की वफ़ात हुई और हज़रत अबुबक्र رضي الله عنه ख़लीफ़ा बने और कुछ अरब ने कुफ्र किया तो हज़रत उमर رضي الله عنه ने कहा: आप उनसे कैसे लड़ सकते हैं जबकि हुज़ूरे अकरम  صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया है:

((أمرت أن أقاتل الناس حتی یشھدوا أن لا إلہ إلا اللّٰہ و أن محمداً رسول اللّٰہ، و یقیموا الصلاۃ، و یؤتوا الزکٰوۃ، فإذا فعلو عصموا مني دماء ھم و أموالھم إلا بحقھا و حسابھم علی اللّٰہ۔))

मुझे हुक्म है कि में लोगों से उस वक़्त तक लडूँ जब तक कि वो इस बात की शहादत ना दे दें कि कि अल्लाह (سبحانه وتعال) के सिवा और कोई इलाहा नहीं है और मुहम्मद अल्लाह के रसूल हैं और नमाज़ क़ायम करें और ज़कात अदा करें, अगर वो ऐसा करें तो उनका ख़ून और उनका माल मेरे लिए हराम होगा, सिवाए इसके कि बहक हो, ओर उनका हिसाब अल्लाह पर होगा।

'I have been commanded to fight against the people till they say la ilaha illa
Allah. Whoever said it he would have protected from me his wealth and blood
except for its due right, and his account will be with Allah.'

इस पर हज़रत अबुबक्र رضي الله عنه ने फ़रमाया: 

अल्लाह की क़सम में उस शख़्स से ज़रूर क़िताल करूंगा जो नमाज़ और ज़कात में फ़र्क़ करे, क्योंकि ज़कात माल का हक़ है, अल्लाह की क़सम अगर उन लोगों ने ऊंट की एक नकेल देने से भी इंकार किया जो वो रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم  को दिया करते थे तो मैं उनके इस इंकार पर उनसे क़िताल करूंगा। इस पर हज़रत उमर رضي الله عنه ने कहा: बख़ुदा ये ऐसा हुआ है कि अल्लाह (سبحانه وتعال) ने अबुबक्र के सीने को खोल दिया है और मैं पहचान गया कि यही हक़ है।

इसी तरह हज़रत ज़ुबैर رضي الله عنه और हज़रत बिलाल इब्ने रिबाह رضي الله عنه ने हज़रत उमर رضي الله عنه के ईराक़ की ज़मीन को फ़ौज में तक़सीम ना करने  की मुख़ालिफ़त की। इसी तरह एक आराबी ने हज़रत उमर رضي الله عنه के कुछ ज़मीन पर क़ब्ज़े की मुख़ालिफ़त की। अबु उबैद رحمت اللہ علیہ अपनी तसनीफ़ अल अमवाल में आमिर इब्ने अब्दुल्लाह इब्ने ज़ुबैर से और वो अपने वालिद से रिवायत करते हैं कि एक आराबी हज़रत उमर رضي الله عنهके पास आया और कहा कि ऐ अमीरुल मोमिनींन! हमने जाहिलियत के दौर में अपनी बस्ती के लिए क़िताल किया और इस्लाम के दौर में उसको तस्लीम किया, अब हम पर ग़ुस्सा किया जाता है? इस पर हज़रत उमर رضي الله عنه को ग़ुस्सा आया और अपना हाथ किसी चीज़ पर मारा, वो ग़ुस्से में लंबी सांस ले रहे थे और जो चीज़ नोश कर रहे थे इस पर फूंकने लगे, ये ग़ुस्से की अलामत थी। जब ये आराबी ने देखा तो उसने अपनी बात फिर दोहराई और हज़रत उमर رضي الله عنه ने फ़रमाया:  ये माल अल्लाह का है और तमाम लोग इसके बंदे हैं, बख़ुदा में उसकी एक एक बालिशत ज़मीन को अल्लाह के रास्ते में उठा रखूंगा। हज़रत उमर رضي الله عنه ने कुछ मिल्कियते आम (सार्वजनिक सम्पत्ति) की ज़मीनें रियासत के घोड़ों के लिए ख़ास कर दी थीं। इसी तरह एक औरत ने हज़रत उमर رضي الله عنه के इस फ़ैसले की मुख़ालिफ़त की कि लोग औरतों का महर चार सौ दिरहम से ज़्यादा ना रखें, चुनांचे उस औरत ने हज़रत उमर رضي الله عنه से कहा कि ऐ उमर तुम्हें ये हक़ नहीं पहुंचता, क्या तुम ने अल्लाह (سبحانه وتعال) का ये फ़रमान नहीं सुना?:

فَلَا تَأۡخُذُواْ مِنۡهُ شَيۡـًٔاۚ أَتَأۡخُذُونَهُ ۥ بُهۡتَـٰنً۬ا
तो चाहे तुम ने इनमें किसी को ढेरों माल दे दिया हो, इस में से कुछ मत लेना (तर्जुमा माअनीये क़ुरआन: अन्निसा-20)

लिहाज़ा हज़रत उमर رضي الله عنه ने फ़रमाया: औरत ने सही कहा और उमर ने ग़लती की।
और हज और उमरा के मुआमले में हज़रत अली رضي الله عنه ने हज़रत उस्मान رضي الله عنه के दौरे ख़िलाफत में उनकी मुख़ालिफ़त की जो हज़रत उस्मान رضي الله عنه  ने हज और उमरे को एक ही सफ़र में करने के मुताल्लिक़ फ़रमाया था। मुसनद अहमद में हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने ज़ुबैर رضي الله عنه से सही अलसनद रिवायत मनक़ूल है, वो कहते है। कि हम जुहफा में हज़रत उस्मान رضي الله عنه  के साथ थे और हमारे साथ शाम के लोगों का गिरोह था जिसमें हबीब इब्ने मुस्लिमा अलफ़हरी भी थे। हज़रत उस्मान رضي الله عنه  से एक ही सफ़र में हज और उमरा करने के मुताल्लिक़ पूछा गया तो उन्होंने कहा: हज और उमरा की बेहतर तकमील के लिए ये मुनासिब है कि इन दोनों को हज ही के महीना में ना करो, अगर तुम इस उमरा को दुबारा अगले सफ़र में आकर अदा करो तो ये अफ़ज़ल है, इससे अल्लाह (سبحانه وتعال) तुम्हें भलाइयों में बरकत देगा। उस वक़्त हज़रत अली رضي الله عنه अपने ऊंट को वादी के दामन में चरा रहे थे। रावी कहते हैं कि जिस शख़्स ने हज़रत उस्मान رضي الله عنه  से बात की थी, उस ने ये बात हज़रत अली رضي الله عنه को बताई, हज़रत उस्मान رضي الله عنه के पास पहुंचे और कहा कि मेरा इरादा है कि मैं हुज़ूरे अकरम  صلى الله عليه وسلم की सुन्नत जो उन्होंने क़ायम की इस पर चलूं और अल्लाह (سبحانه وتعال) ने जो छूट अपने बंदों को अपनी किताब में दीं उनसे फायदा उठाऊँ । आप उन पर तंगी कर रहे हैं और उन्हें इस छूट से रोक रहे हैं हालाँकि ये हर उस शख़्स के लिए है जिसको इस छूट की ज़रूरत हो और जो इस घर (यानी बैतुल्लाह) की नीयत करे। हज़रत उस्मान رضي الله عنه ने इसको मान लिया और लोगों से कहा : क्या मैंने तुम्हें ऐसा करने से रोका था? नहीं मैंने रोका नहीं था, अलबत्ता ये मेरी राय थी जिसका मैंने इशारा किया, अब जो चाहे इसे अपनाये और जो चाहे इसे छोड दे।

चुनांचे मजलिसे उम्मत को शूरा का हक़ है और उस पर फ़र्ज़ है कि वो हुक्काम का मुहासिबा करे।

जैसा कि पिछले गुज़र पिछले चुका कि शूरा और मुहासिबा में फ़र्क़ होता है, शूरा किसी मुआमले में फ़ैसला करने से पहले मश्वरा तलब करना या किसी राय का सुनना है जबकि मुहासिबा फ़ैसला लिए जाने या इस पर अमल हो जाने के बाद तन्क़ीद (आलोचना)  या एतराज़ करना है।

मजलिसे उम्मत के अराकीन (members) का चयन:

मजलिसे उम्मत के अरकान चुनाव के ज़रिये मजलिस के सदस्य होते हैं, इनको नियुक्त नहीं किया जाता, क्योंकि वो अवाम की राय की नुमाइंदगी करते हैं और एक मुअक्किल ही अपने वकील या नुमाइंदे को चुना करता है, ये नहीं होता कि वकील या नुमाइंदा किसी पर थोप दिया जाये। मजलिसे उम्मत के अरकान उम्मत की व्यक्तिगत तौर पर और जमाती या गिरोहों की नुमाइंदगी करते हैं, और जमातों या ग़ैर मारूफ़ अश्ख़ास (अप्रसिद्द व्यक्तियों) की राय मालूम नहीं की जा सकती जब तक कि वो लोग और जमातें उन्हें मुंतख़िब (चयनित) ना करें। हुज़ूरे अकरम  صلى الله عليه وسلم जिन लोगों से राय मश्वरा लेने के लिए रुजू फ़रमाते थे, उन्हें उन लोगों की निजी अहलीयत (योग्यता) , महारत या शख़्सियत की वजह से नहीं चुना था बल्कि ऐसे लोगों को चुनने के लिए दो पैमाने अपनाये थे: पहला ये कि वो लोग अपने अपने क़बाइल या जमाआत के सरदार थे, इस बात को नज़र अन्दाज़ करते हुये कि उनकी निजी सलाहीयतों या महारतों के। दूसरा ये कि ये लोग मुहाजिरीन-ओ-अंसार की नुमाइंदगी करते थे। लिहाज़ा ये स्पष्ट हुआ कि वो ग़रज़ जिसके कारण शूरा का वजूद है, वो अवाम की नुमाइंदगी है, और यही बात क़बाइल के सरदारों को शूरा के लिए ख़ास करने का सबब थी, और यही सबब था कि मुहाजिरीन और अंसार के नुमाइंदे इस काम के लिए ख़ास किए गए। ग़ैर मारूफ़ अफ़राद की नुमाइंदगी उस वक़्त तक हक़ीक़त नहीं बन सकती जब तक कि अरकान (मेम्बर) या नुमाइंदों का इंतिख़ाब ना किया जाये। लिहाज़ा मजलिसे उम्मत के अरकान का इंतिख़ाब होना ज़रूरी है। अब ये दलील कि हुज़ूर صلى الله عليه وسلم ने शूरा के लोगों को ख़ुद चुना था, तो वो इलाक़ा जहां मुहाजिरीन-ओ-अंसार रहते थे, यानी मदीना, तो वो एक छोटी सी जगह थी और ये कि आप صلى الله عليه وسلم तमाम मुसलमानों से निजी तौर पर वाक़िफ़ थे। इसके विपरीत दूसरी बैअते उक़बा के वक़्त मुसलमानों की ज़्यादा तादाद होने के सबब हुज़ूर صلى الله عليه وسلم तमाम बैअत देने वालों से वाक़िफ़ नहीं थे चुनांचे आप صلى الله عليه وسلم ने सरदारों के इंतिख़ाब (चुनाव)  का मुआमला लोगों पर छोड़ दिया और लोगों से फ़रमाया:

((أخرجوا إليَّ منکم اثنی عشر نقیباً لیکونوا علی قومھم بما فیھم))
अपने में से बारह सरदार मुंतख़िब कर लो जो अपने और अपनी क़ौम (की बात) के ज़िम्मेदार होंगे

इस हदीस को हज़रत काब इब्ने मालिक رضي الله عنه से सीरत इब्ने हिशाम में नक़ल किया गयाहै।

लिहाज़ा मजलिसे उम्मत के अराकीन राय पेश करने में उम्मत के वकील और मजलिसे उम्मत के होने की इल्लत (वजह) ये कि वो शूरा और मुहासिबे में उम्मत की नुमाइंदगी करती है; और ये इल्लत मजलिसे उम्मत में उसी वक़्त पूरी होती है जब इसके अराकीन का इंतिख़ाब हो यानी वो ग़ैर मारूफ़ ना हों। इससे ये मुस्तंबित (प्राप्त) होता है कि मजलिसे उम्मत के अराकीन चुने जाये ना कि उनको नियुक्त किया जाये।

मजलिसे उम्मत के चुनाव का तरीक़ा:

1. वालियों के सिलसिले में दौराने बहस तबन्नी (adoption) का ज़िक्र हो चुका है कि विलायत के अवाम की नुमाइंदगी के लिए एक मजलिस हो, इससे दो मक़सद हल होते हैं: अव्वल ये कि वाली तक विलायत की वाक़ई सूरते हाल और उसकी ज़रूरीयात की जानकारी पहुंचाई जाये ताकि वाली को विलायत के अवाम की ज़िंदगी बेहतर और पुर सुकून बनाने के लिए क़दम उठाना आसान हो और उनकी ज़रूरीयात पूरी करने में मदद हो; दूसरा मक़सद ये कि अवाम वाली की हुकूमत से अपनी रज़ा या शिकायतों को उस तक पहुंचा सकें क्योंकि मजलिसे विलायत की अक्सरीयत का वाली के ख़िलाफ़ शिकायत पर वाली की बर्ख़ास्ति फ़र्ज़ हो जाती है। यानी मजलिसे विलायत की हक़ीक़त ये हुई कि वो वाली की मुआविनत (सहायता) की मजलिस है जिससे वाली को रियासत की वाक़ई सूरते हाल का इल्म होता है और उनकी शिकायतों और रज़ा को जानता है ताकि इसके काम में बेहतरी आए। इसके सिवा मजलिसे विलायत के अधिकार मजलिसे उम्मत की तरह नहीं होते, ये बेहस आइन्दा सफ़हात पर आएगी।

2. हम यहां ये तबन्नी करते हैं कि मजलिसे शूरा (राय और मुहासिबा) के लिए ये ज़रूरी है कि वो मुंतख़िब हो और उम्मत की नुमाइंदगी करे और इसके ख़ास अधिकार हों। इन अधिकार की तफ़सील मुनासिब जगह ज़िक्र की जायेगी ।

3. नतीजतन मजलिसे विलायत और मजलिसे उम्मत के अराकीन को मुंतख़िब करने के लिए चुनाव होंगे।

4. चुनावी कार्यवाही को आसान बनाने और अवाम पर बार बार चुनाव का बोछ ना डालने की ग़रज़ से हम ये तबन्नी करते हैं कि पहले तमाम विलायत के लिए मज्लिसों के चुनाव हों और फिर इस के बाद इन मज्लिसों के कामयाब अराकीन अपने में मजलिसे उम्मत के अराकीन का चुनाव करें, यानी विलायत की मज्लिसों के इंतिख़ाब (चुनाव) सीधे तौर पर होंगे और मजलिसे उम्मत का इंतिख़ाब विलायत की मजालिस करेंगी। दूसरे लफ्ज़ों में मजलिसे उम्मत की मियाद और मजालिसे विलायत की मीयादें एक जैसी होंगी ।

5. मजालिसे विलायत का जो मेम्बर मजलिसे उम्मत के लिए मुंतख़िब (चयनित) हो जाए, उसकी जगह वहाँ के इंतिख़ाब में इस रुक्न (सदस्य) के बाद सब से ज़्यादा वोट लेने वाला मजलिसे विलायत में उसकी जगह रुक्न होगा और अगर ऐसे दो लोग हों जिन्हें बराबर वोट मिले थे तो उनके बीच क़ुरआ अंदाज़ी (लॉटरी डालनी) होगी।

6. रियासत के ज़िम्मियों के नुमाइंदे मजलिसे विलायत में होंगे और वो अपने नुमाइंदे मजलिसे उम्मत के लिए मुंतख़िब करेंगे। उनकी मियादे रुक्नियत (सदस्यता की सीमा अवधी) वैसी ही होगी जैसी उन मजालिसे विलायात या मजलिसे उम्मत की है।

इन बुनियादों पर क़ानून जारी किया जाएगा जिसके पेश-ए-नज़र पिछले मुआमलात होंगे। इस में मजालिसे विलायात और मजलिसे उम्मत के इंतिख़ाबात का तरीक़ा होगा। इस पर ग़ौर-ओ-फ़िक्र और तबन्नी मुनासिब वक़्त पर की जाएगी।

मजलिसे उम्मत की मेम्बरशिप:

हर वो शख़्स जो रियासत का शहरी हो, आक़िल और बालिग़ हो, उसे मजलिसे उम्मत की रुक्नियत का और इसके लिए इंतिख़ाब का हक़ है, चाहे वो मर्द हो या औरत, मुस्लिम हो या ग़ैर मुस्लिम, क्योंकि मजलिसे उम्मत को सिर्फ राय देने का अधिकार है ना कि हुकूमत और तशरीअ या क़ानूनसाज़ी का। ये इस हदीस से नहीं टकराता जिसमें औरत के हाकिम (शासक) होने को मना किया गया है बल्कि ये शूरा और मुहासिबे के ज़िमन (अंतर्गत) में आता है जो औरतों का भी इसी तरह हक़ है जिस तरह मर्दों का हुज़ूरे अकरम صلى الله عليه وسلم के पास बिअसत के तेहरवें साल यानी हिजरत वाले साल 75 मुसलमान आए जिनमें 73 मर्द और दो औरतें थीं। इन सब ने मिल कर बैअते  उक़बा सानिया की जो कि जंग और क़िताल और सियासत की बैअत थी। अपनी इस बैअत से फ़ारिग़ होने के बाद हुज़ूर अक़्दस صلى الله عليه وسلم ने उऩ्हें हुक्म दिया:

((أخرجوا إليَّ منکم اثنی عشر نقیباً لیکونوا علی قومھم بما فیھم))
अपने में से बारह सरदार मुंतख़िब कर लो जो अपने और अपनी क़ौम (की बात) के ज़िम्मेदार होंगे

ये एक तवील हदीस का हिस्सा है जिसे मुसनद अहमद में हज़रत काब इब्ने मालिक رضي الله عنه से रिवायत किया गया है। हुज़ूरे अकरम  صلى الله عليه وسلم का अपने में नुमाइंदों के इंतिख़ाब का ये हुक्म तमाम उम्मत के लिए है क्योंकि आप ने सिर्फ़ मर्दों को ख़ास नहीं फ़रमाया और ना ही ख़वातीन को मुस्तसना (प्रथक) रखा; ना किसी को अपनी तरफ से मुंतख़िब करने के लिए ख़वातीन को मुस्तसना किया और ना ही ख़ुद मुंतख़िब होने के लिए ख़वातीन को मुस्तसना फ़रमाया। इस तरह इंतिख़ाब की ये उमूमीयत क़ायम रहेगी क्योंकि उसकी कोई क़ैद या तख़सीस वारिद नहीं हुई है। चुनांचे ये दलील हुई कि हुज़ूरे अकरम  صلى الله عليه وسلم ने ख़वातीन को अपने नुमाइंदे मुंतख़िब करने और ख़ुद नुमाइंदा मुंतख़िब होने का हुक्म दिया।

हुज़ूर अक़्दस صلى الله عليه وسلم दो दिन तक लोगों से बैअत लेते रहे, इस दौरान हज़रत अबुबक्र और हज़रत उमर रहे। आप से ख़वातीन और मर्दों ने बैअत की जो हुकूमत की बैअत थी ना कि इस्लाम की बैअत क्योंकि वो तो पहले ही मुसलमान हो चुकी थीं। इसके बाद हुदैबिया के मौक़े पर फिर औरतों ने बैअत की जिसके बारे में अल्लाह (سبحانه وتعال) ने फ़रमाया:

يَـٰٓأَيُّہَا ٱلنَّبِىُّ إِذَا جَآءَكَ ٱلۡمُؤۡمِنَـٰتُ يُبَايِعۡنَكَ عَلَىٰٓ أَن لَّا يُشۡرِكۡنَ بِٱللَّهِ شَيۡـًٔ۬ا وَلَا يَسۡرِقۡنَ وَلَا يَزۡنِينَ وَلَا يَقۡتُلۡنَ أَوۡلَـٰدَهُنَّ وَلَا يَأۡتِينَ بِبُهۡتَـٰنٍ۬ يَفۡتَرِينَهُ ۥ بَيۡنَ أَيۡدِيہِنَّ وَأَرۡجُلِهِنَّ وَلَا يَعۡصِينَكَ فِى مَعۡرُوفٍ۬ۙ فَبَايِعۡهُنَّ

ऐ नबी, जब मोमिन औरतें तुम्हारे पास आकर तुम से इस पर बैअत करें कि वो अल्लाह के साथ किसी को शरीक नहीं करेंगी और ना चोरी करेंगी, ना ज़िना करेंगी, ना अपनी औलाद को क़त्ल करेंगी और ना अपने हाथों और पैरों के बीच कोई बोहतान घड़ लाएंगी, और ना किसी अम्रे मारूफ़ में तुम्हारी नाफ़रमानी करेंगी, तो उनसे बैअत ले लो (तर्जुमा माअनीये क़ुरआन: अल मुम्तहिन्ना-12)

ये बैअत हुकूमत की भी थी क्योंकि ख़ुद क़ुरआन ने ये कह दिया कि वो मुस्लिमात थीं और ये बात की की भी बैअत थी कि वो किसी भलाई में नाफरमानी नहीं करेंगी।
इसके अलावा ख़वातीन का ये हक़ है कि कोई उनकी राय की नुमाइंदगी करे क्योंकि औरत को राय देने का हक़ है, और ख़वातीन को ये भी हक़ है कि वो किसी और की राय की नुमाइंदगी करें क्योंकि इस में मर्द होने की शर्त नहीं है लिहाज़ा वो दूसरों की राय की नुमाइंदगी कर सकती हैं।

फिर सय्यदना उमर  رضي الله عنه से साबित है कि जब उन्हें कोई मुआमला पेश आता तो वो मुसलमानों की राय लेते, चाहे ये मुआमला अहकामे शरीयत से मुताल्लिक़ होता, हुकूमत से या रियासत का कोई भी मुआमला होता, आप رضي الله عنه औरतों और मर्द को मस्जिद बुलाते और राय लेते थे, और महर के मुआमला में आप رضي الله عنه ने एक औरत के मुख़ालिफ़त (विरोध) करने पर अपनी राय को छोड कर उस औरत की राय को माना ।
जिस तरह मुसलमानों को मजलिसे उम्मत में नुमाइंदगी का हक़ होता है इसी तरह ग़ैर मुस्लिमों को भी ये हक़ हाँसिल होता है कि वो ग़ैर मसलों की नुमाइंदगी करें और इस्लाम की किसी ग़लत ततबीक़ पर या उन पर होने वाले किसी ज़ुल्म को पेश करें।

अलबत्ता ग़ैर मुसलमानों को ये हक़ नहीं होता कि वो किसी शरई अहकाम के सिलसिले में अपनी राय पेश करें, क्योंकि इस्लामी शरीयत इस्लामी अक़ीदे से माख़ूज़ (प्राप्त) होती है यानी ये वो शरई अहकाम होते हैं जो इस्लाम के अदल्लियाये तफ़सीलीया से मुस्तंबित होते हैं और इंसानी मसाइल को एक ख़ास नुक़्ताये नज़र से देखते हैं, ऐसा नुक़्ताये नज़र से जो इस्लामी अक़ीदे से माख़ूज़ है, जबकि एक ग़ैर मुस्लिम का अक़ीदा इस्लामी अक़ीदा से टकराता  है और ज़िंदगी से मुताल्लिक़ उस का नज़रिया इस्लामी नज़रिया से बिल्कुल टकराता है, लिहाज़ा शरई अहकाम में उसकी राय नहीं ली जा सकती ।

मज़ीद ये कि किसी ग़ैर मुस्लिम को ख़लीफ़ा के इंतिख़ाब में दख़ल का कोई हक़ नहीं होता और ना ही ख़िलाफ़त के इंतिख़ाब के लिए उम्मीदवार तय करने में इनका कोई किरदार होता है क्योंकि उन्हें हुकूमत का हक़ नहीं होता। अलबत्ता मजलिसे उम्मत के बाक़ी अधिकार एक मुस्लिम ही की तरह होते हैं और अपनी राय रखने का अधिकार भी मुस्लिम ही की तरह होता है।

मजलिसे उम्मत की रुकनीयत (मेम्बरशिप) की मियाद:

मजलिसे उम्मत की रुकनीयत सीमित वक़्त के लिए होती है क्योंकि हुज़ूर صلى الله عليه وسلم ने जिन लोगों को राय के लिए ख़ास किया था, हज़रत अबु बक्र رضي الله عنه ने उन पर इक्तिफा (संतोष) नहीं किया। फिर हज़रत उमर رضي الله عنه ने भी उन लोगों पर इक्तिफा नहीं किया जो हज़रत अबु बक्र के ज़माने में मश्वरे के लिए ख़ास थे। हज़रत उमर رضي الله عنه ख़ुद भी जिन लोगों से अपने शुरूआती दौर में मश्वरा किया करते थे, अपने दौरे ख़िलाफत के आख़िर में दूसरे लोगों से मश्वरा किया करते थे। इससे साबित होता है कि मजलिसे उम्मत की रुकनीयत एक तय मुद्दत के लिए होती है। हम यहां ये तबन्नी करते हैं कि ये मियाद पाँच साल की होगी।

मजलिसे उम्मत के अधिकार:

मजलिसे उम्मत के अधिकार इस तरह के होते हैं:

1. (अ) ऐसे अमली मुआमलात (practical matters) में जो आंतरिक पालिसी में मुआमलात की निगरानी से मुताल्लिक़ हों जिनमें तहक़ीक़-ओ-तफ़तीश और गहरी फ़िक्र की ज़रूरत ना हो और जो अवाम की पुर सुकून ज़िंदगी के लिए ज़रूरी ख़िदमात बहम पहुंचाने से मुताल्लिक़ हूँ, जैसेकि हुकूमत के तालीम, सेहत, इक़तिसाद (economy) व तिजारत, उद्योग, ज़राअत (farming/खेती बाडी) वग़ैरा से मुताल्लिक़ मुआमलात या उनकी बस्तीयों में सुरक्षा का ध्यान रखना या दुश्मन के ख़तरे के इज़ाला (निवारण) से मुताल्लिक़ हों। ख़लीफ़ा ऐसे मुआमलात में दी गई राय का पाबंद होता है और अक्सरीयत की राय ही लागू करने काबिल होती है।

(ब) ऐसे फ़िक्री मुआमलात (intellectual matters) जिनमें गहरी छानबीन और ग़ोर-ओ-फ़िक्र दरकार हो जैसे हक़ायक़ (तथ्यों/ facts) की तफ़तीश या जंग का ऐलान। ये ऐसे मुआमलात होते हैं जिनमें महारत, इल्म और तजुर्बे की ज़रूरत होती है, जैसे कि जंगी मंसूबे तैयार करना, फ़न्नी (Technical) या अमली मुआमलात। ये ऐसे मुआमलात हैं जिनमें ख़ास महारत व तजुर्बे वालों की राय ज़रूरी होती है ना कि अक्सरीयत का मश्वरा। इसी तरह मालीयाती (financial) मुआमलात, फौजी मुआमलात और ख़ारिजा पालिसी (foreign policy) से मुताल्लिक़ मुआमलात भी आते हैं जो ख़लीफ़ा अहकामे शरीयत के मुताबिक़ अपनी राय और इसके इज्तिहाद से सँभालता है ना कि मजलिसे उम्मत की राय से। हाँलाकि ख़लीफ़ा को ये अधिकार होता है कि वो मजलिसे उम्मत से इनमें मश्वरा करे लेकिन फिर अपनी ही राय पर क़ायम रहे। और मजलिस भी अपनी राय पेश कर सकती है लेकिन इन मुआमलात में मजलिस की राय का मान लिया जाना लाज़िमी नहीं होता।

2. क़ानूनसाज़ी में मजलिसे उम्मत की राय नहीं ली जाती, क़ानूनसाज़ी या तशरीअ के लिए किताबुल्लाह, सुन्नत नबवी, जो हिदायत सहाबाऐ किराम के इजमे से मिले और शरई क़ियास ही माख़ज़ (source) होते हैं, और सही इज्तिहाद के ज़रीये इन ही से इस्तिदलाल किया जाता है, और क़वानीन जारी करने और अहकामे शरीयत की तबन्नी के लिए यही मसादिर व माख़ज़ बुनियाद होते हैं। ख़लीफ़ा को ये अधिकार है कि वो उन अहकाम और क़वानीन को मजलिसे उम्मत के रूबरू पेश करे जिन्हें वो तबन्नी करने का इरादा रखता है और मजलिस के मुसलमान अराकीन उन पर ग़ौर करें कि आया इनमें क्या सवाब और ख़ता है। फिर अगर इसके दलायल या इस्तिंबात की सेहत में वो मतभेद करें कि ये अहकाम और क़वानीन रियासत के तबन्नी शूदा उसूले शरई से भिन्न हैं, तो ये मुआमला विभाग मज़ालिम से रुजू किया जाएगा और महकमाऐ मज़ालिम की राय मुलज़म (अनिवार्य) होगी।

3. मजलिसे उम्मत को ये हक़ होगा कि वो रियासत में किसी भी अमल पर जो अंजाम पाए, इस पर ख़लीफ़ा का मुहासिबा करें, चाहे ये मुआमलात दाख़िली (आंतरिक) हों, ख़ारिजी (बाहरी) हों, मालियात (finance) से मुताल्लिक़ हों या अस्करी नौईयत के हों वग़ैरा। उन मुआमलात में जहां अक्सरीयत की राय ज़रूरी हो, वहाँ मजलिस की राय भी ज़रूरी होगी और जिन मुआमलात में अक्सरीयत की राय ज़रूरी नहीं होती इनमें मजलिस की राय भी ज़रूरी नहीं होगी।

अगर मजलिसे उम्मत ख़लीफ़ा से किसी ऐसे मुआमले की शरई हैसियत में मतभेद करे जो अंजाम पा चुका है, तो ऐसा मुआमला महकमाऐ मज़ालिम से रुजू किया जाएगा ताकि उसकी शरई हैसियत तय हो सके। फिर महकमाऐ मज़ालिम की राय का पालन किया जायेगा ।

4. मजलिसे उम्मत को हक़ हाँसिल होता है कि वो मुआविनीन, वालियों और उम्माल (mayors) से अपनी नापसंदीदगी का इज़हार करे, इस में अक्सरीयत की राय ही काबिले निफाज़ होगी और ख़लीफ़ा उनको फ़ौरन बर्ख़ास्त करने का पाबंद होगा। अगर इस रज़ा या शिकायत में मजलिसे उम्मत की राय उस ख़ास विलायत की मजलिस की राय से भिन्न हो तो मजलिसे विलायत की राय को तर्जीह दी जाएगी।

5. मजलिस के मुस्लिम अराकीन को ये हक़ हाँसिल होगा कि वो महकमाऐ मज़ालिम की तरफ से जिन अश्ख़ास को ख़िलाफ़त की शर्तों में सालिह (Eligible) क़रार दिया जा चुका है, इनमें से कुछ को ख़िलाफ़त के उम्मीदवार की हैसियत से नामज़द करें। अब ये मजलिस पर निर्भर है कि वो छः उम्मीदवार नामज़द करे या दो जैसा कि ख़लीफ़ा के चयन के अंतर्गत आया है। इस विषय में मजलिस की अक्सरीयत की राय काबिले निफाज़ होगी और मजलिस के ज़रीये नामज़द उम्मीदवारों के अलावा किसी और की नामज़दगी क़बूल नहीं की जाएगी।
ये मजलिसे उम्मतके अधिकार हुए जिनके दलायल निम्नलिखित हैं।

पहला बिन्दु, (अ): अमली मुआमलात में और उन मुआमलात में जिनमें तहक़ीक़ और तफ़तीश लाज़िमी ना हो, इनमें मजलिसे उम्मत की राय का अपनाया जाना हुज़ूर صلى الله عليه وسلم के इस फे़अल से माख़ूज़ है कि आप صلى الله عليه وسلم ने बावजूद अपनी और बडे सहाबा की राय मदीने के अन्दर रह कर मुक़ाबला करने की थी, आप صلى الله عليه وسلم ने अक्सरीयत की राय को क़बूल फ़रमाया और जंगे उहद के लिए शहर से बाहर जा कर मुक़ाबला आराई की।और हुज़ूर ने हज़रत अबुबक्र رضي الله عنه और हज़रत उमर رضي الله عنه से फ़रमाया:

((لو اجتمعتا فی مشورۃ ما خالفتکما))
अगर तुम लोग मश्वरे में एक राय पर मुत्तफ़िक़ होते, तो मैं इसके ख़िलाफ़ ना करता

लिहाज़ा वो अमली मुआमलात जो जनता को उनकी बेहतर और पुर सुकून ज़िंदगी के लिए सहूलियात मुहैय्या करने से मुताल्लिक़ हो या सुरक्षा या अवाम की बस्तीयों को ख़तरात से महफ़ूज़ रखने से मुताल्लिक़ हो, इनमें मजलिस की अक्सरीयत की राय ही काबिले निफाज़ होगी और ख़लीफ़ा बावजूद अपनी पसंद के इस राय का पाबंद होगा जैसा कि हुज़ूर अक़्दस صلى الله عليه وسلم ने अपनी राय भिन्न होने के बावजूद मदीने से बाहर उहद के मैदान में आकर जंग की क्योंकि ये अक्सरीयत की राय थी।

पहला बिन्दु, (ब): इस विषय में असल ये है कि ख़लीफ़ा राय के लिए औलमा, ख़ास तजुर्बा रखने वाले और माहिरीन से रुजू करे जैसा कि हुज़ूर अक़्दस صلى الله عليه وسلم ने जंगे बद्र के वक़्त मुनासिब जगह चुनने के लिए अल हब्बाब इब्ने मुंज़िर رضي الله عنه की राय ली, सीरत इब्ने हिशाम में आता है:

जब क़ाफ़िला बद्र के मुक़ाम पर पानी से निचले हिस्से पर पहुंचा और वहाँ रुकने लगा तो हज़रत हब्बाब इब्ने मुंज़िर رضي الله عنه को ये जगह पसंद ना आई और उन्होंने हुज़ूर अक़्दस صلى الله عليه وسلم से कहा कि ऐ अल्लाह के रसूल, इस जगह जो क़ियाम किया गया है तो क्या ये हुक्म इलाही से है कि हम इसको छोड़कर दूसरी जगह क़ियाम नहीं कर सकते या ये क़ियाम जंगी मस्लिहत के लिहाज़ से है। हुज़ूर अक़्दस صلى الله عليه وسلم  ने फ़रमाया, हाँ ये जंगी मस्लिहत के ख़्याल से ही है। हज़रत हब्बाब  ने कहा कि ये मुक़ाम जंगी मस्लिहत के एतबार से ठीक नहीं है, आप लश्कर को हुक्म दें कि उस पानी के पास जाकर क़ियाम करे जो कुफ़्फ़ार से नज़दीक है ताकि हम वहाँ हौज़ तैयार करके पानी से भर लें और पानी पर हमारा तसर्रुफ़ (अधिकार) हो ना कि दुश्मन का। हुज़ूरे अक़्दस صلى الله عليه وسلم  ने फ़रमाया तुम्हारी राय दुरुस्त है और फिर लश्कर को उधर ले आए जो पानी से क़रीब थी और वहाँ एक बड़ा हौज़ बना कर पानी से भर लिया और पानी के बर्तन इस में डालने लगे। चुनांचे हुज़ूरे अकरम  صلى الله عليه وسلم ने हज़रत हब्बाब رضي الله عنه की राय सुनी और उसको अपनाया।

इस वाक़िये में जो राय, जंग और मंसूबा बंदी से मुताल्लिक़ था, इस में लोगों की राय की कोई वक़ात (value) ना थी बल्कि इस में एक तजुर्बेकार की राय ली गई। इसी तरह फ़न्नी मुआमलात (technical matters) और वो इख्तिसासी मुआमलात (special matters) भी हैं जिनमें फ़िक्र और छानबीन की ज़रूरत होती है, इनमें ख़ास तजुर्बेकार और माहिरीन से रुजू किया जाना होता है ना कि लोगों की राय से, क्योंकि इनमें अक्सरीयत की राय का कोई दख़ल नहीं, यहां वक़ात जानकारी, तजुर्बे और महारत की ही होती है।

यही मुआमला मालीयाती मुआमलात (financial matters) का भी है, क्योंकि शरीयत ने अम्वाल (funds) को हाँसिल और इसके ख़र्च किए जाने की जगह तय की हैं। शरीयत ने ये भी मुतय्यन कर दिया है कि ज़राइब (Taxes) कब वसूल किए जाएं और इस में व्यक्ति की राय का ना माल की वसूली के बारे में और ना ही उनके ख़र्च किए जाने के लिहाज़ से कोई दख़ल नहीं होता है। अस्करी मुआमलात भी इसी की तरह हैं, शरीयत ने इन मुआमलात की तदबीर ख़लीफ़ा की ज़िम्मेदारी में सौंपी हैं।और अहकामे जिहाद भी मुतय्यन हैं और शरीयत के फ़ैसले के बाद अफ़राद की राय की कुछ हैसियत नहीं रहती। रियासते इस्लामी के दूसरे देशों के साथ ताल्लुक़ात और रिश्ते भी इसी के तहत आते हैं क्योंकि ये वो मुआमलात हैं जिनमें अच्छी तदबीर (योजना) और ग़ौर-ओ-फ़िक्र की ज़रूरत होती है और ये मुआमला जिहाद से जुडा है और मज़ीद ये कि ये जंग, मंसूबा बंदी और अच्छी योजना का विषय है लिहाज़ा इस में लोगों की राय या उसकी अक्सरीयत या अक़ल्लीयत (minority) का कुछ एतबार नहीं। अलबत्ता ये ख़लीफ़ा का अधिकार है कि वो इस में मश्वरे के लिए मजलिसे उम्मत को पेश करे, क्योंकि इस में राय हाँसिल करना एक मुबाह मुआमला है। बहरहाल मजलिसे उम्मत की राय जैसा कि हम जंगे बद्र के वाक़िया में देख चुके हैं मल्ज़ूम (अनिवार्य) नहीं होगी, बल्कि फ़ैसले का अधिकार साहबे इख़्तियार ही को होगा।

इस पहले बिन्दु की दोनों सूरतों यानी (अ) और (ब) के बीच फर्क़ को और समझने की ग़रज़ से हम मज़ीद ये इज़ाफ़ा कर सकते हैं:

जैसेकि कोई गांव या क़ुर्या जो नदी या नहर के पार होने की वजह से आने जाने के लिहाज़ से बाक़ी इलाक़ों से कटा हुआ हो और इस नदी पर पुल (Bridge) बनाया जाना हो। इस मुआमले में ख़लीफ़ा मजलिसे उम्मत की अक्सरीयत की राय का पाबंद होगा लेकिन ऐसे मुआमलात जो फ़न्नी (Technical) क़िस्म के हों जैसे पुल बनाने के लिए मौज़ूं (उपयुक्त) मुक़ाम या ये कि पुल आया मुअल्लक़ (Suspended) हो या इसके पाए (pillars) पानी के अन्दर हों या इस का नक़्शा व फासला क्या हो वग़ैरा, ये तमाम मुआमलात ऐसे हैं जिनमें ख़लीफ़ा ख़ास महारत रखने वाले माहिरीन से रुजू करेगा ना कि मजलिस की अक्सरीयत से।
इसी तरह ऐसे गांव में मुदर्रिसा (school) क़ायम करने का मुआमला है जहां के तलबा (छात्रों) को शहर के स्कूल पहुंचने में दुशवारी पेश आती हो। यहां भी ख़लीफ़ा मजलिसे उम्मत की अक्सरीयत का पाबन्द होगा, जबकि मुदर्रिसा के लिए ऐसे मौज़ूं मुक़ाम का चुनाव करना जहां की मिट्टी पर मुदर्रिसा क़ायम किया जा सकता है और इमारत का बनाया जाना या बनी हुई इमारत का ख़रीद करना या फिर किराया पर लिया जाना वग़ैरा वो मुआमलात हैं जिनमें ख़लीफ़ा माहिरों से मश्वरा करेगा ना कि मजलिस की अक्सरीयत से, गो कि वो उनसे मश्वरा तलब कर सकता है लेकिन बहरहाल मजलिस की राय अपनाई नहीं जायेगी ।

ऐसा ही मुआमला किसी ऐसी बस्ती का होगा जो दुश्मन की सरहद के नज़दीक हो, इस बस्ती को दुश्मन के ख़तरे से महफ़ूज़ रखने इसे दुश्मन के लिए आसान लुक़मा ना बनाने के लिए इसके आस पास सीमाबंदी के मुआमले में ख़लीफ़ा अक्सरीयत की राय का पाबंद होगा। लेकिन इस सीमाबंदी की क्या कैफ़ीयत हो और दुश्मन के ख़तरे से निपटने के लिए क्या साधन अपनाये जाएं इनमें ख़लीफ़ा माहिरीन और अस्हाबे इख़तिसास (specialized people) से रुजू करेगा ना कि मजलिस की अक्सरीयत से। 

वग़ैरा

दूसरा बिन्दु: क़ानूनसाज़ी का हक़ सिर्फ़ अल्लाह को है, अल्लाह इरशाद फरमाता है:
إِنِ ٱلۡحُكۡمُ إِلَّا لِلَّهِۚ
हुक्म किसी का नहीं सिवाये अल्लाह के (तर्जुमा माअनीये क़ुरआन: यूसुफ-40)
فَلَا وَرَبِّكَ لَا يُؤۡمِنُونَ حَتَّىٰ يُحَكِّمُوكَ فِيمَا شَجَرَ بَيۡنَهُمۡ ثُمَّ لَا يَجِدُواْ فِىٓ أَنفُسِہِمۡ حَرَجً۬ا مِّمَّا قَضَيۡتَ وَيُسَلِّمُواْ تَسۡلِيمً۬ا

पस तुम्हें तुम्हारे रब की क़सम! ये मोमिन नहीं हो सकते, जब तक कि उनके बीच जो झगडा हो, उस में ये तुम से फ़ैसला ना करायें, फिर तुम जो फ़ैसला कर दो इस पर ये अपने दिल में कोई तंगी भी ना पायें, और पूरी तरह तस्लीम कर लें (तर्जुमा माअनीये क़ुरआन:अन्निसा-65)

और सूरह तौबा की इस आयत को देखिए:

ٱتَّخَذُوٓاْ أَحۡبَارَهُمۡ وَرُهۡبَـٰنَهُمۡ أَرۡبَابً۬ا مِّن دُونِ ٱللَّهِ
उन लोगों ने अल्लाह को छोड़कर अपने आलिमों और दरवेशों को रब बना लिया है,
(तर्जुमा माअनीये क़ुरआन:अत्तौबा-31)

इस आयत की तफ्सीर तिरमिज़ी शरीफ़ की हदीस में आती है जो हज़रत अदी इब्ने हातिम رضي الله عنه से मर्वी है, वो कहते हैं कि मैं हुज़ूरे अक़्दस صلى الله عليه وسلم के पास आया और मेरे गले में सोने की सलीब थी, आप صلى الله عليه وسلم ने मुझे हुक्म दिया कि ऐ अदी उस बुत को अपने से अलग कर दो, उस वक़्त आप صلى الله عليه وسلم  सूरह तौबा यह की आयत तिलावत कर रहे थे। फिर आप ने फ़रमाया:

((أما إنھم لم یکونوا یعبدونھم،ولکنَّھم کانوا إذا أحلوا لھم شیئاً استحلوہ، و إذا حرموا علیھم شیئاً حرموہ))

गो कि वो लोग (यहूद व नसारा) औलमा और दरवेशों की बाक़ायदा इबादत तो नहीं करते थे, लेकिन बहरहाल जब वह औलमा व दरवेश किसी हराम चीज़ को उनके लिए हलाल क़रार देते तो लोग उसे हलाल मान लेते थे और जब वो औलमा व दरवेश किसी हलाल चीज़ को हराम क़रार दे देते तो लोग उसको अपने लिए हराम मान लेते थे।

चुनांचे क़ानूनसाज़ी का माख़ुज़ ना मजलिस की राय, ना उसकी अक्सरीयत और ना ही इस का इजमा हो सकता है। क़ानूनसाज़ी तो बस क़ुरआन, अल्लाह के रसूल की सुन्नत और जिस तरफ़ सही इज्तिहाद रहनुमाई करे वही हो सकता है। यही वजह है कि आप صلى الله عليه وسلم ने सुलह हुदैबिया के मौक़े पर मुसलमानों की अक्सरीयत की राय को एहमीयत नहीं दी बल्कि फ़रमाया: मैं अल्लाह का बंदा और उसका रसूल हूँ और इसके हुक्म की ख़िलाफ़वरज़ी हरगिज़ नहीं कर सकता, क्योंकि दरअसल ये सुलह अल्लाह (سبحانه وتعال) की तरफ से वही थी और ये लोगों की राय का मौज़ू (विषय) नहीं होता। इसी बुनियाद पर शरई अहकाम की तबन्नी की जाएगी और क़वानीन जारी किए जाऐंगे और उन्हें अधिकार किया जाएगा और जैसा कि पहले हम बेहस कर चुके हैं ये सिर्फ़ ख़लीफ़ा का अधिकार होता है।अलबत्ता इस सब के बावजूद ये ख़लीफ़ा का अधिकार है कि वो इन क़वानीन को मजलिसे उम्मत के रूबरू पेश करे और उनकी राय जाने जैसा कि हज़रत उमर इब्ने ख़त्ताब رضي الله عنه का तरीक़ा था कि वो अहकामे शरीयत तबन्नी करने के लिए मुसलमानों से मश्वरा करते थे और सहाबाऐ किराम رضی اللہ عنھم ने उसकी मुख़ालिफ़त नहीं की थी। ईराक़ की फ़तह करदा ज़मीन को जब मुस्लिम फ़ौजी सिपाहीयों में बाँटने की मांग की गई तो आप رضی اللہ عنھم ने लोगों से मश्वरा किया लेकिन अपनी राय पर क़ायम रहे और फ़ैसला किया कि ज़मीन को इसके मालिकों ही के पास रहने दिया जाये और उनसे उन पर आइद जिज़िये के अलावा एक तय ख़िराज लिया जाये। इस तरह हज़रत उमर رضي الله عنه का और उनसे पहले हज़रत अबुबक्र رضي الله عنه का लोगों से अहकामे शरीयत में मश्वरे के लिए रुजू करना और तमाम सहाबा का इस रुजू की मुख़ालिफ़त ना करना रुजू के जवाज़ के लिए सहाबाऐ किराम का इजमा ठहरा।

ऐसे मुआमलात जिनमें ख़लीफ़ा और मजलिसे उम्मत के बीच क़वानीन के इस्तिंबात के सही होने या रियासत के तबन्नी शूदा उसूले इस्तिंबात से दलील होने के मौज़ू पर अगर मतभेद हो जाये तो क़ाज़ीऐ मज़ालिम को ही इस बात का हक़ होता है कि वो ख़लीफ़ा के ज़रीया तबन्नी शूदा अहकाम और क़वानीन का मुतालाअ (अध्ययन) करे कि क्या इन क़वानीन की दलील शरई है? और क्या ये दलील उस ख़ास वाक़िये पर मुंतबिक़ (लागू) होती है? ये क़ाज़ीऐ मज़ालिम ही की ख़ासियत (speciality) होती है और इस ही की राय मल्ज़ूम यानी Binding होती है।

मजलिसे उम्मत के ग़ैर मुस्लिम सदस्यों को ऐसे अहकाम में जो ख़लीफ़ा अपनाना चाहता हो किसी दख़ल की गुंजाइश नहीं होती क्योंकि उनका इस्लाम पर ईमान नहीं होता। उनका तो ये हक़ होता है कि वो शासकों की तरफ से होने वाले किसी ज़ुल्म की शिकायत पेश क रस कें ना कि शरई क़वानीन और अहकाम के बारे में अपनी राय दें।

तीसरा बिन्दु: इसकी दलील नसे हदीस से पता चलती है जो शासकों के मुहासिबे से मुताल्लिक़ है। मुसनद अहमद में हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने उमर رضي الله عنه से रिवायत वारिद होती है कि हुज़ूर अक़्दस صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया:

((سیکونون علیکم أمراء یأمرونکم بما لا یفعلون فمن صدقھم بکذبھم وأعانھم علی ظلمھم فلیس مني و لست منہ و لن یرد عليّ الحوض))
तुम पर ऐसे अमीर और हुक्काम होंगे जो तुम को उन बातों का हुक्म देंगे जो ख़ुद ना करते होंगे, फिर जिस ने उनके झूट पर सच होने की शहादत दी और उनके ज़ुल्म करने में इनका मददगार बना तो उस का मुझ से कोई ताल्लुक़ नहीं और ना मेरा उससे कुछ वास्ता रहा, वो मेरे पास हौज़े कौसर पर ना आएगा।

और मुसनद अहमद में हज़रत अबु सईद अलख़दरी رضي الله عنه  से नक़ल किया है, वो कहते हैं कि हुज़ूर صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया:

((۔۔۔کلمۃ الحق عند سلطان أفضل الجھاد جائر))
ज़ालिम सुल्तान के सामने हक़ बात कहना बेहतरीन जिहाद है।

हाकिम ने हज़रत जाबिर رحمت اللہ علیہ से हदीस नक़ल की है, हुज़ूरे अकरम  صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया:

((سید الشھداء حمزۃ بن عبد المطلب،ورجل قام إلی إمام جائر فأمرہ و نھاہ فقتلہ))
शुहदा के सरदार (हज़रत) हमज़ा इब्ने अब्दुल मुतल्लिब हैं और वो शख़्स है जो एक ज़ालिम बादशाह के सामने खड़ा हो और उसे अच्छाई का हुक्म दे और बुराई से रोके और फिर वो क़त्ल कर दिया जाये।

मुस्लिम शरीफ़ ही में हज़रत उम्मे सलमा رضي الله عنها से रिवायत नक़ल की है कि हुज़ूरे अकरम  صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया:

(( ستکون أمراء فتعرفون وتنکرون،فمن عرف برء،ومن أنکر سلم ولکن رضي وتابع۔۔۔،))
ऐसे उमरा (शासक) होंगे (जिनके कुछ काबिले एतराज़ कामों को तुम पहचानोगे) और कुछ (के मानने) से इंकार करोगे, सौ जो पहचान जाएगा वो गुनाह से बरी हुआ और जिस ने (वो बुराई) मानने से इंकार किया वो महफ़ूज़ हो गया, लेकिन जो इन कामों से राज़ी हो गया और इत्तिबा की (वो महफ़ूज़ ना रहा)

इन तमाम नुसूस से साबित होता है कि मुहासिबा किसी भी अमल का किया जा सकता है। मजलिसे उम्मत ख़लीफ़ा, मुआविनीन, वाली और उम्माल (mayors) सब का किसी भी अंजाम पा जाने वाले अमल पर मुहासिबा कर सकते हैं। ये मुहासिबा किसी ग़लती पर भी हो सकता है और किसी हुक्मे शरई की ख़िलाफ़वरज़ी पर भी हो सकता है, या इस बिना पर भी हो सकता है कि इस अमल से मुसलमानों को नुक़्सान हुआ हो, अवाम पर ज़ुल्म हुआ हो या रियाया के मुआमलात की निगरानी में कोताही हुई हो ख़लीफ़ा पर वाजिब हो जाता है कि वो इस मुहासिबे और एतराज़ात के जवाब उन कामों और अधिकारों पर अपना मौक़िफ़ (रवैय्या) साफ और अपनी हुज्जत पेश करे ताकि मजलिसे उम्मत मुतमइन हो सके । इस सूरत में जब मजलिसे उम्मत ख़लीफ़ा के ज़ावीए- नज़र (दृष्टीकोण) को या इसके दलायल को क़बूल नहीं करती, तो अगर ये वो मुआमलात हैं जिनमें अक्सरीयत की राय लागू करने के लायक़ है तो ख़लीफ़ा मजलिस की इस राय का पाबंद होगा जैसे कि वो मुआमलात जो ऊपर पहले बिन्दु के (अ) में गुज़रे। इसके विपरीत अगर ये वो मुआमलात हैं (जैसेकि वो मुआमलात जो पहले बिन्दु के हिस्सा (ब) में गुज़रे) जिनमें अक्सरीयत की राय लागू करने के क़ाबिल नहीं तो इन मुआमलात में मजलिस की राय का ख़लीफ़ा पाबंद नहीं होगा। जैसा कि पिछ्ली मिसाल में देखा, कि अगर मुहासिबा इस बात पर किया जा रहा हो कि स्कूल क्यों नहीं है? तो इस मुहासिबा पर अक्सरीयत की राय ही मानी जायेगी, लेकिन अगर मुहासिबा इस बात पर किया जा रहा हो कि बनने वाले स्कूल की शक्ल ऐसी क्यों है दूसरी तरह की क्यों नहीं? तो ये मुहासिबा क़ाबिले क़बूल नहीं।

मज़ीद ये कि अगर मुहासिबा करने वाले किसी मुआमले में शासक से इसके शरई होने के एतबार से मतभेद करते हैं तो फिर ये मुआमला मजलिसे उम्मत के ज़रीये महकमाऐ मज़ालिम से रुजू किया जाएगा, क्योंकि अल्लाह (سبحانه وتعال) का फ़रमान है :

يَـٰٓأَيُّہَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُواْ ٱلرَّسُولَ وَأُوْلِى ٱلۡأَمۡرِ مِنكُمۡۖ فَإِن تَنَـٰزَعۡتُمۡ فِى شَىۡءٍ۬ فَرُدُّوهُ إِلَى ٱللَّهِ وَٱلرَّسُولِ

ऐ लोगो जो ईमान लाए हो अल्लाह की इताअत करो और रसूल की इताअत करो और उनकी जो तुम में साहिबे अम्र हैं। फिर अगर किसी चीज़ में तुम्हारा झगडा हो जाये तो, उसे अल्लाह और रसूल की तरफ़ लौटा दो। (तर्जुमा माअनीये क़ुरआन:अन्निसा-59)

यानी अगर मुसलमानों और हुक्काम (शासकों) के बीच कोई झगडा होता है तो उसे अल्लाह और इसके रसूल صلى الله عليه وسلم की तरफ़ लौटा दो या उनसे रुजू करो, यानी इस झगडे में अल्लाह और उसके रसूल के हुक्म को सालिस (मध्यस्त) बना लो, दूसरे अल्फाज़ों में इस में क़ज़ा से रुजू करो। लिहाज़ा ये मुआमला महकमाऐ मज़ालिम से रुजू किया जाएगा जिस की राय मानने के क़ाबिल होगी क्योंकि इन मुआमलात में वही ख़ास इल्म व महारत रखता है।
चोथा बिन्दु:  मजलिसे उम्मत के अधिकार के अंतर्गत चोथे बिन्दु की दलील ये है कि हुज़ूरे अकरम  صلى الله عليه وسلم ने अला इब्ने अलहज़रमी رضي الله عنه को बर्ख़ास्त फ़रमाया था जो बहरीन के आमिल थे, क्योंकि अब्दे केस के वफ्द ने हुज़ूर صلى الله عليه وسلم से शिकायत की थी। इब्ने साद, मुहम्मद इब्ने उमर की रिवायत नक़ल करते हैं:

(أن رسول اللّٰہ ا قد کتب إلی العلاء بن الحضرمی أن یقدم علیہ بعشرین رجلاً من عبد قیس،فقدم علیہ بعشرین رجلاً رأسھم عبداللہ بن عوف الأشجّ،واستخلف العلاء علی البحرین المنذر بن ساوی،فشکا الوفد العلاء بن الحضمری،فعزلہ رسول اللہؐ وولّی أبان بن سعید بن العاص،وقال لہ استوص بعبد القیس خیراً اأکرم سراتھم)

हुज़ूरे अकरम  صلى الله عليه وسلم ने अला इब्ने अलहज़रमी को लिखा कि वो अब्दे क़ैस के बीस लोगों के साथ आएं, अला इब्ने अलहज़रमी अपने पीछे मंज़र इब्ने सावी को अपना नायब मुक़र्रर कर के और बीस आदमीयों को अब्दुल्लाह इब्ने औफ़ अल अशज की क़ियादत में लेकर हुज़ूरे अकरम  صلى الله عليه وسلم के सामने हाज़िर हुए। वफ्द ने अला इब्ने अलहज़रमी की शिकायत की, हुज़ूर ने उन्हें बर्ख़ास्त कर दिया और इब्बान इब्ने सईद इब्ने उल आस رضي الله عنه को उनकी जगह बहरीन का वाली मुक़र्रर किया और उन्हें अब्दे क़ैस से अच्छा बरताओ करने और इसके सरदारों का एहतिराम करने की नसीहत फ़रमाई।

इसी तरह हज़रत उमर رضي الله عنه ने भी हज़रत साद इब्ने अबी वक़्क़ास رضي الله عنه को विलायत से सिर्फ शिकायत की बुनियाद पर बर्ख़ास्त फ़रमाया और कहा:

أنی لم أعزلہ عن عجز ولا عن خیانۃ
मैंने उन्हें उनकी किसी कमज़ोरी या ख़ियानत के सबब बर्ख़ास्त नहीं किया है।

ये इस बात की दलील है कि विलायत की जनता को ये हक़ है कि वो अपने उमरा या वालियों से किसी बात पर नाराज़ हों और अपनी नाराज़ी का इज़हार करें और ख़लीफ़ा इस बात का पाबंद है कि उन्हें बर्ख़ास्त कर दे। इसी तरह मजलिसे उम्मत जो कि तमाम विलायत में मुसलमानों की नुमाइंदा होती है उसे ये हक़ है कि वो वालियों और उम्माल से अपनी नाराज़ी का इज़हार करे, और मजलिसे विलायत या मजलिसे उम्मत की अक्सरीयत की शिकायत पर ख़लीफ़ा उन्हें फ़ौरन बर्ख़ास्त कर दे।फिर अगर मजलिस विलायत और मजलिसे उम्मत की राय में मतभेद हो, तो मजलिसे उम्मत की राय को तर्जीह दी जाएगी क्योंकि वो इस मुआमले में मजलिसे उम्मत से बेहतर वाली के हालात पर इल्म और नज़र रखते हैं।

पाँचवा बिन्दु: इस में दो जुदा जुदा सूरते हाल हो सकती हैं:

पहली सूरत ये कि ख़िलाफ़त के लिए उम्मीदवारों की फ़हरिस्त बनाना, और दूसरी सूरत ये कि इस फ़हरिस्त की तादाद को पहले छः और फिर दो तक सीमित करना।

पहली सूरत के ताल्लुक़ से जब ख़ुलफ़ाए राशिदीन के इंतिख़ाब (चयन) को देखा जाये तो स्पष्ट  हो जाता है कि इस में उम्मीदवार तय होते थे जो मुसलमानों की सीधे तौर पर नुमाइंदगी करते थे, या ख़लीफ़ा से माँग की जाती थी कि वो उम्मत की तरफ़ से उम्मीदवार तय कर दें।
लिहाज़ा सक़ीफाए बनी साअदह में देखा गया कि वहाँ हज़रत अबुबक्र, हज़रत उमर, हज़रत अबु उबैदा और हज़रत साद इब्ने उबादा رضی اللہ عنھم ख़िलाफ़त के उम्मीदवार या नामज़दगान (nominate) थे और उनके सिवा कोई और ख़िलाफ़त का उम्मीदवार नहीं था, यानी ख़िलाफ़त के नामज़द गान की फ़हरिस्त उन्हीं हज़रात तक सीमित थी। इस फ़हरिस्त पर बनू साअदा के लोग मुत्तफ़िक़ (सहमत) थे और इसके बाद सहाबाऐ किराम के इत्तिफ़ाक़ से हज़रत अबुबक्र पर बैअत हुई।

हज़रत अबुबक्र के आख़िरी ज़मानाये ख़िलाफ़त के दौरान मुसलमानों ने क़रीब तीन माह तक मश्वरे किए कि उनके बाद ख़लीफ़ा कौन बने। अपनी इस बातचीत के बाद हज़रत अबुबक्र की तरफ से हज़रत उमर की नामज़दगी पर मुत्तफ़िक़ हो गए, यानी इस में नामज़द की तादाद सिर्फ़ एक रही।

इस क़िस्म से ख़िलाफ़त के उम्मीदवारों की फ़हरिस्त सब से ज़्यादा स्पष्ट हज़रत उमर के ज़ख़्मी किए जाने के वक़्त हुई जब सहाबाऐ किराम ने उनसे माँग कि वो किसी को नामज़द करें तो हज़रत उमर ने छः अफ़राद को नामज़द फ़रमाया और जैसा कि मालूम है उन्होंने उसकी शिद्दत से ताकीद की।

हज़रत अली رضي الله عنه की नामज़दगी के वक़्त आप رضي الله عنه तन्हा उम्मीदवार थे और दूसरा कोई उम्मीदवार ना था, लिहाज़ा इस क़िस्म की कोई फ़हरिस्त नहीं थी।

ख़िलाफ़त के नामज़द गान की तादाद को इस तरह तमाम मुसलमानों के सामने सीमित किया जाता था, और क्योंकि ऐसा करने से दूसरे लोगों को अपनी उम्मीदवारी से रोक दिया जाता है, लिहाज़ा अगर ये अमल नाजायज़ होता तो सहाबाये किराम उसकी मुख़ालिफ़त (विरोध) करते और ये लागू ना हो पाता। चुनांचे ख़िलाफ़त के लिए उम्मीदवारों या नामज़दगान की तादाद का इस तरह सीमित कर दिया जाना सहाबाऐ किराम के इजमे से जायज़ क़रार पाता है। लिहाज़ा उम्मत या इसके नुमाइंदों को ये अधिकार हुआ कि वो ख़िलाफ़त के लिए उम्मीदवारों की तादाद को सीमित कर दें, चाहे ये काम उम्मत सीधे तौर पर करे या उम्मत की तरफ से पिछला ख़लीफ़ा।

अब जहां तक इस सीमित तादाद को शुरू में छः रखने की बात है तो ये हज़रत उमर رضي الله عنهके अमल की वजह से है और अगले मरहले में इस तादाद को मज़ीद कम कर के दो करना हज़रत अब्दुर्रहमान इब्ने औफ़ رضي الله عنه के अमल से मंसूब है। मज़ीद बरआं ये कि इससे मुसलमानों की अक्सरीयत की राय बामानी हो जाएगी क्योंकि अगर नामज़द गान की तादाद दो से ज़्यादा हो तो कामयाब उम्मीदवार वो होगा जिसको जैसेकि एक तिहाई या तीस फ़ीसद से कुछ ज़्यादा वोट हाँसिल हों, जो कि हक़ीक़ी अक्सरीयत यानी पच्चास फ़ीसद से कम है। इसके बरअक्स अगर उम्मीदवारों की तादाद दो तक ही हो तो कामयाब उम्मीदवार वास्तविक अक्सरीयत हाँसिल कर पाता है।

इस तरह नामज़द गान की तादाद को पहले छः और फिर दो तक सीमित रखना, जो मजलिसे उम्मत महकमतुल मज़ालिम की तरफ से उम्मीदवारों में शराईते इनएक़ाद (स्थापना की शर्त) मुकम्मल होने की शहादत के बाद तय करेगी, ताकि उम्मीदवारों में ख़िलाफ़त की शराईते इनएक़ाद के होने को यक़ीनी बनाया जा सके। लिहाज़ा महकमाऐ मज़ालिम ऐसे तमाम लोगों को इस फ़हरिस्त से ख़ारिज रखता है जिनमें इनइक़ादी शराइत पूरी ना होती हों ।इसके बाद मजलिस उम्मीदवारों की फ़हरिस्त तैयार करेगी।
ये पाँचवे बिन्दु के लिए दलायल हुए।

इज़हारे राय और बातचीत का हक़:

मजलिसे उम्मत के हर सदस्य को अपनी बात कहने और अपनी राय के, बगै़र किसी रुकावट के इन हदूद में जो शरीयत ने हलाल रखी हैं, इज़हार का हक़ होता है। एक सदस्य मुसलमानों की राय पेश करने और मुहासिबे में इनका नुमाइंदा होता है। ख़लीफ़ा या रियासत का कोई भी हाकिम या रियासत के किसी भी संस्था के मुलाज़िम के कामों पर बारीकी से निगाह रखना और उनका मुहासिबा करना और उन्हें सही मश्वरा देना, तजावीज़ (प्रस्ताव) रखना और उन पर चर्चा करना, हुकूमत के वो काम जो ग़लत हों उन पर एतराज़ात करना मजलिसे उम्मत के सदस्य के वाजिबात में दाख़िल है। सदस्य का ये अमल मुसलमानों की नियाबत में होता है, जिन्हें ये हुक्म है कि वो अच्छाई का हुक्म दें, बुराई से रोकें, शासकों का मुहासिबा (जवाब तलबी) करें और अपनी राय और तजावीज़ उन्हें दें। अल्लाह ने फ़रमाया है:

كُنتُمۡ خَيۡرَ أُمَّةٍ أُخۡرِجَتۡ لِلنَّاسِ تَأۡمُرُونَ بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَتَنۡهَوۡنَ عَنِ ٱلۡمُنڪَرِ وَتُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِۗ
तुम एक बेहतरीन उम्मत हो जो लोगों के सामने लाई गई, तुम भलाई का हुक्म देते हो और बुराई से रोकते हो। (तर्जुमा माअनीये क़ुरआन: आले इमरान -110)

और फ़रमाया:

ٱلَّذِينَ إِن مَّكَّنَّـٰهُمۡ فِى ٱلۡأَرۡضِ أَقَامُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتَوُاْ ٱلزَّڪَوٰةَ وَأَمَرُواْ بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَنَهَوۡاْ عَنِ ٱلۡمُنكَرِۗ
ये वो लोग हैं कि अगर ज़मीन में हम उन्हें इक़्तिदार अता करें, तो वो नमाज़ क़ायम करेंगे, और ज़कात देंगे और भलाई का हुक्म करेंगे और बुराई से रोकेंगे  (तर्जुमा माअनीये क़ुरआन:हज्ज-41)

और फ़रमाया:
وَلۡتَكُن مِّنكُمۡ أُمَّةٌ۬ يَدۡعُونَ إِلَى ٱلۡخَيۡرِ وَيَأۡمُرُونَ بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَيَنۡهَوۡنَ عَنِ ٱلۡمُنكَرِۚ
और तुम में एक ऐसी जमात ज़रूर होना चाहीए जो ख़ैर की तरफ़ बुलाए और नेकी का हुक्म दे और बुरे कामों से रोके  (तर्जुमा माअनीये क़ुरआन:आले इमरान -104)

और कई अहादीस वारिद हुई हैं जो अम्र बिल मारुफ़ और नही अनिल मुनकर (भलाई का हुक्म देना और बुराई से रोकने) की तरफ़ दलालत करती हैं, जैसेकि हुज़ूरे अकरम  صلى الله عليه وسلم का ये क़ौल जिसे मुसनद अहमद में हुज़ैफा رضي الله عنه से नक़ल किया है:
((والذي نفسی بیدہ لتامرنَّ بالمعروف ولتنھون عن المنکر أو لیوشکنّ َ اللہ أن یبعث علیکم عقاباً من عندہ،ثم لتدعنہ فلا یستجیب لکم))

क़सम है उस ज़ात की जिसके क़ब्ज़े में मेरी जान है, तुम्हें अच्छाई का हुक्म देना है और बुराई से रोकना है, वरना अल्लाह तुम पर ऐसा अज़ाब नाज़िल करेगा कि तुम उससे दुआ माँगोगे और वो सुनी नहीं जाएगी।

और ये क़ौल जिसे मुस्लिम शरीफ़ में हज़रत अबु सईद رضي الله عنه से नक़ल किया है:
((من رأی منکم منکراً فلیغیرہ بیدہ،فإن لم یستطع فبلسانہ، فإن لم یستطع فبقلبہ و ذلک أضعف الإیمان))
तुम में जो कोई मुनकिर देखे, वो उसे अपने हाथ से बदल दे, और अगर हाथ से ना बदल सके तो ज़बान से बदल दे और अगर ज़बान से भी ना बदल सके तो दिल से, और ये ईमान 
का सब से कम दर्जा है।

इन आयात और अहादीस में मुसलमानों को ये हुक्म दिया गया है कि वो मारूफ़ (भलाई) का हुक्म दें और मुनकिर (बुराई) से रोक दें, बल्कि शासकों के मुहासिबे के लिए खासतौर से अहादीस वारिद हुई हैं जिनमें हाकिम का मुहासिबा, हाकिम को मारूफ़ का हुक्म देना और बुराई से रोकने की एहमीयत है। उम्मे अतीया से हज़रत अबु सईद अल ख़ुदरी رضي الله عنه की रिवायत नक़ल है कि हुज़ूरे अकरम  صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया:
((أفضل الجھاد کلمۃ حق عند سلطان جائر))
ज़ालिम सुल्तान के सामने हक़ बात कहना बेहतरीन जिहाद है।

ये नस शासकों के मुहासिबें और उनके सामने हक़ बात कहने की एहमीयत के बारे में है, इसे बेहतरीन जिहाद कहा गया है। फिर उसकी तरफ़ ये कह कर तरग़ीब दिलाई है, बल्कि झंझोड़ा है कि चाहे क़त्ल कर दिए जाओ, जैसा कि हुज़ूरे अकरम  صلى الله عليه وسلم से सही हदीस में मर्वी है:

((سید الشھداء حمزۃ بن عبد المطلب،ورجل قام إلی إمام جائر فأمرہ و نھاہ فقتلہ))
शुहदा के सरदार (हज़रत) हमज़ा इब्ने अब्दुल मुतलिब رضي الله عنه और वो शख़्स है जो एक ज़ालिम बादशाह के सामने खड़ा हो और उसे (अच्छाई का) हुक्म दे और (बुराई से) रोके और फिर वो क़त्ल कर दिया जाये।

फिर जब हुज़ूरे अकरम  صلى الله عليه وسلم से सुलह हुदैबिया के वक़्त सहाबाऐ किराम ने सख़्त मुख़ालिफ़त की तो आप صلى الله عليه وسلم ने इस पर उनकी सरज़निश (फटकार) नहीं  फ़रमाई, सिर्फ उनकी राय को रद्द किया और सुलह नामे पर दस्तख़त फरमा दिए क्योंकि आप صلى الله عليه وسلم का फे़अल अल्लाह की वह्ही से था जिसमें अफ़राद की राय की कोई हैसियत नहीं होती।अलबत्ता आप ने सरज़निश इस बात पर फ़रमाई क्योंकि जब आप صلى الله عليه وسلم ने सहाबा को क़ुर्बानी के जानवर ज़िबह करने, अपने सर को मुन्ढवाने और एहराम उतार देने का हुक्म दिया तो सहाबा ने आप صلى الله عليه وسلم की इताअत नहीं की थी। इसके अलावा हज़रत हब्बाब इब्ने मुंज़िर رضي الله عنه ने बद्र के वक़्त उस जगह पर एतराज़ किया था जो आप صلى الله عليه وسلم ने पसंद की थी, तब भी आप صلى الله عليه وسلم ने उनकी सरज़निश नहीं फ़रमाई बल्कि उनकी राय तस्लीम की थी।

जंगे उहद के वक़्त भी हुज़ूरे अकरम  صلى الله عليه وسلم ने अक्सरीयत की राय को तस्लीम करते हुऐ क़ुरैश से जंग के लिए मदीना से बाहर आकर लड़ने का फ़ैसला किया, जबकि ख़ुद आप की राय इसके बरख़िलाफ़ थी। इन सब वाक़ियात के दौरान हुज़ूरे अकरम  صلى الله عليه وسلم लोगों के एतराज़ात को सुनते और जवाब देते रहे थे।

हुज़ूरे अकरम  صلى الله عليه وسلم के बाद भी सहाबाऐ किराम رضی اللہ عنھم ख़ुलफ़ाए राशिदीन का मुहासिबा करते रहे थे और इस पर ख़ुलफ़ाए राशिदीन ने कभी सहाबाऐ किराम को नहीं टोका । सहाबाऐ किराम ने हज़रत उमर رضي الله عنه पर उस वक़्त एतराज़ किया जब हज़रत उमर यमन से कपडों को तक़सीम कर रहे थे। इसी तरह एक औरत ने आप رضي الله عنه के महर ज़्यादा रखने से मना करने पर एतराज़ किया था। ईराक़ फ़तह होने के बाद वहाँ की ज़मीन फ़ौजीयों में तक़सीम ना करने से आप رضي الله عنه के इंकार पर भी आप رضي الله عنه का मुहासिबा और एतराज़ किया गया था जिसमें हज़रत बिलाल رضي الله عنه और हज़रत ज़ाबिर رضي الله عنه काफ़ी सख़्त गुस्सा भी हुए थे। इस सब के दौरान हज़रत उमर رضي الله عنه सहाबाऐ किराम से बातचीत और मश्वरा करते और उन्हें अपनी राय से मुतमइन करते रहते थे।

लिहाज़ा मजलिसे उम्मत के हर रुक्न को मुसलमानों का नुमाइंदा होने की हैसियत से ये हक़ है कि वो मजलिस में जैसे चाहे अपनी बात रखे, बगै़र किसी के रोके, बगै़र किसी क़िस्म के दबाओ के, और उसे ये हक़ है कि वो ख़लीफ़ा, मुआविनीन वालियों और रियासत के किसी भी मुलाज़िम का मुहासिबा करे और उन लोगों पर ये लाज़िम है कि वो इस का जवाब दें जब तक कि वो रुक्न अपनी राय रखने और उनके मुहासिबा करने में अहकाम शरई का पाबंद है।
और मजलिसे उम्मत के ग़ैर मुस्लिम अराकीन को भी ये हक़ हाँसिल होता है कि वह शासक के ज़ुल्म के बारे में अपनी राय को बगै़र किसी रोक टोक पेश करें, जब तक कि ये अमल शरई अहकाम के ज़िमन में है।



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